समाचार-पत्र में प्रकाशित सूचना पर दृष्टि ठहर गई थी-स्थानीय उद्योगपति सेठ कांतिलाल के सुपुत्र श्री नरेश की संदेहजनक परिस्थितियों में मृत्यु...............हत्यारे का सुराग नहीं............
हे भगवान, पारूल को यह भी सहना था। बरबस ही उसाँस निकल गई थी।
बड़े दादा की बेटी पारूल सबसे अलग निकली थी। संयुक्त परिवार के दरबेनुमा कमरे में न जाने कहाँ से उजाले की किरणें पकड़, पारूल ने सबको चमत्कृत कर दिया था। इन्टरमीडिएट परीक्षा में पूरे प्रान्त में पाँचवीं पोजीशन लाना कितनों को संभव होगा? पूरे शहर में पारूल पहले नम्बर पर थी। समाचार-पत्र वाले जब पारूल की फ़ोटो माँगने आए तब बड़े दादा को पुत्री की योग्यता का पता चला था।
क्षमा कीजिए हमारे यहाँ बहू-बेटियों के चित्र समाचार-पत्रों में छपवाने का चलन नही हैं। बड़े भइया ने पारूल की फ़ोटो देने से इन्कार कर दिया था।
पर आप यह क्यों नहीं सोचते यह चित्र औरों के लिए प्रेरणा बन सकता है। एक संवाददाता अड़ गया था।
हमें अपने घर की बात देखनी है, दूसरों का ठेका हम नहीं ले सकते। दृढ़ स्वर में अपनी बात कह, बड़े दादा ने उन्हें निरूत्तर कर दिया था।
बहिनों के प्रति अतिशय उदार बड़े दादा ने, अपनी बेटी को कठोर अनुशासन में रखा था। बाबा का लकड़ी का व्यापार खूब फैला था। नीचे दीवान पर गाव-तकिया लगाए बाबा, हिसाब-किताब पर कड़ी नजर रखते थे। चार पुत्र और चार पुत्रियों के पिता .रूप में बाबा पर भगवान की असीम कृपा थी।
बड़े दादा का उदार स्वभाव बाबा के एकदम प्रतिकूल था। उनसे छोटे विशन दादा की कॅंजूस प्रवृत्ति बाबा के स्वभाव से खूब मेल खाती थी। छोटे भाई किशन और बृजेश सब बहिनों से छोटे होने के कारण बाबा के विशेष दुलारे थे। बाबा के सामने ही बड़े दादा ने गृहस्थी की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले रखी थी। घर-परिवार को बड़े दादा के हाथ सौंप, निश्चिन्त बाबा ने सदा के लिए आँखें मूँद ली थीं।
बाबा का जाना इतना अचानक हुआ कि सब स्तब्ध रह गए थे, पर बड़े दादा के स्नेह ने किसी को एक पल भी यह महसूस न होने दिया कि बाबा की छत्र-छाया उनके सिर पर नहीं है।
बड़े दादा, बड़की दीदी की ससुराल से शादी का न्योता आया है। सामान भेजने को पाँच हजार चाहिए। विशन दादा निःसंकोच बड़े दादा से पैसा माँग एसारा श्रेय स्वयं ले लिया करते थ।
बड़े दादा ने भले ही स्वयं अपने ऊपर अधिक खर्च न लिया हो, परिवार वालों के लिए उनका हाथ सदैव खुला रहता था। विवाहिता बहिनें जब भी घर आतीं, बड़े दादा से पिता जैसा स्नेह पातीं। परिवार के सदस्यों को महावारी खर्चा मिलने के बावजूद, किसी भी कार्य के लिए बड़े दादा ही पैसों के लिए उत्तरदायी रहते थे।
उस घर में सरस्वती की अपेक्षा लक्ष्मी का अधिक महत्व था। ऐसे घर में जहाँ छोटी-बड़ी बुआएँ, हाईस्कूल पास करते न करते शादी कर घर बसा बैठी थीं, पारूल ने डाक्टर बनने का स्वप्न देखा था। बड़े दादा उसकी उच्च शिक्षा के विरोधी थे, पर पारूल के स्वप्न को उसकी माँ ने सहारा दिया था। बनारस के सुसंस्कृत परिवार की बेटी, बड़ी भाभी ने, बड़े दादा से शायद ही कभी कुछ माँगा हो, पर पारूल के लिए उन्होंने विनती की थी-
पारूल को हम खूब पढ़ाएंगे ................. उसकी रूचि पढ़ाई की ओर है।
बेकार की बात हैं। लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने-लिखाने से फ़ायदा?
पर वह तो डॉक्टर बनना चाहती है।
पागल हो गई हो, डाक्टर बनाकर उसे जिन्दगी भर कुँआरी रखना है। हमारी बिरादरी में कहाँ मिलेगा उसके लिए लड़का.................?
पर अब तो ज़माना बदल गया है अच्छे लड़के भी पढ़ी-लिखी लड़की खोजते हैं....।..
डाक्टर तो नहीं..। बड़े दादा का सीधा जवाब था।
हमारे घर के लड़के तो डाक्टर, इंजीनियर लड़कियाँ ही खोजते रहे...............।
”तुम्हारा घर तो अमरीका जा बसने लायक है। यहाँ रहेंगे और विदेशी ढंग अपनाएंगे। तभी तोअमारी अम्मा तुम्हारे घर वालों को म्लेच्छ..................।
अम्मा की बात छोड़िए, आप क्या कहते हैं? जिस नीति विचार से मैं रहती हूं, घर में कोई और बहू वैसे रह सकती है? बड़ी भाभी तीखी पड़ गई थीं।
सच ही, बड़ी भाभी ने अपना बड़प्पन हर जगह रखा था। सास की छूआछूत का निश्शब्द पालन करती बड़ी भाभी को देख उनके बनारस के घर वाले आश्चर्य में पड़ जाते।
पारूल को इन्टरमीडिएट में प्रवेश दिलाते बड़े दादा ने भाभी को चेतावनी दे डाली थी-
इन्टरमीडिएट के बाद पारूल की शादी करनी है, आगे पढ़ाना या न पढ़ाना उसके घर वालों की मर्जी पर होगा।“
भाभी मौन रह गई थीं।
पारूल ने बड़ी भाभी की शालीनता और बड़े दादा का सौंदर्य पाया था। उजली धूप-सा सुनहरा रंग और तीखे नयन-नक्श के कारण चार लड़कियों में अलग चमकती थी पारूल।
कालेज की परीक्षा में सब विषयों में डिस्टींक्शन ला पारूल ने प्राध्यापिकाओं और साथ की लड़कियों को विस्मित कर दिया था।
न जाने कहाँ का दिमाग पाया है लड़की ने, यह तो चलती-फिरती कम्प्यूटर है। प्राध्यापिकपाएँ आश्चर्य करतीं।
एक बार सुन ले तो भूलने का प्रश्न ही नहीं उठता, भई गजब की मेमोरी है पारूल की।
साथ की लड़कियाँ छेड़तीं-
ऐ पारूल अपनी खोपड़ी से थोड़ी-सी अक्ल हमें भी दे दे न। अक्ल का इतना भार लिए घूमती थक न जाएगी?
शान्त-सौम्य पारूल मुस्करा कर मौन रह जाती। अभिमान कभी उसके सिर पर चढ़ने का साहस न कर सका।
उस दिन अपने कमरे से निकल, बाल सुखाने पारूल छत पर पहुँच गई थी। अचानक एक कंकड़ी उसके पांव के पास आ गिरी थी। चौंक कर दृष्टि उठाते ही दूसरे घर की छत पर खड़ा संजीव दिखाई दिया था। पारूल से दृष्टि मिलते ही संजीव ने मुस्करा कर हाथ हिलाया था।
पिछले दो वर्षो से सामने वाले घर में संजीव का परिवार आ बसा था। संजीव के घर में धन-सम्पदा के स्थान पर विद्या-बुद्धि का अधिक महत्व था। बी0एस0सी0 की परीक्षा में फ़िजिक्स में सर्वोच्च अंक ले वह एम0एस0सी0 फ़ाइनल का मेधावी छात्र था।
बड़ी भाभी का उस घर में प्रायः आना-जाना होता था। संजीव की माँ स्थानीय स्कूल में शिक्षिका थीं और पिता म्यूनिसिपल कारपोरेशन में कार्य करते थे। संजीव के लिए उसके माता-पिता ने ढेर सारे सपने पाल रखे थे। भाभी को वह घर अपने बनारस वाले घर की याद दिला जाता था। ससुराल की चाहरदीवारी के बाहर जैसे खुली हवा में साँस लेने को, वह उस घर में जाती रहती थीं।
डपारूल अगर तुझे मेडिकल कॉलेज में दाखिला न मिला तो क्या करेगी? चिन्तित भाभी ने पूछा था।
एम0एस0सी0 करके प्रतियोगिताओं में भाग लूंगी, तुम्हारी तरह घर की चाहरदीवारी में बन्द होकर नहीं बैठूँगी, अम्मा।
पर वह तो लड़की की नियति है, पारूल................।
मैं अपनी नियति स्वयं निर्धारित करूँगी, माँ...............।
माँ-बेटी की बातें सुनती संजीव की माँ हॅंस पड़ी थीं।
इसीलिए संजीव कहता है पारूल में कुछ कर गुजरने की आग हैं, वह जो चाहेगी, पा लेगी..........।
संजीव पारुल को कैसे जानता है? बड़ी भाभी चौंक गईं।
संजीव की कजिन मीना, पारूल के साथ है न? शायद कभी उसने पारूल को कालेज डिबेट में भी बोलते सुना था।
ओह। भाभी आश्वस्त हो उठी थीं।
उस दिन से पारूल, संजीव को पहिचानने लगी थी। कभी कालेज आते-जाते दोनों का कुछ दूर तक साथ हो जाया करता था। एक दिन आगे बढ, संजीव ने परिचय भी बनाना चाहा था-
आपका पड़ोसी संजीव! माँ आपकी अच्छी प्रशंसिका हैं।
थैंक्स। कहती पारूल ने मुंह उठा कर संजीव को देखा तक नहीं।
सुना हैं आप मेडिसिन में जाना चाहती हैं?
जी।
मेरे बारे में कुछ नहीं जानना चाहेंगी?
जी नहीं।
क्यों?
क्योंकि अजनबियों से परिचय बढ़ाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं हैं।
इतने पास रहते भी हम अजनबी हैं?
जी हाँ, और पास आने की आपकी यह चेष्टा भी व्यर्थ है। पारूल तेजी से आगे बढ़ गई थी।
आज अचानक पाँव के पास आ गिरी कंकड़ी ने, पारूल की धमनियों का रक्त तीव्र कर दिया था। छत से भागकर, वह तेजी से सीढ़ियों से नीचे उतर गई।
क्या बात है पारूल, ऐसे भागती कहाँ से आ रही है? भाभी चौंक गईं।
जल्दी कुछ खाने को दो माँ, बहुत भूख लगी है............।
वाह री लड़की, वाह री तेरी भूख......। दादी भुनभुना उठी थी।
पारूल ने मेडिकल एंट्रेस की परीक्षा की तैयारी में अपने को भुला दिया था। पुस्तकों में सिर गड़ाए पारूल को देख, दादी रूष्ट हो उठ्तीं-
बहुत पढ़ा लिया बेटी को, अब उसे कुछ घर का काम-काज सिखाओ, बहू। खाली पढ़ाई से पेट नहीं भरता...............।
मांजी वह डाक्टर बनना चाहती है, उसके लिए तो कड़ी मेहनत करनी ही होगी।
हुँह! डाक्टर बनकर मुरदे ही तो चीरेगी। भाग्यवान है तुम्हारी बेटी। पिछले साल से सेठ कांतिलाल की पत्नी अपने बेटे नरेश के लिए पारूल को माँग रही है।
उस घर में पारूल का संबंध ठीक नहीं रहेगा मांजी...।
क्या कह रही हो बहू? हमारी बिरादरी में वैसा दूसरा घर खोजे न मिलेगा। धन-सम्पत्ति इतनी है कि सात पीढ़ियाँ आराम से बैठकर खा सकती हैं। सोने में मढ जाएगी हमारी पारूल।
पर मांजी, पारूल की रूचि दूसरी है। जेवर तो दूर, वह तो रंगीन कपड़े तक नहीं पहिनना चाहती। उसे तो बस किताबें चाहिएँ।
ज्यादा उम्र हो जाने पर अच्छा लड़का मिलने से रहा, बाद में मुझे दोष मत देना। हम बिरादरी से बाहर कोई नया ढंग तो शुरू नहीं कर सकते। तुम अपने मायके का चलन यहाँ न चलाओ, तुम्हारा घर तो.........। सास ने वाक्य अधूरा छोड़ मुंह बिचका, बहुत कुछ कह दिया था।
”अम्मा मुझे सोने के पिंजरे में बन्द नहीं होना है, मैं मर जाऊंगी।“
तू शांति से परीक्षा दे, मैं देख लूंगी, पारूल। बेटी के सिर पर स्नेहपूर्ण हाथ धरती भाभी के मुख पर दृढ़ता आ गई।
बचपन में भाभी ने भी बहुत आगे तक पढ़ने का सपना देखा था, पर पिता के आकस्मिक निधन ने उनके स्वप्न छिन्न-भिन्न कर दिये थे। माँ ने जल्दी-जल्दी बेटियों के विवाह कर अपने दायित्व पूर्ण कर लिए थे। आज उसी मायके में भाई खान्दानी लोहे का व्यवसाय छोड़ उच्च पदों पर आसीन हैं! पढ़ी-लिखी सुस्संकृत भाभियाँ, भाइयों के साथ गर्व से बाहर घूमती हैं। पारूल को डॉक्टर बनाना मानों भाभी के अपने छिन्न-भिन्न स्वप्न की पूर्ति थी।
पति की नाराजगी सहती भाभी की बार-बार की मनुहार पर, बड़े दादा पसीज गये थे, पर शर्त लगा दी पारूल को दूसरे शहर नहीं भेजा जायेगा, उसे वहीं स्थानीय मेडिकल में प्रवेश मिल जाये तो ठीक वर्ना उसे भाग्य पर भरोसा कर शाँत बैठना होगा।
पारूल की भगवान ने सुन ली, स्थानीय मेडिकल कालेज में उसे प्रवेश मिल गया था। पारूल को तो मानों पंख मिल गये। सफेद सलवार-कुरते के साथ, गुलाबी ओढ़नी में जब वह कॉलेज पहुंची तो उसके अनुपम सौंदर्य को निहारती कई जोड़ी आँखों के बीच पारूल संकुचित हो उठी थी।
चौदहवीं का चाँद है, यार।
शुभ्र सौंदर्य की स्वामिनी............. हम पर भी दृष्टि पड़ जाये तो कल्याण हो जाये।
अपने में सिमटी पारूल के कक्षा में पहुंचते ही हल्की फुसफुसाहटें शुरू हो गई थीं। सीनियर बैच के लड़के जूनियर बैच के भाग्य पर ईर्ष्या कर उठे थे-
काश वह उनके साथ होती.............।
कुछ ही दिनों में पारूल की धूम मच गई थी-अपरूप सौंदर्य के साथ बुद्धि की प्रखरता सोने में सुहागा थी।
मेडिकल कॉलेज के पीछे संजीव का फ़िजिक्स डिपार्टमेंट था। पारूल के बाहर आने पर संजीव प्रायः बाहर खड़ा उसकी प्रतीक्षा सी करता था। घर के लिए पारूल और उसकी एक ही बस होती थी। बस- स्टैंड से घर तक जाती पारूल से संजीव जबरन बातें करता जाता था-
जानती हैं आपके कॉलेज के साथियों ने आपको क्या खिताब दिया है? संजीव पूछता-
मुझे जानने की कतई इच्छा नहीं है।
वाह जानना तो जरूर चाहिए...........।
क्यो, मुझे किसी से कोई मतलब नहीं।
आपको वे सफेद कबूतरनी कहते हैं।
मुझे वह काला कौआ कहें या हॅंसिनी, जो हूं वही रहूंगी, समझे मिस्टर।
सच तो यही है, जो आप हैं, उसके के लिये इस संसार में कोई उपमान ही नहीं बना है। आप तो अनुपमा हैं।
शुक्रिया, एक बात और, रास्ता चलते, लोगों से बातचीत करना मेरा स्वभाव नहीं।
पर मेरी थिंकिंग दूसरी है। कभी-कभी साथ चलते व्यक्ति जीवन भर के लिए हमराही बन जाते हैं इसीलिए हमेशा अच्छा साथी ही खोजो। ठीक है न?
भगवान के लिये मुझे परेशान न करें। दुनिया बहुत बड़ी हैं, कोई दूसरा साथी खोज लें, मिस्टर संजीव। मुझे बख्श दें।
पर इतनी बड़ी दुनिया में मनपसंद साथी तो बस एक ही होता है और मेरी पसंद आप हैं।
बात आपकी पसंद भर से ही तो पूरी नहीं हो जाती-मुझे आप बेहद नापसंद हैं समझे। अब एकतरफ़ा पसंद से क्या फ़ायदा?
मुझे कोई नापसंद करे, ऐसा कुछ तो मुझमें नहीं है ,पारूल जी। इस वर्ष आई0ए0ए0 में क्वालीफाई कर जाऊं तो शायद सबसे अधिक वांछित पात्र बन जा।ऊंगा।
जिसे आई0ए0एस0 की आकांक्षा हो उसे खोजिए, मुझे तो ऐसे अधिकारी सरकारी पिट्ठू लगते हैं...........।
सच...........तुम्हें यह प्रोफेशन पसंद नहीं, पारूल?
कितनी बार कहना पड़ेगा आपके प्रोफेशन से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। पारूल झुँझला उठी।
मुझे तो तुम्हारी इच्छा-अनिच्छा देखकर ही जाँब लेना हैं, पारूल.............।
प्लीज स्टॉप दिस नॉनसेंस..................। क्रुद्धस्वर में संजीव को झिड़कती पारूल ने तेजी से पाँव बढ़ाये थे कि अचानक सड़क पर बने गए एक गढे में उसका बांयां पाँव जा पड़ा । बरसात ने सड़क के किनारे बेरहमी से गढे बना दिए थे। पीड़ा से पारूल कराह उठी थी। शायद पाँव मोच खा गया था। कष्ट से नयन छलछला आये । सीधे खड़े हो पाना कठिन लग रहा था, पाँव बढ़ाना तो असम्भव सा ही था। साथ चलते संजीव ने झुककर पारूल के पाँव पर अचानक ही हाथ धर चोट देखनी चाही थी-
बहुत चोट लग गई पारूल, चल तो सकोगी? संजीव के स्वर में बहुत अपनत्व और स्नेह था।
छोड़िए, मैं ठीक हूं। पारूल संकुचित हो उठी। दोनों के मुख झुके होने के कारण सामने से आ रहे बड़े दादा को कोई न देख सका था।
यह क्या तमाशा है? शर्म नहीं आती कॉलेज जाने के नाम पर यहाँ ये क्या हो रहा है। बड़े दादा लगभग चीख उठे।
इनके पाँव में मोच आ गई है, मैंने मदद करनी चाही थी। आपका पड़ोसी हूं........मैं।
अच्छा तो अपना पड़ोसी-धर्म यहाँ इस तरह निभाया जा रहा है? खबरदार जो आगे कभी मेरी बेटी के पास भी फटके। चल पारूल।।
सहमती पारूल बड़े दादा के साथ लंगड़ाती-कराहती चल दी थी।
घर आते ही बड़े दादा दहाड़ उठे -
आज से इस लड़की का कॉलेज जाना-आना बन्द। खबरदार जो बिना इजाजत घर के बाहर भी झांका.............।
क्या बात है? ये तेरे पैर में चोट कैसे लग गई, पारूल? भाभी चिन्तित हो उठीं।
प्रेम की पींगे भर रही थी तुम्हारी लाड़ली, गिरकर चोट तो लगनी ही थी। हजार बार समझाया लड़की जात को ज्यादा सिर न चढ़ाओ, पर तुम्हारे सिर पर तो बनारस वाले घर का भूत चढ़ा रहता है।
रोती-सिसकती पारूल ने माँ को सत्य घटना सुना दी थी। भाभी ने पति को लाख समझाना चाहा था पर उनका निर्णय अडिग रहा। संजीव की माँ के आ जाने से मानो आग में घी पड़ गया।
कैसी है पारूल बेटी-मुझे अभी-अभी संजीव ने बताया, तेरे पैर में चोट आ गई है।
देखिए बहिन जी हम पुराने विचारों के लोग हैं। आपके संजीव से मेरी बेटी की बातचीत भी हमें पसंद नहीं। वह नहीं माना तो अंजाम बुरा होगा। अच्छी तरह ये बात उसे समझा दीजिएगा।
यह क्या कह रहे हैं, भाई साहिब? मेरा संजीव कोई ऐसा-वैसा लड़का नहीं है। पड़ोसी के दुःख. कष्ट में मदद करना सबका धर्म है। लगता है आपको कोई गलतफ़हमी हो गई है। संजीव की माँ का मुख तमतमा आया था।
मुझे कोई गलतफ़हमी नहीं हुई। मेरी आँखों ने जो देखा वह झूठ नहीं है। आपके घर से हम नाता नहीं जोड़ सकते......जानती हैं मेरी ये इकलौती बेटी है, इसकी शादी में लाखों लुटा सकता हूं।
मेरे भी कोई दो-चार बेटे नहीं हैं, न ही आपके घर से संबंध जोड़ने की हमें कोई लालसा है। भगवान करे पारूल राजा के ही घर जाये पर रजवाड़ों की स्थिति से शायद आप परिचित नहीं हैं.।
मुझे क्या करना है क्या नहीं, जानता हूं। अच्छा तो अब क्षमा करें। बड़े दादा ने हाथ जोड़ दिये थे। भाभी का मुख काला पड़ गया था। अपने घर आये किसी अतिथि का वैसा अपमान उन्हें सह पाना कठिन था।
मुझे माफ़ करना करूणा बहिन ..........तुम्हारा अपमान मेरा अपमान हैं, मेरी बेटी को अपना आशीर्वाद ही देना, बहिन। भाभी के नयन भर आये थे।
पारूल को भाभी फिर कॉलेज भेज पाने में सफल न हो सकी थीं। बड़े दादा ने भाभी और पारूल की हर मनुहार ठुकरा दी थी। पारूल के आँसू नहीं थमते थे-
क्या किया है मैंने? क्यों मुझे दंड दिया जा रहा है? मुझे जाने दो माँ........।
संजीव ने कहलाया था-
तुम्हारा अपराधी मैं हूं । किसी तरह मेरे पास आ जाओ। सारे सपने सच कर दूंगा।
वे पंक्तियाँ पढ पारूल मौन रह गई थी। उस रूढ़िवादी परिवार में घर छोड़कर चले जाना, क्या उसे संभव था?
दादी ने उत्साहपूर्वक वर की खोज शुरू कर दी थी। सेठ कांतिलाल की पत्नी को मुंह-माँगी मुराद मिल गई। पुत्र नरेश का देर रात तक घर न आना, उन्हें भयभीत किये रहता था। घर पहुंचे नरेश की सांसों में ही नहीं शरीर में भी मदिरा ही महकती थी। लाड़ले बेटे की हर माँग पूरी करती माँ ने उस पर अंकुश ही कब लगाया था? सुन्दर पत्नी पा, उसकी आदतें छूट जाएँगी, यही सोच उन्होंने पारूल के लिए प्रस्ताव भिजवाया था।
बड़े दादा ने ज्यादा छान-बीन करने की कोशिश नहीं की थी। नरेश अच्छे खानदान का पढ़ा-लिखा लड़का था, और चाहिए भी क्या? बाप-दादा इतना कमा कर धर गये हैं कि पारूल राज करेगी। किसी बात की कमी न होगी उसे।
पारूल का रो-रो कर बुरा हाल था।
मेरा दम घुट जायेगा माँ, मुझे बचाओं।
बेटी के दुःख से द्रवित भाभी ने कई बार पति के सामने हाथ जोड़े -सास के सामने गिड़गिड़ाई पर सब व्यर्थ रहा।
विवाह के बाद भी तो तू पढ़ाई कर सकती है न, पारूल? मैं नरेश को समझाऊंगी.......... इससे अधिक और कुछ कर पाना भाभी की सामर्थ्य से बाहर था। बहिनों और माँ के प्रति अतिशय उदार बड़े दादा, अपनी बेटी के मामले में बेहद कट्टर थे। शायद भाभी का स्वाभिमानी स्वभाव उन्हें कभी नहीं रूचा था।
पारूल के विवाह में बड़े दादा ने जी खोलकर खर्च किया था। तीन दिन पहले से रंगीन रोशनी की झालरें, फव्वारे चल रहे थे। पास-पड़ोस के लोगों को विवाह के दो दिन पहले से न्यौता दिया गया था। वह दावतें लोगों को वर्षों याद रही थीं।
विदा होती पारूल मानो जड़ हो गई थी। माँ ने सीने से चिपका आशीर्वाद दिया था, तब भी उसकी आँख से आँसू की एक बूंद नहीं निकली थी। कार में बैठती पारूल को अचानक संजीव की माँ ने आकर चौंका दिया।
तेरे विवाह में हम आमंत्रित नहीं थे पारूल, पर भगवान से तेरे सुख की कामना करती रहूंगी। मेरे संजीव पर रूष्ट न होना बेटी....... वह अपने को किस तरह दंडित कर रहा है, मैं ही जानती हूं। धीमें स्वर में पारूल के कान में वह फुसफुसाई थीं।
मौसी......। पारूल का क्रन्दन सबके नयन गीले कर गया।
ससुराल में ऐश्वर्य की सीमा न थी। हवेली में दौड़ते दास-दासियाँ सदैव किसी विशिष्ट आयोजन का भ्रम पैदा करते थे। अपने कमरे में दासियों के जमघट को देख पारूल खीज उठी-
तुम लोग अपना काम करो, जब ज़रूरत होगी बुला लूंगी।
हमें आपकी सेवा के लिए ही रखा गया है, छोटी मालकिन।
मुझे अपनी सेवा कराने का अभ्यास नहीं है, तुम लोग जा सकती हो।
सास ने सुनकर मुंह बनाया -
हमारे रहन-सहन को वह कैसे समझ सकती है? मैं तो लड़की पर रीझ गई थी, वर्ना अपनी बराबरी के घर में ही रिश्ता जोड़ती।
नरेश की आदतें पारूल से छिपी न रह सकी थीं। शाम को उसकी मित्र-मंडली कहाँ अड्डा जमाती है, वह भी जानने की जरूरत न रही थी। कमरे में देर रात नशे में धुत्त पहुँचे नरेश की दृष्टि में शारीरिक संबंधो की तुष्टि ही पति-पत्नी के रिश्ते की एकमात्र कड़ी थी। पारूल का रोम-रोम घृणा से सिहर उठता। कई बार जी चाहा उन बंधनों को तोड़ कहीं दूर भाग जाये। अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी न कर पाने के लिए पारूल बड़े दादा को कभी क्षमा न कर सकी।
पति से पारूल ने कहना चाहा था-
मैं अपना एम बी बी एस पूरा करना चाहती हुँ।
क्या जरूरत है? चार साल बर्बाद करके डाक्टर ही तो बनोगी। जरूरत होने पर पचासों डाक्टरों की लाइन लगा सकता हुँ।
बात सिर्फ उतनी ही तो नहीं है, मेरा जीवन अर्थ पा जाएगा।
ओह तो अभी तुम्हारा जीवन निरर्थक है? लगता है कॉलेज के पुराने मित्रों का मोह ही खींच रहा है।
वे तो कब के डाक्टर बन, कॉलेज छोड़ गए होंगे।
इसका मतलब तुम्हारा कोई विशेष मित्र था- कौन था? नाम बताओ जरा मैं भी तो उसके दर्शन कर लूं, जिसके साथ तुम्हारा जीवन अर्थपूर्ण था। क्रोधावेश से नरेश के नथुने फूल गये थे।
क्यों व्यर्थ की बात कर रहे हो.........वैसा कोई मित्र होता तो उससे विवाह न कर लेती। पारूल ने हल्के से मुस्करा, बात टालनी चाही थी।
क्यों झूठ बोलती है, तेरा वह पड़ौसी यार नहीं था? कान में क्या कह रही थी उसकी माँ? मैं तो उसी दिन सब समझ गया था...........घर की मर्यादा का ध्यान न होता तो वापिस भेज दिया होता।
छिः, यह क्या कह रहे हो.....संजीव मेरा...........
खबरदार, मैं उसका नाम भी नहीं सुनना चाहता। और देखो इस घर में रहना है तो यहाँ की मान-मर्यादा का ध्यान रखना होगा। आगे से मेडिकल कालेज जाने की बात तुम्हारे मुंह से भी न निकले समझीं।
पारूल को अवाक् अपमानित खड़ा छोड़, नरेश आँधी की तरह बाहर चला गया था।
”मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था संजीव..........क्यों तुमने मेरी सहायता करनी चाही थी? हथेली में मुंह छिपा पारूल सिसक उठी।
माँ के घर बस एक दिन से ज्यादा पारूल का रूकना नहीं हो पाता था। बड़े दादा की ओर पारूल ने कभी दृष्टि उठाकर नहीं देखा। भाभी पूछ-पूछ कर हार गई, पर पारूल के मुख से कुछ न सुन पाई, पर पुत्री के चेहरे पर छाए गहन विषाद ने माँ का हृदय तार-तार कर दिया।
विवाह के बाद लड़कियाँ खिल जाती हैं, तू कैसी मुरझाई रहती है, पारूल? अपनी माँ को सच्ची बात नहीं बताएगी, बेटी?
कुछ फूल खिलने के पहले भी तो मुरझा जाते हैं, माँ?
पर तेरे साथ वैसा क्या हुआ है, मेरी बच्ची?
अच्छी-भली तो हूं।
तेरे पिता तेरे दो बोल सुनने को तरस गए हैं, पारूल।
पिताजी मेरे बोल कब सुन पाये थे, माँ? पारूल की प्रश्नवाचक दृष्टि माँ पर निबद्ध हो जाती।
पारूल की सेवा ने सास का मन जीत लिया था। प्राइवेट उम्मीदवार के रूप में बी0ए0 की परीक्षा देने के लिये पारूल ने सास की अनुमति पा ली थी। नरेश का अधिकाँश समय बाहर ही बीतता था। पारूल को मानो वह सुविधाजनक स्थिति थी। पुस्तकों में सिर गड़ाये कभी-कभी वह नरेश का घर पहुंचना भी न जान पाती। नौकरों की सहायता से कमरे में पहुंचते ही नरेश दो-चार अस्फुट वाक्य कह, गहरी नींद में सो जाया करता।
बी0ए0 परीक्षाफल में पारूल का नाम काफी ऊपर था। पारूल ने पति को इसकी सूचना देना भी आवश्यक नहीं समझा। समाज-शास्त्र में एम0ए0 करने का दृढ़ निश्चय कर, उसने विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया।
पूरे दिन घर में मक्खियाँ ही तो मारती हूं, अम्माजी। वहाँ कुछ समय आसानी से कट जायेगा।।
बहू के उदास मुख को देख सास इन्कार न कर सकी थी, पर नरेश का भय उन्हें भी था-
कहीं उसे पता लग गया तो बावेला मचायेगा, बहू।
उसकी चिन्ता मत करें अम्माजी, उन्हें उस समय समझा लूंगी। वैसे भी दिन में कभी उनका घर आना कहाँ हो पाता है?
जैसी तेरी मर्जी। मैंने तो सोचा था तेरे आने से लड़का घर के खूँटे से बंध कर रहेगा, पर तेरी ओर से भी प्रयास की कमी रही, बहू। अनुत्तरित पारूल का सूखा मुख देख, सास ने आँचल से नयन पोछ डाले।
"वेश्याओं का पुनर्वास-संभावना एवं सुझाव" विषय पर पारूल को थीसिस लिखनी थी विभागाध्यक्ष ने स्वयं चुनकर वह विषय पारूल को दिया था-
तुम विवाहित हो, घर में वाहन की भी सुविधा है, इसलिए तुम्हें यह विषय दे रहा हुँ। तुम आसानी से उन तक पहुंच बातचीत कर सकोगी। अविवाहित लड़कियों को वहाँ जाने में असुविधा होगी-शायद उनके अभिभावक भी अनुमति न दें।
पर मेरा वहाँ जाना क्या ठीक होगा, सर?
तुम वहाँ एक अच्छे उद्धेश्य के लिये जा रही हो। अगर कोई समाधान खोज सकीं तो एक समाजोपयोगी कार्य का श्रेय पाओगी। तुम इस कार्य के सर्वथा उपर्युक्त हो, पारूल।
विभागाध्यक्ष के विश्वास ने पारूल को साहस दिया था।
हाथ में फाइल थामे, पहले दिन उस मुहल्ले में प्रविष्ट होती पारूल संकुचित हो उठी थी। कॉलेज से साथ आई पारबती ने साहस दिया था।
जब काम का बीड़ा उठाया है तो डर काहे का। हम अच्छे काज से जा रहे हैं, दीदी।
पारबती की एक परिचिता ने हीराबाई के घर का पता बताते कहा था-
बड़ी काइयाँ औरत है, हीराबाई। पूरे चकले पर उसी का राज है। उसे समझा पाना कठिन काम है। हाथ नहीं धरने देती किसी समाज-सेविका को।
हीराबाई के घर की सीढ़ियाँ चढ़ती पारूल को देख सीटियाँ बज उठी थीं-
लो भई, आ गई हमारे सुख-चैन की दुश्मन। अब भलाई का काढ़ा पिलाएँगी हीराबाई को।
अरे भली कही, क्या पता ये खुद भी उसी के रंग में रंग जाए।
कहकहों पर लाल होते मुख के साथ पारूल हीराबाई के सामने जा खड़ी हुई थी।
द्वार खोलती हीराबाई पारूल को देख जैसे अवाक् हो उठी। सहज होते पूछा था-
कहो क्या काम है? प्रौढ़ावस्था को पहुंच रही हीराबाई में अब भी ठसका बाकी था।
मौसी, आपकी बेटी सी हूं । आपकी मदद चाहिए।
बेटी? एक पल को जैसे हीराबाई कहीं खो सी गई।
मेरी मदद से लोग गिरते हैं, उठते नहीं, ये बात जानती हो?
अच्छी तरह जानती हूं। अन्ततः जीने के लिए जब कोई उपाय न रहे, तभी तो आपने यह व्यवसाय अपनाया होगा, मौसी।
तुम यहाँ क्यों आई हो?
आपको एक और रास्ता सुझाने, नया जीवन देने, जहाँ मान है, सम्मान है..।
खोया मान-सम्मान किसका वापिस आया है ,।बेटी?
मैं दिलाऊंगी मौसी, मेरा विश्वास करो। पारूल के उत्साही मुख पर एक दृष्टि डाल हीराबाई ने उसे अन्दर आने की राह दिखाई थी।
पारूल ने सम्भावनाओं का पिटारा खोल दिया।
अगर हमारी योजना सफल रही तो कुछ ही दिनों में हमारा सिलाई-बुनाई केन्द्र आत्मनिर्भर हो जाएगा। तुम्हीं सोचो, मौसी पाप की कमाई कितने दिन साथ देगी, मेहनत की कमाई की बरकत ही और होती है.........।
तू अकेली ये कर पाएगी? भले घर की बहू-बेटी है, हमारा साथ तुझ पर भी कीचड़ उछालेगा, बेटी।
आप सबके साथ अकेली कैसी, मौसी?
ठीक है बेटी, आज से इस मौसी का जीवन तेरे नाम रहा।
हीराबाई के उस परिवर्तन पर चकले वाले चौंक गए। एक वृद्धा ने याद दिलाया-
हीराबाई की जो बेटी पिछले साल गुजर गई, उसकी और पारूल की शकल में इतना साम्य है कि शायद वह भी धोखा खा गई।
हीराबाई के सहयोग से लड़कियों को संगठित करना आसान हो गया था। पारूल के साथ कुछ और समाज-सेवी संस्थाओं की महिलाएँ भी आ जुड़ीं। सिलाई-बुनाई केन्द्र के लिए स्कूलों की यूनीफार्म के आर्डर भी पारूल ले आई । हीराबाई को केन्द्र का सुपरवाइजर नियत किया गया था।
मुहल्ले में उस नए परिवर्तन की तीखी प्रतिक्रिया हो रही थी। एक वर्ग इसका कड़ा विरोध कर रहा था, पर हीराबाई के दबंग स्वभाव के आगे विद्रोह के स्वर पनप न सके थे। पारूल ने स्पष्ट घोषणा की थी-
हमारी योजना में जो स्वेच्छा से आना चाहें, उनका स्वागत है। हम जबरन अपनी इच्छा उन पर नहीं थोपना चाहते।
अपने अकाउंट से पैसे निकाल जब पारूल ने सिलाई केन्द्र की स्थापना की , तब हीराबाई ने भी अपनी जमा-पूंजी का एक बड़ा अंश पारूल के हाथ पर धर, रूँधे कंठ से कहा था-
मेरी भी तेरी सी एक बेटी थी, पारूल। इस दलदल से निकल भागने को आतुर थी पगली.... मर कर वह तो मुक्त हो गई। अब तेरे हाथ उसकी साध पूरी होगी, बेटी।
मौसी, .यह केन्द्र हम उसी के नाम से खोलेंगे......क्या नाम था उसका?
ज्योति....।
बस आज से हमारे इस केन्द्र का नाम "ज्योति सिलाई-बुनाई केन्द्र" होगा। यही सबका मार्ग-दर्शक होगा।
एक दिन केन्द्र की लड़की चमेली ने बताया था.........
उस नए घर में एक लड़की को जबरदस्ती बन्द करके रखा गया है। आप उसकी मदद करें, दीदीजी। भले घर की लड़की लगती है। बेचारी का जीवन बरबाद हो जाएगा।
पुलिस के एक इंस्पेक्टर और हीराबाई के साथ पारूल ने उस घर का द्वार जबरन खुलवाया था। द्वार खुलते ही सामने का दृश्य देख पारूल स्तब्ध रह गई थी। सामने ही नरेश दो-चार साथियों के साथ बैठा मदिरा-पान कर रहा था। कमरे के मध्य में एक किशोरी अपने-आप में सिमटी बैठी, शायद रो रही थी। पारूल को देखते ही किसी ने अश्लील वाक्य उछाला था-नरेश पारूल को वहाँ देख चौंक गया -
तुम........तुम......यहाँ क्या करने आई हो?
क्यों भई पहले से आशनाई है, हमसे नहीं मिलवाओगे, यार।
शट-अप। पारूल का हाथ पकड़ उसे जबरन खींचता नरेश, कमरा छोड़ बाहर आ गया था। विस्मित इंस्पेक्टर के आगे बढ़ने की चेष्टा पर वह दहाड़ उठा -
खबरदार..........ये मेरी बीवी है।
इंस्पेक्टर आप प्लीज अन्दर जाकर उस लड़की को छुड़ा लीजिए, सबको अरेस्ट कर लीजिए.। पारूल की बात पर नरेश बिलबिला गया था-
क्या मेरे दोस्तों को अरेस्ट कराएगी, तेरी ये मज़ाल? पीछे मुड़ इंस्पेक्टर से कहा था-
याद रखो इंस्पेक्टर तुम उनका बाल भी बांका नहीं कर सकते। उनमें से एक एम0पी0 का बेटा है। आगे तुम अपनी नौकरी की खैर मनाओ समझे। इस पागल औरत की बात पर नौकरी तो नहीं खोना चाहोगे न?
पारूल का हाथ दृढ़ता से पकड़ लगभग उसे घसीटता नरेश फुफ्कार रहा था। घर पहुंच जोर से माँ को आवाज दी थी-
ये लो माँ तुम्हारे घर की इज्ज़त बाजार में बिकने से बचा लाया हूँ।
क्या हुआ बेटा? पारूल तू तो यूनीवर्सिटी गई थी न?
यूनीवर्सिटी? वाह माँ को बहलाने का इससे अच्छा बहाना भी कोई हो सकता है? मैंने मना किया था न पाँव बाहर निकालने को? जानती हो माँ मैं इसे जिस मुहल्ले से उठाकर लाया हूं, वहाँ शरीफ़ घर की बहू-बेटियाँ निगाह भी उठाकर नहीं देख सकतीं।
पर शरीफ़ घर के लड़के वहाँ घर का सम्मान दाँव पर लगा सकते हैं। पारूल के स्वर में घृणा बोल रही थी।
हाँ-बड़े घर के लड़कों की मर्दानगी की यही पहिचान है, समझी। अब इस घर में इसे एक पल को भी रखना पाप है, माँ। तुम इसे जहाँ से लाई हो वहीं पटक आओ, मुझे अपने सम्मान की चिन्ता है।
बड़े दादा सुनकर सिर धुनने लगे थे। दादी चीत्कार कर उठी थीं।
हाय राम इस कुल- बोरनी ने हमें कहीं का न रखा।
बड़ी भाभी स्तब्ध रह गईं । शाँत सुस्थिर स्वर में पूछा था-
तू वहाँ किसलिए गई थी, पारूल? मैं जानती हूं तू किसी सत्उद्धेश्य से ही गई होगी, बेटी।
माँ......। भाभी के वक्ष से चिपट रोती पारूल ने आद्योपांत सब कह सुनाया था।
एक पल मौन रह भाभी ने पूछा था-
इतनी बड़ी योजना पर तू अकेली ही काम करने चल पड़ी, पारूल? मुझसे कहा होता, मैं चलती तेरे साथ।“
अब इस लड़की का इस घर में रहना नहीं हो सकता, बड़ी बहू। दादी की चेतावनी पर बड़े दादा का मौन, उनकी स्वीकृति ही था।
अगर यह नहीं रह सकती तो मुझे भी यह घर छोड़ने की अनुमति दें, अम्माजी।
पागल हो गई हो बहू, पति-परिवार एक लड़की के लिए छोड़ दोगी?
मेरा पति-परिवार भी तो एक असहाय लड़की का परित्याग कर रहा है, अम्माजी।
नहीं माँ, ये घर तुम्हारा है, तुम इसे अकारण ही नहीं छोड़ सकतीं। मैं विश्वास दिलाती हुँ, इस कलंक के स्थान पर सम्मान के तिलक के साथ ही वापिस आऊंगी।
पर तू कहाँ जाएगी,पारूल?
अपने घर माँ, उनके पास जिन्हें मेरी सच्ची ज़रूरत है।
कहाँ है तेरा घर? तेरे घर वाले तो तुझे यहाँ डाल गए हैं, बेटी।
वे मेरे घर वाले नहीं थे माँ। एक दिन जरूर तुम्हें अपने घर बुलाऊंगी माँ, आओगी न?
पारूल ने फिर देर नहीं की थी। उल्टे पाँव उसी मुहल्ले में स्थित अपने सिलाई- केन्द्र में जा, शरण ली थी।
तुम यहाँ हमारे बीच रह सकोगी, बेटी? हीराबाई दुखी हो उठी।
क्यों नहीं मौसी, क्या तुम मुझे अपनी बेटी नहीं मानतीं?
मेरी बेटी?.......... तू तो हमारी माँ है-जिसने हमें रास्ता दिखाया है।
सब सुनकर विभागाध्यक्ष स्तब्ध रह गए।
तुम अपने पति या उसके परिवार वालों से अपनी कार्य-योजना न बताकर गलती की थी, पारूल। मैं तो सोच भी नहीं सकता था तुम सिर्फ़ अपने बल पर इतनी बड़ी योजना ले रही थीं? चलो मैं तुम्हारे श्वसुर-गृह में वास्तविकता बता दूं। वे मेरा जरूर विश्वास करेंगे
मानती हूं, यह मेरी ग़लती थी, पर वास्तविकता जान, मुझे इस योजना पर कार्य करने की अनुमति कभी न दी जाती, सर। रही बात आपके प्रति उनके विश्वास की, तो जिस घर में पति और पत्नी के बीच विश्वास न हो वहाँ कुछ भी कहना-सुनना व्यर्थ है।
फिर भी मैं तुम्हें सलाह दूंगा, तुम उनसे क्षमा माँग लो।
किससे क्षमा माँगू, उन माता-पिता से जिन्होंने मेरे सारे स्वप्न निर्ममता से तोड़ डाले या उनसे जिसने मुझे मात्र शरीर समझ मनचाहा उपभोग किया? नहीं सर नहीं,आप नहीं जानते बचपन से मैंने स्वप्न देखा था मैं डाक्टर बन कर दूसरों की पीड़ा हर रही हूं। वह स्वप्न मेरे जन्मदाता पिता ने भंग किया। आपने यह योजना दे कुछ अर्थो में मेरे उसी स्वप्न को पुनर्जीवित किया था। उन मानसिक, शारीरिक रूप से शोषित स्त्रियों को नया जीवन देना, कुछ वैसा ही लगा था जैसे मैं सचमुच मनोचिकित्सक बन, उनके कष्ट दूर कर सकती हूं। अब आप मेरे इस स्वप्न के साथ मुझे जीने दें सर। अब मेरा वापिस जाना असंभव है.............। पारूल हांफ सी उठी थी।
ठीक है मुझे कुछ प्रोजेक्ट्स के लिए सरकार से पैसा मिला है, मैं वह धनराशि तुम्हारी प्रोजेक्ट के लिए दे रहा हूं। तुम्हारा स्वप्न साकार हो, यही मेरा आशीर्वाद है, पारूल। तुम्हारी हर सहायता के लिए मैं ही नहीं पूरा विभाग तुम्हारे साथ है। मुझे विश्वास है एक दिन तुम अपना खोया सब कुछ पा सकोगी, पारूल।
झुक कर उनके चरण छू, पारूल ने कृतज्ञता व्यक्त की थी।
हॉस्टेल में रहना पारूल ने स्वीकार नहीं किया ।उन शोषित, समाज द्वारा प्रताड़ित नारियों की समस्याएँ उनके निकट रहकर ही जानी जा सकती थीं। पारूल ने उसी गली के नुक्कड़ पर एक कमरा ले, रहना शुरू कर दिया।
पहला दिन ही पारूल के लिए चुनौती बन गया था। रात में किसी शराबी ने दरवाजा पीटना शुरू किया था। पास सोई हीरा और मालो ने उस खतरे को किसी तरह टाला था।
तुम्हारा यहाँ रहना ठीक नहीं दीदी, लोग ग़लत समझ सकते हैं। मालो चिन्तित थी।
मुझे किसी की चिन्ता नहीं मालो, मैं अपने को पहिचानती हूं, यही पर्याप्त है।
उस गली के ग्राहकों ने पारूल के विरूद्ध मोर्चाबन्दी की थी। उसके विरूद्ध अश्लील नारेबाजी की गई। शहर के कुछ धनी व्यक्तियों का विरोधियों को अप्रत्यक्ष रूप में सहयोग प्राप्त था। कई रातें पारूल ने दहशत में बिताईं। सब जानकर विभाग के लड़को ने जाकर चेतावनी दी थी-
अगर इन्हें परेशान किया गया तो हम गली के एक-एक घर को जला डालेंगे। हमारी शक्ति से टक्कर लेने की हिम्मत न करें।
पारूल ने उन उत्साही युवकों को हिंसा करने से रोक, गली वालों का विश्वास जीत लिया था। शांत सधी आवाज में उसने कहा था-
इन स्त्रियों की जगह अपनी माँ-बहिन को देखिए, तब आप इनकी पीड़ा समझेंगे। मैं जबरन किसी को अपने साथ नहीं लाना चाहती, जो स्वेच्छा से अपना मार्ग बदलना चाहें उनका स्वागत है। मेरे साथ जीवन फूलों की शैया नहीं, काँटों की राह मिलेगी।
पारूल की मेहनत रंग लाई। अपने खाली समय में वह उन लड़कियों और स्त्रियों के साथ उनकी काउंसिलिंग करती। उन्हें उस जीवन की विभीषिकाओं से परिचित करा, सद्मार्ग की राह दिखाती।
पत्रकारों तक पारूल की तपस्या की कहानी पहुंच गई थी। समाचार-पत्रों में पारूल के त्याग और सेवा की कहानियाँ छपने लगीं।
सरकारी महकमें भी सचेत हो उठे। स्वयं मुख्यमन्त्री ने एक इमारत उन स्त्रियों के पुनर्वास के नाम कर, काफी यश कमा लिया।
पारूल के अन्दर की कर्मठ चिकित्सका जाग उठी थी। हैंडीक्राफ्ट सेंटर में बनी सुन्दर वस्तुएँ उसकी कलात्मक अभिरूचि की परिचायक थीं। अब तो शहर के सम्मानित नागरिक एप्लीक वर्क के बेड कवर्स, कुशन कवर्स, साड़ियाँ लेने आने लगे थे।
समाज-शास्त्र की डिग्री पारूल ने विशेष सम्मान के साथ प्राप्त की थी। उसकी थीसिस विभाग की महत्वपूर्ण उपलब्धि बन गई। विभागाध्यक्ष ने स्नेह से पूछा था-
तुम हमारे विभाग में लेक्चरार बनना चाहोगी, पारूल।
नहीं सर, मैं जहाँ हूं, वही जगह मेरे लिए ठीक है। अभी मुझे बहुत कुछ करना है।
अभी तुम्हारी नई योजना क्या है, पारूल? विभागाध्यक्ष ने सहास्य पूछा था।
एक सांस्कृतिक कला-केन्द्र की स्थापना करनी है। जहाँ प्रतिवर्ष सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। लड़कियों को नृत्य-गायन की शिक्षा दी जाएगी। आप नहीं जानते सर, इन लड़कियों में कितनी प्रतिभा है। अगर उन्हें चांस मिलता वे प्रसिद्ध गायिका या नर्तकी बन सकती थीं।
तुम्हारे लिए मेरी शुभकामनाएं। मुझे तुम पर पूरा विश्वास है, पारूल।
गण्तन्त्र दिवस पर मुख्यमंत्री द्वारा पारूल को सम्मानित किए जाने की घोषणा की गई थी। पारूल ने भाभी को पत्र लिख बुलाया था-
तुम्हारी बेटी अपना पाथेय पा गई है, माँ.........मेरे मस्तक पर सम्मान का तिलक लगता देखने तुम्हें आना है, माँ.......... आओगी न?
मुख्यमन्त्री से सम्मान पाती पारूल को देखती बड़ी भाभी के नयनों में आनन्दाश्रु आ गए थे।
पारूल को अपनी ओर आता देख बड़े दादा संकुचित हो उठे -
मुझे क्षमा कर सकोगी, बेटी?
मुझे आशीर्वाद दें, पापा अपनी साधना में सफल हो सकूं।
पारूल के झुके मस्तक पर बड़े दादा का वरद हस्त हौले से जा कर रूक गया। मानो उसे आशीषते भी वह संकुचित थे।
दूर खड़े सेठ कांतिलाल और उनकी पत्नी की ओर बढ़ पारूल ने उनका अभिवादन किया -
मुझे आपके पुत्र के आकस्मिक निधन पर दुख है।
नरेश की माँ बिलख उठीं-
वह अपने कर्मो का फल भोग, चला गया, बेटी। मैंने हीरा पहिचानने में गलती की थी, पारूल। वह अपने ही कर्मों का शिकार बन गया।
पारूल का हृदय उस अभागिन माँ के प्रति करूणा से भर गया।
हमें माफ़ करो बेटी, अब अपने घर चलो। सेठ कांतिलाल ने थोड़ा ठहर कर कहा।
मैं तो अपने ही घर में हूं, बाबूजी। आपका मेरे घर में सदैव स्वागत है। अब पराए घर जाने की चाह शेष नहीं है।
धीमे से मुड़कर पारूल अपने घर की ओर चल दी। सब उसे आदर से देखते रह गए।
12/6/09
तत्ता पानी
‘तत्ता पानी’ पहुंचते दोपहर हो गई थी। मोटर-साइकिल मंदिर के पास टिका संजय ने पुजारी जी को प्रणाम किया था।
‘प्रसन्न रहो बेटा। चश्मे का ठंडा पानी पिओगे?’
नहीं बाबा, नीचे सतलज का पानी पिएँगे। आओ अनु, नीचे उतरते हैं।
ओह गॉड! पूरे तीन घंटे मोटर-बाइक पर बैठे-बैठे बदन दुःख गया। पहले पता होता इतनी दूर आना है तो कभी न आती। अनुपमा ने नाराज़गी दिखाई।
कम ऑन, अनु! सजलज के ठंडे पानी से हाथ-मुंह धोते ही सारी थकान मिनटों में भाग जाएगी अब जल्दी करो, यार।
उतना नीचे उतरना क्या आसान है, संजय?
अगर उतर पाने का साहस नहीं तो बंदा हाजिर है, उठाकर ले चलूं? संजय ने शरारत से पूछा।
छिः, हमें ऐसा मज़ाक पसंद नहीं। मेरे पावों में काफी ताकत है, किसी पर बोझ बनने का शौक नहीं, समझे।
सिर पर चमकते सूरज के कारण अनुपमा के उजले मुख पर पसीना झिलमिला उठा था। नदी-तट की ठंडी हवा ने अनु को उत्साहित कर दिया।
सलवार के पायंचे ऊपर मोड़, बच्चों की सी आतुरता के साथ, अनुपमा सतलज के ठंडे पानी में जा खड़ी हुई।
मुंह पर ठंडे पानी के छींटे डाले ही थे कि सिर के ऊपर आती पानी की बौछार से अनुपमा भीग उठी। दृष्टि उठाते, सामने खड़ा संजय नज़र आया।
अच्छा तो यह तुम्हारी शरारत थी। अनुपमा ने संजय पर भी पानी की बौछार कर डाली।
अरे.......अरे............ये क्या कर रही हो? सारे कपड़े भीग गए।
और मैं जो पूरी भीग गई, वो कुछ नहीं? बाल सूखने में पूरा एक घंटा लगेगा।
इतने लम्बे बाल रखती ही क्यों हो? छोटे बाल कटा लो? पाँच मिनट में सूख जाएँगे।
क्यों मेरे लम्बे बालों से ईर्ष्या होती है?
वाह! क्या बात कही है, जैसे मैं लम्बे बालों की चोटियाँ गूंथ घूमूँगा। डरता हूं, कहीं हमारी अनुपमा के लम्बे-लम्बे बालों को दुश्मन की नज़र न लग जाए। आखिर दोस्त हुँ आपका।
ओह, ऐसे हमदर्द है आप?
ऑफकोर्स........और देखो इस बात को कभी भूलना नहीं.........।
भला ये भी भूलाने की बात है, संजय? अनुपमा गम्भीर हो उठी थी।
यहाँ आना अनु.........तुम्हारे लिए एकदम अनोखी चीज़ है मेरे पास। नदी-तट के पास की जमीन पर हाथों से एक छोटा-सा गढ़ा खोद, संजय ने अनु को पुकारा था।
अब कौन-सा तिलिस्म दिखा रहे हो, संजय? समझ में नहीं आता इस जगह का नाम ‘तत्ता पानी’ क्यों रखा गया है, यहाँ तो बस ठंडा पानी है।
थोड़ा धैर्य रखें मिस अनुपमा, सब समझ में आ जाएगा। जरा इस पानी का टेम्परेचर तो बताना। हाथ से खोदे उस गड्ढे में नदी का पानी भर आया था।
अरे वाह तुम तो सचमुच जादूगर हो, इतनी सी देर में कुआँ खोद डाला। अनुपमा ने परिहास किया।
जनाब, यह अंडर-ग्राउंड वाटर का कमाल है। इस पानी की महिमा ही अलग है- पापियों के सारे पा धो डालता है। विश्वास न हो तो आज़मा कर देख लो।
मैंने कौन पाप किए हैं जो आज़माने की ज़रूरत पड़े। देखूं कितना गहरा कुआँ खोद पाये हैं-मिस्टर जादूगर। हॅंसी-हॅंसी में गहराई नापने के लिये अनुपमा पानी से भरे उस गड्ढे में जा खड़ी हुई थी। पल भर में अनुपमा चीख सी पड़ी।
क्यों पता लग गया न -‘तत्ता-पानी’ नाम क्यों दिया गया? संजय हॅंस रहा था।
नहीं बोलना है तुमसे। इत्ता गरम पानी-जैसे उबलते पानी में पाँव जा पड़ा हो। कितनी जलन हो रही है। अनुपमा रूंआसी हो आई।
आई एम रियली सॉरी। मैंने कब सोचा था, सीधे पानी में जा खड़ी होगी? संजय सचमुच कंसर्न दिख रहा था।
पास पड़े पत्थर पर अनुपमा को बैठा, संजय ने सतलज के ठंडे पानी में अपना रूमाल भिगोकर अनुपमा के दोनों तलवों पर लपेट दिया।
अब जलन कम हो रही है न, अनु?
उहुंक और बढ गई है।
इस जलन की वजह जानती हो, अनु?
हमें बेकार की बातें अच्छी नहीं लगतीं।
तब क्या अच्छा लगता है, अनु?
सतलज के ठंडे पानी के पास- इतना गर्म पानी-बहुत अच्छा लगा ये अजूबा, संजय।
यही तो चमत्कार है। जानती हो इस जगह को तीर्थ माना जाता है। जाड़ों में यहाँ मेला जुटता है। तीर्थ-यात्री गर्म पानी में स्नान कर, पुण्य कमाते हैं।
वाह, क्या नेचुरल अरेंजमेंट है, वर्ना पिघली बर्फ़ की नदी के पास, इतने गर्म पानी की बात भला सोची जा सकती है। सच ये विरोधाभास तो बस भगवान को ही सम्भव है।
बड़े-बुजुर्गो का कहना है ‘तत्ता-पानी’ के दो घूंट पीने से पत्थर भी हजम हो जाता है।
बशर्ते पत्थर खाए जाएँ। अनु हॅंस दी थी।
चलो आज हम भी आज़मा देखें। दो घूंट पानी पीकर नाल डेहरा चलते हैं। लंच वहीं लिया जाए, ठीक है न
ठीक है, यह एक्सपेरिमैंट भी कर डालें। पर पानी हाथ में लेते ही उसकी उष्णता ने अनुपमा को तिलमिला दिया।
सतलज का ठंडा पानी मिलाकर दो घूंट पी लो-वर्ना सह नही पाओगी।
वाह दूसरा पानी मिलाने से इसका असर कम न हो जायेगा?
थोड़ा-सा पानी मुंह में लेते ही अनुपमा का मुंह बन गया -
ओह नो! ये तो एकदम खारा है.............।
इसमें गंधक जो मिला है, गंधक की तासीर जानती हो? संजय ने जानकारी देनी चाही थी।
भाड़ में जाये गंधक की तासीर............. पर इतने गर्म पानी में तो चावल पक सकते हैं न, संजय?
चावल लाई हो क्या? चलो लंच यहीं तैयार कर डालते हैं। ये भी एक नया एक्सपीरिएंस होगा। संजय अनुपमा को चिढा रहा था।
यह हंसी मे उड़ाने की बात नहीं है, संजय। इस गर्म पानी में चावल पका लो ओर सतलज में कुलफ़ी जम जाये। अगली बार हम पूरी तैयारी के साथ यहाँ आएँगे।
उसके लिये तो जाड़े के मौसम का इन्तज़ार करना होगा। जाड़ों में कुलफ़ी का मज़ा ही और होता है। संजय कल्पना का आनन्द ले रहा था।
प्रकृति में कितना कुछ है, संजय-जितना ही डूबो-डूबते ही जाओ। अनुपमा जैसे सपना देख रही थी।
तुम्हारा फ़िलॉसफर जाग जाये उसके पहले चल दीजिए, मैडम, वर्ना यहीं बैठे रह जायेंगे। पैंट की क्रीज ठीक करता संजय उठ खड़ा हुआ।
बाई दि वे, आपके पाँव की जलन अब कैसी है, मिस अनुपमा सि़द्धार्थ?
आपकी सेवा बेकार नहीं गई, एकदम ठीक हूं, चलें?
‘नाल-डेहरा’ पहुंचते-पहुंचते अनुपमा को सचमुच तेज भूख लग आई थी।
संजय, तुम्हारा नुक्सान हो गया।
वो कैसे?
गंधक के पानी ने पूरा असर दिखाया है, इतनी ज़ोर से भूख लग आई है कि तुम्हारा बिल डबल हो जायेगा।
बस इतनी सी बात है? आपके लिये तो हमारी जान भी हाज़िर है। इस छोटे से बिल के लिये परेशान हो, हमें निराश कर रही हो जानेमन।
फिर डायलॅागबाजी! तुम्हे तो कोई नाटक कम्पनी ज्वाइन करनी चाहिए थी। अपना एक्टिंग छोड़ पहले लंच का आर्डर प्लेस करें एजनाब। अनुपमा ने रोष दिखाया था।
ऐट योर सर्विस मैम ......वेटर.........।
सच, आज मज़ा आ गया। पहले से जानती तो आज तक न जाने कितनी बार यहाँ आ चुकी होती। पापड़ दाँत से काटती अनुपमा ने कहा था।
पहले कैसे आ पातीं? यहां तक ढ़ोकर लाने को कोई चाहिए था न?
अच्छा तो तुम मुझे ढोकर लाये हो? तुम नहीं तो कोई और मिल जाता...........।
कोई और कैसे मिल जाता-? तुम्हारी किस्मत में तो मेरा साथ लिखा था।
ठीक कहते हो, संजय, यहाँ न आती तो क्या तुम मिलते?
अरे इसीलिए तो कहा जाता है जोड़े ऊपर बनकर आते हैं, वर्ना तुम यहाँ आती ही क्यों?
सच, जब यहाँ के एडमीशन की इन्फ़ार्मेशन घर पहुँची तो शिमला आने का खूब विरोध हुआ था। दादी ने तो खाना छोड़ने तक की धमकी दे डाली थी, संजय।
फिर कैसे आ पाई, अनु?
अम्मा ने जो साथ दिया था। पापा से कहा था कि आज अकेली लड़की अमरीका इंग्लैंड तक जा सकती है हमारी अनु शिमला ही तो रहेगी। इंजीनियर बन अपने पाँव पर खड़ी हो सकेगी, किसी की मोहताज तो न रहेगी।
तुम्हारी माँ तुम्हारी नौकरी के फ़ेवर में हैं, अनु? हमारी कम्यूनिटी की यही खराबी हैं, लड़कियों की नौकरी को सम्मानजनक नहीं माना जाता।
तुम भी ऐसा ही सोचते हो, संजय?
अभी मैं निर्णय ले सकने की स्थिति में नहीं हूं, अनु! कभी कुछ बन सका तब सोचूँगा। तुम्हारे पापा आसानी से तुम्हें शिमला भेजने को राजी हो गए थे, अनु?
अम्मा और मेरी ज़िद के आगे पापा को हथियार डालने पड़ गए थे......अन्ततः उनकी इकलौती बेटी हूं न। जरा सा दर्प छलक आया था अनु के स्वर में।
यू आर रियली लकी, अनु तुम जो चाहो पा सकती हो।कुछ गंभीर स्वर मे संजय ने कहा।
जैसे तुम कम लकी हो, संजय-तुम्हें किस बात की कमी है? जो चाहोगे-पाओगे। मेरा विश्वास करो।
तुम बहुत अच्छी हो, अनु। सोचता हुँ पहले दो वर्ष हम अजनबी क्यों बने रह गये?
तुम्हारी नज़र ओर लड़कियों पर जो लगी रहती थी.......मुझ पर दृष्टि कहाँ पड़ी थी? कुछ शोखी से अनुपमा ने जवाब दिया।
अपना भाग्य सराहो, मैंने सिर्फ़ तुम पर निगाह डाली है, वर्ना लड़कियों की क्या कमी थी
बड़े आए अपने मुंह-मिया मिट्ठू। वैसे जनाब हम भी किसी से कम नहीं। मेरे लिये आपकी यह दीवानगी इस सत्य की साक्षी है।
दीवानगी तो ठीक है, पर अब भविष्य मुझे चिन्तित कर रहा है, अनु।
भविष्य की चिन्ता तुम्हें क्यों? एक माह बाद फ़ाइनल परीक्षा होगी और तुम्हें आराम से कहीं अच्छा जॉब मिल जायेगा, संजय।
परेशानी सिर्फ़ जॉब की ही तो नहीं है........जीवन में तुम आई हो, क्या तुम्हें बीच रास्ते मे छोड़, कहीं जा सकता हूं, अनु
क्या मैं इतनी गई-गुजरी हूं कि मुझे लेकर तुम परेशान हो,संजय? अनुपमा उदास सी थी।
ऐसी बात नहीं हैंए अनु, पर माँ-बाबूजी भी तो अपने एकमात्र पुत्र के विवाह के लिए कुछ अरमान रखते होंगे। विजातीय विवाह पर वे आपत्ति तो अवश्य करेंगे।
ये बातें तुमने पहले नहीं सोची थीं, संजय? अनुपमा का स्वर तनिक तिक्त हो आया था।
इश्क पर ज़ोर नहीं चलता, डार्लिंग। वैसे भी यह मेरी प्रॉब्लेम है, मैं ही सॉल्व करूँगा। तुम्हारे लिए चपाती और मंगाऊं?। संजय वैसे ही सहज हो आया था।
न ......अब भूख नहीं रही। अनुपमा ने प्लेट सरका दी थी।
चियर-अप माई डियर। एक वह सीता जी थीं पति के साथ जंगल-जंगल घूमी, यहाँ जरा सी बात पर भूख-हड़ताल की जा रही है। हे भगवान, कैसे कटेगी ये ज़िन्दगी। संजय की नाटकीय मुद्रा पर अनुपमा हॅंस पड़ी।
गर्ल्स-होस्टेल में ड्राप करते संजय को अनुपमा ने जब ‘थैक्स’ देने के लिए मुंह खोलना चाहा, तो अचानक उसके अधखुले अधरो पर संजय ने अपना स्नेह चुम्बन अंकित कर, मोटर साइकिल तीव्र गति से भगा ली।
फ़ाइनल परीक्षा के अंतिम दिन अनुपमा उदास हो उठी। कल उसे वह होस्टेल, संगी-साथी छोड़, घर चले जाना था। घर जाने की खुशी के स्थान पर गहरे अवसाद ने उसे घेर लिया था। संजय से मिलने के पूर्व कॉलेज का जीवन नितान्त नीरस सा था। छुट्टियों में घर जाने के लिए वह कितनी व्यग्र हुआ करती थी, पर आज घर जाना कितना कठिन लग रहा था। संजय का उसके जीवन में आगमन कितना सहज और स्वाभाविक लगा था।
लोकल गार्जियन की बेटी शिखा, संजय के मित्र की बहिन थी। पहली बार संजय से बातचीत शिखा के घर में ही हुई थी-
हलो, अनुपमा। संजय ने अनु से कहा।
हलो........? अपरिचय का भाव अनु के चेहरे पर स्पष्ट था।
कमाल हैं, अपने क्लासमेट को यूँ देख रही हैं मानो कोई अजनबी हूं। आपके ठीक पीछे बैठता हूं, हमेशा का बैक- बेंचर रहा हूं। संजय के चेहरे पर मुस्कान थी।
ओह .........। अनुपमा ने जैसे आश्वस्ति की श्वास ली थी।
एक बात बताइए, एक्जाम्स में इतने अच्छे मार्क्स हमेशा कैसे पा लेती हैं आप?
कोई ख़ास बात तो नहीं, बस यूँही.........।
मैं बताऊं संजय भइया, अनुपमा दीदी आपकी तरह घूमने में समय जो व्यर्थ नहीं करती। अगर आप भी सिर्फ़ पढ़ाई पर ध्यान दें तो आपको भी अच्छे नम्बर मिल सकते हैं, संजय भइया। शिखा ने गम्भीरता से उत्तर दिया था।
हियर.........हियर..........आपकी सलाह सिर-आँखों और कोई हुक्म? सब हॅंस पड़े थे।
प्रायः शिखा के परिवार की पिकनिक, पार्टीज में अनुपमा के साथ संजय भी सम्मिलित होता था। धीमे-धीमे अनुपमा का संकोच कम होता गया था। संजय को अनुपमा के गाम्भीर्य और सौन्दर्य ने आकृष्ट किया था, और अनुपमा उसके खुले स्वभाव पर मुग्ध हुई थी। अनुपमा के गाम्भीर्य का कवच भेद, संजय उसके हृदय के इतने नजदीक पहुंच गया था कि आज उससे बिछोह अनुपमा को असंभव लग रहा था।
घर वापिसी के समय संजय अनुपमा को छोड़ने स्टेशन आया था। अनुपमा के उदास मुख पर संजय हॅंसी ले आया था-
घर पहुंच हमें भूलने की जुर्रत मत करना, अनु। कोई दूसरा खोज लिया तो उसका हत्यारा मैं ही बनूंगा-समझीं।
अगर तुमने देर की तो अम्मा-पापा प्रतीक्षा नहीं करेंगे। उन्हें मेरे फ़ाइनल एक्ज़ाम्स की ही प्रतीक्षा थी, वर्ना अब तक डोली पर बिठा, विदा कर दी गई होती।
मेरे रहते अनु की डोली किसी और के घर में नहीं जा सकती, ये बात माँ-पापा को ठीक से समझा देना, अनु।
चलती गाड़ी से अनु देर तक संजय को हाथ हिलाते देखती रही।
घर में अम्मा-पापा से अधिक दादी उसके लिए व्यग्र थीं।
चल छोकरी की ज़िद पूरी हो गई-इंजीनियर बन आई। अब तो इसके हाथ पीले कर बेटा, वर्ना मैं चैन से मर भी न सकूंगी।
वाह दादी, बियाह मेरा नहीं होगा और चैन से दादी नहीं मरेंगी..........भला ये भी कोई बात हुई।
हाय राम, जरा लड़की की बातें तो सुनो। इसीलिए कहते हैं, लड़की को जियादा न पढ़ाओ। दस गज की लम्बी जबान चलाए है छोकरी। दादी क्रुद्ध हो उठी थीं।
अम्मा, तुम सब मेरी चिन्ता छोड़ दो। कुछ ही दिनों में मुझे माँगने वह आएगा।
कौन आएगा अनु , कहीं कुछ उल्टा-सीधा तो नहीं कर आई है, बेटी; मेरे नाम को तो नहीं लजाएगी? अम्मा व्यग्र हो चुकी थीं।
नहीं अम्मा, तुम्हारी बेटी ऐसी गलती नहीं कर सकती। कुछ दिन और प्रतीक्षा करो, सब ठीक हो जाएगा।
संजय का पत्र पाकर अनुपमा का मन फीका पड़ गया-
मेरी अनु,
माँ-बाबूजी को समझा पाना कितना कठिन है............बात-बात में समाज और रीति-रिवाजों की दुहाई देते हैं। मेरे विजातीय विवाह के कारण मेरी दो छोटी बहिनों का भविष्य प्रभावित हो सकता है। एक रास्ता है. अगर उनके विवाह में भारी दहेज दे दिया जाए तो शायद उनका रिश्ता अच्छे परिवारों में हो सके, पर मेरे वेतन से यह शर्त पूरी कर पाना संभव नहीं है, अनु।
मेरी बात, मेरी परेशानी समझ रही हो न; तुम्हारे सिवा किसी अन्य की कल्पना भी नहीं कर सकता वर्ना माँ-बाबूजी ने तो धनाढ्य परिवारों की एकलौती लड़कियाँ मेरे लिए देख रखी थीं, पर किसी ओर से विवाह के लिए वे मुझे राजी नहीं कर सकते।
मेरी अनु, तुम अपने पापा को राजी करके मेरे बाबूजी के पास भेज दो। तुम्हारी ज़िद वे ज़रूर मान जाएँगे। एक बात और कहनी है, दहेज में बाबूजी की जो भी माँग हो, उसे अपने पापा से कहकर स्वीकृति दिला देना। हम दोनों मिलकर पापा का दिया सब वापिस कर देंगे (सिवाय उनकी बेटी के), यह मेरा वादा है। हम दोनों अलग तो नहीं है न? इसी विश्वास से यह सब लिख रहा हुँ। बहुत याद आती हो।
प्यार सहित-
तुम्हारा ही संजय
अनुपमा के उदास मुख को ताकती अम्मा चिन्तित हो उठी थी।
किसका पत्र है, अनु? कोई बुरी खबर तो नहीं है, बेटी? प्रत्युत्तर में पत्र माँ को थमा अनुपमा मौन रह गई थी।
तेरी क्या सम्मति है, बेटी? तेरी खुशी में हमारी खुशी है, पर निर्णय सोच-समझ के लेना। शुरू में ही जहाँ अड़चने हैं, वहाँ आगे की सोच, मुझे तो डर लगता है।
बस इतना जान लो अम्मा, मैं संजय के बिना जी नहीं सकूंगी। अश्रुपूरित नयनों के साथ, माँ के कंधे पर सिर रख अनुपमा सिसक पड़ी थी।
मैं समझ गई। तेरे पापा को मैं राज़ी कर लूंगी, अनु।
माँ-बेटी की जिद पर पापा, अनुपमा के विवाह का प्रस्ताव ले, संजय के घर गए थे। वे दो दिन अनुपमा ने बेहद बेचैनी में काटे थे।
घर वापिस आए पिता के मुख पर संतोष देख अनुपमा जी गई थी।
लड़का होनहार और समझदार है, अनु की माँ। उसके माँ-बाप को पैसे का लालच ज़रूर है, पर हमें कौन-सी अपनी जायदाद साथ ले जानी है। मैंने कह दिया मेरी एक ही बेटी है, सब कुछ उसी का है।
अम्मा-पापा ने जी खोल विवाह में खर्च किया था। संजय के पिता की माँग की लम्बी सूची देख दादी रूष्ट हो उठी थीं-
भला ये भी कोई बात हुई? कंगलों में बेटी दे रहे हो। हमारे दिए से घर भरेंगे।
ऐसे कुबोल न बोल, अम्मा। अरे लड़के ने तो साफ़ कहा था उसे हमारा कुछ नहीं चाहिए, पर बाप के आगे विवश है। पूरा घाघ है संजय का पिता, फिर हमारे पास क्या कमी है? इतना देकर क्या हम कंगाल हो जाएँगे? पापा ने हॅंस कर बात टालनी चाही थी।
और अम्माजी जब हम अपनी लड़की ही दे रहे हैं, तो और सब सामान की क्यों चिन्ता करें? सब कुछ उसी का तो है। अनुपमा की माँ ने सास को समझाना चाहा था।
धूमधाम से विवाह के बाद अनुपमा ससुराल पहुँची थी। ससुराल के छोटे से दरबेनुमा घर को देख अनुपमा का जी कसक उठा था। यह घर देखकर भी पापा ने उसके विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दी थी? पापा कर भी क्या सकते थे, लाड़ली बेटी का हठ उन्हें विवश बना गया था।
अपने कमरे के लिए सीढ़ियाँ चढ़ती अनुपमा उदास हो उठी। । घूंघट काढे बैठी अनु को देखने आई औरतें बार- बार घूंघट हटा उसे तौलती सी लगतीं । अनु की परेशानी के जवाब मे संजय ने कहा--
नई बहू के मुख को देखने को मेला जुटता है, बाद में कौन पूछता है। चार दिन इसका भी आनन्द उठा लो, अनु। कितनी सहजता से संजय ने समझा दिया था।
अनगिनत रीति-रिवाज निभाती पूजा-आरती करती अनुपमा थक गई थी। जमाना कहाँ बदला था-उसकी इंजीनियरिंग की डिग्री का क्या मूल्य था? और तो और अपने घर के पुरातनपंथी आचार-विचार को पूर्ण निष्ठा से निभाता संजय भी अनुपमा के लिए एक नया व्यक्ति था। हर बात में माता-पिता के सेंटीमेट्स का हवाला दे, वह अपने को सर्वथा मुक्त रखता था।
विवाह के दो माह बाद दिल्ली के एक कार्यालय से अनुपमा के लिए साक्षात्कार में उपस्थित होने का पत्र आया था। प्रसन्नता से अनुपमा खिल उठी-
सोलह जुलाई को दिल्ली में इन्टरव्यू अटेंड करना है। रिजर्वेशन कराना है, संजय, वहाँ मेरे कजिन रहते हैं, वह मुझे रिसीव कर लेंगे।।
तुम दिल्ली में जॉब लोगी?
इतना अच्छा चांस छोड़ना क्या बुद्धिमानी है!
मैं शिमला रहूंगा और तुम दिल्ली में नौकरी करोगी! नौकरी का ऐसा ही शौक था तो शादी क्यों की, अनु! संजय के रूखे स्वर पर अनुपमा चैंक गई थी।
यह क्या कह रहे हो! शिमला में तुमने ही तो जॉब नहीं लेने दिया था, संजय............।
वह तो ठीक ही था, अनु। घर की बहू नौकरी करेगी तो क्या माँ-बाबूजी अपने समाज में सिर ऊंचा करके चल सकेंगे! नन्दा-मन्दा के विवाह में पहले ही इतनी मुश्किलें आ रही है.......तुम हमारी कम्यूनिटी को नहीं जानतीं, अनु। पहले ही गैर-जाति में विवाह करने के कारण माँ-बाबूजी के लिए कम मुश्किलें नहीं खड़ी कर चुका हूं, अब तुम उनकी और मुश्किलें न बढ़ाओ।
मुझसे विवाह का निर्णय तुम्हारा भी तो था, संजय...... अनुपमा का स्वर बेहद आहत था।
मैंने कब कहा यह तुम्हारा ही निर्णय था। नंदा-मंदा का विवाह हो जाने दो, फिर जो जी चाहे करना। वाक्य पूरा करता संजय आवेश में बाहर चला गया था।
अनुपमा स्तब्ध खड़ी रह गई थी। विवाह के पूर्व तो संजय अनुपमा की नौकरी के पक्ष में था-
कुछ दिन हम दोनों काम करेंगे फिर अपनी कंसलटेंसी शुरू कर देंगे। हमारी फर्म का नाम होगा .अनुसंजय। क्यों पसन्द आया ये नाम! संजय मानों स्वप्न देखता था।
पर मैनेजिंग डाइरेक्टर मैं ही रहूंगी- तुम अकाउंट सम्हालना, संजय। मुझे अकाउंट्स का काम पसन्द नहीं।
आपकी आज्ञा शिरोधार्य, मैडम।
विवाह के बाद जब अनुपमा ने अपने जॉब की बात की थी तो घर में सन्नाटा खिंच गया था-
संजय अगर बहू ने नौकरी की तो हम मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। हमारी दो बेटियों को कौन ब्याहेगा। संजय के पिताजी दहाड़ उठे थे।
बहू की नौकरी का शौक हमारे मरने के बाद पूरा कर लेना। इसीलिए तो हम डरते थे-ऐसी लड़की हमारे साथ कैसे निबाहेगी।
माँ ने आँचल आँखों से लगा लिया था।
अनुपमा ने शुरू से स्वावलम्बी बनने का स्वप्न देखा था। पर्याप्त धन-सम्पत्ति होते हुए भी माँ कई बार कितनी दयनीय और निरीह लगती थीं। पुत्र का अभाव पापा को सदैव सालता रहा। कई बार माँ की ज़रूरतें भी पापा को फ़िजूल खर्ची महसूस होती थीं। उन अवसरों पर अम्मा अनुपमा के सामने रो पड़ती थीं-
काश में भी पढ़ी-लिखी, होती चार पैसे कमाती तो हर बात के लिए दूसरों का मुंह तो न ताकना पड़ता, अनु।
माँ का वह निरीह रूप अनुपमा के स्वावलम्बी स्वरूप की प्रेरणा बना था। माँ ने भी उसे शुरू से ही अपने पैरों पर खड़ी होने का पाठ घुट्टी में पिलाया था, पर आज अपनी डिग्री के साथ भी वह क्या स्वावलम्बी हो सकी है।
चार-पाँच माह अनुपमा ने जिस मानसिक-यंत्रणा में गुजारे, वही जानती थी। संजय ने आफिस के बाद प्राइवेट कंसलटेंसी का काम भी शुरू कर दिया था। अपने को उसने इस कदर व्यस्त कर लिया था कि देर रात में वह घर बस सोने भर के लिए पहुंच पाता था।
तुम समझती क्यों नहीं अनु, मैं ये जी-तोड़ मेहनत क्या अपने लिए कर रहा हूं? मुझे अपना स्टेटस ऊंचा करना है ताकि नया घर बना सकूं। मैं जानता हुँ यह घर तुम्हारे लायक नहीं है।
मैं भी तो तुम्हारे काम में साथ दे सकती हूं, हम दोनों मिलकर जल्दी ही लक्ष्य पर पहुंच सकते हैं, संजय। वैसे भी घर में पड़े-पड़े बोर ही तो होती हूं।
देखो अनु व्यर्थ की बहस मत करो। घर में क्या काम की कमी है? बेचारी माँ अकेली ही खटती है। एक बात और जान लो, मुझे तुम्हारे सहारे ऊपर नहीं उठना है। मुझमें अपने आप कुछ कर गुजरने की क्षमता है। बहुत रात हो गई है, कुछ देर चैन से सोने दोगी या बाहर कहीं जाकर पड़ रहूं।
खिसियाई अनु तकिये में मुंह गड़ा रो पड़ती। कभी उसका जी चाहता सोते संजय को झकझोर जगाकर उससे पूछे-
सच कहो मुझसे विवाह क्या तुमने अपना स्टेटस ऊंचा करने के लिए नहीं किया था? परिचितों के बीच अपने फादर-इन लॉ के पद-नाम का उल्लेख तुम कितने गर्व से करते हो। पापा से इतना सब पाकर तुमने उनके लिए क्या किया है, संजय! पापा की बीमारी की ख़बर पाकर भी तुम अपनी व्यस्तता के कारण उन्हें देखने न जा सके थे! तुमने तो पापा के पुत्र के अभाव को पूरा करने की बात की थी, संजय। नहीं संजय नहीं......तुम एक बहुत सफल अभिनेता हो, बस।
तकिए पर ढुलके अश्रु-कण, तकिया किस आसानी से सोख लेती थी कि संजय तक कभी भी उनकी नमी नहीं पहुँच सकी।
माँ बनने का स्वप्न अनुपमा ने भी देखा था। अम्मा हमेशा कहती थी-
तेरे आने के बाद से मैंने कभी अपने को अकेला नहीं पाया अनु, वर्ना तेरे पापा के साथ भी मैं कभी अपने को बहुत अकेला पाती थी- -
डाक्टर ने जब कन्फ़र्म कर दिया तो अनुपमा ने बहुत उत्सुकता और लाड़ से संजय पर दृष्टि डाली थी, अन्ततः उन दोनों के प्यार का प्रतीक अंकुरित होने वाला था। संजय का प्रश्न अनुपमा को व्याकुल बना गया था-
डाक्टर मैं जानना चाहूंगा हमारा बेटा आने वाला है या बेटी!
इससे क्या फर्क पड़ता है! आपकी तो यह पहली सन्तान है, वह स्वस्थ जन्मे,यही चाहिए न! हाँ दूसरे बच्चे के जन्म के लिए थोड़ा गैप रखिएगा।
नहीं डाक्टर मुझे बेटी नहीं चाहिए, किसी भी हालत में हम उसे स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है।
पर क्यों, आप्को क्या कमी है? डॉक्टर का विस्मय स्वाभाविक था।
यह मेरा व्यक्तिगत मामला है। आप अनु के भ्रूण का परीक्षण कब करेंगी डॉक्टर?
पर इसके लिए अनु की स्वीकृति भी तो चाहिए, संजय जी।
मेरी इच्छा ही अनु की इच्छा है डॉक्टर-यह मेरी पत्नी है। आप भ्रूण-परीक्षण की डेट दे दीजिए। मै देर नहीं करना चाहता।
अगर ऐसा है तो अगले महीने की तीस तारीख को आ जाइए, पर मैं अब भी कहती हूं, आप दोनों इस विषय में अच्छी तरह सोच-समझ कर ही निर्णय लें। सन्तान पर माँ-बाप दोनों का समान अधिकार है। डॉक्टर का स्वर गम्भीर था।
घर लौटती अनुपमा मौन रही थी, संजय पूरे रास्ते जैसे स्वंय को स्पष्टीकरण देता जा रहा था-
तुम समझ नहीं सकतीं अनुपमा, अभी हमारे ऊपर कितनी जिम्मेदारियाँ है। अभी हम एक और लड़की का दायित्व उठाने की स्थिति में नहीं हैं। नंदा-मंदा से मुक्त हो लें तब देखा जाएगा। बेटे को तो पढ़ा-लिखा दिया, बस हमारा दायित्व पूर्ण हो जाता है। दहेज का भी झंझट नहीं...........
बल्कि बेटे की शादी में लिए गए दहेज से हमारा घर भर ही जाएगा............।
बिल्कुल ठीक कह रही हो। बस याद रखना अगली तीस को डॉक्टर सूद के पास ठीक समय पहुंचना है।
अपने उत्साह में अनुपमा के स्वर में घुले व्यंग्य को भी संजय ने नहीं सुना था। अचानक पच्चीस तारीख को बड़ी मनुहार के साथ अनुपमा ने संजय से अनुरोध किया था-
एक बार ‘तत्ता पानी’ फिर जाने का बहुत मन है, संजय, ले चलोगे?
इस कंडीशन में उतनी दूर मोटर-साइकिल में जाना क्या ठीक होगा, अनु!
हम टूरिस्ट-बस या टैक्सी से भी तो जा सकते हैं.......प्लीज संजय।
ओ0के0। तुम भी क्या याद रखोगी ऐसा दिलदार पति मिला है। इसी वीकेंड में चलते हैं.......नंदा-मंदा को भी साथ.......।
न न, यह अनुरोध मैंने सिर्फ़ अपने लिए किया था संजय, परिवार के साथ फिर कभी..
तुम्हें मेरे परिवार वाले अच्छे नहीं लगते, अनु?
क्या यह मेरा परिवार नहीं है, संजय? पर कभी कोई पल तुम्हारे साथ अकेले बाँटने की आकांक्षा भी तो अस्वाभाविक नहीं है न?
ठीक है, तुमसे बहस में जीतना कठिन है। तुम्हारी ही बात रही, सैटरडे को दस बजे निकल सकोगी?
तुम्हें प्रतीक्षा नहीं करनी होगी, संजय।
शनिवार को ठीक दस बजे कार का हार्न सुनाई पड़ा था। अनु तुरन्त बाहर आ गई , शायद उसकी सुविधा के लिए संजय ने टैक्सी अरेंज की थी। बाहर संजय के मित्र कैलाश नाथ की लाल मारूति में, सामने वाली सीट पर कैलाश के साथ संजय उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।
हलो अनु भाभी, कैसी हैं?
थैंक्स! आप बाहर क्यों बैठे हैं, आइए।
अरे उसे घर आने का निमंत्रण दे रही हो, अभी सत्तर किलोमीटर जाना है। व्यर्थ की फ़ार्मेलिटी छोड़ो और जल्दी से आ जाओ, देर हो रही है। संजय का स्वर खीजा सा था।
क्या कैलाश जी भी जा रहे हैं?
उसे तो नाल-डेहरा जाना था, पर मेरी रिक्वेस्ट पर ‘तत्ता पानी’ तक चल रहा है। सच्चा यार है मेरा........।
ऐसे ही जाने को तैयार नहीं हुआ हूं। मेरी शर्त है कि लंच अनु भाभी ही खिलाएंगी। कैलाश जोर से हॅंस पड़ा था।
आप क्यों व्यर्थ उतनी दूर जाएँगे? हम लोग फिर कभी और चले जाएँगे। अनु का स्वर बुझा-सा था।
अब बेकार का झन्झट मत खड़ा करो। तुम्हारी ही ज़िद पर पूरा दिन वेस्ट कर रहा हूं, वर्ना मुझे वहाँ जाने में कोई इन्टरेस्ट नहीं था। संजय झुंझला उठा ।
ओह समझा। भई संजय यह तो तुम्हारी ज्यादती है। भाभी तुम्हारे साथ अकेले जाना चाहती थीं और तू मुझे पकड़ लाया। विश्वास कीजिए भाभी मैं कवाब में हड्डी नहीं बनूँगा। नाल डेहरा तक तो मुझे टॉलरेट कर सकतीं हैं न?
नहीं .........नहीं वैसी कोई बात नहीं थी, मैं तो आपके कष्ट का सोचकर ही कह रही थी.......। अनु संकुचित सी थी।
अब आ भी जाओ, अनु वर्ना पूरा दिन यहीं बीत जाएगा। संजय रूष्ट हो उठा।
‘तत्ता पानी’ पहुंच अनुपमा ने एक पल के लिए भी संजय की प्रतीक्षा नहीं की थी। सीधें ऊंची कगार से उतरती अनु सतलज तट पर जा पहुँची थी। पीछे से लगभग भागता आया संजय हाँफ उठा था।
ऐसी भी क्या जल्दी थी, मुझे भागकर आना पड़ा।
अनुत्तरित अनुपमा दोनों पाँव सहित सीधे गर्म जल-कुंड में जा खड़ी हुई थी। जल की उष्णता का ताप कपोलों पर उतर आया था। नयन छलछला से उठे थे। चारों ओर दृष्टि डालता संजय अनुपमा को वहाँ खड़ा देख चौंक उठा था-
ये क्या पागल हो गई हो? पाँव में छाले पड़ जाएँगे, तब पता लगेगा।
याद है संजय, इसी उष्ण जल का ताप हरने को तुमने अपने रूमाल को सतलज में भिगो-भिगो कर मेरी जलन दूर की थी?
अब भी मुझसे उसी पागलपन की अपेक्षा रखती हो। जल्दी बाहर आओ।
नहीं अब मै उस भावुकता की अपेक्षा नही रखती। जानते हो इसी जल-कुँड.....नहीं अग्नि-कुंड से पाँव बाहर निकालने के बाद मैंने तुम्हें वरण करने का निर्णय लिया था, और आज इसी अग्नि-कुंड में खड़े हो मैं तुम्हें त्यागने का संकल्प ले चुकी हूं, संजय।
कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो, अनु बस यही बताने, यहाँ इतनी दूर आई हो!
हाँ संजय, उस दिन मैं विस्मित हुई थी-सतलज के इतने ठंडे जल के साथ इतना गर्म पानी अपना अलग अस्तित्व कैसे बनाए हुए है।- उसका सत्य अब पा गई हूं। मेरा उत्तर तुम हो संजय-विरोधाभास का साकार रूप। विवाह के पहले और बाद वाले संजय के अन्तर के समक्ष इतना फ़र्क तो नगण्य है, संजय। मैं सतलज नहीं बन सकी, वर्ना तुमसे एकाकार कर गुरगुनाती ऊष्मा बन जाती। मैं तुम्हारे साथ नहीं बह सकी, संजय...........।
तुम्हारा फ़िलॉसफर फिर जाग गया है, अनु! चलो घर भी लौटना हैं। संजय कुछ परेशान हो उठा था।
संजय ने जबरन अनुपमा को उस जल-कुँड से बाहर निकालना चाहा था, पर अनुपमा ने अपने कॅंधे से उसका हाथ हटा दिया। गर्म जल-कुंड से बाहर निकल सतलज के शीतल जल में पाँव डाल अनुपमा वहीं एक शिला पर बैठ गई।
मैं कल शिमला छोड़ रही हूं, कहीं जॉब ले लूंगी। एक बात और बतानी थी-मैं अपनी बेटी को जन्म दूंगी, यह मेरा दृढ संकल्प है। तुम्हारी इच्छा-अनिच्छा से मेरी बेटी का जन्म नहीं होगा। मेरी इच्छा तुम्हारे अधीन नहीं है, संजय।
तुम डॉक्टर से कब मिलीं अनु, मुझे बताया भी नहीं! संजय चैंक गया था।“
अपनी बेटी के जीवन के लिए ही नहीं, अपने लिए भी मुझे तुमसे दूर जाना ही होगा,संजय। वैसे भी जिसका अस्तित्व ही तुम्हें भयभीत करे, उस बेटी से तुम्हारा क्या नाता? शायद अनु के स्वर में हल्की आर्द्रता आ गई थी।
अच्छा पहले घर तो चलो, वहाँ शांति से कोई निर्णय लेंगे। संजय ने मनुहार सी की थी।
निर्णय तो पहले ही ले चुकी थी, संजय । इस तीर्थ-स्थल पर तो तुम्हारे सामने अपना संकल्प दोहराने भर आई थी। एक स्वप्न जीने ओर खंडित होने के लिए हमेशा तुम्हारी आभारी रहूंगी,संजय।
-अलविदा ‘तत्ता पानी’, अलविदा, संजय ............।
सधे कदमों से पग बढाती अनुपमा और पीछे-पीछे बोझिल कदम धरता पराजित-सा संजय-निरन्तर दूर और छोटा होता हुआ-
‘प्रसन्न रहो बेटा। चश्मे का ठंडा पानी पिओगे?’
नहीं बाबा, नीचे सतलज का पानी पिएँगे। आओ अनु, नीचे उतरते हैं।
ओह गॉड! पूरे तीन घंटे मोटर-बाइक पर बैठे-बैठे बदन दुःख गया। पहले पता होता इतनी दूर आना है तो कभी न आती। अनुपमा ने नाराज़गी दिखाई।
कम ऑन, अनु! सजलज के ठंडे पानी से हाथ-मुंह धोते ही सारी थकान मिनटों में भाग जाएगी अब जल्दी करो, यार।
उतना नीचे उतरना क्या आसान है, संजय?
अगर उतर पाने का साहस नहीं तो बंदा हाजिर है, उठाकर ले चलूं? संजय ने शरारत से पूछा।
छिः, हमें ऐसा मज़ाक पसंद नहीं। मेरे पावों में काफी ताकत है, किसी पर बोझ बनने का शौक नहीं, समझे।
सिर पर चमकते सूरज के कारण अनुपमा के उजले मुख पर पसीना झिलमिला उठा था। नदी-तट की ठंडी हवा ने अनु को उत्साहित कर दिया।
सलवार के पायंचे ऊपर मोड़, बच्चों की सी आतुरता के साथ, अनुपमा सतलज के ठंडे पानी में जा खड़ी हुई।
मुंह पर ठंडे पानी के छींटे डाले ही थे कि सिर के ऊपर आती पानी की बौछार से अनुपमा भीग उठी। दृष्टि उठाते, सामने खड़ा संजय नज़र आया।
अच्छा तो यह तुम्हारी शरारत थी। अनुपमा ने संजय पर भी पानी की बौछार कर डाली।
अरे.......अरे............ये क्या कर रही हो? सारे कपड़े भीग गए।
और मैं जो पूरी भीग गई, वो कुछ नहीं? बाल सूखने में पूरा एक घंटा लगेगा।
इतने लम्बे बाल रखती ही क्यों हो? छोटे बाल कटा लो? पाँच मिनट में सूख जाएँगे।
क्यों मेरे लम्बे बालों से ईर्ष्या होती है?
वाह! क्या बात कही है, जैसे मैं लम्बे बालों की चोटियाँ गूंथ घूमूँगा। डरता हूं, कहीं हमारी अनुपमा के लम्बे-लम्बे बालों को दुश्मन की नज़र न लग जाए। आखिर दोस्त हुँ आपका।
ओह, ऐसे हमदर्द है आप?
ऑफकोर्स........और देखो इस बात को कभी भूलना नहीं.........।
भला ये भी भूलाने की बात है, संजय? अनुपमा गम्भीर हो उठी थी।
यहाँ आना अनु.........तुम्हारे लिए एकदम अनोखी चीज़ है मेरे पास। नदी-तट के पास की जमीन पर हाथों से एक छोटा-सा गढ़ा खोद, संजय ने अनु को पुकारा था।
अब कौन-सा तिलिस्म दिखा रहे हो, संजय? समझ में नहीं आता इस जगह का नाम ‘तत्ता पानी’ क्यों रखा गया है, यहाँ तो बस ठंडा पानी है।
थोड़ा धैर्य रखें मिस अनुपमा, सब समझ में आ जाएगा। जरा इस पानी का टेम्परेचर तो बताना। हाथ से खोदे उस गड्ढे में नदी का पानी भर आया था।
अरे वाह तुम तो सचमुच जादूगर हो, इतनी सी देर में कुआँ खोद डाला। अनुपमा ने परिहास किया।
जनाब, यह अंडर-ग्राउंड वाटर का कमाल है। इस पानी की महिमा ही अलग है- पापियों के सारे पा धो डालता है। विश्वास न हो तो आज़मा कर देख लो।
मैंने कौन पाप किए हैं जो आज़माने की ज़रूरत पड़े। देखूं कितना गहरा कुआँ खोद पाये हैं-मिस्टर जादूगर। हॅंसी-हॅंसी में गहराई नापने के लिये अनुपमा पानी से भरे उस गड्ढे में जा खड़ी हुई थी। पल भर में अनुपमा चीख सी पड़ी।
क्यों पता लग गया न -‘तत्ता-पानी’ नाम क्यों दिया गया? संजय हॅंस रहा था।
नहीं बोलना है तुमसे। इत्ता गरम पानी-जैसे उबलते पानी में पाँव जा पड़ा हो। कितनी जलन हो रही है। अनुपमा रूंआसी हो आई।
आई एम रियली सॉरी। मैंने कब सोचा था, सीधे पानी में जा खड़ी होगी? संजय सचमुच कंसर्न दिख रहा था।
पास पड़े पत्थर पर अनुपमा को बैठा, संजय ने सतलज के ठंडे पानी में अपना रूमाल भिगोकर अनुपमा के दोनों तलवों पर लपेट दिया।
अब जलन कम हो रही है न, अनु?
उहुंक और बढ गई है।
इस जलन की वजह जानती हो, अनु?
हमें बेकार की बातें अच्छी नहीं लगतीं।
तब क्या अच्छा लगता है, अनु?
सतलज के ठंडे पानी के पास- इतना गर्म पानी-बहुत अच्छा लगा ये अजूबा, संजय।
यही तो चमत्कार है। जानती हो इस जगह को तीर्थ माना जाता है। जाड़ों में यहाँ मेला जुटता है। तीर्थ-यात्री गर्म पानी में स्नान कर, पुण्य कमाते हैं।
वाह, क्या नेचुरल अरेंजमेंट है, वर्ना पिघली बर्फ़ की नदी के पास, इतने गर्म पानी की बात भला सोची जा सकती है। सच ये विरोधाभास तो बस भगवान को ही सम्भव है।
बड़े-बुजुर्गो का कहना है ‘तत्ता-पानी’ के दो घूंट पीने से पत्थर भी हजम हो जाता है।
बशर्ते पत्थर खाए जाएँ। अनु हॅंस दी थी।
चलो आज हम भी आज़मा देखें। दो घूंट पानी पीकर नाल डेहरा चलते हैं। लंच वहीं लिया जाए, ठीक है न
ठीक है, यह एक्सपेरिमैंट भी कर डालें। पर पानी हाथ में लेते ही उसकी उष्णता ने अनुपमा को तिलमिला दिया।
सतलज का ठंडा पानी मिलाकर दो घूंट पी लो-वर्ना सह नही पाओगी।
वाह दूसरा पानी मिलाने से इसका असर कम न हो जायेगा?
थोड़ा-सा पानी मुंह में लेते ही अनुपमा का मुंह बन गया -
ओह नो! ये तो एकदम खारा है.............।
इसमें गंधक जो मिला है, गंधक की तासीर जानती हो? संजय ने जानकारी देनी चाही थी।
भाड़ में जाये गंधक की तासीर............. पर इतने गर्म पानी में तो चावल पक सकते हैं न, संजय?
चावल लाई हो क्या? चलो लंच यहीं तैयार कर डालते हैं। ये भी एक नया एक्सपीरिएंस होगा। संजय अनुपमा को चिढा रहा था।
यह हंसी मे उड़ाने की बात नहीं है, संजय। इस गर्म पानी में चावल पका लो ओर सतलज में कुलफ़ी जम जाये। अगली बार हम पूरी तैयारी के साथ यहाँ आएँगे।
उसके लिये तो जाड़े के मौसम का इन्तज़ार करना होगा। जाड़ों में कुलफ़ी का मज़ा ही और होता है। संजय कल्पना का आनन्द ले रहा था।
प्रकृति में कितना कुछ है, संजय-जितना ही डूबो-डूबते ही जाओ। अनुपमा जैसे सपना देख रही थी।
तुम्हारा फ़िलॉसफर जाग जाये उसके पहले चल दीजिए, मैडम, वर्ना यहीं बैठे रह जायेंगे। पैंट की क्रीज ठीक करता संजय उठ खड़ा हुआ।
बाई दि वे, आपके पाँव की जलन अब कैसी है, मिस अनुपमा सि़द्धार्थ?
आपकी सेवा बेकार नहीं गई, एकदम ठीक हूं, चलें?
‘नाल-डेहरा’ पहुंचते-पहुंचते अनुपमा को सचमुच तेज भूख लग आई थी।
संजय, तुम्हारा नुक्सान हो गया।
वो कैसे?
गंधक के पानी ने पूरा असर दिखाया है, इतनी ज़ोर से भूख लग आई है कि तुम्हारा बिल डबल हो जायेगा।
बस इतनी सी बात है? आपके लिये तो हमारी जान भी हाज़िर है। इस छोटे से बिल के लिये परेशान हो, हमें निराश कर रही हो जानेमन।
फिर डायलॅागबाजी! तुम्हे तो कोई नाटक कम्पनी ज्वाइन करनी चाहिए थी। अपना एक्टिंग छोड़ पहले लंच का आर्डर प्लेस करें एजनाब। अनुपमा ने रोष दिखाया था।
ऐट योर सर्विस मैम ......वेटर.........।
सच, आज मज़ा आ गया। पहले से जानती तो आज तक न जाने कितनी बार यहाँ आ चुकी होती। पापड़ दाँत से काटती अनुपमा ने कहा था।
पहले कैसे आ पातीं? यहां तक ढ़ोकर लाने को कोई चाहिए था न?
अच्छा तो तुम मुझे ढोकर लाये हो? तुम नहीं तो कोई और मिल जाता...........।
कोई और कैसे मिल जाता-? तुम्हारी किस्मत में तो मेरा साथ लिखा था।
ठीक कहते हो, संजय, यहाँ न आती तो क्या तुम मिलते?
अरे इसीलिए तो कहा जाता है जोड़े ऊपर बनकर आते हैं, वर्ना तुम यहाँ आती ही क्यों?
सच, जब यहाँ के एडमीशन की इन्फ़ार्मेशन घर पहुँची तो शिमला आने का खूब विरोध हुआ था। दादी ने तो खाना छोड़ने तक की धमकी दे डाली थी, संजय।
फिर कैसे आ पाई, अनु?
अम्मा ने जो साथ दिया था। पापा से कहा था कि आज अकेली लड़की अमरीका इंग्लैंड तक जा सकती है हमारी अनु शिमला ही तो रहेगी। इंजीनियर बन अपने पाँव पर खड़ी हो सकेगी, किसी की मोहताज तो न रहेगी।
तुम्हारी माँ तुम्हारी नौकरी के फ़ेवर में हैं, अनु? हमारी कम्यूनिटी की यही खराबी हैं, लड़कियों की नौकरी को सम्मानजनक नहीं माना जाता।
तुम भी ऐसा ही सोचते हो, संजय?
अभी मैं निर्णय ले सकने की स्थिति में नहीं हूं, अनु! कभी कुछ बन सका तब सोचूँगा। तुम्हारे पापा आसानी से तुम्हें शिमला भेजने को राजी हो गए थे, अनु?
अम्मा और मेरी ज़िद के आगे पापा को हथियार डालने पड़ गए थे......अन्ततः उनकी इकलौती बेटी हूं न। जरा सा दर्प छलक आया था अनु के स्वर में।
यू आर रियली लकी, अनु तुम जो चाहो पा सकती हो।कुछ गंभीर स्वर मे संजय ने कहा।
जैसे तुम कम लकी हो, संजय-तुम्हें किस बात की कमी है? जो चाहोगे-पाओगे। मेरा विश्वास करो।
तुम बहुत अच्छी हो, अनु। सोचता हुँ पहले दो वर्ष हम अजनबी क्यों बने रह गये?
तुम्हारी नज़र ओर लड़कियों पर जो लगी रहती थी.......मुझ पर दृष्टि कहाँ पड़ी थी? कुछ शोखी से अनुपमा ने जवाब दिया।
अपना भाग्य सराहो, मैंने सिर्फ़ तुम पर निगाह डाली है, वर्ना लड़कियों की क्या कमी थी
बड़े आए अपने मुंह-मिया मिट्ठू। वैसे जनाब हम भी किसी से कम नहीं। मेरे लिये आपकी यह दीवानगी इस सत्य की साक्षी है।
दीवानगी तो ठीक है, पर अब भविष्य मुझे चिन्तित कर रहा है, अनु।
भविष्य की चिन्ता तुम्हें क्यों? एक माह बाद फ़ाइनल परीक्षा होगी और तुम्हें आराम से कहीं अच्छा जॉब मिल जायेगा, संजय।
परेशानी सिर्फ़ जॉब की ही तो नहीं है........जीवन में तुम आई हो, क्या तुम्हें बीच रास्ते मे छोड़, कहीं जा सकता हूं, अनु
क्या मैं इतनी गई-गुजरी हूं कि मुझे लेकर तुम परेशान हो,संजय? अनुपमा उदास सी थी।
ऐसी बात नहीं हैंए अनु, पर माँ-बाबूजी भी तो अपने एकमात्र पुत्र के विवाह के लिए कुछ अरमान रखते होंगे। विजातीय विवाह पर वे आपत्ति तो अवश्य करेंगे।
ये बातें तुमने पहले नहीं सोची थीं, संजय? अनुपमा का स्वर तनिक तिक्त हो आया था।
इश्क पर ज़ोर नहीं चलता, डार्लिंग। वैसे भी यह मेरी प्रॉब्लेम है, मैं ही सॉल्व करूँगा। तुम्हारे लिए चपाती और मंगाऊं?। संजय वैसे ही सहज हो आया था।
न ......अब भूख नहीं रही। अनुपमा ने प्लेट सरका दी थी।
चियर-अप माई डियर। एक वह सीता जी थीं पति के साथ जंगल-जंगल घूमी, यहाँ जरा सी बात पर भूख-हड़ताल की जा रही है। हे भगवान, कैसे कटेगी ये ज़िन्दगी। संजय की नाटकीय मुद्रा पर अनुपमा हॅंस पड़ी।
गर्ल्स-होस्टेल में ड्राप करते संजय को अनुपमा ने जब ‘थैक्स’ देने के लिए मुंह खोलना चाहा, तो अचानक उसके अधखुले अधरो पर संजय ने अपना स्नेह चुम्बन अंकित कर, मोटर साइकिल तीव्र गति से भगा ली।
फ़ाइनल परीक्षा के अंतिम दिन अनुपमा उदास हो उठी। कल उसे वह होस्टेल, संगी-साथी छोड़, घर चले जाना था। घर जाने की खुशी के स्थान पर गहरे अवसाद ने उसे घेर लिया था। संजय से मिलने के पूर्व कॉलेज का जीवन नितान्त नीरस सा था। छुट्टियों में घर जाने के लिए वह कितनी व्यग्र हुआ करती थी, पर आज घर जाना कितना कठिन लग रहा था। संजय का उसके जीवन में आगमन कितना सहज और स्वाभाविक लगा था।
लोकल गार्जियन की बेटी शिखा, संजय के मित्र की बहिन थी। पहली बार संजय से बातचीत शिखा के घर में ही हुई थी-
हलो, अनुपमा। संजय ने अनु से कहा।
हलो........? अपरिचय का भाव अनु के चेहरे पर स्पष्ट था।
कमाल हैं, अपने क्लासमेट को यूँ देख रही हैं मानो कोई अजनबी हूं। आपके ठीक पीछे बैठता हूं, हमेशा का बैक- बेंचर रहा हूं। संजय के चेहरे पर मुस्कान थी।
ओह .........। अनुपमा ने जैसे आश्वस्ति की श्वास ली थी।
एक बात बताइए, एक्जाम्स में इतने अच्छे मार्क्स हमेशा कैसे पा लेती हैं आप?
कोई ख़ास बात तो नहीं, बस यूँही.........।
मैं बताऊं संजय भइया, अनुपमा दीदी आपकी तरह घूमने में समय जो व्यर्थ नहीं करती। अगर आप भी सिर्फ़ पढ़ाई पर ध्यान दें तो आपको भी अच्छे नम्बर मिल सकते हैं, संजय भइया। शिखा ने गम्भीरता से उत्तर दिया था।
हियर.........हियर..........आपकी सलाह सिर-आँखों और कोई हुक्म? सब हॅंस पड़े थे।
प्रायः शिखा के परिवार की पिकनिक, पार्टीज में अनुपमा के साथ संजय भी सम्मिलित होता था। धीमे-धीमे अनुपमा का संकोच कम होता गया था। संजय को अनुपमा के गाम्भीर्य और सौन्दर्य ने आकृष्ट किया था, और अनुपमा उसके खुले स्वभाव पर मुग्ध हुई थी। अनुपमा के गाम्भीर्य का कवच भेद, संजय उसके हृदय के इतने नजदीक पहुंच गया था कि आज उससे बिछोह अनुपमा को असंभव लग रहा था।
घर वापिसी के समय संजय अनुपमा को छोड़ने स्टेशन आया था। अनुपमा के उदास मुख पर संजय हॅंसी ले आया था-
घर पहुंच हमें भूलने की जुर्रत मत करना, अनु। कोई दूसरा खोज लिया तो उसका हत्यारा मैं ही बनूंगा-समझीं।
अगर तुमने देर की तो अम्मा-पापा प्रतीक्षा नहीं करेंगे। उन्हें मेरे फ़ाइनल एक्ज़ाम्स की ही प्रतीक्षा थी, वर्ना अब तक डोली पर बिठा, विदा कर दी गई होती।
मेरे रहते अनु की डोली किसी और के घर में नहीं जा सकती, ये बात माँ-पापा को ठीक से समझा देना, अनु।
चलती गाड़ी से अनु देर तक संजय को हाथ हिलाते देखती रही।
घर में अम्मा-पापा से अधिक दादी उसके लिए व्यग्र थीं।
चल छोकरी की ज़िद पूरी हो गई-इंजीनियर बन आई। अब तो इसके हाथ पीले कर बेटा, वर्ना मैं चैन से मर भी न सकूंगी।
वाह दादी, बियाह मेरा नहीं होगा और चैन से दादी नहीं मरेंगी..........भला ये भी कोई बात हुई।
हाय राम, जरा लड़की की बातें तो सुनो। इसीलिए कहते हैं, लड़की को जियादा न पढ़ाओ। दस गज की लम्बी जबान चलाए है छोकरी। दादी क्रुद्ध हो उठी थीं।
अम्मा, तुम सब मेरी चिन्ता छोड़ दो। कुछ ही दिनों में मुझे माँगने वह आएगा।
कौन आएगा अनु , कहीं कुछ उल्टा-सीधा तो नहीं कर आई है, बेटी; मेरे नाम को तो नहीं लजाएगी? अम्मा व्यग्र हो चुकी थीं।
नहीं अम्मा, तुम्हारी बेटी ऐसी गलती नहीं कर सकती। कुछ दिन और प्रतीक्षा करो, सब ठीक हो जाएगा।
संजय का पत्र पाकर अनुपमा का मन फीका पड़ गया-
मेरी अनु,
माँ-बाबूजी को समझा पाना कितना कठिन है............बात-बात में समाज और रीति-रिवाजों की दुहाई देते हैं। मेरे विजातीय विवाह के कारण मेरी दो छोटी बहिनों का भविष्य प्रभावित हो सकता है। एक रास्ता है. अगर उनके विवाह में भारी दहेज दे दिया जाए तो शायद उनका रिश्ता अच्छे परिवारों में हो सके, पर मेरे वेतन से यह शर्त पूरी कर पाना संभव नहीं है, अनु।
मेरी बात, मेरी परेशानी समझ रही हो न; तुम्हारे सिवा किसी अन्य की कल्पना भी नहीं कर सकता वर्ना माँ-बाबूजी ने तो धनाढ्य परिवारों की एकलौती लड़कियाँ मेरे लिए देख रखी थीं, पर किसी ओर से विवाह के लिए वे मुझे राजी नहीं कर सकते।
मेरी अनु, तुम अपने पापा को राजी करके मेरे बाबूजी के पास भेज दो। तुम्हारी ज़िद वे ज़रूर मान जाएँगे। एक बात और कहनी है, दहेज में बाबूजी की जो भी माँग हो, उसे अपने पापा से कहकर स्वीकृति दिला देना। हम दोनों मिलकर पापा का दिया सब वापिस कर देंगे (सिवाय उनकी बेटी के), यह मेरा वादा है। हम दोनों अलग तो नहीं है न? इसी विश्वास से यह सब लिख रहा हुँ। बहुत याद आती हो।
प्यार सहित-
तुम्हारा ही संजय
अनुपमा के उदास मुख को ताकती अम्मा चिन्तित हो उठी थी।
किसका पत्र है, अनु? कोई बुरी खबर तो नहीं है, बेटी? प्रत्युत्तर में पत्र माँ को थमा अनुपमा मौन रह गई थी।
तेरी क्या सम्मति है, बेटी? तेरी खुशी में हमारी खुशी है, पर निर्णय सोच-समझ के लेना। शुरू में ही जहाँ अड़चने हैं, वहाँ आगे की सोच, मुझे तो डर लगता है।
बस इतना जान लो अम्मा, मैं संजय के बिना जी नहीं सकूंगी। अश्रुपूरित नयनों के साथ, माँ के कंधे पर सिर रख अनुपमा सिसक पड़ी थी।
मैं समझ गई। तेरे पापा को मैं राज़ी कर लूंगी, अनु।
माँ-बेटी की जिद पर पापा, अनुपमा के विवाह का प्रस्ताव ले, संजय के घर गए थे। वे दो दिन अनुपमा ने बेहद बेचैनी में काटे थे।
घर वापिस आए पिता के मुख पर संतोष देख अनुपमा जी गई थी।
लड़का होनहार और समझदार है, अनु की माँ। उसके माँ-बाप को पैसे का लालच ज़रूर है, पर हमें कौन-सी अपनी जायदाद साथ ले जानी है। मैंने कह दिया मेरी एक ही बेटी है, सब कुछ उसी का है।
अम्मा-पापा ने जी खोल विवाह में खर्च किया था। संजय के पिता की माँग की लम्बी सूची देख दादी रूष्ट हो उठी थीं-
भला ये भी कोई बात हुई? कंगलों में बेटी दे रहे हो। हमारे दिए से घर भरेंगे।
ऐसे कुबोल न बोल, अम्मा। अरे लड़के ने तो साफ़ कहा था उसे हमारा कुछ नहीं चाहिए, पर बाप के आगे विवश है। पूरा घाघ है संजय का पिता, फिर हमारे पास क्या कमी है? इतना देकर क्या हम कंगाल हो जाएँगे? पापा ने हॅंस कर बात टालनी चाही थी।
और अम्माजी जब हम अपनी लड़की ही दे रहे हैं, तो और सब सामान की क्यों चिन्ता करें? सब कुछ उसी का तो है। अनुपमा की माँ ने सास को समझाना चाहा था।
धूमधाम से विवाह के बाद अनुपमा ससुराल पहुँची थी। ससुराल के छोटे से दरबेनुमा घर को देख अनुपमा का जी कसक उठा था। यह घर देखकर भी पापा ने उसके विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दी थी? पापा कर भी क्या सकते थे, लाड़ली बेटी का हठ उन्हें विवश बना गया था।
अपने कमरे के लिए सीढ़ियाँ चढ़ती अनुपमा उदास हो उठी। । घूंघट काढे बैठी अनु को देखने आई औरतें बार- बार घूंघट हटा उसे तौलती सी लगतीं । अनु की परेशानी के जवाब मे संजय ने कहा--
नई बहू के मुख को देखने को मेला जुटता है, बाद में कौन पूछता है। चार दिन इसका भी आनन्द उठा लो, अनु। कितनी सहजता से संजय ने समझा दिया था।
अनगिनत रीति-रिवाज निभाती पूजा-आरती करती अनुपमा थक गई थी। जमाना कहाँ बदला था-उसकी इंजीनियरिंग की डिग्री का क्या मूल्य था? और तो और अपने घर के पुरातनपंथी आचार-विचार को पूर्ण निष्ठा से निभाता संजय भी अनुपमा के लिए एक नया व्यक्ति था। हर बात में माता-पिता के सेंटीमेट्स का हवाला दे, वह अपने को सर्वथा मुक्त रखता था।
विवाह के दो माह बाद दिल्ली के एक कार्यालय से अनुपमा के लिए साक्षात्कार में उपस्थित होने का पत्र आया था। प्रसन्नता से अनुपमा खिल उठी-
सोलह जुलाई को दिल्ली में इन्टरव्यू अटेंड करना है। रिजर्वेशन कराना है, संजय, वहाँ मेरे कजिन रहते हैं, वह मुझे रिसीव कर लेंगे।।
तुम दिल्ली में जॉब लोगी?
इतना अच्छा चांस छोड़ना क्या बुद्धिमानी है!
मैं शिमला रहूंगा और तुम दिल्ली में नौकरी करोगी! नौकरी का ऐसा ही शौक था तो शादी क्यों की, अनु! संजय के रूखे स्वर पर अनुपमा चैंक गई थी।
यह क्या कह रहे हो! शिमला में तुमने ही तो जॉब नहीं लेने दिया था, संजय............।
वह तो ठीक ही था, अनु। घर की बहू नौकरी करेगी तो क्या माँ-बाबूजी अपने समाज में सिर ऊंचा करके चल सकेंगे! नन्दा-मन्दा के विवाह में पहले ही इतनी मुश्किलें आ रही है.......तुम हमारी कम्यूनिटी को नहीं जानतीं, अनु। पहले ही गैर-जाति में विवाह करने के कारण माँ-बाबूजी के लिए कम मुश्किलें नहीं खड़ी कर चुका हूं, अब तुम उनकी और मुश्किलें न बढ़ाओ।
मुझसे विवाह का निर्णय तुम्हारा भी तो था, संजय...... अनुपमा का स्वर बेहद आहत था।
मैंने कब कहा यह तुम्हारा ही निर्णय था। नंदा-मंदा का विवाह हो जाने दो, फिर जो जी चाहे करना। वाक्य पूरा करता संजय आवेश में बाहर चला गया था।
अनुपमा स्तब्ध खड़ी रह गई थी। विवाह के पूर्व तो संजय अनुपमा की नौकरी के पक्ष में था-
कुछ दिन हम दोनों काम करेंगे फिर अपनी कंसलटेंसी शुरू कर देंगे। हमारी फर्म का नाम होगा .अनुसंजय। क्यों पसन्द आया ये नाम! संजय मानों स्वप्न देखता था।
पर मैनेजिंग डाइरेक्टर मैं ही रहूंगी- तुम अकाउंट सम्हालना, संजय। मुझे अकाउंट्स का काम पसन्द नहीं।
आपकी आज्ञा शिरोधार्य, मैडम।
विवाह के बाद जब अनुपमा ने अपने जॉब की बात की थी तो घर में सन्नाटा खिंच गया था-
संजय अगर बहू ने नौकरी की तो हम मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। हमारी दो बेटियों को कौन ब्याहेगा। संजय के पिताजी दहाड़ उठे थे।
बहू की नौकरी का शौक हमारे मरने के बाद पूरा कर लेना। इसीलिए तो हम डरते थे-ऐसी लड़की हमारे साथ कैसे निबाहेगी।
माँ ने आँचल आँखों से लगा लिया था।
अनुपमा ने शुरू से स्वावलम्बी बनने का स्वप्न देखा था। पर्याप्त धन-सम्पत्ति होते हुए भी माँ कई बार कितनी दयनीय और निरीह लगती थीं। पुत्र का अभाव पापा को सदैव सालता रहा। कई बार माँ की ज़रूरतें भी पापा को फ़िजूल खर्ची महसूस होती थीं। उन अवसरों पर अम्मा अनुपमा के सामने रो पड़ती थीं-
काश में भी पढ़ी-लिखी, होती चार पैसे कमाती तो हर बात के लिए दूसरों का मुंह तो न ताकना पड़ता, अनु।
माँ का वह निरीह रूप अनुपमा के स्वावलम्बी स्वरूप की प्रेरणा बना था। माँ ने भी उसे शुरू से ही अपने पैरों पर खड़ी होने का पाठ घुट्टी में पिलाया था, पर आज अपनी डिग्री के साथ भी वह क्या स्वावलम्बी हो सकी है।
चार-पाँच माह अनुपमा ने जिस मानसिक-यंत्रणा में गुजारे, वही जानती थी। संजय ने आफिस के बाद प्राइवेट कंसलटेंसी का काम भी शुरू कर दिया था। अपने को उसने इस कदर व्यस्त कर लिया था कि देर रात में वह घर बस सोने भर के लिए पहुंच पाता था।
तुम समझती क्यों नहीं अनु, मैं ये जी-तोड़ मेहनत क्या अपने लिए कर रहा हूं? मुझे अपना स्टेटस ऊंचा करना है ताकि नया घर बना सकूं। मैं जानता हुँ यह घर तुम्हारे लायक नहीं है।
मैं भी तो तुम्हारे काम में साथ दे सकती हूं, हम दोनों मिलकर जल्दी ही लक्ष्य पर पहुंच सकते हैं, संजय। वैसे भी घर में पड़े-पड़े बोर ही तो होती हूं।
देखो अनु व्यर्थ की बहस मत करो। घर में क्या काम की कमी है? बेचारी माँ अकेली ही खटती है। एक बात और जान लो, मुझे तुम्हारे सहारे ऊपर नहीं उठना है। मुझमें अपने आप कुछ कर गुजरने की क्षमता है। बहुत रात हो गई है, कुछ देर चैन से सोने दोगी या बाहर कहीं जाकर पड़ रहूं।
खिसियाई अनु तकिये में मुंह गड़ा रो पड़ती। कभी उसका जी चाहता सोते संजय को झकझोर जगाकर उससे पूछे-
सच कहो मुझसे विवाह क्या तुमने अपना स्टेटस ऊंचा करने के लिए नहीं किया था? परिचितों के बीच अपने फादर-इन लॉ के पद-नाम का उल्लेख तुम कितने गर्व से करते हो। पापा से इतना सब पाकर तुमने उनके लिए क्या किया है, संजय! पापा की बीमारी की ख़बर पाकर भी तुम अपनी व्यस्तता के कारण उन्हें देखने न जा सके थे! तुमने तो पापा के पुत्र के अभाव को पूरा करने की बात की थी, संजय। नहीं संजय नहीं......तुम एक बहुत सफल अभिनेता हो, बस।
तकिए पर ढुलके अश्रु-कण, तकिया किस आसानी से सोख लेती थी कि संजय तक कभी भी उनकी नमी नहीं पहुँच सकी।
माँ बनने का स्वप्न अनुपमा ने भी देखा था। अम्मा हमेशा कहती थी-
तेरे आने के बाद से मैंने कभी अपने को अकेला नहीं पाया अनु, वर्ना तेरे पापा के साथ भी मैं कभी अपने को बहुत अकेला पाती थी- -
डाक्टर ने जब कन्फ़र्म कर दिया तो अनुपमा ने बहुत उत्सुकता और लाड़ से संजय पर दृष्टि डाली थी, अन्ततः उन दोनों के प्यार का प्रतीक अंकुरित होने वाला था। संजय का प्रश्न अनुपमा को व्याकुल बना गया था-
डाक्टर मैं जानना चाहूंगा हमारा बेटा आने वाला है या बेटी!
इससे क्या फर्क पड़ता है! आपकी तो यह पहली सन्तान है, वह स्वस्थ जन्मे,यही चाहिए न! हाँ दूसरे बच्चे के जन्म के लिए थोड़ा गैप रखिएगा।
नहीं डाक्टर मुझे बेटी नहीं चाहिए, किसी भी हालत में हम उसे स्वीकार करने की स्थिति में नहीं है।
पर क्यों, आप्को क्या कमी है? डॉक्टर का विस्मय स्वाभाविक था।
यह मेरा व्यक्तिगत मामला है। आप अनु के भ्रूण का परीक्षण कब करेंगी डॉक्टर?
पर इसके लिए अनु की स्वीकृति भी तो चाहिए, संजय जी।
मेरी इच्छा ही अनु की इच्छा है डॉक्टर-यह मेरी पत्नी है। आप भ्रूण-परीक्षण की डेट दे दीजिए। मै देर नहीं करना चाहता।
अगर ऐसा है तो अगले महीने की तीस तारीख को आ जाइए, पर मैं अब भी कहती हूं, आप दोनों इस विषय में अच्छी तरह सोच-समझ कर ही निर्णय लें। सन्तान पर माँ-बाप दोनों का समान अधिकार है। डॉक्टर का स्वर गम्भीर था।
घर लौटती अनुपमा मौन रही थी, संजय पूरे रास्ते जैसे स्वंय को स्पष्टीकरण देता जा रहा था-
तुम समझ नहीं सकतीं अनुपमा, अभी हमारे ऊपर कितनी जिम्मेदारियाँ है। अभी हम एक और लड़की का दायित्व उठाने की स्थिति में नहीं हैं। नंदा-मंदा से मुक्त हो लें तब देखा जाएगा। बेटे को तो पढ़ा-लिखा दिया, बस हमारा दायित्व पूर्ण हो जाता है। दहेज का भी झंझट नहीं...........
बल्कि बेटे की शादी में लिए गए दहेज से हमारा घर भर ही जाएगा............।
बिल्कुल ठीक कह रही हो। बस याद रखना अगली तीस को डॉक्टर सूद के पास ठीक समय पहुंचना है।
अपने उत्साह में अनुपमा के स्वर में घुले व्यंग्य को भी संजय ने नहीं सुना था। अचानक पच्चीस तारीख को बड़ी मनुहार के साथ अनुपमा ने संजय से अनुरोध किया था-
एक बार ‘तत्ता पानी’ फिर जाने का बहुत मन है, संजय, ले चलोगे?
इस कंडीशन में उतनी दूर मोटर-साइकिल में जाना क्या ठीक होगा, अनु!
हम टूरिस्ट-बस या टैक्सी से भी तो जा सकते हैं.......प्लीज संजय।
ओ0के0। तुम भी क्या याद रखोगी ऐसा दिलदार पति मिला है। इसी वीकेंड में चलते हैं.......नंदा-मंदा को भी साथ.......।
न न, यह अनुरोध मैंने सिर्फ़ अपने लिए किया था संजय, परिवार के साथ फिर कभी..
तुम्हें मेरे परिवार वाले अच्छे नहीं लगते, अनु?
क्या यह मेरा परिवार नहीं है, संजय? पर कभी कोई पल तुम्हारे साथ अकेले बाँटने की आकांक्षा भी तो अस्वाभाविक नहीं है न?
ठीक है, तुमसे बहस में जीतना कठिन है। तुम्हारी ही बात रही, सैटरडे को दस बजे निकल सकोगी?
तुम्हें प्रतीक्षा नहीं करनी होगी, संजय।
शनिवार को ठीक दस बजे कार का हार्न सुनाई पड़ा था। अनु तुरन्त बाहर आ गई , शायद उसकी सुविधा के लिए संजय ने टैक्सी अरेंज की थी। बाहर संजय के मित्र कैलाश नाथ की लाल मारूति में, सामने वाली सीट पर कैलाश के साथ संजय उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।
हलो अनु भाभी, कैसी हैं?
थैंक्स! आप बाहर क्यों बैठे हैं, आइए।
अरे उसे घर आने का निमंत्रण दे रही हो, अभी सत्तर किलोमीटर जाना है। व्यर्थ की फ़ार्मेलिटी छोड़ो और जल्दी से आ जाओ, देर हो रही है। संजय का स्वर खीजा सा था।
क्या कैलाश जी भी जा रहे हैं?
उसे तो नाल-डेहरा जाना था, पर मेरी रिक्वेस्ट पर ‘तत्ता पानी’ तक चल रहा है। सच्चा यार है मेरा........।
ऐसे ही जाने को तैयार नहीं हुआ हूं। मेरी शर्त है कि लंच अनु भाभी ही खिलाएंगी। कैलाश जोर से हॅंस पड़ा था।
आप क्यों व्यर्थ उतनी दूर जाएँगे? हम लोग फिर कभी और चले जाएँगे। अनु का स्वर बुझा-सा था।
अब बेकार का झन्झट मत खड़ा करो। तुम्हारी ही ज़िद पर पूरा दिन वेस्ट कर रहा हूं, वर्ना मुझे वहाँ जाने में कोई इन्टरेस्ट नहीं था। संजय झुंझला उठा ।
ओह समझा। भई संजय यह तो तुम्हारी ज्यादती है। भाभी तुम्हारे साथ अकेले जाना चाहती थीं और तू मुझे पकड़ लाया। विश्वास कीजिए भाभी मैं कवाब में हड्डी नहीं बनूँगा। नाल डेहरा तक तो मुझे टॉलरेट कर सकतीं हैं न?
नहीं .........नहीं वैसी कोई बात नहीं थी, मैं तो आपके कष्ट का सोचकर ही कह रही थी.......। अनु संकुचित सी थी।
अब आ भी जाओ, अनु वर्ना पूरा दिन यहीं बीत जाएगा। संजय रूष्ट हो उठा।
‘तत्ता पानी’ पहुंच अनुपमा ने एक पल के लिए भी संजय की प्रतीक्षा नहीं की थी। सीधें ऊंची कगार से उतरती अनु सतलज तट पर जा पहुँची थी। पीछे से लगभग भागता आया संजय हाँफ उठा था।
ऐसी भी क्या जल्दी थी, मुझे भागकर आना पड़ा।
अनुत्तरित अनुपमा दोनों पाँव सहित सीधे गर्म जल-कुंड में जा खड़ी हुई थी। जल की उष्णता का ताप कपोलों पर उतर आया था। नयन छलछला से उठे थे। चारों ओर दृष्टि डालता संजय अनुपमा को वहाँ खड़ा देख चौंक उठा था-
ये क्या पागल हो गई हो? पाँव में छाले पड़ जाएँगे, तब पता लगेगा।
याद है संजय, इसी उष्ण जल का ताप हरने को तुमने अपने रूमाल को सतलज में भिगो-भिगो कर मेरी जलन दूर की थी?
अब भी मुझसे उसी पागलपन की अपेक्षा रखती हो। जल्दी बाहर आओ।
नहीं अब मै उस भावुकता की अपेक्षा नही रखती। जानते हो इसी जल-कुँड.....नहीं अग्नि-कुंड से पाँव बाहर निकालने के बाद मैंने तुम्हें वरण करने का निर्णय लिया था, और आज इसी अग्नि-कुंड में खड़े हो मैं तुम्हें त्यागने का संकल्प ले चुकी हूं, संजय।
कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो, अनु बस यही बताने, यहाँ इतनी दूर आई हो!
हाँ संजय, उस दिन मैं विस्मित हुई थी-सतलज के इतने ठंडे जल के साथ इतना गर्म पानी अपना अलग अस्तित्व कैसे बनाए हुए है।- उसका सत्य अब पा गई हूं। मेरा उत्तर तुम हो संजय-विरोधाभास का साकार रूप। विवाह के पहले और बाद वाले संजय के अन्तर के समक्ष इतना फ़र्क तो नगण्य है, संजय। मैं सतलज नहीं बन सकी, वर्ना तुमसे एकाकार कर गुरगुनाती ऊष्मा बन जाती। मैं तुम्हारे साथ नहीं बह सकी, संजय...........।
तुम्हारा फ़िलॉसफर फिर जाग गया है, अनु! चलो घर भी लौटना हैं। संजय कुछ परेशान हो उठा था।
संजय ने जबरन अनुपमा को उस जल-कुँड से बाहर निकालना चाहा था, पर अनुपमा ने अपने कॅंधे से उसका हाथ हटा दिया। गर्म जल-कुंड से बाहर निकल सतलज के शीतल जल में पाँव डाल अनुपमा वहीं एक शिला पर बैठ गई।
मैं कल शिमला छोड़ रही हूं, कहीं जॉब ले लूंगी। एक बात और बतानी थी-मैं अपनी बेटी को जन्म दूंगी, यह मेरा दृढ संकल्प है। तुम्हारी इच्छा-अनिच्छा से मेरी बेटी का जन्म नहीं होगा। मेरी इच्छा तुम्हारे अधीन नहीं है, संजय।
तुम डॉक्टर से कब मिलीं अनु, मुझे बताया भी नहीं! संजय चैंक गया था।“
अपनी बेटी के जीवन के लिए ही नहीं, अपने लिए भी मुझे तुमसे दूर जाना ही होगा,संजय। वैसे भी जिसका अस्तित्व ही तुम्हें भयभीत करे, उस बेटी से तुम्हारा क्या नाता? शायद अनु के स्वर में हल्की आर्द्रता आ गई थी।
अच्छा पहले घर तो चलो, वहाँ शांति से कोई निर्णय लेंगे। संजय ने मनुहार सी की थी।
निर्णय तो पहले ही ले चुकी थी, संजय । इस तीर्थ-स्थल पर तो तुम्हारे सामने अपना संकल्प दोहराने भर आई थी। एक स्वप्न जीने ओर खंडित होने के लिए हमेशा तुम्हारी आभारी रहूंगी,संजय।
-अलविदा ‘तत्ता पानी’, अलविदा, संजय ............।
सधे कदमों से पग बढाती अनुपमा और पीछे-पीछे बोझिल कदम धरता पराजित-सा संजय-निरन्तर दूर और छोटा होता हुआ-
तस्वीर
अपार्टमेंट की खिड़की खोलते ही वे दोनों फिर दिखाई दिए। रोज सुबह उसी मेपल वृक्ष के नीचे दोनों वृद्ध घण्टों बैठे रहते । निःशब्द शून्य में निहारते, सड़क की व्यस्तता से इतने निर्लिप्त मानो उनके सामने व्यस्त सड़क नहीं, शून्य सागर लहरा रहा है। कभी आपस में बात करते मैंने उन्हें शायद ही देखा हो। चेहरों पर वही उदासीनता, जो यहां के वृद्धों के चेहरों पर अक्सर दिखाई देती है।
विनीत से पूछा-
कौन हैं ये लोग रोज देखती हूं इन्हें, बस खड़े या बैठे रहते है।
वे-बेघर हैं, आंटी। लोगों से पैसों की मदद चाहते हैं।
क्या? मैंने तो सोचा था अमेरिका में भिखारी नहीं होते?
यहाँ भी गरीब लोग रहते हैं, इनका कोई घर नहीं है।
पर मैंने तो उन्हें किसी से कुछ माँगते नहीं देखा न कोई उन्हें कुछ देता है। ये भिखारी कैसे हुए?
वह हमारे यहाँ की तरह जोर से गुहार नहीं लगाते बस धीमें से पूछेंगे। हैव यू गॉट ए क्वार्टर यानी उन्हें पच्चीस सेंट्स दे सकते हो? कभी पूछते हैं ,हम उनके लिए क्या कर सकते हैं।
मैं उनसे जाकर कुछ बात कर सकती हूं ?
ऐसी गलती मत करना, अमेरिकन बहुत रिज़र्व्ड होते हैं, व्यक्तिगत बातें कतई पसन्द नहीं करते विनीत ने स्पष्ट चेतावनी दे दी थी।
विनीत की स्पष्ट चेतावनी के वावजूद दूसरे दिन उसके कॉलेज जाने के बाद सड़क पार कर मैं उस मेपल वृक्ष के नीचे पहुंच ही गई। मध्य जून में आलबनी में खासी गर्मी पड़ रही थी। मेंपल की ठण्डी छाया बहुत सुखद लग रही थी। अविचलित मूर्ति सदृश्य खड़े उस वृद्ध से अभिवादन पर प्रत्युत्तर की आशा में उनकी ओर देखा था। एक पल को सफेद पलकें हिली थीं, मौन रह कर ही धीमें से सिर हिला दिया। विनीत की कही बात याद हो आई फिर भी जब वहाँ तक पहुंच ही गई तो प्रश्न तो पूछने ही थे।
आपको रोज़ यहाँ देखती हूं। लगता यहाँ के पुराने रहने वाले हैं, आप!
यस। बस उसके बाद और कुछ नहीं कहा था उन्होंने।
कैसा लगता है यहाँ............मेरा मतलब है, आपने शायद अपनी युवावस्था यहाँ बिताई होगी और आज इस आयु में भी आप यहाँ है। तब और आज में बहुत अन्तर होगा! प्रश्न करती मेरी दृष्टि उस निर्विकार झुर्रियोंदार चेहरे पर टिक गई।
उपेक्षा से मुझ पर दृष्टि डाल वह सड़क निहारने लगे। अपमानित अनुभव करके भी मैंने पुनः कुरेदा।
लगता है, मेरी बात करना आपको पसन्द नहीं।
वर्षों से मैंने किसी से बात नहीं की है, मैं बात करना भूल गया हूं। संक्षिप्त सा उत्तर।
मैं भारत से आई हूं, हमारी मान्यता है बातें करने से मन हल्का हो जाता है। मैं यहाँ टूरिस्ट हूं। एक माह रहूंगी यहां के जीवन के प्रति उत्सुकता है। आपके अनुभवों का लाभ उठाना चाहूंगी।
यहाँ का जीवन? ये दौड़ती कारें-जीवन का प्रतिनिधित्व करती हैं। संक्षिप्त सा उत्तर पाकर मन में आशा सी बंध गई।
ये कारें भी तो कहीं ठहरती होंगी, कही तो इनका भी पड़ाव आता होगा।
जहाँ वे थकीं, पड़ाव लेने की चाह जागी, स्क्रेप. यार्ड में फेंक दी जाती हैं। फिर वही संक्षिप्त उत्तर।
अगर आपको कभी समय मिले उस सामने वाले अपार्टमेंट में आइए। आपके साथ एक कप चाय पीकर बहुत अच्छा लगेगा। दिन में बहुत अकेलापन महसूस करती हूं।
मैं कहीं नहीं जाता। उत्तर के बाद वह उठकर चल दिए और मैं अपमानित वापिस आ गई। विनीत ने ठीक ही कहा था इनसे बात करने की चेष्टा ही व्यर्थ है।
अगले चार-पाँच दिन हम न्यूयार्क घूमने चले गये। वापिस आये अभ्यासवश सड़क के पार दृष्टि चली गई। सामने वही वृद्ध दीवार का सहारा ले खड़े थे। हाथ में एक पोलीथीन के बैग में कुछ था। खिड़की खुलते ही लगा उन्होंने दृष्टि उठा अपार्टमेंट की ओर देखा है, पर शायद वह मेरा भ्रम था। अगले क्षण वह पुनः निर्लिप्त से सड़क पर दृष्टि गड़ाए थे।
चाय का कप थामते ही कॉल- बेल बजी। कहीं विनीत तो वापिस नहीं आया। द्वार खोलते ही उन्हें खड़ा देखा। प्रसन्न मुख अभिवादन कर उन्हें अन्दर आने का निमन्त्रण दिया। धीमें थके कदमों से चलकर वह अन्दर आ गए। ड्राइंगरूम में उन्हें बिठा, चाय लाने की अनुमति ले, मैं किचेन में आ गई।
चाय के साथ बिस्किट ले उनके पास पहुंची तो पाया वह ड्राइंगरूम की दीवार पर सजे तैल- चित्रों को खड़े हो ध्यान से देख रहे थे। विनीत के लिये मैं तीन-चार चित्र बनाकर लाई थी। मेरे आने पर पूछा।
किसने बनाए हैं ये चित्र।
मैंने।
कहीं सीखा था।
जी नहीं, यूं ही हाबी की तरह शौकिया बनाती हूं।
कुछ अभ्यास से अच्छे चित्र बना सकती हो। स्ट्रोक ठीक है।
क्या आपको पेंटिग आती हैं? मैं विस्मित थी।
एक ज़माने में यही मेरा जीवन थी।
फिर छोड़ क्यों दिया? यह हॉबी तो अकेलेपन को भी दूर भगाती है। मेरी प्रतिक्रिया स्वभाविक थी।
हाँ, पर कभी यह अपनों से दूर भी कर सकती है। अजीब उत्तर था। चाय पीकर वह अब जाने लगे तो पूछा
अपने चित्र दिखाएँगे।
अपने किसी चित्र को मैंने अपनी स्मृति में भी नहीं रखा है। रूखेपन से उत्तर दे वे चले गए दूसरे दिन न जाने क्यों लगा वह आएंगे और सचमुच पहले दिन के समय ही वह उपस्थित थे। प्रसन्नता से कहा था
आपकी प्रतीक्षा में मैंने अभी चाय नहीं पी, आइए।
चाय पीने नहीं आया हूं, तुम्हें देने को यह ब्रश लाया था इससे अपने चित्रों को मैं अन्तिम रूप देता था।
एक सूखा सा बेहद पुराना ब्रश थमाते उनकी दृष्टि कोई एक पल को ब्रश पर ठहरी और फिर हटा ली। ब्रश थामते उस अज्ञात वृद्ध के प्रति मेरा हृदय न जाने कैसी करूणा से भर उठा।
मैं इसे बहुत सम्भाल के रखूंगी, इससे मेरे चित्रों में जान पड़ जाएगी। बहुत धन्यवाद।
भगवान तुम्हें सफलता दें। वृद्ध ने सच्चे हृदय से आशीष दिया।
आप मुझे पेंटिंग की कुछ बारीकियाँ समझायेंगे।
इसे कभी अपने जीवन से मत जोड़ना बस। मैं उनके उत्तर पर अपना विस्मय न रोक सकी।
आपका यह दर्शन मेरी समझ में नहीं आता, कला तो तभी सफल होती है, जब जीवन का अंग बन जाती है; तभी उसमें पूर्णतः घुल जाती है।
मैंने इसे अपने जीवन से जोड़ा था, जीवन से ज्यादा प्यार किया था उसे। वह मेरी कलाकृति थी अनुपम-अद्वितीय। मेरी सर्वोत्तम कृति उस रचना के बाद लगा था उससे अधिक और कुछ बना पाना सम्भव नहीं पर जानती हो जाते-जाते क्या कह गई!
वृद्ध मानो स्वागत भाषण कर रहे थे, उनकी सब बातें स्पष्ट कुछ समझ पाना भी तो कठिन था कभी-कभी तो एकदम बुदबुदाते से लगते थे। मैं कुछ समझ पाने की पूरी चेष्टा कर रही थी।
तब जीवन से भरपूर युवा था मैं, पेंटिग मेरी हॉबी थीं ।हर सुन्दर चीज़ को चित्र में उतारना मेरी ज़िद थी। कॉलेज की हर लड़की मेरी मॉडेल बनना चाहती थी। प्रकृति के हर रंग को चित्र में कैद करने का भूत सवार था मुझ पर। ढेर सारे चित्रों से मेरा घर भर गया था। मित्रों ने जिद करके उन चित्रों की एक प्रदर्शनी आयोजित कराई थी। वह वहां आई थी। मेरे एक-एक चित्र को मंत्रमुग्ध निहारती रह गई थी। अभिभूत खड़ी उसकी एक मुद्रा ऐसी भाई कि उसके अनजाने, एक स्केच खींच उसे भेंट कर दिया। अपना रेखाचित्र देख वह चमत्कृत हो उठी।
इतनी सुन्दर दिखती हूं क्या मैं? प्रश्न में बच्चों सा कौतूहल और भोलापन था।
इससे हज़ार गुना ज्यादा सुन्दर। यह तो बस रेखाएँ हैं। तुममें जो नैसर्गिक रंग है वह कहां भर पाया हूं। वाक्य जैसे अपने आप फ़िसल गया था।
तब तो यह स्क्रेच नहीं लूंगी मैं रंगीन चित्र दीजिए। कुछ शैतानी से वह मुस्कराई थी। उसकी मुस्कान के सम्मोहन में मैं बंध गया था।
मेरा मॉडेल बनना पड़ेगा, अपना पूरा समय देना होगा मैं भी शरारत पर उतर आया था।
कब से बैठना होगा, अभी इसी पल से मेरा समय आपका है। शब्दों में उतावली थी।
मैं हंस पड़ा था ‘कल सुबह दस बजे यहाँ आना होगा’ ठीक पौने दस पर वह उपस्थित थी उसके आने से पहले पूरी रात सोचता रह गया था किस रूप, किस मुद्रा में वह सबसे अच्छी लगेगी स्टूडियो लेजा उससे कहा था जैसे तुम्हें जैसे अच्छा लगे उसी तरह बैठो।
जानती हो वह कैसे बैठी थी? अपनी पूरी तरह दृष्टि मुझ पर निबद्ध कर, पूर्ण आत्मविश्वास से मुस्करा रही थी वह। उसकी दृष्टि में न जाने कैसा चैलेन्ज लगा था मुझे मानो कह रही थी अपने कैनवास पर लाख कोशिश करके भी देख लेना, कभी तुम मुझे, मुझसे ज़्यादा सुन्दर नहीं उतार सकते।
बस मैं जैसे पागल हो गया। पूरे दिन न जाने कितने प्रयास किए, पर एक में भी पूर्णता नहीं अनुभव की मैंने। थक गया पर वह अविचलित उसी गर्वित मुद्रा में मुस्कराती रही। मैं हार गया, उसके जाने के बाद भी उसकी वह अविजित छवि मेरे मानस पर अंकित रही। शायद पूरी रात ब्रश चलता रहा था मैं। सुबह उसने ही आकर जगाया था- मुख पर उल्लास छलक रहा था।
अदभुत-इस सौंदर्य की मैं स्वामिनी हूं-विश्वास नहीं होता। सच कहो इसमें तुमने अपनी कल्पना के रंग तो नहीं भरे हैं? रात का चित्र उसके हाथ में था। बस फिर तो वह मेरे चित्रों की नायिका बन गई थी। कभी झरने में नहाती छवि, कभी डूबते सूर्य की लालिमा से रंजित उसका उदास मुख, कहीं फूलों की लताओं के बीच से झांकता उसका मुख, कहीं विलोज की लताओं में झूलती वह, कभी इन्द्रधनुषी सपने आंखों में उतारे हॅंसती ,टीना।
टीना का पहला चित्र जब न्यूयार्क की पत्रिका में प्रकाशित हुआ तो मेरे पास प्रशंसा के न जाने कितने पत्र आए थे। टीना के सौंदर्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थीं। कुछ ने उसका पता जानना चाहा था कुछ अन्य चित्रकारों ने उस मॉडेल की खोज की थी। मैं डर गया था, कहीं टीना को ये लोग मुझ से अलग न कर दें। प्रदर्शनियों पत्रिकाओं में मैं विशेष ध्यान रखता टीना के चित्र न जाएं। टीना ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। वह अपने को, मेरी पेन्टिंग के लिए पूर्ण रूप से समर्पित कर चुकी थी। टीना को कोई मुझसे छीन न ले यह भय सदैव मुझ पर हावी रहता था उसके बिना अपूर्ण पाता था मैं अपने को। एक दिन उससे पूछ ही लिया था।
मेरी जीवन. साथिन बन हमेशा को मेरे पास रह सकती हो, टीना।
उत्तर में टीना ने अपना चेहरा मेरे वक्ष में छिपा लिया। ओह स्टीव कब से मैं प्रतीक्षा कर रही थी-आई लव यू स्टीव।
विवाह के लिए टीना के पापा ने सहर्ष सहमति नहीं दी थी। धनी पिता की एक मात्र बेटी थी टीना। एक साधारण चित्रकार से टीना का विवाह उन्हें नहीं रूचा था। उनकी इच्छा के विरूद्ध हमने विवाह किया था। विवाह के बाद टीना ने अपने पिता का घर भुला ही दिया था, मैंने अगर कभी कुछ पूछना चाहा तो टीना का स्पष्ट उत्तर रहता,
जो निर्णय मैंने ले लिया वह अटल होता है, पापा से संबंध तोड़, तुमसे जोड़ा है। पापा ने तुम्हें स्वीकार नहीं किया तभी मैंने उनके अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया था। पापा इस बात को मुझसे ज्यादा जानते हैं, वह कभी मेरे पास नहीं आएंगे, स्टीव। तुम परेशान मत हो।
शायद टीना की यही बात उसके चरित्र की विशेषता थी जिसे मैं नज़रअन्दाज़ करता रहा। वह ऊपर से विलो-लता सी लचीली थी, कोमल थी, पर अन्दर से पर्वत सी दृढ़ थी, कोई उसे हिला नहीं सकता था। टीना को पाकर लगा था सारा विश्व मैंने जीत लिया हो। टीना-सी पत्नी ओर जॉन-सा मित्र-हमारा संसार पूर्ण हो उठा था। टीना को मैंने न जाने कितने कैनवसों पर उतार डाला था, पर मन नहीं भरता था। हमेशा लगता था अब भी कहीं कुछ और बाकी है कहीं कोई अपूर्णता हैं। जॉन टीना के चित्रों का शुरू से प्रशंसक था। कई बार उसने पूछा था।
अपनी प्रदर्शनियों में टीना के चित्र न लगाकर अन्याय करते हो, स्टीव। तुम्हारी कला उन्हीं चित्रों में खिली हैं।
जॉन के प्रस्ताव को मैं हमेशा टाल जाता था। टीना के कुछ न्यूड चित्र भी, जो मैंने पहले बनाए थे, अब वे मेरे शयनकक्ष की शोभा थे। एक वर्ष बाद हमारी बच्ची का जन्म हुआ था। हमारे प्रेम की प्रतीक अप्रतिम, अपूर्व, अद्वितीय कलाकृति इतनी कोमल कि लगता था, स्पर्श से ही कुम्हला जाएगी हमने उसका नाम, एंजलीना दिया था। एकदम ग्रीक देवी सी पवित्र और प्यारी थी वह।
एंजलीना को पाकर लगा मेरी कला पूर्ण हो गई। अपने चित्रों में मैं लाख प्राण भरने की कोशिश करता पर वे निर्जीव ही रहते। एंजलीना मेरी सजीव, सप्राण कलाकृति थी। मैं उसका निर्माता था, गर्व से भर उठा था मैं। एंजलीना को कैनवास पर उतार मैंने टीना से कहा था-
आज मेरी साधना पूर्ण हो गई। इतना सुन्दर चित्र इसके पहले कभी नहीं बनाया था। एक क्षण को लगा टीना मेरी बात पर कुछ बुझ-सी गई थी, पर शायद वह मेरा भ्रम था। यह सोच कर मैंने ध्यान नहीं दिया।
एंजलीना के चित्र मैंने पत्रिकाओं में भेजने शुरू कर दिए थे। हर जगह से उन चित्रों की प्रशंसा आ रही थी। चित्रों की माँग बढ़ती जा रही थी। मैं दिनरात ब्रश चलाता। एंजलीना की हर अदा कैनवास पर उतारता रहा। नन्हीं बच्ची के चेहरे का भोलापन उसकी हंसी निश्छल मुस्कान पूरी स्वाभाविकता के साथ मैं चित्रित कर रहा था। इस बीच मैं टीना को मानो भूल सा गया था।
एक दिन पत्रिकाओं में प्रकाशित अपने चित्रों को देखती टीना ने कहा था,
तुम्हें याद ही नहीं ,स्टीव कभी मुझे कैनवास पर चित्रित कर तुम धन्य होते थे। ये कुछ चित्र जॉन ने मेरी अनुमति से प्रकाशित कराए हैं, काफी पैसा आ गया है इनसे। सोचा अचानक सरप्राइज दूंगी तुम्हें।
अपने चित्रों पर तुम्हारा अधिकार है-प्रकाशन का नहीं, ये मेरे चित्र हैं, मेरी मेहनत का परिणाम है। उत्तेजना मेरे शब्दों में स्पष्ट थी।
कुछ कम्पनीज मॉडलिंग को बुला रही हैं, स्टीव अगर हाँ कह दो...............।
कभी नहीं-मेरी पत्नी हो तुम-मुझे कतई पसन्द नहीं, समझीं।
तो स्लेव हूं तुम्हारी............ ताले में बन्द कर रखोगे मुझे? टीना के स्वर में आक्रोश था। मैं शान्त रह गया।
दूसरे दिन टीना ने चाय पीते हुए जॉन से मेरी शिकायत की थी। जॉन ने टीना का ही पक्ष ले मुझसे कहा था।
इतनी सुन्दर पेटिंग्स को केवल अपनी सम्पत्ति बनाए रखना समाज के प्रति अन्याय है, स्टीव। मैं कहता हूं, तुम एक प्रदर्शनी सिर्फ टीना की ही पेंटिग्स की क्यों नहीं करते? टीना इस प्रस्ताव पर खिल उठी थी।
क्या ये सम्भव है जॉन! मैं एक प्रदर्शनी की अकेली नायिका बन सकती हूं!
क्यों नहीं! देखना इस प्रदर्शनी के बाद स्टीव अमेरीका का सर्वश्रेष्ठ चित्रकार का ख़िताब पाएगा और तुम सौंदर्य- साम्राज्ञी का।
क्यों बेकार की बातें कर रहे हो, तुम जानते हो मै इसके फ़ेवर में नहीं हूं। मैंने स्पष्ट इन्कार कर दिया था।
क्यों नहीं, स्टीव-सोचो तुम्हारे कलाकार को मान मिलेगा और कलाकार की दृष्टि में उसका मॉडेल सिर्फ मॉडेल है, पत्नी. प्रेयसि कोई नहीं, प्लीज हाँ कह दो न, स्टीव। जॉन ने ज़िद की।
मैं इस प्रदर्शनी के लिए तत्पर नहीं था। लगता था अपना निजी जीवन पब्लिक के लिए खोल रहा हूं। टीना और जॉन के उत्साह और अनुरोध पर अनिच्छा के बावजूद भी मैंने स्वीकृति दे दी थी।
टीना का अधिकांश समय उन दिनों जॉन के साथ प्रदर्शनी के आयोजन की तैयारी में ही बीतता था। मैं उनके उत्साह से निर्लिप्त बना, अपने को व्यस्त बनाए रहा। दो दिन के बाद प्रदर्शनी का उदघाटन होने वाला था। उदघाटन के समय चित्रकार के रूप में मेरी उपस्थिति अनिवार्य थी। टीना ने मेरे लिए नया सूट बनवया था। टाई और कमीज़ भी उसने अपनी पसन्द की निकाली थी। उसका उत्साह से दमकता मुख न जाने क्यों मुझे ईर्ष्यालु बना रहा था-मानो वह मेरी कला नहीं अपने सौंदर्य का प्रदर्शन कर, दूसरों की प्रशंसा पा, मुझे पराजित करना चाहती थी। वह बार-बार कहती............।
अगर प्रदर्शनी सफल रही तो तुम्हें बहुत सम्मान मिलेगा न, स्टीव!.............. मेरे मन के भावों को पूरी सच्चाई से से चित्रित किया है तुमने। मुझे पूरा विश्वास हैं तुम्हें प्रसिद्धि, यश मिलेगा, स्टीव।
जॉन ने प्रदर्शनी का आयोजन निःसंदेह बहुत सुन्दर ढंग से किया था। उदघाटन के लिए प्रसिद्ध गणमान्य व्यक्ति आमंत्रित थे।
उन चित्रों का निर्माता मैं, एक सम्मानित अतिथि के रूप में खड़ा था। टीना गुलाबी परिधान में प्रशंसकों से घिरी हुई थी। उसका सुन्दर चेहरा गुलाब-सा खिला हुआ था। कभी बीच में आ कानों में फुसफुसा जाती,
इट इज गोइंग टु वी ए ग्रैंड सक्सेस। लोग मेरी कला से अधिक उसकी नायिका के प्रति आकृष्ट थे यह स्पष्ट था। तभी मेरी दृष्टि पीछे की दीवार पर गई थी, जहाँ टीना के न्यूड चित्र टंगे थे। कुछ लड़के उन चित्रों को देख अपमान जनक रूप में मुस्कराते टिप्पणी दे रहे थे। कुछ ही पलों में मैं अपने निर्णय पर पहुंच गया। निश्चय ही इस प्रदर्शनी का आयोजन टीना को एक माडल रूप में प्रतिष्ठित करने की दृष्टि में किया गया था। चित्रों के नीचे ‘अछूता सौदर्य’, ‘दिव्य रूप’ ‘इन्द्रधनुषी सपने’ ‘अनछुई कली’ आदि शीर्षक दिए गए थे। अपनी उदासीनता दिखाने के लिए उदघाटन के पहले मैं कभी भी प्रदर्शनी की व्यवस्था आदि देखने नहीं गया था, अन्यथा न्यूड चित्र लगाने की परमीशन कभी न देता। उन चित्रों को वहाँ देख मैं बौखला उठा। भीड़ से घिरी टीना को बाहर खींच लाया । मेरा मुख तमतमा रहा था।
ये चित्र तुमने यहाँ क्यों लगाए!
क्यों यही तो मेरे सर्वोत्तम चित्र है इन्हें देख मुझे यू-एस की कम से कम पाँच बड़ी कम्पनीज ने माँडलिंग के आफ़र दिए हैं। टीना दर्प से मुस्कराई थी। व्यापक न्यूड।
तुम न्यूड- मॉडलिंग करोगी? सबके सामने इन चित्रों की तरह अपने को खोल के रखोगी? मेरा स्वर आवेश पूर्ण था।
तो इसमें नुक्सान ही क्या है? सुन्दरता सबके इन्ज्वायमेंट की वस्तु है। कमरे में बन्द रखने की चीज़ नहीं है, माई डियर हस्बैंड। टीना परिहास में बात समाप्त करना चाहती थी।
मेरा आवेश बढ़ता जा रहा था ..मेरी पत्नी हो सबकी नहीं समझीं। मैं चिल्लाया।
टीना विस्मित थी धीमे से बोली,
जो कहना है घर चल कर कहन॥ तुम तो एकदम ओरिऐंटल हस्बैंड की तरह बिहेव कर रहे हों। डोंट बी सो पोजिसिव, माई डियर।
साफ़-साफ़ कयों नहीं कहतीं, तुम मेरे बनाए चित्रों के सहारे अपने लिए नया रास्ता चुन रही हो। याद रखो अगर मैंने चित्र न बनाये होते; तुम्हें इतनी इंपार्टेन्स न दी होती तो बड़ी कम्पनीज तो क्या कोई मामूली आदमी भी तुम्हें नहीं पूछता। मैं क्रोध में भला-बुरा सब भूल चुका था।
मुफ्त मॉडलिंग की थी मैंने तुम्हारे लिए अगर पैसा लिया होता तो आज मेरा महत्व समझते। अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ये चित्र बनाये थे, तुमने। टीना भी उत्तेजित हो उठी थी।
उसके इस वाक्य पर जैसे पागल हो उठा था मैं। जेब से पूरे पैसे निकाल उस पर फेंक मारे थे ..
ये लो पैसा कितना, पैसा चाहिए! मैं स्वार्थी हूं , तुम्हें एक्सप्लायट किया है न? ये लो...........
पागलपन में मैंने उसके चित्र उतार कर फाड़ने शुरू कर दिये। जॉन मुझे रोकने आया तो उसे झिड़ककर दूर कर दिया। मेरे इस व्यवहार से घबरा कर लोग प्रदर्शनी- हॉल से बाहर जाने लगे थे। अपमानित टीना ने बस एक पल को मेरी ओर ताका था और फिर तेजी से बाहर चली गयी। सारे चित्रों को फाड़कर ही मुझे शाँति मिली। प्रदर्शनी हॉल में बस मैं अकेला रह गया था। जॉन उन फटे कागजों को समेट रहा था।
बहुत देर सड़कों पर घूमने के बाद एंजलीना याद आई थी। स्वयं महसूस कर रहा था, मुझसे ज्यादती हो गई। मुझसे संयत व्यवहार की आशा की जानी चाहिए थी। टीना के चित्रों पर दी गई टिप्पणियों ने शायद मेरे रक्त में उबाल ला दिया था। अपनी गलती को जस्टीफ़ाई करता सोच रहा था टीना से कैसे माफी मागूंगा?
घर एकदम सूना मिला था। एंजलीना की बेबी- सिस्टर मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी। उसने ही बताया था।
मेम साहब बेबी को लेकर कहीं गई हैं, मेसेज आपकी टेबिल पर है।
टेबिल पर टीना की चंद पंक्तियाँ थीं-
अपने को कलाकार कहने का दम्भ भरते हो, सच तो यह है कि तुम सिर्फ़ एक महत्वाकांक्षी, स्वार्थी और क्षुद्र व्यक्ति हो। कलाकार अपनी कला से सबको आमंत्रित करता है। उसकी कला उसकी आराध्या होती है, तुम तो अपनी कला को अपनी क्रीतदासी समझते हो
मैं जा रही हूं। साथ में तुम्हारी अनुपम कलाकृति जिसके निर्माण का दावा तुम करते हो, उसे भी ले जा रही हूं। याद रखना यह कलाकृति तुम्हारी नहीं, तुम्हारे दुर्बल क्षणों की देन, मेरी चीज़ है। इसका निर्माण मैंने तुम्हारे चित्रकार को देखकर किया था-इसकी निर्मात्री मैं हूं,। यह सिर्फ़ मेरी है। इसके निर्माण में तुम्हारा अस्तित्व, मैं अस्वीकार करती हूं।
मुझे खोजना व्यर्थ है। अब तुम अपनी साधना बस अपने लिए करना। अलविदा-
टीना।
उसी दिन से मैं यहाँ खड़ा उसे खोज रहा हूं। पार्किंग स्पेस ही वह जगह है, जहाँ टीना ने प्रदर्शनी आयोजित की थी। मेरी नन्हीं बच्ची एंजलीना तो अब पूर्ण युवती होगी। यहाँ से गुजरती हर बच्ची में मैं अपनी एंजलीना को खोजता हूं। हर स्त्री के चेहरे में टीना को पहिचानना चाहता हूं। मेरी इस खोज में मेरे मित्र जॉन ने भी अपना जीवन बिता दिया है। अब तो अंतिम बेला आ गई है, न जाने टीना जीती है या नहीं।
आपके साथ आपके मित्र जॉन खड़े रहते हैं।
हाँ टीना के घर छोड़ जाने में वह अपने को दोषी ठहराता है। प्रदर्शनी- आयोजन का प्रस्ताव उसी ने रखा था न।
आपने कभी टीना या एंजलीना के चित्र किसी मैंगजीन में प्रकाशित नहीं देखे? हो सकता है उन्होंने मॉडलिंग का काम अपना लिया हो!
नहीं, वह मुझे बेहद प्यार करती थी। मैं जानता हूं, उसने मॉडलिंग कभी नहीं अपनाई होगी। वह जानती थी, मैं इसके लिये उसे कभी स्वीकृति नहीं देता। बहुत स्वाभिमानी थी टीना, उसने कुछ भी किया होगा, पर मेरी इच्छा के विरूद्ध कुछ नहीं करेगी।
इतना प्यार, इतनी अंडरस्टैंडिग फिर भी आप दोनों कभी नहीं मिले?
टीना का यही स्वभाव था जो उसने छोड़ दिया, जिस चीज का परित्याग कर दिया, उसे दुबारा कभी ग्रहण नहीं करेगी। यही उसकी कमज़ोरी थी, यही उसका बल था। बात समाप्त कर के वह चल दिए।
चंद मिनटों के बाद खिड़की से, उन्हें जॉन के साथ अपनी दृष्टि से दूर जाते देखती रही। एक शूल सा जैसे मेरे अन्दर धंसता चला जा रहा था।
हे भगवान, इन्हें इनकी टीना से मिला दे, मैंने प्रार्थना की थी।
विनीत से पूछा-
कौन हैं ये लोग रोज देखती हूं इन्हें, बस खड़े या बैठे रहते है।
वे-बेघर हैं, आंटी। लोगों से पैसों की मदद चाहते हैं।
क्या? मैंने तो सोचा था अमेरिका में भिखारी नहीं होते?
यहाँ भी गरीब लोग रहते हैं, इनका कोई घर नहीं है।
पर मैंने तो उन्हें किसी से कुछ माँगते नहीं देखा न कोई उन्हें कुछ देता है। ये भिखारी कैसे हुए?
वह हमारे यहाँ की तरह जोर से गुहार नहीं लगाते बस धीमें से पूछेंगे। हैव यू गॉट ए क्वार्टर यानी उन्हें पच्चीस सेंट्स दे सकते हो? कभी पूछते हैं ,हम उनके लिए क्या कर सकते हैं।
मैं उनसे जाकर कुछ बात कर सकती हूं ?
ऐसी गलती मत करना, अमेरिकन बहुत रिज़र्व्ड होते हैं, व्यक्तिगत बातें कतई पसन्द नहीं करते विनीत ने स्पष्ट चेतावनी दे दी थी।
विनीत की स्पष्ट चेतावनी के वावजूद दूसरे दिन उसके कॉलेज जाने के बाद सड़क पार कर मैं उस मेपल वृक्ष के नीचे पहुंच ही गई। मध्य जून में आलबनी में खासी गर्मी पड़ रही थी। मेंपल की ठण्डी छाया बहुत सुखद लग रही थी। अविचलित मूर्ति सदृश्य खड़े उस वृद्ध से अभिवादन पर प्रत्युत्तर की आशा में उनकी ओर देखा था। एक पल को सफेद पलकें हिली थीं, मौन रह कर ही धीमें से सिर हिला दिया। विनीत की कही बात याद हो आई फिर भी जब वहाँ तक पहुंच ही गई तो प्रश्न तो पूछने ही थे।
आपको रोज़ यहाँ देखती हूं। लगता यहाँ के पुराने रहने वाले हैं, आप!
यस। बस उसके बाद और कुछ नहीं कहा था उन्होंने।
कैसा लगता है यहाँ............मेरा मतलब है, आपने शायद अपनी युवावस्था यहाँ बिताई होगी और आज इस आयु में भी आप यहाँ है। तब और आज में बहुत अन्तर होगा! प्रश्न करती मेरी दृष्टि उस निर्विकार झुर्रियोंदार चेहरे पर टिक गई।
उपेक्षा से मुझ पर दृष्टि डाल वह सड़क निहारने लगे। अपमानित अनुभव करके भी मैंने पुनः कुरेदा।
लगता है, मेरी बात करना आपको पसन्द नहीं।
वर्षों से मैंने किसी से बात नहीं की है, मैं बात करना भूल गया हूं। संक्षिप्त सा उत्तर।
मैं भारत से आई हूं, हमारी मान्यता है बातें करने से मन हल्का हो जाता है। मैं यहाँ टूरिस्ट हूं। एक माह रहूंगी यहां के जीवन के प्रति उत्सुकता है। आपके अनुभवों का लाभ उठाना चाहूंगी।
यहाँ का जीवन? ये दौड़ती कारें-जीवन का प्रतिनिधित्व करती हैं। संक्षिप्त सा उत्तर पाकर मन में आशा सी बंध गई।
ये कारें भी तो कहीं ठहरती होंगी, कही तो इनका भी पड़ाव आता होगा।
जहाँ वे थकीं, पड़ाव लेने की चाह जागी, स्क्रेप. यार्ड में फेंक दी जाती हैं। फिर वही संक्षिप्त उत्तर।
अगर आपको कभी समय मिले उस सामने वाले अपार्टमेंट में आइए। आपके साथ एक कप चाय पीकर बहुत अच्छा लगेगा। दिन में बहुत अकेलापन महसूस करती हूं।
मैं कहीं नहीं जाता। उत्तर के बाद वह उठकर चल दिए और मैं अपमानित वापिस आ गई। विनीत ने ठीक ही कहा था इनसे बात करने की चेष्टा ही व्यर्थ है।
अगले चार-पाँच दिन हम न्यूयार्क घूमने चले गये। वापिस आये अभ्यासवश सड़क के पार दृष्टि चली गई। सामने वही वृद्ध दीवार का सहारा ले खड़े थे। हाथ में एक पोलीथीन के बैग में कुछ था। खिड़की खुलते ही लगा उन्होंने दृष्टि उठा अपार्टमेंट की ओर देखा है, पर शायद वह मेरा भ्रम था। अगले क्षण वह पुनः निर्लिप्त से सड़क पर दृष्टि गड़ाए थे।
चाय का कप थामते ही कॉल- बेल बजी। कहीं विनीत तो वापिस नहीं आया। द्वार खोलते ही उन्हें खड़ा देखा। प्रसन्न मुख अभिवादन कर उन्हें अन्दर आने का निमन्त्रण दिया। धीमें थके कदमों से चलकर वह अन्दर आ गए। ड्राइंगरूम में उन्हें बिठा, चाय लाने की अनुमति ले, मैं किचेन में आ गई।
चाय के साथ बिस्किट ले उनके पास पहुंची तो पाया वह ड्राइंगरूम की दीवार पर सजे तैल- चित्रों को खड़े हो ध्यान से देख रहे थे। विनीत के लिये मैं तीन-चार चित्र बनाकर लाई थी। मेरे आने पर पूछा।
किसने बनाए हैं ये चित्र।
मैंने।
कहीं सीखा था।
जी नहीं, यूं ही हाबी की तरह शौकिया बनाती हूं।
कुछ अभ्यास से अच्छे चित्र बना सकती हो। स्ट्रोक ठीक है।
क्या आपको पेंटिग आती हैं? मैं विस्मित थी।
एक ज़माने में यही मेरा जीवन थी।
फिर छोड़ क्यों दिया? यह हॉबी तो अकेलेपन को भी दूर भगाती है। मेरी प्रतिक्रिया स्वभाविक थी।
हाँ, पर कभी यह अपनों से दूर भी कर सकती है। अजीब उत्तर था। चाय पीकर वह अब जाने लगे तो पूछा
अपने चित्र दिखाएँगे।
अपने किसी चित्र को मैंने अपनी स्मृति में भी नहीं रखा है। रूखेपन से उत्तर दे वे चले गए दूसरे दिन न जाने क्यों लगा वह आएंगे और सचमुच पहले दिन के समय ही वह उपस्थित थे। प्रसन्नता से कहा था
आपकी प्रतीक्षा में मैंने अभी चाय नहीं पी, आइए।
चाय पीने नहीं आया हूं, तुम्हें देने को यह ब्रश लाया था इससे अपने चित्रों को मैं अन्तिम रूप देता था।
एक सूखा सा बेहद पुराना ब्रश थमाते उनकी दृष्टि कोई एक पल को ब्रश पर ठहरी और फिर हटा ली। ब्रश थामते उस अज्ञात वृद्ध के प्रति मेरा हृदय न जाने कैसी करूणा से भर उठा।
मैं इसे बहुत सम्भाल के रखूंगी, इससे मेरे चित्रों में जान पड़ जाएगी। बहुत धन्यवाद।
भगवान तुम्हें सफलता दें। वृद्ध ने सच्चे हृदय से आशीष दिया।
आप मुझे पेंटिंग की कुछ बारीकियाँ समझायेंगे।
इसे कभी अपने जीवन से मत जोड़ना बस। मैं उनके उत्तर पर अपना विस्मय न रोक सकी।
आपका यह दर्शन मेरी समझ में नहीं आता, कला तो तभी सफल होती है, जब जीवन का अंग बन जाती है; तभी उसमें पूर्णतः घुल जाती है।
मैंने इसे अपने जीवन से जोड़ा था, जीवन से ज्यादा प्यार किया था उसे। वह मेरी कलाकृति थी अनुपम-अद्वितीय। मेरी सर्वोत्तम कृति उस रचना के बाद लगा था उससे अधिक और कुछ बना पाना सम्भव नहीं पर जानती हो जाते-जाते क्या कह गई!
वृद्ध मानो स्वागत भाषण कर रहे थे, उनकी सब बातें स्पष्ट कुछ समझ पाना भी तो कठिन था कभी-कभी तो एकदम बुदबुदाते से लगते थे। मैं कुछ समझ पाने की पूरी चेष्टा कर रही थी।
तब जीवन से भरपूर युवा था मैं, पेंटिग मेरी हॉबी थीं ।हर सुन्दर चीज़ को चित्र में उतारना मेरी ज़िद थी। कॉलेज की हर लड़की मेरी मॉडेल बनना चाहती थी। प्रकृति के हर रंग को चित्र में कैद करने का भूत सवार था मुझ पर। ढेर सारे चित्रों से मेरा घर भर गया था। मित्रों ने जिद करके उन चित्रों की एक प्रदर्शनी आयोजित कराई थी। वह वहां आई थी। मेरे एक-एक चित्र को मंत्रमुग्ध निहारती रह गई थी। अभिभूत खड़ी उसकी एक मुद्रा ऐसी भाई कि उसके अनजाने, एक स्केच खींच उसे भेंट कर दिया। अपना रेखाचित्र देख वह चमत्कृत हो उठी।
इतनी सुन्दर दिखती हूं क्या मैं? प्रश्न में बच्चों सा कौतूहल और भोलापन था।
इससे हज़ार गुना ज्यादा सुन्दर। यह तो बस रेखाएँ हैं। तुममें जो नैसर्गिक रंग है वह कहां भर पाया हूं। वाक्य जैसे अपने आप फ़िसल गया था।
तब तो यह स्क्रेच नहीं लूंगी मैं रंगीन चित्र दीजिए। कुछ शैतानी से वह मुस्कराई थी। उसकी मुस्कान के सम्मोहन में मैं बंध गया था।
मेरा मॉडेल बनना पड़ेगा, अपना पूरा समय देना होगा मैं भी शरारत पर उतर आया था।
कब से बैठना होगा, अभी इसी पल से मेरा समय आपका है। शब्दों में उतावली थी।
मैं हंस पड़ा था ‘कल सुबह दस बजे यहाँ आना होगा’ ठीक पौने दस पर वह उपस्थित थी उसके आने से पहले पूरी रात सोचता रह गया था किस रूप, किस मुद्रा में वह सबसे अच्छी लगेगी स्टूडियो लेजा उससे कहा था जैसे तुम्हें जैसे अच्छा लगे उसी तरह बैठो।
जानती हो वह कैसे बैठी थी? अपनी पूरी तरह दृष्टि मुझ पर निबद्ध कर, पूर्ण आत्मविश्वास से मुस्करा रही थी वह। उसकी दृष्टि में न जाने कैसा चैलेन्ज लगा था मुझे मानो कह रही थी अपने कैनवास पर लाख कोशिश करके भी देख लेना, कभी तुम मुझे, मुझसे ज़्यादा सुन्दर नहीं उतार सकते।
बस मैं जैसे पागल हो गया। पूरे दिन न जाने कितने प्रयास किए, पर एक में भी पूर्णता नहीं अनुभव की मैंने। थक गया पर वह अविचलित उसी गर्वित मुद्रा में मुस्कराती रही। मैं हार गया, उसके जाने के बाद भी उसकी वह अविजित छवि मेरे मानस पर अंकित रही। शायद पूरी रात ब्रश चलता रहा था मैं। सुबह उसने ही आकर जगाया था- मुख पर उल्लास छलक रहा था।
अदभुत-इस सौंदर्य की मैं स्वामिनी हूं-विश्वास नहीं होता। सच कहो इसमें तुमने अपनी कल्पना के रंग तो नहीं भरे हैं? रात का चित्र उसके हाथ में था। बस फिर तो वह मेरे चित्रों की नायिका बन गई थी। कभी झरने में नहाती छवि, कभी डूबते सूर्य की लालिमा से रंजित उसका उदास मुख, कहीं फूलों की लताओं के बीच से झांकता उसका मुख, कहीं विलोज की लताओं में झूलती वह, कभी इन्द्रधनुषी सपने आंखों में उतारे हॅंसती ,टीना।
टीना का पहला चित्र जब न्यूयार्क की पत्रिका में प्रकाशित हुआ तो मेरे पास प्रशंसा के न जाने कितने पत्र आए थे। टीना के सौंदर्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थीं। कुछ ने उसका पता जानना चाहा था कुछ अन्य चित्रकारों ने उस मॉडेल की खोज की थी। मैं डर गया था, कहीं टीना को ये लोग मुझ से अलग न कर दें। प्रदर्शनियों पत्रिकाओं में मैं विशेष ध्यान रखता टीना के चित्र न जाएं। टीना ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। वह अपने को, मेरी पेन्टिंग के लिए पूर्ण रूप से समर्पित कर चुकी थी। टीना को कोई मुझसे छीन न ले यह भय सदैव मुझ पर हावी रहता था उसके बिना अपूर्ण पाता था मैं अपने को। एक दिन उससे पूछ ही लिया था।
मेरी जीवन. साथिन बन हमेशा को मेरे पास रह सकती हो, टीना।
उत्तर में टीना ने अपना चेहरा मेरे वक्ष में छिपा लिया। ओह स्टीव कब से मैं प्रतीक्षा कर रही थी-आई लव यू स्टीव।
विवाह के लिए टीना के पापा ने सहर्ष सहमति नहीं दी थी। धनी पिता की एक मात्र बेटी थी टीना। एक साधारण चित्रकार से टीना का विवाह उन्हें नहीं रूचा था। उनकी इच्छा के विरूद्ध हमने विवाह किया था। विवाह के बाद टीना ने अपने पिता का घर भुला ही दिया था, मैंने अगर कभी कुछ पूछना चाहा तो टीना का स्पष्ट उत्तर रहता,
जो निर्णय मैंने ले लिया वह अटल होता है, पापा से संबंध तोड़, तुमसे जोड़ा है। पापा ने तुम्हें स्वीकार नहीं किया तभी मैंने उनके अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया था। पापा इस बात को मुझसे ज्यादा जानते हैं, वह कभी मेरे पास नहीं आएंगे, स्टीव। तुम परेशान मत हो।
शायद टीना की यही बात उसके चरित्र की विशेषता थी जिसे मैं नज़रअन्दाज़ करता रहा। वह ऊपर से विलो-लता सी लचीली थी, कोमल थी, पर अन्दर से पर्वत सी दृढ़ थी, कोई उसे हिला नहीं सकता था। टीना को पाकर लगा था सारा विश्व मैंने जीत लिया हो। टीना-सी पत्नी ओर जॉन-सा मित्र-हमारा संसार पूर्ण हो उठा था। टीना को मैंने न जाने कितने कैनवसों पर उतार डाला था, पर मन नहीं भरता था। हमेशा लगता था अब भी कहीं कुछ और बाकी है कहीं कोई अपूर्णता हैं। जॉन टीना के चित्रों का शुरू से प्रशंसक था। कई बार उसने पूछा था।
अपनी प्रदर्शनियों में टीना के चित्र न लगाकर अन्याय करते हो, स्टीव। तुम्हारी कला उन्हीं चित्रों में खिली हैं।
जॉन के प्रस्ताव को मैं हमेशा टाल जाता था। टीना के कुछ न्यूड चित्र भी, जो मैंने पहले बनाए थे, अब वे मेरे शयनकक्ष की शोभा थे। एक वर्ष बाद हमारी बच्ची का जन्म हुआ था। हमारे प्रेम की प्रतीक अप्रतिम, अपूर्व, अद्वितीय कलाकृति इतनी कोमल कि लगता था, स्पर्श से ही कुम्हला जाएगी हमने उसका नाम, एंजलीना दिया था। एकदम ग्रीक देवी सी पवित्र और प्यारी थी वह।
एंजलीना को पाकर लगा मेरी कला पूर्ण हो गई। अपने चित्रों में मैं लाख प्राण भरने की कोशिश करता पर वे निर्जीव ही रहते। एंजलीना मेरी सजीव, सप्राण कलाकृति थी। मैं उसका निर्माता था, गर्व से भर उठा था मैं। एंजलीना को कैनवास पर उतार मैंने टीना से कहा था-
आज मेरी साधना पूर्ण हो गई। इतना सुन्दर चित्र इसके पहले कभी नहीं बनाया था। एक क्षण को लगा टीना मेरी बात पर कुछ बुझ-सी गई थी, पर शायद वह मेरा भ्रम था। यह सोच कर मैंने ध्यान नहीं दिया।
एंजलीना के चित्र मैंने पत्रिकाओं में भेजने शुरू कर दिए थे। हर जगह से उन चित्रों की प्रशंसा आ रही थी। चित्रों की माँग बढ़ती जा रही थी। मैं दिनरात ब्रश चलाता। एंजलीना की हर अदा कैनवास पर उतारता रहा। नन्हीं बच्ची के चेहरे का भोलापन उसकी हंसी निश्छल मुस्कान पूरी स्वाभाविकता के साथ मैं चित्रित कर रहा था। इस बीच मैं टीना को मानो भूल सा गया था।
एक दिन पत्रिकाओं में प्रकाशित अपने चित्रों को देखती टीना ने कहा था,
तुम्हें याद ही नहीं ,स्टीव कभी मुझे कैनवास पर चित्रित कर तुम धन्य होते थे। ये कुछ चित्र जॉन ने मेरी अनुमति से प्रकाशित कराए हैं, काफी पैसा आ गया है इनसे। सोचा अचानक सरप्राइज दूंगी तुम्हें।
अपने चित्रों पर तुम्हारा अधिकार है-प्रकाशन का नहीं, ये मेरे चित्र हैं, मेरी मेहनत का परिणाम है। उत्तेजना मेरे शब्दों में स्पष्ट थी।
कुछ कम्पनीज मॉडलिंग को बुला रही हैं, स्टीव अगर हाँ कह दो...............।
कभी नहीं-मेरी पत्नी हो तुम-मुझे कतई पसन्द नहीं, समझीं।
तो स्लेव हूं तुम्हारी............ ताले में बन्द कर रखोगे मुझे? टीना के स्वर में आक्रोश था। मैं शान्त रह गया।
दूसरे दिन टीना ने चाय पीते हुए जॉन से मेरी शिकायत की थी। जॉन ने टीना का ही पक्ष ले मुझसे कहा था।
इतनी सुन्दर पेटिंग्स को केवल अपनी सम्पत्ति बनाए रखना समाज के प्रति अन्याय है, स्टीव। मैं कहता हूं, तुम एक प्रदर्शनी सिर्फ टीना की ही पेंटिग्स की क्यों नहीं करते? टीना इस प्रस्ताव पर खिल उठी थी।
क्या ये सम्भव है जॉन! मैं एक प्रदर्शनी की अकेली नायिका बन सकती हूं!
क्यों नहीं! देखना इस प्रदर्शनी के बाद स्टीव अमेरीका का सर्वश्रेष्ठ चित्रकार का ख़िताब पाएगा और तुम सौंदर्य- साम्राज्ञी का।
क्यों बेकार की बातें कर रहे हो, तुम जानते हो मै इसके फ़ेवर में नहीं हूं। मैंने स्पष्ट इन्कार कर दिया था।
क्यों नहीं, स्टीव-सोचो तुम्हारे कलाकार को मान मिलेगा और कलाकार की दृष्टि में उसका मॉडेल सिर्फ मॉडेल है, पत्नी. प्रेयसि कोई नहीं, प्लीज हाँ कह दो न, स्टीव। जॉन ने ज़िद की।
मैं इस प्रदर्शनी के लिए तत्पर नहीं था। लगता था अपना निजी जीवन पब्लिक के लिए खोल रहा हूं। टीना और जॉन के उत्साह और अनुरोध पर अनिच्छा के बावजूद भी मैंने स्वीकृति दे दी थी।
टीना का अधिकांश समय उन दिनों जॉन के साथ प्रदर्शनी के आयोजन की तैयारी में ही बीतता था। मैं उनके उत्साह से निर्लिप्त बना, अपने को व्यस्त बनाए रहा। दो दिन के बाद प्रदर्शनी का उदघाटन होने वाला था। उदघाटन के समय चित्रकार के रूप में मेरी उपस्थिति अनिवार्य थी। टीना ने मेरे लिए नया सूट बनवया था। टाई और कमीज़ भी उसने अपनी पसन्द की निकाली थी। उसका उत्साह से दमकता मुख न जाने क्यों मुझे ईर्ष्यालु बना रहा था-मानो वह मेरी कला नहीं अपने सौंदर्य का प्रदर्शन कर, दूसरों की प्रशंसा पा, मुझे पराजित करना चाहती थी। वह बार-बार कहती............।
अगर प्रदर्शनी सफल रही तो तुम्हें बहुत सम्मान मिलेगा न, स्टीव!.............. मेरे मन के भावों को पूरी सच्चाई से से चित्रित किया है तुमने। मुझे पूरा विश्वास हैं तुम्हें प्रसिद्धि, यश मिलेगा, स्टीव।
जॉन ने प्रदर्शनी का आयोजन निःसंदेह बहुत सुन्दर ढंग से किया था। उदघाटन के लिए प्रसिद्ध गणमान्य व्यक्ति आमंत्रित थे।
उन चित्रों का निर्माता मैं, एक सम्मानित अतिथि के रूप में खड़ा था। टीना गुलाबी परिधान में प्रशंसकों से घिरी हुई थी। उसका सुन्दर चेहरा गुलाब-सा खिला हुआ था। कभी बीच में आ कानों में फुसफुसा जाती,
इट इज गोइंग टु वी ए ग्रैंड सक्सेस। लोग मेरी कला से अधिक उसकी नायिका के प्रति आकृष्ट थे यह स्पष्ट था। तभी मेरी दृष्टि पीछे की दीवार पर गई थी, जहाँ टीना के न्यूड चित्र टंगे थे। कुछ लड़के उन चित्रों को देख अपमान जनक रूप में मुस्कराते टिप्पणी दे रहे थे। कुछ ही पलों में मैं अपने निर्णय पर पहुंच गया। निश्चय ही इस प्रदर्शनी का आयोजन टीना को एक माडल रूप में प्रतिष्ठित करने की दृष्टि में किया गया था। चित्रों के नीचे ‘अछूता सौदर्य’, ‘दिव्य रूप’ ‘इन्द्रधनुषी सपने’ ‘अनछुई कली’ आदि शीर्षक दिए गए थे। अपनी उदासीनता दिखाने के लिए उदघाटन के पहले मैं कभी भी प्रदर्शनी की व्यवस्था आदि देखने नहीं गया था, अन्यथा न्यूड चित्र लगाने की परमीशन कभी न देता। उन चित्रों को वहाँ देख मैं बौखला उठा। भीड़ से घिरी टीना को बाहर खींच लाया । मेरा मुख तमतमा रहा था।
ये चित्र तुमने यहाँ क्यों लगाए!
क्यों यही तो मेरे सर्वोत्तम चित्र है इन्हें देख मुझे यू-एस की कम से कम पाँच बड़ी कम्पनीज ने माँडलिंग के आफ़र दिए हैं। टीना दर्प से मुस्कराई थी। व्यापक न्यूड।
तुम न्यूड- मॉडलिंग करोगी? सबके सामने इन चित्रों की तरह अपने को खोल के रखोगी? मेरा स्वर आवेश पूर्ण था।
तो इसमें नुक्सान ही क्या है? सुन्दरता सबके इन्ज्वायमेंट की वस्तु है। कमरे में बन्द रखने की चीज़ नहीं है, माई डियर हस्बैंड। टीना परिहास में बात समाप्त करना चाहती थी।
मेरा आवेश बढ़ता जा रहा था ..मेरी पत्नी हो सबकी नहीं समझीं। मैं चिल्लाया।
टीना विस्मित थी धीमे से बोली,
जो कहना है घर चल कर कहन॥ तुम तो एकदम ओरिऐंटल हस्बैंड की तरह बिहेव कर रहे हों। डोंट बी सो पोजिसिव, माई डियर।
साफ़-साफ़ कयों नहीं कहतीं, तुम मेरे बनाए चित्रों के सहारे अपने लिए नया रास्ता चुन रही हो। याद रखो अगर मैंने चित्र न बनाये होते; तुम्हें इतनी इंपार्टेन्स न दी होती तो बड़ी कम्पनीज तो क्या कोई मामूली आदमी भी तुम्हें नहीं पूछता। मैं क्रोध में भला-बुरा सब भूल चुका था।
मुफ्त मॉडलिंग की थी मैंने तुम्हारे लिए अगर पैसा लिया होता तो आज मेरा महत्व समझते। अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ये चित्र बनाये थे, तुमने। टीना भी उत्तेजित हो उठी थी।
उसके इस वाक्य पर जैसे पागल हो उठा था मैं। जेब से पूरे पैसे निकाल उस पर फेंक मारे थे ..
ये लो पैसा कितना, पैसा चाहिए! मैं स्वार्थी हूं , तुम्हें एक्सप्लायट किया है न? ये लो...........
पागलपन में मैंने उसके चित्र उतार कर फाड़ने शुरू कर दिये। जॉन मुझे रोकने आया तो उसे झिड़ककर दूर कर दिया। मेरे इस व्यवहार से घबरा कर लोग प्रदर्शनी- हॉल से बाहर जाने लगे थे। अपमानित टीना ने बस एक पल को मेरी ओर ताका था और फिर तेजी से बाहर चली गयी। सारे चित्रों को फाड़कर ही मुझे शाँति मिली। प्रदर्शनी हॉल में बस मैं अकेला रह गया था। जॉन उन फटे कागजों को समेट रहा था।
बहुत देर सड़कों पर घूमने के बाद एंजलीना याद आई थी। स्वयं महसूस कर रहा था, मुझसे ज्यादती हो गई। मुझसे संयत व्यवहार की आशा की जानी चाहिए थी। टीना के चित्रों पर दी गई टिप्पणियों ने शायद मेरे रक्त में उबाल ला दिया था। अपनी गलती को जस्टीफ़ाई करता सोच रहा था टीना से कैसे माफी मागूंगा?
घर एकदम सूना मिला था। एंजलीना की बेबी- सिस्टर मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी। उसने ही बताया था।
मेम साहब बेबी को लेकर कहीं गई हैं, मेसेज आपकी टेबिल पर है।
टेबिल पर टीना की चंद पंक्तियाँ थीं-
अपने को कलाकार कहने का दम्भ भरते हो, सच तो यह है कि तुम सिर्फ़ एक महत्वाकांक्षी, स्वार्थी और क्षुद्र व्यक्ति हो। कलाकार अपनी कला से सबको आमंत्रित करता है। उसकी कला उसकी आराध्या होती है, तुम तो अपनी कला को अपनी क्रीतदासी समझते हो
मैं जा रही हूं। साथ में तुम्हारी अनुपम कलाकृति जिसके निर्माण का दावा तुम करते हो, उसे भी ले जा रही हूं। याद रखना यह कलाकृति तुम्हारी नहीं, तुम्हारे दुर्बल क्षणों की देन, मेरी चीज़ है। इसका निर्माण मैंने तुम्हारे चित्रकार को देखकर किया था-इसकी निर्मात्री मैं हूं,। यह सिर्फ़ मेरी है। इसके निर्माण में तुम्हारा अस्तित्व, मैं अस्वीकार करती हूं।
मुझे खोजना व्यर्थ है। अब तुम अपनी साधना बस अपने लिए करना। अलविदा-
टीना।
उसी दिन से मैं यहाँ खड़ा उसे खोज रहा हूं। पार्किंग स्पेस ही वह जगह है, जहाँ टीना ने प्रदर्शनी आयोजित की थी। मेरी नन्हीं बच्ची एंजलीना तो अब पूर्ण युवती होगी। यहाँ से गुजरती हर बच्ची में मैं अपनी एंजलीना को खोजता हूं। हर स्त्री के चेहरे में टीना को पहिचानना चाहता हूं। मेरी इस खोज में मेरे मित्र जॉन ने भी अपना जीवन बिता दिया है। अब तो अंतिम बेला आ गई है, न जाने टीना जीती है या नहीं।
आपके साथ आपके मित्र जॉन खड़े रहते हैं।
हाँ टीना के घर छोड़ जाने में वह अपने को दोषी ठहराता है। प्रदर्शनी- आयोजन का प्रस्ताव उसी ने रखा था न।
आपने कभी टीना या एंजलीना के चित्र किसी मैंगजीन में प्रकाशित नहीं देखे? हो सकता है उन्होंने मॉडलिंग का काम अपना लिया हो!
नहीं, वह मुझे बेहद प्यार करती थी। मैं जानता हूं, उसने मॉडलिंग कभी नहीं अपनाई होगी। वह जानती थी, मैं इसके लिये उसे कभी स्वीकृति नहीं देता। बहुत स्वाभिमानी थी टीना, उसने कुछ भी किया होगा, पर मेरी इच्छा के विरूद्ध कुछ नहीं करेगी।
इतना प्यार, इतनी अंडरस्टैंडिग फिर भी आप दोनों कभी नहीं मिले?
टीना का यही स्वभाव था जो उसने छोड़ दिया, जिस चीज का परित्याग कर दिया, उसे दुबारा कभी ग्रहण नहीं करेगी। यही उसकी कमज़ोरी थी, यही उसका बल था। बात समाप्त कर के वह चल दिए।
चंद मिनटों के बाद खिड़की से, उन्हें जॉन के साथ अपनी दृष्टि से दूर जाते देखती रही। एक शूल सा जैसे मेरे अन्दर धंसता चला जा रहा था।
हे भगवान, इन्हें इनकी टीना से मिला दे, मैंने प्रार्थना की थी।
एहसास
हर रोज की तरह आज भी सुबह हुई थी। नींद टूटते ही देवेश का पहला प्रश्न हुआ करता था-
क्या टाइम हुआ है?
सात बज गए हैं जनाब, अब उठिए, वर्ना आफिस के लिए देर हो जाएगी।
क्या मुश्किल है यह आफिस भी, चैन से सोने भी नहीं देता.............। जाड़े की मीठी नींद से जागते देवेश भुनभुनाते जाते।
आज आँख खुलते ही देवेश को बिस्तर से गायब पाया । सामने लगी दीवार घड़ी में बस छह बज रहे थे। कहाँ गए देवेश?
जल्दी से बिछौना छोड़, शाल कन्धे पर डाल नीचे उतरी थी। गम्भीर चेहरे के साथ देवेश खिड़की के बाहर ताक रहे थे। सुबह का वह सुहाना दृश्य, शायद उन्होंने पहली बार देखा होगा।
वाह आज आफिस नहीं जाना है तो इतनी जल्दी उठ गए, वर्ना साढे सात तक भी जनाब की नींद नहीं टूटती थी।
मेरे परिहास के उत्तर में देवेश मौन रह गए थे। देवेश के रिटायरमेंट का पहला दिन, हम दोनों को बेहद डिप्रेस्ड किए हुए था। पिछले तीस वर्षों से हम दोनों, साथ आफिस जाते रहे हैं। आज से मुझे अकेले आफिस जाना होगा, देवेश साथ नहीं होंगे। हम दोनों ही पूरी रात डिस्टर्बड रहे थे। स्त्री तो घर के पचास काम कर, समय बिता सकती है, पर देवेश जैसे पुरूष, जो तिनका भी नहीं तोड़ सकते, वह क्या करेंगे। अगर घर में साथ देने को पत्नी हो, तो बात दूसरी होती है। प्रायः गृहणियों को पति की व्यस्तता की शिकायत बनी ही रहती है। रिटारयरमेंट के बाद पूरे समय पति की उपलब्धता की कल्पना ही सुखद होती है।
जीजाजी के रिटायरमेंट के बाद मालती जीजी की प्रसन्नता का ठिकाना न था-
सच हूं सुनीता, इस उम्र में तेरे जीजाजी को पूरा पा सकी हूं। पहले तो यह अपने ही घर में मेहमान लगते थे।
साफ़ क्यों नहीं कहतीं, घर में तुम्हारा हुक्म बजा लाने के लिए, अब यह गुलाम चैबीसों घण्टे हाजिर है। जीजाजी ने प्रसन्न-मन अपना रिटायरमेंट स्वीकार कर लिया था।
हमारे साथ तो स्थिति ही दूसरी है, घर पर रहते देवेश, मेरी प्रतीक्षा को बाध्य रहेंगे। देवेश का अहं इसे कैसे स्वीकार कर सकेगा?
मेरी सम्मति में देवेश को ठीक समय से दस मिनट पूर्व आफिस पहुंचने की, खराब आदत थी। दो मिनट की देरी पर मुझे झाड़ना शुरू कर देते थे-
साढे आठ बज रहे हैं, तुम ड्रेसिंग-टेबिल ही नहीं छोड़ रही हो?
माथे पर बिन्दी लगाते मेरे हाथ ठिठक जाते। एक दिन झल्ला भी उठी थी-
देखो जी बिंदी लगाते समय मत टोका करो। तुमने देखा नहीं है, और औरतें मेकअप करने में कितना टाइम लेती हैं?
डेªसिंग-टेबिल प्रायः हमारी युद्ध-स्थली हो जाया करती। देवेश की शेविंग और मेरे बाल संवारने का समय प्रातः साथ ही होता। कभी ब्रश उठाते, देवेश के शेव का पानी गिर जाता तो देवेश नाराज़ हो उठते।
भई जरा देखकर काम किया करो। पूरी टेबिल पानी से नहा गई, अब डस्टर लाकर पानी सुखाओं। मुझे यह सब पसन्द नहीं..............।
जहाँ समय की पाबन्दी के साथ हर चीज करीने से रखना देवेश की आदत में शामिल था, वहीं मैं प्रायः समय के प्रति लापरवाह थी। जल्दबाजी में छोटी-मोटी गलतियाँ करना जैसे मेरा स्वभाव था।
रोज़ की तरह आज भी पानी गर्म करने के लिए इमर्शन-रॉड लगी थी। कल तक देवेश पानी गर्म होते ही, मेरे चिल्लाते रहने के बावजूद नहाने के लिए बाथरूम में घुस जाया करते थे। पहले स्नान कर देवेश को जल्दी तैयार होने का मौका मिल जाया करता था, और चाहकर भी घर के काम निबटाने में पिछड़ जाती।
आज अखबार पढ़ने का नाटक करते देवेश मेरे स्नानगृह में जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। बाथरूम से मुझे बाहर निकलता देख, शेव कर रहे देवेश ड्रेसिंग-टेबिल के सामने से हट गए। मुझे जैसे कहीं चोट-सी लगी ।
अरे तुम शेव कर लो न, अभी तो बहुत समय बाकी है। अभी तो मुझे साड़ी भी बांधनी है........।
नहीं, बाद में कर लूँगा, अब कोई जल्दी तो है नहीं..........। देवेश की मुस्कराहट में उदासी तैर रही थी।
मन जैसे भीग उठा था। देवेश के इस रूप की कभी आदत जो नहीं थी।
साढे आठ बजते-बजते देवेश का शोर शुरू हो जाया करता- नाश्ता तैयार है या नहीं? तुम ज़रूर लेट कराओगी। मैं चला जाऊंगा, तुम पीछे से आती रहना।
कभी-कभी तो मैं सचमुच डर जाती, कहीं वह मुझे छोड़, चले न जाएँ। बस से आफिस पहुंचना आसान तो नहीं था।
टेबिल पर नाश्ता सजा, रोज की तरह आज भी आवाज दी थी-
आइए, नाश्ता तैयार है।
तुम कर लो, मैं बाद में करूँगा।
यह क्या, भला मैंने कभी अकेले नाश्ता किया है, जो आज कर लूं? मैंने मान दिखाया था।
अब तो हर काम अकेले ही करना होगा, आदत डाल लो। मेरा मुंह देखने की जरूरत नहीं है।
अगर तुम नहीं आए तो भूखी चली जाऊंगी..........।
आता हूं, क्यों शोर मचा रही हो? अब तो तुम्हारा हर ऑर्डर मानना पड़ेगा। स्वर कड़वा हो आया था।
जिस दिन तुम मेरा कहा मानोगे, सूरज पश्चिम से निकलेगा। मैंने बात परिहास में उड़ा देनी चाही?
वह तो हो ही रहा है, बीबी कमाने आफिस जा रही है, मर्द निठल्ला घर पर बैठा है।
ऐसी बातें करोगे तो आज ही इस्तीफ़ा दे आऊं गी। मेरा स्वर रूआंसा हो आया था।
आई एम सॉ री.......... मैं तो मजाक कर रहा था। अब जल्दी करो, वर्ना लेट हो जाओगी।
देवेश की तकलीफ मैं महसूस कर रही थी। दोनों बच्चे बाहर जा चुके हैं। घर में अकेले समय काट पाना उन्हें कितना कठिन लग रहा होगा, मैं समझ सकती थी। जल्दी-जल्दी चाय खत्म कर मैं उठ खड़ी हुई थी-
चलती हूं?
देवेश पर दृष्टि डालने का साहस ही नहीं हुआ था। मेरे साथ रहते भी दो-तीन दिन की छुट्टियों में वह बोर फ़ील करने लगते थे। कभी स्कूटर की सफ़ाई करते, कभी ड्राइंग-रूम का फर्नीचर इधर-उधर बदलने में बोरियत मिटाते! देवेश के अन्तर्मुखी स्वभाव के कारण मित्रों के घर आने-जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। जब तक बच्चे थे, बात दूसरी थी, उनकी पढ़ाई-लिखाई उनसे बातचीत में समय काटना बहुत आसान था।
ओ0के0 जल्दी आ जाना। हल्की मुस्कराहट के साथ देवेश ने विदा किया था। रिटायरमेंट के दिन ही देवेश ने कह दिया था आफिस पहुंचाने-ले आने के लिए मैं उनसे अपेक्षा न रखूं।
आफिस पहुंच लगा, सब मेरी मनःस्थिति जानना चाह रहे है। बेचारगी का भाव अनायास ही मुझ पर हावी होने लगा था।
कहिए श्रीमान जी के बिना आफिस आना कैसा लग रहा है? हमेशा आप दोनों साथ ही आते थे न?
साहिब घर में क्या कर रहे हैं?
अब तो आप ही घर की बॉस है न, मैडम?
जी चाहा सबको खरी-खरी सुना दूं, पर आठ घण्टे घर में देवेश अकेले क्या करेंगे, सोच-सोच में स्वयं परेशान हो रही थी। मन जल्दी-से-जल्दी घर भाग जाने को व्याकुल था। काश रिटायरमेंट का खालीपन झेलने को मैं देवेश के साथ होती, हालांकि आज के पहले मैं कभी नहीं सोच सकी थी कि मेरी कम्पनी की देवेश ने कभी जरूरत महसूस की थी। देवेश अपने आप में पूर्ण थे।
यूँ तो हर पत्नी को अपना पति डिक्टेटर ही लगता है, पर देवेश की तो बात ही कुछ और थी, जो उन्होंने कहा, वह स्वीकार करना ही हमारी नियति थी। बच्चे जब तक छोटे रहे, अपनी फर्माइशें मेरे द्वारा ही देवेश तक पहुंचाते रहे। कभी-कभी देवेश के इकतरफ़ा निर्णय हमें क्षुब्ध कर जाते, पर उनके विरोध का अर्थ, घर में महाभारत शुरू करना था।
देवेश का अहं कभी उन्हें सहज नहीं रहने देता था। कभी मेरी या बच्चों की साधारण बातें भी उन्हें रूष्ट कर जाती थीं। उनके जीवन में कार्यालय का सर्वोपरि महत्व था। छुट्टियों में भी आफिस की फाइलें उनका पीछा नहीं छोड़ती थीं। अपनी या बच्चों की छुट्टियाँ दोनों से उन्हें चिढ थी। छुट्टियों में बच्चों का शोर सुन वह झुंझला उठते-
न जाने हिन्दुस्तान में इतनी छुट्टियाँ क्यों होती हैं।
इसीलिए बच्चे उनके टूर पर जाने की प्रार्थना करते-
पापा टूर पर क्यों नहीं जाते, हम लोग कभी तो फ्री रह सकें। करूणा देवेश से बहुत डरती थी।
पर पापा के न रहने से खाली-खाली सा लगता है। उ नके इंस्ट्रक्शन्स सुनते रहने की अपनी तो आदत बन गई है।। विनय का अन्दाज़ ही अलग था। हर हाल में खुश रहना ही उसका स्वभाव था।
बच्चों के बाहर चले जाने के बाद से देवेश उनकी बातों को तरसने लगे थे। बच्चे जब आते तो घर में उत्सव सा उल्लास छा जाता था। पापा के बदले तेवर वच्चों को बेहद भाते थे।
शाम को बेहद तनाव और चिन्ता में घर लौटी थी। डाइनिंग-टेबिल पर टीकोजी से ढ्की चाय देख चौंक गई। आफिस से लौटकर चाय बनाना मेरी ही जिम्मेदारी थी?
यह क्या, मैं आकर चाय नहीं बना सकती थी? मुझे अपराधी बना रहे हो?
सोचा, तुम थकी वापिस आओ, एक कप तैयार गर्म चाय देख कितनी खुश होगी। मैंने तो दिन भर पलंग ही तोड़ा है। अब जल्दी से चाय पीकर बताओ, कैसी बनी है?
देखो कल से चाय मैं ही बनाऊंगी, वर्ना.........मेरा गला भर आया था। देवेश का यह रूप सहजता से स्वीकार कर पाना कठिन था।
कमाल है, हमेशा शिकायत करती रहती थीं, मैं काम नहीं करता और आज जब मैं काम करने चला तो तुम्हें मंज़ूर नहीं। ठीक ही कहा जाता है नारी-मन की थाह पाना असम्भव है।
मुझे तुम पहले जैसे देवेश ही चाहिए, एकदम वैसे ही......समझे। भावातिरेक में मैं देवेश के सीने से जा चिपटी थी।
यह क्या? रिटायरमेंट तो हर व्यक्ति की नियति है। मेरे साथ कुछ नया तो नहीं घटा है। हम इसे सहज रूप में क्यों न स्वीकारें? प्यार से मेरे बाल सहलाते देवेश ने कहा था।
वह तो ठीक है, पर रिटायरमेंट के एक ही दिन बाद, भला कोई ऐसे बदल जाता है?
मैं बदल गया हूं?
और नहीं तो क्या, भला आज तक कभी एक ग्लास पानी भी खुद उठाकर पिया था, जो आज मेरे लिए चाय तैयार कर, सता रहे हो?
ओह, तो यह बात है। देवेश ठठाकर हॅंस पड़े।
इसमें हॅंसने की क्या बात है? मैं नाराज़ हो उठी थी।
बात तो सचमुच हॅंसने की नहीं है। जानती हो आज दिन भर खाली पड़ा, अपनी पिछली ज़िन्दगी के बारे में सोचता रहा-
उसके साथ चाय बनाने का क्या सम्बन्ध था?
सम्बन्ध है मीनू, जब तक आफिस में काम करता रहा, हमेशा अपने को महत्वपूर्ण मानता रहा। कभी एक पल को भी यह नहीं सोच पाया, तुम भी मेरी ही तरह आफिस जाती हो, काम के बाद थक सकती हो। घर के कामों के लिए हमेशा तुम्हें ही जिम्मेदार ठहराया, पर आज-
थैंक्स। मतलब रिटायरमेंट के बाद जनाब के ज्ञान-चक्षु खुल गए है।
ठीक कह रही हो मीनू। अब इस नए जीवन की आदत डालने के लिए, कहीं तो अपने को बदलना होगा न?
सच कहो देवेश, तुम इसे सहजता से स्वीकार कर सकोगे?
करना ही होगा। सच कहुँ तो पिछले कुछ दिनों से रिटायरमेंट मुझ पर इस कदर हावी था कि इसके सिवा और कुछ सोच ही नहीं पाता था।
और आज? मुंह ऊपर उठा, मैंने पूछा था।
तुम देख ही रही हो, तुम्हारी चाय तैयार है। किचेन में भी अपने सहायक के रूप में मुझे पाओगी। जीवन भर काम में तुम्हारी मदद न करने का प्रायश्चित जो करना है। देवेश परिहास पर उतर आए थे।
तुम और मेरे सहायक-असम्भव।
तुम्हारे असम्भव को सम्भव बनाने की कोशिश जरूर करूँगा। वैसे एक बात बता दूं, मैं खाली बैठने वाला नहीं। बहुत दिन नौकरी कर ली अब समाज-सेवा का पुण्य उठाने का विचार है-समझीं देवीजी।
ओह देवेश तुमने मुझे उबार लिया। जानते हो आज आफिस में बैठी अपने को अपराधी ठहरा रही थी।
क्यों भई, कौन-सा अपराध कर डाला है?
यही कि मैं आफिस में हूं और तुम- -
पगली कहीं की, यह भली कही। चलो इसी बात पर आज हम रिटायरमेंट का पहला दिन सेलीब्रेट कर डालें।।
कैसे सेलीब्रेट करोगे?
कहीं दूर तक लम्बी ड्राइव के बाद, डिनर बाहर ही लेंगे। ठीक है न?
”ओह देवेश, सच कितना मजा आएगा।
दिन भर का नैराश्य भुला मैं चहक उठी।
क्या टाइम हुआ है?
सात बज गए हैं जनाब, अब उठिए, वर्ना आफिस के लिए देर हो जाएगी।
क्या मुश्किल है यह आफिस भी, चैन से सोने भी नहीं देता.............। जाड़े की मीठी नींद से जागते देवेश भुनभुनाते जाते।
आज आँख खुलते ही देवेश को बिस्तर से गायब पाया । सामने लगी दीवार घड़ी में बस छह बज रहे थे। कहाँ गए देवेश?
जल्दी से बिछौना छोड़, शाल कन्धे पर डाल नीचे उतरी थी। गम्भीर चेहरे के साथ देवेश खिड़की के बाहर ताक रहे थे। सुबह का वह सुहाना दृश्य, शायद उन्होंने पहली बार देखा होगा।
वाह आज आफिस नहीं जाना है तो इतनी जल्दी उठ गए, वर्ना साढे सात तक भी जनाब की नींद नहीं टूटती थी।
मेरे परिहास के उत्तर में देवेश मौन रह गए थे। देवेश के रिटायरमेंट का पहला दिन, हम दोनों को बेहद डिप्रेस्ड किए हुए था। पिछले तीस वर्षों से हम दोनों, साथ आफिस जाते रहे हैं। आज से मुझे अकेले आफिस जाना होगा, देवेश साथ नहीं होंगे। हम दोनों ही पूरी रात डिस्टर्बड रहे थे। स्त्री तो घर के पचास काम कर, समय बिता सकती है, पर देवेश जैसे पुरूष, जो तिनका भी नहीं तोड़ सकते, वह क्या करेंगे। अगर घर में साथ देने को पत्नी हो, तो बात दूसरी होती है। प्रायः गृहणियों को पति की व्यस्तता की शिकायत बनी ही रहती है। रिटारयरमेंट के बाद पूरे समय पति की उपलब्धता की कल्पना ही सुखद होती है।
जीजाजी के रिटायरमेंट के बाद मालती जीजी की प्रसन्नता का ठिकाना न था-
सच हूं सुनीता, इस उम्र में तेरे जीजाजी को पूरा पा सकी हूं। पहले तो यह अपने ही घर में मेहमान लगते थे।
साफ़ क्यों नहीं कहतीं, घर में तुम्हारा हुक्म बजा लाने के लिए, अब यह गुलाम चैबीसों घण्टे हाजिर है। जीजाजी ने प्रसन्न-मन अपना रिटायरमेंट स्वीकार कर लिया था।
हमारे साथ तो स्थिति ही दूसरी है, घर पर रहते देवेश, मेरी प्रतीक्षा को बाध्य रहेंगे। देवेश का अहं इसे कैसे स्वीकार कर सकेगा?
मेरी सम्मति में देवेश को ठीक समय से दस मिनट पूर्व आफिस पहुंचने की, खराब आदत थी। दो मिनट की देरी पर मुझे झाड़ना शुरू कर देते थे-
साढे आठ बज रहे हैं, तुम ड्रेसिंग-टेबिल ही नहीं छोड़ रही हो?
माथे पर बिन्दी लगाते मेरे हाथ ठिठक जाते। एक दिन झल्ला भी उठी थी-
देखो जी बिंदी लगाते समय मत टोका करो। तुमने देखा नहीं है, और औरतें मेकअप करने में कितना टाइम लेती हैं?
डेªसिंग-टेबिल प्रायः हमारी युद्ध-स्थली हो जाया करती। देवेश की शेविंग और मेरे बाल संवारने का समय प्रातः साथ ही होता। कभी ब्रश उठाते, देवेश के शेव का पानी गिर जाता तो देवेश नाराज़ हो उठते।
भई जरा देखकर काम किया करो। पूरी टेबिल पानी से नहा गई, अब डस्टर लाकर पानी सुखाओं। मुझे यह सब पसन्द नहीं..............।
जहाँ समय की पाबन्दी के साथ हर चीज करीने से रखना देवेश की आदत में शामिल था, वहीं मैं प्रायः समय के प्रति लापरवाह थी। जल्दबाजी में छोटी-मोटी गलतियाँ करना जैसे मेरा स्वभाव था।
रोज़ की तरह आज भी पानी गर्म करने के लिए इमर्शन-रॉड लगी थी। कल तक देवेश पानी गर्म होते ही, मेरे चिल्लाते रहने के बावजूद नहाने के लिए बाथरूम में घुस जाया करते थे। पहले स्नान कर देवेश को जल्दी तैयार होने का मौका मिल जाया करता था, और चाहकर भी घर के काम निबटाने में पिछड़ जाती।
आज अखबार पढ़ने का नाटक करते देवेश मेरे स्नानगृह में जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। बाथरूम से मुझे बाहर निकलता देख, शेव कर रहे देवेश ड्रेसिंग-टेबिल के सामने से हट गए। मुझे जैसे कहीं चोट-सी लगी ।
अरे तुम शेव कर लो न, अभी तो बहुत समय बाकी है। अभी तो मुझे साड़ी भी बांधनी है........।
नहीं, बाद में कर लूँगा, अब कोई जल्दी तो है नहीं..........। देवेश की मुस्कराहट में उदासी तैर रही थी।
मन जैसे भीग उठा था। देवेश के इस रूप की कभी आदत जो नहीं थी।
साढे आठ बजते-बजते देवेश का शोर शुरू हो जाया करता- नाश्ता तैयार है या नहीं? तुम ज़रूर लेट कराओगी। मैं चला जाऊंगा, तुम पीछे से आती रहना।
कभी-कभी तो मैं सचमुच डर जाती, कहीं वह मुझे छोड़, चले न जाएँ। बस से आफिस पहुंचना आसान तो नहीं था।
टेबिल पर नाश्ता सजा, रोज की तरह आज भी आवाज दी थी-
आइए, नाश्ता तैयार है।
तुम कर लो, मैं बाद में करूँगा।
यह क्या, भला मैंने कभी अकेले नाश्ता किया है, जो आज कर लूं? मैंने मान दिखाया था।
अब तो हर काम अकेले ही करना होगा, आदत डाल लो। मेरा मुंह देखने की जरूरत नहीं है।
अगर तुम नहीं आए तो भूखी चली जाऊंगी..........।
आता हूं, क्यों शोर मचा रही हो? अब तो तुम्हारा हर ऑर्डर मानना पड़ेगा। स्वर कड़वा हो आया था।
जिस दिन तुम मेरा कहा मानोगे, सूरज पश्चिम से निकलेगा। मैंने बात परिहास में उड़ा देनी चाही?
वह तो हो ही रहा है, बीबी कमाने आफिस जा रही है, मर्द निठल्ला घर पर बैठा है।
ऐसी बातें करोगे तो आज ही इस्तीफ़ा दे आऊं गी। मेरा स्वर रूआंसा हो आया था।
आई एम सॉ री.......... मैं तो मजाक कर रहा था। अब जल्दी करो, वर्ना लेट हो जाओगी।
देवेश की तकलीफ मैं महसूस कर रही थी। दोनों बच्चे बाहर जा चुके हैं। घर में अकेले समय काट पाना उन्हें कितना कठिन लग रहा होगा, मैं समझ सकती थी। जल्दी-जल्दी चाय खत्म कर मैं उठ खड़ी हुई थी-
चलती हूं?
देवेश पर दृष्टि डालने का साहस ही नहीं हुआ था। मेरे साथ रहते भी दो-तीन दिन की छुट्टियों में वह बोर फ़ील करने लगते थे। कभी स्कूटर की सफ़ाई करते, कभी ड्राइंग-रूम का फर्नीचर इधर-उधर बदलने में बोरियत मिटाते! देवेश के अन्तर्मुखी स्वभाव के कारण मित्रों के घर आने-जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। जब तक बच्चे थे, बात दूसरी थी, उनकी पढ़ाई-लिखाई उनसे बातचीत में समय काटना बहुत आसान था।
ओ0के0 जल्दी आ जाना। हल्की मुस्कराहट के साथ देवेश ने विदा किया था। रिटायरमेंट के दिन ही देवेश ने कह दिया था आफिस पहुंचाने-ले आने के लिए मैं उनसे अपेक्षा न रखूं।
आफिस पहुंच लगा, सब मेरी मनःस्थिति जानना चाह रहे है। बेचारगी का भाव अनायास ही मुझ पर हावी होने लगा था।
कहिए श्रीमान जी के बिना आफिस आना कैसा लग रहा है? हमेशा आप दोनों साथ ही आते थे न?
साहिब घर में क्या कर रहे हैं?
अब तो आप ही घर की बॉस है न, मैडम?
जी चाहा सबको खरी-खरी सुना दूं, पर आठ घण्टे घर में देवेश अकेले क्या करेंगे, सोच-सोच में स्वयं परेशान हो रही थी। मन जल्दी-से-जल्दी घर भाग जाने को व्याकुल था। काश रिटायरमेंट का खालीपन झेलने को मैं देवेश के साथ होती, हालांकि आज के पहले मैं कभी नहीं सोच सकी थी कि मेरी कम्पनी की देवेश ने कभी जरूरत महसूस की थी। देवेश अपने आप में पूर्ण थे।
यूँ तो हर पत्नी को अपना पति डिक्टेटर ही लगता है, पर देवेश की तो बात ही कुछ और थी, जो उन्होंने कहा, वह स्वीकार करना ही हमारी नियति थी। बच्चे जब तक छोटे रहे, अपनी फर्माइशें मेरे द्वारा ही देवेश तक पहुंचाते रहे। कभी-कभी देवेश के इकतरफ़ा निर्णय हमें क्षुब्ध कर जाते, पर उनके विरोध का अर्थ, घर में महाभारत शुरू करना था।
देवेश का अहं कभी उन्हें सहज नहीं रहने देता था। कभी मेरी या बच्चों की साधारण बातें भी उन्हें रूष्ट कर जाती थीं। उनके जीवन में कार्यालय का सर्वोपरि महत्व था। छुट्टियों में भी आफिस की फाइलें उनका पीछा नहीं छोड़ती थीं। अपनी या बच्चों की छुट्टियाँ दोनों से उन्हें चिढ थी। छुट्टियों में बच्चों का शोर सुन वह झुंझला उठते-
न जाने हिन्दुस्तान में इतनी छुट्टियाँ क्यों होती हैं।
इसीलिए बच्चे उनके टूर पर जाने की प्रार्थना करते-
पापा टूर पर क्यों नहीं जाते, हम लोग कभी तो फ्री रह सकें। करूणा देवेश से बहुत डरती थी।
पर पापा के न रहने से खाली-खाली सा लगता है। उ नके इंस्ट्रक्शन्स सुनते रहने की अपनी तो आदत बन गई है।। विनय का अन्दाज़ ही अलग था। हर हाल में खुश रहना ही उसका स्वभाव था।
बच्चों के बाहर चले जाने के बाद से देवेश उनकी बातों को तरसने लगे थे। बच्चे जब आते तो घर में उत्सव सा उल्लास छा जाता था। पापा के बदले तेवर वच्चों को बेहद भाते थे।
शाम को बेहद तनाव और चिन्ता में घर लौटी थी। डाइनिंग-टेबिल पर टीकोजी से ढ्की चाय देख चौंक गई। आफिस से लौटकर चाय बनाना मेरी ही जिम्मेदारी थी?
यह क्या, मैं आकर चाय नहीं बना सकती थी? मुझे अपराधी बना रहे हो?
सोचा, तुम थकी वापिस आओ, एक कप तैयार गर्म चाय देख कितनी खुश होगी। मैंने तो दिन भर पलंग ही तोड़ा है। अब जल्दी से चाय पीकर बताओ, कैसी बनी है?
देखो कल से चाय मैं ही बनाऊंगी, वर्ना.........मेरा गला भर आया था। देवेश का यह रूप सहजता से स्वीकार कर पाना कठिन था।
कमाल है, हमेशा शिकायत करती रहती थीं, मैं काम नहीं करता और आज जब मैं काम करने चला तो तुम्हें मंज़ूर नहीं। ठीक ही कहा जाता है नारी-मन की थाह पाना असम्भव है।
मुझे तुम पहले जैसे देवेश ही चाहिए, एकदम वैसे ही......समझे। भावातिरेक में मैं देवेश के सीने से जा चिपटी थी।
यह क्या? रिटायरमेंट तो हर व्यक्ति की नियति है। मेरे साथ कुछ नया तो नहीं घटा है। हम इसे सहज रूप में क्यों न स्वीकारें? प्यार से मेरे बाल सहलाते देवेश ने कहा था।
वह तो ठीक है, पर रिटायरमेंट के एक ही दिन बाद, भला कोई ऐसे बदल जाता है?
मैं बदल गया हूं?
और नहीं तो क्या, भला आज तक कभी एक ग्लास पानी भी खुद उठाकर पिया था, जो आज मेरे लिए चाय तैयार कर, सता रहे हो?
ओह, तो यह बात है। देवेश ठठाकर हॅंस पड़े।
इसमें हॅंसने की क्या बात है? मैं नाराज़ हो उठी थी।
बात तो सचमुच हॅंसने की नहीं है। जानती हो आज दिन भर खाली पड़ा, अपनी पिछली ज़िन्दगी के बारे में सोचता रहा-
उसके साथ चाय बनाने का क्या सम्बन्ध था?
सम्बन्ध है मीनू, जब तक आफिस में काम करता रहा, हमेशा अपने को महत्वपूर्ण मानता रहा। कभी एक पल को भी यह नहीं सोच पाया, तुम भी मेरी ही तरह आफिस जाती हो, काम के बाद थक सकती हो। घर के कामों के लिए हमेशा तुम्हें ही जिम्मेदार ठहराया, पर आज-
थैंक्स। मतलब रिटायरमेंट के बाद जनाब के ज्ञान-चक्षु खुल गए है।
ठीक कह रही हो मीनू। अब इस नए जीवन की आदत डालने के लिए, कहीं तो अपने को बदलना होगा न?
सच कहो देवेश, तुम इसे सहजता से स्वीकार कर सकोगे?
करना ही होगा। सच कहुँ तो पिछले कुछ दिनों से रिटायरमेंट मुझ पर इस कदर हावी था कि इसके सिवा और कुछ सोच ही नहीं पाता था।
और आज? मुंह ऊपर उठा, मैंने पूछा था।
तुम देख ही रही हो, तुम्हारी चाय तैयार है। किचेन में भी अपने सहायक के रूप में मुझे पाओगी। जीवन भर काम में तुम्हारी मदद न करने का प्रायश्चित जो करना है। देवेश परिहास पर उतर आए थे।
तुम और मेरे सहायक-असम्भव।
तुम्हारे असम्भव को सम्भव बनाने की कोशिश जरूर करूँगा। वैसे एक बात बता दूं, मैं खाली बैठने वाला नहीं। बहुत दिन नौकरी कर ली अब समाज-सेवा का पुण्य उठाने का विचार है-समझीं देवीजी।
ओह देवेश तुमने मुझे उबार लिया। जानते हो आज आफिस में बैठी अपने को अपराधी ठहरा रही थी।
क्यों भई, कौन-सा अपराध कर डाला है?
यही कि मैं आफिस में हूं और तुम- -
पगली कहीं की, यह भली कही। चलो इसी बात पर आज हम रिटायरमेंट का पहला दिन सेलीब्रेट कर डालें।।
कैसे सेलीब्रेट करोगे?
कहीं दूर तक लम्बी ड्राइव के बाद, डिनर बाहर ही लेंगे। ठीक है न?
”ओह देवेश, सच कितना मजा आएगा।
दिन भर का नैराश्य भुला मैं चहक उठी।
एक पाखी अकेला
ड्राइंग रूम के सज्जित वक्ष में एक ओर रखे अक्वेरियम में बस एक नन्हीं सी लाल मछली तैर रही थी। व्याकुल कंठ से नन्दिता ने मुड़कर गृहस्वामी सोमेश दत्त से कहा था-
कितनी अकेली छटपटा रही है ये मछली, सोमू दा। कुछ और मछलियाँ डाल दीजिये न इसके साथ।
गम्भीर स्वर में अन्यमनस्क सोमेश दत्त बोले-
हाँ कुछ और मछलियाँ डालनी ही होंगी सचमुच ये अकेलापन महसूस करती होगी। मेरा ध्यान ही नहीं गया था।
नन्दिता के चले जाने के बाद खिड़की के सीखंचे पकड़े सोमेश दत्त सोचने लगे- क्या इस घर में बस ये मछली ही अकेली छटपटाती है? सच तो यह है पत्नी के साथ रहते भी सोमेश दत्त कितने अकेले हैं? वर्षों पहले सोमेश का अकेला जीवन कितना पूर्ण था?
गांव के निकटवर्ती कॉलेज से प्रथम श्रेणी में बी0एस0सी0 परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जब सोमेश इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम0एस0सी0 करने आने लगे तो माँ ने इलाहाबाद में रह रही अपनी एक सखी का पता दे दिया था। कभी सोमेश की माँ और वह घनिष्ठ सहेलियाँ हुआ करती थीं।
लूकरगंज के बताये उस घर के पते पर पहुंच, सोमेश एक पल असमंजस में खड़ा रह गया। इतनी बड़ी हवेलीनुमा घर में कहाँ-किसे पुकारूँ? किस मुश्किल में माँ ने डाल दिया। तभी एक लड़की जोरों से हॅंसती हुई बाहर आ गई थी। पीछे से कोई स्वर उसे पुकार रहा था। सोमेश को भौचक खड़ा देख वह लड़की एकदम अकड़ कर बोली-
ऐ मिस्टर कहाँ से आ रहे हैं? किससे मिलना है? कहीं चोरी-वोरी का इरादा तो नहीं है? उसे ऊपर से नीचे तक देख, जैसे पूर्ण आश्वस्त हो बोली थी
नहीं चोर तो नहीं लगते, हाँ गंवई गाँव के नमूने जरूर दिखाई देते हो।
लज्जा, अपमान से सोमेश का मुख लाल हो उठा था। हाथ के झोले को पीछे कर, जबरन मुस्कान ला कहा था-
नमूना तो आदमी काहूं, क्या मिसेस माया मित्रा यहीं रहती हैं?
ओह तो आप मम्मी के पास आये हैं, वंडरफुल। माँ, एतुम्हारे कोई मेहमान आये हैं सम्हालो इन्हें। द्रुत गति से वह लड़की दूसरी दिशा में चली गई।
अन्दर से एक प्रौढ़ा ने बाहर आ सोमेश को देख स्नेह से पूछा-
कौन हो भई! क्हाँ से आ रहे हो? प्रत्युत्तर में हाथ जोड़, नमस्कार कर सोमेश जैसे ही चरण- स्पर्श करने को झुका, स्नेह से उसे उठा आशीष दे प्रौढ़ा एकदम खिल गई
अरे तुम कृष्णा के बेटे सोमेश हो न? सोमेश ने आश्चर्य से जैसे ही स्वीकृति सूचक सिर हिलाया माया मित्रा प्रसन्नता से विभोर पुकारने लगीं.
अरी सपना, ज़रा देख तो सही कौन आया है? कई आवाजों के बाद वही लड़की धृष्ट मुस्कान के साथ आ खड़ी हुई। स्नेह से प्रौढ़ा ने कहा-
देख ये तेरे सोमेश दादा हैं, समझी। चल जल्दी से हाथ-मुंह धुला, नाश्ता लगा। कब चले थे बेटे?
ओह माँ, तो यही हैं कृष्णा मौसी के अति कुशाग्र बुद्धि सुपुत्र। वैसे इनसे मिल चुकी हूं, आइए। सोमेश को घर के भीतर आने को आमन्त्रित करती सपना एकदम साम्राज्ञी की तरह सिर उठाए अन्दर चल दी। सोमेश माया मौसी के साथ उसका अनुकरण करने को बाध्य था।
लाख कोशिशों के बाद भी सोमेश को मौसी ने होस्टेल नहीं जाने दिया था। इतना बड़ा घर भूत के डेरे सा लगता है। सपना के पापा का तो इस घर से नाम का नाता है। व्यापार के सिलसिले में बाहर ही रहना होता है। कुछ रूक कर मौसी बोली थीं।
इस सपना को भी अक्ल सिखा दे, सोमू, बस घोड़ी की तरह इधर-उधर छलांग भरती रहती है। कितना भी समझाती हूं, अक्ल ही नहीं आती।
ओह माँ में घोड़ी हुँ तभी तो बी0ए0 पार्ट वन में सर्वप्रथम आई हूं। तुम्हारे इन मौनी बाबा से क्या मैं अक्ल सीखूंगी? तुम्हारा तो जवाब नहीं, माँ।
अपमान से सोमेश का चेहरा तमतमा आया। माँ ने झिड़की दे सपना को डांटा ज़रूर, पर उस उदंड लड़की पर कोई भी प्रभाव परिलक्षित, सोमेश नहीं देख पाया। लज्जित स्वर में माया मौसी कहती गई। तुम इसकी बात का बुरा मत मानना, बेटे। इतने बच्चों में बस यही बची है, इसके बाबा ने सिर चढ़ा रखा है वैसे दिल की सपना हीरा है।
सोमेश को नीचे का कमरा दे दिया गया था। भोजन कराते समय माया मौसी अपनी और सोमेश की माँ की मित्रता की न जाने कितनी कहानियाँ सुनाती जाती थीं। सोमेश के विषय में कृष्णा दत्त एक-एक बात विस्तार से अपनी सहेली को सदैव लिखती रही है, जान कर सोमेश आश्चर्य कर उठता था। माँ ने अपने बेटे के गुणों की इतनी विशद् विवरणी भेजी थी कि कभी-कभी सोमेश लज्जित हो उठता था।
एक संध्या अपनी वीणा ले सोमेश तन्मय हो, बहुत रात तक बजाता रह गया था। प्रातः मौसी ने विस्मय से पूछा था-इतनी अच्छी वीणा कहाँ से बजाना सीख गया, सोमू?
बस यूँ ही मन बहलाने को बजा लेता हूं, कह कुछ अभिमान से सोमेश ने जैसे ही सपना की ओर देखा, वह पूछ बैठी-
ऐ सोमू दा ,हमें भी वीणा सिखाओगे?
न! इसमें एकाग्रता चाहिए-तुम मन कभी भी एकाग्र नहीं कर सकतीं, सपना।
क्या? एकदम क्रोध में सपना खड़ी हो गई।
मैं नहीं सीख सकती? तुम्हें अपने ऊपर इतना अभिमान क्यों है, सोमू दा? तुमसे अच्छी वीणा बजा कर दिखा दूंगी। कहती आवेश से रूद्ध गले के साथ सपना वहाँ से चली गई। स्तब्ध सोमेश उसके जाने की राह देखता रह गया।
मौसी ने हॅंस कर कहा था
ठीक तो है सोमू, कभी खाली वक्त में सिखा दिया कर। कम से कम लड़की का घर से बाहर निकलना तो बन्द हो जाएगा।
बहुत मान-मनुहार के बाद सपना सोमेश से वीणा सीखने को तैयार हुई थी। एक सप्ताह में सोमेश समझ गया सपना ने झूठ नहीं कहा था अगर वह चाहेगी तो बहुत जल्दी अच्छी वीणा बजा सकेगी। सपना की संध्याएं मानो वीणा-वादन के लिए समर्पित हो गई थीं। जिस एकाग्रता से वह वीणा-बजाना सीखती सोमेश विस्मित रह जाता। माया मौसी सोमेश का विस्मय देख बोली थीं-
इस लड़की का स्वभाव ही ऐसा है, सोमू। कभी एकदम अल्हड़ बच्ची बन जाती है, तो कभी छोटी सी बात इस गम्भीरता से लेती है कि इसके पापा तक डर जाते हैं। सच कहूं सोमू, इसके जिद्दी स्वभाव से मैं न जाने क्यों बहुत डरती हूं।
सोमेश की वीणा सुनती तन्मय सपना मानों कहीं दूर खो जाती थी। वीणा-वादन रूकते ही जैसे तंद्रा से अचानक जगाई गई सपना, चौंक उठती थी। एक जोड़ी आँखें मुग्ध विस्मय से परिपूर्ण सोमेश पर निबद्ध रह जाती थीं।
माया मौसी को किसी विवाह में बनारस जाना था। सोमेश के भोजन की व्यवस्था का भार सपना को सौंपते मौसी आश्वस्त नहीं हो रही थीं। घर की पुरानी महराजिन को बार-बार निर्देश दे मौसी जा सकी थीं। भोजन के समय उसके पास बैठ सपना जैसे उसकी अभिभाविका बन गई।
ऐ सोमू दा, ये सब्जी खाकर देखो हमने बनाई है।
सोमेश ने मुंह बनाया. ओह तभी तो इतना तेज नमक है।
क्या? एकदम सोमेश की कटोरी से सब्जी निकाल सपना ने मुंह में डाल ली।
छिः सोमू दा, इत्ते झूठे हो तुम? इतनी अच्छी सब्जी बनाई ओर तुम्हें नमक ज्यादा लग रहा है। कल से होटल में खाना तब पता लगेगा, समझे।
पर सपना तुमने मेरी जूठी सब्जी खाकर अपना धर्म तो भ्रष्ट कर डाला। पर .पुरूष की जूठन खाई है प्रायश्चित करना होगा।
ऐ सोमू दा तुम क्या कोई फ़िल्मी कहानी बना रहे हो? अपने को हीरो मत समझ बैठना। वैसी कहानियाँ बस शरतचंद्र की परिणीता ही जैसी होंगी मत समझ लेना समझे।
अभिमान से सिर उठाए सपना जैसे ही उठ कर अन्दर गई सोमेश का मुख काला पड़ गया। आधा भोजन छोड़ ज्यों ही सोमेश उठने लगा, आंधी की तरह सपना आ खड़ी हुई।
अच्छा अब माँ से यही कहोगे न हमने तुम्हें भूखा रखा था। अगर पूरा खाना नहीं खाया तो दो दिन तक अन्न ग्रहण नहीं करेंगे। हमारी ज़िद के आगे माँ भी हार जाती है, समझे।
विवश सोमेश फिर खाने बैठ गया, पर जैसे भोजन का स्वाद एकदम कडुवा हो उठा था। पूरी रात सोमेश सो नहीं सका था न जाने क्यों मन बहुत व्याकुल था। क्या वह सचमुच कोई कहानी रचने लगा था? नहीं-नहीं मन को बार-बार झटका दे, उस जाडे़ की रात में बिना ऊनी कपड़ों के, निरर्थक बाग़ में देर तक घूमता रह गया था।
सुबह सोमेश को तेज बुखार में पा सपना किसी व्यग्र हो उठी थी। घर के डाक्टर ने आ जब न्यूमोनिया की शंका व्यक्त की तो सपना का चेहरा सफ़ेद पड़ गया था। अनुनयपूर्ण स्वर में सपना मानों डाक्टर के समक्ष गिड़गिड़ा उठी थी
कोई भय तो नहीं है न डाक्टर अंकल? आप यहीं रह जाइये न। हॅंस कर डाक्टर ने स्नेह से कहा था नहीं पगली कोई भय नहीं कहो तो में एक नर्स भेज दूं।
नहीं-नहीं अंकल, हम सब देख लेंगे बस आप आते रहियेगा। कल तो माँ भी आ रही है।
जिस तन्मयता से सपना सोमेश की परिचर्या में जुट गई कि देखकर आश्चर्य होता था। वह मस्त सपना मानों कहीं खो गई थी। बुखार नार्मल होने के बाद माँ ने सहास्य कहा था-
ले सपना, तेरी तपस्या पूर्ण हो गई तेरा सोमू दा अब एकदम ठीक है।
मन्दिर में भगवान के चरणों में शीश धर सपना ने, न जाने क्या मौन प्रार्थना की थी। घर आकर पूरे घर में स्वंय प्रसाद बाँटा था। सोमेश हल्के से मुस्करा भर दिया था। पर सपना का वह पागलपन उसे कितना अच्छा लगा था।
सपना के कॉलेज में वार्षिकोत्सव था। सपना की सब सहेलियों का अनुरोध था सोमेश दत्त का वीणा-वादन उस दिन अवश्य हो। सोमेश से बिना पूछे सपना ने स्वीकृति भी दे डाली थी। सोमेश के संकोच पर सपना बच्चों की तरह फुसलाती गई।
अरे सोमू दा, हम तो रहेंगे वहाँ। मज़ाल है कोई लड़की छेड़ तो दे तुम्हें। फिर तुरन्त मनुहार करती कहती गई।
ऐ सोमू दा, देखो हमारी इज्ज़त का सवाल है। नहीं बजाओगे तो प्रिन्सिपल क्या कहेंगी हमारी? सपना अपने कॉलेज के लिए इतना भी नहीं कर पाई?
नियत दिन सोमेश को वीणा-वादन के लिए जाना ही पड़ा था। वीणा-वादन के पूर्व ही छात्राओं की जोरदार तालियों की गूंज से सोमेश का हृदय धड़क उठा था। वीणा-वादन अत्यन्त सफल रहा। वीणा के हाथ में ले सोमेश मंच से नीचे उतर रहा था, एक शोख आवाज उभरी थी-
ऐ सपना ले सम्हाल अपने वीणा-वादक को कहीं किसी की नज़र न लग जाए।
दूसरी आवाज उभरी-हाय काश हमें भी कोई इतना चाहता। लगता है वीणा बजाते भी सपना को याद कर रहे थे। क्या दर्द उभरा है स्वरों में।
कितनी लकी हे सपना जो धुन कही बजा दी। सपना का ही तो अनुरोध था इस धुन के लिए क्यों ठीक कह रही हुँ न ,सपना के मजनूँ जनाब।
एक ढ़ीठ लड़की राह रोक खड़ी हो गई थी कभी हम पर भी नजर डालिए हुजूर।
लज्जा से सोमेश मुंह भी ऊपर न कर सका। कॉलेज से बाहर आते ही मन का सारा आक्रोश ज्वालामुखी की तरह बह निकला। बिना रूके पूरे रास्ते अनाप-शनाप न जाने क्या-क्या सपना को सुनाता गया था। अभी भी उसे याद है, वह बरस पड़ा था-
शर्म नहीं आती इतनी बकवास सुन कर भी हॅंसती रहीं? तुम तो किसी कहानी की नायिका नहीं हो फिर ये क्या था? अगर चीप पब्लिसिटी का इतना ही शौक है तो किसी और को खोज लो समझीं। अब और अधिक अपमान असंभव है। कल ही होस्टेल चला जाऊंगा। मैं ऐसी छिछोरी लड़कियों से घृणा करता हुँ।
पूरे समय सपना शान्त-निर्वाक रह मानों आरोप सहती गई। उसका मौन सोमेश का साहस बढ़ाता गया था। उत्तेजना में कहे वाक्य सोमेश दत्त आज चाह कर भी याद नहीं कर पाते हैं। निःशब्द सपना घर पहुंच, माँ से भोजन न करने को कह, जल्दी सोने चली गई थी। उत्तेजना शान्त होने के बाद सोमेश को लगा शायद उसने सपना से बहुत अधिक कह डाला था। खैर सुबह सपना से क्षमा माँग लेगाए सोचता सोमेश सो गया था।
दूसरे दिन प्रातः अचानक जोर से किसी ने जगाया था
भइया, गजब हो गया, सपना दीदी को क्या हो गया देखो न।
क्या? एकदम रज़ाई फेंक सोमेश भागता हुआ जैसे ही सपना के कमरे में पहुंचा, माँ विलाप कर रही थीं। डाक्टर अंकल स्तब्ध खड़े थे? उसे देखते ही मौसी आर्तनाद कर उठी-
सोमू ये क्या हो गया बेटे? सपना ने क्या कर डाला, कुछ तो बोल, सोमू।
जड़ सोमेश आँखें सपना पर निबद्ध खड़ा था। डाक्टर ने असहाय सिर हिला दिया, कुछ भी शेष नहीं रह गया था। माँ की नींद की गोलियाँ खा सपना सो गई थी। क्यों सोमेश के अलावा भला और कौन जान सकता था? कोई चिट नहीं छोड़ी थी, किसी ने कुछ नहीं कहा था, फिर क्यों? मौसी-माँ का करूण स्वर बार-बार सोमेश के सीने पर हथौड़े मार रहा था, पर मौसी से बहुत चाह कर भी सोमेश सत्य न बता सका था। पाषाण प्रतिमा सदृश्य सोमेश मौन रह गया था। अन्तर का अपराध. बोध उसे जीवित शव बना रहा था। सपना का आहत स्वाभिमान सोमेश को इतनी बड़ी-सजा दे गया था।
दूसरे ही दिन सपना के पापा आ गये थे। जीवन में हमेशा दबंग व्यक्तित्व वाले मिस्टर मित्रा पुत्री के शव पर पछाड़ खा गिर पड़े थे। सब कुछ समाप्त हो चुका था। सोमेश को अकेले जीने की सजा देकर चली गई थी।
एकाकी सोमेश सपना का अभाव क्या किसी पल भी भूल सका है। आज भी सपना की याद के क्षणों में सोमेश दत्त अपने को पूर्ण पाते हैं। उदार डाक्टर ने हार्ट-फेल का प्रमाण-पत्र दे किसी प्रकार की अफ़वाहों को पनपने नहीं दिया था। हाँ सोमेश की ओर जब डाक्टर अंकल ने गहरी दृष्टि डाली थी, सोमेश का अन्तर तक सिहर उठा था।
सब कुछ लुटा प्रौढ़ दम्पत्ति घर बेच, वह शहर छोड़ सोमेश को अकेला छोड़ गये थे। वैसे भी उस घर में सोमेश को एक पल सांस लेना भी कठिन था-जहाँ के कण-कण में सपना महकती थी। सोमेश के अकेलेपन की सज़ा सपना की मृत्यु के दिन से प्रारम्भ हुई थी। उसी शहर में रह कर बहुत चाह कर भी सोमेश उस पुराने घर को देखने जाने का साहस कभी नहीं जुटा सका।
प्रतियोगिता परीक्षा में उच्च अंक प्राप्त कर सोमेश पुलिस अधिकारी बन गया था। माँ के आग्रह को बार-बार ठुकरा, अन्ततः सोमेश को विवाह करना पड़ा था। पत्नी एक धनी परिवार की एकमात्र कन्या है, शायद यही आकर्षण माँ के मन में प्रबल था। कभी सपना को ले माँ ने कुछ सोचा था पर आज तो वह बात याद भी नहीं होगी।
धनी परिवार की सिर चढ़ी बेटी ने आते ही सबको अनुशासन संबंधी निर्देश दे डाले थे। सोमेश दत्त को साधारण शिष्टाचार तक पर भाषण दे डाला था। क्लब, पार्टीज के अलावा उसे अन्य किसी वस्तु से कोई लगाव नहीं था। पति की वीणा उसे अपनी सौत लगती थी। माँ जब कभी अकेला पा सोमेश से, बहू के अपने प्रति अन्याय की बात करतीं, तो विद्रूप से सोमेश दत्त के होंठ सिकुड़ जाते थे। कभी देर रात गये तक जब पत्नी क्लब में रह जाती, सोमेश दत्त वीणा ले बैठ जाते। उस समय वह सचमुच अकेले नहीं रह जाते । सामने बैठी सपना की विस्मय-विमुग्ध आँखें उन पर निबद्ध रहतीं। तन्मय विभोर हो जाते, बस उन्हीं क्षणों में तो वह पूर्ण जीवन जी पाते। अपने मन का दर्द वह अहंकारी पत्नी से कब बांट पाए हैं। यही दर्द तो उनका अपना है। उनके इस एकाकी जीवन की दौड़ और इस मछली की छटपटाहट में कितना साभ्य है? क्या पुलिस अधिकारी सोमेश दत्त अपने लिये आजीवन एकाकी कारावास की सजा से कठिन, कोई और सजा चुन सकते थे? यह एकाकीपन हर पल उनके द्वारा किये अपराध की याद दिलाता रहता है।
पत्नी भोजन के लिए शायद एक से अधिक बार बुला चुकी थी, क्योंकि इस बार उसके स्वर में तेजी आ चुकी थी। खिड़की के सीखंचे छोड़ सोमेश दत्त भोजन के कमरे की ओर चल दिये।
कितनी अकेली छटपटा रही है ये मछली, सोमू दा। कुछ और मछलियाँ डाल दीजिये न इसके साथ।
गम्भीर स्वर में अन्यमनस्क सोमेश दत्त बोले-
हाँ कुछ और मछलियाँ डालनी ही होंगी सचमुच ये अकेलापन महसूस करती होगी। मेरा ध्यान ही नहीं गया था।
नन्दिता के चले जाने के बाद खिड़की के सीखंचे पकड़े सोमेश दत्त सोचने लगे- क्या इस घर में बस ये मछली ही अकेली छटपटाती है? सच तो यह है पत्नी के साथ रहते भी सोमेश दत्त कितने अकेले हैं? वर्षों पहले सोमेश का अकेला जीवन कितना पूर्ण था?
गांव के निकटवर्ती कॉलेज से प्रथम श्रेणी में बी0एस0सी0 परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जब सोमेश इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम0एस0सी0 करने आने लगे तो माँ ने इलाहाबाद में रह रही अपनी एक सखी का पता दे दिया था। कभी सोमेश की माँ और वह घनिष्ठ सहेलियाँ हुआ करती थीं।
लूकरगंज के बताये उस घर के पते पर पहुंच, सोमेश एक पल असमंजस में खड़ा रह गया। इतनी बड़ी हवेलीनुमा घर में कहाँ-किसे पुकारूँ? किस मुश्किल में माँ ने डाल दिया। तभी एक लड़की जोरों से हॅंसती हुई बाहर आ गई थी। पीछे से कोई स्वर उसे पुकार रहा था। सोमेश को भौचक खड़ा देख वह लड़की एकदम अकड़ कर बोली-
ऐ मिस्टर कहाँ से आ रहे हैं? किससे मिलना है? कहीं चोरी-वोरी का इरादा तो नहीं है? उसे ऊपर से नीचे तक देख, जैसे पूर्ण आश्वस्त हो बोली थी
नहीं चोर तो नहीं लगते, हाँ गंवई गाँव के नमूने जरूर दिखाई देते हो।
लज्जा, अपमान से सोमेश का मुख लाल हो उठा था। हाथ के झोले को पीछे कर, जबरन मुस्कान ला कहा था-
नमूना तो आदमी काहूं, क्या मिसेस माया मित्रा यहीं रहती हैं?
ओह तो आप मम्मी के पास आये हैं, वंडरफुल। माँ, एतुम्हारे कोई मेहमान आये हैं सम्हालो इन्हें। द्रुत गति से वह लड़की दूसरी दिशा में चली गई।
अन्दर से एक प्रौढ़ा ने बाहर आ सोमेश को देख स्नेह से पूछा-
कौन हो भई! क्हाँ से आ रहे हो? प्रत्युत्तर में हाथ जोड़, नमस्कार कर सोमेश जैसे ही चरण- स्पर्श करने को झुका, स्नेह से उसे उठा आशीष दे प्रौढ़ा एकदम खिल गई
अरे तुम कृष्णा के बेटे सोमेश हो न? सोमेश ने आश्चर्य से जैसे ही स्वीकृति सूचक सिर हिलाया माया मित्रा प्रसन्नता से विभोर पुकारने लगीं.
अरी सपना, ज़रा देख तो सही कौन आया है? कई आवाजों के बाद वही लड़की धृष्ट मुस्कान के साथ आ खड़ी हुई। स्नेह से प्रौढ़ा ने कहा-
देख ये तेरे सोमेश दादा हैं, समझी। चल जल्दी से हाथ-मुंह धुला, नाश्ता लगा। कब चले थे बेटे?
ओह माँ, तो यही हैं कृष्णा मौसी के अति कुशाग्र बुद्धि सुपुत्र। वैसे इनसे मिल चुकी हूं, आइए। सोमेश को घर के भीतर आने को आमन्त्रित करती सपना एकदम साम्राज्ञी की तरह सिर उठाए अन्दर चल दी। सोमेश माया मौसी के साथ उसका अनुकरण करने को बाध्य था।
लाख कोशिशों के बाद भी सोमेश को मौसी ने होस्टेल नहीं जाने दिया था। इतना बड़ा घर भूत के डेरे सा लगता है। सपना के पापा का तो इस घर से नाम का नाता है। व्यापार के सिलसिले में बाहर ही रहना होता है। कुछ रूक कर मौसी बोली थीं।
इस सपना को भी अक्ल सिखा दे, सोमू, बस घोड़ी की तरह इधर-उधर छलांग भरती रहती है। कितना भी समझाती हूं, अक्ल ही नहीं आती।
ओह माँ में घोड़ी हुँ तभी तो बी0ए0 पार्ट वन में सर्वप्रथम आई हूं। तुम्हारे इन मौनी बाबा से क्या मैं अक्ल सीखूंगी? तुम्हारा तो जवाब नहीं, माँ।
अपमान से सोमेश का चेहरा तमतमा आया। माँ ने झिड़की दे सपना को डांटा ज़रूर, पर उस उदंड लड़की पर कोई भी प्रभाव परिलक्षित, सोमेश नहीं देख पाया। लज्जित स्वर में माया मौसी कहती गई। तुम इसकी बात का बुरा मत मानना, बेटे। इतने बच्चों में बस यही बची है, इसके बाबा ने सिर चढ़ा रखा है वैसे दिल की सपना हीरा है।
सोमेश को नीचे का कमरा दे दिया गया था। भोजन कराते समय माया मौसी अपनी और सोमेश की माँ की मित्रता की न जाने कितनी कहानियाँ सुनाती जाती थीं। सोमेश के विषय में कृष्णा दत्त एक-एक बात विस्तार से अपनी सहेली को सदैव लिखती रही है, जान कर सोमेश आश्चर्य कर उठता था। माँ ने अपने बेटे के गुणों की इतनी विशद् विवरणी भेजी थी कि कभी-कभी सोमेश लज्जित हो उठता था।
एक संध्या अपनी वीणा ले सोमेश तन्मय हो, बहुत रात तक बजाता रह गया था। प्रातः मौसी ने विस्मय से पूछा था-इतनी अच्छी वीणा कहाँ से बजाना सीख गया, सोमू?
बस यूँ ही मन बहलाने को बजा लेता हूं, कह कुछ अभिमान से सोमेश ने जैसे ही सपना की ओर देखा, वह पूछ बैठी-
ऐ सोमू दा ,हमें भी वीणा सिखाओगे?
न! इसमें एकाग्रता चाहिए-तुम मन कभी भी एकाग्र नहीं कर सकतीं, सपना।
क्या? एकदम क्रोध में सपना खड़ी हो गई।
मैं नहीं सीख सकती? तुम्हें अपने ऊपर इतना अभिमान क्यों है, सोमू दा? तुमसे अच्छी वीणा बजा कर दिखा दूंगी। कहती आवेश से रूद्ध गले के साथ सपना वहाँ से चली गई। स्तब्ध सोमेश उसके जाने की राह देखता रह गया।
मौसी ने हॅंस कर कहा था
ठीक तो है सोमू, कभी खाली वक्त में सिखा दिया कर। कम से कम लड़की का घर से बाहर निकलना तो बन्द हो जाएगा।
बहुत मान-मनुहार के बाद सपना सोमेश से वीणा सीखने को तैयार हुई थी। एक सप्ताह में सोमेश समझ गया सपना ने झूठ नहीं कहा था अगर वह चाहेगी तो बहुत जल्दी अच्छी वीणा बजा सकेगी। सपना की संध्याएं मानो वीणा-वादन के लिए समर्पित हो गई थीं। जिस एकाग्रता से वह वीणा-बजाना सीखती सोमेश विस्मित रह जाता। माया मौसी सोमेश का विस्मय देख बोली थीं-
इस लड़की का स्वभाव ही ऐसा है, सोमू। कभी एकदम अल्हड़ बच्ची बन जाती है, तो कभी छोटी सी बात इस गम्भीरता से लेती है कि इसके पापा तक डर जाते हैं। सच कहूं सोमू, इसके जिद्दी स्वभाव से मैं न जाने क्यों बहुत डरती हूं।
सोमेश की वीणा सुनती तन्मय सपना मानों कहीं दूर खो जाती थी। वीणा-वादन रूकते ही जैसे तंद्रा से अचानक जगाई गई सपना, चौंक उठती थी। एक जोड़ी आँखें मुग्ध विस्मय से परिपूर्ण सोमेश पर निबद्ध रह जाती थीं।
माया मौसी को किसी विवाह में बनारस जाना था। सोमेश के भोजन की व्यवस्था का भार सपना को सौंपते मौसी आश्वस्त नहीं हो रही थीं। घर की पुरानी महराजिन को बार-बार निर्देश दे मौसी जा सकी थीं। भोजन के समय उसके पास बैठ सपना जैसे उसकी अभिभाविका बन गई।
ऐ सोमू दा, ये सब्जी खाकर देखो हमने बनाई है।
सोमेश ने मुंह बनाया. ओह तभी तो इतना तेज नमक है।
क्या? एकदम सोमेश की कटोरी से सब्जी निकाल सपना ने मुंह में डाल ली।
छिः सोमू दा, इत्ते झूठे हो तुम? इतनी अच्छी सब्जी बनाई ओर तुम्हें नमक ज्यादा लग रहा है। कल से होटल में खाना तब पता लगेगा, समझे।
पर सपना तुमने मेरी जूठी सब्जी खाकर अपना धर्म तो भ्रष्ट कर डाला। पर .पुरूष की जूठन खाई है प्रायश्चित करना होगा।
ऐ सोमू दा तुम क्या कोई फ़िल्मी कहानी बना रहे हो? अपने को हीरो मत समझ बैठना। वैसी कहानियाँ बस शरतचंद्र की परिणीता ही जैसी होंगी मत समझ लेना समझे।
अभिमान से सिर उठाए सपना जैसे ही उठ कर अन्दर गई सोमेश का मुख काला पड़ गया। आधा भोजन छोड़ ज्यों ही सोमेश उठने लगा, आंधी की तरह सपना आ खड़ी हुई।
अच्छा अब माँ से यही कहोगे न हमने तुम्हें भूखा रखा था। अगर पूरा खाना नहीं खाया तो दो दिन तक अन्न ग्रहण नहीं करेंगे। हमारी ज़िद के आगे माँ भी हार जाती है, समझे।
विवश सोमेश फिर खाने बैठ गया, पर जैसे भोजन का स्वाद एकदम कडुवा हो उठा था। पूरी रात सोमेश सो नहीं सका था न जाने क्यों मन बहुत व्याकुल था। क्या वह सचमुच कोई कहानी रचने लगा था? नहीं-नहीं मन को बार-बार झटका दे, उस जाडे़ की रात में बिना ऊनी कपड़ों के, निरर्थक बाग़ में देर तक घूमता रह गया था।
सुबह सोमेश को तेज बुखार में पा सपना किसी व्यग्र हो उठी थी। घर के डाक्टर ने आ जब न्यूमोनिया की शंका व्यक्त की तो सपना का चेहरा सफ़ेद पड़ गया था। अनुनयपूर्ण स्वर में सपना मानों डाक्टर के समक्ष गिड़गिड़ा उठी थी
कोई भय तो नहीं है न डाक्टर अंकल? आप यहीं रह जाइये न। हॅंस कर डाक्टर ने स्नेह से कहा था नहीं पगली कोई भय नहीं कहो तो में एक नर्स भेज दूं।
नहीं-नहीं अंकल, हम सब देख लेंगे बस आप आते रहियेगा। कल तो माँ भी आ रही है।
जिस तन्मयता से सपना सोमेश की परिचर्या में जुट गई कि देखकर आश्चर्य होता था। वह मस्त सपना मानों कहीं खो गई थी। बुखार नार्मल होने के बाद माँ ने सहास्य कहा था-
ले सपना, तेरी तपस्या पूर्ण हो गई तेरा सोमू दा अब एकदम ठीक है।
मन्दिर में भगवान के चरणों में शीश धर सपना ने, न जाने क्या मौन प्रार्थना की थी। घर आकर पूरे घर में स्वंय प्रसाद बाँटा था। सोमेश हल्के से मुस्करा भर दिया था। पर सपना का वह पागलपन उसे कितना अच्छा लगा था।
सपना के कॉलेज में वार्षिकोत्सव था। सपना की सब सहेलियों का अनुरोध था सोमेश दत्त का वीणा-वादन उस दिन अवश्य हो। सोमेश से बिना पूछे सपना ने स्वीकृति भी दे डाली थी। सोमेश के संकोच पर सपना बच्चों की तरह फुसलाती गई।
अरे सोमू दा, हम तो रहेंगे वहाँ। मज़ाल है कोई लड़की छेड़ तो दे तुम्हें। फिर तुरन्त मनुहार करती कहती गई।
ऐ सोमू दा, देखो हमारी इज्ज़त का सवाल है। नहीं बजाओगे तो प्रिन्सिपल क्या कहेंगी हमारी? सपना अपने कॉलेज के लिए इतना भी नहीं कर पाई?
नियत दिन सोमेश को वीणा-वादन के लिए जाना ही पड़ा था। वीणा-वादन के पूर्व ही छात्राओं की जोरदार तालियों की गूंज से सोमेश का हृदय धड़क उठा था। वीणा-वादन अत्यन्त सफल रहा। वीणा के हाथ में ले सोमेश मंच से नीचे उतर रहा था, एक शोख आवाज उभरी थी-
ऐ सपना ले सम्हाल अपने वीणा-वादक को कहीं किसी की नज़र न लग जाए।
दूसरी आवाज उभरी-हाय काश हमें भी कोई इतना चाहता। लगता है वीणा बजाते भी सपना को याद कर रहे थे। क्या दर्द उभरा है स्वरों में।
कितनी लकी हे सपना जो धुन कही बजा दी। सपना का ही तो अनुरोध था इस धुन के लिए क्यों ठीक कह रही हुँ न ,सपना के मजनूँ जनाब।
एक ढ़ीठ लड़की राह रोक खड़ी हो गई थी कभी हम पर भी नजर डालिए हुजूर।
लज्जा से सोमेश मुंह भी ऊपर न कर सका। कॉलेज से बाहर आते ही मन का सारा आक्रोश ज्वालामुखी की तरह बह निकला। बिना रूके पूरे रास्ते अनाप-शनाप न जाने क्या-क्या सपना को सुनाता गया था। अभी भी उसे याद है, वह बरस पड़ा था-
शर्म नहीं आती इतनी बकवास सुन कर भी हॅंसती रहीं? तुम तो किसी कहानी की नायिका नहीं हो फिर ये क्या था? अगर चीप पब्लिसिटी का इतना ही शौक है तो किसी और को खोज लो समझीं। अब और अधिक अपमान असंभव है। कल ही होस्टेल चला जाऊंगा। मैं ऐसी छिछोरी लड़कियों से घृणा करता हुँ।
पूरे समय सपना शान्त-निर्वाक रह मानों आरोप सहती गई। उसका मौन सोमेश का साहस बढ़ाता गया था। उत्तेजना में कहे वाक्य सोमेश दत्त आज चाह कर भी याद नहीं कर पाते हैं। निःशब्द सपना घर पहुंच, माँ से भोजन न करने को कह, जल्दी सोने चली गई थी। उत्तेजना शान्त होने के बाद सोमेश को लगा शायद उसने सपना से बहुत अधिक कह डाला था। खैर सुबह सपना से क्षमा माँग लेगाए सोचता सोमेश सो गया था।
दूसरे दिन प्रातः अचानक जोर से किसी ने जगाया था
भइया, गजब हो गया, सपना दीदी को क्या हो गया देखो न।
क्या? एकदम रज़ाई फेंक सोमेश भागता हुआ जैसे ही सपना के कमरे में पहुंचा, माँ विलाप कर रही थीं। डाक्टर अंकल स्तब्ध खड़े थे? उसे देखते ही मौसी आर्तनाद कर उठी-
सोमू ये क्या हो गया बेटे? सपना ने क्या कर डाला, कुछ तो बोल, सोमू।
जड़ सोमेश आँखें सपना पर निबद्ध खड़ा था। डाक्टर ने असहाय सिर हिला दिया, कुछ भी शेष नहीं रह गया था। माँ की नींद की गोलियाँ खा सपना सो गई थी। क्यों सोमेश के अलावा भला और कौन जान सकता था? कोई चिट नहीं छोड़ी थी, किसी ने कुछ नहीं कहा था, फिर क्यों? मौसी-माँ का करूण स्वर बार-बार सोमेश के सीने पर हथौड़े मार रहा था, पर मौसी से बहुत चाह कर भी सोमेश सत्य न बता सका था। पाषाण प्रतिमा सदृश्य सोमेश मौन रह गया था। अन्तर का अपराध. बोध उसे जीवित शव बना रहा था। सपना का आहत स्वाभिमान सोमेश को इतनी बड़ी-सजा दे गया था।
दूसरे ही दिन सपना के पापा आ गये थे। जीवन में हमेशा दबंग व्यक्तित्व वाले मिस्टर मित्रा पुत्री के शव पर पछाड़ खा गिर पड़े थे। सब कुछ समाप्त हो चुका था। सोमेश को अकेले जीने की सजा देकर चली गई थी।
एकाकी सोमेश सपना का अभाव क्या किसी पल भी भूल सका है। आज भी सपना की याद के क्षणों में सोमेश दत्त अपने को पूर्ण पाते हैं। उदार डाक्टर ने हार्ट-फेल का प्रमाण-पत्र दे किसी प्रकार की अफ़वाहों को पनपने नहीं दिया था। हाँ सोमेश की ओर जब डाक्टर अंकल ने गहरी दृष्टि डाली थी, सोमेश का अन्तर तक सिहर उठा था।
सब कुछ लुटा प्रौढ़ दम्पत्ति घर बेच, वह शहर छोड़ सोमेश को अकेला छोड़ गये थे। वैसे भी उस घर में सोमेश को एक पल सांस लेना भी कठिन था-जहाँ के कण-कण में सपना महकती थी। सोमेश के अकेलेपन की सज़ा सपना की मृत्यु के दिन से प्रारम्भ हुई थी। उसी शहर में रह कर बहुत चाह कर भी सोमेश उस पुराने घर को देखने जाने का साहस कभी नहीं जुटा सका।
प्रतियोगिता परीक्षा में उच्च अंक प्राप्त कर सोमेश पुलिस अधिकारी बन गया था। माँ के आग्रह को बार-बार ठुकरा, अन्ततः सोमेश को विवाह करना पड़ा था। पत्नी एक धनी परिवार की एकमात्र कन्या है, शायद यही आकर्षण माँ के मन में प्रबल था। कभी सपना को ले माँ ने कुछ सोचा था पर आज तो वह बात याद भी नहीं होगी।
धनी परिवार की सिर चढ़ी बेटी ने आते ही सबको अनुशासन संबंधी निर्देश दे डाले थे। सोमेश दत्त को साधारण शिष्टाचार तक पर भाषण दे डाला था। क्लब, पार्टीज के अलावा उसे अन्य किसी वस्तु से कोई लगाव नहीं था। पति की वीणा उसे अपनी सौत लगती थी। माँ जब कभी अकेला पा सोमेश से, बहू के अपने प्रति अन्याय की बात करतीं, तो विद्रूप से सोमेश दत्त के होंठ सिकुड़ जाते थे। कभी देर रात गये तक जब पत्नी क्लब में रह जाती, सोमेश दत्त वीणा ले बैठ जाते। उस समय वह सचमुच अकेले नहीं रह जाते । सामने बैठी सपना की विस्मय-विमुग्ध आँखें उन पर निबद्ध रहतीं। तन्मय विभोर हो जाते, बस उन्हीं क्षणों में तो वह पूर्ण जीवन जी पाते। अपने मन का दर्द वह अहंकारी पत्नी से कब बांट पाए हैं। यही दर्द तो उनका अपना है। उनके इस एकाकी जीवन की दौड़ और इस मछली की छटपटाहट में कितना साभ्य है? क्या पुलिस अधिकारी सोमेश दत्त अपने लिये आजीवन एकाकी कारावास की सजा से कठिन, कोई और सजा चुन सकते थे? यह एकाकीपन हर पल उनके द्वारा किये अपराध की याद दिलाता रहता है।
पत्नी भोजन के लिए शायद एक से अधिक बार बुला चुकी थी, क्योंकि इस बार उसके स्वर में तेजी आ चुकी थी। खिड़की के सीखंचे छोड़ सोमेश दत्त भोजन के कमरे की ओर चल दिये।
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