12/6/09

घर

समाचार-पत्र में प्रकाशित सूचना पर दृष्टि ठहर गई थी-स्थानीय उद्योगपति सेठ कांतिलाल के सुपुत्र श्री नरेश की संदेहजनक परिस्थितियों में मृत्यु...............हत्यारे का सुराग नहीं............


हे भगवान, पारूल को यह भी सहना था। बरबस ही उसाँस निकल गई थी।

बड़े दादा की बेटी पारूल सबसे अलग निकली थी। संयुक्त परिवार के दरबेनुमा कमरे में न जाने कहाँ से उजाले की किरणें पकड़, पारूल ने सबको चमत्कृत कर दिया था। इन्टरमीडिएट परीक्षा में पूरे प्रान्त में पाँचवीं पोजीशन लाना कितनों को संभव होगा? पूरे शहर में पारूल पहले नम्बर पर थी। समाचार-पत्र वाले जब पारूल की फ़ोटो माँगने आए तब बड़े दादा को पुत्री की योग्यता का पता चला था।

क्षमा कीजिए हमारे यहाँ बहू-बेटियों के चित्र समाचार-पत्रों में छपवाने का चलन नही हैं। बड़े भइया ने पारूल की फ़ोटो देने से इन्कार कर दिया था।

पर आप यह क्यों नहीं सोचते यह चित्र औरों के लिए प्रेरणा बन सकता है। एक संवाददाता अड़ गया था।

हमें अपने घर की बात देखनी है, दूसरों का ठेका हम नहीं ले सकते। दृढ़ स्वर में अपनी बात कह, बड़े दादा ने उन्हें निरूत्तर कर दिया था।

बहिनों के प्रति अतिशय उदार बड़े दादा ने, अपनी बेटी को कठोर अनुशासन में रखा था। बाबा का लकड़ी का व्यापार खूब फैला था। नीचे दीवान पर गाव-तकिया लगाए बाबा, हिसाब-किताब पर कड़ी नजर रखते थे। चार पुत्र और चार पुत्रियों के पिता .रूप में बाबा पर भगवान की असीम कृपा थी।

बड़े दादा का उदार स्वभाव बाबा के एकदम प्रतिकूल था। उनसे छोटे विशन दादा की कॅंजूस प्रवृत्ति बाबा के स्वभाव से खूब मेल खाती थी। छोटे भाई किशन और बृजेश सब बहिनों से छोटे होने के कारण बाबा के विशेष दुलारे थे। बाबा के सामने ही बड़े दादा ने गृहस्थी की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले रखी थी। घर-परिवार को बड़े दादा के हाथ सौंप, निश्चिन्त बाबा ने सदा के लिए आँखें मूँद ली थीं।

बाबा का जाना इतना अचानक हुआ कि सब स्तब्ध रह गए थे, पर बड़े दादा के स्नेह ने किसी को एक पल भी यह महसूस न होने दिया कि बाबा की छत्र-छाया उनके सिर पर नहीं है।

बड़े दादा, बड़की दीदी की ससुराल से शादी का न्योता आया है। सामान भेजने को पाँच हजार चाहिए। विशन दादा निःसंकोच बड़े दादा से पैसा माँग एसारा श्रेय स्वयं ले लिया करते थ।

बड़े दादा ने भले ही स्वयं अपने ऊपर अधिक खर्च न लिया हो, परिवार वालों के लिए उनका हाथ सदैव खुला रहता था। विवाहिता बहिनें जब भी घर आतीं, बड़े दादा से पिता जैसा स्नेह पातीं। परिवार के सदस्यों को महावारी खर्चा मिलने के बावजूद, किसी भी कार्य के लिए बड़े दादा ही पैसों के लिए उत्तरदायी रहते थे।

उस घर में सरस्वती की अपेक्षा लक्ष्मी का अधिक महत्व था। ऐसे घर में जहाँ छोटी-बड़ी बुआएँ, हाईस्कूल पास करते न करते शादी कर घर बसा बैठी थीं, पारूल ने डाक्टर बनने का स्वप्न देखा था। बड़े दादा उसकी उच्च शिक्षा के विरोधी थे, पर पारूल के स्वप्न को उसकी माँ ने सहारा दिया था। बनारस के सुसंस्कृत परिवार की बेटी, बड़ी भाभी ने, बड़े दादा से शायद ही कभी कुछ माँगा हो, पर पारूल के लिए उन्होंने विनती की थी-

पारूल को हम खूब पढ़ाएंगे ................. उसकी रूचि पढ़ाई की ओर है।

बेकार की बात हैं। लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने-लिखाने से फ़ायदा?

पर वह तो डॉक्टर बनना चाहती है।

पागल हो गई हो, डाक्टर बनाकर उसे जिन्दगी भर कुँआरी रखना है। हमारी बिरादरी में कहाँ मिलेगा उसके लिए लड़का.................?

पर अब तो ज़माना बदल गया है अच्छे लड़के भी पढ़ी-लिखी लड़की खोजते हैं....।..

डाक्टर तो नहीं..। बड़े दादा का सीधा जवाब था।

हमारे घर के लड़के तो डाक्टर, इंजीनियर लड़कियाँ ही खोजते रहे...............।

”तुम्हारा घर तो अमरीका जा बसने लायक है। यहाँ रहेंगे और विदेशी ढंग अपनाएंगे। तभी तोअमारी अम्मा तुम्हारे घर वालों को म्लेच्छ..................।

अम्मा की बात छोड़िए, आप क्या कहते हैं? जिस नीति विचार से मैं रहती हूं, घर में कोई और बहू वैसे रह सकती है? बड़ी भाभी तीखी पड़ गई थीं।

सच ही, बड़ी भाभी ने अपना बड़प्पन हर जगह रखा था। सास की छूआछूत का निश्शब्द पालन करती बड़ी भाभी को देख उनके बनारस के घर वाले आश्चर्य में पड़ जाते।

पारूल को इन्टरमीडिएट में प्रवेश दिलाते बड़े दादा ने भाभी को चेतावनी दे डाली थी-

इन्टरमीडिएट के बाद पारूल की शादी करनी है, आगे पढ़ाना या न पढ़ाना उसके घर वालों की मर्जी पर होगा।“

भाभी मौन रह गई थीं।

पारूल ने बड़ी भाभी की शालीनता और बड़े दादा का सौंदर्य पाया था। उजली धूप-सा सुनहरा रंग और तीखे नयन-नक्श के कारण चार लड़कियों में अलग चमकती थी पारूल।

कालेज की परीक्षा में सब विषयों में डिस्टींक्शन ला पारूल ने प्राध्यापिकाओं और साथ की लड़कियों को विस्मित कर दिया था।

न जाने कहाँ का दिमाग पाया है लड़की ने, यह तो चलती-फिरती कम्प्यूटर है। प्राध्यापिकपाएँ आश्चर्य करतीं।

एक बार सुन ले तो भूलने का प्रश्न ही नहीं उठता, भई गजब की मेमोरी है पारूल की।

साथ की लड़कियाँ छेड़तीं-

ऐ पारूल अपनी खोपड़ी से थोड़ी-सी अक्ल हमें भी दे दे न। अक्ल का इतना भार लिए घूमती थक न जाएगी?

शान्त-सौम्य पारूल मुस्करा कर मौन रह जाती। अभिमान कभी उसके सिर पर चढ़ने का साहस न कर सका।

उस दिन अपने कमरे से निकल, बाल सुखाने पारूल छत पर पहुँच गई थी। अचानक एक कंकड़ी उसके पांव के पास आ गिरी थी। चौंक कर दृष्टि उठाते ही दूसरे घर की छत पर खड़ा संजीव दिखाई दिया था। पारूल से दृष्टि मिलते ही संजीव ने मुस्करा कर हाथ हिलाया था।

पिछले दो वर्षो से सामने वाले घर में संजीव का परिवार आ बसा था। संजीव के घर में धन-सम्पदा के स्थान पर विद्या-बुद्धि का अधिक महत्व था। बी0एस0सी0 की परीक्षा में फ़िजिक्स में सर्वोच्च अंक ले वह एम0एस0सी0 फ़ाइनल का मेधावी छात्र था।

बड़ी भाभी का उस घर में प्रायः आना-जाना होता था। संजीव की माँ स्थानीय स्कूल में शिक्षिका थीं और पिता म्यूनिसिपल कारपोरेशन में कार्य करते थे। संजीव के लिए उसके माता-पिता ने ढेर सारे सपने पाल रखे थे। भाभी को वह घर अपने बनारस वाले घर की याद दिला जाता था। ससुराल की चाहरदीवारी के बाहर जैसे खुली हवा में साँस लेने को, वह उस घर में जाती रहती थीं।

डपारूल अगर तुझे मेडिकल कॉलेज में दाखिला न मिला तो क्या करेगी? चिन्तित भाभी ने पूछा था।

एम0एस0सी0 करके प्रतियोगिताओं में भाग लूंगी, तुम्हारी तरह घर की चाहरदीवारी में बन्द होकर नहीं बैठूँगी, अम्मा।

पर वह तो लड़की की नियति है, पारूल................।

मैं अपनी नियति स्वयं निर्धारित करूँगी, माँ...............।

माँ-बेटी की बातें सुनती संजीव की माँ हॅंस पड़ी थीं।

इसीलिए संजीव कहता है पारूल में कुछ कर गुजरने की आग हैं, वह जो चाहेगी, पा लेगी..........।
 
संजीव पारुल को कैसे जानता है? बड़ी भाभी चौंक गईं।

संजीव की कजिन मीना, पारूल के साथ है न? शायद कभी उसने पारूल को कालेज डिबेट में भी बोलते सुना था।

ओह। भाभी आश्वस्त हो उठी थीं।

उस दिन से पारूल, संजीव को पहिचानने लगी थी। कभी कालेज आते-जाते दोनों का कुछ दूर तक साथ हो जाया करता था। एक दिन आगे बढ, संजीव ने परिचय भी बनाना चाहा था-

आपका पड़ोसी संजीव! माँ आपकी अच्छी प्रशंसिका हैं।

थैंक्स। कहती पारूल ने मुंह उठा कर संजीव को देखा तक  नहीं।

सुना हैं आप मेडिसिन में जाना चाहती हैं?

जी।

मेरे बारे में कुछ नहीं जानना चाहेंगी?

जी नहीं।

क्यों?

क्योंकि अजनबियों से परिचय बढ़ाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं हैं।

इतने पास रहते भी हम अजनबी हैं?

जी हाँ, और पास आने की आपकी यह चेष्टा भी व्यर्थ है। पारूल तेजी से आगे बढ़ गई थी।

आज अचानक पाँव के पास आ गिरी कंकड़ी ने, पारूल की धमनियों का रक्त तीव्र कर दिया था। छत से भागकर, वह तेजी से सीढ़ियों से नीचे उतर गई।

क्या बात है पारूल, ऐसे भागती कहाँ से आ रही है? भाभी चौंक गईं।

जल्दी कुछ खाने को दो माँ, बहुत भूख लगी है............।

वाह री लड़की, वाह री तेरी भूख......। दादी भुनभुना उठी थी।

पारूल ने मेडिकल एंट्रेस की परीक्षा की तैयारी में अपने को भुला दिया था। पुस्तकों में सिर गड़ाए पारूल को देख, दादी रूष्ट हो उठ्तीं-

बहुत पढ़ा लिया बेटी को, अब उसे कुछ घर का काम-काज सिखाओ, बहू। खाली पढ़ाई से पेट नहीं भरता...............।

मांजी वह डाक्टर बनना चाहती है, उसके लिए तो कड़ी मेहनत करनी ही होगी।

हुँह! डाक्टर बनकर मुरदे ही तो चीरेगी। भाग्यवान है तुम्हारी बेटी। पिछले साल से सेठ कांतिलाल की पत्नी अपने बेटे नरेश के लिए पारूल को माँग रही है।

उस घर में पारूल का संबंध ठीक नहीं रहेगा मांजी...।

क्या कह रही हो बहू?  हमारी बिरादरी में वैसा दूसरा घर खोजे न मिलेगा। धन-सम्पत्ति इतनी है कि सात पीढ़ियाँ आराम से बैठकर खा सकती हैं। सोने में मढ जाएगी हमारी पारूल।

पर मांजी, पारूल की रूचि दूसरी है। जेवर तो दूर, वह तो रंगीन कपड़े तक नहीं पहिनना चाहती। उसे तो बस किताबें चाहिएँ।

ज्यादा उम्र हो जाने पर अच्छा लड़का मिलने से रहा, बाद में मुझे दोष मत देना। हम बिरादरी से बाहर कोई नया ढंग तो शुरू नहीं कर सकते। तुम अपने मायके का चलन यहाँ न चलाओ, तुम्हारा घर तो.........। सास ने वाक्य अधूरा छोड़ मुंह बिचका, बहुत कुछ कह दिया था।

”अम्मा मुझे सोने के पिंजरे में बन्द नहीं होना है, मैं मर जाऊंगी।“

तू शांति से परीक्षा दे, मैं देख लूंगी, पारूल। बेटी के सिर पर स्नेहपूर्ण हाथ धरती भाभी के मुख पर दृढ़ता आ गई।

बचपन में भाभी ने भी बहुत आगे तक पढ़ने का सपना देखा था, पर पिता के आकस्मिक निधन ने उनके स्वप्न छिन्न-भिन्न कर दिये थे। माँ ने जल्दी-जल्दी बेटियों के विवाह कर अपने दायित्व पूर्ण कर लिए थे। आज उसी मायके में भाई खान्दानी लोहे का व्यवसाय छोड़ उच्च पदों पर आसीन हैं! पढ़ी-लिखी सुस्संकृत भाभियाँ, भाइयों के साथ गर्व से बाहर घूमती हैं। पारूल को डॉक्टर बनाना मानों भाभी के अपने छिन्न-भिन्न स्वप्न की पूर्ति थी।

पति की नाराजगी सहती भाभी की बार-बार की मनुहार पर, बड़े दादा पसीज गये थे, पर शर्त लगा दी पारूल को दूसरे शहर नहीं भेजा जायेगा, उसे वहीं स्थानीय मेडिकल में प्रवेश मिल जाये तो ठीक वर्ना उसे भाग्य पर भरोसा कर शाँत बैठना होगा।

पारूल की भगवान ने सुन ली, स्थानीय मेडिकल कालेज में उसे प्रवेश मिल गया था। पारूल को तो मानों पंख मिल गये। सफेद सलवार-कुरते के साथ, गुलाबी ओढ़नी में जब वह कॉलेज पहुंची तो उसके अनुपम सौंदर्य को निहारती कई जोड़ी आँखों के बीच पारूल संकुचित हो उठी थी।

चौदहवीं का चाँद है, यार।

शुभ्र सौंदर्य की स्वामिनी............. हम पर भी दृष्टि पड़ जाये तो कल्याण हो जाये।

अपने में सिमटी पारूल के कक्षा में पहुंचते ही हल्की फुसफुसाहटें शुरू हो गई थीं। सीनियर बैच के लड़के जूनियर बैच के भाग्य पर ईर्ष्या कर उठे थे-

काश वह उनके साथ होती.............।

कुछ ही दिनों में पारूल की धूम मच गई थी-अपरूप सौंदर्य के साथ बुद्धि की प्रखरता सोने में सुहागा थी।

मेडिकल कॉलेज के पीछे संजीव का फ़िजिक्स डिपार्टमेंट था। पारूल के बाहर आने पर संजीव प्रायः बाहर खड़ा उसकी प्रतीक्षा सी करता था। घर के लिए पारूल और उसकी एक ही बस होती थी। बस- स्टैंड से घर तक जाती पारूल से संजीव जबरन बातें करता जाता था-

जानती हैं आपके कॉलेज के साथियों ने आपको क्या खिताब दिया है? संजीव पूछता-

मुझे जानने की कतई इच्छा नहीं है।

वाह जानना तो जरूर चाहिए...........।

क्यो, मुझे किसी से कोई मतलब नहीं।

आपको वे सफेद कबूतरनी कहते हैं।

मुझे वह काला कौआ कहें या हॅंसिनी, जो हूं वही रहूंगी, समझे मिस्टर।

सच तो यही है, जो आप हैं, उसके के लिये इस संसार में कोई उपमान ही नहीं बना है। आप तो अनुपमा हैं।

शुक्रिया, एक बात और, रास्ता चलते, लोगों से बातचीत करना मेरा स्वभाव नहीं।

पर मेरी थिंकिंग दूसरी है। कभी-कभी साथ चलते व्यक्ति जीवन भर के लिए हमराही बन जाते हैं इसीलिए हमेशा अच्छा साथी ही खोजो। ठीक है न?

भगवान के लिये मुझे परेशान न करें। दुनिया बहुत बड़ी हैं, कोई दूसरा साथी खोज लें, मिस्टर संजीव। मुझे बख्श दें।

पर इतनी बड़ी दुनिया में मनपसंद साथी तो बस एक ही होता है और मेरी पसंद आप हैं।

बात आपकी पसंद भर से ही तो पूरी नहीं हो जाती-मुझे आप बेहद नापसंद हैं समझे। अब एकतरफ़ा पसंद से क्या फ़ायदा?

मुझे कोई नापसंद करे, ऐसा कुछ तो मुझमें नहीं है  ,पारूल जी। इस वर्ष आई0ए0ए0 में क्वालीफाई कर जाऊं तो शायद सबसे अधिक वांछित पात्र बन जा।ऊंगा।

जिसे आई0ए0एस0 की आकांक्षा हो उसे खोजिए, मुझे तो ऐसे अधिकारी सरकारी पिट्ठू लगते हैं...........।

सच...........तुम्हें यह प्रोफेशन पसंद नहीं, पारूल?

कितनी बार कहना पड़ेगा आपके प्रोफेशन से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। पारूल झुँझला उठी।

मुझे तो तुम्हारी इच्छा-अनिच्छा देखकर ही जाँब लेना हैं, पारूल.............।

प्लीज स्टॉप दिस नॉनसेंस..................। क्रुद्धस्वर में संजीव को झिड़कती पारूल ने तेजी से पाँव बढ़ाये थे कि अचानक   सड़क पर बने गए एक गढे में उसका बांयां पाँव जा पड़ा । बरसात ने सड़क के किनारे बेरहमी से गढे बना दिए थे। पीड़ा से पारूल कराह उठी थी। शायद पाँव मोच खा गया था। कष्ट से नयन छलछला आये । सीधे खड़े हो पाना कठिन लग रहा था, पाँव बढ़ाना तो असम्भव सा ही था। साथ चलते संजीव ने झुककर पारूल के पाँव पर अचानक ही हाथ धर चोट देखनी चाही थी-

बहुत चोट लग गई पारूल, चल तो सकोगी? संजीव के स्वर में बहुत अपनत्व और स्नेह था।

छोड़िए, मैं ठीक हूं। पारूल संकुचित हो उठी। दोनों के मुख झुके होने के कारण सामने से आ रहे बड़े दादा को कोई न देख सका था।

यह क्या तमाशा है? शर्म नहीं आती कॉलेज जाने के नाम पर यहाँ ये क्या हो रहा है। बड़े दादा लगभग चीख उठे।

इनके पाँव में मोच आ गई है, मैंने मदद करनी चाही थी। आपका पड़ोसी हूं........मैं।

अच्छा तो अपना पड़ोसी-धर्म यहाँ इस तरह निभाया जा रहा है? खबरदार जो आगे कभी मेरी बेटी के पास भी फटके। चल पारूल।।

सहमती पारूल बड़े दादा के साथ लंगड़ाती-कराहती चल दी थी।

घर आते ही बड़े दादा दहाड़ उठे -

आज से इस लड़की का कॉलेज जाना-आना बन्द। खबरदार जो बिना इजाजत घर के बाहर भी झांका.............।

क्या बात है? ये तेरे पैर में चोट कैसे लग गई, पारूल? भाभी चिन्तित हो उठीं।

प्रेम की पींगे भर रही थी तुम्हारी लाड़ली, गिरकर चोट तो लगनी ही थी। हजार बार समझाया लड़की जात को ज्यादा सिर न चढ़ाओ, पर तुम्हारे सिर पर तो बनारस वाले घर का भूत चढ़ा रहता है।

रोती-सिसकती पारूल ने माँ को सत्य घटना सुना दी थी। भाभी ने पति को लाख समझाना चाहा था पर उनका निर्णय अडिग रहा। संजीव की माँ के आ जाने से मानो आग में घी पड़ गया।

कैसी है पारूल बेटी-मुझे अभी-अभी संजीव ने बताया, तेरे पैर में चोट आ गई है।

देखिए बहिन जी हम पुराने विचारों के लोग हैं। आपके संजीव से मेरी बेटी की बातचीत भी हमें पसंद नहीं। वह नहीं माना तो अंजाम बुरा होगा। अच्छी तरह ये बात उसे समझा दीजिएगा।

यह क्या कह रहे हैं, भाई साहिब? मेरा संजीव कोई ऐसा-वैसा लड़का नहीं है। पड़ोसी के दुःख. कष्ट में मदद करना सबका धर्म है। लगता है आपको कोई गलतफ़हमी हो गई है। संजीव की माँ का मुख तमतमा आया था।

मुझे कोई गलतफ़हमी नहीं हुई। मेरी आँखों ने जो देखा वह झूठ नहीं है। आपके घर से हम नाता नहीं जोड़ सकते......जानती हैं मेरी ये इकलौती बेटी है, इसकी शादी में लाखों लुटा सकता हूं।

मेरे भी कोई दो-चार बेटे नहीं हैं, न ही आपके घर से संबंध जोड़ने की हमें कोई लालसा है। भगवान करे पारूल राजा के ही घर जाये पर रजवाड़ों की स्थिति से शायद आप परिचित नहीं हैं.।

मुझे क्या करना है क्या नहीं, जानता हूं। अच्छा तो अब क्षमा करें। बड़े दादा ने हाथ जोड़ दिये थे। भाभी का मुख काला पड़ गया था। अपने घर आये किसी अतिथि का वैसा अपमान उन्हें सह पाना कठिन था।

मुझे माफ़ करना करूणा बहिन ..........तुम्हारा अपमान मेरा अपमान हैं, मेरी बेटी को अपना आशीर्वाद ही देना, बहिन। भाभी के नयन भर आये थे।

पारूल को भाभी फिर कॉलेज भेज पाने में सफल न हो सकी थीं। बड़े दादा ने भाभी और पारूल की हर मनुहार ठुकरा दी थी। पारूल के आँसू नहीं थमते थे-

क्या किया है मैंने? क्यों मुझे दंड दिया जा रहा है? मुझे जाने दो माँ........।

संजीव ने कहलाया था-

तुम्हारा अपराधी मैं हूं । किसी तरह मेरे पास आ जाओ। सारे सपने सच कर दूंगा।

वे पंक्तियाँ पढ पारूल मौन रह गई थी। उस रूढ़िवादी परिवार में घर छोड़कर चले जाना, क्या उसे संभव था?

दादी ने उत्साहपूर्वक वर की खोज शुरू कर दी थी। सेठ कांतिलाल की पत्नी को मुंह-माँगी मुराद मिल गई। पुत्र नरेश का देर रात तक घर न आना, उन्हें भयभीत किये रहता था। घर पहुंचे नरेश की सांसों में ही नहीं शरीर में भी मदिरा ही महकती थी। लाड़ले बेटे की हर माँग पूरी करती माँ ने उस पर अंकुश ही कब लगाया था? सुन्दर पत्नी पा, उसकी आदतें छूट जाएँगी, यही सोच उन्होंने पारूल के लिए प्रस्ताव भिजवाया था।

बड़े दादा ने ज्यादा छान-बीन करने की कोशिश नहीं की थी। नरेश अच्छे खानदान का पढ़ा-लिखा लड़का था, और चाहिए भी क्या?  बाप-दादा इतना कमा कर धर गये हैं कि पारूल राज करेगी। किसी बात की कमी न होगी उसे।

पारूल का रो-रो कर बुरा हाल था।

मेरा दम घुट जायेगा माँ, मुझे बचाओं।

बेटी के दुःख से द्रवित भाभी ने कई बार पति के सामने हाथ जोड़े -सास के सामने गिड़गिड़ाई पर सब व्यर्थ रहा।

विवाह के बाद भी तो तू पढ़ाई कर सकती है न, पारूल? मैं नरेश को समझाऊंगी.......... इससे अधिक और कुछ कर पाना भाभी की सामर्थ्य से बाहर था। बहिनों और माँ के प्रति अतिशय उदार बड़े दादा, अपनी बेटी के मामले में बेहद कट्टर थे। शायद भाभी का स्वाभिमानी स्वभाव उन्हें कभी नहीं रूचा था।

पारूल के विवाह में बड़े दादा ने जी खोलकर खर्च किया था। तीन दिन पहले से रंगीन रोशनी की झालरें, फव्वारे चल रहे थे। पास-पड़ोस के लोगों को विवाह के दो दिन पहले से न्यौता दिया गया था। वह दावतें लोगों को वर्षों याद रही थीं।

विदा होती पारूल मानो जड़ हो गई थी। माँ ने सीने से चिपका आशीर्वाद दिया था, तब भी उसकी आँख से आँसू की एक बूंद नहीं निकली थी। कार में बैठती पारूल को अचानक संजीव की माँ ने आकर चौंका दिया।

तेरे विवाह में हम आमंत्रित नहीं थे पारूल, पर भगवान से तेरे सुख की कामना करती रहूंगी। मेरे संजीव पर रूष्ट न होना बेटी....... वह अपने को किस तरह दंडित कर रहा है, मैं ही जानती हूं। धीमें स्वर में पारूल के कान में वह फुसफुसाई थीं।

मौसी......। पारूल का क्रन्दन सबके नयन गीले कर गया।

ससुराल में ऐश्वर्य की सीमा न थी। हवेली में दौड़ते दास-दासियाँ सदैव किसी विशिष्ट आयोजन का भ्रम पैदा करते थे। अपने कमरे में दासियों के जमघट को देख पारूल खीज उठी-

तुम लोग अपना काम करो, जब ज़रूरत होगी बुला लूंगी।

हमें आपकी सेवा के लिए ही रखा गया है, छोटी मालकिन।

मुझे अपनी सेवा कराने का अभ्यास नहीं है, तुम लोग जा सकती हो।

सास ने सुनकर मुंह बनाया -

हमारे रहन-सहन को वह कैसे समझ सकती है? मैं तो लड़की पर रीझ गई थी, वर्ना अपनी बराबरी के घर में ही रिश्ता जोड़ती।

नरेश की आदतें पारूल से छिपी न रह सकी थीं। शाम को उसकी मित्र-मंडली कहाँ अड्डा जमाती है, वह भी जानने की जरूरत न रही थी। कमरे में देर रात नशे में धुत्त पहुँचे नरेश की दृष्टि में शारीरिक संबंधो की तुष्टि ही पति-पत्नी के रिश्ते की एकमात्र कड़ी थी। पारूल का रोम-रोम घृणा से सिहर उठता। कई बार जी चाहा उन बंधनों को तोड़ कहीं दूर भाग जाये। अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी न कर पाने के लिए पारूल बड़े दादा को कभी क्षमा न कर सकी।

पति से पारूल ने कहना चाहा था-

मैं अपना एम बी बी एस पूरा करना चाहती हुँ।

क्या जरूरत है? चार साल बर्बाद करके डाक्टर ही तो बनोगी। जरूरत होने पर पचासों डाक्टरों की लाइन लगा सकता हुँ।

बात सिर्फ उतनी ही तो नहीं है, मेरा जीवन अर्थ पा जाएगा।

ओह तो अभी तुम्हारा जीवन निरर्थक है? लगता है कॉलेज के पुराने मित्रों का मोह ही खींच रहा है।

वे तो कब के डाक्टर बन, कॉलेज छोड़ गए होंगे।

इसका मतलब तुम्हारा कोई विशेष मित्र था- कौन था? नाम बताओ जरा मैं भी तो उसके दर्शन कर लूं, जिसके साथ तुम्हारा जीवन अर्थपूर्ण था। क्रोधावेश से नरेश के नथुने फूल गये थे।

क्यों व्यर्थ की बात कर रहे हो.........वैसा कोई मित्र होता तो उससे विवाह न कर लेती। पारूल ने हल्के से मुस्करा, बात टालनी चाही थी।

क्यों झूठ बोलती है, तेरा वह पड़ौसी यार नहीं था? कान में क्या कह रही थी उसकी माँ? मैं तो उसी दिन सब समझ गया था...........घर की मर्यादा का ध्यान न होता तो वापिस भेज दिया होता।

छिः, यह क्या कह रहे हो.....संजीव मेरा...........

खबरदार, मैं उसका नाम भी नहीं सुनना चाहता। और देखो इस घर में रहना है तो यहाँ की मान-मर्यादा का ध्यान रखना होगा। आगे से मेडिकल कालेज जाने की बात तुम्हारे मुंह से भी न निकले समझीं।

पारूल को अवाक् अपमानित खड़ा छोड़, नरेश आँधी की तरह बाहर चला गया था।

”मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था संजीव..........क्यों तुमने मेरी सहायता करनी चाही थी? हथेली में मुंह छिपा पारूल सिसक उठी।

माँ के घर बस एक दिन से ज्यादा पारूल का रूकना नहीं हो पाता था। बड़े दादा की ओर पारूल ने कभी दृष्टि उठाकर नहीं देखा। भाभी पूछ-पूछ कर हार गई, पर पारूल के मुख से कुछ न सुन पाई, पर पुत्री के चेहरे पर छाए गहन विषाद ने माँ का हृदय तार-तार कर दिया।

विवाह के बाद लड़कियाँ खिल जाती हैं, तू कैसी मुरझाई रहती है, पारूल? अपनी माँ को सच्ची बात नहीं बताएगी, बेटी?

कुछ फूल खिलने के पहले भी तो मुरझा जाते हैं, माँ?

पर तेरे साथ वैसा क्या हुआ है, मेरी बच्ची?

अच्छी-भली तो हूं।

तेरे पिता तेरे दो बोल सुनने को तरस गए हैं, पारूल।

पिताजी मेरे बोल कब सुन पाये थे, माँ? पारूल की प्रश्नवाचक दृष्टि माँ पर निबद्ध हो जाती।

पारूल की सेवा ने सास का मन जीत लिया था। प्राइवेट उम्मीदवार के रूप में बी0ए0 की परीक्षा देने के लिये पारूल ने सास की अनुमति पा ली थी। नरेश का अधिकाँश समय बाहर ही बीतता था। पारूल को मानो वह सुविधाजनक स्थिति थी। पुस्तकों में सिर गड़ाये कभी-कभी वह नरेश का घर पहुंचना भी न जान पाती। नौकरों की सहायता से कमरे में पहुंचते ही नरेश दो-चार अस्फुट वाक्य कह, गहरी नींद में सो जाया करता।

बी0ए0 परीक्षाफल में पारूल का नाम काफी ऊपर था। पारूल ने पति को इसकी सूचना देना भी आवश्यक नहीं समझा। समाज-शास्त्र में एम0ए0 करने का दृढ़ निश्चय कर, उसने विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया।

पूरे दिन घर में मक्खियाँ ही तो मारती हूं, अम्माजी। वहाँ कुछ समय आसानी से कट जायेगा।।

बहू के उदास मुख को देख सास इन्कार न कर सकी थी, पर नरेश का भय उन्हें भी था-

कहीं उसे पता लग गया तो बावेला मचायेगा, बहू।

उसकी चिन्ता मत करें अम्माजी, उन्हें उस समय समझा लूंगी। वैसे भी दिन में कभी उनका घर आना कहाँ हो पाता है?

जैसी तेरी मर्जी। मैंने तो सोचा था तेरे आने से लड़का घर के खूँटे से बंध कर रहेगा, पर तेरी ओर से भी प्रयास की कमी रही, बहू। अनुत्तरित पारूल का सूखा मुख देख, सास ने आँचल से नयन पोछ डाले।

"वेश्याओं का पुनर्वास-संभावना एवं सुझाव" विषय पर पारूल को थीसिस लिखनी थी विभागाध्यक्ष ने स्वयं चुनकर वह विषय पारूल को दिया था-

तुम विवाहित हो, घर में वाहन की भी सुविधा है, इसलिए तुम्हें यह विषय दे रहा हुँ। तुम आसानी से उन तक पहुंच बातचीत कर सकोगी। अविवाहित लड़कियों को वहाँ जाने में असुविधा होगी-शायद उनके अभिभावक भी अनुमति न दें।

पर मेरा वहाँ जाना क्या ठीक होगा, सर?

तुम वहाँ एक अच्छे उद्धेश्य के लिये जा रही हो। अगर कोई समाधान खोज सकीं तो एक समाजोपयोगी कार्य का श्रेय पाओगी। तुम इस कार्य के सर्वथा उपर्युक्त हो, पारूल।

विभागाध्यक्ष के विश्वास ने पारूल को साहस दिया था।

हाथ में फाइल थामे, पहले दिन उस मुहल्ले में प्रविष्ट होती पारूल संकुचित हो उठी थी। कॉलेज से साथ आई पारबती ने साहस दिया था।

जब काम का बीड़ा उठाया है तो डर काहे का। हम अच्छे काज से जा रहे हैं, दीदी।

पारबती की एक परिचिता ने हीराबाई के घर का पता बताते कहा था-

बड़ी काइयाँ औरत है, हीराबाई। पूरे चकले पर उसी का राज है। उसे समझा पाना कठिन काम है। हाथ नहीं धरने देती किसी समाज-सेविका को।

हीराबाई के घर की सीढ़ियाँ चढ़ती पारूल को देख सीटियाँ बज उठी थीं-

लो भई, आ गई हमारे सुख-चैन की दुश्मन। अब भलाई का काढ़ा पिलाएँगी हीराबाई को।

अरे भली कही, क्या पता ये खुद भी उसी के रंग में रंग जाए।

कहकहों पर लाल होते मुख के साथ पारूल हीराबाई के सामने जा खड़ी हुई थी।

द्वार खोलती हीराबाई पारूल को देख जैसे अवाक् हो उठी। सहज होते पूछा था-

कहो क्या काम है?  प्रौढ़ावस्था को पहुंच रही हीराबाई में अब भी ठसका बाकी था।

मौसी, आपकी बेटी सी हूं । आपकी मदद चाहिए।

बेटी? एक पल को जैसे हीराबाई कहीं खो सी गई।

मेरी मदद से लोग गिरते हैं,  उठते नहीं, ये बात जानती हो?

अच्छी तरह जानती हूं। अन्ततः जीने के लिए जब कोई उपाय न रहे, तभी तो आपने यह व्यवसाय अपनाया होगा, मौसी।

तुम यहाँ क्यों आई हो?

आपको एक और रास्ता सुझाने, नया जीवन देने, जहाँ मान है, सम्मान है..।

खोया मान-सम्मान किसका वापिस आया है ,।बेटी?

मैं दिलाऊंगी मौसी, मेरा विश्वास करो। पारूल के उत्साही मुख पर एक दृष्टि डाल हीराबाई ने उसे अन्दर आने की राह दिखाई थी।

पारूल ने सम्भावनाओं का पिटारा खोल दिया।

अगर हमारी योजना सफल रही तो कुछ ही दिनों में हमारा सिलाई-बुनाई केन्द्र आत्मनिर्भर हो जाएगा। तुम्हीं सोचो, मौसी पाप की कमाई कितने दिन साथ देगी, मेहनत की कमाई की बरकत ही और होती है.........।

तू अकेली ये कर पाएगी? भले घर की बहू-बेटी है,  हमारा साथ तुझ पर भी कीचड़ उछालेगा, बेटी।

आप सबके साथ अकेली कैसी, मौसी?

ठीक है बेटी, आज से इस मौसी का जीवन तेरे नाम रहा।

हीराबाई के उस परिवर्तन पर चकले वाले चौंक गए। एक वृद्धा ने याद दिलाया-

हीराबाई की जो बेटी पिछले साल गुजर गई, उसकी और पारूल की शकल में इतना साम्य है कि शायद वह भी धोखा खा गई।

हीराबाई के सहयोग से लड़कियों को संगठित करना आसान हो गया था। पारूल के साथ कुछ और समाज-सेवी संस्थाओं की महिलाएँ भी आ जुड़ीं। सिलाई-बुनाई केन्द्र के लिए स्कूलों की यूनीफार्म के आर्डर भी पारूल ले आई । हीराबाई को केन्द्र का सुपरवाइजर नियत किया गया था।

मुहल्ले में उस नए परिवर्तन की तीखी प्रतिक्रिया हो रही थी। एक वर्ग इसका कड़ा विरोध कर रहा था, पर हीराबाई के दबंग स्वभाव के आगे विद्रोह के स्वर पनप न सके थे। पारूल ने स्पष्ट घोषणा की थी-

हमारी योजना में जो स्वेच्छा से आना चाहें, उनका स्वागत है। हम जबरन अपनी इच्छा उन पर नहीं थोपना चाहते।

अपने अकाउंट से पैसे निकाल जब पारूल ने सिलाई केन्द्र की स्थापना की , तब हीराबाई ने भी अपनी जमा-पूंजी का एक बड़ा अंश पारूल के हाथ पर धर, रूँधे कंठ से कहा था-

मेरी भी तेरी सी एक बेटी थी, पारूल। इस दलदल से निकल भागने को आतुर थी पगली.... मर कर वह तो मुक्त हो गई। अब तेरे हाथ उसकी साध पूरी होगी, बेटी।

मौसी, .यह केन्द्र हम उसी के नाम से खोलेंगे......क्या नाम था उसका?

ज्योति....।

बस आज से हमारे इस केन्द्र का नाम "ज्योति सिलाई-बुनाई केन्द्र" होगा। यही सबका मार्ग-दर्शक होगा।

एक दिन केन्द्र की लड़की चमेली ने बताया था.........

उस नए घर में एक लड़की को जबरदस्ती बन्द करके रखा गया है। आप उसकी मदद करें, दीदीजी। भले घर की लड़की लगती है। बेचारी का जीवन बरबाद हो जाएगा।

पुलिस के एक इंस्पेक्टर और हीराबाई के साथ पारूल ने उस घर का द्वार जबरन खुलवाया था। द्वार खुलते ही सामने का दृश्य देख पारूल स्तब्ध रह गई थी। सामने ही नरेश दो-चार साथियों के साथ बैठा मदिरा-पान कर रहा था। कमरे के मध्य में एक किशोरी अपने-आप में सिमटी बैठी, शायद रो रही थी। पारूल को देखते ही किसी ने अश्लील वाक्य उछाला था-नरेश पारूल को वहाँ देख चौंक गया -

तुम........तुम......यहाँ क्या करने आई हो?

क्यों भई पहले से आशनाई है, हमसे नहीं मिलवाओगे, यार।

शट-अप। पारूल का हाथ पकड़ उसे जबरन खींचता नरेश, कमरा छोड़ बाहर आ गया था। विस्मित इंस्पेक्टर के आगे बढ़ने की चेष्टा पर वह दहाड़ उठा -

खबरदार..........ये मेरी बीवी है।

इंस्पेक्टर आप प्लीज अन्दर जाकर उस लड़की को छुड़ा लीजिए, सबको अरेस्ट कर लीजिए.। पारूल की बात पर नरेश बिलबिला गया था-

क्या मेरे दोस्तों को अरेस्ट कराएगी, तेरी ये मज़ाल? पीछे मुड़ इंस्पेक्टर से कहा था-

याद रखो इंस्पेक्टर तुम उनका बाल भी बांका नहीं कर सकते। उनमें से एक एम0पी0 का बेटा है। आगे तुम अपनी नौकरी की खैर मनाओ समझे। इस पागल औरत की बात पर नौकरी तो नहीं खोना चाहोगे न?

पारूल का हाथ दृढ़ता से पकड़ लगभग उसे घसीटता नरेश फुफ्कार रहा था। घर पहुंच जोर से माँ को आवाज दी थी-

ये लो माँ तुम्हारे घर की इज्ज़त बाजार में बिकने से बचा लाया हूँ।

क्या हुआ बेटा? पारूल तू तो यूनीवर्सिटी गई थी न?

यूनीवर्सिटी? वाह माँ को बहलाने का इससे अच्छा बहाना भी कोई हो सकता है? मैंने मना किया था न पाँव बाहर निकालने को? जानती हो माँ मैं इसे जिस मुहल्ले से उठाकर लाया हूं, वहाँ शरीफ़ घर की बहू-बेटियाँ निगाह भी उठाकर नहीं देख सकतीं।

पर शरीफ़ घर के लड़के वहाँ घर का सम्मान दाँव पर लगा सकते हैं। पारूल के स्वर में घृणा बोल रही थी।

हाँ-बड़े घर के लड़कों की मर्दानगी की यही पहिचान है, समझी। अब इस घर में इसे एक पल को भी रखना पाप है, माँ। तुम इसे जहाँ से लाई हो वहीं पटक आओ, मुझे अपने सम्मान की चिन्ता है।

बड़े दादा सुनकर सिर धुनने लगे थे। दादी चीत्कार कर उठी थीं।

हाय राम इस कुल- बोरनी ने हमें कहीं का न रखा।

बड़ी भाभी स्तब्ध रह गईं । शाँत सुस्थिर स्वर में पूछा था-

तू वहाँ किसलिए गई थी, पारूल? मैं जानती हूं तू किसी सत्उद्धेश्य से ही गई होगी, बेटी।

माँ......। भाभी के वक्ष से चिपट रोती पारूल ने आद्योपांत सब कह सुनाया था।

एक पल मौन रह भाभी ने पूछा था-

इतनी बड़ी योजना पर तू अकेली ही काम करने चल पड़ी, पारूल? मुझसे कहा होता, मैं चलती तेरे साथ।“

अब इस लड़की का इस घर में रहना नहीं हो सकता, बड़ी बहू। दादी की चेतावनी पर बड़े दादा का मौन, उनकी स्वीकृति ही था।

अगर यह नहीं रह सकती तो मुझे भी यह घर छोड़ने की अनुमति दें, अम्माजी।

पागल हो गई हो बहू, पति-परिवार एक लड़की के लिए छोड़ दोगी?

मेरा पति-परिवार भी तो एक असहाय लड़की का परित्याग कर रहा है, अम्माजी।

नहीं माँ, ये घर तुम्हारा है, तुम इसे अकारण ही नहीं छोड़ सकतीं। मैं विश्वास दिलाती हुँ, इस कलंक के स्थान पर सम्मान के तिलक के साथ ही वापिस आऊंगी।

पर तू कहाँ जाएगी,पारूल?

अपने घर माँ, उनके पास जिन्हें मेरी सच्ची ज़रूरत है।

कहाँ है तेरा घर? तेरे घर वाले तो तुझे यहाँ डाल गए हैं, बेटी।

वे मेरे घर वाले नहीं थे माँ। एक दिन जरूर तुम्हें अपने घर बुलाऊंगी माँ, आओगी न?

पारूल ने फिर देर नहीं की थी। उल्टे पाँव उसी मुहल्ले में स्थित अपने सिलाई- केन्द्र में जा, शरण ली थी।

तुम यहाँ हमारे बीच रह सकोगी, बेटी? हीराबाई दुखी हो उठी।

क्यों नहीं मौसी, क्या तुम मुझे अपनी बेटी नहीं मानतीं?

मेरी बेटी?.......... तू तो हमारी माँ है-जिसने हमें रास्ता दिखाया है।

सब सुनकर विभागाध्यक्ष स्तब्ध रह गए।

तुम अपने पति या उसके परिवार वालों से अपनी कार्य-योजना न बताकर गलती की थी, पारूल। मैं तो सोच भी नहीं सकता था तुम सिर्फ़ अपने बल पर इतनी बड़ी योजना ले रही थीं? चलो मैं तुम्हारे श्वसुर-गृह में वास्तविकता बता दूं। वे मेरा जरूर विश्वास करेंगे

मानती हूं, यह मेरी ग़लती थी, पर वास्तविकता जान, मुझे इस योजना पर कार्य करने की अनुमति कभी न दी जाती, सर। रही बात आपके प्रति उनके विश्वास की, तो जिस घर में पति और पत्नी के बीच विश्वास न हो वहाँ कुछ भी कहना-सुनना व्यर्थ है।

फिर भी मैं तुम्हें सलाह दूंगा, तुम उनसे क्षमा माँग लो।

किससे क्षमा माँगू, उन माता-पिता से जिन्होंने मेरे सारे स्वप्न निर्ममता से तोड़ डाले या उनसे जिसने मुझे मात्र शरीर समझ मनचाहा उपभोग किया? नहीं सर नहीं,आप नहीं जानते बचपन से मैंने स्वप्न देखा था मैं डाक्टर बन कर दूसरों की पीड़ा हर रही हूं। वह स्वप्न मेरे जन्मदाता पिता ने भंग किया। आपने यह योजना दे कुछ अर्थो में मेरे उसी स्वप्न को पुनर्जीवित किया था। उन मानसिक, शारीरिक रूप से शोषित स्त्रियों को नया जीवन देना, कुछ वैसा ही लगा था जैसे मैं सचमुच मनोचिकित्सक बन, उनके कष्ट दूर कर सकती हूं। अब आप मेरे इस स्वप्न के साथ मुझे जीने दें सर। अब मेरा वापिस जाना असंभव है.............। पारूल हांफ सी उठी थी।

ठीक है मुझे कुछ प्रोजेक्ट्स के लिए सरकार से पैसा मिला है, मैं वह धनराशि तुम्हारी प्रोजेक्ट के लिए दे रहा हूं। तुम्हारा स्वप्न साकार हो, यही मेरा आशीर्वाद है, पारूल। तुम्हारी हर सहायता के लिए मैं ही नहीं पूरा विभाग तुम्हारे साथ है। मुझे विश्वास है एक दिन तुम अपना खोया सब कुछ पा सकोगी, पारूल।

झुक कर उनके चरण छू, पारूल ने कृतज्ञता व्यक्त की थी।

हॉस्टेल में रहना पारूल ने स्वीकार नहीं किया ।उन शोषित, समाज द्वारा प्रताड़ित नारियों की समस्याएँ उनके निकट रहकर ही जानी जा सकती थीं। पारूल ने उसी गली के नुक्कड़ पर एक कमरा ले, रहना शुरू कर दिया।

पहला दिन ही पारूल के लिए चुनौती बन गया था। रात में किसी शराबी ने दरवाजा पीटना शुरू किया था। पास सोई हीरा और मालो ने उस खतरे को किसी तरह टाला था।

तुम्हारा यहाँ रहना ठीक नहीं दीदी, लोग ग़लत समझ सकते हैं। मालो चिन्तित थी।

मुझे किसी की चिन्ता नहीं मालो, मैं अपने को पहिचानती हूं, यही पर्याप्त है।

उस गली के ग्राहकों ने पारूल के विरूद्ध मोर्चाबन्दी की थी। उसके विरूद्ध अश्लील नारेबाजी की गई। शहर के कुछ धनी व्यक्तियों का विरोधियों को अप्रत्यक्ष रूप में सहयोग प्राप्त था। कई रातें पारूल ने दहशत में बिताईं। सब जानकर विभाग के लड़को ने जाकर चेतावनी दी थी-

अगर इन्हें परेशान किया गया तो हम गली के एक-एक घर को जला डालेंगे। हमारी शक्ति से टक्कर लेने की हिम्मत न करें।

पारूल ने उन उत्साही युवकों को हिंसा करने से रोक, गली वालों का विश्वास जीत लिया था। शांत सधी आवाज में उसने कहा था-

इन स्त्रियों की जगह अपनी माँ-बहिन को देखिए, तब आप इनकी पीड़ा समझेंगे। मैं जबरन किसी को अपने साथ नहीं लाना चाहती, जो स्वेच्छा से अपना मार्ग बदलना चाहें उनका स्वागत है। मेरे साथ जीवन फूलों की शैया नहीं, काँटों की राह मिलेगी।

पारूल की मेहनत रंग लाई। अपने खाली समय में वह उन लड़कियों और स्त्रियों के साथ उनकी काउंसिलिंग करती। उन्हें उस जीवन की विभीषिकाओं से परिचित करा, सद्मार्ग की राह दिखाती।

पत्रकारों तक पारूल की तपस्या की कहानी पहुंच गई थी। समाचार-पत्रों में पारूल के त्याग और सेवा की कहानियाँ छपने लगीं।

सरकारी महकमें भी सचेत हो उठे। स्वयं मुख्यमन्त्री ने एक इमारत उन स्त्रियों के पुनर्वास के नाम कर, काफी यश कमा लिया।

पारूल के अन्दर की कर्मठ चिकित्सका जाग उठी थी। हैंडीक्राफ्ट सेंटर में बनी सुन्दर वस्तुएँ उसकी कलात्मक अभिरूचि की परिचायक थीं। अब तो शहर के सम्मानित नागरिक एप्लीक वर्क के बेड कवर्स,  कुशन कवर्स,  साड़ियाँ लेने आने लगे थे।

समाज-शास्त्र की डिग्री पारूल ने विशेष सम्मान के साथ प्राप्त की थी। उसकी थीसिस विभाग की महत्वपूर्ण उपलब्धि बन गई। विभागाध्यक्ष ने स्नेह से पूछा था-

तुम हमारे विभाग में लेक्चरार बनना चाहोगी, पारूल।

नहीं सर, मैं जहाँ हूं, वही जगह मेरे लिए ठीक है। अभी मुझे बहुत कुछ करना है।

अभी तुम्हारी नई योजना क्या है, पारूल? विभागाध्यक्ष ने सहास्य पूछा था।

एक सांस्कृतिक कला-केन्द्र की स्थापना करनी है। जहाँ प्रतिवर्ष सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। लड़कियों को नृत्य-गायन की शिक्षा दी जाएगी। आप नहीं जानते सर, इन लड़कियों में कितनी प्रतिभा है। अगर उन्हें चांस मिलता वे प्रसिद्ध गायिका या नर्तकी बन सकती थीं।

तुम्हारे लिए मेरी शुभकामनाएं। मुझे तुम पर पूरा विश्वास है, पारूल।

गण्तन्त्र दिवस पर मुख्यमंत्री द्वारा पारूल को सम्मानित किए जाने की घोषणा की गई थी। पारूल ने भाभी को पत्र लिख बुलाया था-

तुम्हारी बेटी अपना पाथेय पा गई है, माँ.........मेरे मस्तक पर सम्मान का तिलक लगता देखने तुम्हें आना है, माँ.......... आओगी न?

मुख्यमन्त्री से सम्मान पाती पारूल को देखती बड़ी भाभी के नयनों में आनन्दाश्रु आ गए थे।

पारूल को अपनी ओर आता देख बड़े दादा संकुचित हो उठे -

मुझे क्षमा कर सकोगी, बेटी?

मुझे आशीर्वाद दें, पापा अपनी साधना में सफल हो सकूं।

पारूल के झुके मस्तक पर बड़े दादा का वरद हस्त हौले से जा कर रूक गया। मानो उसे आशीषते भी वह संकुचित थे।

दूर खड़े सेठ कांतिलाल और उनकी पत्नी की ओर बढ़ पारूल ने उनका अभिवादन किया -

मुझे आपके पुत्र के आकस्मिक निधन पर दुख है।

नरेश की माँ बिलख उठीं-

वह अपने कर्मो का फल भोग, चला गया, बेटी। मैंने हीरा पहिचानने में गलती की थी, पारूल। वह अपने ही कर्मों का शिकार बन गया।

पारूल का हृदय उस अभागिन माँ के प्रति करूणा से भर गया।

हमें माफ़ करो बेटी, अब अपने घर चलो। सेठ कांतिलाल ने थोड़ा ठहर कर कहा।

मैं तो अपने ही घर में हूं, बाबूजी। आपका मेरे घर में सदैव स्वागत है। अब पराए घर जाने की चाह शेष नहीं है।

धीमे से मुड़कर पारूल अपने घर की ओर चल दी। सब उसे आदर से देखते रह गए।

1 comment: