12/6/09

एहसास

हर रोज की तरह आज भी सुबह हुई थी। नींद टूटते ही देवेश का पहला प्रश्न हुआ करता था-


क्या टाइम हुआ है?

सात बज गए हैं जनाब, अब उठिए, वर्ना आफिस के लिए देर हो जाएगी।

क्या मुश्किल है यह आफिस भी, चैन से सोने भी नहीं देता.............। जाड़े की मीठी नींद से जागते देवेश भुनभुनाते जाते।

आज आँख खुलते ही देवेश को बिस्तर से गायब पाया । सामने लगी दीवार घड़ी में बस छह बज रहे थे। कहाँ गए देवेश?

जल्दी से बिछौना छोड़, शाल कन्धे पर डाल नीचे उतरी थी। गम्भीर चेहरे के साथ देवेश खिड़की के बाहर ताक रहे थे। सुबह का वह सुहाना दृश्य, शायद उन्होंने पहली बार देखा होगा।

वाह आज आफिस नहीं जाना है तो इतनी जल्दी उठ गए, वर्ना साढे सात तक भी जनाब की नींद नहीं टूटती थी।

मेरे परिहास के उत्तर में देवेश मौन रह गए थे। देवेश के रिटायरमेंट का पहला दिन, हम दोनों को बेहद डिप्रेस्ड किए हुए था। पिछले तीस वर्षों से हम दोनों, साथ आफिस जाते रहे हैं। आज से मुझे अकेले आफिस जाना होगा, देवेश साथ नहीं होंगे। हम दोनों ही पूरी रात डिस्टर्बड रहे थे। स्त्री तो घर के पचास काम कर, समय बिता सकती है, पर देवेश जैसे पुरूष, जो तिनका भी नहीं तोड़ सकते, वह क्या करेंगे। अगर घर में साथ देने को पत्नी हो, तो बात दूसरी होती है। प्रायः गृहणियों को पति की व्यस्तता की शिकायत बनी ही रहती है। रिटारयरमेंट के बाद पूरे समय पति की उपलब्धता की कल्पना ही सुखद होती है।

जीजाजी के रिटायरमेंट के बाद मालती जीजी की प्रसन्नता का ठिकाना न था-

सच हूं सुनीता,  इस उम्र में तेरे जीजाजी को पूरा पा सकी हूं। पहले तो यह अपने ही घर में मेहमान लगते थे।

साफ़ क्यों नहीं कहतीं, घर में तुम्हारा हुक्म बजा लाने के लिए, अब यह गुलाम चैबीसों घण्टे हाजिर है। जीजाजी ने प्रसन्न-मन अपना रिटायरमेंट स्वीकार कर लिया था।

हमारे साथ तो स्थिति ही दूसरी है, घर पर रहते देवेश, मेरी प्रतीक्षा को बाध्य रहेंगे। देवेश का अहं इसे कैसे स्वीकार कर सकेगा?

मेरी सम्मति में देवेश को ठीक समय से दस मिनट पूर्व आफिस पहुंचने की, खराब आदत थी। दो मिनट की देरी पर मुझे झाड़ना शुरू कर देते थे-

साढे आठ बज रहे हैं, तुम ड्रेसिंग-टेबिल ही नहीं छोड़ रही हो?

माथे पर बिन्दी लगाते मेरे हाथ ठिठक जाते। एक दिन झल्ला भी उठी थी-

देखो जी बिंदी लगाते समय मत टोका करो। तुमने देखा नहीं है, और औरतें मेकअप करने में कितना टाइम लेती हैं?

डेªसिंग-टेबिल प्रायः हमारी युद्ध-स्थली हो जाया करती। देवेश की शेविंग और मेरे बाल संवारने का समय प्रातः साथ ही होता। कभी ब्रश उठाते, देवेश के शेव का पानी गिर जाता तो देवेश नाराज़ हो उठते।

भई जरा देखकर काम किया करो। पूरी टेबिल पानी से नहा गई, अब डस्टर लाकर पानी सुखाओं। मुझे यह सब पसन्द नहीं..............।

जहाँ समय की पाबन्दी के साथ हर चीज करीने से रखना देवेश की आदत में शामिल था, वहीं मैं प्रायः समय के प्रति लापरवाह थी। जल्दबाजी में छोटी-मोटी गलतियाँ करना जैसे मेरा स्वभाव था।

रोज़ की तरह आज भी पानी गर्म करने के लिए इमर्शन-रॉड लगी थी। कल तक देवेश पानी गर्म होते ही, मेरे चिल्लाते रहने के बावजूद नहाने के लिए बाथरूम में घुस जाया करते थे। पहले स्नान कर देवेश को जल्दी तैयार होने का मौका मिल जाया करता था, और चाहकर भी घर के काम निबटाने में पिछड़ जाती।

आज अखबार पढ़ने का नाटक करते देवेश मेरे स्नानगृह में जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। बाथरूम से मुझे बाहर निकलता देख, शेव कर रहे देवेश ड्रेसिंग-टेबिल के सामने से हट गए। मुझे जैसे कहीं चोट-सी लगी ।

अरे तुम शेव कर लो न, अभी तो बहुत समय बाकी है। अभी तो मुझे साड़ी भी बांधनी है........।

नहीं, बाद में कर लूँगा, अब कोई जल्दी तो है नहीं..........। देवेश की मुस्कराहट में उदासी तैर रही थी।

मन जैसे भीग उठा था। देवेश के इस रूप की कभी आदत जो नहीं थी।

साढे आठ बजते-बजते देवेश का शोर शुरू हो जाया करता- नाश्ता तैयार है या नहीं? तुम ज़रूर लेट कराओगी। मैं चला जाऊंगा, तुम पीछे से आती रहना।

कभी-कभी तो मैं सचमुच डर जाती, कहीं वह मुझे छोड़, चले न जाएँ। बस से आफिस पहुंचना आसान तो नहीं था।

टेबिल पर नाश्ता सजा, रोज की तरह आज भी आवाज दी थी-

आइए, नाश्ता तैयार है।

तुम कर लो, मैं बाद में करूँगा।

यह क्या, भला मैंने कभी अकेले नाश्ता किया है, जो आज कर लूं? मैंने मान दिखाया था।

अब तो हर काम अकेले ही करना होगा, आदत डाल लो। मेरा मुंह देखने की जरूरत नहीं है।

अगर तुम नहीं आए तो भूखी चली जाऊंगी..........।

आता हूं, क्यों शोर मचा रही हो? अब तो तुम्हारा हर ऑर्डर मानना पड़ेगा। स्वर कड़वा हो आया था।

जिस दिन तुम मेरा कहा मानोगे, सूरज पश्चिम से निकलेगा। मैंने बात परिहास में उड़ा देनी चाही?

वह तो हो ही रहा है, बीबी कमाने आफिस जा रही है,  मर्द निठल्ला घर पर बैठा है।

ऐसी बातें करोगे तो आज ही इस्तीफ़ा दे आऊं गी। मेरा स्वर रूआंसा हो आया था।

आई एम सॉ री.......... मैं तो मजाक कर रहा था। अब जल्दी करो, वर्ना लेट हो जाओगी।

देवेश की तकलीफ मैं महसूस कर रही थी। दोनों बच्चे बाहर जा चुके हैं। घर में अकेले समय काट पाना उन्हें कितना कठिन लग रहा होगा,  मैं समझ सकती थी। जल्दी-जल्दी चाय खत्म कर मैं उठ खड़ी हुई थी-

चलती हूं?

देवेश पर दृष्टि डालने का साहस ही नहीं हुआ था। मेरे साथ रहते भी दो-तीन दिन की छुट्टियों में वह बोर फ़ील करने लगते थे। कभी स्कूटर की सफ़ाई करते, कभी ड्राइंग-रूम का फर्नीचर इधर-उधर बदलने में बोरियत मिटाते! देवेश के अन्तर्मुखी स्वभाव के कारण मित्रों के घर आने-जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। जब तक बच्चे थे, बात दूसरी थी, उनकी पढ़ाई-लिखाई उनसे बातचीत में समय काटना बहुत आसान था।

ओ0के0 जल्दी आ जाना। हल्की मुस्कराहट के साथ देवेश ने विदा किया था। रिटायरमेंट के दिन ही देवेश ने कह दिया था आफिस पहुंचाने-ले आने के लिए मैं उनसे अपेक्षा न रखूं।

आफिस पहुंच लगा, सब मेरी मनःस्थिति जानना चाह रहे है। बेचारगी का भाव अनायास ही मुझ पर हावी होने लगा था।

कहिए श्रीमान जी के बिना आफिस आना कैसा लग रहा है? हमेशा आप दोनों साथ ही आते थे न?

साहिब घर में क्या कर रहे हैं?

अब तो आप ही घर की बॉस है न, मैडम?

जी चाहा सबको खरी-खरी सुना दूं,  पर आठ घण्टे घर में देवेश अकेले क्या करेंगे, सोच-सोच में स्वयं परेशान हो रही थी। मन जल्दी-से-जल्दी घर भाग जाने को व्याकुल था। काश रिटायरमेंट का खालीपन झेलने को मैं देवेश के साथ होती, हालांकि आज के पहले मैं कभी नहीं सोच सकी थी कि मेरी कम्पनी की देवेश ने कभी जरूरत महसूस की थी। देवेश अपने आप में पूर्ण थे।

यूँ तो हर पत्नी को अपना पति डिक्टेटर ही लगता है, पर देवेश की तो बात ही कुछ और थी, जो उन्होंने कहा, वह स्वीकार करना ही हमारी नियति थी। बच्चे जब तक छोटे रहे, अपनी फर्माइशें मेरे द्वारा ही देवेश तक पहुंचाते रहे। कभी-कभी देवेश के इकतरफ़ा निर्णय हमें क्षुब्ध कर जाते, पर उनके विरोध का अर्थ, घर में महाभारत शुरू करना था।

देवेश का अहं कभी उन्हें सहज नहीं रहने देता था। कभी मेरी या बच्चों की साधारण बातें भी उन्हें रूष्ट कर जाती थीं। उनके जीवन में कार्यालय का सर्वोपरि महत्व था। छुट्टियों में भी आफिस की फाइलें उनका पीछा नहीं छोड़ती थीं। अपनी या बच्चों की छुट्टियाँ दोनों से उन्हें चिढ थी। छुट्टियों में बच्चों का शोर सुन वह झुंझला उठते-

न जाने हिन्दुस्तान में इतनी छुट्टियाँ क्यों होती हैं।

इसीलिए बच्चे उनके टूर पर जाने की प्रार्थना करते-

पापा टूर पर क्यों नहीं जाते, हम लोग कभी तो फ्री रह सकें। करूणा देवेश से बहुत डरती थी।

पर पापा के न रहने से खाली-खाली सा लगता है। उ नके इंस्ट्रक्शन्स सुनते रहने की अपनी तो आदत बन गई है।। विनय का अन्दाज़ ही अलग था। हर हाल में खुश रहना ही उसका स्वभाव था।

बच्चों के बाहर चले जाने के बाद से देवेश उनकी बातों को तरसने लगे थे। बच्चे जब आते तो घर में उत्सव सा उल्लास छा जाता था। पापा के बदले तेवर वच्चों को बेहद भाते थे।

शाम को बेहद तनाव और चिन्ता में घर लौटी थी। डाइनिंग-टेबिल पर टीकोजी से ढ्की चाय देख चौंक गई। आफिस से लौटकर चाय बनाना मेरी ही जिम्मेदारी थी?

यह क्या, मैं आकर चाय नहीं बना सकती थी? मुझे अपराधी बना रहे हो?

सोचा, तुम थकी वापिस आओ, एक कप तैयार गर्म चाय देख कितनी खुश होगी। मैंने तो दिन भर पलंग ही तोड़ा है। अब जल्दी से चाय पीकर बताओ, कैसी बनी है?

देखो कल से चाय मैं ही बनाऊंगी, वर्ना.........मेरा गला भर आया था। देवेश का यह रूप सहजता से स्वीकार कर पाना कठिन था।

कमाल है, हमेशा शिकायत करती रहती थीं, मैं काम नहीं करता और आज जब मैं काम करने चला तो तुम्हें मंज़ूर नहीं। ठीक ही कहा जाता है नारी-मन की थाह पाना असम्भव है।

मुझे तुम पहले जैसे देवेश ही चाहिए, एकदम वैसे ही......समझे। भावातिरेक में मैं देवेश के सीने से जा चिपटी थी।

यह क्या? रिटायरमेंट तो हर व्यक्ति की नियति है। मेरे साथ कुछ नया तो नहीं घटा है। हम इसे सहज रूप में क्यों न स्वीकारें? प्यार से मेरे बाल सहलाते देवेश ने कहा था।

वह तो ठीक है, पर रिटायरमेंट के एक ही दिन बाद, भला कोई ऐसे बदल जाता है?

मैं बदल गया हूं?

और नहीं तो क्या, भला आज तक कभी एक ग्लास पानी भी खुद उठाकर पिया था, जो आज मेरे लिए चाय तैयार कर, सता रहे हो?

ओह, तो यह बात है। देवेश ठठाकर हॅंस पड़े।

इसमें हॅंसने की क्या बात है? मैं नाराज़ हो उठी थी।

बात तो सचमुच हॅंसने की नहीं है। जानती हो आज दिन भर खाली पड़ा, अपनी पिछली ज़िन्दगी के बारे में सोचता रहा-

उसके साथ चाय बनाने का क्या सम्बन्ध था?

सम्बन्ध है मीनू, जब तक आफिस में काम करता रहा, हमेशा अपने को महत्वपूर्ण मानता रहा। कभी एक पल को भी यह नहीं सोच पाया, तुम भी मेरी ही तरह आफिस जाती हो, काम के बाद थक सकती हो। घर के कामों के लिए हमेशा तुम्हें ही जिम्मेदार ठहराया, पर आज-

थैंक्स। मतलब रिटायरमेंट के बाद जनाब के ज्ञान-चक्षु खुल गए है।

ठीक कह रही हो मीनू। अब इस नए जीवन की आदत डालने के लिए, कहीं तो अपने को बदलना होगा न?

सच कहो देवेश, तुम इसे सहजता से स्वीकार कर सकोगे?

करना ही होगा। सच कहुँ तो पिछले कुछ दिनों से रिटायरमेंट मुझ पर इस कदर हावी था कि इसके सिवा और कुछ सोच ही नहीं पाता था।

और आज? मुंह ऊपर उठा, मैंने पूछा था।

तुम देख ही रही हो, तुम्हारी चाय तैयार है। किचेन में भी अपने सहायक के रूप में मुझे पाओगी। जीवन भर काम में तुम्हारी मदद न करने का प्रायश्चित जो करना है। देवेश परिहास पर उतर आए थे।

तुम और मेरे सहायक-असम्भव।

तुम्हारे असम्भव को सम्भव बनाने की कोशिश जरूर करूँगा। वैसे एक बात बता दूं,  मैं खाली बैठने वाला नहीं। बहुत दिन नौकरी कर ली अब समाज-सेवा का पुण्य उठाने का विचार है-समझीं देवीजी।

ओह देवेश तुमने मुझे उबार लिया। जानते हो आज आफिस में बैठी अपने को अपराधी ठहरा रही थी।

क्यों भई, कौन-सा अपराध कर डाला है?

यही कि मैं आफिस में हूं और तुम- -

पगली कहीं की, यह भली कही। चलो इसी बात पर आज हम रिटायरमेंट का पहला दिन सेलीब्रेट कर डालें।।

कैसे सेलीब्रेट करोगे?

कहीं दूर तक लम्बी ड्राइव के बाद, डिनर बाहर ही लेंगे। ठीक है न?

”ओह देवेश, सच कितना मजा आएगा।

दिन भर का नैराश्य भुला मैं चहक उठी।

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