12/15/09

ऋचा

ऋचा

कॅालेज-डिबेट के लिए छात्र-छात्राएँ मेन हाल में जमा थे। 'कॅालेज में प्रवेश के लिए लड़कियों के लिए 25: सीट आरक्षित की जानी चाहिए', विषय को लेकर लड़के-लड़कियों में भारी उत्तेजना थी। एक-दूसरे को पराजित करने के लिए जोरदार तर्क दिए जा रहे थे। आशा ने लड़कियों की स्थिति की जो मार्मिक तस्वीर प्रस्तुत की, उसके आधार पर लड़कियों की विजय निश्चित थी, पर ऋचा ने मंच पर पहुँचकर पासा ही पलट दिया। एक लड़की होकर वह विषय के विपक्ष में बोलेगी, इसकी किसी ने    कल्पना भी नहीं की थी. 
    मंच पर पहुँच, सधी आवाज में ऋचा ने अपनी बात कही थी -
    "साथियों, मुझे दुःख है, विषय के पक्ष में बोलकर मेरी सहपाठिनें अपने पैरों पर स्वंय कुल्हाड़ी मार रही हैं।"
    ऋचा के पहले वाक्य पर ही लड़कियों के बीच सुगबुगाहट शुरू हो गई। लड़के आगे सुनने को तैयार हो गए। ऋचा ने बात आगे बढ़ाई -
    "........ जी हाँ, मैं फिर अपनी बात दोहराती हूँ। दान में दी गई सीट-ग्रहण करने की अपेक्षा, मैं दूसरी बारी की प्रतीक्षा करूँगी। स्वाभिमानपूर्ण जीवन ही सच्चा जीवन है। आरक्षण का ठप्पा लगे सिंहासन पर बैठने की जगह अपने प्रयासों और योग्यता से प्राप्त स्थान श्रेयस्कर होता है। कम-से-कम मेरी अन्तरात्मा तो मुझे नहीं धिक्कारेगी कि आरक्षण की बैसाखी के सहारे मुझे कॅालेज में स्थान मिला है। आरक्षण की बैसाखी हमें अपंग बना देगी। मैं स्पष्ट शब्दों में कहती हूँ, हमें कॅालेज में प्रवेश के लिए आरक्षण की बैसाखी नहीं चाहिए। हमें अपनी योग्यता के आधार पर प्रवेश चाहिए। हमें सिद्ध कर दिखाना है, लड़कियों को आरक्षण की सहायता नहीं चाहिए। धन्यवाद।
लड़को ने जोरदार तालियाँ बजाकर अपनी विजय घोषित कर दी। विशाल ने उठकर ऋचा के वक्तव्य की मंच से सराहना की। आशा ने विशाल को आड़े हाथों ले लिया -
"वाह, विशाल जी। यूनियन की बैठकों में तो लड़कियों के हित की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, पर आज पाला बदल लिया।"
"नहीं, आशा। लड़कियाँ दया की पात्री नहीं होतीं। उनके हित के लिए हर सम्भव प्रयास करूँगा, पर ऋचा की बातों की सच्चाई से क्या तुम्हें ऐतराज़ है ?"
"अगर लड़कियों को कोई सुविधा दी जाए तो क्या यह गलत बात है ? हमेशा हमें दबाया ही तो गया है।"
"तो अब दूर्वा की तरह विरोध के लिए तनकर खड़ी हो जाओ, आशा। जानती हो, अनगिनत पाँवों-तले कुचली जाने के बावजूद, दूर्वा जमीन से फिर सिर उठाकर खड़ी हो जाती है। लड़कियों को हरी दूब की तरह जीना सीखना चाहिए।"
ऋचा और स्मिता के पास आते ही आशा के चेहरे पर नाराज़गी आ गई।
"क्यों ऋचा, आज तो तुम विपक्षियों की आँख का तारा बन गई। अपनी टीम छोड़कर शत्रुओं से जा मिलीं।"
"बात दोस्ती या दुश्मनी की नहीं है, आशा। भीख में मिली वस्तु मुझे नहीं सुहाती। मैंने अपने मन की बात कही थी।"
"बातें बनाना बहुत आसान होता है, ऋचा। वक्त आने पर सच्चाई का पता लगता है। आरक्षण के सहारे अगर तुम्हें अच्छी आॅपारच्यूनिटी मिले, तब देखेंगे, तुम चांस लोगी या छोड़ोगी।"
"अरे... रे... रे, लगता है, अब यहाँ दूसरी डिबेट शुरू होनेवाली है। आशा जी, हार-जीत तो जीवन का सत्य है। इसे लेकर व्यर्थ झगड़ा नहीं बढ़ाना चाहिए। विशाल ने बीच-बचाव करना चाहा।"
"ठीक है, मैं झगड़ालू हूँ। आप ऋचा से बात करें, हम जाते हैं।" आशा रूष्ट हो गई।
आशा के जाने के बाद विशाल ने ऋचा को दुबारा बधाई दे डाली-
"सच ऋचा जी, मैं तो आपके विचारों का कायल हो गया। वैसे आगे क्या करने का इरादा है ?"
"मैंने भविष्य की तैयारी अभी से ही शुरू कर ली है, विशाल जी। 'दैनिक बन्धु' में पार्ट. टाइम रिपोर्टर का काम सम्हाल रही हूँ।"
"ओह, तो आप पत्रकार बनेंगी। वैसे एक सफल पत्रकार बनने के सारे गुण आपमें मौजूद हैं। मेरी बधाई !"
"धन्यवाद! आप तो शायद लाॅ फाइनल-इअर में हैं न ?"
"लगता है, काफी बदनाम हो गया हूँ। वैसे सही फ़र्माया। कानून की पढ़ाई पूरी होने में एक महीना बाकी है। उसके बाद आपका मुकदमा लड़ सकता हूँ।" विशाल हॅंस रहा था।
"अपने लिए न सही, पर दूसरी लड़कियों को अन्याय से मुक्ति दिलाने के लिए आपकी मदद ज़रूर लूँगी।"
"चलिए इसी बात पर एक-एक कम कॅाफ़ी हो जाए। जीत के लिए आप ही तो जिम्मेदार हैं। भले ही आपकी टीम फ़स्र्ट आई, पर फ़ायदा तो लड़कों को पहुँचा है न ?"
"ऋचा, तू कॅाफ़ी के लिए जा, हमें घर जाना है।" इतनी देर से चुप खड़ी स्मिता बोल पड़ी।
"अरे वाह ! आप तो बोलती भी हैं। मैंने तो समझा, आप ऋचा की जुबान ही बोलती हैं।"
"आपने गलत समझा, स्मिता बात भले ही कम करे, पर कई बातों में हम सबसे आगे है। क्यों ठीक कहा न, स्मिता।"
"जाओ हम तुमसे नहीं बोलते।" स्मिता का चेहरा लाल हो उठा।
"तो हम तीनों कॅाफ़ी-हाउस चलें ?"
"नहीं, विशाल जी, आज एक रिपोर्ट देनी है। आपकी कॅाफ़ी उधार रही। चल, स्मिता।"
    स्मिता का हाथ पकड़ ऋचा चल दी। विशाल मुग्ध-दृष्टि से देखता रह गया।
"ऐ ऋचा, तू कैसे सबके सामने अपनी बात कह लेती है ? तुझे डर नहीं लगता ?" ऋचा के साथ चलती स्मिता सवाल पूछ बैठी।
"वैसे ही, जैसे नीरज के साथ प्यार करते तुझे डर नहीं लगा, मेरी स्मिता।" ऋचा ने परिहास किया।
"वो, हमने कुछ थोड़ी किया, हमें तो पता भी नहीं लगा।" बड़ी मासूमियत से स्मिता ने जबाव दिया।
"वैसे क्या प्रोग्रेस है ? सच कहूँ तो तेरी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। भला तेरे मम्मी-पापा क्या नीरज को स्वीकार करेंगे ?"
"नहीं करेंगे तो हम मर जाएँगे, ऋचा।"
"मरें तेरे दुश्मन, अब ओखली में सिर दिया है तो मूसल की चोट से क्या डरना ?" ऋचा ने हिम्मत दी।
"तू अभी घर नहीं लौटेगी, ऋचा ?"
"सुना नहीं था, प्रेस में एक रिपोर्ट देनी है। बड़ी ज़ोरदार ख़बर है। कल का न्यूज-पेपर देखेगी तो जान जाएगी। मैं चलती हूँ, स्मिता।"
"एक बात कहूँ, ऋचा, तू बड़ी हिम्मत वाली है। न जाने किस-किस से पंगा लेती रहती है। दुनिया को ठीक करने का ठेका क्या तूने ही लिया है। हमे तो डर लगता है।"
"डर-डर के जीना होता तो पत्रकार बनने का सपना नहीं देखती, स्मिता। तू भी घर जा वरना तेरी मम्मी पुलिस में रिपोर्ट लिखा देगी।" बात खत्म करती ऋचा हॅंस पड़ी।
प्रेस जाती ऋचा सोच में पड़ गई। धनी माॅ-बाप की बेटी स्मिता का नीरज के साथ विवाह कैसे सम्भव होगा। माना, नीरज मेधावी छात्र है, चरित्रवान् होने के साथ ही वह स्मिता को बेहद चाहता है, पर विवाह के लिए इतना ही तो काफ़ी नही। एक कार्यालय में बड़े बाबू का बड़ा बेटा, नीरज ही घर भर की आशा का केन्द्र है। दो विवाह-योग्य छोटी बहिनों, सुधा और रागिनी के लिए भी नीरज का कुछ दायित्व बनता है। स्मिता के घरवाले अब जल्दी-से-जल्दी स्मिता का विवाह करने के लिए व्यग्र हैं। नीरज अभी एम.काम. की फाइनल परीक्षा दे रहा है। नौकरी एक दिन में तो नहीं मिल जाती। ऐसी स्थिति में स्मिता के साथ विवाह कैसे सम्भव होगा ?
प्रेस में ऋचा का इन्तज़ार किया जा रहा था। कल सुबह के लिए ऋचा की रिपोर्ट ज़रूरी थी। धमाकेदार खबरें न हों तो समाचार-पत्र की माँग कैसे बढ़ेगी। पिछले पाँच महीनों से ऋचा अपनी क्लासेज के बाद प्रेस का काम करती थी। अपनी बेबाक रिपोर्टिग की वजह से कार्यालय वाले ऋचा को सम्मान देते। आज भी उसके पहुँचते ही सीतेश ने आवाज लगाई-
"लो भई, ऋचा जी आ गई। कहिए, आज क्या ख़बर है ? आप ही के लिए पहले पेज पर जगह खाली रखी है।"
"हाँ, यह ख़बर पहले पेज पर ही जानी चाहिए। बड़ी कंपनियों के चीफ़ अपने को क्या समझते हैं। उनकी नजर में तो कम्पनी में काम करने वाली लड़कियों की कोई इज्ज़त ही नहीं होती।" वाक्य समाप्त करती ऋचा का चेहरा तमतमा आया।
"अरे अरे अरे, लगता है, कोई गम्भीर मामला है। किसकी इज्जत लुट गई।" न चाहते हुए भी सीतेश के ओठों पर व्यंग्य की रेखा खिंच गई।
"लो खुद ही देख लो।" गुस्से में ऋचा ने पर्स से कागज निकाल सीतेश के सामने रख दिए।
कागज़ों पर सरसरी निगाह डाल, सीतेश चुप-सा पड़ गया।
"क्यों, अब चुप क्यों हो गए ? देखो, यह खबर ज्यों-की-त्यों हमारे अखबार में छपनी चाहिए।"
"ऋचा जी, ऐसी ख़बरों के लिए हमारे पास सबूत होना जरूरी है।"
"लड़की का खुद का बयान क्या किसी सबूत से कम है ?"
"क्या वो लड़की कोर्ट में बयान देने को तैयार होगी, ऋचा जी ?"
"क्यों नहीं, मुझे पूरा विश्वास है। मैंने उस लड़की से खुद बात की है, तुम इस रिपोर्ट को लेकर परेशान मत हो, सीतेश।"
"अच्छा होता, आप सम्पादक जी से बात कर लेतीं।" सीतेश हिचक रहा था।
"देखो सीतेश, सम्पादक जी ने हमेशा सच्ची रिपोटर्स को बढ़ावा दिया है। यह रिपोर्ट भी उनमें से एक है। अच्छा, अब चलती हूँ। बाय !"
"जरा रूकिए। एक बात बता दूँ, अक्सर लड़कियाँ कोर्ट में सच्ची बात न कहने को मजबूर हो जाती हैं। स्वंय माता-पिता बदनामी के डर से लड़की से झूठा बयान दिलवा देते हैं।" सीतेश ने अपनी राय दे डाली।
"ठीक कहते हो, सीतेश, पर कामिनी से पक्की बात कर ली है। वह सिर्फ़ सच्ची बात ही बताएगी।" पूरे विश्वास के साथ ऋचा बोली।
"कह नहीं सकता, समपादक जी आपकी इस रिपोर्ट को कैसे लेंगे। एनीहाउ, रिपोर्ट उनके सामने रख दूँगा।" सीतेश ने हार मान ली।
"हूँ, यह हुई न बात। अरे पत्रकार होने का दम भरते हो तो सच्चाई का डट कर सामना करना सीखो, सीतेश। हॅंसती ऋचा के चेहरे पर परिहास था।"
"काश, तुम्हारी तरह हिम्मत और विश्वास मुझमें भी होता।" सीतेश मायूस दिखा।
"कम आॅन, मैंने तो मज़ाक किया था। अरे, तुम तो हमारे समाचार-पत्र के एक अति महत्वपूर्ण संवाददाता हो, सीतेश। अच्छा, अब चलूँ, वरना अम्मा पत्रकारिता से मेरी छुट्टी करा देंगी।"
हॅंसती ऋचा घर की ओर चल दी।
साइकिल रखकर ऋचा ने जैसे ही घर में प्रवेश किया, छोटे भाई आकाश ने माँ की नाराज़गी की खबर दीदी को दे दी।
"बड़ी देर कर दी, दीदी। माँ बहुत नाराज हैं।"
"अच्छा-अच्छा, माँ को मना लूँगी। बता, तेरा रिज़ल्ट कैसा रहा ?"
"बस पास हो गया, दीदी। क्या करूँ, कितनी भी मेहनत करूँ, नम्बर अच्छे नहीं मिलते। तुम हमेशा फ़स्र्ट आती हो और एक मैं हूँ .........।" आकाश उदास हो आया।
"घबरा नहीं, मेरे भाई। माँ तुझे इन्जीनियर बना देखना चाहती हैं, उनका सपना तुझे ही सच करना है। मेहनत करने से सफलता जरूर मिलती है।"
"अच्छा होता, मेरी जगह माँ तुम्हें इन्जीनियर बनातीं। ठीक कहा न ?"
"अच्छा, अब तो तू बड़ी बातें बनाने लगा है। लगता है, अपनी दीदी से कुछ चाहिए। वैसे एक सच जान ले, हमारे समाज में लड़के से ही सारी अपेक्षाएँ की जाती हैं। लड़की को तो पराई अमानत कहकर नकार दिया जाता है।"
"तुम पराई नहीं हो, दीदी।"
"सच, तू ऐसा सोचता है ? वैसे हम बातें कर रहे हैं, पर अभी तक माँ की फटकार नहीं सुनी। माँ कहाँ हैं, आकाश ?"
"मेरी कामयाबी की खुशी में मन्दिर में प्रसाद चढ़ाने गई हैं।" आकाश हॅंस पड़ा।
"अच्छा, तो महारानी जी को याद आ गया, इनका कोई घर भी है। ये ले, बेटा प्रसाद ले।" माँ ने आते ही ताना दिया।
"पहले दीदी को प्रसाद दो, माँ। दीदी बड़ी हैं।"
"क्यों, तेरी दीदी ने कौन-सा कमाल किया है जो पहले उसे प्रसाद दूँ।"
"कमाल तो किया है, माँ। पूरे कॅालेज में हमारे लेक्चर की तारीफ़ हो रही है। हमारी वजह से हमारी टीम जीत गई।" ऋचा ने खुशी से बताया।
"बस-बस, तेरे कारनामे सुनते-सुनते कान पक गए। लाख बार समझाया, लड़की है तो लड़की की तरह रहना सीख। ससुराल में तेरे लेक्चर नहीं, तेरे गुण काम आएँगे।"
"अरे, वाह दीदी, हमें बताओ, तुमने अपने लेक्चर में क्या कहा ?"
"लड़कियों की खिलाफ़त की थी, आकाश।"
"तुझसे और उम्मीद भी क्या कर सकते हैं! सारे दिन साइकिल लिए न जाने कहाँ-कहाँ घूमती फिरती है। इतना मना किया था लड़की को साइकिल न दिलाएँ, पर तेरे पापा की तो मत ही फिर गई। घर में काम करने को यह माँ जो बैठी है।" माँ का स्वर ऊंचा हो आया।
"ऐसा क्यों कहती हो, माँ ? घर में सबसे पहले उठकर नाश्ता-खाना तैयार करने के बाद ही तो कॅालेज और अखबार के दफ्तर जाती हूँ। अगर मेरी जगह आकाश होता तो ......"
"अरी, आकाश के साथ बराबरी करे है ? आकाश से तो हमारा वंश चलेगा।" किसने कहा, अखवार के दफ्तर में काम कर। लोग सोचते होंगे, हम लड़की की कमाई खाते हैं। बड़ी नेकनामी कराई है हमारी। अच्छी लड़कियों के क्या यही ढंग होते हैं ?
"अच्छा माँ, मैं अच्छी लड़की नहीं हूँ। प्लीज अब शान्त हो जाओ !" हॅंसकर ऋचा ने बात टालनी चाही।
"मेरी बात याद रखना, अगर तेरे ऐसे ही लच्छन रहे तो तेरा बियाह होने से रहा। रात-बिरात घर के बाहर रहना क्या अच्छे घर की लड़कियों के ढंग होते हैं ?"
"अब जाने भी दो, माँ। दीदी कितना थककर आई हैं। चलो दीदी, खाना खा लें।"
"मुझे भूख नहीं है, भइया। तू खाना खा ले।"
"हाँ-हाँ, भूख क्यों होगी, लेक्चर से ही पेट भर गया होगा।" गुस्से में माँ कमरा छोड़कर चली गई।
दो-चार कौर मॅुह में डाल ऋचा उठ गई थी। रात में देर तक नींद नहीं आई। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लेकर भी ऋचा आकाश की ऊंचाइयाँ छूने के सपने देखती। माँ का आक्रोश अकारण ही नहीं था। प्राइमरी स्कूल में अध्यापक पिता ने किताबों से भले ही यह जाना कि लड़के और लड़कियों में भेदभाव करना ठीक नहीं, पर वास्तविकता किताबों में पढ़ी बातों से सर्वथा अलग थी। सामान्य बुद्धि वाली इला दीदी के मैट्रिक पास करते ही माँ ने उनकी शादी के लिए पापा को परेशान करना शुरू कर दिया था। पत्नी की ज़िद पर पापा ने दीदी के लिए वर की तलाश शुरू कर दी। हर जगह दहेज की माँग ने पापा को सच्चाई स्वीकार करने को मजबूर कर दिया। स्कूल के प्राॅविडेंट फन्ड से उधार लेकर दीदी की शादी कर दी गई। इला दीदी के पति एक कार्यालय में छोटे बाबू थे। घर में भाई-बहनों की लम्बी जमात में एक दीदी भी जुड़ गई। सास-ससुर, देवर, ननदों वाले भारी कुनबे में दीदी मुफ्त की नौकरानी बन गई थीं। झाडू-पोंछा, बर्तन-धोना, खाना पकाना, न जाने इतना काम दीदी कैसे अकेले निबटाती होंगी ! शायद माँ की ट्रेनिंग उनके काम आई हो। काश ! माँ ने दीदी को पढ़ने दिया होता तो आज वह भी आत्मनिर्भर बन, घर की आय बढ़ा पाने में मदद दे पातीं। माँ के दबंग स्वभाव के सामने पापा ने हमेशा अपने को निरीह पाया। हाँ, इतना जरूर था, ऋचा के समय उन्होंने उसकी शादी की जल्दबाजी नही की। माँ के लाख सिर पटकने के बावजूद ऋचा को कॅालेज भेजा। आने-जाने की सुविधा के लिए साइकिल खरीदवाई। इतना ही नहीं, अखबार के दफ्तर में काम करने की इजाज़त देने पर तो माँ ने खासा हंगामा खड़ा कर दिया, पर पापा नहीं झुके। माँ ने दलील पेश की थी-
"अखबार के दफ्तर में काम करेगी तो क्या हम मुँह दिखाने लायक रहेंगे ? नाक न काट जाएगी ? "
"नहीं, अब ज़माना बदल गया है। हमारी बेटी के काम करने से नाक नहीं कटेगी, बल्कि हमारा सम्मान बढ़ेगा।"
"तुम्हारी तो मत मारी गई है। बियाह लायक उमर वाली लड़की की सोचकर तो मैं सो भी नहीं पाती।"
"माँ, तुम आराम से सोया करो। खराब काम करने से नाक कटती है, नौकरी करने से नाक ऊंची होती है। हमें अभी शादी नहीं करनी है।" ऋचा दृढ़ थी।
"क्यों, तेरी दीदी की शादी हो गई तो क्या गुनाह हो गया ? आराम से अपने घर में है।"
"हमें दीदी वाला आराम नहीं चाहिए। एक बार अपने पाँवों पर खड़ी हो जाऊॅं, उसके बाद शादी की बात करना।"
"ठीक ही तो कहती है ऋचा। हमेशा इसके पीछे पड़े रहना ठीक नहीं। हमारी ऋचा बड़ी समझदार लड़की है। वह ऐसा कोई काम नहीं करेगी, जिससे हमारी बदनामी हो।"
"हाँ-हाँ, दुनिया में बस दो ही तो समझदार हैं, एक तुम और दूसरी तुम्हारी यह लाडली बेटी। जो मन में आए करो, पर अगर कोई ऊंच-नीच हो जाए तो हमें दोष मत देना।" माँ हथियार डाल देती।
माॅ भी गलत नहीं थी। मध्यमवर्गीय मानसिकता बेटी को बोझ ही तो मानती है। विचारों में डूबी ऋचा को कब नींद आ गई, पता ही नहीं लगा। सुबह माँ की पुकार पर ही नींद टूटी थी। सबको चाय देकर ऋचा ने अखबार खोला। पहले पेज पर उसकी दी गई रिपोर्ट गायब थी। तीसरे पेज पर एक छोटी-सी घटना की तरह खबर छापी गई थी। खबर में कम्पनी का नाम जरूर दिया गया था, पर अधिकारी का नाम गायब था। रोज घटनेवाली घटनाओं की तरह बस इतना ही छापना जरूरी समझा गया था कि अमुक कम्पनी के एक अधिकारी द्वारा एक कर्मचारी लड़की के साथ छेड़छाड़ की गई। रिपोर्ट देने वालों में ऋचा के साथ सीतेश का नाम भी छपा था। ऋचा का मन खट्टा हो गया। उसकी मेहनत पर कितनी आसानी से पानी फेर दिया गया था। सम्पादक से बात करने का निर्णय ले, ऋचा जल्दी-जल्दी घर के काम निबटाने लगी।
कॅालेज जाने के पहले ऋचा अखबार के कार्यालय पहॅंची थी। सम्पादक की टेबिल पर अखबार में छपी खबर पटक, उत्तेजित ऋचा ने सवाल किया -
"इस अन्याय का क्या मतलब है? घटना की पूरी खोजबीन करके रिपोर्ट मैंने तैयार की, पर नाम सीतेश का है ? रिपोर्ट भी पूरी नहीं छापी गई, क्योंए सर ?"
"देखो ऋचा, सच यह है, लड़कियों के साथ हुए हादसे की रिपोर्टिग अगर कोई लड़की करती है तो कभी-कभी लोगों को उसपर कम विश्वास होता है।"
"आपका कहने का क्या मतलब है, सर?"
"ठीक कह रहा हूँ, लोग सोचते हैं, एक लड़की की दूसरी लड़की के साथ हमदर्दी होना वाजिब है। हो सकता है, घटना बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई है। सीतेश का तुम्हारे साथ नाम देने से घटना की विश्वसनीयता बढ़ी है।"
"मैं यह बात नहीं मानती। विश्वसनीयता अखबार की होती है। कामिनी से सच निकलवाने में मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी थी, आप नहीं जानते।"
"मैं तुम्हारे काम की कद्र करता हूँ। मुझे विश्वास है, तुम एक अच्छी पत्रकार बनोगी। वैसे कामिनी के केस की सच्चाई क्या है, ऋचा?"
"सर, कामिनी को नौकरी मजबूरी में करनी पड़ रही है। अपनी विधवा माँ और दो छोटी बहिनों का वही सहारा है। उसकी इसी मजबूरी का फायदा कम्पनी के चीफ़ नागेश्वर राय उठाते रहे। बहाने बनाकर देर रात तक रोकना, रोज की बात थी।"
"देखो ऋचा, लड़कियाँ अगर काम पर बाहर निकलती हैं तो काम की वजह से देर हो ही सकती है। एक ओर वे समान अधिकारों की बात करती हैं और दूसरी ओर लड़की होने का फ़ायदा उठाना चाहती हैं।"
"आप गलत समझ रहे हैं, सर। बात सिर्फ देर तक रूकने की नहीं है। अगर आपने मेरी रिपोर्ट पढ़ी है तो जान गए होंगे, पार्टी अरेंज कराने के बहाने नागेश्वर राय कामिनी को होटल ले गए और वहाँ उसे कोल्ड डिंªक में नशा मिलाकर दिया गया ...........।"
"यह सच नहीं है, नागेश्वर राय ने बताया है। कामिनी अपनी मजबूरियों के बहाने उनसे रूपए एंेठती रही है। उस रात भी वह खुद अपनी मर्जी से उनके साथ गई थी।"
"ओह! तोे आपको नागेश्वर राय की सच्चाई में यकीन है? क्या इसीलिए कामिनी की मजबूरी का फ़ायदा उठाकर उन्होंने उसका शील-हरण किया?" मन का सारा आक्रोश ऋचा के स्वर में उभर आया।
"देखो ऋचा, नागेश्वर राय शहर के सम्मानित व्यक्ति हैं। बेसहारा लड़कियों, अनाथ बच्चों के लिए वह एक मसीहा हैं। उनपर छींटें उड़ना ठीक नहीं। फिर भी तुम्हें उत्साहित करने के लिए खबर छापने की इजाजत दे दी थी।"
"थैंक्स, पर मैं इस घटना की जानकारी पुलिस में दूँगी।"
"कोई फ़ायदा नहीं। क्या कामिनी का तुरन्त मेडिकल चेक-अप किया गया था? पुलिस में रिपोर्ट लिखाई गई थी?"
"नहीं, क्योंकि कामिनी बेहद डर गई थी। उसके घरवालों को बदनामी का डर था।"
"फिर इस घटना को भूल जाओ। कोर्ट में मेडिकल रिपोर्ट चाहिए। पुलिस में एफ.आई.आर. दर्ज न कराना, तुम्हारे केस को कमजोर कर देगा। मैं अनुभवी इन्सान हूँ। कामिनी के साथ सहानुभूति है, पर इस केस में कोई दम नहीं है, ऋचा।"
सम्पादक जी ने अपनी बात खत्म कर, कागजों में सिर झुका लिया। क्षुब्ध ऋचा बाहर चली आई। सम्पादक की बातों में कुछ सच्चाई तो जरूर है। कोर्ट में उसने देखा है, मेडिकल रिपोर्ट की सच्चाई भी साक्ष्यों के अभाव में झुठला दी जाती है। कुछेक बार तो लड़की पर चरित्रहीनता का इल्ज़ाम तक लगया गया है। लड़की का बयान कोई अर्थ नहीं रखता। ज़रूरत होती है किसी चश्मदीद गवाह की, जिसने पूरा रस लेकर, बलात्कार की घटना को शुरू से आखिर तक देखा हो।
बेमन से ऋचा कॅालेज पहुँची। क्लास के लेक्चर पर ध्यान देना कठिन लग रहा था। पत्रकारिता के कोर्स का यह अन्तिम वर्ष है। परीक्षा के लिए एक महीना ही बचा है, उसे जी-तोड़ मेहनत करनी होगी।
क्लास से बाहर आते ही विशाल को इन्तजार में खड़े पाया। ऋचा को देखते ही विशाल के चेहरे पर मुस्कान आ गई-
"हेलो, ऋचा। कल का उधार उतारेंगी?"
"उधार, कौन-सा उधार?"
"वाह! पत्रकार अपना वादा इतनी जल्दी भूल जाते है।? अजी मोहतरमा, एक कम काॅफी मुझपर उधार है। सिर पर उधार हो तो भला नींद आ सकती है! इस बोझ को जल्दी-से-जल्दी उतारना चाहता हूँ। चलें?"
"आज मूड नहीं है..............।"
"कॅाफ़ी आपका मूड बदल देगी, यह मेरा वादा है।"
मजबूरन ऋचा को विशाल के साथ जाना पड़ा था। वैसे भी घर जाने की कोई जल्दी नहीं थी। स्मिता आज कॅालेज नहीं आई थी। उसका भी हाल पता करना होगा। नीरज और स्मिता के साथ ऋचा को अच्छा लगता है। नीरज एम.काॅम. फाइनल परीक्षा के साथ बैंक-परीक्षा की तैयारी में जुटा है। आज अगर वे दोनों साथ होते तो ऋचा उनके साथ कामिनी की बात करके मन हल्का कर लेती।
कॅाफ़ी-हाउस में उस वक्त भीड़ थी। एक कोने की मेज खाली देख, विशाल ऋचा के साथ उसी ओर बढ़ गया।
"देख रहा हूँू, लोग यहाँ पढ़ने नहीं, कॅाफ़ी पीने आते हैं।" विशाल ने चारों ओर नजर घुमाई थी।
"आप भी उन लोगों में से एक हैं न?"
"जी नहीं, बन्दा क्लासेज ख़त्म करके आया है। वैसे भी नेक्स्ट वीक से प्रिपरेशन लीव शुरू हो रही है। आपकी क्लासेज भी तो खत्म हो रही होंगी?"
"हाँ, शायद एक वीक और आना होगा।"
"उसके बाद हम कैसे मिलेंगे?"
"क्यों, हमारे मिलने की अब और कौन-सी वजह होगी? आज तो हम आपका उधार उतारने आए है।"
"दिल की चाहत भी कोई चीज होती है, ऋचा। मेरा जी चाहता है, हम रोज मिलते रहें।"
"अपने दिल को काबू में रखिए, जनाब। दिल की हर बात मानना ठीक नहीं होता।"
"एक बात बताइए, आज आपके चेहरे पर कुछ नाराज़गी क्यों है?"
"छोड़िए, वह मेरा पर्सनल मामला है, अब आप कॅाफ़ी मॅंगा रहे हैं या यूंॅ ही बैठे बातंे करते रहेंगे?"
"साॅरी, आपका मूड देखकर लगता है, आपको कोल्ड कॅाफ़ी देनी चाहिए। क्यों ठीक कहा न? कोल्ड कॅाफ़ी ही आपका पारा नीचे ला पाएगी।" विशाल ने हॅंसते हुए वेटर को दो कोल्ड कॅाफ़ी लाने का आॅर्डर दे दिया।
कोल्ड कॅाफ़ी का सिप लेते हुए विशाल ने ऋचा से फिर उसकी नाराज़गी की वजह जाननी चाही थी। अनजाने ही कामिनी की घटना सुनाकर, रिपोर्टिग में फेर-बदल की बात भी ऋचा सुना गई। पूरी बात सुनकर विशाल गम्भीर हो गया। शान्त रहकर उसने ऋचा को समझाना चाहा -
"पत्रकार को सफलता आसानी से नहीं मिलती। कई बार तो उसकी जान पर भी आ पड़ती है। ऐसी छोटी-छोटी घटनाएँ, बड़ी घटनाओं का सावधानी से मुकाबला करने की समझ देती हैं। ऐसी बातों से निराश न होकर, आगे के लिए तैयार रहना चाहिए, ऋचा।"
विशाल की बातों ने ऋचा को राहत-सी दी। ठीक कहता है विशाल। कामिनी के केस मे जो कमियाँ रह गई, अगली बार वैसी ग़लतियाँ नहीं होनी चाहिए।
"थैंक्स! अापकी बातें याद रहेंगी।"
"मेरी बातें नहीं, मुझे याद रखिएगा, यही इल्तिज़ा है।" विशाल परिहास पर उतर आया।
"बातें ही इन्सान को उसका व्यक्तित्व देती है।, विशाल जी।" ऋचा भी हॅंस रही थी।
"देखिए मैं वकील हूँ, आपको कुछ देर पहले जो राय दी, उसकी फ़ीस तो देनी होगी?"
"वाह! हमने कौन-सी राय माँगी थी? आप तो बड़े अच्छे वकील बनेंगे। बताइए, क्या फ़ीस चाहिए?"
"कल शाम कम्पनी गार्डेन में मिलते हैं। ठीक पाॅच बजे आपका इन्तजार करूँगा। कहिए, मामूली फ़ीस है न मेरी?"
"चलिए, मंजूर है, बशर्ते क्वालिटी की आइसक्रीम आप खिलाएँगे।" ऋचा की आवाज में शोखी उभर आई।
घर वापस लौटती ऋचा का मन हल्का हो आया। सुबह का आक्रोश और क्षोभ मिट चुका था। कामिनी के बाॅस से वह जरूर बात करेगी। उन्हें यॅंू ही नहीं छोड़ेगी। वह कामिनी से क्षमा माँगेंगे। उसकी दूसरे विभाग में नियुक्ति करें, तभी उन्हें छोड़ा जा सकता है। इस काम में वह विशाल और रोहित की मदद लेगी। कॅालेज के यूनियन का तेज-तर्रार प्रेसीडेंट रोहित अन्याय के विरूद्ध लड़ने के लिए मशहूर है। धनी बाप का इकलौता बेटा रोहित शहर में एक बड़ा-सा घर लेकर रहता है। ऋचा भी रोहित को मानती है। कुछ केसेज में रोहित ने ऋचा की मदद की है। दोनों में अच्छी मित्रता है, पर रोहित ने कॅालेज की लड़कियों के साथ अपनी दोस्ती का कभी फ़ायदा नहीं उठाया। ऋ़चा को रोहित की सहायता का पूरा विश्वास रहता है।
दरवाजा खोलते आकाश ने खबर दी, नीरज और स्मिता बड़ी देर से ऋचा का इन्तजार कर रहे हैं। दोनों परेशान दिख रहे हैं, उसपर माँ उनसे ऋचा दीदी की शिकायतें करके, उन्हें और परेशान कर रही हैं।
"अरे स्मिता-नीरज, मैं तो तुम्हें कॅालेज में ढॅूँढ़ रही थी। तुम दोनों आज कॅालेज क्यों नहीं आए?"
"कुछ ज़रूरी काम था। ऋचा, हमें तुझसे कुछ खास बातें करनी हैं।" बात खत्म करती स्मिता ने पास बैठी ऋचा की माँ पर दृष्टि डाली थी।
"माँ, इनके लिए कुछ चाय-नाश्ता आकाश के हाथ भिजवा सकोगी?" ऋचा की बात पर मॅंुह-ही-मुँह में कुछ बुदबुदाती माँ चली गई।
"अब बता, क्या बात है, स्मिता? कोई ख़ास बात है, क्या?"
"हाँ, ऋचा, पर यहाँ सारी बात बता पाना मुश्किल है।" स्मिता ने बुझे स्वर में कहा।
"कुछ अता-पता तो बता। नीरज, आप ही बताइए, क्या बात है?"
"स्मिता के लिए अमेरिका से रिश्ता आया है। इसके घरवालों ने 'हाँ' कर दी है। अगले हफ्ते ही प्रशान्त और स्मिता की शादी होना तय हुआ है। समझ में नहीं आता कि क्या करें?"
"तेरी मर्जी पूछी गई थी, स्मिता?"
"लड़कियांे की मर्जी कितने घरों में पूछी जाती है, ऋचा। मम्मी-पापा की निगाह में अमेरिका में नौकरी करने वाले लड़के से अच्छा वर मिलना कठिन है।"
"भले ही वहाँ उसने किसी अमेरिकन लड़की से शादी कर रखी हो। तेरे मम्मी-पापा प्रशान्त को कितना जानते हैं, स्मिता?" ऋचा के स्वर में आक्रोश था।
"शायद बिल्कुल नहीं, अखबार में शादी के लिए एडवर्टाइज किया था। पापा ने फोन पर बात की और आज सवेरे वह घर आकर 'हाँ' कर गया।"
"वाह! यह तो परी-लोक वाली कहानी हो गई। सपनों का राजकुमार हवाई जहाज में बैठकर आया। हमारी शहजादी स्मिता को देखा और जेट-स्पीड में शादी की तैयारी कर डाली।" ऋचा हॅंस पड़ी।
"देख ऋचा, यह वक्त मजाक करने का नहीं है। हमारी जान पर आ गई है और तुझे कहानियाँ सूझ रही है?" स्मिता रोने-रोने को हो आई।
"नीरज, आपका क्या कहना है?" ऋचा अब गम्भीर थी।
"मेरी स्थिति तो आपसे छिपी नहीं है। अभी मेरी नौकरी नहीं है। बाबूजी पर बोझ हूँ। नौकरी के लिए कम-से-कम पाँच-सात महीने तो इन्तजार करना ही होगा। मेरा भविष्य अनिश्चित है......।"
"यानी आप मैदान छोड़कर भाग रहे हैं। क्या स्मिता से आपका प्यार बस यहीं तक था?"
"नहीं, ऋचा। मैं स्मिता को अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करता हूँ, पर आज की स्थिति में मैं उसे सपोर्ट कैसे करूँगा? आप तो जानती हैं, स्मिता के घर किसी चीज की कमी नही है। वह हमारे घर के अभावों को कैसे झेल सकेगी?"
"मैं तुम्हारे साथ किसी भी स्थिति में खुश रहूँगी, नीरज। तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकती।" स्मिता ने रूमाल से आँसू पोंछ डाले।
"नीरज, आपका क्या सोचना है?" ऋचा की सवालिया दृष्टि नीरज पर गड़ गई।
"सच तो यही है कि मैं भी स्मिता को बेहद प्यार करता हूंॅ। प्यार में धोखे का सवाल नहीं उठता। ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाई स्मिता को जान लेनी चाहिए। मेरे साथ उसे काँटों की सेज पर सोना होगा, ऋचा।"
"मैं तैयार हूँ, नीरज के साथ मुझे काँटों की चुभन भी महसूस नहीं होगी। नीरज के सिवा मैं और किसी के बारे में सोच भी नहीं सकती।" स्मिता ने आँसू रोकने चाहे थे।
"तूने अपनी मम्मी से नीरज के बारे में बात नहीं की, स्मिता?"
"बात की थी, ऋचा, पर पूरी बात सुनने के पहले ही वह गुस्से से काँपने लगीं। उनका वश चले तो वह नीरज को ही नहीं, उसके परिवार वालों को भी जेल में सड़ने को डलवा दें। हाँ, ऋचा, उन्होंने यही धमकी दी है कि अगर मैं नीरज से शादी की बात करूँगी तो वह नीरज का भविष्य ख़त्म करा, उसे दर-दर का भिखारी बना देंगी।"
"तेरे पापा का क्या रूख होगा, स्मिता?"
"पापा तो शायद मेरा खून करके अपने को भी गोली मारकर खत्म कर लेंगे। वे लोग बेेहद क्लास-कांशस हैं, ऋचा।"
"इस हालत में तो बस एक ही तरीका है।"
कौन-सा तरीका, ऋचा?
"तुम दोनों फ़ौरन शादी कर लो।"
"क्या ......आ ...........?" स्मिता चैंक गई।
"तुम दोनों बालिग हो। जिन्दगी के फ़ैसले लेने का तुम्हें पूरा हक है।"
"यह तो मैंने भी सोचा था, पर शादी के बाद मैं स्मिता की ज़रूरतें कैसे पूरी करूँगा। स्मिता मेरी ज़िम्मेवारी है, इसका भार बाबूजी पर कैसे डालूँ, ऋचा?"
"इस मामले में हमें रोहित की मदद लेनी होगी। याद है, पिछले साल रोहित ने नेहा और राहुल की शादी कितनी विषम परिस्थितयों में कराई थी। हमें रोहित से मिलना होगा।"
"तो देर क्यों, हम अभी रोहित के घर चलते हैं, ऋचा। पता नहीं, कल घर से बाहर आ सकॅंू या नहीं। माँ का पहरा तोड़ना आसान नहीं होगा।"
"वाह! इसका मतलब आज भी पहरा तोड़कर हमारी अनारकली अपने सलीम से मिलने आई है। चलो, हम अभी रोहित के पास चलते हैं।" इस वक्त भी ऋचा परिहास करने से नही चूकी।
ऋचा के फिर बाहर जाने की बात पर माँ का पारा चढ़ना स्वाभाविक ही था। लड़की का पाँव घर में टिकता ही नहीं। आने की देर नहीं, फिर जाने को तैयार बैठी है। लड़कियों के भला ये लच्छन ठीक हैं? न जाने क्या खुसुर-पुसुर चल रही है! जने क्या करने पर तुली है!
माँ की नाराज़गी की परवाह न कर, ऋचा, स्मिता और नीरज के साथ बाहर निकल गई। आॅटो से तीनों रोहित के घर पहंॅुचे। रास्ते में ऋचा मनाती रही, रोहित घर में ही मिल जाए। अकेलापन काटने के लिए अक्सर रोहित यार-दोस्तों के साथ महफ़िल जमाता है। फक्कड़ स्वभाव का रोहित, सबको प्रिय था। काॅल-बेल पर रोहित को दरवाज़ा खोलता देख, ऋचा ने चैन की साँस ली -
"थैंक्स गाॅड, रोहित, तुम घर पर हो।"
"क्यों मेरा रेपुटेशन बिगाड़ रही हो? वैसे इस वक्त आने की वजह? ज़रूर सीरियस मामला है। ये तुम्हारे अन्दर का पत्रकार भविष्य में तुम्हारे पति का जानी दुश्मन जरूर बन जाएगा। अभी से वाॅर्न कर रहा हूँ।" रोहित हॅंस रहा था।
"थैंक्स फाॅर दि वार्निग। क्या हम अन्दर आ सकते हैं या दरवाजे पर ही खडे़ रहना होगा?" ऋचा मुस्करा रही थी।
"ओह! अायम साॅरी। आओ।"
सबके बैठ जाने पर ऋचा ने संक्षेप में स्मिता और नीरज की समस्या बता दी। इसके पहले भी कई मामलों में ऋचा ने रोहित की मदद ली थी। दोनों के बीच बहुत अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी। कुछ देर सोचने के बाद चुटकी बजाते रोहित के चेहरे पर खुशी आ गई।
"लो, तुम्हारी समस्या का समाधान अभी किए देता हूँ। मेरे एक दोस्त को अकाउंट्स रखने के लिए एक ईमानदार आदमी की तलाश है। वैसे नीरज की क्वालीफ़िकेशन के लिए यह काम छोटा है, पर इस वक्त नीरज को पैर जमाने के लिए एक सहारा हो जाएगा। शाम को दो-तीन घण्टे मेरे दोस्त का अकाउंट देख लेगा। वह अच्छी तनख्वाह दे सकता है।"
"मैं तैयार हूँ। इस मदद के लिए आभारी हूँ।" नीरज का चेहरा चमक उठा
"चलो, एक मुख्य समस्या का हल तो मिल गया, पर रहने की जगह की समस्या तो हल नहीं होगी, रोहित?"
"यह सच है, हमारा घर बहुत छोटा है और इन परिस्थितियों में शादी करने के बाद क्या होगा, कह नहीं सकता।" नीरज सोच में पड़ गया।
"अरे, इसमें परेशान होने की जरूरत नहीं है। हम यारों के यार हैं। जब तक तुम्हें, तुम्हारे घर में जगह नहीं दी जाती, तुम दोनों हमारे आउट-हाउस में रह सकते हो। वैसे भी वो खाली पड़ा है।"
"लो, अब तो कोई समस्या ही नहीं रह गई। थैंक्स, रोहित।"
"कमाल करती हो। अरे, सबसे बड़ी समस्या, इनकी शादी का क्या होगा?"
"अब ऋचा जी, हमारी भावी जुझारू पत्रकार, इनका हुक्म तो मानना ही होगा, पर एक रात का वक्त तो इस गरीब को देना ही होगा।"
रोहित की बातों पर सब हॅंस पड़े। लगा, अचानक कुहासा छंट गया। तय किया गया, कल दोपहर ऋचा किसी तरह स्मिता को अपने साथ रोहित के घर ले आए। नीरज भी अपने एक-दो दोस्तों के साथ ठीक समय पर पहुँच जाएगा। पण्डित और विवाह की तैयारी रोहित ने अपने जिम्मे ले ली। अक्सर ऐसे कामों में पिता द्वारा अर्जित की गई सम्पत्ति का रोहित इसी तरह सदुपयोग करता था। खुशी-खुशी सबको विदा कर, रोहित पण्डित जी को निमन्त्रण देने निकल गया।
घर पहुँचने पर आशा के विपरीत माँ को प्रसन्न देख, ऋचा ताज्जुब में पड़ गई। आज के अपने कारनामे के लिए वह डाँट खाने को तैयार आई थी, पर घर का तो माहौल ही दूसरा था। प्यार से माँ ने खाना खाने को बुलाया था -
"सारा दिन हो गया, खाना खाने की सुध नहीं आई। आ, तेरे मन की सब्जी बनाई है।"
"माँ, आज सूरज किधर से निकला था?"
"क्यों, क्या सूरज देवता रोज नया रास्ता चुनते हैं?" माँ ऋचा का परिहास नहीं समझ सकी।
"रोज की बात तो नहीं जानती, पर आज सूरज देवता ने कृपा की है।"
"अरी, हम तेरे दुश्मन थोड़ी हैं। जो कहते हैं, तेरे भले के लिए ही कहते हैं। आज तेरी गंगा मौसी आई थीं।"
"क्या कह रही थीं गंगा मौसी?" अचानक ऋचा के मुँह का स्वाद बिगड़ गया।
"अरें, गंगा हमारी सच्ची हमदर्द है। तेरे लिए अपने देवर का रिश्ता लाई है। बैंक में बाबू है...।" खुुशी से माँ उमगी पड़ रही थी।
"माँ, हज़ार बार कह चुकी हूँ, अभी मुझे शादी नहीं करनी है- नहीं करनी है। गंगा मौसी का देवर बाबू हो या महाराजा, हमें मतलब नहीं।"
थाली छोड़कर ऋचा उठ खड़ी हुई।
पस वाले कमरे से पापा भी आ गए। बोले -
"क्या बात है, ऋचा बेटी?"
"कोई नई बात नहीं है, पापा। माँ को हमारा घर में रहना नहीं सुहाता।"
"जरा देखो तो लड़़की की बातें? अरे, हम क्या इसके दुश्मन हैं? माँ हूँ इसकी ......" माँ ने आँचल आँखों पर रख लिया।
"ऋचा, तू तो समझदार है, क्यों माँ का दिल दुखाती है। मैंने कह दिया है न कि बिना तेरी मर्जी के तेरी शादी नहीं करूँगा। चलो, माँ से माफी माँग लो।" हमेशा की तरह पापा ने ऋचा को शान्त कर दिया।
सुबह पाँच बजे का अलार्म लगाकर ऋचा बिस्तर पर चली जरूर गई, पर आँखों में नींद का नाम नहीं था। स्मिता के मम्मी-पापा क्या उसका नीरज के साथ विवाह आसानी से स्वीकार कर लेंगे? धनी माँ-बाप की इकलौती बेटी स्मिता के यहाँ किसी चीज की कमी नहीं थी, कमी थी तो बस समय की। पिता अपने कारोबार को बढ़ाने की धुन में यह भूल ही गए कि घर में एक बेटी भी है, जो माता-पिता के प्यार को तरसती है। माँ ने अपने को किटी-पार्टीज और सोशल फंक्शन्स में बिजी कर लिया। बेटी को जन्म जरूर दिया, पर उसकी परवरिश गवर्नेस ने की। नैनी के कठोर अनुशासन ने स्मिता को भीरू बना दिया। वह अपनी बात कहने से भी डरती। ऊॅंची सोसायटी का कायदा-कानून सीखते-सीखते उसका आत्मविश्वास ही डगमगा गया।
कॅालेज में सहमी-डरी-सी स्मिता ने ऋचा का ध्यान आकृष्ट किया था। उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा, ऋचा ने उसके खोए आत्मविश्वास और कुण्ठा को काफ़ी हद तक दूर किया था। धीरे-धीरे स्मिता, ऋचा के निकट आती गई। उसका अकेलापन ऋचा को पाकर भर-सा गया। अक्सर उनकी दोस्ती को लेकर लोग मज़ाक करते। ऋचा जैसी दबंग लड़की की सहमी-सी स्मिता से मित्रता, शायद इसीलिए सम्भव थी कि हमेशा विपरीत वस्तुएँ एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट होती हैं।
वैसी स्मिता का नीरज से प्यार होना, ऋचा को भी चैंका गया था। पहल नीरज की ओर से ही हुई थी। छुईमुई-सी स्मिता से नीरज का परिचय कॅालेज की लाइब्रेरी में हुआ था। उन दिनों ऋचा डिबेट के लिए दूसरे शहर गई हुई थी। एक किताब ढॅूँढ़ती स्मिता परेशान हो उठी थी। अचानक नीरज की आवाज ने चैंका दिया था- "मे आई हेल्प यू?"
"जी .....ई .....ई .... वो किताब ......" स्मिता हड़बड़ा आई थी। उसकी घबराहट देखकर नीरज हॅंस पड़ा।
"डरिए नहीं, मैं कोई हौआ नहीं, इसी कॅालेज का स्टूडेंट हूँ। बताइए, कौन-सी किताब चाहिए?"
अपने को सहेज, स्मिता ने किताब का नाम बताया था। कुछ ही देर में किताब स्मिता को थकाकर, नीरज ने अपना परिचय दे डाला। पूरे एक हफ्ते दोनों की मुलाकातंे लाइब्र्रेरी में होती रहीं। नीरज के गम्भीर स्वभाव में एक ठहराव था, जो स्मिता को आश्वस्त कर जाता। नीरज के साथ पंख समेटे, स्मिता के पंख खुलने लगे थे। उसने सपने देखने शुरू कर दिए .....। नीरज ने अपने बारे में कहीं कुछ नहीं छिपाया। मेधावी नीरज को पूरा विश्वास था, एम्.काम्. में टाॅप करने के बाद उसके लिए अच्छी नौकरी पाना कठिन नहीं होगा। स्मिता के साथ विवाह वह नौकरी के बाद ही करना चाहता था, पर आज परिस्थितियों ने ऐसा मोड़ ले लिया है कि नीरज भी अपने घरवालों से सहयोग की अपेक्षा नहीं रख सकता। दो ब्याह-योग्य बहनों के पहले नीरज का विवाह स्वीकार नहीं होगा।
देर रात तक जागने के बाद अलार्म से ही ऋचा की नींद टूटी थी। काम-निबटाती ऋचा को अचानक विशाल याद हो आया। नीरज और स्मिता के विवाह के समय विशाल की उपस्थिति अच्छी रहेगी। पूरा वकील न सही, पर एकाध महीने में तो वह वकालत की परीक्षा पास कर ही लेगा। कोई कानूनी अड़चन आने पर विशाल की मदद मिल सकेगी। स्मिता को साथ लेकर पहले विशाल के पास जाने का निर्णय लेकर ऋचा तैयार होने लगी। रात की घटना की वजह से माँ अभी भी नाराज़ थी, कहीं किसी वजह से स्मिता को घर में न रोक लिया जाए।
स्मिता को घर से बाहर आता देख, ऋचा ने आश्वस्ति की साँस ली थी। स्मिता के चेहरे पर घबराहट देख, ऋचा ने तसल्ली दी थी-
"घबरा नहीं, सब ठीक होगा।"
"हमें डर लग रहा है, ऋचा......।"
"यह डर उस वक्त कहाँ था, जब नीरज के साथ प्रेम की पींगें बढ़ा रही थी?" ऋचा ने चिढ़ाय।
"न जाने क्या होगा, ऋचा?" स्मिता डरी हुई थी।
"अरे, अब हम आ गए हैं, डर की कोई बात नहीं है। बस थोड़ी देर बाद तू श्रीमती नीरज शर्मा बन जाएगी।" ऋचा ने हॅंसी में स्मिता का डर दूर करना चाहा।
"डरूँ कैसे नहीं। जानती है, सुबह-ब्रेकफास्ट पर वह प्रशान्त आ गया था।"
"सच! ल्गता है, बेचारा तेरे प्यार में दीवाना हो गया है। यह तो बता, तूने उसके लिए कौन-सी स्पेशल डिश बनाई थी। भई उसे इम्प्रेस तो करना ही था।" ऋचा को उस गम्भीर समय मंे भी मज़ाक सूझ रहा था।
"इस वक्त तेरा मज़ाक इन्ज्वाॅय करने के मूड में बिल्कुल नहीं हूँ, ऋचा। जानती है, मेरी अॅंगूठी का नाप ले गया है। मम्मी से शाम को चार बजे ज्वेलर के यहाँ ले जाने की इजाजत भी ले ली है।"
"ठीक है, उसकी दी हुई हीरे की अॅंगूठी पहनकर अपनी माँग का सिन्दूर दिखा देना। उसकी ओर से एक कीमती तोहफ़ा स्वीकार करने में कौन-सी बड़ी कठिनाई है। डाॅलर कमाने वाले के लिए एक अॅंगूठी कौन बड़ी चीज है।"
"ऋचा, अब बस कर, मेरी जान निकली जा रही है और तू है कि मज़ाक पर मज़ाक किए जा रही है। वक्त की नज़ाकत भी तो कोई चीज होती है।" स्मिता की आँखें भर आई।
"अच्छा, चल पहले उधर जाना है।" ऋचा ने उसका हाथ खींचा।
"अब किधर जा रही है एऋचा?" स्मिता ने पूछा।
"विशाल को साथ ले चलना है। तू यहीं रूक, मैं विशाल को लेकर आती हूँ।" स्मिता को सवाल पूछने का समय न दे, ऋचा विशाल डिपार्टमेंट की ओर बढ़ गई थी।
ऋचा को आया देख, विशाल का चेहरा खिल गया -
"अरे ऋचा, हमारा वादा तो शाम को कम्पनी बाग में मिलने का था। क्या शाम का इन्तज़ार कर पाना मुश्किल था?" विशाल हॅंस रहा था।
"अभी पूरी बात बताने का वक्त नहीं है, जल्दी चलो, ज़रूरी काम है।"
"वाह! हम पर इस तरह हक जमाने का आपका अन्दाज़ अच्छा लगा। कहिए, कहाँ चलना है? बन्दा तो आपके हुक्म का गुलाम है।"
आॅटो से तीनों रोहित के घर पहॅुचे। रोहित के कमरे में ही मण्डप बनाया गया था। रोहित और नीरज के चार-पाँच घनिष्ठ मित्र पहुँच चुके थे, पर नीरज अभी नहीं पहॅुंचा था। नीरज को न देख, स्मिता के चेहरे का रंग उड़-सा गया।
"कहीं नीरज ने अपना इरादा तो नहीं बदल दिया?" स्मिता शंकित थी।
"प्यार पर विश्वास नहीं था तो इतना बड़ा कदम क्यों उठाया, स्मिता?" ऋचा भी चिन्तित थी।
तभी नीरज आता दिखा। सबके चेहरे खिल गए। दोस्तों ने नीरज की पीठ ठोंक, बधाई दी। स्मिता ने पैकेट से एक लाल साड़ी निकालकर ऋचा की ओर बढ़ाते हुए कहा -
"आज इसी साड़ी से काम चलाना होगा, स्मिता। अगर तेरे घर से तेरी शादी होती तो बेशकीमती साड़ी पहनती।"
"प्यार से ज्यादा कीमती कोई दूसरी चीज नहीं होती, ऋचा। मेरे ख्याल में तो आज स्मिता और नीरज दुनिया के सबसे ज्यादा धनी इन्सान हैं।" विशाल ने ऋचा पर दृष्टि डाल, अपनी बात कही थी।
नीरज को रोहित ने अपना सिल्क का नया कुर्ता-पाजामा पहनाया। दोस्तों में अजीब उत्साह था। दोनों के साहस से वे अभिभूत थे। रोहित ने पण्डित जी से विवाह-संस्कार शुरू करने को कहा। तभी विशाल ने एक अजीब सवाल कर डाला-
"नीरज, एक सच बताना। कहीं तुम्हारे मन में स्मिता की सम्पत्ति का लोभ तो नहीं है? अगर स्मिता के मम्मी-पापा ने तुम्हें स्वीकार नहीं किया तो तुम्हें कुछ न मिलने का दुःख तो नहीं होगा?"
"स्मिता को पाकर मुझे सबकुछ मिल जाएगा। स्मिता की सम्पत्ति से मेरा कोई सरोकार नहीं। स्मिता के माता-पिता का दिया हुआ मुझे कुछ भी स्वीकार नहीं होगा, क्योंकि मेरा स्वाभिमान भीख-ग्रहण नहीं कर सकता।"
नीरज के जवाब पर दोस्तों ने तालियाँ बजा डालीं। नीरज के दृढ़ चेहरे पर मुग्ध दृष्टि डाल, स्मिता ने आँखें झुका लीं। पण्डित जी ने मन्त्रोच्चार शुरू कर दिए। रोहित ने ही कन्यादान का फ़र्र्ज़ पूरा किया। सोल्लास विवाह सम्पन्न हो गया।
रोहित ने सबके लिए लंच का आयोजन कर रखा था। विवाह के बाद ऋचा ने लड्डू खिलाकर वर-वधू का मुँह मीठा कराया। हल्के संगीत ने माहौल खुशनुमा कर दिया। दोस्तों के परिहास ने नीरज का मन हल्का जरूर कर दिया, पर आगे क्या होगा की चिन्ता सिर पर सवार थी। स्मिता का चेहरा लाज से लाल हो रहा था। इतना बड़ा कदम उठाना स्वप्नवत् था, पर नीरज का नाम सुनते ही मम्मी के चेहरे पर घृणा के जो भाव अंकित थे, उसके बाद नीरज के साथ विवाह की बात सोचना भी असम्भव था। मॅंुह बिचकाकर मम्मी ने कहा था-
"तू क्या सोचती है, वह तुझे प्यार करता है? देख स्मिता, मैं इस क्लास को अच्छी तरह जानती हूँ। जल्दी-से-जल्दी अमीर बन जाने के लिए किसी अमीर लड़की को फंसा लेना सबसे आसान तरीका है। वह तुझसे नहीं, तेरे पैसे से प्यार करता है।"
"नीरज ऐसा लड़का नहीं है, मम्मी। वह हमें सचमुच प्यार करता है।"
डरते-डरते स्मिता इतना ही कह सकी थी।
"बेवकू।फ़ लड़की, तुझमें ऐसा क्या है जिसकी वजह से कोई तुझे प्यार करे? मेरी तो समझ में नहीं आता, लाख कोशिशों के बावजूद तेरी पर्सनैलिटी डेवलप क्यों नहीं हुई? कान खोलकर सुन ले, नीरज का नाम भी लिया तो मुझसे बुरा कोई नही होगा। वह कंगला मेरा दामाद बनने का सपना इसीलिए देख सका, क्योंकि तू मूर्ख है।"
उमड़ते आँसुओं के साथ स्मिता कमरे के पलंग पर ढह-सी गई थी। नीरज हमेशा कहता, स्मिता दूसरी लड़कियों से बिल्कुल अलग थी। उसका निष्पाप चेहरा, उसका भोलापन नीरज को कितना प्रिय है।
दूसरे दिन ही अमेरिका से प्रशान्त आ गया था। प्रशान्त की ख़ातिर में मम्मी ने कोई कसर नहीं उठा रखी। अकेले में स्मिता को अच्छी तरह चेतावनी दे डाली, अगर उसने जरा भी गड़बड़ की तो पापा-मम्मी उसे नहीं बख्शेंगे। यह उनके सम्मान का प्रश्न था। स्मिता की जरा-सी ग़लती से उनकी नाक कट जाएगी। प्रशान्त की हर बात का जवाब स्मिता हाँ-ना में देती रही, फिर भी स्मिता जैसी बेवकूफ लड़की प्रशान्त को पसन्द आ गई। प्रशान्त की 'हाँ' पर मम्मी फूली न समाई। पहली बार स्मिता को सीने से चिपटाकर प्यार किया। स्मिता के उदास चेहरे पर उनकी नजर ही कहाँ पड़ी थी! स्मिता ने पूरी रात जागकर काटी थी। नीरज के बिना वह जी नहीं सकेगी। सुबह तक वह निर्णय ले चुकी थी। मम्मी-पापा अगले सप्ताह उसके विवाह की तारीख तय कर, शादी की तैयारियों की सोच रहे थे, और आज ......... स्मिता की शादी भी हो गई। अचानक स्मिता काॅप उठी। मम्मी-पापा का रौद्र-रूप उसे डरा गया।
अब सबसे बड़ी समस्या स्मिता और नीरज के घरवालों को सूचना देने की थी। विशाल ने पहले स्मिता के घरवालों से आशीर्वाद लेने जाने की सलाह दी। स्मिता के पाॅव नहीं उठ रहे थे, पर नीरज ने कन्धे पर हाथ रखकर तसल्ली दी थी। रोहित ने साहस दिया -
"अगर तुम्हें स्वीकार नहीं किया जाए तो दुःखी मत होना। हम सब तुम्हारे साथ हैं।"
जैसी उम्मीद थी, स्मिता के साथ नीरज को देख, स्मिता की मम्मी की आँखों से चिनगारियाँ बरसने लगीं। नीरज के साथ माँ के पाँवों पर झुकने के प्रयास में वह गरज उठीं-
"तेरी यह हिमाकत? इस कंगले से ब्याह कर हमारी नाक कटा दी। दूर हो जा मेरी आँखों के सामने से। आज से तू हमारे लिए मर गई।"
"ऐसा न कहो, मम्मी! हम दोनों एक-दूसरे से बहुत प्यार करते हैं। अपना आशीर्वाद दे दो, मम्मी।" स्मिता की आँखों से आँसू बहने लगे।
"खबरदार जो मुझे मम्मी कहा! हाँ इतना याद रखना, अगर भूख से मर भी रही हो तो इस दरवाजे पर दस्तक देने मत आना।"
"क्षमा करें, ऐसा दिन कभी नहीं आएगा। स्मिता मेरी ज़िम्मेदारी है, उसे सुख देने का पूरा प्रयास करूँगा, मम्मी जी।" इस बार नीरज ने दृढ़ता से कहा।
"अरे, तुम जैसे बहुत देखे हैं। अचानक अमीर बन जाने के लिए स्मिता जैसी मूर्ख और धनी लड़की को फंसा लेना बहुत आसान होता है, पर तेरा यहाँ सपना कभी पूरा नहीं होगा।" स्मिता के पापा के शब्दों में नीरज के प्रति सा।फ़ हिकारत झलक रही थी।
"माफ़ करें, आप बड़े हैं इसलिए आपका यह अपमान सह रहा हूँ। आपने शायद ऐसे ही व्यक्ति देखे होंगे, जो धोखेधड़ी से अमीर बन जाते हैं। हम तो बस आपका आशीर्वाद लेने आए थे, आपके पैसों से हमें कुछ भी लेना-देना नहीं है। चलो स्मिता।"
"हाँ-हाँ! फौरन हमारी नज़रों के सामने से हमेशा-हमेशा के लिए दूर हो जाओ। इस कुलकलंकिनी का मैं मुँह भी नहीं देखना चाहता। अब ज्यादा देर रूके तो पता नहीं, मैं क्या कर डालूँ। यह लड़की हमारे लिए मर गई है।" गरजते स्मिता के पापा ने उन दोनों के मॅंुह पर ही दरवाज़ा जोरों से बन्द कर दिया।
स्मिता की आँखों से आँसू बह निकले। प्यार से आँसू पोंछ, नीरज ने समझाया -
"हम दोनों इस स्थिति के लिए तैयार थे, स्मिता। तुम्हारे मन की हालत समझता हूँ, पर विश्वास रखो, जीवन में कभी तुम्हें दुःख नहीं पहुँचाऊॅंगा। मुझ पर यकीन है, न?"
'हाँ' में सिर हिला, स्मिता ने विश्वास भरी दृष्टि से नीरज को गर्व से देखा था।
"अभी तो एक ही मंजिल तय की है, इससे भी बड़ी परीक्षा मेरे घर में देनी होगी। तैयार हो जाओ, स्मिता।" अन्दर से चिन्तित नीरज ऊपर से मुस्करा रहा था।
नीरज के घर तो तूफ़ान ही आ गया। माँ-बाप फटी-फटी आँखों से देखते रह गए। जिस बेटे पर उन्होंने आशा लगा रखी थी, उसने बिना इजाज़त, बिना दहेज, घर पर एक और बोझ लाद दिया था। दो जवान बहनों की शादी किए बिना, बेटा बहू ब्याह लाया। माँ ने छाती पीट-पीट कर कोहराम मचा दिया। बहू की आरती उतारने की जगह चैखट पार न करने की कसम दे डाली। नीरज की छोटी बहनें सुधा और रागिनी भी विस्मित थीं। दरवाजे पर खड़े भाई और भाभी को घर के अन्दर लाने के लिए उन्होंने ही पहल की। सुधा ने समझाया था-
"माँ, जो हो गया सो हो गया। अब भइया-भाभी को दरवाजे पर खड़ा रखकर जग-हॅंसाई न कराओ।"
"हाँ, भाग्यवान। हमारी किस्मत में जो था, सो हो गया। अब उन्हें घर के अन्दर आने की इजाजत दे दो, नीरज की माँ।" धीमी आवाज में पिता ने कहा।
पड़ोसियों की भीड़ जमा देख, नीरज की माँ दरवाजे से पीछे ज़रूर हो गई, पर आग्नेय दृष्टि से स्मिता को देखकर अपशब्दों की बौछार करती रहीं। आँसुओं से धुंधली आँखों के साथ स्मिता ने श्वसुर-गृह में प्रवेश किया था। क्या इसी स्वागत के उसने सपने देखे थे?
नीरज और स्मिता के रहने के स्थान की समस्या थी। दो कमरों के घर में उनके लिए अलग कमरा कहाँ से मिलता। सुधा और रागिनी ने स्टोर का सामान इधर-उधर कर, एक खाट स्टोर में डाल दी।
गुलाब और बेले की लड़ियों से महकते सुवासित सुहाग-कक्ष की जगह मसालों और पुराने सामान की गन्ध थी। संकुचित नीरज, स्मिता की दुविधा समझ रहा था। प्यार से स्मिता को आलिंगन मे ले, नीरज ने क्षमा-सी माँगी थी-
"ऐसे सुहाग-कक्ष की तुम कल्पना भी नहीं कर सकती थीं, स्मिता। यकीन रखो, एक दिन हमारी ज़िन्दगी में गुलाब की सुगन्ध जरूर होगी। मुझे माफ़ कर सकती हो?"
"यह क्या कह रहे हो? तुम्हारे साथ मुझे काँटों की सेज भी स्वीकार है। तुम्हारे साथ काँटे भी फूल बन जाएँगे। बस हमें तुम्हारा प्यार चाहिए।" भावभीने शब्दांे में स्मिता ने कहा।
"मेरे प्यार पर बस तुम्हारा नाम लिखा है, स्मिता। हम दोनों मिलकर ज़िन्दगी को स्वर्ग बनाएँगे। एक दिन हमारे जीवन में सुनहरा सवेरा जरूर आएगा।" विश्वास से नीरज ने कहा।
    "हमारी जिन्दगी में तो सुनहरा सवेरा आ ही गया है, नीरज। तुम मेरे सूरज हो।"
"वाह! अब तो मेरी स्मिता प्यारपगी बातें बनाने लगी हैं।"
नीरज के वक्ष में मॅंुह छिपा, स्मिता गौरैया-सी दुबक गई।
रोहित के घर से वापस लौटते विशाल ने ऋचा से अपना मेहनताना माँग डाला-
"आज का पूरा दिन आपके नाम समर्पित रहा, मोहतरमा, हमारी फ़ीस?"
"ओह गाॅड, तुम तो बड़े स्वार्थी वकील हो, उपकार या परोपकार नाम का शब्द शायद जनाब की डिक्शनरी में ही नहीं है? कहिए, क्या फ़ीस चाहिए?"
"जो माँगू मिलेगा? वादा करती हैं?"
"हाँ वादा करती हूँ। आज आपने इतनी मदद की है, बदले में कुछ दे सकॅंू तो हिसाब बराबर हो जाएगा।"
"अब जब बात हिसाब-किताब की आ गई तो अपना मेहनताना आप पर उधार छोड़ता हूँ। कभी ठीक वक्त पर मय-सूद वसूल लूँगा। "
"बड़े पक्के हिसाबी हैं, आप। चलिए, आज हमारी ओर से एक-एक आइसक्रीम हो जाए।" ऋचा खुश दिख रही थी।
"आपसे आइसक्रीम नहीं, पूरी दावत लूँगा। आखिर आपकी सहेली की शादी में मैं भी एक गवाह था।"
"जरूर! भगवान् करे सब ठीक रहे।"
"सच्चे प्रेमी हर तकलीफ़ हॅंसकर सह लेते हैं। वे दोनों बहादुर प्रेमी हैं। उनकी चिन्ता छोड़कर अपने पर ध्यान दीजिए।"
"सचमुच, प्रेम में बड़ी ताकत होती है, वरना स्मिता जैसी डरपोक लड़की भला इतना बड़ा कदम उठा पाती? भगवान् उसे सुखी रखें।" ऋचा ने सच्चे मन से कामना की थी।
"चलिए, आज का दिन हमेशा याद रहेगा। वैसे एक सलाह है, अब परोपकार छोड़कर पढ़ाई पर ध्यान दीजिए। बहुत कम दिन बचे हैं, परीक्षा में पहले नम्बर पर आना है न?"
"सलाह के लिए शुक्रिया। आज ही से जुट जाती हूँ। आपके लिए भी हमारी यही सलाह है।"
हॅंसते हुए दोनों ने विदा ली थी। प्रेस में नीरज व स्मिता की शादी की एक छोटी-सी सूचना बनाकर छपने को दे दी। घरवालों का सहयोग मिलने पर प्रेमियों का उत्साह दुगुना हो सकता था। काश, परिवार वाले अपने बच्चों की खुशी के लिए अपना अहम् छोड़ पाते?
घर पहुँंची ऋचा ने माँ के कामों में हाथ बॅंटाना शुरू कर, माँ को खुश कर दिया।
"क्या बात है, आज बड़ी खुश दिख रही है?"
"हाँ, माँ, आज स्मिता और नीरज की शादी हो गई।"
"क्या...... क्या........ ? कल शाम तक तो ऐसी कोई बात नहीं थी?"
"हाँ, माँ, सब कुछ जल्दी में हो गया।"
"देख ऋचा, तू तो ऐसा नहीं करेगी न? हमारी मर्जी के बिना कोई गलत कदम मत उठाना।"
"हाँ, माँ, अगर ऐसा वक्त आया तो तुम्हारी इजाज़त लेकर ही शादी करूँगी।" हॅंसती ऋचा ने माँ के गले में बाँहें डाल दीं।
ऋचा सोच रही थी, स्मिता की नई सुबह कैसी होगी? क्या नीरज के घरवाले स्मिता को स्वीकार कर लंेगे? अचानक ऋचा को विशाल की बात याद हो आई। अब सचमुच उसे पढ़ाई में जुट जाना चाहिए। अब स्मिता का अपना जीवन है, उसके साथ नीरज जैसा जीवनसाथी है। दोनों को अपनी लड़ाई खुद जीतनी होगी। ऋचा किसी की बैसाखी नहीं बनेगी।
ऋचा ने पूरे मन से पढ़ाई शुरू कर दी। स्मिता ने अभी कॅालेज आना शुरू नहीं किया था। अखबार के दफ्तर में भी ऋचा कम समय दे पा रही थी, पर विशाल उससे किसी-न-किसी बहाने मिल ही लेता। विशाल का साथ ऋचा को अच्छा लगता। स्मिता की लम्बी गैरहाजिरी ऋचा को परेशान करती, जो भी हो, उसे फ़ाइनल परीक्षा देनी ही चाहिए। नीरज से पूरे समाचार नहीं मिल पा रहे थे। अचानक एक दिन ऋचा ने स्मिता के घर की ओर अपनी साइकिल मोड़ दी।
घर के बाहर से ही स्मिता की सास के कटु शब्द सुनाई दे रहे थे। बेटे को जाल में फंसाने वाली बहू का अपराध अक्षम्य था। एक तो शादी में दहेज तो दूर की बात, बर्तन-कपड़े तक नहीं मिले, उसपर घर के कामकाज में कोरी बहू को लेकर क्या उसकी आरती उतारेंगी?
नीरज की माँ के बड़े-बड़े अरमान थे। बेटे की शादी में ढेर-सा पैसा आएगा, उससे बेटियों के ब्याह का बोझ हल्का हो जाता। यहाँ तो कमानेवाला एक, उसपर एक और बोझ आ गया। नीरज ने शाम को काम करना शुरू कर दिया था, पर तनख्वाह तो एक माह बाद ही मिलेगी। ऋचा का मन भर आया। लाड़-प्यार में पली बेटी की यह दुर्दशा? दरवाजा ठेल, ऋचा अन्दर चली गई। उसे देख नीरज की माँ ने सुर बदल लिया, पर मन का आक्रोश चेहरे पर लिखा हुआ था।
ऋचा से चिपटकर स्मिता रो पड़ी। ऋचा की भी आँखे भर आई। अपने को सहेज ऋचा ने स्मिता के आँसू पोंछ दिए।
"तू कॅालेज क्यों नहीं आती, स्मिता?"
"मना कर दिया गया है।"
"क्यों, स्मिता? तेरा फाइनल इअर है, नीरज ने भी कुछ नहीं कहा?"
"घर में इतना क्लेश है कि वह परेशान हैं। कहते हैं, इस साल चुप रहो, अगले साल इम्तिहान दे देना। तब तक उन्हें भी नौकरी मिल जाएगी।"
"नहीं, स्मिता, एक्ज़ाम तो तू इसी साल देगी, मैं नीरज से बात करूँगी।" दृढ़ता से ऋचा ने कहा।
"सच, ऋचा? क्या यह हो सकेगा?" स्मिता की आँखे चमक उठीं।
"अगर यहाँ रहना मुश्किल है तो तुम दोनों रोहित के आउट-हाउस में क्यों नहीं चले जाते?"
"नीरज कहते हैं, माँ-बाप को पहले ही उनकी वजह से बहुत तकलीफ़ पहुँची है, अब अलग होकर और दुःख नहीं दे सकते। अभी उनका वेतन भी इतना नहीं कि हम दोनों गुजारा कर सकें।"
"तू कहीं कोई काम क्यों नहीं कर लेती? जानती है, मैट्रिक के बाद से मैंने अपनी पढ़ाई बच्चों की ट्यूशन्स लेकर पूरी की है। आज भी अखबार के दफ्तर में पार्ट-टाइम काम करके पैसा कमा रही हूॅ।"
"तेरी बात और है, ऋचा। हममें उतनी हिम्मत जो नहीं है।" स्मिता दयनीय हो आई।
"हिम्मत नहीं है, तो हिम्मत पैदा कर। देख, अपने लिए संघर्ष अब तुझे खुद करना है। यहाँ तक आ गई है तो आगे का रास्ता तुझे खोजना ही होगा। दूसरों की दया पर कब तक आश्रित रहेगी? आँसू ढलकाने से कुछ नहीं मिलने वाला।"
"तू ठीक कह रही है, ऋचा। नीरज की बहिन सुधा की शादी दहेज के कारण रूकी हुई है। अगर हम भी कमाएँगे तो घर में चार पैसे आएँगे। हम भी कहीं काम करेंगे।"
"सिर्फ तू ही क्यों? तेरी दोनों ननदों ने ग्रेज्युएशन किया है, वे भी कहीं काम कर सकती हैं। आजकल लड़के भी कामकाजी लड़कियों से शादी करना चाहते हैं, ताकि घर का आर्थिक स्तर ऊपर उठ सके।"
"आप ठीक कह रही हैं, ऋचा दीदी। हम भी काम करना चाहते हैं, पर अम्मा कहती हैं, लड़की कमाएगी तो दुनिया वाले उॅंगली उठाएँगे।" अचानक शर्बत लिए आती सुधा ने दोनों को चैंका दिया। सुधा के पीछे रागिनी भी आई थी।
सुधा और रागिनी दोनों ही समझदार युवतियाँ थीं। सौम्य-शान्त सुधा के विपरीत रागिनी के चेहरे पर चंचलता थी।
"सच, ऋचा जी। आपने तो हमारी आँखें खोल दीं। अब हम दोनों काम करेंगे।" रागिनी दृढ़ थी।
"स्मिता भाभी, आप भी कल से कॅालेज जाइए, हम अम्मा को समझा लेंगे।" सुधा ने गम्भीर स्वर में अपनी बात कही।
"ऋचा, मेरी ये दोनों ननदें ही मेरा सहारा हैं। तू तो जानती हैं, हमने घर के कामकाज कभी नहीं किए, पर यहाँ इनकी मदद से घर के कामकाज सीख रही हूँ।"
"नहीं, भाभी, अब आप घर के काम नहीं करेंगी, बल्कि मन लगाकर पढ़ाई करेंगी और परीक्षा दंेगी।" सुधा ने प्यार से कहा।
"हाँ, भाभी, अब हम सब मिलकर नौकरी तलाश करेंगे। जानती हैं, ऋचा जी, हमें भी लगता है, हम घर में बेकार बैठकर समय नष्ट कर रहे हैं।" रागिनी उत्साहित थी।
"तुम दोनों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। तुम्हारी भाभी भाग्यवान है, इसे इतनी अच्छी ननदें मिलीं। स्मिता, कल कॅालेज में तेरा इन्तजार करूँगी।"
बड़े हल्के मन से ऋचा घर लौटी। सुधा और रागिनी से बातें करके उसके मन में आशा जाग गई। स्मिता के कॅालेज आने की आशा बन गई थी। कल शाम विशाल ने गार्डेन में मिलने जाने का वादा ले लिया था। घर में रोहित को अपने इन्तजार में बैठा पा ऋचा आश्चर्य में पड़ गई। ऋचा के पहुँचने पर माँ ने शंकाभरी दृष्टि दोनों पर डाली थी।
"अरे, रोहित, यहाँ अचानक?"
"हाँ, ऋचा, मैं यह शहर छोड़कर जा रहा हूँ। तुम्हें एक सनसनीखेज खबर देनी थी, सोचा, इसी बहाने तुमसे मिलना भी हो जाएगा।"
"माँ, रोहित आज यहीं खाना खाएँगे।" ऋचा ने माँ को वहाँ से हटाने में ही भलाई समझी।
"वैसे माँ ने तुम्हारी गैरहाजिरी में मेरा पूरा पोस्टमार्टम कर डाला। उन्हें डर है, शायद हमारे बीच प्रेम-वेम का कोई चक्कर है।" रोहित हॅंस रहा था।
"तब तो तुम्हें खाना खिलाना भारी पड़ेगा। हाँ बताओ, क्या खबर है?"
"कल सुनीता को उसके पति और घरवालों ने मिलकर जलाकर मार डालने की कोशिश की। वह 'मेरी माउंट हाॅस्पिटल' में बेहोशी की हालत में एडमिट है।"
"अरे सुनीता तो नर्स है, उसके साथ ऐसा क्यों, रोहित?"
"हाँ, ऋचा। बड़ी दुःख भरी कहानी है सुनीता की। उसके घर में एक विधवा माँ और दो छोटे भाई-बहिन हैं। विवाह के पहले सुनीता ही घर के दायित्व निभाती थी। छोटा भाई अभी बारहवीं पास करके टाइपिंग सीख रहा है। साथ में स्टेनोग्राफ़ी का कोर्स भी कर रहा है। बहिन दसवीं में पढ़ रही है।"
"ओह!, तब तो सुनीता पर ही परिवार का दायित्व है ।
हां ऋचा, सुनीता चाहती थी, उसके भाई की नौकरी लग जाए, उसके बाद ही वह शादी करे, पर राकेश ने जल्दी शादी के लिए दबाव डाला। उस वक्त तो उसने बड़ी-बड़ी बातें की थीं कि सुनीता अपना वेतन पहले की तरह अपने घर में देती रहेगी, पर शादी के बाद उसने रंग बदल दिया कि वह अपना वेतन उसे दे। सुनीता ने ऐसा करने से मना कर दिया। बस उसकी मनाही से उसपर अत्याचार शुरू हो गए।"
"अरे, यह तो अन्याय है, पहले तो पति ने वादा किया, बाद मे अपनी ही बात से पीछे हट गया।" ऋचा उत्तेजित थी।
"इतना ही नहीं, सुनीता नर्स है। कभी-कभी ज्यादा काम होने की वजह से उसे देर रात तक ड्यूटी करनी पड़ती है। देर से आने पर सास, सुनीता के चरित्र पर लांछन लगाकर, अपशब्द कहती और पति सुनीता को बेरहमी से पीट डालता।"
"सुनीता का अभी क्या हाल है, रोहित?"
"30ः जल गई है, वह तो पड़ोसियों ने उसकी चीखें सुनकर पुलिस में खबर कर दी, वरना सुनीता की राख ही मिलती। "
"हाँ, और हमेशा की तरह कह दिया जाता कि बेचारी किचेन में गैस या स्टोव के फटने से जल गई। मैं समझती थी, आत्मनिर्भर स्त्री की स्थिति बेहतर होती है, पर सच तो यह है कि औरत आज भी औरत ही है।"
"अब इस केस में तुम क्या करोगी, ऋचा?"
"सुबह होते ही सुनीता से मिलने जाऊॅंगी। अगर वह बात करने लायक हुई तो पूरी बात अखबार में छापॅंूगी, रोहित। थैंक्स फाॅर दि इन्फ़ाॅर्मेशन।"
"हाँ, अभी तो मैं वहीं से आ रहा हूँ। डाॅक्टर ने किसी को भी अन्दर जाने की इजाज़त नहीं दी है। वैसे पुलिस का पहरा है और सुनीता की सास मगरमच्छ के आँसू बहा रही है।"
"तुम कहाँ जा रहे हो, रोहित। तुम्हारी कमी बहुत महसूस होगी।" अचानक ऋचा को रोहित जा रहा है, याद हो आया।
"पापा चाहते हैं, अब मैं उनके काम में हाथ बटाऊॅं। वैसे भी फ़ाइनल एक्जाम्स के बाद यहाँ और रूकने का कोई अर्थ नहीं है।"
"क्यों, तुम्हारी लोकप्रियता तुम्हें नेता बना सकती थी, रोहित। तुम नेता बन जाते तो हमारा भी भाव बढ़ जाता।" ऋचा ने मजाक किया।
"तुम्हारा भाव तो आज भी खूब है। ऋचा से न सही, ऋचा के पत्रकार से तो लोग डरते ही हैं।"
तभी आकाश ने आकर खाना तैयार होने की सूचना दी थी। आजकल घर में बड़ी बहिन आई हुई थीं। दीदी के रहने से ऋचा की किचेन से छुट्टी हो जाती। दीदी और माँ की अच्छी पटती थी। अपनी इस बड़ी बहिन के लिए ऋचा के मन में बड़ी हमदर्दी और प्यार था। इस बार वह बहिन के पीछे पड़ी थी कि वह प्राइवेटली आगे की पढ़ाई करे और साथ में सिलाई का डिप्लोमा भी ले ले। अगर इला दीदी डिप्लोमा ले लेंगी तो उसे कहीं सिलाई-टीचर का काम मिल सकता है। घर के कामों के लिए कोई कामवाली रखी जा सकेगी। इला को ऋचा की बातों की सच्चाई समझ में आने लगी थी। क्या वह टीचर बन सकती है। सिलाई-कढ़ाई में इला शुरू से रूचि लेती रही है। श्वसुर-गृह में उसका काशीदाकारी किया गया सामान लोगों ने खूब सराहा था। ऋचा रोज बैठकर इला को अपने पाँवों पर खड़ी होने के सपने दिखाती। अगर कभी उन दोनों की बातों के कुछ शब्द माँ के कानों में पड़ जाते तो वह इला को चेतावनी दे डालती-
"ऋचा की बातों में आकर अपनी जिन्दगी मत खराब कर डालना, इला। तू अपनी ससुराल में जैसे रहती है वैसे ही रह। अरे, हम औरतों का तो धरम ही सेवा करना है।"
"हाँ-हाँ, अपनी जिन्दगी होम करके निष्क्रिय बैठे रहना ही औरत का धर्म है। हिन्दुस्तान की आधी आबादी इसी तरह घर में रहकर धर्म निभाती है। अगर औरतें भी काम करें, पैसे कमाएँ तो अपने घर का स्तर ऊंचा उठा सकती हैं।" ऋचा उत्तेजित हो उठती।
माँ के चले जाने के बाद इला ने धीमी आवाज में कहा था -
"तू ठीक कहती है, ऋचा। काश, मुझमें भी तेरी जैसी आग होती, पर अब मैं पढूँगी, सिलाई में डिप्लोमा लेकर टीचर बनूँगी।"
"सच, दीदी, पर इस काम के लिए जीजा जी और तेरे ससुराल वाले इजा।ज़त देंगे?"
"नहीं देंगे तो भूख-हड़ताल करूँगी, जैसे तूने पत्रकारिता कोर्स में प्रवेश के लिए की थी।"
दोनों बहिनें हॅंस पड़ीं। ऋचा को विश्वास हो गया, इला दीदी अब जरूर पढ़ेंगी। घरवालों का विरोध भी सह सकेंगी।
रोहित ने जी खोलकर खाने की तारीफ की थी। इला दीदी का चेहरा खुशी से चमक उठा। हॅंसकर कहा था-
"तुम्हारी अभी शादी नहीं हुई है। बाहर का खाना खाते हो, इसीलिए घर का खाना अच्छा लगता है।"
"नही दीदी, आप सचमुच अच्छी पाक-विशेषज्ञा हैं, अपनी बहिन को भी अपना यह गुण सिखा दीजिए। यह तो टाॅम ब्वाॅय बनी घूमती है। मुझे तो इसके होनेवाले पति की चिन्ता है।" रोहित ने मज़ाक किया था।
"देखो रोहित, तुम्हें हमारे लिए इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। मैं ऐसा पति खोजॅंूगी जो तुम्हारी तरह खाने का शौकीन न हो। " ऋचा ने गुस्सा दिखाया।
हॅंसते हुए रोहित ने विदा ली। उसके जाने के बाद इला दीदी ने दबी आवाज में ऋचा के मन की बात जाननी चाही थी-
"सच कह ऋचा, रोहित और तेरे बीच प्रेम का चक्कर तो नहीं? अगर वैसी कोई बात है तो हम माँ को मना लेंगे। रोहित अच्छा लड़का है।"
"मेरी भोली दीदी, रोहित बहुत अच्छा लड़का है, पर वह हमारा बस एक अच्छा दोस्त भर है। ज़िन्दगी में प्रेम के अलावा दूसरे रिश्ते भी हो सकते हैं। अब तुम सो जाओ।"
बिस्तर पर लेटते ही ऋचा के दिमाग में जली हुई सुनीता की तस्वीर उभरने लगी। सुनीता से ऋचा का परिचय अस्पताल में हुआ था। वहीं उसने जाना, सुनीता और रोहित पड़ोसी थे। सौम्य सुनीता के व्यवहार ने ऋचा को प्रभावित किया था। साइकिल से गिर जाने की वजह से ऋचा के पैर में चोट लग गई थी। फ़स्र्ट-एड कराने के साथ टिटनेस का इन्जेक्शन लगवाना जरूरी था। कभी-कभी सड़क की मामूली चोट भी ख़तरनाक सिद्ध हो सकती है। सुनीता के व्यवहार में एक अपनापन था। उसके बाद आकाश और माँ को जब भी जरूरत हुई, ऋचा ने अस्पताल में सुनीता की मदद ली थी। ऋचा को हमेशा सुनीता के चेहरे पर एक उदासी की छाया तैरती लगती। तीन वर्ष के एक बेटे की माँ सुनीता को क्या दुःख हो सकता है! रोहित से जब चर्चा की तो उसने बताया था, सुनीता के साथ उसके पति और घरवालों का व्यवहार ठीक नहीं रहता। अक्सर रातों में उसके घर से सुनीता की चीखें सुनाई पड़तीं। ऋचा ने रोहित से कहा था, वह सुनीता से बात क्यों नहीं करता? रोहित का सीधा जवाब था, एक युवक की दखल-अन्दाज़ी सुनीता की ज़िन्दगी की मुश्किलें और बढ़ा देंगी। रोहित की बातों में सच्चाई थी। ऋचा ने एकाध बार सुनीता से जानना चाहा, पर उसने बात टाल दी। कल सुबह कॅालेज जाने के पहले उसे अस्पताल जाना ही होगा।
सुनीता के वार्ड के बाहर पुलिस कांस्टेबल के साथ सुनीता का पति राकेश और उसकी माँ दुःखी चेहरा लिए बैठी थीं। कांस्टेबल ने सुनीता को रोकना चाहा, पर जवाब में सुनीता ने डाॅक्टर की अनुमति दिखा दी। वह पत्रकार है, सुनते ही राकेश के चेहरे पर घबराहट आ गई।
"देखिए, मेरी बीवी एक जबरदस्त हादसे से गुजरी है। उसे आराम की ज़रूरत है। आप अन्दर नहीं जा सकतीं।"
"उसको आराम की ज़रूरत है, आप यह बात समझते है।, राकेश जी?" किंचित् व्यंग्य से अपनी बात कहती ऋचा कमरे में चली गई।
सुनीता आँखें खोले छत को ताक रही थी। ऋचा की आहट पर उसने दृष्टि घुमाकर देखा था। ऋचा ने प्यार से सुनीता के माथे पर हाथ धरा तो उसकी आँखों से झरझर आँसू बह निकले। तभी पीछे से राकेश कमरे में आ गया।
"देखिए, आप पत्रकार हैं, इसका यह मतलब नहीं कि आप सुनीता को उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाएँ।"
"आपने यह क्यो ंसोचा कि मैं सुनीता को कुछ उल्टा-सीधा सिखाने आई हूँ, जबकि कुछ गड़बड़ हुआ ही नहीं है, मिस्टर राकेश। क्यों, ठीक कह रही हूँ न?"
"नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था..........." राकेश सकपका गया।
"आपका मतलब अच्छी तरह समझती हूँ। यहाँ आने के पहले इन्स्पेक्टर अतुल को ख़बर कर दी है, वह किसी भी समय यहाँ पहुँचने वाले हैं। अच्छा हो, आप कमरे के बाहर चले जाएँ, वरना आपकी शिकायत करनी होगी।"
सुनीता पर आग्नेय दृष्टि डाल, राकेश ने चेतावनी-सी दे डाली-
"एक बात याद रखना, इन लोगों के कहने से उल्टा-सीधा बयान मत देना। अर्जुन का ख्याल रहे।"
सुनीता सिहर-सी गई। राकेश की बात का अर्थ ऋचा अच्छी तरह से समझ गई। सुनीता का बेटा अर्जुन से हाथ धो बैठेगी। राकेश के बाहर जाते ही ऋचा ने सुनीता को हिम्मत दी थी।
"देखो सुनीता, अन्याय सहते रहना अपराध है। अन्यायी को दण्ड दिलाना ही न्याय है, भले ही वह तुम्हारा अपना पति हो।"
"मेरी कुछ समझ में नहीं आता। वह मुझे छोड़कर दूसरी शादी कर लेगा। मेरे बेटे का क्या होगा?" कठिनाई से अपनी बात कहकर सुनीता रो पड़ी।
"सच यही है न कि तुम्हारे पति ने तुम्हें जलाकर मार डालने की कोशिश की थी? तुम्हारे पड़ोसियों ने तुम्हारी मदद की वरना आज तुम्हारी जगह तुम्हारी राख ही बची होती।"
निःशब्द सुनीता की आँखों से आँसू बहते रहे। पति की धमकी सच बयान देने से रोक रही थी।
"देखो सुनीता, यूँ आँसू बहाने से कोई फ़ायदा नहीं होनेवाला। आज तुम बच गई हो, पर कल किसी और तरीके से तुम्हें ख़त्म किया जा सकता है। अपने बेटे की ख़ातिर तुम्हें उस नरक से बाहर आ जाना चाहिए। तुम नर्स हो, अपने वेतन से तुम अपने बेटे को एक खुशहाल जिन्दगी दे सकती हो।"
ऋचा की बात से सुनीता के चेहरे पर आशा की झलक दिखाई दी थी। ठीक ही तो कह रही है ऋचा, हर रोज घर आने पर पति और सास उसे प्रताड़ित करने का कोई-न-कोई बहाना खोज ही लेते। माँ को पिटते-रोते देख, नन्हा अर्जुन कैसे सहम जाता है! इस महीने तो वेतन का पैकेट सुनीता से छीन लेने के बावजूद शराब के नशे में पति ने उसे रूई-सा धुन डाला था, क्योंकि सुनीता ने आधा वेतन अपनी माँ को देने की मनुहार की थी। उसकी माँग उसका अपराध समझा गया था। अर्जुन के माँ से लिपट जाने के कारण, पति ने उसे भी थप्पड़ मारकर ढकेल दिया था। अर्जुन की पिटाई का विरोध करने पर सास ने उकसाया था-
"अरे, कब तक इसे झेलेगा? रोज की खिचखिच से अच्छा होगा, इसे ख़त्म कर डाल। तेरे लिए रिश्तों की क्या कमी है? कमाऊ जवान है तू।"
माँ की बात से बढ़ावा पाकर केरोसिन का डिब्बा उठा, सुनीता पर उॅंडे़ल दिया था। गनीमत यही थी, डिब्बे में थोड़ा-सा केरोसिन बाकी था वरना ...... सुनीता काँप उठी। तभी इन्स्पेक्टर अतुल आ गए थे।
"कहिए ऋचा जी, कोई सफलता मिली? सच्चाई यही है कि अक्सर महिलाएँ ऐसे ससुराल वालों के सम्मान की रक्षा में झूठा बयान देती हैं, जिन्होंने उन्हें जलाकर ख़त्म करने की कोशिश की हो, बदनाम हम पुलिस वाले होते हैं कि पैसा लेकर हमने केस दबा दिया।"
"आपकी बात से मैं सहमत हूँ। ताज्जुब इसी बात का है कि जो औरतें खुद नहीं कमातीं, अगर वे ससुराल से निकाली जाने के डर से सच्चाई छिपाएँ तो बात कुछ समझ में आती है, पर सुनीता जैसी आत्मनिर्भर औरतें भी सच्चा बयान देने में हिचकती हैं। क्यों सुनीता, क्या मैं गलत कह रही हूँ?"
"अगर मैं सच्चाई बताऊॅं तो मेरा बेटा मुझसे अलग तो नहीं किया जाएगा?"
"हम तुम्हें पूरा न्याय दिलाने की हर सम्भव कोशिश करेंगे, सुनीता।"
"अगर तुम्हारी कोशिश कामयाब न हुई तो?"
एक प्रश्न-चिहन सबके सामने उभरकर आ गया।
"मुझे लगता है, हमारा कानून तुम्हें न्याय देगा।" अतुल ने तसल्ली दी।
"अपने डर की वजह से तुम फिर उसी नरक में जाने को तैयार हो, सुनीता?" ऋचा ने सीधा सवाल किया।
"नहीं......... ई ई ....... पर, मेरा बेटा?"
"बेटे के भविष्य के लिए ही तुम्हें सच्चाई बतानी चाहिए, सुनीता।"
इन्स्पेक्टर अतुल और ऋचा के चेहरों पर नजर डाल, सुनीता ने निर्णय ले डाला। उसपर किए गए अत्याचारों के पड़ोसी गवाह हैं। मीना दीदी ने तो कई बार कहा, सुनीता को अलग हो जाना चाहिए। वह उसके समर्थन में कचहरी में गवाही देंगी। पड़ोसियों की हर जरूरत के वक्त सुनीता ने मदद की है, इसीलिए उनकी हमदर्दी उसके साथ है। अब सुनीता को सच्चाई से नहीं भागना चाहिए। दृढ़ स्वर में सुनीता ने कहा-
"मैं आपको सच्चाई बताने को तैयार हूँ, पर मेरी और मेरे बेटे की रक्षा की जिम्मेदारी आपको लेनी होगी, इन्स्पेक्टर।"
"मुझे मंजूर है।" इन्स्पेक्टर अतुल ने बयान दर्ज करना शुरू किया था।
पूरी घटना सुनकर ऋचा सन्न रह गई। एक पति इतना क्रूर कैसे हो सकता है! जिस पत्नी के साथ वह रातों में सोया, जिसके साथ उसे यौन-तृप्ति मिली, वह निर्ममता से उसका जीवन ख़त्म कर सकता है! सुनीता भी तो राकेश के बच्चे की माँ बनी थी। पति के सुख के लिए सुनीता ने क्या नहीं किया? क्यों एक औरत दूसरी औरत का दर्द नहीं समझ पाती? राकेश की माँ को अपने बेटे का दर्द है, पर सुनीता की ममता का उसे कोई ख्याल नहीं है। ठीक कहा जाता है, औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन है। पति की उपेक्षिता पत्नी को तो अक्सर भरपेट खाना भी नहीं मिलता। ऐसी स्थितियों मंे सास को बहू नहीं, मुफ्त की नौकरानी मिल जाती है। बेटे को बहू के विरूद्ध भड़काते रहने से सास का वर्चस्व बना रहता है। सुनीता के मामले से यह सिद्ध हो गया कि अपने पाँवों पर खड़ी स्त्रियों की स्थिति भी उतनी ही दयनीय हो सकती है। अचानक घड़ी पर निगाह पड़ते ही ऋचा चैंक गई। आज कॅालेज का आखिरी दिन है। स्मिता के कॅालेज आने की बात है। वह पहले ही लेट हो चुकी है। इन्स्पेक्टर अतुल से क्षमा माँग, वह कालेज जाने के लिए खड़ी हो गई।
"इन्स्पेक्टर, अब सुनीता को न्याय आपको दिलाना है। बाहर इनके पति और सास बैठे है। उनके साथ आपको क्या करना है, आप जानते हैं।"
"ठीक है। हाँ, सुनीता के बयान की आप भी एक साक्षी रहेंगी।"
"ज़रूर। सच्चाई का मैंने हमेशा साथ दिया है और देती रहूँगी।" सुनीता को तसल्ली देकर, ऋचा ने कॅालेज की ओर रूख किया।
स्मिता को क्लास में देख, ऋचा खिल गई। स्मिता के चेहरे की व्यग्रता भी गायब हो गई थी।
"अच्छा तो हमारी स्मिता को कॅालेज आने की इजाज़त मिल ही गई?"
"हाँ, ऋचा। तेरी बातों का सुधा और रागिनी पर ऐसा असर हुआ कि दोनों माँ के सिर हो गई। बाबू जी तो पहले ही सीधे-सादे इन्सान हैं। उन्हें कोई ऐतराज नहीं था, पर माँ जी को मना पाना, मेरी ननदों के लिए ही सम्भव था।"
"चल, यह एक सुखद शुरूआत है। भगवान् को धन्यवाद दे कि तेरी ननदें समझदार हैं, वरना जिन परिस्थितियों में तेरी शादी हुई उसमें सभी अपना योगदान देकर, आग में घी डालने का काम करते हैं। सास, ननद और जेठानी यही तो नई ब्याहली के विरूद्ध मोर्चा-बन्दी करती हैं?"
"तू ठीक कहती है, पर मेरी ननदें अपवाद हैं। सास जी की भी अपनी मजबूरियाँ हैं। बाबू जी की छोटी-सी आय में परिवार चलाना और दो-दो बेटियों के ब्याह निबटाने की चिन्ता उन्हें खाए जाती है।"
"घबरा नहीं, यह एक अस्थायी स्थिति है। कुछ दिनों के बाद नीरज को अच्छी नौकरी मिल जाएगी। हाँ, अब तू भी नौकरी तलाश कर। कोई भी नौकरी कर ले, कहे तो अखबार के दफ्तर में काम देखॅंू?"
"ना .....ना, हमने न जाने क्यों जर्नलिस्म में एडमीशन ले लिया। हम इस प्रोफेशन के लिए बिल्कुल फ़िट नहीं हैं।"
"तब तो तूने बेकार एक सीट खराब की। अच्छा होता, प्रशान्त के साथ शादी करके अमेरिका जाकर मजे उड़ाती।" ऋचा ने परिहास किया।
"धत्, उसके पहले तो हम मर ही जाते। हम जैसे भी हैं, खुश हैं। नीरज हमें बहुत चाहते हैं।" स्मिता के चेहरे पर जरा-सा गर्व छलक आया।
"अच्छा-अच्छा, अब अपना नीरज-पुराण छोड़, चल आज क्लास के बाद कोई पिक्चर चलते हैं। कल से तो डटकर पढ़ाई करनी है।"
"नहीं, ऋचा। अगर हम देर से घर गए तो माँ जी नाराज होंगी। बेचारी सुधा और रागिनी को डाँट पड़ेगी।"
"ओह्हो, तो अब सुधा और रागिनी हमसे ज्यादा प्यारी हो गई? वैसे तेरी खुशी देखकर बहुत अच्छा लग रहा है। सोचती हूँ, मैं भी किसी से प्रेम-विवाह कर डालूँ।" हॅंसते हुए ऋचा ने कहा।
"तेरे मुँह में घी-शक्कर। देर किस बात की है, जरा इशारा कर, लाइन लग जाएगी।"
"अच्छा, अब बड़ी बातें करने लगी है। हाँ, इतने दिन तूने जो क्लासेज मिस किए हैं, मैंने नोट्स तेरे लिए जीराॅक्स करा दिए हैं। पढ़ डाल। याद रख, तेरा पास होना ज़रूरी है।"
"थैंक्स, ऋचा। तू हमारा कितना ख्याल रखती है। तेरी मदद से हम ज़रूर पास हो जाएँगे।"
क्लासेज के बाद नीरज स्मिता को लेने आ गया था। ऋचा ने नीरज को छेड़ा-
"अब हम लोगों को भुला ही दिया। आज स्मिता आई है तो आप दिखाई दिए।"
"आपके पास हम जैसों के लिए समय ही कहाँ है? सुनते हैं, आज सवेरे-सवेरे भी आप किसी को इन्साफ़ दिलाने अस्पताल गई थीं।"
"हाँ, नीरज। बड़ी दुःख भरी कहानी है।" संक्षेप में ऋचा ने सुनीता के जलाए जाने की घटना सुना डाली। स्मिता काँप गई। दुनिया में ऐसे भी पति होते हैं? एक नीरज है, जो पूरे दिन पढ़ाई करने के बाद देर रात तक नौकरी करता है, ताकि स्मिता को कुछ सुख दे सके। नीरज पर प्यार-भरी दृष्टि डाल, स्मिता मुस्करा दी।
स्मिता के जाने के बाद ऋचा घर वापस लौटने ही वाली थी कि विशाल ने आकर चैंका दिया-
"अच्छा हुआ, आप पकड़ में आ गई, वरना मुझे अकेले ही भटकना पड़ता।" विशाल के चेहरे पर खुशी थी।
"अब भटकने का वक्त आप ही के पास होगा, वरना बाकी सब किताबों में डूब गए हैं।"
"ठीक कहती हैं। इन्सान अपने स्वभाव के व्यक्ति को तो पकड़ ही लेता है। इसीलिए तो सीधे चलकर आपके पास आया हूँ।"
"कहिए, क्या काम है?"
"सुभाष मैदान में हैंडीक्राफ्ट का मेला लगा है, आपके साथ एक चक्कर लगाने का मन है।"
"वाह रे आप और आपका मन! हमारे पास फालतू वक्त नहीं है।"
"सुबह-सुबह अस्पताल जा सकती हैं, घटनाओं की रिपोर्टिग कर सकती हैं, पर इस विशाल के लिए आपके पास दो घण्टों का भी वक्त नहीं है? हाय रे दुर्भाग्य!"
"आपके साथ बेकार मटरगश्ती करने और किसी मुसीबत में पड़े इन्सान की मदद करने में बहुत फर्क है, जनाब। वादा करती हूँ, मुश्किल के वक्त आपको शिकायत का मौका नहीं दूँगी।" सहास्य ऋचा ने जवाब दिया।
"तो समझ लीजिए, आज हम सख्त मुश्किल में हैं। घर से छोटी बहिन ने अपने लिए हैंडीक्राफ्ट आइटेम्स खरीदने की डिमांड लिख भेजी है। मैं इस मामले में एकदम अनाड़ी ठहरा, लड़कियों की पसन्द-नापसन्द से एकदम अनजान। प्लीज ऋचा, इस मुसीबत में पड़े इन्सान की मदद करो।"
विशाल के नाटकीय अन्दाज पर ऋचा को हॅंसी आ गई। वैसे भी ऋचा के पास अभी कुछ समय था। लौटते वक्त अखबार के दफ्तर में ही बैठकर सुनीता के केस की खबर लिखकर दे देगी।
सुभाष पार्क में काफी भीड़ थी। विभिन्न प्रदेशों के कलाकारों द्वारा बनाई गई कलात्मक वस्तुएँ सचमुच सुन्दर थीं। बड़े उत्साह से ऋचा वस्तुएँ देख रही थी, पर विशाल को उसमें ज्यादा रूचि नहीं थी। एक साड़ी पर बड़ी सुन्दर काशीदाकारी की गई थी। काशीदाकारी में कलाकार की रूचि झलक रही थी-
"वाह! यह तो कला का अनुपम नमूना है। तुम्हारी बहिन को यह साड़ी जरूर पसन्द आएगी।"
"ठीक है, साड़ी पैक कर दो।"
कुछ और छोटी-मोटी वस्तुएँ लेने के बाद नीरज को ठण्डा पीने की जरूरत महसूस होने लगी। शीतल पेय लेकर दोनों एक घने पेड़ की छाया में पड़ी कुर्सियों पर बैठ गए। अचानक माथे पर बड़ा-सा टीका लगाए, रामनामी ओढ़े पण्डित जी ने उन्हें आशीर्वाद देकर चैंका दिया-
"जोड़ी बनी रहे। वकील साहब मुकदमे जीत कर नाम कमाएँ और बिटिया अपराधियों को सजा दिलवाएँ। हमारा आशीर्वाद याद रखना।"
"अरे महाराज, आप तो अन्तर्यामी हैं। आपने कैसे जाना कि हम वकालत पढ़ रहे हैं।"
"हम तो बेटा, माथे की लकीरें और हाव-भाव देखकर मन की बात पता कर लेते हैं।"
"पर पण्डित जी, हमारी तो शादी नहीं हुई है और आपने जोड़ी बना डाली।" ऋचा हॅंस दी।
नहीं हुई तो हो जाएगी। तुम्हारी जोड़ी तो ऊपरवाले ने बनाकर भेजी है, पर बेटा, अपने अहम् को काबू में रखना। स्त्री का सम्मान करने वाला ही जीवन में सफल होता है।
दोनों को कुछ कहने का समय न दे, ज्योतिषी महाराज तेजी से चले गए। ऋचा और विशाल विस्मित देखते रह गए। कुछ देर मैं चैतन्य होते विशाल ने परिहास किया -
"सुन लिया, हमारी जोड़ी ऊपरवाले ने बनाकर भेजी है। अब क्या इरादा है, जनाब का?"
"रहने दो, हम सब समझते हैं। यह जरूर तुम्हारी चाल थी। कहो, ज्योतिषी को कितने पैसे दिए थे?"
"यकीन करो ऋचा। मैं ऐसी फिल्मी बातों पर विश्वास नहीं करता। मैं खुद ताज्जुब में हूँ।"
अचानक घॅंुघरू छनकाती एक युवती ने बड़े अदब से सलाम कर, नृत्य शुरू कर दिया। युवती ने रंगीन घाघरा-चोली पहन रखा था। साथ में एक युवक ढोल लिए था। ढोल की थाप पर युवती के पाँव थिरक रहे थे। लोगों की भीड़ आसपास मिसट आई। नृत्य समाप्त कर युवती ने माथे पर छलक आई पसीने की बॅंूदें चुन्नी से पोंछ डालीं। ढोल रखकर युवक ने लोगों के सामने झोली फैला दी। युवती ऋचा के पास आकर जमीन पर बैठ गई।
"तुम दिन भर में कितना कमा लेती हो?"
"हमें क्या पता, उससे पूछो।" युवती ने युवक की ओर इशारा कर दिया।
"क्यों तुम नाचती हो, मेहनत करती हो, पर तुम्हें यह भी नहीं पता कि तुम कितना कमाती हो?"
"ऐ मेम साहब, वह हमारी जोरू है। उसको कमाई से क्या मतलब? जल्दी पैसा देने का ....."
"क्यों, जोरू होने का मतलब कमाई से औरत का कोई मतलब नहीं?" ऋचा का पत्रकार फुँफकार उठा।
"ज्यादा बात नहीं करने का, तमाशा देखो, पैसा देना है तो दो नहीं तो राम-राम।" युवक ने ढोल उठाकर चलने का उपक्रम किया।
"अरे अरे, रूको भाई। ये लो।" जेब से दस रूपए निकालकर विशाल ने युवक की ओर बढ़ा दिए।
"यह क्या, तुमने भी उस आदमी को ही पैसे दिए। औरत के साथ हमेशा ही अन्याय होता है।"
"अरे, जब उस औरत को कुछ अंतर नहीं पड़ता तो तुम क्यों बेकार अपना सिर खपा रही हो। तुम्हारा पारा नीचे उतारने के लिए, लगता है, कोल्ड ड्रिंक ही काफ़ी नहीं है, आइसक्रीम लानी होगी।" विशाल ने बात हॅंसी में उड़ानी चाही।
"तुम भी तो पुरूष हो, विशाल। तुम्हारा सोच अलग कैसे होगा?"
"तुम तो छोटी-सी बात का बतंगड़ बना रही हो। हम जब शादी करेंगे, तब तुम अपना वेतन बिल्कुल अलग रखना।"
"वाह, जनाब, कुछ मुलाकातों में शादी तक पहुँच गए। इस भुलावे में मत रहिएगा। अब चलें, मुझे आॅफिस में सुनीता की खबर भी छपने को देनी है।"
"तुम्हारा काम तो मेरा समय छीन लेता है। थोड़ी देर और रूको न?"
"अच्छा जी, अब आपको भी हमारे काम से शिकायत होने लगी, शिकायत के लिए तो मेरी माँ ही काफ़ी हैं।"
"भला तुम्हारी माँ को तुम्हारे काम से क्या शिकायत हो सकती है। घर में अपना वेतन नहीं देतीं, क्या?"
"मज़ाक छोड़ो। एक तो लड़की, उसपर कुँवारी। भला माँ मेरे पैसों को हाथ लगाएगी? आज भी बाहर काम करने वाली लड़कियों की यही नियति है, विशाल। घर-बाहर के सारे काम करने पर भी बेटी को बेटे वाला सम्मान नहीं मिल पाता।" ऋचा कुछ उदास हो आई।
"ज़माना बदल रहा है, एक दिन तुम्हारी माँ भी तुम्हारा महत्त्व समझेंगी, ऋचा। चलो, तुम्हें तुम्हारें कार्यालय तक पहुँचा आऊॅं।"
यूनीवर्सिटी की फ़ाइनल परीक्षाएँ शुरू हो जाने की वजह से ऋचा, विशाल, नीरज, स्मिता सभी व्यस्त हो गए। ऋचा ने अखबार के दफ्तर से भी छुट्टी ले रखी थी। छुट्टी के लिए एप्लीकेशन देती ऋचा से सीतेश ने परिहास किया था-
"जब तक आप छुट्टी पर हैं, न किसी लड़की का बलात्कार होगा, न कोई औरत दहेज के लिए जलाई जाएगी।"
"ये तो रोज की कहानियाँ हैं, सीतेश। मेरे रहने न रहने से क्या फर्क पड़ता है?"
"पड़ता है, ऋचा जी। आप तो खोज-खोजकर ये खबरें लाती थी। दूसरों का शायद इन घटनाओं में उतना इन्टरेस्ट न हो।"
"ठीक कहते हो, सीतेश। जब तक रिपोर्टर ऐसी घटनाओं के साथ जुड़ाव न महसूस करें, उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा। किसी शीला, लीला से उन्हें क्या लेना-देना।" ऋचा उदास हो आई।
"अरे अरे... आप तो सीरियस हो गई। मैंने तो मज़ाक किया था। हम हृदयहीन नहीं हैं, ऋचा जी, पर शायद जिस तरह आप इन घटनाओं से जुड़ जाती हैं, हम नहीं जुड़ पाते। विश्वास रखिए, ऐसी कोई भी दुःखद घटना नजर अन्दाज नहीं की जाएगी।"
"थैंक्स सीतेश!"
ऋचा के पेपर्स अच्छे हुए थे। अन्तिम पेपर के बाद बड़ा हल्का-हल्का महसूस कर रही थी। स्मिता ने बताया, सुधा और रागिनी ऋचा को याद कर रही हैं। घर में खासा हंगामा होने के बावजूद, रागिनी ने एक स्कूल में और सुधा ने होटल में रिसेप्शनिस्ट का जॅाब ले लिया था। स्मिता की सास ने बहुत शोर मचाया, पर नीरज और उसके पिता ने दोनों लड़कियों का साथ देकर, उन्हें शान्त कर दिया। अन्ततः तय किया गया, दोनों लड़कियों का वेतन उनकी शादी के लिए सुरक्षित रखा जाएगा, पर पहले ही महीने के वेतन से रागिनी ने माँ और भाभी के लिए साड़ियाँ खरीद डालीं। पिता और भाई के लिए कुरते-पाजामे के सेट ले आई। सुधा ने अच्छी लड़की की तरह पूरा वेतन माँ के हाथों पर रख दिया। माँ से झिड़की सुनने के बाद रागिनी ने सुधा को आड़े हाथों लिया था।
"वाह दीदी। शादी के लिए ऐसी भी क्या जल्दी है? कम-से-कम पहली तनख्वाह से अपने लिए एक ढंग की साड़ी तो ले लेतीं। अपने लिए न सही, छोटी बहिन को ही एक सलवार-सूट खरीद देतीं। एक महीने के वेतन से शादी की तारीख जल्दी नहीं आ जाएगी।" चुलबुली रागिनी छेड़ने से बाज नहीं आती।
फ़ाइनल एग्जाम्स के बाद की पहली खाली शाम स्मिता के घर बिताने का निर्णय ले, ऋचा ने स्मिता के यहाँ पहुँच सबको चैंका दिया। स्मिता का चेहरा खिल गया। रागिनी और सुधा भी साथ आ बैठीं।
"कहो, तुम दोनों को कैसा लग रहा हैंघ्
पिंजरे से बाहर निकल, खुले आकाश में पहुॅच गए हैं।" सपनीली आँखों के साथ रागिनी ने कहा।
"रहने दे, काॅपियाँ जाँचते वक्त तो तू झूँझलाती है। ढेर का ढेर करेक्शन-वर्क लाती है, हमारी रागिनी।" स्नेह भरी दृष्टि डाल स्मिता ने ननद की बड़ाई की थी।
"हाँ, दीदी, यह तो सच है, पर बच्चों के साथ बड़ा अच्छा वक्त कट जाता है।"
"बच्चों के साथ या प्रकाश जी के साथ, सच-सच कह, रागिनी।" स्मिता ने रागिनी को छेड़ा।
"अरे, यह प्रकाश जी कौन हैं? क्या बात है, रागिनी।" ऋ़चा चैंक गई।
"रागिनी के स्कूल में सीनियर क्लासेज को फ़िजिक्स पढ़ाते हैं। उन्हें रागिनी बहुत अच्छी लगती है और रागिनी को प्रकाश बेहद नापसन्द हैं। ठीक कहा न, रागिनी?" स्मिता मुस्करा रही थी।
"भाभी, तुम भी बेकार की बातें करती हो। ऋचा दीदी के लिए चाय लाती हूँ।"
रागिनी के जाते ही स्मिता हॅंस पड़ी। ऋचा को बताया, रागिनी और प्रकाश एक-दूसरे को पसन्द करते हैं। नीरज को भी प्रकाश पसन्द है। सुधा की शादी भी परेश नाम के युवक से तय हो गई है। परेश एक कामकाजी लड़की चाहता था। सुधा की नौकरी ने शादी तय करने में मदद की है। ऋचा को स्मिता की खुशी से बहुत राहत मिल गई।
"अब तेरा क्या करने का इरादा है, स्मिता? कहीं शादी के बाद बस घर-गृहस्थी वाली बनकर ही तो नहीं रह जाएगी?"
"नहीं, दो दिन बाद मेरा इन्टरव्यू है। एक आॅफिस में सहायक जनसम्पर्क अधिकारी की जगह खाली है।"
"अरे वाह! तू तो सचमुच छिपी रूस्तम निकली। भगवान् तेरी मदद करें। अब चलती हूँ, वरना अम्मा की डाॅट खानी पड़ेगी।"
"तू क्या करेगी, ऋचा? शादी-वादी करनी है या यूूंॅ ही दूसरों की मदद के लिए दौड़ती रहेगी?" बड़े प्यार से स्मिता ने पूछा।
"अच्छा जी, शादी क्या हो गई कि जनाब हमें शिक्षा देने लगी। फिलहाल तो अखबार के दफ्तर में फुल-टाइम काम करने का इरादा है। आगे की भगवान् जाने।"
घर पहुँची ऋचा को माँ ने समझाया था - "देख ऋचा, तेरे इम्तिहान भी खतम हो गए। अब घर में बैठकर कुछ दुनियादारी सीख। हर वक्त मुँह उठाए, साइकिल पर दौड़ते रहना जवान लड़की को शोभा नहीं देता।"
"ठीक है, माँ, अब साइकिल मॅंुह नीचा करके चलाऊॅंगी।" माँ के गले में प्यार से हाथ डाल ऋचा हॅंस दी।
दूसरे ही दिन से ऋचा ने अखबार के कार्यालय में काम शुरू कर दिया। विशाल ने भी शहर के नामी वकील के साथ ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी। ऋचा और विशाल की शामें एक साथ गुजरने लगीं। एक-दूसरे से मिले बिना दोनों को चैन नहीं पड़ता।
तभी एक साथ दो हादसे हो गए। सुनीता ने हाॅस्पिटल से वापस आकर एक अलग घर लेकर रहना शुरू कर दिया था। इन्स्पेक्टर अतुल की मदद से सुनीता का बेटा अर्जुन भी सुनीता के ही साथ रह रहा था। सुनीता का पति इसे अपनी हार मानकर बौखला उठा। सुनीता के अस्पताल के कर्मचारियों से सुनीता की चरित्रहीनता की बातें करता, कभी गुण्डों द्वारा धमकी दिलवाता।
एक रात सुनीता अस्पताल से वापस लौट रही थी तभी राकेश ने उसपर लोहे की राॅड से हमला कर दिया। सुनीता धरती पर गिर गई, पर सौभाग्यवश सामने से सीनियर नर्स, मारिया की कार की रोशनी दोनों पर आ पड़ी। रोशनी पड़ते ही राकेश भाग गया, पर सिस्टर मारिया की नजरों से बच नहीं सका। सुनीता को सिस्टर मारिया अस्पताल ले गई और पुलिस में रिपोर्ट लिखा दी। इन्स्पेक्टर अतुल तुरन्त ही सुनीता का बयान लेने अस्पताल पहॅुच गया। फोन से ऋचा को भी खबर दे दी थी। ऋचा और अतुल को देख सुनीता रो पड़ी। अब उसे अर्जुन के साथ अपनी माँ और भाई-बहिनों की ज़िन्दगी के लिए भी डर हो गया था। अतुल ने बयान दर्ज कर, राकेश की गिरफ्तारी के लिए निर्देश दे दिए।
"डरो नहीं, सुनीता। राकेश की इस करतूत से तुम्हारा केस और ज्यादा मजबूत हो गया है। मैं खुद सिस्टर मारिया जैसी साहसी चश्मदीद गवाह के साथ राकेश के खिलाफ गवाही दूँगी।"
सिस्टर मारिया ने ऋचा से बातें करते हुए अपनी आपबीती भी सुना डाली। सुनीता और उनकी कहानी लगभग एक-सी थी। पिता की मृत्यु के समय मारिया नर्सिग के दूसरे वर्ष मंे थीं। पिता के अलावा घर में कमाने वाला कोई दूसरा नहीं था। मारिया ने अपने पिता के एक मित्र से सहायता माँगी थी। नर्सिग का कोर्स पूरा करने के बाद वह उनका कर्ज चुका देगी। पिता के मित्र ने मारिया की माँ को अस्पताल में नौकरी दिला दी, पर बदले मंे वह मारिया का यौन-शोषण करता रहा। नर्स बनने के बाद मारिया ने विद्रोह का स्वर मुखर किया और पुलिस मंे रिपोर्ट कराने की धमकी देकर, शोषण से तो छुटकारा पा लिया, पर बहुत दिनों तक दहशत में जीती रहीं। सौभाग्य से मारिया का परिचय जेम्स नाम के एक अच्छे इन्सान से हो गया। मारिया ने जेम्स से कुछ भी नहीं छिपाया और आज दोनों सुखी विवाहित जीवन जी रहे हैं। मारिया की एक प्यारी-सी बेटी रोज़ी भी है। ऋचा ने कहा, उसे खुशी है, जहाँ एक ओर राकेश जैसा राक्षस है, वहीं जेम्स जैसे अच्छे इन्सान भी हैं। शायद इसीलिए दुनिया में अच्छाई कभी पूरी तरह विलुप्त नहीं हो सकी है।
सुनीता के केस की रिपोर्ट तैयार कर, ऋचा ने साइकिल स्मिता के घर की ओर मोड़ दी। स्मिता ने घबराई आवाज में बताया था, कल रात ड्यूटी के वक्त शराब में धुत्त दो युवकों ने सुधा के साथ अभद्र व्यवहार करते हुए जबरदस्ती करनी चाही। सुधा ने एक लड़के को चाँटा मार दिया। बात ने तूल पकड़ लिया है, क्योंकि युवक शहर के प्रतिष्ठित नेता और उद्योगपति का बेटा है। होटल-मालिक ने सुधा से युवक से माफ़ी माँगने को कहा, पर सुधा ने इन्कार कर दिया। सुधा को नौकरी से निकाल दिया गया है। घर में तनातनी का माहौल है। ऋचा के पहुँचते ही स्मिता की सास ने बड़बड़ाना शुरू कर दिया -
"लो, आ गई सुधा की सलाहकार। अच्छी-भली घर में बैठी थी, इनके उकसाने पर होटल की नौकरी कर ली। ख़ानदान की नाक कटा दी। कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रखा।"
"माँ, तुम ऋचा दीदी को क्यों दोष दे रही हो? अपनी इज्ज़त बचाने से नाक नहीं कटती।" रागिनी ने माँ का विरोध कर, उन्हें और उत्तेजित कर दिया।
"हाँ-हाँ, सारे लोग थू-थू कर रहे हैं। अरे, भले घर की लड़कियों के क्या ये ढंग होते हैं। हमें तो डर है, लगा-लगाया रिश्ता न टूट जाए।" माँ रोने-रोने को हो आई।
"अब चुप भी रहो, माँ। तुम्हीं शोर मचा-मचाकर सारी दुनिया को बता रही हो।" ऋचा को रागिनी अपने कमरे में ले गई।
कमरे में सुधा बुत बनी बैठी थी। ऋचा ने जैसे ही उसकी पीठ पर प्यार से हाथ धरा, उसकी आँखों से आँसू बह निकले। स्मिता ने हाथ से आँसू पोंछ, ऋचा की ओर रूख किया।
"कल से ऐसे ही आँसू बहा रही है। एक तो उस हादसे की दहशत, उस पर सासू माँ ने बातें सुना-सुनाकर सुधा का जीना मुहाल कर दिया है।"
"अरे वाह! सुधा, तूने जिस बहादुरी का नमूना पेश किया है, वह तो काबिले तारीफ़ है। हमें नहीं पता था, हमारी भोली-भाली सुधा में एक झाँसी की रानी छिपी हुई है। मेरी बधाई!"
ऋचा की बात पर सुधा के सूखे ओठों पर हल्की-सी मुस्कान तिर आई।
"यह हुई न बात। सच ऋचा, तेरी बातों में जादू है। क्यों सुधा, ठीक कहा न?" स्मिता खुश हो गई।
"चल, इसी बात पर चाय पिला दे। सुबह से चाय नहीं पी है।"
"चाय तो रागिनी ला ही रही है, पर एक डर मुझे भी है। इस घटना की जानकारी से कहीं परेश जी के घरवाले रिश्ता न तोड़ दें।" स्मिता चिन्तित दिख रही थी।
"अगर परेश सच्चा मर्द है तो सुधा के काम से उसे खुश होना चाहिए। अगर वह रिश्ता तोड़ने की बात करे, तो ऐसे कायर से शादी न करना ही अच्छा है।" उत्तेजित ऋचा का मुँह लाल हो आया।
"बिल्कुल ठींक कह रही हैं, ऋचा दीदी। प्रकाश तो सुधा दीदी की बहादुरी की दाद दे रहे थे।" कुछ शर्मा के रागिनी ने कहा।
"रहने दे, दूसरों के बारे में लोग ऐसी ही बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। अपने पर बीते तो रंग बदल लेते हैं।" स्मिता ने पुरखिन की तरह निर्णय दे डाला।
"तुम्हारा मतलब, अगर मेरे साथ ऐसा ही कुछ घटता तो प्रकाश पीछे हट जाते?" रागिनी ने सीधा सवाल किया।
"शायद तू ठीक समझी, रागिनी। सासू माँ की बातों में कुछ सच्चाई तो जरूर हैै। लोगों को बात का बतंगड़ बनाने में मजा आता है। सुधा के मामले को ही लोग न जाने क्या रंग दे डालें। हमेशा दोष लड़की का होता है न?" स्मिता गम्भीर थी।
"स्मिता, तेरी बातों से बहुत निराशा हो रही है। जिस लड़की ने माँ-बाप की इच्छा के विरूद्ध, नीरज के साथ शादी करने का, इतना बड़ा फ़ैसला लिया। वह आज लोगों की बातों की परवाह कर रही है। तुझसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। तुझे तो सुधा की ढाल बनकर खड़ा होना चाहिए।" ऋचा के चेहरे पर आक्रोश स्पष्ट था।
"तू ठीक कह रही है, ऋचा, पर मेरी स्थिति दूसरी थी। मेरे साथ नीरज थे। यहाँ सुधा का परेश कितना साथ देंगे, भगवान् जाने!"
"लड़की को किसी का सहारा जरूरी क्यों है, स्मिता? दूब घास देखी है? बार-बार पाँवों से कुचली जाकर भी दूर्वा सिर उठा-उठाकर खड़ी होती है या नहीं? औरत को दूर्वा की तरह जीना चाहिए।"
"वाह ऋचा दीदी, क्या बात कही है। अब आपको एक राज की बात बता दें।" रागिनी हॅंस रही थी।
"ज़रूर। तुम्हारा राज जाने बिना चैन नहीं पडे़गा।" ऋचा ने उत्सुकता दिखाई।
"जानती हैं, दीदी। स्कूल में मैट्रिक-परीक्षा के समय एक लड़के को नकल करते पकड़ लिया। उसे मैंने परीक्षा-हाॅल से बाहर कर दिया। अगले दिन जब मैं स्कूल जा रही थी, वह लड़का चार-पाँच गुण्डों के साथ खड़ा मेरा इन्तज़ार कर रहा था। मुझे जबरन एक मारूति वैन में ढकेल, वैन चला दी थी। सामने से आ रहे प्रकाश ने घटना देख ली। अपनी मोटरबाइक से पीछा किया। रास्ते में पुलिस-स्कवैड की मदद ली और मुझे बचा लाए। एक बार भी यह नहीं पूछा, उन गुण्डों ने मेरे साथ क्या किया।" रागिनी गम्भीर हो गई।
"अरे, तेरे साथ इतना बड़ा हादसा हो गया, और हमें बताया तक नहीं? कल को तुझे कुछ हो जाता तो?" इतनी देर से चुप्पी साधे सुधा सिहर गई।
"अगर बता देती तो क्या नौकरी करते रहने की इजाज़त मिल पाती, सुधा दीदी? प्रकाश ने ही चुप रहने की सलाह दी थी।"
ताली बजा, ऋचा ने रागिनी की पीठ थपथपा दी।
"यह तो बता, उन गुण्डों का क्या हुआ?"
"प्रकाश जी ने उन्हें इस तरह समझाया कि चारों ने मेरे पैर पड़कर माफ़ी माँगी। अगर हम चाहते उन्हें सज़ा दिलवा सकते थे, पर प्रकाश का कहना है, सज़ा के मुकाबले, प्यार में ज्यादा ताकत होती है।"
"वाह! तेरे प्रकाश तो सच्चे शिक्षक हैं। उनसे मुलाकात करनी होगी।" ऋचा के स्वर में सच्ची प्रशंसा थी।
"हाँ, दीदी। मैं सचमुच भाग्यवान हूँ, प्रकाश जैसा मित्र किस्मत से ही मिलता है।"
"अब तेरे यह मित्र जीवनसाथी कब बन रहे हैं, रागिनी?" ऋचा ने चुटकी ली।
"ठीक कह रही है। नीरज से कहूँगी, दोनों बहिनों की एक साथ ही शादी की तैयारी करें।"
"अब तू बता, तेरे जॅाब का क्या रहा, स्मिता?" ऋचा को स्मिता के इन्टरव्यू की बात याद हो आई।
"उस जगह तो किसी और को नौकरी मिल गई। एक जगह टेलीफोन आॅपरेटर की जगह खाली है। सोचती हूँ, खाली बैठने से अच्छा कोई काम ही कर लूँ। कुछ पैसे ही हाथ आएँगे।"
"वाह, अब हमारी स्मिता भी गृहस्थी वाली हो गई हैं, वैसे काम कोई भी छोटा नहीं होता। अभी ये जॅाब ले ले। बाद में कोई दूसरा जॅाब ढूँढ़ लेना।"
वापस जाती ऋचा ने सुधा को फिर समझाया, उसे हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। उसने कोई ग़लत काम नहीं किया है, जो कदम उठाया है। उससे पीछे हटना कायरता है। जरूरत पड़ी तो ऋचा परेश से भी बात करेगी। सुधा के चेहरे पर आश्वस्ति भरी मुस्कान तिर आई।
सुधा और सुनीता की विस्तृत रिपोर्ट बनाते वक्त दोनों घटनाएँ उसकी आँखों के समक्ष उभरने लगीं। रात के सन्नाटे में अगर सुधा का शील-हरण हो जाता, तब भी क्या उसे नौकरी से हटा दिया जाता। अपने सम्मान की रक्षा के लिए चाँटा मारना तो बहुत कम सज़ा है। ऋचा को खुशी थी, सीधी-सादी सुधा वह साहस कर सकी। सुनीता के अपने पति ने उसे खत्म कर देना चाहा। जिस पति ने पत्नी की रक्षा का वचन दिया, वहीं उसकी हत्या करनेवाला था? सुनीता का केस विशाल के साथ डिस्कस करने का निर्णय ले, ऋचा अखबार के दफ्तर में रिपोर्ट देने के पहले विशाल के पास जा पहुँची। इतनी शाम को ऋचा को देख, विशाल ताज्जुब में पड़ गया। जल्दी-जल्दी सुधा और सुनीता के केसों को बताकर ऋचा ने विशाल की राय चाही थी। कुछ सोचकर विशाल ने कहा -
"सुनीता के केस में चश्मदीद गवाह के कारण काफी दम है। रही बात सुधा की तो तुमने ठीक राय दी है, परेश पर शादी करने-न करने की बात निर्भर करती है। मेरे ख्याल में एक कायर से शादी करने की अपेक्षा अविवाहित रहना ज्यादा अच्छा है।"
"थैंक्स, विशाल! मुझे खुशी है, तुम दूसरे पुरूषों की तरह नहीं सोचते। तुमसे बात करके मन हल्का हो गया।"
"अजी, हम चीज ही ऐसी हैं। एक बात बताऊॅं, जब साथ रहने लग जाओगी, तब तुम्हारे मन पर कोई बोझ नहीं रहने दूँगा। मुझसे शादी करोगी, ऋचा?"
विशाल का प्रश्न इतना अप्रत्याशित था कि ऋचा चैंक गई-
"क्या क्या आ ?"
"हाँ ऋचा, मुझसे शादी करोगी?"
"विशाल, तुमने यह सवाल इतना अचानक पूछा है कि मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ।"
"समझने के लिए जितना चाहिए वक्त ले लो, पर जवाब 'हाँ' में चाहिए।" विशाल हॅंस दिया।
"वाह! यह अच्छी जबरदस्ती है। तुम्हारे घरवाले क्या तैयार होंगे?"
"यह मेरी जिम्मेवारी है। मेरी छोटी बहिन माधवी तो तुम्हारी भक्त बन बैठी है।"
"अरे वाह! कोई मेरी पूजा करे, ऐसा तो कुछ भी नहीं है।"
"तुम्हारी प्रेरणा से एयरफ़ोर्स ज्वाइन करने की जिद किए बैठी है। शायद तुम्हारा कोई लेख छपा था, बिना अपने पाँव पर खड़ी औरत का कोई वजूद नहीं, वह तो बस एक कठपुतली भर है।"
"हाँ, पर क्या यह गलत है, विशाल?"
"मैंने कब कहा कि यह गलत है। अगर मेरा सोच ऐसा ही होता तो क्या तुम जैसी जुझारू लड़की से शादी करने की हिम्मत कर पाता?" विशाल परिहास पर उतर आया।
"मुझे खुशी है, माधवी एयरफ़ोर्स ज्वाइन कर रही है। हमारी उसे बधाई जरूर देना, विशाल।"
"बधाई तो जरूर दूँगा, पर घर में उसके इस निर्णय से तूफान आ गया है। एयरफ़ोर्स में लड़की के जाने की कल्पना से ही अम्मा को लगता है, वह बमबारी करेगी।" विशाल ने हॅंस दिया।
"माधवी के इस निर्णय में तुम्हारी क्या भूमिका है, विशाल?"
"मेरी भूमिका नगण्य है, पर माधवी के मंगेतर ने सगाई तोड़ने की धमकी दे डाली है। स्कूल-कॅालेज की नौकरी तक तो बात बर्दाश्त की जा सकती है, पर एयरफ़ोर्स की नौकरी उसे सहृय नहीं है।"
"माधवी का क्या फ़ैसला है?"
"तुम्हारी तरह अपनी बात पर अटल है। रोहित अगर सगाई भी तोड़ दे तो उसे फर्क नहीं पड़नेवाला। यूनीवर्सिटी में एन.सी.सी. की बेस्ट कैडेट रही है माधवी।"
"मुझे बहुत खुशी है, विशाल। लड़कियाँ अब अपने पिंजरे से बाहर आ रही हैं। वक्त मिलते ही माधवी से मिलकर उसकी पीठ जरूर ठोंकूँगी।"
अखबार के दफ्तर में पता लगा, सम्पादक जी चार दिन के अवकाश पर गए हैं। सुधा और सुनीता की केस-रिपोर्ट छपने को देकर, ऋचा दूसरे कामों में व्यस्त हो गई। रिपोर्टे पढ़कर सीतेश पास आया था -
"ऋचा जी, सुधा की रिपोर्ट में क्या दोषी युवक और उसके पिता का नाम देना चाहिए? याद है, पिछली बार कामिनी के केस में कम्पनी का नाम दिया गया था, अपराधी का नाम काट दिया गया था।"
"अगर एक बार कोई ग़लती हो जाए तो क्या उसे दोबारा दोहराना समझदारी है, सीतेश? रिपोर्ट जैसी दी है, वैसी ही छपेगी।"
"एक बार फिर सोच लीजिए। ये लोग बहुत इंफ्लुएंशियल हैं। हमारा दैनिक मुश्किल में पड़ सकता है। कम-से-कम इन्क्वॅायरी कराने की बात ही छोड़ दीजिए।"
"ओह। तो तुम्हें अपनी नौकरी जाने का डर है? डरो नहीं, मैं भी तुम्हारे साथ हूँ। ऐसा कुछ होने से हम हार नहीं मानेंगे, समझे।"
परेशान-सा सीतेश चला गया।
दूसरे दिन ऋचा की दी गई पूरी रिपोर्ट विस्तार में छपी थी। रिपोर्टिग में भी ऋचा के नाम का उल्लेख था। ऋचा उत्साहित हो उठी। अब होटल वालों को सुधा के साथ न्यायपूर्ण फेसला देना होगा। सुनीता का केस तो पहले से ही मजबूत है। कार्यालय जाने के पहले घबराया नीरज आ पहुँचा।
"ऋचा, यह तुमने क्या किया? सुधा का नाम अखबार में छप गया। घर-मुहल्ले में तहलका मच गया है। सुबह से पड़ोसियों ने पूछ-पूछकर परेशान कर डाला है।"
"सुधा के साथ अन्याय हुआ है, उसे चुपचाप सहना क्या ठीक बात है, नीरज?"
"बात न्याय-अन्याय की नहीं है, बात लड़की की बदनामी की है। हमारा ख़ानदान बदनाम हो जाएगा। जानती हो, सुबह-सुबह परेश के घर से फ़ोन आ गया, उन्होंने सुधा के साथ परेश की सगाई तोड़ दी है। रो-रोकर माँ का बुरा हाल है।"
"तुम्हारी माँ तो तुम्हारी शादी होने पर भी रोई थीं, सुधा के अपमान के सामने उनका रोना महत्वहीन है, नीरज।"
"नहीं, ऋचा। हमें हमारे हाल पर छोड़ दो। हमें अपने घर की बहू-बेटियों का नाम अखबार में नहीं उछालना है। अच्छा हो, कल के पेपर में समाचार का खण्डन छाप दो।"
"वाह नीरज, तुम भी ऐसा ही सोचते हो? वो नीरज कहाँ गया जिसने घरवालों की चिन्ता न कर स्मिता से विवाह किया था?"
"मेरी बात और है, मैं पुरूष हूँ। पुरूष के सौ खून माफ़ किए जा सकते हैं, पर लड़की के नाम पर धब्बा लग जाए तो उसे कभी मिटाया नहीं जा सकता।"
"स्मिता क्या लड़की नहीं थी? क्या उसका सम्मान दाँव पर नहीं लगा था? अगर स्मिता ने साहस के साथ कदम उठाया तो सुधा को अन्याय के विरूद्ध कदम उठाने का हक क्यों नहीं है, नीरज?"
"स्मिता के साथ मैं था, पर सुधा का मंगेतर उसका साथ कहाँ तक दे पाएगा? तुमने हमें सचमुच मुश्किल में डाल दिया, ऋचा।"
"मुझे दुःख है, नीरज, मैंने तुम्हें समझने में भूल की। मेरा ख्याल था, सुधा के साथ हुए अन्याय में तुम उसके साथ खड़े होगे। अब मुझे ही कुछ करना होगा।"
"देखो ऋचा, जो करो, सोच-समझकर करना। हम पर और ज्यादा कीचड़ मत उछालना।"
परेशान नीरज वापस चला गया, पर ऋचा का मन खट्टा हो गया। नीरज भी अन्ततः एक सामान्य पुरूष ही निकला। स्मिता के साथ नीरज के विवाह में भी शायद स्मिता की भूमिका ही ज्यादा अहम् थी। अगर स्मिता ने नीरज के सिवा किसी और के साथ शादी न करने का अल्टीमेटम न दे दिया होता तो शायद नीरज अपनी समस्याओं के बहाने बनाकर अलग हट गया होता। स्मिता जैसी भीरू लड़की भी नीरज से ज्यादा साहसी निकली। हो सकता है, कहीं नीरज के मन में स्मिता के पिता की सम्पत्ति का भी थोड़ा-सा लोभ रहा हो। अपने सोच पर ऋचा को झुँझलाहट हो आई, बेकार मंे नीरज को दोष देना क्या ठीक है। मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की का नाम ऐसी घटनाओं में छपना, आज भी सामान्य बात नहीं मानी जाती। वैसे भी लड़़की के साथ अच्छा-बुरा कुछ भी हो, दोषी लड़की ही ठहराई जाती है। कार्यालय से जल्दी निकलकर ऋचा ने परेश से मिलने जाने की बात तय कर डाली।
कुर्सी पर बैठते ही फ़ोन की घण्टी बज उठी। बेमन से फोन उठा ऋचा ने जैसे ही 'हेलो' कहा, दूसरी ओर से धमकी भरा पुरूष-स्वर सुनाई दिया-
"अपने को बड़ी तीसमारखाँ समझती है? यह क्या उल्टा-सीधा छाप दिया है। जानती है, इसका क्या अंजाम होगा? सीधे-सीधे कल के अखबार में माफ़ी माँग ले, वरना सुधा की तरह तेरा भी इन्तज़ाम कर देंगे।"
फ़ोन काट दिया गया था। ऋचा का चेहरा तमतमा आया-'डरपोक कहीं का, हिम्मत है तो सामने आकर बात करे!'
"किसकी बात कर रही हैं, ऋचा जी। जब से पहुँचा हूँ, कोई बार-बार आपका नाम पूछ रहा था।" सीतेश कंसर्न दिख रहा था।
"शहर में गुण्डों की तो कमी नहीं है। सोचते हैं, धमकी देकर अपने गुनाह छिपा लेंगे, लेकिन वे ऋचा को नहीं जानते।"
"आप ठीक कह रही हैं, पर कभी-कभी इन गुण्डों से पंगा लेना भारी पड़ सकता है, ऋचा जी। इसीलिए कल भी मैंने आपसे रिपोर्ट में अपराधी का नाम न देने को कहा था।"
"वाह सीतेश। पत्रकार हो, पर पत्रकारिता में लाग-लपेट कर बात कहने की सलाह देते हो। तुम्हीं सोचो, विश्वसनीयता के लिए नाम देना जरूरी है या नहीं? होटल में शराब में धुत्त युवक एक लड़की का शील-हरण करने की कोशिश करे, ऐसे लड़के का नाम छिपाना क्या ठीक है?"
"आपकी बात में सच्चाई है, पर इस घटना के साथ जिस लड़की का नाम जुड़ेगा, क्या लोग उसकी ओर उॅंगली उठाने से बाज आएँगे।"
"किसी-न-किसी को तो साहस करना ही होगा, वरना ऐसी घटनाएँ अन्तहीन कहानियाँ भर बनकर रह जाएँगी।"
"मैं आपकी भावनाओं की कद्र करता हूँ। काश् हमारे देश की हर लड़की आप जैसी साहसी होती।" सीतेश ने पेन उठा काम शुरू कर दिया।
कार्यालय का काम जल्दी निबटा, ऋचा ने साइकिल परेश के आॅफिस की ओर मोड दी। ऋचा का परिचय पा, परेश चैंक गया।
"परेश जी, आपसे कुछ बात करनी है।"
"देखिए, अगर आप सुधा के बारे में बात करने आई हैं तो क्षमा करें। सुधा के विषय में मेरी ज्यादा जानकारी नहीं है।"
"हाँ, यह दुर्भाग्य ही है कि अरेन्ज्ड मैरिजेस में शादी के पहले लड़का या लड़की एक-दूसरे से अनजान ही होते हैं, फिर भी शादी का जुआ खेलने को तैयार हो जाते हैं।" ऋचा ने लम्बी साँस ली।
"इसके लिए तो आप सिर्फ मुझे ही दोष नहीं दे सकतीं, ऋचा जी।"
"देखिए, परेश जी। शादी के लिए आपने वर्किग-गर्ल की शर्त रखी थी, इससे उम्मीद बॅंधी थी कि आप खुले ख्यालाातों वाले इन्सान होंगे।"
"हर इन्सान अलग होता है, ऋचा जी। वैसे आप मुझसे क्या आशा रखती हैं?"
"सिर्फ इतनी कि इस मुश्किल के वक्त आप सुधा का साथ दें। अपने सम्मान की रक्षा करना क्या अपराध है? अगर वह अपनी बेइज्ज़ती चुपचाप पी जाती तो क्या वह विवाह के लिए उपयुक्त पात्री थी?"
"आपने यह कैसे समझ लिया, अब सुधा मेरे साथ विवाह के लिए उपयुक्त पात्री नहीं है?"
"क्या? आप सच कह रहे हैं?"
"आपको इस सच पर शंका क्यांे है? सुधा से मेरी सगाई हुई है और सगाई तोड़ने का मेरा कतई कोई इरादा नहीं है।"
"लेकिन आपके घर से मॅंगनी तोड़ने का फोन गया था।"
"वह मेरी माँ का ग़लत कदम था। मुझे सुधा के साहस पर गर्व है। खुशी है, मेरी होनेवाली जीवन-संगिनी इतने दृढ़ चरित्र वाली है। "
"ओह परेश जी, आपने मेरे दिल का बोझ कम कर दिया। असल में वह खबर मैंने ही प्रेस में दी थी, इसलिए अपने को अपराधी समझ रही थी।" ऋचा के चेहरे पर खुशी थी।
"आइए, इसी बात पर एक-एक ठण्डा कोक हो जाए।" परेश मुस्करा रहा था।
"नो थैंक्स! स्बसे पहले सुधा को यह खुशखबरी देनी है।"
"वह काम मैं पहले ही कर चुका हूँ। आज शाम सुधा से मिलने जा रहा हूँ। इस केस में आगे की कार्रवाई पर चर्चा करनी है। बिना इन्क्वॅायरी किसी को काम से हटा देना अन्याय है।"
"आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। अक्सर लड़कियाँ बदनामी के डर से सच छिपा जाती हैं, इसीलिए गुण्डों की हिम्मत बढ़ जाती है। मै। हर कदम पर आपके साथ हूँ।"
"थैंक्स! मुझे विश्वास है, हम दोनों मिलकर सुधा का केस जीतेंगे।" उमगी ऋचा घर पहुँची तो माँ का रूका बाँध बह चला-
"अपनी करनी का नतीजा देख लिया। तुझे अपनी चिन्ता न सही, भाई और बाप की तो सोच।"
"क्या हुआ, माँ?"
"होना क्या है, सुबह से लगातार फ़ोन पर फ़ोन आ रहे हैं। तूने किसी पर झूठा इलज़ाम लगाया है। वे लोग तेरे बाप और भाई की जान लेने की धमकी दे रहे हैं।" रोती माँ ने आँखों पर आँचल रख लिया।
"परेशान मत हो, माँ। ऐसी गीदड़ धमकियाँ देने वालों से डरना बेकार है।" माँ को तसल्ली देती ऋचा की आँखों के सामने छोटे भाई और पिता के चेहरे तैर गए। पिता हमेशा की तरह शान्त थे। हर मुश्किल में ऋचा को पिता से सहारा मिलता रहा है। पिता की कुर्सी के पास पड़े मूढ़े पर बैठ, ऋचा ने सवाल किया था -
"क्या आप भी समझते हैं, मैंने ग़लती की है, बाबू जी? क्या अन्याय के प्रतिकार में व्यक्ति की हैसियत देखी जानी चाहिए?"
"नहीं, बेटी। तू एक पत्रकार है ओर सच्चा पत्रकार चुनौती न ले तो काहे का पत्रकार। तेरा तो काम ही सच को उजागर करना है, ऋचा।"
"थैंक्यू, बाबू जी! कुछ देर के लिए तो मैं ही अपने को अपराधी मान बैठी थी। आपसे हमेशा हिम्मत मिली है, आज भी वैसा ही हुआ, पर माँ का डर भी तो अकारण नहीं है।"
"देख, ऋचा, मैंने हमेशा ऊपरवाले पर विश्वास रखा है। जीवन देने या लेनेवाला सिर्फ भगवान् है। तू परेशान मत हो।"
ऋचा का मन हल्का हो आया। सीधे-सादे पिता से ऋचा को बहुत स्नेह और साहस मिला है। कभी पिता ने अपने लिए भी ऊॅंचे सपने देखे थे, पर छोटी उम्र में ही उनके कंधों पर लम्बे-चैड़े परिवार का बोझ डाल, बाबा स्वर्ग सिधार गए। पिता के सपने बस सपने बनकर ही रह गए। तीन छोटी बहिनों के विवाह के बाद उनकी कमर झुक गई। ऋचा के अन्दर की आग को उन्होंने पहचाना था। ऋचा में उन्हें अपनी प्रतिच्छवि दिखती। माँ के विरोधों के बावजूद अपने सीमित साधनों में भी बाबू जी ने उसे उच्च शिक्षा दिलाई। बाहर आने-जाने की आज़ादी दी, वरना आज इला दीदी की तरह वह भी किसी घर के चैखट से बॅंधी जी रही होती। बिस्तर पर लेटी ऋचा को परेश और विशाल की याद हो आई। दुनिया में सभी इन्सान एक-से नहीं होते, परेश ने ठीक कहा। विशाल, परेश और नीरज कितने अलग-अलग हैं। अचानक ऋचा को याद आया, विशाल ने कल शाम पिक्चर देखने जाने का प्रोग्राम बना रखा है। अपनी व्यस्तता में भी विशाल मनोरंजन के लिए समय निकाल ही लेता है। अगर कल विशाल ने अपने सवाल का जवाब माँगा तो? ऋचा सोच में पड़ गई। विशाल उसे अच्छा लगता है, उसके साथ वह अपने को पूर्ण पाती है, शादी के लिए और क्या चाहिए। हल्की मुस्कान के साथ ऋचा ने आँखें मॅंूद लीं।
कार्यालय पहुँचते ही पता लगा, सम्पादक जी वापस आ गए हैं। ऋचा के बैठते ही उनके पास से बुलाहट आ गई।
"ऋचा, तुम बार-बार एक-सी ग़लती क्यों दोहराती हो?"
"मैं आपका मतलब नहीं समझी, सर।"
"होटल की जिस घटना को तुमने छपवाया है, क्या पुलिस में उसकी रिपोर्ट लिखवाई गई है? मुझे पता लगा है, सुधा की ओर से कोई रिपोर्ट नहीं लिखवाई गई है। इस तरह की बेबुनियाद बातें छापने से हमारे दैनिक का रेपुटेशन खराब हो सकता है।"
"अगर यह बात सच नहीं तो सुधा को अचानक नौकरी से क्यों निकाल गया, सर?"
"टेम्परेरी नौकरी वालों को कभी भी निकाला जा सकता है, उसके लिए किसी वजह की ज़रूरत नहीं होती, ऋचा।"
"लेकिन सुधा के केस में वजह है, सर। मैं इस केस को यूँ ही नहीं छोड़ने वाली, पहले ही वोमेन आर्गनाइजेशन से सम्पर्क कर चुकी हूँ। उन्होंने होटल-मालिक के सामने इन्क्वॅायरी-कमेटी बैठाने की शर्त रख दी है। जब तक इन्क्वॅायरी-कमेटी की रिपोर्ट नहीं आ जाती, सुधा निलम्बित रहेगी।" कुछ गर्व से ऋचा ने जानकारी दी।
"देखो ऋचा, मेरी सलाह मानो, इस मामले को वीमेन आॅर्गनाइजेशन के लिए छोड़ दो। मैं नहीं चाहता, तुम किसी भारी मुसीबत में पड़ो।"
"इसका मतलब आप भी जानते हैं, दोषी साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि ख़तरनाक इन्सान है। आपको तो अपराधी को सज़ा दिलवाने में मदद करनी चाहिए, सर।"
"हर इन्सान की अपनी सीमा होती है, कुछ मजबूरियाँ होती हैं। मैं नहीं चाहता, आज के बाद कभी सुधा के केस से जुड़े लोगों के नाम छापे जाएँ।"
"उस स्थिति में मेरा इस्तीफ़ा स्वीकार करें, सर। मैं बन्धनों में रहकर अपना फ़र्ज पूरा नहीं कर सकती।"
"चपरासी के हाथ अपना इस्तीफ़ा भेजकर ऋचा ने 'महिला जागरण' के कार्यालय की ओर साइकिल मोड़ दी।"
'महिला जागरण' की सचिव शकुन्तला जी ने गर्मजोशी के साथ ऋचा का स्वागत किया। आगे की कार्रवाई के लिए ऋचा ने कुछ पैम्फ़्लेेट्स बनाकर बाँटने की सलाह दी। होटल के सामने धरना देने के लिए ऋचा ने अपना नाम दे दिया। अगर दो दिन के भीतर इन्क्वॅायरी-कमेटी न बैठाई गई तो ऋचा द्वारा अनशन शुरू कर दिया जाएगा। खबर सब अखबारों में दे दी गई थी।
'महिला जागरण' की सदस्याओं के उत्साह से ऋचा आशान्वित हो उठी। पिक्चर-हाॅल में विशाल से मिलने की बात थी। ऋचा सीधे पिक्चर-हाॅल पहुँच गई। विशाल प्रतीक्षा में खड़ा था।
ज़हे किस्मत, हमारी ऋचा जी को याद तो रहा, यहाँ हम इन्तज़ार कर रहे हैं।" नाटकीय अन्दाज में बात कह विशाल ने ऋचा को हॅंसा दिया।
"याद कैसे नहीं रहता, टिकट के पैसों के अलावा डिनर और आइसक्रीम भी तो तुम्हीं खिलाने वाले हो न, विशाल। टिकट के पैसे कैसे वेस्ट कराती।"
"चलिए हम न सही, हमारे पैसों का तो दर्द है आपको।"़
"दर्द तो बहुतों का है, विशाल। शायद इसीलिए खुद चैन से नहीं रह पाती।"
"अब क्या हुआ, ऋचा। ऐसी मायूसी वाली बातें तुम तो नहीं करती थीं।"
"हाँ, विशाल। आज दैनिक की नौकरी से इस्तीफ़ा दे आई।"
संक्षेप में ऋचा ने विशाल को पूरी बात सुना डाली। एक क्षण मौन रहने के बाद विशाल ने समझाने के अन्दाज में कहा था -
"सम्पादक ने ठीक कहा, उनकी कुछ मजबूरियाँ जरूर रही होंगी। जहाँ तक मैं जानता हैूं, सुधा के दोषी बहुत पैसे वाले लोग हैं। पैसों से कुछ भी खरीदा जा सकता है।, इन्सान का ईमान भी। शायद तुम्हारे दैनिक को चलाने के लिए उनका पैसा अहम भूमिका निभा सकता है। चलो पिक्चर शुरू होनेवाली है।"
पिक्चर मंे ऋचा का मूड उखड़ा ही रहा। विशाल का प्यार-भरा स्पर्श भी उसके मन को सहला नहीं सका। बाहर निकलकर डिनर व आइसक्रीम खाते काफी देर हो गई। घर में माँ की परेशानी का अन्दाजा ऋचा आसानी से लगा सकती थी। विशाल को साथ देख, माँ की परेशानी और ज्यादा बढ़ जाएगी। माँ को विशाल के बारे में बताने के लिए लम्बी भूमिका बाँधनी होगी। विशाल की प्यार-भरी दृष्टि से भीगी ऋचा ने साइकिल घर की ओर मोड़ दी।
कल ऋचा क्या करेगी? यही सवाल उसे परेशान कर रहा था। नए काम की तलाश में न जाने कितने दिन लग जाएँ। अगर ऋचा की सामथ्र्य होती तो वह स्वंय अपना दैनिक निकालती, पर उसे जितना मिल गया, वही क्या कम है। आज अपनी योग्यता के बल पर वह जो चाहे, कर सकती है।
अचानक ऋचा की साइकिल के पहिए में कुछ फंसता-सा लगा। जब तक वह सम्हल पाती, साइकिल समेत नीचे गिर पड़ी। अॅंधेरे से दो-तीन युवक बाहर आए और धरती पर गिरी ऋचा को बाँहों मे उठाकर भाग चले। पेड़ों के घने झुरमुट में खड़ी वैन में ऋचा को जबरन ढकेल, दाँएँ-बाँएँ बैठे दो युवको ने ऋचा को दबोच लिया। तीसरे ने गाड़ी स्टार्ट कर दी। ऋचा का हाथ-पाँव मारना व्यर्थ गया। युवकों की पकड़ बेहद मजबूत थी। सूनी सड़क पर तेजी से दौड़ती गाड़ी एक विशाल ।फ़ार्म-हाउस में जा रूकी थी। ऋचा को धकियाते युवक फ़ार्म-हाउस के अन्दर ले गए।
"क्यों, हमारे खिलाफ़ धरना देगी? हमें बरबाद करेगी?" एक ने चुनौती दी।
"यही तुम्हारी मर्दानगी है? अगर सच्चे मर्द हो तो सामने आकर लड़ो। लड़कियों पर जोर-आजमाइश करना तो कायरों का काम है।"
"वाह-वाह! जयन्त, जरा बता तो दे, हम मर्द हैं या नहीं।" एक युवक ने कुटिल मुस्कान के साथ गन्दा-सा इशारा किया।
इशारा समझ ऋचा का सर्वांग काॅप उठा।
"नहीं ई ई तुम ऐसा नहीं कर सकते! मुझे जाने दो।" ऋचा बेबस चीख रही थी।
"हम क्या कर सकते हैं, अभी मालूम हो जाएगा। जयन्त, पहले तेरा नम्बर है, तेरा ही नाम तो अखबार में आया है। चाँटा भी तूने ही खाया है। तेरे बाद हम आते हैं।" युवकों ने शराब की बोतल खोल मॅंुह से लगा ली।
जयन्त को आगे बढ़ता देख, ऋचा ने पूरी शक्ति से धक्का दिया, पर जयन्त ने ऋचा की चोटी पकड़ धमकाया -
"ये तेरे अखबार का दफ्तर नहीं है, यहाँ तेरी नहीं चलेगी। इस जगह के हम मालिक हैं, यहाँ हमारी मर्जी चलती है।"
ऋचा पूरी शक्ति से संघर्ष कर रही थी, पर तीन-तीन युवकों के सामने वह कमजोर पड़ती जा रही थी। तीनों युवकों ने उसको बेबस कर दिया। ऋचा की चीखें, कराहों मे बदल चुकी थी।
न जाने कितनी देर बाद अर्द्ध चैतन्य ऋचा को झकझोर कर सुनाया गया-
"अपनी करनी का अंजाम तो तुझे भुगतना ही था। अब जा, अपने बलात्कार की कहानी अखबार में छपवा। हम भी तो देखें, कल तेरी कैसी रिपोर्ट छपती है।"
तीनों के सम्मिलित अट्टहास ने ऋचा को चैतन्य कर दिया। फटे कपड़ों को किसी तरह चुन्नी से ढाॅप ऋचा खुले दरवाजे से लड़खड़ाते कदमांे से बाहर चलती गई। न जाने कितनी देर में वह पुलिस. थाने पहुँच सकी थी। थाने में इन्स्पेक्टर अतुल को सम्पर्क करना चाहा तो पता लगा, दो दिन पहले उसका
ट्रान्सफ़र दूसरे शहर में कर दिया गया था। उसे तत्काल वहाँ की ड्यूटी ज्वाइन करने के आॅर्डर दिए गए थे।
ड्यूटी पर तैनात इन्स्पेक्टर ने जब अश्लील सवाल पूछने शुरू किए तो ऋचा कष्ट के बावजूद पूरी तरह जाग गई।
"इन्स्पेक्टर, मैं एक जर्नलिस्ट हूँ। इस तरह के बेहूदा सवालों से इस घटना का कोई सरोकार नहीं है। आप मेरी रिपोर्ट दर्ज कीजिए, वरना अभी हायर अथाॅरिटीज को खबर करती हूँ।"
ऋचा के तेवर से इन्स्पेक्टर का रूख बदल गया। रिपोर्ट लिखवाती ऋचा को कामिनी का केस याद हो आया। नहीं, वह कहीं कोई ग़लती नहीं छोडे़गी। अपराधियों को दण्ड दिलाकर ही रहेगी।
"इन्स्पेक्टर मेरा मेडिकल-चेकअप जरूरी है। मैं चाहती हूँ, सिस्टर मारिया को भी बुला लिया जाए। उनसे कहिए, मेरे लिए कपड़े भी लेती आएँ।"
आधे घण्टे के भीतर सिस्टर मारिया और डाॅक्टर निवेदिता पहुँच गई। सिस्टर मारिया ने ऋचा को सीने से चिपटा तसल्ली दी थी। उनके प्यार से ऋचा की आँखों में आँसू आ गए।
"नहीं, ऋचा। तूझे हिम्मत रखनी है। ये आॅसू कमज़ोरी की निशानी हैं और तू कमज़ोर लड़की नहीं है। आँसू तो अब वे कमीने बहाएँगे। वे नहीं जानते, उन्होंने किससे टक्कर ली है।"
सिस्टर मारिया की बातों ने ऋचा में नई हिम्मत भर दी। नहीं, वह नहीं रोएगी। उसने कोई ग़लती नहीं की है।
मेडिकल-रिपोर्ट द्वारा बलात्कार की पुष्टि हो गई। डाॅक्टर को ताज्जुब था, उतनी पीड़ा के साथ ऋचा ने फ़ार्म-हाउस से थाने तक की दूरी कैसे तय की? ऋचा को फौरन मेडिकल-एड की जरूरत थी। ऋचा ने युवकों के नाम और फ़ार्म-हाउस का पता बताते हुए इन्स्पेक्टर से कहा-
"अभी वे तीनों अपनी घिनौनी करतूत का जश्न मना रहे होंगे। उन्हें रंगे हाथों पकड़ना आसान है, क्योंकि उस जगह बलात्कार के कई सबूत आसानी से मिल जाएँगे।"
"नहीं, ऋचा, अक्सर पुलिसवाले सबूत जुटा पाने में कामयाब नहीं हो पाते। इन्स्पेक्टर, आपके साथ मैं चलूंगी। मेरी आँखों से बलात्कार के चिन्ह छिप सकना आसान नहीं होगा।" सिस्टर मारिया का चेहरा सख्त था।
"सिस्टर, आप पुलिसवालों के केस में दख़लअन्दाज़ी न करें तो अच्छा है। हमें अपना काम करने दीजिए।" इन्स्पेक्टर चिडचिड़ा उठा।
"घबराइए नहीं, आपके काम में बाधा नहीं बनूँगी। एक चश्मदीद गवाह के रहने से तो आपका केस म।ज़बूत ही बनेगा।"
मजबूरन सिस्टर मारिया को साथ लेकर इन्स्पेक्टर को जाना पड़ा था। अस्पताल से ऋचा ने घर फोन किया था। पिता से कहा, एक दुर्घटना में चोट लग गई है। विशाल केा ख़बर करने का बहुत जी चाहा, पर फ़ोन विशाल के पड़ोसी के घर था। उतनी रात में उसे बुलाना शायद ठीक नहीं होता। डाॅक्टर से पेन और कागज़ लेकर ऋचा ने पूरी रिपोर्ट लिखकर अखबार के कार्यालय में फ़ोन किया था। सम्पादक पूरी बात सुनते ही घबरा गए-
"मैंने तुम्हें पहले ही आगाह किया था। अब अपनी ज़िन्दगी खराब कर डाली।"
"ज़िन्दगी मेरी खराब नहीं हुई है, सर। ज़िन्दगी तो अब मैं उनकी ख़त्म करूँगी। आपसे बस इतना जानना चाहती थी कि क्या आप यह खबर अपने दैनिक में छापेंगे या नहीं?"
सम्पादक के मौन पर ऋचा कहती गई- "एक बात जान लीजिए, शहर के हर अखबार में जब यह खबर छपेगी कि आपके दैनिक में काम करने वाली लड़की के साथ ये हादसा हुआ और आपके दैनिक मे खबर नदारद होगी तो लोग क्या अनुमान लगाएँगे, आप समझ ही सकते हैं।"
"ठीक है, किसी को भेजकर रिपोर्ट कलेक्ट करा लेता हूँ। मुझे अफ़सोस है, तुम्हारे साथ ऐसा हादसा हुआ। एनी हेल्प?"
"जी नहीं, धन्यवाद।"
फ़ोन रखकर ऋचा ने आश्वस्ति की साँस ली थी। घबराए माता-पिता के पहुँचते ही शोर-सा मच गया। माँ ने ऋचा को सीने से लिपटा आँसू बहाने शुरू कर दिए।
डाॅक्टर ने जब घटना की जानकारी दी तो माॅ-बाप पत्थर की बुत से बन गए। अन्त मंे मौन माँ ने ही तोडा-
"हाय राम, ये क्या हो गया? लड़की ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। सुन, किसी को ख़बर तो नहीं हुई है?"
"ख़बर तो मैंने ही पुलिस में दी है, माँ।"
    क्या. आ . क्या, तेरा दिमाग तो ठीक है? अपनी ही बर्बादी की कहानी खुद सुना डाली? सुनते हैं जी, अब देख लो आज़ादी का नतीजा। हाय! हम तो लुट गए, बर्बाद हो गए! माँ ने पंचम सुर में रोना शुरू कर दिया।
"चुप रहो, यह अस्पताल है। यहाँ रोने से कोई फ़ायदा नहीं। ऋचा इतने बड़े हादसे को झेलकर आई है, कैसी पीली पड़ गई है।"
"अरे, अब तो पूरी ज़िन्दगी का रोना हो गया जी। थाने में रपट लिखाकर बड़ा नाम कमा आई है। इसके लच्छन तो पहले ही से ऐसे थे। हे राम, यह जनमते ही क्यों न मर गई।" माँ का सीना फटा जा रहा था।
"अब चुप भी रहो। लोग सुन रहे हैं। घर चलकर जितना जी चाहे, रो लेना।" पिता ने माँ को शान्त करने का निष्फल प्रयास किया।
डाॅक्टर ने ऋचा को एक सप्ताह बेड-रेस्ट के साथ अस्पताल से छुट्टी दी थी। घर जाती ऋचा की पीठ ठांेक डाॅक्टर निवेदिता ने ऋचा के पिता से कहा-
"आपकी बेटी बहुत बहादुर है। ऐसी बेटी पर गर्व किया जा सकता है। इस वक्त उसे आपलोगों की हमदर्दी चाहिए। उसे टूटने मत दीजिएगा।"
शहर के सभी अखबारों में ऋचा के बलात्कार की ख़बर छप गई थी। घर में तनाव का माहौल बना था। माँ ने रो-रोकर आँखें सुजा डालीं। आकाश सहमा-सहमा दूर से दीदी को असहाय आँखों से ताक रहा
था। मुहल्ले-पड़़ोस वाले ताक-झाॅक करके टोह ले रहे थे। कुछेक ने तो सीधे-सीधे अखबार का हवाला दे, अपनी राय दे डाली-
"यह सच नहीं हो सकता। अक्सर अखबार वाले छोटी-सी घटना नमक-मिर्च लगाकर छापते हैं। हमारी ऋचा बेटी वैसी लड़की नहीं है। ठीक कहा न, भाई साहब?"
शून्य में निहारते पिता हाँ-ना कुछ भी नहीं कह पाते। घर में ग़मी जैसा माहौल बन गया था। माँ की आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे, फिर भी ऋचा को कोसते बाज नहीं आतीं। स्वंय ऋचा का रोम-रोम जल रहा था। दुःस्वप्न की तरह सारी घटना बार-बार आॅखों के सामने नाच जाती। शारीरिक कमज़ोरी के बावजूद, वह ओठ भींचे दर्द सह रही थी, पर मानसिक छअपटाहट में उसे विशाल याद आ रहा था। विशाल का कहीं पता नहीं था, इतनी बड़ी घटना उससे अनदेखी तो नहीं रह सकती।
स्मिता आते ही ऋचा के गले में बाँहे डाल बिलख पड़ी।
"हमारी वजह से तेरे साथ यह हादसा हो गया, ऋचा। सुधा का तो रो-रोकर बुरा हाल है।"
"तू कैसे आ पाई, स्मिता? घर से इजाज़त कैसे मिल सकी?" मुश्किल से ओठ भींचे ऋचा इतना ही पूछ सकी।
"अम्मा जी ने तो सबको घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी है, ऋचा। बड़ी मुश्किल से नीरज को मना सकी। हाॅस्पिटल जाने का बहाना बनाकर तेरे पास आई हूंॅ, ऋचा।"
"तब तू फ़ौरन लौट जा। अगर सच बताकर आने की इजाज़त नहीं तो झूठ का सहारा लेने की ज़रूरत नहीं है, स्मिता। सच्चाई का मैंने हमेशा साथ दिया है, झूठ से मुझे नफ़रत है। ॠचा उत्तेजित हो उठी।
"मुझे माफ़ कर दे। तू ठीक कह रही है, अब मैं नहीं डरूँगी। विशाल जी आए?"
"नहीं, शायद वह भी मुझे फ़ेस करते डर रहे हैं। अन्ततः वह भी तो पुरूष हैं।" ऋचा ने लम्बी साँस ली।
परेश को देखकर ऋचा विस्मय में पड़ गई। वह मामूली-सा दिखनेवाला इन्सान, बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले विशाल से कहीं ज्यादा मजबूत निकला।
"आपको बधाई देने आया हूँ, ऋचा जी। अपने स्वार्थ के लिए सभी जीते हैं, पर आपने सुधा की वजह से जो कुछ सहा है, उसके कारण हम दोनों आपके आजीवन ऋणी रहेंगे।"
"धन्यवाद। मैंने अपना फ़र्ज-भर निभाया है, परेश जी।"
"मैं हमेशा आपके साथ हूं। 'महिला जागरण' की सचिव ने मुख्यमन्त्री को अविलम्ब अपराधियों को दण्डित करने के लिए अल्टीमेटम दे दिया है। सुधा के केस में भी इन्क्वॅायरी-कमेटी बैठा दी गई है। उम्मीद है, सुधा को न्याय जरूर मिल सकेगा।"
"मुझे खुशी है, सुधा को आप जैसा जीवनसाथी मिल रहा है। आपके घरवालों की क्या प्रतिक्रिया है?"
"मेरे घरवाले भी आपके घरवालों से अलग नहीं हैं, पर जब मैंने उन्हें बताया, कोई रिश्ता न होते हुए भी, एक लड़की के रूप में आपने सुधा की वजह से अपने को कितनी बड़ी मुश्किल में डाल लिया तो उनके मन बदल गए हैं। वे सब आपसे मिलने को उत्सुक हैं।"
"सुधा भाग्यवान है। थैंक्स परेश! आपके आने से लगा, मैं अकेली नहीं हूँ।"
"आपके साथ सच्चाई है, आप अकेली कैसे हो सकती हैं! जल्दी ही सुधा को लेकर आऊॅंगा।"
परेश के जाने के बाद ऋचा सोच में पड़ गई। विशाल का न आना चोट पहुँचा रहा था। मन में आग जल रही थी। उन तीनों के कुत्सित चेहरे वह नोंच क्यों न सकी? क्यों वह उनका शिकार बनी? जी चाहता था, एक पिस्तौल ले जाकर उनके सीनों पर दाग दे। ऐसे घृणित जानवरों के लिए पब्लिक हैंगिंग ही ठीक सज़ा है।
निःशब्द आकाश ऋचा के पास आ बैठा। भाई के दयनीय चेहरे को देख, ऋचा के आँसू उमड़ आए। वह मासूम किस अपराध की सजा भुगत रहा था? उसके बाहर निकलते ही हज़ारों उॅंगलियाँ उठेंगी, इसकी बहन का बलात्कार तीन-तीन युवकों ने किया हैंए कैसे सह सकेगा वह अपमान! माँ-बाबू जी, सब कितने निरीह हो उठे हैं। उनकी निगाहों मे बेटी अपराधिनी है और उस अपराध में उनकी भी भागीदारी है। क्या पुलिस में स्वंय रिपोर्ट कराकर ऋचा ने गलती की है? क्या वह उन बलात्कारियों को दण्ड दिला सकेगी?
'महिला जागरण' की सचिव ने आकर उसे उत्साहित किया। ऋचा के अपराधियों को वे दण्ड दिलाकर ही रहेंगी। कल शहर मंे जूलूस निकाला जाएगा। जुलूस में सभी महिला-संस्थाएँ शामिल हो रही हैं। जल्दी कार्रवाई न होने की स्थिति में आमरण अनशन किया जाएगा। होटल के मालिक को भी जल्दी इन्क्वॅायरी कराके, सुधा को फिर नौकरी पर नियुक्ति की चेतावनी दे दी गई है।
अचानक ऋचा को लगने लगा, वह तो बस एक मोहरा भर बनकर रह गई है। उसे अपनी लड़ाई खुद लड़नी है। दूसरों के लिए संघर्ष करनेवाली ऋचा कितनी निष्क्रिय बन गई है। नहीं, ऋचा को मोहरा बने रहना स्वीकार नहीं, उसने कोई ग़लती नहीं की है, फिर क्यों उसके घरवालों को मॅंुह छिपाना पड़ रहा है। अब और नहीं....
बिस्तर से उठकर ऋचा सामान्य रूप में किचेन चली गई। उसे देखते ही माँ चैंक गई-
"तू यहाँ क्यों आई है, जाकर बिस्तर पर आराम कर। बड़ा भारी काम करके आई है न?" घृणा माँ के स्वर में बज उठी।
"बड़ा काम करने तो अब जा रही हूँ, माँ, और हाँ मुहल्ले-पड़ोसियों के सामने रोने-धोने से कोई फ़ायदा नहीं होनेवाला। उनके लिए घर के दरवाजे नहीं खुलेंगे।" दृढ़ स्वर में अपनी बात कहकर ऋचा ने चाय का पानी चढ़ा दिया।
ऋचा को सामान्य देख आकाश का मुँह चमक उठा। पिता के सामने चाय का कप धरकर ऋचा ने कहा-
"बाबू जी, आप कब तक आॅफ़िस नहीं जाएँगे? आपकी बेटी के साथ जो हादसा हुआ, उसके लिए आपको आँखें चुराने की ज़रूरत नहीं है। आँखें तो शर्म से उन्हें नीची करनी होंगी जो इस हादसे के लिए ज़िम्मेदार हैं। मैं उन्हें सज़ा दिलवा के रहूँगी।"
बेटी के दृढ़ चेहरे को देख पिता को जैसे साहस मिल गया।
"ठीक कहती हो, बेटी। मैं आज ही आफ़िस जाऊॅंगा। लोगों के सवालों का मॅंुहतोड़ जवाब दूँगा। मेरी बेटी की तरह कल किसी और की बेटी के साथ ऐसा हादसा हो सकता है, किसी की बेटी को तो हिम्मत करनी ही होगी। यह हिम्मत मेरी बेटी ने की है।" बाबू जी उठकर तैयार होने चले गए।
"बाबू जी ठीक कहते हैं, मेरी दीदी बहादुर है। डरपोक लड़की तो बात छिपाकर रोती रह जाती। अब स्कूल जाते मैं भी नहीं डरूँगा।" आकाश अचानक बड़ा हो गया।
ऋचा पुलिस-स्टेशन जाने को तैयार हो रही थी कि सीतेश के साथ सम्पादक जी आ गए।
"कैसी हो, ऋचा?" कुछ संकोच से सम्पादक जी इतना ही पूछ सके।
"पहले के मुकाबले लड़ने की और ज्यादा ताकत आ गई है, सर।" हॅंसती ऋचा ने दोनों को विस्मित कर दिया।
"देखो बेटी, जो हो गया सो हो गया। वे लोग तुमसे माफ़ी माँगने को तैयार हैं। अखबार के दफ्तर में भी तुम्हें सहायक सम्पादक का काम दिया जाएगा। तुम्हारे लिए एक फ्लैट व कार की स्थायी व्यवस्था की जाएगी। बोलो मंजूर है?"
"अच्छा तो मेरे अपमान की कीमत एक फ्लैट और कार है? नहीं, सर। मुझे कोई भी कीमत स्वीकार नहीं है। मैं अपनी लड़ाई में किसी की बैसाखी नहीं चाहती।" उत्तेजित ऋचा का मुँह लाल हो आया।
"एक बार फिर शान्ति से सोच लो, तुम्हारे माता-पिता और भाई के भविष्य की भी पूरा व्यवस्था की जाएगी। कहते हैं, सज़ा देने की जगह क्षमा-दान अधिक महत्वपूर्ण है।"
"क्षमा सुपात्रों को दी जानी चाहिए, कुछ कुपात्र दण्ड के ही योग्य होते है। मुझे क्षमा करें, सर। मुझे बाहर जाना है।"
उनके जाते ही माँ ने ऋचा को आड़े हाथों लिया था-
"उनकी बातें मान लेने में सबकी भलाई थी, ऋचा। इतना घमण्ड किस काम का? रस्सी जल गई, पर ऐंठन नहीं गई। क्या मिल जाएगा कोर्ट-कचहरी जाके? उल्टे कचहरी में तेरी छीछालेदार और होगी।"
"माँ होकर तुम बेटी के उन पापियों से फ़ायदा उठाने की बात सोच रही हो? ऐसी बात सोचते भी शर्म आती है, माँ। मैं जा रही हूँ।"
"कहाँ जा रही है? अरे, अब क्या तू बाहर मुँह दिखाने लायक रही है? क्यों हमारे मुँह पर और कालिख पुतवाने पर तुली है, ऋचा?"
"कालिख पुती है तो उसे धोना जरूरी होता है, माँ।" माँ को और बात कहने का अवसर न दे ऋचा ने साइकिल निकाली। साइकिल बरामाद करने में पुलिस वालों की मुस्तैदी निःसन्देह काबिले तारीफ़ थी।
घर से बाहर निकलते ही ऋचा पर पड़ोसियों की निगाहें टंग गई। सत्या ताई ने आगे आकर पूछा-
"कहीं बाहर जा रही है, बेटी? तबीयत तो ठीक है न?"
"ऋचा बेटी, जरा सम्हल के साइकिल चलाना, घाव सूखे नहीं होंगे।" मॅंुहबोली मौसी ने हमदर्दी जताई।
किसी भी बात का जवाब न दे ऋचा ने साइकिल के पैडल पर पाँव रख, स्पीड तेज कर दी। पीछे औरतों का हुजूम विस्मय से निहारता रह गया।
"जरा लड़की की हिम्मत तो देखो। इतना झेलने के बाद भी कोई फ़रक नहीं पड़ा"
"हाँ बहन, एक हम थे, पहली रात के बाद चार दिन तक कमज़ोरी महसूस करते रहे।"
"अरे, आजकल की लड़कियों की कुछ न कहो, सब खेली-खाई होती हैं। हमारा ज़माना ही दूसरा था।" ताई ने मुँह बिचकाया।
"नहीं, ताई, सब लड़कियाँ एक-सी नहीं होतीं। हमारी शालिनी को देख लो, कॅालेज से सीधे घर आती है। हाय राम! मैं तो गैस पर दूध चढ़ा आई थी।" मौसी के जाते ही ताई ने ताना मारा-
"इनकी शालिनी कैसी है, हम जाने हैं, पड़ोस के लड़के मदन के साथ स्कूटर पर बैठकर घूमे है। हमें क्या किसी से लेना-देना। चलें घर में ढेरों काम पड़े हैं।"
"जो भी हो, ऋचा के साथ हुआ बहुत बुरा। बेचारी की ज़िन्दगी खराब हो गई। अब कौन उसके साथ शादी करेगा।" समवयस्का नई ब्याही सत्तो को ऋचा से हमदर्दी हो आई।
घर के काम निबटाना सबकी मजबूरी थी, वरना आजकल टी.वी. सीरियल के मुकाबले उन्हें ऋचा की कहानी में ज्यादा मज़ा आ रहा था।
थाने में ऋचा को देख इन्स्पेक्टर कुलकर्णी हक्का-बक्का रह गया।
"आप........... खुद यहाँ आई हैं?"
"जी हाँ, मैं जानना चाहता हूँ, केस की क्या स्थिति है? तीनों अभियुक्त कहाँ हैं?"
"जी........ उन्हें तो कल ज़मानत पर छोड़ दिया गया है। उनपर मुकदमा चलाया जाएगा।" इन्स्पेक्टर हड़बड़ा-से गए।
"ज़मानत पर छोड़ दिया गया ताकि बाहर जाकर किसी और लड़की का बलात्कार करें?" ऋचा की आँखों से चिनगारियाँ छूट रही थीं।
"देखिए, कोर्ट के आर्डर के सामने हमारी बात नहीं चल सकती।"
"ठीक है मि. कुलकर्णी, मैं देखती हूँ, क्या किया जा सकता है।"
उत्तेजित ऋचा सीधी चीफ़ जस्टिस गर्ग के घर पहुँच गई। दरबान के रोकने की परवाह न कर, डोर-बेल बजाती गई। दरवाजा खुलते ही ऋचा अन्द प्रविष्ट हो गई।
चीफ जस्टिस गर्ग ब्रेकफास्ट ले रहे थे। ऋचा को देख चेहरे पर नाराज़गी-सी उभर आई। नाराज़गी की परवाह न कर, संक्षेप में ऋचा ने अपना केस सुना दिया।
"आप मुझसे क्या चाहती हैं? अन्ततः हर बात का एक तरीका होता है। इस तरह बिना इजाज़त घर में घुस आना अपराध है। आपको सज़ा दी जा सकती है। कानून का अपना नियम है। हर फैसला नियम-कानून के अधीन किया जाता है।"
"किस कानून की बात आप कर रनहे हैं, सर? जहाँ एक लड़की का तीन-तीन युवक सामूहिक बलात्कार करने के बाद खुले घूम रहे हैं और फ़रियादी लड़की को कानून के नियम-कायदे समझाए जाते हैं?"
"कोर्ट के फ़ैसलों में वक्त तो लगता ही है। तुम्हें सब्र से काम लेना चाहिए।"
"सब्र रखने की बात कहना बहुत आसान है, अगर यही हादसा आपकी अपनी बेटी के साथ होता तो क्या आप इसी सब्र से काम लेते? नहीं सर, नहीं। जब तक बलात्कार झेलनेवाली लड़की के साथ आप जुड़ाव न महसूस करेंगे, तब तक रोज़ किसी शीला, मीना, लीला, रमा का बलात्कार होता रहेगा। कुछ देर के लिए मुझमें अपनी बेटी को देख लीजिए, सर, तब आप उस पिता के हाहाकार को समझ सकेंगे, जो आज मेरे पिता सह रहे हैं।"
चीफ़ जस्टिस गर्ग मौन रह गए। उनकी पत्नी की आँखों में आँसू आ गए।
"मैं तुम्हारा दर्द समझ रही हूँ, बेटी। मुझे खुशी है, तुमने हिम्मत नहीं हारी। मेरा आशीर्वाद है, तुम्हें कामयाबी मिले।"
"ठीक हैं, तुम अपना मुकदमा दाखिल कराओ। विश्वास रखो, तुम्हारे साथ अन्याय नहीं होगा।"
"थैंक्यू, सर!"
ऋचा का चेहरा चमक उठा। रास्ते में महिलाओं का जुलूस जोरदार नारों के साथ सड़क पर उतर आया था। एक बार जुलूस में शामिल होने की इच्छा हो आई, पर अब उसे अपने केस के लिए वकील ढॅूँढ़ना है।
घर वापस आती ऋचा को विशाल बेतरह याद आने लगा। काश, आज इस मुश्किल के वक्त विशाल उसके साथ होता, पर वह तो इतना कायर निकला कि झूठी तसल्ली के दो शब्द देने भी नहीं आ सका। ऋचा जानती है, अब वह पहले वाली स्थिति में नहीं है, शादी न सही, दोस्ती तो कायम रखी जा सकती थी। शायद अन्य सामान्य पुरूषों की तरह ही बलात्कार की शिकार लड़की के साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध बनाए रखने में उसे अपना सम्मान घटने का डर होगा। इस वक्त ऋचा के सामने सच शीशे की तरह साफ़ था। हाँ, वह विशाल से बहुत प्यार करती है। पर शायद विशाल के लिए ऋचा बस एक समय काटने की साथिन भर थी।
साइकिल रख, बैठक में विशाल को देख, ऋचा चैंक गई। क्या यह सच था!
"तुम........ यहाँ?"
"हाँ, ऋचा। बड़ी देर से तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा हूँ।"
"थैंक्स, विशाल! वैसे यहाँ आने की तो तुम्हें कोई जल्दी नहीं थी।" अनजाने ही ऋचा की आवाज में व्यंग्य उतर आया।
"देर या जल्दी का सवाल तो तब उठता, जब मैं शहर में मौजूद होता, ऋचा।" उदास स्वर में विशाल ने बताया।
"ओह! तो हादसे की बात सुनते ही आप शहर छोड़ गए। ठीक कहा न, विशाल?" अपनी सवालिया आँखें ऋचा ने विशाल पर निबद्ध कर दीं।
"मुझे इतना ही जान सकीं, ऋचा?" आहत स्वर में विशाल ने पूछा।
"तुम्हें जान ही कहाँ सकी, विशाल? मैं तो भ्रम में जीती रही।"
"और मेरी गैरहाज़िरी ने तुम्हारा वह भ्रम तोड़ दिया।"
"शायद, यही सच है।"
"तुम कुछ नहीं जानती, ऋचा। उस रात पिक्चर के बाद जब घर पहुँचा, पापा का मेजेस था, माँ को सीरियस हार्ट-अटैक हुआ था। रात में ही घर के लिए निकल गया। आज लौटते ही तुम्हारे पास आया हूँ।"
"सच कह रहे हो, विशाल?" कुछ अविश्वास से ऋचा ने पूछा।
"माँ की बीमारी का बहाना ओछे इन्सान बना सकते हैं, मैं, वैसा इन्सान नहीं हूँ।"
"अब माँ कैसी हैं?"
"ख़तरे के बाहर हैं, पर छह हफ्तो का बेड़-रेस्ट बताया गया है।"
"इस वक्त तो तुम्हें उनके पास होना चाहिए था, विशाल। "
"मेरा जिसके साथ इस वक्त रहना जरूरी है, उसी के पास आया हूँ, ऋचा। तुम्हारा केस फ़ाइल करना है। सारे पेपर्स तैयार हैं, तुम्हारे सिग्नेचर चाहिए।"
"मुझसे कुछ नहीं पूछोगे, विशाल?" ऋचा की आँखें भर आई।
"जिस ऋचा को इतने करीब से जाना है, उससे कुछ पूछने की क्या सचमुच कोई ज़रूरत है?"
"विशाल, मैंने हर पल तुम्हें याद किया, तुम्हारी कमी महसूस की।" ऋचा की आँखों से आँसू बह निकले।
"छिह, यह कौन-सी ऋचा है? मेरी ऋचा आँसू नहीं बहा सकती।" बड़े प्यार से विशाल ने ऋचा के आँसू पोंछ दिए। ऋचा मुस्करा दी।
"ठहरो, तुम्हारे लिए चाय लाती हूँ।"
"चाय क्यों, मैं तो खाना खाऊॅंगा, अम्मा जी अपने होनेवाले दामाद के लिए खाना बना रही हैं।" शैतानी से विशाल मुस्करा दिया।
"क्या ......... क्या कहा तुमने?"
"वही जो तुमने सुना है। कहो, तुम्हें तो कोई इन्कार नहीं है, ऋचा?"
"नहीं, विशाल। अब स्थिति दूसरी है। तुम्हारे परिवारवालों को बलात्कार की शिकार लड़की स्वीकार नहीं होगी। शायद तुम भी दयावश मुझसे शादी करना चाहो। पर जब भी मुझे देखोगे हमेशा वह हादसा तुम्हें याद आएगा। मैं तुम्हें मुक्त करती हूँ, तुम किसी और लड़की से विवाह कर लो।"
"अरे वाह, पहले खुद प्यार के बन्धन में बाँधा और अब अपनी मर्ज़ी से मुक्त कर दिया। देखो ऋचा, मैं तुम्हारे इशारों पर नाचने वाला गुलाम नहीं, मेरी भी मर्ज़ी है।"
"तुम्हारी क्या मर्ज़ी है, विशाल?"
"मैं तुम्हारे साथ शादी करूँगा। हमारा एक प्यारा-सा घर होगा। घर में ढेर सारे गुलाब खिलेंगे। नन्हे-मुन्ने बच्चे होंगे........."
"बस-बस। अब ये सपने मत दिखाओं। विशाल, मैं नहीं चाहती, शादी का उपकार करके बाद में पछताओ।"
"मैं कोई काम ऐसा नहीं करता, जिसके लिए पछताना पड़े। मैंने एक जुझारू पत्रकार को अपनी पत्नी के रूप में चुना है और मैं चाहता हूँ, मेरी वह कर्मठ पत्रकार जल्दी-से-जल्दी अपने कर्म-क्षेत्र में जुट जाए।" विशाल हॅंस रहा था।
"तुम कितने अच्छे हो, विशाल। अपने चुनाव पर मुझे भी गर्व है।" ऋचा की आँखें चमक उठीं।
खाना खाते, विशाल ने ऋचा के पिता से ऋचा का हाथ माँग सबको चैंका दिया-
"बाबूजी, हम दोनों एक-दूसरे को बहुत चाहते हैं। ऋचा के साथ जल्दी-से-जल्दी विवाह करना चाहता हूँ। हमारे विवाह से बहुत-सी समस्याएँ दूर हो जाएँगी। आपकी अनुमति चाहिए।"
बाबू जी और माँ का चेहरा खुशी से चमक उठा। क्या दुनिया में विशाल जैसे भी लोग हैं?
"जुग-जुग जियो, बेटा, पर क्या तुम्हारे परिवारवाले ऋचा को स्वीकार कर सकेंगे?" पिता ने शंका जताई।
"उनकी आज्ञा लेकर ही आपसे ऋचा का हाथ माँग रहा हूँ। मैं चाहता हूँ, हमारा विवाह सादगी के साथ मन्दिर या आर्य-समाज में सम्पन्न किया जाए।"
"नहीं, बेटा। वर्तमान स्थिति में इस तरह के विवाह को लेकर लोग बातें बनाएँगे। हम चाहते हैं, विवाह पूरे विधि-संस्कार से इस घर से हो।" माँ ने अपने मन की बात कही।
"लोगों की परवाह मत करो, माँ। वो तो हर तरह से कुछ-न-कुछ कहने का बहाना खोज ही लेंगे। विशाल ठीक कहते हैं, विवाह में कोई तामझाम नहीं चाहिए।" ऋचा ने अपना निर्णय दे डाला।
"माँ की बीमारी की वजह से मेरे घर से बस मेरी बहन माधवी ही आ सकेगी। यहाँ के मेरे मित्र-बन्धु भी साथ रहेंगे।" विशाल ने स्थिति बता दी।
दो दिन बाद आर्य-समाज-मन्दिर में विवाह होना तय हो गया। बाबू जी और माँ के चेहरों का विषाद छंट गया। इला दीदी और जीजा जी भी पहुँच गए। इला दीदी ने सिलाई का डिप्लोमा ले लिया था। अब उन्हें नौकरी की तलाश है। दीदी का चमकता चेहरा देख, ऋचा खुश हो गई।
आर्य-समाज के प्रबन्धक ने स्वंय ही आदर्श विवाह की सूचना समाचार-पत्रों में छपवा दी। विवाह के समय भारी भीड़ जमा हो गई। लोग विशाल को बधाई देते यह कहना नहीं भूलते कि उसने बड़ी हिम्मत का काम किया है। ची।फ़ जस्टिस को विवाह में सम्मिलित होते देख, लोग ताज्जुब में पड़ गए। ऋचा के सिर पर आशीर्वाद का हाथ धर, उनकी पत्नी ने एक सोने की चेन उसे पहना दी। ऋचा की आँखें भर आई। वह स्नेहमयी स्त्री सचमुच ऋचा की शुभाकांक्षिणी थीं। स्मिता, सुधा, परेश, नीरज, रागिनी सबने अलग-अलग बधाई दी।
विवाह के बाद ऋचा और विशाल को शहर के एम.एल.ए. की कार द्वारा उनके घर तक पहुँचाया गया। विशाल के छोटे से घर मंे कोई सजावट नहीं थी। माधवी ने भाई-भाभी के स्वागत में खीर बनाई थी। सहास्य भाभी को छेड़ती माधवी ने कहा-
"भाभी, भइया को तो आपने उनकी मंजिल तक पहुँचा दिया। अब हमेें एयरफ़ोर्स तक पहुँचाने की जिम्मेदारी उठानी होगी।"
"तुम जिस भाई की बहिन हो, उस बहिन के लिए कुछ भी कर पाना सम्भव होगा, यह मेरा विश्वास है, माधवी। अपना लक्ष्य तुम जरूर पा सकोगी।" ऋचा ने सच्चे मन से आशीर्वाद दिया।
रात के एकान्त में ऋचा ने विशाल से एक अनुरोध किया-
"जब तक मैं अपने अपराधियों को सज़ा नहीं दिलवा लेती, हमारी मधु-यामिनी स्थगित रहेगी। मेरा यह अनुरोध मान सकोगे, विशाल?"
"तुम्हारे मन की आग मैं महसूस कर सकता हूँ, ऋचा। यही ठीक होगा। पहले वकील साहब मुकदमा जीतकर दिखाएँ, फिर मधु-यामिनी मनाएँ। वाह! क्या तुक बनी है।"
विशाल के परिहास पर दोनों जी खोलकर हॅंस पड़े।
अगले कुछ दिन भारी व्यस्तता में कटे। इस बीच युवकों के पिताओं ने ऋचा और विशाल पर हर तरह के दबाव डाले। पैसों से लेकर पाँव पड़कर माफी माँगने तक की बात कही गई, पर ऋचा अविचलित रही। शहर में ऋचा की हिम्मत की दाद दी जाती। अखबार-पत्रिकाओं ने ऋचा को उच्च पद देने के प्रस्ताव रखे, पर ऋचा ने निश्चय कर लिया, अब वह अपना खुद का अखबार निकालेगी, जिसमें सच्ची पत्रकारिता को प्रोत्साहन दिया जाएगा।
विशाल ऋचा के केस की तैयारी में जुटा था, कहीं कोई बात छूट न जाए। सुनीता के केस की तारीख भी आनेवाली थी। अच्छी बात यह हुई कि सुधा के मामले में इन्क्वॅायरी-कमेटी ने सुधा को निर्दोष बताते हुए उसे पुनः नौकरी पर रखने के आदेश दे दिए। सुधा फिर उसी जगह जाने से हिचक रही थी, पर परेश ने हिम्मत दिलाते हुए कहा-
"तुमने अपनी ऋचा दीदी से कोई सीख नहीं ली। उन्होंने किस हिम्मत से अपने बलात्कार की रिपोर्ट न सिर्फ थाने में दर्ज कराई बल्कि अखबारों में छपवाई और एक तुम हो जिसे फिर जॅाब आॅफर किया जा रहा है और तुम ज्वाइन करते डर रही हो। याद रखो, तुम्हारी पुनः नियुक्ति के लिए ऋचा जी ने कितनी बड़ी कीमत चुकाई है।"
"ठीक कहते हो, परेश। अगर मैं ड्यूटी ज्वाइन नहीं करती तो यह ऋचा दीदी की हार होगी और मैं किसी भी हालत में उन्हें हारने नहीं दूँगी।"
परेश और सुधा के साथ स्मिता और नीरज भी आए थे। सुधा को बधाई देती ऋचा सचमुच खुश थी। नीरज बेहद शर्मिन्दा था-
"मुझे क्या माफ़ कर सकती हो, ऋचा? उस दिन होश गॅंवा, न जाने क्या-कुछ कह गया। तुमने सुधा के लिए जो किया, एक भाई होकर भी मैं नहीं कर सका।"
"जाने दो, नीरज। उस दिन तुम नहीं, एक परेशान भाई बोल रहा था। लड़की के साथ कुछ ऊॅंच-नीच हो जाने पर घरवालों की मनोदशा मैं समझ सकती हूँ। हमें इस समाज को बदलना होगा, नीरज।"
"उसकी पहल तो हो चुकी है, ऋचा। सारा शहर तुम्हारे मुकदमे के फ़ैेसले के लिए बेचैन है।" नीरज हॅंस रहा था।
"सुना है, वे तीनों तो गूँगे-से हो गए हैं। उनके बाहर निकलते ही लोग उॅंगलियाँ उठाते हैं। सारी हेकड़ी धरी-की-धरी रह गई।" परेश खुश था।
"इसका श्रेय तो ऋचा दीदी को जाता है। अगर उन्होंने डर के कारण अपनी बात छिपा ली होती तो आज भी वे लोग खुले साँड़-से सड़कों पर घूम रहे होते। मेरा तो जी चाहता है, हम सब मिलकर उन्हें सबक सिखाएँ।" सुधा उत्तेजित थी।
"नहीं, सुधा। मुझे पूरी उम्मीद है, कानून उन्हें कड़ी-से-कड़ी सजा दिलवाएगा। वैसे तुमलोग शादी कब कर रहे हो?"
"जिस दिन उन दुष्ट बलात्कारियों को सज़ा दी जाएगी, आप केस जीत जाएँगी, उसके बाद ही हमारा विवाह होगा। यही हमारा निश्चय है।" दृढ़ स्वर में परेश ने बात कही।
"थैंक्स, परेश, पर यह तो तुम्हारे साथ अन्याय ही होगा।" विशाल ने कृतज्ञता जताई।
"हाँ, ऋचा, तुम्हारे प्रशंसकों में प्रकाश जी का नाम भी जुड़ गया है। जल्दी ही वह तुमसे मिलने आने वाले हैं। रागिनी और प्रकाश आज ही आते, पर स्कूल में कुछ काम निकल आया है।" स्मिता ने मुस्कराकर ऋचा की बड़ाई की।
"अच्छा-अच्छा, हम काफ़ी नाम कमा चुके। अब बता, तेरे जॅाब का क्या रहा? इन दिनों तूने तो मुझे भुला ही दिया न, स्मिता?"
"नहीं, ऋचा, तू क्या भुलाई जा सकनेवाली चीज है। असल में हमारा जी अच्छा नहीं रहता, इसलिए अभी जॅाब की बात छोड़ दी है।" कुछ शर्माती स्मिता ने कहा।
"आप जल्दी ही मौसी बननेवाली हैं, ऋचा जी। भाभी उम्मीद से हैं। एक और खुशखबरी, नीरज भइया बैंक-सर्विस के लिए चुन लिए गए हैं।" सुधा ने दो-दो खुशखबरियाँ दे डालीं।
"अरे वाह! तब तो मिठाई के साथ आना चाहिए था।" ऋचा चहक उठी।
"सोचा तो हमने भी था, फिर लगा, तेरे साथ ऐसा हादसा हुआ, उसके बाद क्या मिठाई लाना ठीक होगा?" कुछ संकोच से स्मिता ने कहा।
"ठीक कहती हो, स्मिता। अगर विशाल मेरे साथ न होते तो हिम्मत न हारने पर भी लोगों की नज़रों में मैं बेचारी लड़की भर बनकर रह जाती। अपने खुशहाल जीवन के लिए मैं विशाल की आभारी हूँ। विशाल ने मुझे यह विश्वास दिलाया है कि जो हुआ, वह एक दुर्घटना थी और दुर्घटनाएँ दुःस्वप्नों की तरह भुला दी जानी चाहिए।" कृतज्ञ दृष्टि से ऋचा विशाल को देख, मुस्करा दी।
"अच्छा-अच्छा, अब विशाल-प्रशंसा-पुराण बन्द करो। अपने दोस्तों को बढ़िया-सी कॅाफ़ी पिला दो।"
ऋचा के हटते ही नीरज पूछ बैठा-
"एक बात पूछना चाहता हूँ विशाल, क्या ऋचा के साथ हुए हादसे का तुमपर ज़रा-सा भी असर नहीं हुआ? मेरी बात को अन्यथा मत लेना प्लीज!"
"सच तो यह है, मैं स्तब्ध रह गया था। एक पल को लगा, मेरी दुनिया ही उजड़ गई, सब कुछ ख़त्म हो गया। हाॅस्पिटल में माँ की बेड के पास बैठा जागता रहा। अचानक लगा, ये मैं क्या सोचने लगा। ऋचा को मैंने पूरे मन से चाहा, क्या मात्र शरीर ही सबकुछ हो गया। आखिर लोग विधवा से भी तो विवाह करते हैं। उस स्थिति में तो उसका अपने पति के साथ भावनात्मक जुड़ाव भी रहता होगा। ऋचा तो उनसे नफ़रत करती है। उसके मन ने तो बस मुझे चाहा है, उस मन को कैसे नकार दूँ? बस सारी दुविधा दूर हो गई।" विशाल गम्भीर हो आया।
"वाह विशाल भाई, आपने तो पूरा नज़रिया ही बदल दिया। काश, दूसरे पुरूष भी आपकी तरह ऐसी स्थिति का विश्लेषण कर पाते।" परेश की आँखों में सच्ची प्रशंसा की चमक थी।
"लीजिए गरमा-गरम कॅाफ़ी हाजिर है।" कॅाफ़ी के साथ बिस्किट लेकर ऋचा आ गई।
सबके जाने के बाद ऋचा विशाल से पूछ बैठी-
"विशाल, क्या तुम पहले जैसा सहज अनुभव करते हो या लोगों के सामने एक्टिंग करना तुम्हारी मजबूरी है?"
"मैं कभी अच्छा एक्टर नहीं रहा, ऋचा। क्या तुम मेरे साथ असहज महसूस करती हो?"
"नहीं, विशाल, पर कभी-कभी दुःस्वप्न मुझे जगा जाते हैं। जी चाहता है, अपने हाथों से उन्हें सज़ा दूँ।"
"वक्त सबसे बड़ा मरहम है, वह बड़े-बड़े दुःख भुला देता है, यह तो बस एक हादसा था।" विश्वास से विशाल ने ऋचा की आँखों में आँखें डालकर देखा।
"अच्छा विशाल, तुम मेरे केस को लेकर बिज़ी हो। सुनीता के केस का क्या हो रहा है? "
"पन्द्रह दिसम्बर को उसकी सुनवाई है। सिस्टर मारिया जैसी चश्मदीद गवाह की वजह से उसका केस काफ़ी मजबूत है। सुनीता ने बताया, राकेश उससे माफ़ी माँगने को तैयार है, पर सुनीता उस नरक में वापस नहीं जाना चाहती।"
"बिल्कुल ठीक निर्णय है। राकेश इन्सान नहीं, राक्षस है।"
"और मेरे बारे में आपका क्या ख्याल है, ऋचा जी?" विशाल ने ऋचा को छेड़ा।
"तुम? बस ठीक-ठाक हो।" ऋचा हॅंस पड़ी।
"तुम्हारे लिए एक और खुशखबरी है, तुम अपना अखबार निकालना चाहती हो, उसके लिए चन्द्रमोहन जी पैसा लगाने को तैयार हैं। उन्हें विश्वास है, तुम जैसी कर्मठ संपादिका के साथ अखबार खूब चलेगा।"
"वाह! यह तो सचमुच अच्छी ख़बर है। मैं कल ही से तैयारी में जुट जाती हूँ।" ऋचा खुश हो गई।
ऋचा के मुकदमे के दिन कोर्ट में तिल रखने की जगह नहीं थी। शहर के सारे पत्रकार, युवा पीढ़ी और दूसरे लोग उमड़ पड़े थे।
अभियुक्तों की ओर से वकील ने ज़ोरदार शब्दों में दलीलें पेश कर ऋचा के बयान को झूठा सिद्ध करना चाहा, पर ऋचा के निर्भीक बयान में सच्चाई थी। डाॅ. निवेदिता और सिस्टर मारिया ने ऋचा के बयान की पुष्टि कर, ऋचा की सच्चाई पर मुहर लगा दी। डाॅ. निवेदिता की घोषणा से तो कोर्ट में सन्नाटा ही छा गया-
"माई लाॅर्ड, मैं बताना चाहॅूंगी, उस रात ऋचा ने जो कपड़े पहन रखे थे, वे कपड़े मेरे पास सुरक्षित रखे हैं, उन कपड़ों की मदद से डी.एन.ए. जाँच कराई जा सकती है।"
विपक्षी वकील ने बात परिहास में टालनी चाही-
"इसका मतलब डाॅ. निवेदिता डाॅक्टरी के साथ साइड-बिजनेस के रूप में वकीलों के लिए सबूत जमा करने का काम भी करती हैं।"
"जी हाँ, जिस दिन सबूत के अभाव में बलात्कार की शिकार मेरी बहन को कोर्ट से न्याय नहीं मिल सका, उसे आत्महत्या करनी पड़ी, उस दिन से हर बलात्कार की शिकार लड़की की मदद करना मेरा फ़र्ज बन गया है। मेरी आपके लिए भी एक सलाह है। बलात्कारियों को बचाने की जगह उन्हें सज़ा दिलाने में मदद करके पुण्य कमाइए। हो सकता है, जिन्हें आप आज बचा रहे हैं, कल आपकी बेटी का बलात्कार कर डालें।"
कोर्ट में उपस्थित जनसमूह ने तालियाँ बजाकर डाॅ. निवेदिता की बात का समर्थन किया। विपक्षी वकील का चेहरा तमतमा आया।
सिस्टर मारिया ने दृढ़ स्वर में अपनी बात कही-
"मैं एक नर्स हूँ। इन्स्पेक्टर कुलकर्णी के साथ मैं भी उस फ़ार्म-हाउस में गई थी, जहाँ वो तीनों अपनी जीत का जश्न मना रहे थे। पलंग की चादर पर पड़े खून के धब्बे, ऋचा के फाड़े गए कपड़ों के टुकड़े सबूत के रूप में ज़ब्त किए गए थे। मुझे उम्मीद है, इंस्पेक्टर कुलकर्णी ने उन सबूतों को सुरक्षित रखा होगा।"
"जी ......ई ........ हाँ-हाँ ...... इन्स्पेक्टर हकला से गए।
"क्या बात हैं, इन्स्पेक्टर आपकी तबीयत तो ठीक है? मैं अदालत में सिस्टर मारिया के बताए गए सबूत पेश करने की इजाज़त चाहता हूँ।" विशाल ने इन्स्पेक्टर की आँखों में आँखें डालकर अपनी बात कही।
इन्स्पेक्टर कुलकर्णी का चेहरा उतर-सा गया। सबूत छिपाने के परिणाम गम्भीर हो सकते हैं। विशाल की धमकी के बाद प्रमाण छिपा सकना असम्भव था। बाजी हारते देख, विपक्षी वकील ने ऋचा से अश्लील प्रश्न पूछकर उसके चरित्र पर उॅंगली उठाने का प्रयास किया-
"सुनते हैं, आप रातों में अक्सर देर तक बाहर रहती थीं। पुरूषों की कम्पनी आप ज्यादा एन्जवाॅय करती थीं, क्या यह सच है?"
"जी हाँ, बिल्कुल सच है। मैं एक पत्रकार हूँ। मेरे कई पुरूष-मित्र हैं, वे मेरा सम्मान करते हैं। हाँ, भेड़ियों से पाला पड़ने का यह मेरा पहला और आख़िरी मौका था।"
"इसे आप आख़िरी मौका कैसे कह सकती हैं। हो सकता है, आप के साथ फिर कोई हादसा हो जाए। देर रात तक बाहर घूमना आपका शौक है।"
"हाँ, अगर भेड़ियों को खुला छोड़ दिया जाए तो वे जरूर फिर शिकार करना चाहेंगे, इसीलिए उन्हें खुला छोड़ना खतरे से खाली नहीं होता। वैसे आपकी तसल्ली के लिए बता दॅूं, अब अगर कभी मुझपर हमला करने की कोशिश की गई तो मैं उसे वहीं ख़त्म कर दूँगी। घायल शेरनी अपना शिकार नहीं छोड़ती।"
जनसमूह ने तालियों के साथ 'हियर-हियर', 'दिस इज दि स्पिरिट' का शोर मचा दिया। अभियुक्तों के नामों के साथ 'शेम-शेम' के नारे लगाए गए। बड़ी मुश्किल से लोगों को शान्त किया जा सका।
मुकदमे की पूरी सुनवाई के बाद मुख्य अभियुक्त जयन्त को दस साल की कैदे बा मशक्कत की सज़ा सुनाई गई। अन्य दो अभियुक्तों को जयन्त का साथ देने तथा दुराचार के लिए सात-सात वर्षो की सज़ा का फ़ैसला दिया गया।
फैसले के बाद विशाल को लोगों ने बधाइयाँ देकर, उसके उज्ज्वल भविष्य की घोषणा कर डाली। ऋचा के चारों ओर पत्रकार घिर आए। वे ऋचा को पत्रकारों की ओर से सम्मानित करने को उत्सुक थे। ढेर सारी फ़ोटो खींच डाली गई।
सीतेश ने कहा-
"ऋचा, आप सचमुच अनुपमा हैं। आपने दिखा दिया, बलात्कार की शिकार लड़की सम्मान की पात्री हो सकती है, बशर्ते वह स्वंय को अपराधिनी मानकर हिम्मत न हार जाए। मुझे आप पर गर्व है।"
घर में मित्रों का जमघट देर रात तक जमा रहा।
नीरज ने पूछा-
"भविष्य के लिए अब तुम दोनों की क्या योजना है? कहीं बाहर हो आओ, मन बदल जाएगा।"
"मेरा मन तो आज ही बदल गया है, नीरज। विशाल मेरा केस तो जीत गए, पर अभी सुनीता को न्याय दिलाना है।" ऋचा गम्भीर थी।
"उसकी चिन्ता मत करो, ऋचा। स्त्रियों को न्याय दिलाने में विशाल को कोई पराजित नहीं कर सकता। मुझे डर है, कहीं यह औरतों के ही वकील बनकर न रह जाएँ।" स्मिता ने चुटकी ली।
"ऐसा न कहो, तब तो ऋचा जी के लिए औरतें खतरा बन जाएँगी।" परेश भी परिहास करने से नहीं चूका।
"अब मज़ाक छोड़ो। बताओ, अपनी शादी में हमें कब बुला रहे हो?" ऋचा ने परेश से पूछा।
"जब बड़े आज्ञा दें, हम तो तैयार बैठे हैं।"
"ठीक है, जल्दी ही तारीख निकलवाते हैं, पर मेहनताना देना होगा।" स्मिता ने परेश को छेड़ा।
"वाह, स्मिता, तू तो बड़ी बातें बनाने लगी है, पर नीरज की नौकरी की दावत भूल ही गई।"
"नहीं, ऋचा। हम कुछ नहीं भूले हैं, पर तेरे केस का इतना टेन्शन था कि खुशी मनाने का जी ही नहीं चाहा। अब जल्दी ही सबको घर बुलाकर दावत दूँगी।" स्मिता का चेहरा चमक रहा था।
"स्मिता के पास एक और खुशखबरी है, ऋचा।" मुस्कराते नीरज ने कहा।
"वाह! क्या बात है, स्मिता! तू तो छुपी-रूस्तम निकली। एक के बाद एक सरप्राइज दे रही है। जल्दी बता कौन-सी खुशखबरी है।"
"मम्मी-पापा ने हमे माफ़ कर दिया, ऋचा!" स्मिता का चेहरा खुशी से जगमगा रहा था।
"सच! यह तो सचमुच खुशी की बात है। लगता है, वे नाना-नानी बनने वाले हैं, यह खबर उन तक पहुँच गई। क्यों ठीक कह रही हूँ न?"
"नहीं, ऋचा! उन्हें तो यह बात बाद में पता लगी, पर उसके पहले उन्हें प्रशान्त की सच्चाई पता लग गई थी।"
"प्रशान्त की सच्चाई? क्या मतलब है, तेरा, स्मिता?" ऋचा विस्मित थी।
"हाँ, ऋचा! पपा को उनके यू.एस.ए. के मित्रों से पता लगा, प्रशान्त ने एक अमेरिकी लड़की से विवाह कर रखा था। बूढ़े माँ-बाप की सेवा के लिए उसे स्मिता जैसी एक सीधी-सादी लड़की चाहिए थी।"
"हे भगवान्! तू बाल-बाल बच गई, स्मिता! अगर मुझे वह प्रशान्त नामधारी जीव मिल जाए तो काले पानी की सज़ा दिलवा दूँ।" ऋचा का आक्रोश देख विशाल हॅंस पड़ा।
"ग़नीमत है, प्रशान्त को फाँसी पर नहीं लटकाओगी।"
"यह हॅंसने की बात नहीं हैं, विशाल! विदेश ख़ासकर अमेरिका का भूत आज की युवा पीढ़ी पर इस कदर हावी है कि आँखें बन्द कर लड़कियाँ अमेरिका में बसे लड़कों को चुन लेती हैं। बाद में भले ही आठ-आठ आँसू रोने पड़े।"
"शुक्र भगवान् का, तुम्हें किसी अमेरिका में बसे लड़के ने प्रोपोज नहीं किया। वैसे स्मिता तो सचमुच समझदार निकली, प्रशान्त के आकर्षण से बिल्कुल अछूती रही। विशाल की बात पर सब हॅंस पड़े।"
"इसके लिए तो क्रेडिट मुझे मिलना चाहिए। भई, मै हूँ ही ऐसा इन्सान जिसके आगे प्रशान्त जैसे लोग पानी भरें।" काॅलर उठा, नीरज ने गर्व से कहा।
"यह तो सच बात है। अरे, हम भारतीय युवक तो होते ही कमाल के हैं।" इस बार परेश ने अप्रत्यक्ष रूप में अपनी तारीफ़ कर डाली।
"अब असली बात तो बता, तेरे ममी-पापा ने क्या कहा, स्मिता?"
"सबकुछ बड़े नाटकीय ढंग से हुआ। दरवाजे की दस्तक पर मैंने ही दरवाजा खोला। मम्मी-पापा को देख, बिल्कुल जड़ रह गई।"
मम्मी ने बड़े प्यार से पूछा- "कैसी है, स्मिता बेटी?"
मेरे मॅंुह से कोई जवाब ही नहीं निकला। पीछे से सासू माँ के आ जाने पर बड़ी मुश्किल से कह सकी, "अम्मा जी, ये हमारे मम्मी-पापा हैं।"
सासू माँ की खुशी का ठिकाना न था। थालों में मिठाइयाँ, बड़े-बड़े कीमती उपहारों ने उनके सारे गिले-शिकवे दूर कर दिए।
"इतने दिनों बाद बेटी की सुध ली, समधिन जी। हमने तो बहू से कई बार कहा, माँ के घर हो आओ। अरे, माँ-बाप से भी भला कोई नाराज़ होता है।"
"असल में ग़लती हमारी ही थी। हमने हीरा पहचानने में देर कर दी। कोयले को हीरा समझ बैठे थे।" मम्मी की आवाज में अपराध-बोध स्पष्ट था।
"नीरज बेटा कहाँ है?" इतनी देर बाद पापा के बोल फूटे थे।
"बस आता ही होगा। बैंक में बड़ा अफ़सर है सो काम में देर हो ही जाती है।" गर्व से सासू माँ का चेहरा चमक उठा।
तभी नीरज स्कूटर से आ पहुँचे। स्मिता की जगह नीरज की माँ ने उमग कर समधी-समधिन का परिचय दे डाला।
गम्भीर नीरज ने बस अभिवादन भर किया।
"बैठो, बेटा! बड़े थके-से लग रहे हो?" स्मिता के पापा ने स्नेहपूर्ण स्वर में कहा।
"जी नहीं! यह तो मेरा रोज़ का काम है। अभी फ्रेश होकर आता हूँ।"
नीरज के जाने के बाद सासू माँ भी पीछे-पीछे नाश्ते-चाय का इन्तजाम करने चली गई।
स्मिता से मम्मी ने पूछा- "खुश तो हो, बेटी?"
"हाँ, मम्मी! यहाँ हमें कोई तकलीफ़ नहीं है। सब हमें बहुत प्यार करते है।"
"हमसे ग़लती हो गई, स्मिता बेटी। हम प्रायश्चित करना चाहते हैं। मैं चाहता हूँ, तुम दोनों मेरे नए फ़ार्म-हाउस में शिफ्ट कर जाओ। वह फ़ार्म-हाउस मैंने नीरज के नाम कर दिया है।" पापा ने स्मिता से कहा।
कमरे में आते नीरज के कानों में पापा के वे शब्द पड़ गए थे। शांतिपूर्ण स्वर में कहा-
"नहीं, पापा! हमें बस आपका आशीर्वाद चाहिए। जल्दी ही मुझे घर मिलनेवाला है, आप परेशान न हों। हमे अपने इस छोटे से घर में कोई तकलीफ़ नहीं है।"
"नीरज बेटा! हमसे भूल हो गई। हमारा सबकुछ अन्ततः स्मिता का ही तो है।"
"मैंने पहले ही कह दिया था, मुझे आपके धन से कोई लेना-देना नहीं है। स्मिता से बड़ा धन और क्या होगा और वह धन मेरे पास है।"
"मैं तुम्हारे विचारों की कद्र करना हूँ, नीरज, पर माँ-बाप का भी बेटी के लिए कोई फ़र्ज होता है।"
"इस बारे में आप स्मिता से बात कर लीजिए, पापा! अगर स्मिता कुछ स्वीकार करना चाहे तो मुझे आपत्ति नहीं होगी।"
"पापा, आपने और मम्मी ने पढ़ा-लिखाकर मुझे इस योग्य बनाया है। आपके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकॅंूगी। आज हमे आशीर्वाद देकर आपने सब कुछ दे दिया। इससे अधिक हमें और कुछ नहीं चाहिए।" स्मिता का गला भर आया।
"मुझे अपनी बेटी पर गर्व है। तुमने सच्चा जीवनसाथी चुना है, स्मिता बेटी! भगवान् तुम दोनों को सदैव सुखी रखंे।"
स्मिता की माँ ने स्मिता के गले में हार पहना, हाथों में कंगन भी पहना दिए। स्मिता के विरोध पर आँसू-भरी आँखों से बोली, "इसे मेरा आशीर्वाद समझ कर स्वीकार कर ले, बेटी! बड़ी साध थी, तेरी शादी खूब धूमधाम से करूँगी, पर अपनी ही ग़लती से वह सुख खो दिया।"
सासू माँ अपने और सुधा-रागिनी के गहने-कपड़े पाकर फूली न समाई। उनके जाने के बाद भी उनके गुण-गान करती रहीं।
स्मिता की बातें सब मन्त्र-मुग्ध सुनते रहे। ऋचा के चेहरे पर गर्व छलक आया।
"तूने तो कमाल कर दिया, स्मिता! हाथ आई सुख-सम्पत्ति ठुकरा देना बिरलों को ही सम्भव होता है। तू सचमुच गर्व किए जाने योग्य है।"
"यह बात तो सच है, स्मिता ने जिस वैभव का परित्याग कर मेरे साथ कष्टों का जीवन जिया, वह साधारण लड़की को सम्भव नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, फिर पास आए सुख को ठुकराकर, स्मिता मेरी आदर की पात्री बन गई है।" स्मिता पर स्नेहभरी दृष्टि डाल, गर्वित नीरज ने कहा।
"हियर-हियर! ये हुई न बात। भई, नीरज और स्मिता की जोड़ी नम्बर वन सिद्ध हो गई।" विशाल ने ताली बजाकर घोषणा कर दी।
"विशाल भाई, देख लीजिएगा, मेरी और सुधा की जोड़ी भी कम नहीं रहेगी।" परेश ने शान से कहा।
"बाई दि वे, हमारी जोड़ी के बारे में सबकी क्या राय है?" विशाल ने हॅंसकर पूछा।
"अरे, आप दोनों तो हम सबके आदर्श हैं। कोशिश करके भी हम आपसे बराबरी नहीं कर सकते।" पूरी सच्चाई से परेश ने कहा।
बातों में वक्त कब निकल गया, पता ही नहीं लगा। अचानक विशाल की दृष्टि घड़ी पर गई। रात के साढ़े नौ बज रहे थे। ऋचा की ओर देखकर कहा- "लगता है, आज खुशी से ही सबका पेट भर दोगी। खाना खिलाने की ज़रूरत नहीं है।"
विशाल की बात पर सबको उठने का उपक्रम करते देख, ऋचा ने आदेश दे डाला-
"बिना खाना खाए कोई नहीं जाएगा। आधे घण्टे में भोजन सर्व कर दिया जाएगा।"
"लगता है, ऋचा के पास कोई जादुई चिराग है, इतने लोगों के लिए आधे घण्टे में खाना तैयार हो जाएगा।" नीरज ने परिहास किया।
"जी हाँ, मेरे पास एक नहीं, आठ-दस जादुई चिराग़ हैं। आप सब क्या चिराग़ों से कम हैं। सबको हेल्प करनी होगी। ये लीजिए। आप सब मटर छीलिए, स्मिता, तू आलू छील दे। मिनटों में आलू-मटर की सब्जी और पूरी तैयार।"
सबको काम देकर ऋचा रसोई में चली गई। जल्दी-जल्दी आटा गॅंूथ, एक ओर भिण्डी छौंक दी। उतनी देर में स्मिता छीले हुए आलू-मटर ले आई। दोनों ने मिलकर पूरियाँ सेंक डालीं। ठीक आधे घण्टे में खाना मेज पर तैयार रखा था। उसे खाने का स्वाद ही अनोखा था। विशाल बड़ा खुश दिख रहा था।
"भई, यह हमारी ओर से आप सबकी पहली दावत है, यकीन रखिए जल्दी ही आपको शानदार पार्टी मिलेगी।"
"नहीं, विशाल! मैंने तय किया है, जब तक सुनीता को न्याय नहीं मिल जाता, हम ऐसा कोई आयोजन नहीं करेंगे।" गम्भीरता से ऋचा ने कहा।
"आपको क्या शक है कि विशाल सुनीता को न्याय नहीं दिला पाएँगे?" परेश ने जानना चाहा।
"मुझे विशाल की सफलता पर पूरा विश्वास है, पर सुनीता का डर तब तक दूर नहीं होगा, जब तक कोर्ट से उसके पक्ष में फ़ैसला न हो जाए।"
"सुनीता को किस बात का डर है? जब तक कोर्ट में उसका केस विचाराधीन है, उसका पति कोई हिमाकत करने की जुर्रत शायद ही करे।" नीरज ने अपनी राय दी।
"तुम कोर्ट की स्थिति जानते ही हो। पैसों के बल पर झूठेे गवाह खड़े किए जा सकते है। सुनीता को चरित्रहीन सिद्ध करके उससे उसका बच्चा छीना जा सकता है, नीरज।"
"परेशान मत हो, ऋचा! मैने सब तैयारी कर रखी है। सुनीता का बच्चा उसके साथ ही रहेगा।" दृढ़ स्वर में विशाल ने कहा।
दूसरी सुबह ऋचा को कागजों के बीच देख, विशाल ने सहास्य पूछा- "क्या कोई नई रिपोर्ट तैयार की जा रही है? कहीं अपराधी यह बन्दा ही तो नहीं है?"
"अपराधी तो तुम ज़रूर हो, तुमने ही तो अपना अखबार निकालने की सज़ा दी है। उसी की तैयारी कर रही हूँ।"
"वाह, तुम्हारी तत्परता तो माननी पड़ेगी। बात मॅुह से निकली नहीं, और तुम्हारा काम शुरू हो गया। मुझे पूरा विश्वास है, तुम्हारी पत्रिका बहुत सफल रहेगी।"
"विशाल, मैंने तय यिा है, मैं अखबार की जगह एक महिला पत्रिका निकालूँगी। बताओ पत्रिका का नाम 'तेजस्विनी' रखूँ या 'अपराजिता'? इस पत्रिका द्वारा महिलाओं के शोषण और अन्याय के विरूद्ध मुहिम छेड़ी जाएगी।"
"ओह, तब तो डर है, कहीं इसका पहला निशाना मुझपर ही न साधा जाए।"
"ऐसा तो ज़रूर हो सकता है। तैयार रहिए, जनाब। जरा-सी चूक का भारी भुगतान देना पड़ सकता है।"
"इसीलिए तो वकील बना हूँ। ज़रूरत पड़ने पर अपना मुकदमा खुद लड़ सकॅंू।"
ऋचा के उत्साह का अन्त नहीं था। पत्रिका की रूपरेखा बनाने मे पूरी तरह से जुट गईं। सुखद आश्चर्य तब हुआ जब सीतेश और एक दो और पुराने सह्कर्मियों ने उसके साथ काम करने की इच्छा व्यक्त की।
अचानक एक दिन सुनीता के पति राकेश को अपने सामने देख ऋचा चैंक गई।
"तुम यहाँ?"
"हाँ, समझौता करना चाहता हूँ।"
"कैसा समझौता?"
"सुनीता को समझाइए, कोर्ट-कचहरी का चक्कर छोड़कर, सीधे-सीधे घरवाली की तरह घर में रहे। चार पैसे क्या कमाती है, दिमाग खराब हो गया।" आवाज में नफ़रत की बू आ रही थी।
"घरवाली बनकर ही तो वह रह रही थी, इसीलिए उसे जलाकर ख़त्म करना चाहा था?"
"गुस्से में तो ऐसा हो ही जाता है। अगर वह मेरा कहा मानकर चलेगी तो ऐसा नहीं होगा।"
"अच्छा, इसका मतलब, जिस दिन तुम्हारी मर्जी के खिलाफ़ कुछ करेगी तो गुस्से में उसे फिर जलाया जा सकता है।" तल्ख़ी से ऋचा ने कहा।
"अब आप तो बात के पीछे ही पड़ गई हैं। आखिर आपको भी वकील साहब की बात मानकर ही तो चलना होगा। आपके साथ जो हुआ, उसके बात क्या दूसरा कोई आपके साथ शादी के लिए तैयार होता? उपकार किया है उन्होंने आपके साथ।" व्यंग्य से होंठ टेढ़े कर राकेश बोला।
"निकल जाओ! गेट आउट! जाओ वरना........." क्रोध से ऋचा का पूरा शरीर काँपने लगा।
"जाता हूँ! सच बात कहने का साहस रखता हूँ। सुनने का साहस रखने की कोशिश कीजिए। आगे-पीछे सब यही बात तो करते हैं।"
राकेश के चले जाने के बाद भी ऋचा बहुत देर तक स्तब्ध बैठी रही। राकेश जैसे निकृष्ट व्यक्ति की बात ने उसे क्यों उद्वेलित कर दिया! वह जानती है, लोग उसे लेकर बातें बनाते हैं, पर ऋचा जैसी लड़की क्यों उन बातों की परवाह करे। उसने निर्णय सोच-समझकर ही लिया था। क्या विशाल के मन में भी कभी ऐसे ही ख्याल आते होंगे।
शाम को विशाल के आने पर पूरी घटना सुनाकर अचानक ऋचा पूछ बैठी-"विशाल, सच कहना, तुम्हारे मन में भी तो कभी यह बात आती होगी?"
"अपने विशाल को बस इतना ही जान सकी हो, ऋचा? तुम जैसी पत्नी पाकर मैं गौरवान्वित हूँ। फिर यह सवाल मत पूछना।" विशाल गम्भीर था।
"माफ़ करना, फिर ऐसी ग़लती नहीं होगी, विशाल।"
सुनीता के पास जाकर ऋचा ने राकेश की बातें बताना ज़रूरी समझा। कहीं ऐसा तो नहीं, सुनीता, राकेश की बातों से सहमत हो जाए। पति आम स्त्री की कमजोरी होता है।
ऋचा से सारी बातें सुनकर सुनीता का चेहरा घृणा से विकृत हो उठा।
"राकेश इन्सान नहीं हैवान है। अपनी हार उसे सहन नहीं है। किसी भी तरीके से वह मुझे फिर हासिल कर, दिखाना चाहता है कि वह पुरूष है, उसकी अधीनता मुझे स्वीकार करनी ही होगी।"
"तुम्हारा पक्का निश्चय है, तुम राकेश के पास वापस नहीं जाना चाहतीं।"
"नहीं, उसके साथ रहने का सवाल ही नहीं उठता। मुझे अपने बेटे का भविष्य बनाना है। उस जैसे शराबी, चरित्रहीन इन्सान के साथ रहकर बेटे का भविष्य नहीं बिगाड़ना है।"
"तब तुम निश्चिंत रहो। तुम केस ज़रूर जीतोगी।"
सुनीता के घर से लौटने के बाद ऋचा बड़ा हल्का महसूस कर रही थी। उसे खुशी थी, सुनीता में अपने अधिकारों के लड़ने की हिम्मत आ गई है। विशाल ने परिहास कर डाला-
"भई मुझे तो डर है, तुम्हारी प्रेरणा से और भी न जाने कितनी पत्नियाँ अपने पतियों को अत्याचार का आरोपी बनाकर, तलाक के मुकदमे न दायर करा दें।"
"अच्छा है, तुम्हारी इनकम तो खूब बढ़ जाएगी। चाहो तो फ़ीस भी बढ़ा सकते हो। मेरा मुकदमा जीतने के बाद जनाब का यश तो खूब फैल गया है।"
"वह तुम्हारा नहीं, मेरा केस था, ऋचा! वैसे मेरा फ़ैसला है, मजबूर स्त्रियों के मुकदमे बिना फ़ीस लडॅंूगा।" विशाल गम्भीर हो आया। ऋचा मुग्ध निहारती रह गई।
अन्ततः सुनीता के मुकदमे की तारीख भी आ गई। कोर्ट मंे ऋचा के साथ स्मिता, सुधा, रागिनी, नीरज, परेश सभी उपस्थित थे। सिस्टर मारिया, मुकदमे की ख़ास गवाह थी। ऋचा के समझाने पर मीना के साथ दो पड़ोसी भी राकेश और उसकी माँ के खिलाफ़ गवाही के लिए आ गए थे।
राकेश के खिलाफ़ लगे आरोप सही पाए गए। पत्नी की हत्या के प्रयासों के साथ उसपर हिंसा करने के लिए राकेश और उसकी माँ को दोषी ठहराया गया। राकेश को हत्या के प्रयास के कारण आजीवन कारावास तथा माँ को पाँच वर्षो की सजा सुनाई गई। सुनीता को बेटे की परवरिश का दायित्व दिया गया।
बेटे को गोद में लिए सुनीता की आॅखों में खुशी के आॅसू थे। प्रेस-फोटोग्राफरों ने सुनीता के बेटे सहित फ़ोटो उतार, उसे बधाई दी। सुनीता की माँ और भाई ने विशाल के सामने हाथ जोड़ अपनी कृतज्ञता जताई। माँ ने कहा- "विशाल बेटा, तुमने हमारी बेटी को नई ज़िन्दगी दी है। हम तुम्हारा उपकार कभी नहीं भूलेंगे।" सुनीता की माँ का स्वर गद्गद था।
"बेटा, हम तुम्हारी फ़ीस देने लायक तो नहीं, पर हमसे जो भी बन पड़ेगा, जरूर देंगे।"
"वाह ! एक ओर मुझे बेटा कह रही हैं, दूसरी ओर फ़फ़ीस की बात कहकर पराया बना रही हैं।"
"एक बात कहूँ, विशाल को अपनी फ़ीस नहीं चाहिए, पर मैं अपना हिस्सा नहीं छोड़नेवाली। आपने मुझसे तो पूछा ही नहीं, मुझे क्या चाहिए?" ऋचा ने हॅंसते हुए कहा।
"तुझे क्या चाहिए, बेटी?"
"आपके हाथ का बना खाना खाने जरूर आऊॅंगी।" स्नेह और आदर से अपनी बात कह, ऋचा ने सुनीता की विधवा माँ का मन जीत लिया।
"मेरा घर, तेरा ही घर हैं, जब चाहे आ जा। तेरा मनपसन्द खाना बनाने में माँ को बेहद खुशी होगी, ऋचा।" उल्लसित सुनीता ने कहा।
"ऐ ऋचा, तू कब से ऐसी पेटू हो गई? पन्द्रह दिन ठहर जा। सुधा और रागिनी की शादी में डबल खाना और मिठाई खा लेना।"
"अरे हाँ, मैं तो भूल ही गई थी। अब एक समय उपवास रखना शुरू कर दूँगी ताकि जमकर खा सकॅंू।"
खुशी-खुशी सब घर लौटे थे। घर में एक सुदर्शन युवक के साथ माधवी को प्रतीक्षा करते देख विशाल और ऋचा चैंक उठे।
"माधवी तू, अचानक। कोई खास बात है क्या?"
"हाँ भइया, यह स्क्वैड्रन-लीडर मोहनीश हैं।"
मोहनीश ने शालीनता से उठकर विशाल और ऋचा का अभिवादन किया। सबके बैठ जाने पर मोहनीश ने कहा- "यहाँ आने की एक ख़ास वजह है। मैं माधवी के साथ विवाह की अनुमति चाहता हूँ। हम दोनों एक-दूसरे को बहुत चाहते हैं।"
"क्यों माधवी, क्या यह सच है?" विशाल ने परिहासवश पूछा।
"जी, भइया।"
"देख, माधवी, तू बड़ी भोली है। तूने अच्छी तरह से छानबीन तो कर ली है। कहीं धोखे का कोई चांस तो नहीं है?"
"यह क्या सचमुच एयरफ़ोर्स में हैं? देखने से तो फ़िल्मी हीरो लगते है।" छिपाते हुए भी ऋचा के होंठों पर मुस्कान आ ही गई।
एक पल को विस्मित माधवी, ऋचा का परिहास समझ गई।
"हाँ, भाभी, मैंने तो खोजबीन नहीं की है। तुम अनुभवी हो, पता लगा दो, प्लीज! तुम्हारा एहसान मानूँगी।"
सबकी सम्मिलित हॅंसी से कमरा गॅंूज उठा।
डिनर तक विशाल जान चुका था, मोहनीश एक अच्छे परिवार का लड़का है। उसके माता-पिता माधवी से मिलकर अपनी सहमति दे चुके हैं। माधवी का उत्फुल्ल चेहरा उसकी खुशी बता रहा था। विशाल और ऋचा ने शीघ्र ही माता-पिता की सहमति से मोहनीश के घर विवाह का प्रस्ताव लेकर जाने का फ़ैसला सुना दिया। अन्ततः एक भाई होने के नाते बहिन के लिए सुयोग्य वर उसे ही तो ढॅूँढ़ना था। मोहनीश हर तरह से माधवी के योग्य था। माता-पिता को विशाल की पसन्द पर पूरा विश्वास होगा, इसमें कोई शंका नहीं थी। माधवी का मुख खुशी से चमक उठा।
दोनों को विदा कर रात के एकान्त में विशाल ने शैतानी से पूछा- "क्या हमारी मधु-यामिनी अब माधवी का विवाह होते तक स्थगित रहेगी?" हाँ, वैसे याद आया, शायद हमें सुधा और रागिनी के विवाह की भी तो प्रतीक्षा करनी होगी।
"प्रतीक्षा कर सकते हो?" शोखी से ऋचा ने पूछा।
"अजी, आज तक वही तो कर रहा हूँ। शायद ज़िन्दगी इन्तज़ार में ही बितानी होगी।" विशाल ने लम्बी साँस लेकर बाँहें फैला दीं।
विशाल की फैली बाँहों में मुस्कराती ऋचा समा गई। बाहर निखरी चाँदनी कमरे को रूपहला बना गई।
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1 comment:

  1. Best Story line ever. I love your writting. keep publishing your story... Thanks a lot for such a wonderful story.

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