12/3/09

उमा दी

”मीना की बड़ी दीदी लकी रहीं। इतनी उम्र में भी उनकी शादी हो गयी।“ एक उसाँस के साथ उमा दी ने वाक्य पूरा किया था।


ये क्या कह गयी उमा दी? छोटी बहिन कम्मो ने जैसे चैंकते हुए उमा दी के शान्त मुख पर दृष्टि डाली थी। जीवन के पचास बसन्त जिनसे अछूते निकल गये, पतझड़ का वरण किये, उमा दी ने यह कैसी बात कही थी?

कम्मो को अच्छी तरह याद हैं। चारों बहिनों में उमा दी सब से अलग थीं। जहाँ साज-सिंगार की शौकीन छोटी बहिनें हर शाम सिविल लाइन्स घूमने निकल जाती थीं, उमा दी किताबों में सिर गड़ाये अपना भविष्य सॅंवारती थीं। अम्मा को उमा दी का वह पुस्तक-प्रेम कभी नहीं भाया था।



”जब देखो तब उमा किताबें लिये बैठी रहती है। क्या करना है इतनी पढ़ाई करके? बड़ी लड़की से घर के काम में मदद मिलनी चाहिए यहाँ उसे भी परोस कर थाली दो।“

”निःशब्द उमा दी पुस्तक छोड़ माँ के पास रसोई में जा खड़ी होती थीं।“

”अच्छा अम्मा, अब तुम आराम कर लो। हम खाना बना लेंगे।“

”रहने दो, तुम्हें हमारे दुख-कष्ट से क्या मतलब?“ अम्मा मान दिखातीं।

”तूम्हारे कष्ट को तुम्हारी बेटी नहीं समझेगी, अम्मा? लाओ, रोटी मैं बना दूँगी।“ अम्मा के हाथ से जबरन बेलन छीन उमा दी गोल-गोल, फूली रोटियाँ, मिनटों में सेंक डालती थीं। घर में जब भी किसी को भोजन पर आमंत्रित किया जाता, उमा दी रसोई का पूरा दायित्व सहज ही उठा लेती थीं।

”सच उमा के हाथ में जादू है, ऐसी स्वादिष्ट कटहल की सब्जी पहले नहीं खाई।“ अतिथि सदैव ही उनकी पाक-कला का लोहा मानते थे।

घर की बड़ी लड़की के नाते उमा दी को जो संघर्ष झेलने पड़े, छोटी बहिनों ने वो कष्ट जाने ही नहीं। उमा दी के बनाये रास्ते के कारण अन्य बहिनों को सभी कुछ आसानी से प्राप्त हो सका था। उनके इण्टरमीडिट पास करते ही अम्मा ने उमा दी की शादी के लिए शोर मचाना शुरू कर दिया था।

”बस बहुत हो गयी पढ़ाई। इसके पीछे अभी तीन-तीन लड़कियों को निपटाना है।“

”मैं अभी पढ़ना चाहती हूँ..... मुझे नहीं करना है विवाह। मेरी मद्द कीजिए बाबू जी।“ बाबू जी के सामने विनय करती दीदी रो पड़ती थीं।

बाबूजी के उदार विचारों ने उमा दी को सहारा दिया था। हर महीने काँलेज की फीस न देने की बात पर अम्मा अड़ जातीं और उमा दी फीस ले पाने के लिए उनकी मिन्नतें करतीं। अन्ततः फैसला बाबू जी ही करा पाते थे।

उमा दी को कोसती अम्मा उनके हाथ पर फीस के रूपये पटक देती थीं।

उमा दी के संघर्षो को छोटी बहिनों ने कभी सीरियसली नही लिया। मझली कृष्णा दी तो उनके पढ़ाई-प्रेम को व्यर्थ के काम की संज्ञा देती रहीं।

”न जाने बड़की दीदी को किताबों से कैसा प्रेम है, सिर भी ऊपर नहीं उठातीं।“

शाम को छोटी बहिनें मुहल्ले-पड़ोस के घरों में जा बैठती, कभी चाट वाले को बुला चाट खाई जाती, पर उमा दी उनके कार्यक्रमों में कभी सम्मिलित नहीं होतीं, इसीलिए घूमने-फिरने की शौकीन मझली कृष्णा दी, सबकी आदर्श थीं।

”बड़की दी तो महाबोर हैं।“ नन्ही निम्मो अपनी सम्मति देती। बुरा-सा मुंह बना लेती थी।

सझली कम्मों ने कहीं सुन लिया था कविता कहानी, लिखने वाले अर्द्धविक्षिप्त होते हैं, सो निम्मो को समझाती - ”अरी हिन्दी वालों के दिमाग का थोड़ा स्क्रू ढीला होता है, उमा दी भी तो हिन्दी वाली है न?“

बहिनों के सम्मिलित हास्य से उमा दी कभी विचलित नहीं हुई।

कृष्णा दी इन्टरमीडिएट के बाद घर बैठ गयी थीं।

”हमें आगे नहीं पढ़ना है, अम्मा। हमें लिखाई-पढ़ाई का शौक नहीं है।“

”क्या करूँ जब तक बड़ी की शादी नहीं हो जाती, छोटी की बात कैसे चलाई जाये।“

इसी समस्या के कारण अम्मा मन मार के रह जाती थीं। उमा दी से फैशन की बात दूर, रंगीन कपड़े पहनने का आग्रह भी व्यर्थ था। हद तो तब हो गयी जब वह बिना किनारे की सूती धोती और सफेद ब्लाउज के साथ यूनीवर्सिटी जाने लगीं।

ये नहीं कि वह देखने-सुनने में कृष्णा दी से उन्नीस थीं, पर कृष्णा दी अपने रख-रखाव के प्रति बेहद सजग थीं। कृष्णा दी जहाँ अपने परिधान और मेकअप की विशिष्टता से चार लोगों में अलग दीखतीं, वहीं उमा दी अपनी सादी वेशभूषा में उदास सुबह-सी अलग पहचानी जातीं। उमा दी का उजला गोरा रंग बिना मेकअप के चमकता था। धूप में पैदल चलती उमा दी के गुलाबी हो आये गालों को साँवली कम्मो, बड़ी हसरत से देखती थी।

”बड़की दीदी को भगवान ने बेकार ही इतना उजला रंग दे दिया। उन्हें तो इस रंग से मतलब ही नहीं, अगर हमारा ऐसा रंग होता तो लोग देखते रह जाते।“

उमा दी एम ए फाइनल में पहुँच गयी थीं। कृष्णा दी को भी बाबू जी ने जबरन बी ए करने भेज दिया था।

”घर में बैठकर समय नष्ट करने से कोई फायदा नहीं कृष्णा। पढ़ने-लिखने से दिमाग की खिड़कियाँ खुलती हैं- उमा को देखकर तो कुछ सीखो बेटी।“

उमा दी के विवाह के लिए अम्मा की रातों की नींद उड़ गयी थी। जिस दिन अम्मा को खबर लगी कोई साइकिल वाला लड़का उमा दी को घर तक पहुंचाने आता है, अम्मा ने खाना त्याग देने की घोषणा कर दी थी।

”अम्मा वह तो अक्षय जी हैं, यहीं पास ही उनका घर है। उनका रास्ता भी तो यहीं से होकर जाता है।“ उमा दी ने उन्हें समझाना चाहा था।

”रहने दे उमा, बहुत दिन तेरी बातें सह लीं, अब और सहन कर पाना कठिन है। मुझे ये बेशर्मी बर्दाश्त नहीं। कल से तेरा यूनीवर्सिटी जाना बन्द, समझी!“

”ठीक है अम्मा, पर इतना जान लो अगर तुम जिद कर सकती हो तो मैं भी अपने मन की करने को स्वतंत्र हूँ।“

”क्या करेगी, जरा बता तो?“

”तुम स्वंय देख लोगी, अम्मा।“

उमा दी के दृढ़ स्वर से अम्मा शान्त हो गयी थीं। उमा दी की पढ़ाई पूर्ववत चलती रही।

”ऐ उमा दी सच कहो, अक्षय जी से तुम्हारा कोई अफेयर है क्या ?“ कृष्णा दी ने शब्दों में मधु घोल पूछा था।

”धत्।“ उमा दी का मुंह लाल हो आया था।

उमा दी की बीमारी की खबर पा अक्षय घर आ गया था। अम्मा पर तो जैसे वज्रपात हुआ, पर थोड़ी ही देर में अक्षय ने अपनी मीठी बातों से अम्मा का भ्रम दूर कर दिया था।

”अम्मा जी, पहले तो मैं आपका आशीर्वाद ले लूं ,उमा बताती है, आप की प्रेरणा पाकर ही वह हर परीक्षा में इतने अच्छे अंक पाती है। मुझे भी आशीष दीजिए, कम-से-कम सेकंड तो आ जाऊं।“ अक्षय ने झुककर अम्मा के पाँव छू लिए।

”क्या उमा ऐसा कहती है? नहीं बेटा, सच तो यह है, वह अपनी मेहनत का फल पाती है। मैं अनपढ़ उसकी क्या मदद कर सकती हूँ।“ अम्मा गदगद हो उठी थीं।

कृष्णा के हाथ चाय के साथ पकौड़ियाँ और हलवा भेज, अम्मा निश्चिन्त हो किचेन के काम निबटाने लगी थीं।

उस दिन से अक्षय का उस घर में आने-जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं रह गया था। अक्सर यूनीवर्सिटी से लौटते समय अक्षय अम्मा के हाथ की चाय पीने रूक जाया करता था।

कुछ दिनों से उमा दी की अपेक्षा कृष्णा को अक्षय का ज्यादा इन्तजार रहता था।

”अक्षय जी, आपका कब से इन्तजार कर रही हूँ, इतनी देर क्यों की?“ स्वर में जैसे शिकायत रहती।

”क्यों भई, ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी है?“ अक्षय मुस्करा उठता।

”क्यों बिना जरूरत आपका इन्तजार नहीं हो सकता?“ अपनी बात पर स्वंय चौंक, कृष्णा आगे कहती जाती- ”मिस दत्ता के हिन्दी सेमिनार के लिए एक अच्छा-सा निबन्ध लिखना है। कुछ प्वाइंट्स बता दें तो मेरी धाक जम जायेगी।“

”तुम्हारी उमा दी से ज्यादा अच्छा निबंध थोड़ी लिखा सकता हूँ, उनकी मदद क्यों नहीं लेतीं।“

”उमा दी से मदद? अरे आप उन्हें नहीं जानते, अपनी किताबों से उन्हें फुर्सत कहाँ। दूसरों के लिए तो उनके पास वक्त ही नहीं है। आप भी बता दीजिए, मेरे लिए आपके पास समय है या नहीं।“ कृष्णा मान दिखाती।

”अरे भई मेरे पास तो समय ही समय है, लाइए देखूँ क्या लिखना है!“

अक्षय का पूरा समय जैसे कृष्णा के नाम हो जाता। उमा दी ने एक बार हल्के से प्रतिवाद करना चहा था।

”तू अपना काम स्वंय क्यों नहीं करती कृष्णा, वह तेरे ट्यूटर तो नहीं हैं न?“

”मुझे  समय देने के लिए अगर उन्हें आपत्ति नहीं तो तुम्हें क्यों जलन होती है उमा दी?“ कृष्णा के उस मुंहफट उत्तर ने उमा का मुख लाला कर दिया था। उस दिन के बाद से अक्षय से जैसे उमा दी कतराने-सी लगी थीं। कृष्णा का अधिकार- क्षेत्र बढ़ता ही जा रहा था। अक्षय के आते ही उसके कामों की सूची खुल जातीं थी-
”अक्षय जी, कल हमारे डिपार्टमेंट का फेट है। लकी ड्राँ के लिए मुझे गिफ्ट्स लानी हैं। जल्दी चलिए वर्ना रात होने पर अम्मा नाराज होंगी।“

”अरे उसे चाय तो पीने दे !“ अम्मा स्नेह से पुकारती।

”न अम्मा, देर हो जायेगी। चाय इन्हें बाहर ही पिला दूँगी। आइए, अब और देर न कीजिए।“

उल्टे पाँव अक्षय को कृष्णा के साथ वापिस जाना पड़ जाता था।?

अक्षय की कृष्णा के साथ बढ़ती व्यस्तता के कारण उमा दी को अक्षय के साथ बैठ बातें करने की जरूरत नहीं-सी रह गयी थी। उमा दी सब से उदासीन फिर अपने कवच में सिमट गयी थीं। अकेले पुस्तकों में सिर गड़ाये रहने वाली उमा दी पर किसी ने विशेष ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी थी। उस समय कम्मो ने महसूस भी किया था उमा दी पहले तो अक्षय जी के आने पर खिल-सी जाती थीं। शुरू में अक्षय उनकी पूछताछ करता था। धीरे-धीरे उमा दी की अनुपस्थिति भुला दी गयी थी।

उस दिन सदा के शान्त, गम्भीर बाबू जी कृष्णा पर अचानक दहाड़ उठे थे-
”इतनी रात गये कहाँ से आ रही हो?“ साथ आये अक्षय को उन्होंने अनदेखा कर दिया था।

”जी....ई...........हम लोग पिक्चर चले गये थे।“ बाबू जी के उस स्वर ने कृष्णा को हड़बड़ा-सा दिया था।

”शर्म नहीं आती, गैर आदमी के साथ अकेले पिक्चर जाते? चलो घर के अन्दर। यही भले घर की लड़कियों का ढंग है।“ अक्षय से कुछ न कहकर भी बाबू जी ने बहुत कुछ कह दिया था।

घर के अन्दर पहुँच बाबू जी ने कृष्णा को चेतावनी दे डाली थी-
”दोबारा उसके साथ देखा तो तुझ से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा, कृष्णा। मेरी जिद जानती है न?“

उस दिन का अपमानित अक्षय दोबारा घर नहीं आया था। कृष्णा की रोते-रोते आँखें सूज गयी थीं। अम्मा ने बाबू जी को समझाना चाहा था।

”मुझ से पूछकर गयी थी कृष्णा। इस तरह घर आये आदमी का अपमान किया जाता है क्या?“

”तुम चुप रहो। ऐसा आदमी किस काम का जिसमें सही-गलत पहचानने की शक्ति नहीं।“

”मतलब तुम्हारा?“

”तुम नहीं समझोगी। वह यह भी नहीं समझ सका, उसे क्या करना चाहिए था। जरा-सी भी गम्भीरता नहीं वर्ना हीरा छोड़............।“

”कौन-सा हीरा छोड़ा है उसने? कृष्णा हमारी किससे कम है?“ बाबू जी का वाक्य काट अम्मा ने पूछा था।

”तुम नहीं समझोगी- छोड़ो।“

उम्र के इस पड़ाव पर कम्मो समझ सकी है, उमा दी की जगह कृष्णा की ओर झुकने वाले अक्षय ने बाबू जी को आहत किया था। उमा दी बाबू जी की आदर्श बेटी रही हैं। बाबू जी की आकांक्षाएँ उनमें ही साकार हुई थीं। बाबू जी ने हमेशा कहा-
 ”धन-सम्पत्ति तो आती-जाती रहती है। असली धन तो विद्या-धन है, जितना खर्चो, बढ़ता जाता है।“

अम्मा को बाबू जी का वह दर्शन कभी नहीं भाया। सरकारी नौकरी कर रहे भाइयों के ठाठ-बाट के आगे शिक्षक बाबू जी अम्मा की दृष्टि में सदैव हेय ही रहे।

उस घटना के बाद बाबू जी ने उमा दी के लिए वर की तलाश शुरू कर दी थी। जल्दी ही बाबू जी उमा दी के लिए सुपात्र खोज लाये थे।

”अपने वीरेन्द्र का बेटा यहीं यूनीवर्सिटी में लेक्चरर है, हमें पता ही नहीं। सुनते ही बोला, उमा जैसी बहू मिलना उसके परिवार का सौभाग्य होगा।“ खिले मुख बाबू जी ने अम्मा को सूचना दी थी।

अम्मा ने बाबू जी को अपने भाइयों के सामने सदैव नकारा ही ठहराया। इकलौती बहिन के रूप में अम्मा को भाइयों का अगाध स्नेह प्राप्त था। कई बार भाइयों की इच्छा-अनिच्छा के आगे अम्मा ने बाबू जी की इच्छाओं की आसानी से अवहेलना की थी। इस बार भी वही हुआ।
”उमा के लिए इन्होंने एक लड़का देखा है, आपकी राय हो जाती तो बात आगे बढ़ाते।“ अम्मा ने बड़े भाई की राय लेना जरूरी समझा था।

”घर-बार, लड़का कैसा है? तुम तो जानती हो शान्ता, तुम्हारे पतिदेव भोले बाबा हैं, कहीं धोखा न खा जाएँ, जिन्दगी-भर की बात है।“ भाई ने बाबू जी की पसन्द पर शंका प्रकट की थी।

”इसीलिए तो चाहती हूँ, आप एक बार सब देखभाल आते तो तसल्ली हो जाती।“

”हूँ, देखता हूँ।“

लड़का देखने गये बड़े मामा घर आ रूष्ट हो उठे थे-
”मुझे तो पहले ही पता था, धर्मपाल ऐसा ही लड़का खोजेंगे। जानती हो शान्ता, मांसाहारी है पूरा खानदान, मांस-भक्षी लड़का खोज लाये हैं धर्मपाल।“

”ये बात तो इन्होंने बताई थी दादा, पर उमा को उसके लिए आपत्ति नहीं है।“

”क्या ! अगर मेरी अपनी बेटी मुँह से ऐसी बात निकालती तो कह देता- जा अपने लिए कोई म्लेच्छ ढूंढ़ ले। अरे जिस घर में प्याज तक नहीं आता, उस घर में मांस-भक्षी जमाई बनकर आयेगा।“ बड़े मामा दहाड़ उठे थे।

”लड़के के पिता का कहना है, उमा पर जबरदस्ती नहीं की जायेगी।“ डरते-डरते अम्मा ने भाई को बताना चाहा था।

”क्या कह रही हो शान्ता, लड़की को म्लेच्छों में देने की ठान ली है तो मुझे दूर ही रखना। मैं शादी में नही खड़ा होने वाला।“ बड़े मामा ने चेतावनी दे डाली थी।

बड़े भाई की घोषणा ने अम्मा को निरस्त्र कर दिया था।

”अगर बड़े दादा ही शादी में खड़े न हुए तो कौन सम्हालेगा? इन पर भरोसा नहीं मुझे।“

बाबू जी क्रुद्ध हो उठे थे।

”इतना नकारा नहीं हूँ मैं। मेरी भी बेटी है वह, कुएँ में नहीं झोंक दूँगा उसे।“

बाबूजी के क्रोध से अविचलित अम्मा ने उस प्रस्ताव को पूर्णतः रिजेक्ट कर दिया था।

”जब मेरे भाई ही शामिल न हों तो कैसी शादी?“

भाई के प्यार में डूबी अम्मा ने उमा दी के मन की बात भी नहीं जाननी चाही थी। उमा दी ने खूब पढ़-लिखकर प्रोफेसर बनने का सपना देखा था। प्रोफेसर पति के साथ उनकी कितनी अच्छी निभती। शायद आज यह बात सभी महसूस करते हैं।

अन्ततः बड़े मामा ने उमा दी के लिए वर खोज निकाला था। उनके एक पूर्व-परिचित की बहिन का लड़का था प्रकाश। बड़े मामा ने उसकी तारीफों के पुल बाँध दिये थे।

”इतना आदर्श घर-वर मिलना उमा का सौभाग्य ही समझो। एक पैसा दान-दहेज नहीं लेंगे। लड़के ने कहा कि एकदम सादगी से विवाह होना चाहिए। बैंड-बाजा कुछ नहीं चाहिए।“

अम्मा का मुंह खुशी से चमक उठा था।

”बैंड-बाजा नहीं होगा तो शादी का कैसे पता लगेगा। हम तो खूब रिकार्ड बजाएँगे,“ निम्मो ने विरोध प्रकट किया था।

”अम्मा, उमा दी कह रही थीं लड़के ने उन्हें देखने की भी इच्छा प्रकट नहीं की, कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं?“ कम्मो ने धीमे से अम्मा से शंका प्रकट की थी।

”बेशर्मी की हद है, और पढ़ाओं लड़कियों को। ऐसी बात मुंह से निकालते शर्म से मर क्यों न गयी उमा!“ बड़े मामा उमा दी के दुस्साहस पर चकित थे।

उमा दी की बारात को क्या बारात कहा जा सकता था? गिनती के पाँच-सात व्यक्ति प्रकाश के साथ आये थे। भाँवरों के लिए चलने को प्रस्तुत प्रकाश के पाजामें के फटे पाँयचे पर बड़े मामा की दृष्टि पड़ गयी थी।
 ”बेटा तैयार हो जाओ, भाँवरों का समय हो रहा है।“

”मैं तैयार हूँ।“ गम्भीर स्वर में प्रकाश ने उत्तर दिया था।

”.........पर .......पर, तुमने कपड़े नहीं बदले हैं शायद। तुम्हारा पाजामा पाँयचे से फटा हुआ है बेटा।“

”फटा हे तो क्या हुआ?  बेकार के दिखावों से नफरत है मुझे, चलिए।“

बड़े मामा के दिल में जैसे कहीं कुछ दरक-सा गया था। अपने को संयत रख चुपचाप एक ओर जा खड़े हुए थे।

कभी रंगीन कपड़े न पहनने वाली उमा दी, लाल साड़ी में गजब की सुन्दर लग रही थीं। उमा दी के साथ बैठे प्रकाश किसी भी तरह उमा दी के योग्य नहीं जॅंच रहे थे।

उमा दी की विदाई की तैयारी हो रही थी। कचैड़ी की दाल पीसने को उठाई सिल, महरी के हाथ से गिर दो टुकड़ों में टूट गयी थी। भय से मौसी की आँखें फट गयी थीं।

”हाय राम, ये कैसा अपशकुन!“

”कैसा अपशकुन, मौसी?“ कम्मो हॅंस पड़ी थी।

”अरे पत्थर टूटना बहुत बड़ी बदशगुनी होती है, कम्मो!“

”चुप रहो बसन्ती, शादी का घर है, ऐसी बातें नहीं करते।“ ताई जी ने मौसी को झिड़का था।

विदा के समय अजीब दृश्य आ खड़ा हुआ था। उमा दी और प्रकाश के लिए फर्स्ट क्लास कूपे के टिकट खरीदे गये थे। शेष बारातियों के लिए सेकेंड क्लास में सीटें रिजर्व करा दी गयी थीं। प्रकाश ने शोर मचा दिया।

”मैं अपने साथियों का अपमान नहीं कर सकता। किसने कहा था मेरा टिकट अलग खरीदो। मैं उन्हीं के साथ जाऊंगा।“ उत्तेजना से प्रकाश का मुँह तमतमा आया था।

”पर बेटा ये तो सोचो सब के साथ उमा का क्या होगा.........!“ दबे स्वर में बड़े मामा ने प्रकाश को समझाना चाहा।

”मैं सेकेंड क्लास में ही जाऊंगा। अपनी बेटी को फर्स्ट क्लास में भेजना चाहें तो आप स्वतंत्र हैं।“ मामा जी उस सपाट उत्तर पर हतप्रभ रह गये थे।

उमा दी को भीड़-भरे कम्पार्टमेंट में बिठाते बाबू जी उदास हो गये थे।

”मेरी बेटी का ध्यान रखना, प्रकाश बेटा। सब के सामने कुछ माँगने में उसे संकोच होगा।“ बेटी के झुके मस्तक पर आशीर्वाद का हाथ धरते बाबू जी का कंठ रूँध आया था।

चार दिन बाद छोटे भइया को दीदी को विदा कराने भेजा गया था। उन्हें लेने पहुँचे लोग स्टेशन पर उमा दीदी के आने की प्रतिक्षा कर रहे थे। हरी-लाल चुनरी में उमा दी खूब प्यारी लग रही थीं।

घर पहुँचते ही अम्मा ने उन्हें सीने से लगा लिया था।

”कैसे हैं तेरे ससुराल वाले, उमा? सास तो अच्छी हैं न?“

”हाँ अम्मा, सब लोग खूब अच्छे हैं।“

”क्या दिया है तेरी सास ने?“ मौसी ने उत्सुकता से पूछा था।

”कंगन दिये थे उन्होंने,  पर उन्हें पहन सफर में आते समय चोरी का डर था सो वहीं रख लिए हैं।“ उमा दी ने आसानी से बताया था।

”और तेरे यहाँ के गहने?“ अम्मा जैसे चैंक गयी थीं।

”वो तो साथ लाई हूँ, अम्मा।“

”प्रकाश कैसा लगा हमारी उमा को?“ छोटी भाभी ने परिहास किया था।

”उन्हें तो आफिस का जरूरी काम आ गया था- जिस दिन पहुंचे उसी दिन लखनऊ जाना पड़ गया। भाभी।“

”क्या.......आ.........शादी के बाद एक दिन भी घर नहीं रूका? क्या कह रही है, उमा?“ छोटी भाभी उमा दी के भोले मुख को निहारती विस्मित हो उठी थीं।

”उन्हें काम जो था भाभी।“ उसी सहज निश्छलता से उमा दी ने जवाब दिया था।

घर में कानाफूसी शुरू हो गयी थी। उस सब से उदासीन उमा दी, सहज और सामान्य सब काम करती रहीं।

अम्मा ने उमा दी की अभिन्न सहेली विभा से पूरी बात पता लगाने को कहा था।

”ये उमा तो पगली है, विभा। विवाह के बाद प्रकाश ने इससे बात भी नहीं की और ये इतनी खुश है.......“

”ठीक है चाची, मैं बात करती हूँ।“

विभा से पूरी बात सुन अम्मा मौन शून्य में ताकती रह गयी थीं। पाँच दिन ससुराल में रहने के बाद भी उमा कुँवारी है, भला इस बात पर कोई कैसे विश्वास कर सकेगा? विभा के द्वारा ही अम्मा ने उमा दी से प्रकाश के नाम पत्र लिखवाया था।

उत्तर सर्वथा अप्रत्याशित था। प्रकाश ने उमा दी को लिख भेजा था-
”उन्हें विवाह के लिए जबरन भेजा गया था। वे कहीं और बॅंधे हैं, उस बंधन से मुक्त हो पाना उन्हें सम्भव नहीं। उमा अपनी पढ़ाई पूरी कर कहीं नौकरी करने को स्वतंत्र हैं।“

कम्मो उस समय बहुत छोटी थी। उमा दी पर क्या बीती होगी, समझ पाने की शक्ति ही कहाँ थी? फिर भी बड़े मामा के साथ अम्मा, उमा दी को ले प्रकाश के घर गयी थीं। प्रकाश ने उन्हें एक रात भी अपने घर रूकने की अनुमति नहीं दी थी। उमा दी की सास ने माफी माँगते कहा था-
”हमने समझा था, सुन्दर पत्नी पाकर वह ठीक हो जायेगा, पर ..............।“

”एक्सपेरिमेंट करने के लिए हमारी ही लड़की मिली थी आपको? शर्म नहीं आती एक लड़की की जिन्दगी बिगाड़ते?“ बड़े मामा दहाड़ उठे थे।

कुछ भी कहना-सुनना या प्रकाश को समझा पाना व्यर्थ था। प्रकाश ने दो टूक फेसला सुना दिया था।

”अम्मा ने मरने की धमकी देकर शादी के लिए भेजा था। मैं चला गया था, पर विवाह का दायित्व निभाना असम्भव है।“

हाईकोर्ट से ‘नो मैरिज सर्टिफिकेट’ के लिए कोई ज्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ती थी। प्रकाश ने आसानी से कागजात साइन करके भेज दिये थे।

अम्मा-बाबू जी के सामने नयी समस्या आ खड़ी हुई थी। सबसे बड़ी बेटी का डाइवोर्स छोटी बहिनों को तो भविष्य अन्धकारमय कर जायेगा। उमा दी के डाइवोर्स की बात भरसक छिपा कर रखने के बावजूद मुहल्ले-पड़ोस की स्त्रियाँ उमा दी से उनके पति, ससुराल वालों की बातें पूछ-पूछ कर परेशान कर डालती थीं।

उस समय कम्मो को उमा दी पर ही गुस्सा आया था।

”उमा दी, तुम न ढंग के कपड़े पहनती थीं, न कभी जरा-सा भी मेकअप किया, इसीलिए तो जीजा जी ने तुम्हें पसन्द नहीं किया।“

”और क्या, कृष्णा दी को देखो, सभी लोग उनकी कित्ती तारीफ करते है।“ निम्मो ने भी हाँ में हाँ मिलाई थी।

दोनों की बातें सुनती उमा दी ने दृढ़ता से अपने होंठ भींच लिए थे।

घर में दूसरी ही समस्या थी, उमा दी के डाइवोर्स की बात फेलने से अन्य बहिनों के विवाह में बाधा का भय था। सब की सलाह पर कृष्णा दी का विवाह जल्दी करने का निर्णय लिया गया था। कृष्णा दी का लावण्य और रख-रखाव किसी को भी सहज ही आकृष्ट कर सकता था। कृष्णा दी का विवाह जल्दी ही तय हो गया था।

कृष्णा दी के विवाह में उमा दी भाग-भाग कर काम कर रही थीं। सब का उनसे एक ही प्रश्न था।

”अरी उमा, तेरे पतिदेव कब पहुँच रहे हैं?“

”उमा, प्रकाश नहीं आये?“

निम्मो-कम्मो की सहेलियाँ उन्हें अलग परेशान कर रही थीं।

”अरे बड़े जीजा जी नहीं आये, ऐसा भी क्या काम?“

आज कम्मो समझ सकती है, उस दिन को उमा दी ने कैसे झेला होगा। उत्साहित उमा दी तो अपने गहने-कपड़े भी कृष्णा दी को दे डालतीं, पर अम्मा ने उन्हें रोका था।

”ये सब तेरे हिस्से का है, उमा। कृष्णा को जो देना है, हम दे ही रहे हैं।“ अम्मा ने उदास उसाँस भरी थी।

कृष्णा दी के विदा होने के बाद से अम्मा को उमा दी का दुख खाये जा रहा था।

”लड़की की उमर ही क्या है! इतना बड़ा पहाड़ सिर पर आ पड़ा।“

अप्रत्यक्ष रूप से अम्मा अपने को अपराधी मानती थीं। बड़े मामा तो जैसे स्तब्ध रह गये थे- उनके हाथों ये कैसा अन्याय हो गया? बाबू जी बेहद उदास हो आये थे। उमा दी ने उस समय किस असीम धैर्य का परिचय दिया था। उनके जीवन के साथ इतना कुछ घट गया, पर वह उससे उदासीन सामान्य जीवन जीने का अभिनय करती रही थीं।
   " तुमने वो सब कैसे सहा दीदी?"  समझ्दार होने पर कम्मो ने पूछा था
 कम्मो के सवाल का उमा दीदी ने कितनी सरलता से जवाब दिया था-
”अगर वैसा न करती तो क्या अम्मा-बाबूजी जी पाते ,कम्मो और फिर रो-धोकर मिल भी क्या पाता?“

अम्मा-बाबू जी ने उमा दी के लिए फिर वर की खोज शुरू कर दी थी, पर उमा दी के साथ परित्यवता शब्द जुड़ चुका था। वर-पक्ष की ओर से ऐसे-ऐसे प्रश्न किये जाते कि अपमानित बाबू जी क्रूद्ध हो उठते थे।

”देखिए साहब, कोई तो बात होगी जिसकी वजह से लड़के ने आपकी बेटी को छोड़ दिया?“

”भई जानते-बूझते तो दूध की मक्खी निगली नहीं जा सकती न?“

”अच्छा होता प्रकाश मर जाता, तब समस्या इतनी गम्भीर नहीं होती।“ बाबू जी झुँझला उठते।

बच्चों वाले व्यक्तियों से उमा दी की शादी के लिए अम्मा का मन नहीं ठहरता।

”हमारी लड़की तो कुंवारी है, बच्चों के साथ आगे चलकर बड़ी मुश्किलें आती हैं।“

अम्मा के तर्क-वितर्को में उमा दी की राय जानने की कतई कोशिश नहीं की गयी थी। उमा दी ने भी अपने को पुस्तकों के पीछे छिपा लिया था।

अपनी राय देने की कोशिश एक बार की थी, उस अपराध पर बड़े मामा ने जिन विशेषणों से अलंकृत किया था, उन्हें वह क्या कभी भूल सकती थीं?

कम्मो के लिए लड़का मिलते ही विवाह निबटा दिया गया था। उमा दी तब तक काँलेज में अस्थायी लेक्चरर नियुक्त हो चुकी थीं। कभी-कभी अम्मा झींकती कह जाती।

”पता नहीं इस उमा में क्या कमी है- फलाने की लड़की का आज डाइवोर्स हुआ और दो महीने बाद दूसरी शादी रचा बैठी।“

उमा दी ने कभी इन बातों के विरोध में यह भी नहीं कहा-
 ”अम्मा जो मेरे लिए घर आया तिलक लौटा, मुझसे विवाह करने को तैयार था, उस समय तुम्हारी यह बुद्धि कहाँ गयी थी?“

बाबू जी के मित्र का लेक्चरर पुत्र उमा दी पर सचमुच मुग्ध था। तिलक की दावत पर भी बाबू जी से उनके मित्र ने यही कहा था
-”उमा के लिए हम यह तिलक भी लौटा सकते हैं, धर्मपाल।“ आज उनका वह पुत्र कनाडा के विश्वविद्यालय का सम्मान बना हुआ है।

न उमा दी ने बड़े मामा से कभी कोई शिकायत की जिन्होंने उमा दी के विवाह का परिणाम देख अपनी बेटियों को मांसाहारियों में ब्याहने में बाधा नहीं डाली थी। उनकी समझ में आ गया था उन मांस-भक्षियों के मुकाबले प्रकाश तो नरभक्षी था, जिसने एक सजीव जीवन, निर्जीव जीने को छोड़ दिया था। बड़े मामा के जीते-जी उमा दी उनका भरपूर स्नेह पाती रहीं।

कृष्णा और कम्मो को भी उमा दी से शिकायत ही रही क्योंकि उनके कारण दोनों को ससुराल में हमेशा तानों का शिकार होना पड़ा। कहीं जरा कोई चूक हुई नहीं कि सुनाई पड़ता-
”अरे इसकी तो सारी बहिनें एक-सी हैं, बड़ी घर बैठी है, इसे भी वहीं भेज दो तो ठीक हो जायेगी।“

दोनों के पतियों ने असली बात जानने के लिए बार-बार कुरेदा था,
”भला यह भी कोई विश्वास-योग्य बात हुई कि प्रकाश का किसी और से सम्बन्ध था इसलिए उन्हें छोड़ दिया। अरे आदमी दस जगह संबंध बनाये रखकर भी पत्नी रखता है।“ कृष्णा दी के पति व्यंग्य से मुस्कराते।

”मुझे तो लगता है, प्रकाश ने तुम्हारी उमा दी के किसी गम्भीर अपराध की सजा दी होगी।“ कम्मो का पति और गहरे जाकर सोचता।

आँखों के सामने जवान लड़की को तपस्विनी का जीवन बिताते देखना अम्मा को बहुत भारी पड़ता था। शायद इसीलिए उमा दी ने दूसरे शहर में जाँब ले लिया था। उस समय उमा दी की उम्र ही क्या रही होगी पच्चीस या छब्बीस वर्ष। उमा दी ने लोगों की व्यंग्य- दृष्टियों का कैसे सामना किया होगा, किसी ने जानने की कोशिश नहीं की।

उमा दी के लिए अम्मा-बाबू जी बराबर प्रयत्नशील रहे, पर बात कहीं बन न सकी। यह सच था, उमा दी चाहतीं तो एक वर जुटा पाना उन्हें कठिन नहीं था। कभी किसी ने उनके पास तक पहुंचने की कोशिश की तो घर वाले चिहुँक उठते-
”छिः, भला वह हमारी उमा-योग्य है? अरे जात-पात न भी माने, कम-से-कम और दामादों के साथ तो बैठने लायक हो।“

धीरे-धीरे एकाकी जीवन ही उमा दी को रास आने लगा है- ऐसा मान, सब ने आश्वस्ति की साँस ली थी। घर के सभी सदस्यों की जरूरतें उमा दी से ही पूरी होतीं। बच्चों में तो उमा दी के प्राण बसते थे। हर बच्चे के जन्मदिन पर भारी उपहार के साथ उमा दी पहुँच, उत्सव-सा समारोह आयोजित कर डालतीं। बच्चों को भी उनकी प्रतीक्षा रहती- उमा मौसी से छोटी-बड़ी फर्माइशें की जातीं। अम्मा-बाबू जी की बीमारी उमा दी ही झेलतीं।

”तुम तो अकेली हो उमा दी, तुम्हीं छुट्टी लेकर घर चली जाओ। यहाँ बच्चों और उनके पापा को कौन देखेगा?“ कभी कृष्णा, कभी कम्मों, निम्मो के आदेश उन तक पहुंचते रहते।

अम्मा-बाबू जी को भी तो उन्हीं का आसरा रहता। अम्मा कहतीं, ”उमा तो हमारी लड़का है।“

एक बार दबी जबान उमा दी ने कोई बच्चा गोद लेने की बात की थी। पूरा घर स्तब्ध रह गया था।

”तुम समझती नहीं उमा, गोद लेने से क्या लीगल काँम्प्लिकेशन आएँगे, तुम नहीं जातनीं।“ बात कुछ हद तक ठीक भी थी। उमा दी का जो स्टेट्स था, उसमें गोद लिये बच्चे का भविष्य क्या बनता?

जीवन के पचास बसन्तों की मादक हवा से अछूती उमा दी ने आज पहली बार मीना की उस बहिन को भाग्यशाली ठहराया जिसका विवाह हो गया।

”एक बात पूछूँ उमा दी, क्या तुम्हें सचमुच कभी कोई मन लायक नहीं मिला?“

”जो नहीं मिला, उसके लिए अब क्या सोचना, कम्मो?“

”तुम चाहती तो अक्षय जी तुम्हें मिल सकते थे, उमा दी?“

”जो चीज अपने से छोटों को भा जाये, उसे छीनना क्या ठीक है ,कम्मो?“ म्लान मुख उमा दी ने पूछा था।

”तुमने ऐसा मौका ही क्यों आने दिया, उमा दी? जब तुम्हारे प्राप्य पर कोई अनाधिकार हक जमाने का प्रयास कर रहा था, तभी तुमने क्यों नहीं उसकी सीमा बता दी थी?“

”घर की बड़ी बेटी थी न कम्मो- मैने सब को देना ही जाना।“

”तुम्हें किसने क्या दिया? हम सब ने भी तो तुम्हारे साथ अन्याय ही किया है, उमा दी?“ कम्मो का स्वर तनिक भारी हो आया था।

”छिः, पगली मेरी यही नियति थी।“

”नहीं उमा दी, तुम्हारी इस नियति के लिए हम सब जिम्मेवार हैं। सब ने अपनी इच्छा तुम पर लादी वर्ना वीरेन्द्र अंकल के पुत्र से विवाह रचा, आज तुम भी कनाडा में सुख से न जीतीं?“

”पता नहीं कम्मो सुख से जी पाती या नहीं, पर आज तुम सब को सुखी देख मैं कितनी संतुष्ट हूँ, तू नहीं समझ सकेगी। जानती है, अपने अंतिम समय तक बड़े मामा अपने को क्षमा नहीं कर सके थे। जीवन का कितना बड़ा सत्य वह मेरे कारण ही तो जान सके न?“

”कैसा सत्य? यही न की तुम्हारे बाद किसी भी लड़की के विवाह के लिए सामिष-निरामिष वर का प्रश्न नहीं उठाया गया। भला ये भी कोई बात थी, जिसके लिए तुम्हारा जीवन व्यर्थ चला गया, उमा दी।“

”कुछ देकर ही तो बहुत कुछ पाया जा सकता है। मेरे कारण तुम सब को उन बेकार की बातों की कीमत तो नहीं चुकानी पड़ी- मुझे इसी का संतोष है, कम्मों।“

”दूसरों के लिए ही सोचती रहीं उमा दी, कभी अपने लिए, एक पल को भी नहीं सोचा?“

”सोचा था कम्मो, सच कहूँ तो आज भी सोचती हूँ, पर तू ही बता, क्या विवाह ही जीवन की नियति है? क्या तुम सब मेरे नहीं हो? क्या नहीं है मेरे पास...................?“

”एक सच कहूँ उमा दी, पूरे जीवन तुमने अपने को आदर्शवादिता के झूठे आवरण में लपेट, हर अन्याय सिर झुका स्वीकार किया। अपनी इच्छा-अनिच्छा दूसरों के नाम कर तुमने यश जरूर पाया, पर सच पूछो तो तुम्हें मिला क्या है- कोई है जो तुम्हें माँ कह पुकार सके?“ कम्मो का स्वर उत्तेजित हो उठा था।

”यह क्या कह रही है कम्मो, मैंने सचमुच कुछ नहीं पाया?“ उमा अवाक् थी।

”मुझे माफ करना दीदी। तुम्हारे प्रति हमेशा आक्रोश उमड़ता रहा, तुम विद्रोह क्यों न कर सकीं, उमा दी। तुम्हारा जीवन, तुम्हारा क्यों नहीं रहा? तुम तो ऐसी नहीं थीं, उमा दी?“

”ठीक कहती है, कम्मो, शायद तब इसलिए विरोध न कर सकी कि बचपन से सुनती आयी थी, बड़ी बेटी दूसरों के लिए आदर्श होनी चाहिए, बड़ों की आज्ञा-पालन ही उसका एकमात्र धर्म होना चाहिए........“

”और अब? अब क्यों नहीं अपना आक्रोश उनके प्रति व्यक्त करतीं, क्या तुम्हारे अन्तर में आग नहीं धधकती, उमा दी?“

”यह आग क्या आसानी से बुझ सकती है? सच तो यह है, पहले की अपेक्षा आज जब अपने बारे में ऐसा-वैसा कुछ सुनती हूँ तो तिलमिला जाती हूँ। क्या गलती की थीं मैंने? विवाह के सात फेरों के लिए अपराधिनी क्यों बना दी गयी मैं?“

”तुम्हें अपराधी कौन कहता है, दीदी?“

”ये समाज, कम्मो। क्लास में अगर लड़कियों से कहती हूँ अन्याय सहन करना गलती है तो बाहर ताने सुनती हूँ........“

”कैसे ताने दीदी?“

”यही कि पति से लड़कर अपनी जिन्दगी तो बिगाड़ ही ली, अब लड़कियों का जीवन बिगाड़ रही हूँ।“

”इतना अन्याय, कैसे सहती हो, उमा दी? जी चाहता है, प्रकाश का मुँह नोच डालूँ। सब के सामने ले जाकर कहूँ-असली अपराधी यह है, दंड इसे मिलना चाहिए।“

”मुँह नोचने से कया जबरन किसी का हृदय जीता जा सकता था, कम्मो? शांति से सोचकर देखो तो प्रकाश और मेरा अपराध क्या एक-सा नहीं है?“

”क्या कह रही हो, उमा दी? उस दुष्ट से अपनी तुलना कर रही हो?“

”क्या बड़ों की खुशी के लिए हमने अपना जीवन व्यर्थ नहीं किया? अपने मन की बात अगर साहसपूर्वक कह सकी होती तो आज यह स्थिति क्यों आती?“

”अब भी तो तुम किसी से कुछ नहीं कहतीं, उमा दी।“

अब किससे क्या कहूँ? अम्मा का दयनीय मुख, बड़े मामा का क्षमा माँगता-सा अपराधी चेहरा, बाबू जी का असहाय आक्रोश, देख कुछ कहने-सुनने की हिम्मत ही नहीं होती फिर सबसे बड़ी शिकायत तो अपने से ही है।

”अपने से शिकायत क्यों?“ कम्मो विस्मित थी।

”अपने भाग्य की रेखाएँ बदल सकने का दम्भ रखने वाली मैं, इतनी कमजोर क्यों पड़ गयी थी? अपने लिए निर्णय लेने का साहस क्यों न कर सकी। क्यों मैंने अपने को नियति के हाथों छोड़ दिया - क्यों उससे मैं हार गयी?“

”नहीं उमा दी, तुम कभी पराजित नहीं हुई। लोग तुम्हारी हॅंसी उड़ाते रह, उल्टा-सीधा कहते रहे, तुमने पलटकर भले ही उन्हें जवाब न दिया हो, अपने लिए सही रास्ता चुन, आज उनसे प्रशंसा पाती हो न? कितनी लड़कियों का भविष्य सॅंवार रही हो तुम।“ सचमुच उमा दी की प्रशंसा करने वालों की भी कमी न थी।

”किसी की निन्दा प्रशंसा का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है कम्मो।“

”एक बात पूछूँ उमा दी- तुम तो हम सब से अलग थीं। विद्रोहिणी रूप में हम तुम्हें पहचानते रहे फिर विवाह को क्या तुमने भी अन्तिम नियति स्वीकार किया है?“

”विवाह अन्तिम नियति नहीं, पर एक सत्य स्वीकार करूँगी, मैंने भी पति-बच्चों के साथ एक घर का सपना जरूर देखा था कम्मो।“

”उसके लिए अब क्या करोगी, दीदी?“

”बहुत सोचने के बाद लगता है, अपने को बहुत सीमित दायरे में बाँधे रही हूँ मैं, इसीलिए कभी-कभी अभाव कसक उठते हैं। अब अपने क्षितिज का विस्तार कर सुख पाना है।“

”क्षितिज का विस्तार?“

”हाँ, निस्सहाय स्त्रियों और अनाथ बच्चों के लिए सपनों की दुनिया बसाऊंगी, कम्मों। उन स्त्रियों और बच्चों में, मैं भी क्या अपनी खुशी नहीं पा सकूंगी?“

”जरूर पा सकोगी, उमा दी। अपने इस नये परिवार में तुम्हारा सपना पूरा हो यही मेरी कामना है।“ कम्मो का स्वर भावविह्नल था।

”हाँ, न जाने किस कमजोर पल में मीना की दीदी की बात कर बैठी थी कम्मो, सच तो यही है विवाह के बाद भी कितनी स्त्रियाँ भरपूर जीवन जी पाती है? फिर इसे हम अपनी नियति क्यों स्वीकार करें?“

”ठीक कहती हो, उमा दी। कभी तो लगता है तुम्हीं अच्छी रहीं, अपने मन का कुछ भी करने को स्वतंत्र तो हो। हमें तो हर बात के लिए घर भर का मुँह ताकना पड़ता है।“ कम्मों फिर उत्तेजित हो उठी थी।

”अच्छा-अच्छा, अपना मूड मत खराब कर, शायद अम्मा ठीक ही कहती थीं जो मिले उसी पर संतोष कर।“ उमा ने बात हॅंसी में टालनी चाही थी।

”काश अम्मा की बात सच होती, पर वास्तविकता तो यह है जो हमें मिलता है, हम कभी उससे संतुष्ट नहीं हो पाते। बताओ उमा दी, ये सच है या नहीं?“

”सच और झूठ के अपने अलग मापदंड होते है। अम्मा ने जीवन का सीधा रास्ता खोज लिया जो कुछ हुआ या होता है, वह भाग्य के अधीन है। सामान्य जीवन जीने के लिए यही आसान तरीका भी है, कम्मो।“

”कुछ अंशों में तुमने भी तो वही रास्ता अपने लिए चुना था, उमा दी।“

”शायद हाँ, पर अब मैंने अपनी राह अलग करने की ठान ली है, कम्मो। चल तुझे वह प्लाँट दिखाऊं जहाँ मेरे सपनों का घर, आकार ले रहा है।“

”सच दीदी, तुमने सपनों का महल बनवाना भी शुरू कर दिया और हमें बताया भी नहीं?“

”सोचा था सब को सरप्राइज दूंगी, पर आज बातों में तुम्हारे सामने रहस्य खुल ही गया।“

”ओह उमा दी, यू आर रियली ग्रेट। चलो अब और मैं रूक नहीं सकती।“ उतावली में उठती कम्मो को देख उमा दी स्नेह से हॅंस पड़ीं।

सिस्टर रोजी

बन्द कमरे से अनिता की चीखें स्पष्ट सुनाई दे रही थीं, साथ ही सिस्टर रोजी का डपटता हुआ कर्कश स्वर मेरे सीने पर हथोड़े मार रहा था। बार-बार जी चाहता था, दरवाजा तोड़ कर अन्दर घुस जाऊं, पर साथ खड़ी मीनाक्षी ने मुझे रोक रखा था। अचानक दरवाजा खोल मुझ पर आग्नेय दृष्टि डाल न जाने क्या बड़बड़ाती हुई सिस्टर रोजी तेजी से बाहर निकल गयी और अनिता मेरे सीने से लिपट कर बिलख उठी-
”मम्मी सिस्टर ने मुझे मारा जानकर बार-बार फोड़ा काट रही थी। मुझे कितनी जोर से डाँटा-बहुत दर्द हो रहा है, मम्मी।“


अनिता की सहनशक्ति सचमुच प्रशंसनीय है। स्पष्टतः उस युवा डाक्टर के प्रति सिस्टर रोजी का आक्रोश अनिता पर निकला था। अनिता की नाक के पास छोटा-सा दाना भयंकर फोड़े का रूप धारण कर चुका था। देखते ही डाँक्टर ने कहा था, थोड़ी-सी लापरवाही भयंकर भूल का कारण बन सकती थी। आवश्यक निर्देशों के साथ अनिता को फ़ौरन सिस्टर रोजी के पास ले जाने को कह, युवा डाँक्टर मनीष व्यस्त हो उठे थे।

अधेड़ वयसा सिस्टर रोजी अपने शुष्क व्यवहार के कारण मरीजों में भय का कारण थी। डाँक्टर के बताये निर्देश सुनते ही सिस्टर रोजी की ‘ना’ सुनते ही झुँझला उठे। ये रोजी रोज कोई न कोई तमाशा करती है।

दो बार बुलाने के बाद सिस्टर रोजी विद्रोह की मूर्ति बन डाँक्टर मनीष के सामने आ खड़ी हुई। डाँक्टर ने सख्त आवाज में कहा -
”सिस्टर पहले सुई से मवाद खींचने की कोशिश कीजिए, अगर मवाद नहीं निकले तो जरा-सा नाइफ़ से काटकर जो बहे बहने दीजिए। हाँ यह ध्यान रखिए ‘कट’ न ज्यादा गहरा हो न लम्बा।“

सिस्टर रोजी जैसे ही अपने कक्ष में जाने के लिए पलटी, मैंने डरते-डरते अपनी शंका व्यक्त की थी- ”डाँक्टर कहीं ऐसा तो नहीं अपना आक्रोश सिस्टर इस बच्ची पर निकाले।“
सस्मित डाँक्टर ने मेरी शंका निर्मूल बताई थी। अवश हम सिस्टर रोजी के कमरे की ओर चल दिये थे। अनिता का तो मुंह ही सूख गया था। रास्ते में ही सिस्टर का बड़बड़ाना शुरू हो गया था। वार्ड की छोटी नर्स से कहती गयी-
”कहता है कट न गहरा हो न लम्बा, खुद ये काम क्यों नहीं करता? सब अपना काम रोजी को देते हैं। सिस्टर रोजी फालतू की चीज है न!“

"ऐ लड़की, इधर बैठो, कहती सिस्टर रोजी ने कड़े शब्दों में मुझे कमरे से बाहर निकलने का आदेश दे दिया। अनिता ने जैसे ही मेरा आँचल पकड़ा, मैं द्रवित होकर अनुरोध कर बैठी-
”सिस्टर प्लीज, मुझे यहाँ रहने दीजिए, मैं कुछ नहीं बोलूँगी।“

”नहीं-नहीं, तुमको यहाँ एकदम नहीं रहना माँगता,“ कह मानो सिस्टर रोजी ने मेरे मुंह पर ही दरवाजा बन्द कर दिया।

कमरे के अन्दर सिस्टर रोजी का क्रुद्ध स्वर बाहर तक स्पष्ट आ रहा था।
"कुछ भी नहीं है, ये नया डाँक्टर फालतू में सबको इधर भेज देता है। ऐ छोकरी चुप बैठ, हिलना एकदम नहीं।"
 क्रोध से मेरा रोम-रोम सुलग रहा था। असहाय अनिता सिस्टर रोजी की झिड़कियों से अधिक पीड़ित अब सिसक रही थी। आवेश में अनिता को साथ ले डाँक्टर के सामने अपना संयम खो बैठी। ”डाँक्टर अगर आपने इस बच्चे को सिस्टर रोजी के पास भेजा तो इसमें इसका क्या दोष? सिस्टर रोजी ने आपके प्रति क्रोध इस बच्ची पर उतारा है। ये नर्स बनी है, इसका काम मरीज के घाव पर मरहम रखना है या उनके मन पर धाव करना है। आखिर किस बात का पैसा लेती है?“
आवेश में मैं न जाने क्या कुछ कह गयी! युवा डाँक्टर भी उत्तेजित हो उठा,
”ठीक है मिसेज कांत, आप मुख्य चिकित्सा अधिकारी को लिखित शिकायत भेजिए, मैं भी बात करूँगा। “

शान्त गम्भीर मुख्य चिकित्सा अधिकारी डाँक्टर घोष ने स्वंय कहा-
”सिस्टर रोजी की ओर से आपसे मैं क्षमा माँगता हॅं। वस्तुतः वह दिल की खराब नहीं है। शायद यह उसकी परिस्थितियाँ हैं, जिन्होंने उसे उग्र बना दिया है।“

युवा डाँक्टर सुनते ही भड़क गये-
”न जाने क्या बात है, ये हमेशा सिस्टर रोजी का ऐसे ही पक्ष लेते हैं। कितनी बार सिस्टर रोजी के विरूद्ध शिकायतें आयी हैं पर आज तक उसके विरूद्ध कोई कार्रवाई नहीं की गयी। इसीलिए वह इतनी ऊपर चढ़ गयी है।“
मेरा क्रोध भड़क उठा शायद इसी कारण सिस्टर रोजी ने स्वंय कभी क्षमा नहीं माँगी।
”अब कार्रवाई होगी,“ कहती उसी समय कुछ करने की ठान मैं घर आ गयी। फौरन ही स्वास्थ्य मंत्रालय मे उच्च पदस्थ अधिकारी अपने निकट सम्बन्धी के पास शिकायत लिख भेजी, साथ ही शीघ्र उचित कार्रवाई कराने का अनुरोध भी।

शीघ्र ही जाँच कमेटी बैठा दी गयी थी। स्वभावानुरूप जाँच कमेटी के सामने ही सिस्टर रोजी ने उल्टे-सीधे उत्तर दे मेरी शिकायत पर सच्चाई की मोहर लगा दी थी। किसी प्रश्न के उत्तर में तो सिस्टर रोजी चिल्ला ही पड़ी थी। सब कमेटी के सदस्य सिस्टर रोजी के उद्दंड व्यवहार से बेहद खिन्न हो उठे थे। इस प्रकार की महिला इस काम के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है। मुख्य चिकित्सा अधिकारी की प्रार्थना पर सिस्टर रोजी की नौकरी कड़ी चेतावनी के साथ छोड़ तो दी गयी पर सिस्टर का तबादला एक नये शहर में कर दिया गया था।

उसी शाम डाँक्टर घोष को अपने घर आया देखकर कुछ अभिमान हो आया शायद अब सिस्टर रोजी के लिए कोई नयी सिफारिश लाये हैं।

”आइए,“ कहते शायद मेरे स्वर में न चाहते भी कुछ अभिमान छलक आया था। छड़ी रख पास की कुर्सी पर बैठ डाँक्टर घोष बोले-
”कल रोजी इस्तीफा देकर जा रही है।“

”त्यागपत्र देने के लिए तो नहीं कहा गया था, खैर यह उसका व्यक्तिगत मामला है पर कमेटी ने पक्षपात रहित न्याय किया, इसकी सचमुच मुझे खुशी है।“ उत्तेजना में भी मेरी वाणी में व्यंग्य स्पष्ट था।

”न्याय का अर्थ जानती हैं मिसेज कांत?“ डाँक्टर घोष के स्थिर स्वर से भी मैं चिढ़ गयी।

”जो कहानी खत्म हो गयी, उस पर व्यर्थ बहस करने से क्या लाभ है, डाँक्टर साहब?“

”एक बात जान लीजिए मिसेज कांत, मरे को मार कर अगर उस विजय पर कोई उल्लासित हो तो उससे बड़ी पराजय कोई नहीं है। रोजी तो आज से पहले बाजी हार चुकी है। रोजी की कहानी तो कब की खत्म हो चुकी है।“

”छोड़िए डाँक्टर साहिब, मुझे उनकी कहानी के आदि और अन्त से कोई मतलब नहीं, मैं चाय लाती हूँ।“

”नहीं आज आपको यह कहानी सुननी होगी, आप न्याय रक्षा का दम भरती हैं, आपको न्याय करना ही होगा।“



आज की कर्कश सिस्टर रोजी ने बीस वर्ष पूर्व जब मैडिकल काँलेज में नर्स के रूप में प्रवेश किया था तो उसके अपूर्व रूप, मृदु व्यवहार, मनोहारी मुस्कान पर पूरा मैडिकल काँलेज दीवाना हो उठा था। अपने दक्ष हाथों से जब वह आपरेशन के समय डाँक्टरों को औजार थमाती थी तो उसकी नरम नाजुक उंगलियों के स्पर्श से उस समय भी शायद कुछेक डाँक्टर रोमांचित हो उठते थे। सुगन्धित हवा के झोंके की तरह रोजी बहती थी। डाँक्टर शरद सर्जरी के प्रोफेसर मेरे सहपाठी भी थे। जिस रोजी को पाने के लिए युवा डाक्टर सपने ही देखते रह गये वह कब डाँक्टर शरद के प्रणय- पाश में बॅंध गयी, कोई न जान सका। विवाह के समय न जाने कितनों ने ठण्डी साँस भर कर डाँक्टर शरद के भाग्य से ईष्र्या की होगी? डाँक्टर शरद रोजी को पाकर पूर्ण हो गये थे और रोजी ने भी अपना गंतव्य डाँक्टर शरद में पा लिया था।

विवाह की पहली वर्षगाँठ के दिन ही तो डाँक्टर शरद अस्पताल से जल्दी छुट्टी ले घर वापिस आ रहे थें संध्या समय डाँक्टर शरद के मित्र सपत्नीक आमंत्रित थे। गुनगुनाती रोजी सारे घर को सजाती फिर रही थी। रजनीगन्धा की भीनी सुगन्ध से पूरा घर सुगन्धित था। रोजी ने डाँ शरद के लिए चुनकर मुस्कराने को उत्सुक रजनीगन्धा की कलियाँ अलग रख रखी थीं। उसे उस समय यह आभास भी कहाँ था कि उसकी वही कलियाँ डाँक्टर शरद की शव यात्रा में भी साथ देने वाली थी!

”क्या?“ मेरा विस्मित प्रश्न अनसुना कर डाँक्टर घोष कहते गये-
हाँ सामने से आती तीव्र गति के ट्रक ने अपना संतुलन खो, सीधे डाँक्टर शरद की कार से टक्कर मारी थी। शायद कुछ मुस्कराते अधखुले होंठ वहीं जम गये थे। पास में रोजी के लिए लाई साड़ी एकदम अछूती बच गयी थी।

सूचना पा रोजी स्तब्ध रह गयी थी। आँखें शून्य में स्थिर किये वह शायद यह निर्णय न ले पायी थी कि उसी समय हमेशा के लिए अपनी कहानी समाप्त कर दे या अपनी कोख में पल रहे डाँक्टर शरद के अजन्मे पुत्र को जन्म दे। माँ की ममता तो आप जानती हैं मिसेज कांत? तो रोजी न अपने उस अजन्मे शिशु को जीवित रह जन्म देने की सजा स्वीकार कर ली थी।

उसके बाद की कहानी भी तो साधारण नहीं थी। रूपसी रोजी के आसपास मॅंडराने की कई व्यक्तियों ने बहुत चेष्टा की थी। दो-एक ने तो सचमुच विवाह के प्रस्ताव भी रखे थे, पर रोजी ने अविचलित दृढ़ कंठ से कह दिया था-
”रोजी मर चुकी है, अब तो एक अजन्मे शिशु की माँ जीवित है। और माँ का बोझ उठाना कठिन है, कह रोजी ने सारे प्रस्ताव त्याग दिये थे। इसी पीड़ा में रोजी ने एक शिशु पुत्र को जन्म दिया था।“

हेमंत एकदम अपने पिता डाँ शरद पर पड़ा था। उसे देख रोजी जो गयी थी। सचमुच पुनर्जन्म हुआ था उसका। एक पल को भी वह शिशु को अपने से अलग नहीं करना चाहतीं थी। ड्यूटी के कठिन क्षणों मे अस्पताल के सारे रोगी उसके हेमंत बन जाते थे। हर रोगी रोजी का अधिक से अधिक समय चाहता था। मातृत्व की गरिमा से युक्त रोजी अपना समस्त स्नेह उन्हें देती थी।

हेमंत बड़ा होता गया। एकदम अपने पिता की प्रखर बुद्धि एवं शान्त गम्भीर स्वभाव पाया था उसने। अस्पताल की सब नर्सो का वह सजीव खिलौना था।

रोजी के जीवन में न जाने कितने बसंत आये और उसे बिना स्पर्श किये चले गये। नन्हा हेमंत किशोर बन गया।

बारहवीं कक्षा में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर जब हेमंत मुझे प्रणाम कर पैरों पर झुका तो आशीष देते मेरे मन में क्या कोई चोर नहीं था! अनजाने कभी उसे पुत्र रूप में पाने की लालसा क्या मुझमें नहीं जगी थी?

मैडिकल काँलेज में प्रवेश पाने की सूचना पाते ही रोजी हर्षातिरेक से पागल-सी हो उठी थी। शहर के सारे मन्दिर, मस्जिद, गिरजों में जाकर पूजा की थी, गरीबों को प्रसाद बाँटा था।

हेमंत के जाते समय रोजी टूट-सी गयी थी, इतने वर्षो का अकेलापन उससे कैसे सहा जायेगा? सब के स्नेह और आश्वासनों के बाद भी वह रात-रात-भर रोती थी, यह मैं उसकी लाल आँखें देख समझ जाता था।

एक सप्ताह बाद रोजी के नाम आये तार को मैंने ही रिसीव किया था। तार में जो सूचना थी, वह क्या रोजी को देना सम्भव थी?

उसके रक्त से सिंचित एक मात्र बेटा हेमंत ‘रैगिंग’ में साथियों की क्रूरता का शिकार हो इस संसार से विदा ले चुका था।

साधारण-सी घटना का इतना भीषण परिणाम। ‘रैगिंग’ के समय किसी ने हेमंत की माँ के अपूर्व सौन्दर्य को ले, कोई अश्लील वाक्य उछाला था, हेमंत ने उत्तेजना में उस छात्र को शायद कालर से पकड़ लिया था। हेमंत की यह अशिष्टता भला सीनियर छात्र सह सकते थे?

सीनियर छात्रों की अनगिनत हाकी स्टिक्स हेमंत की पीठ पर टूटती गईं, पर अन्तिम साँस तक माँ का अपमान करने वाले, हेमंत के क्रोध- भाजन ही  बने  रहे। लाख कहने पर भी हेमंत ने उनसे क्षमा-प्रार्थना नहीं की थी। उसका तेजस्वी मुख दृढ़ता से भिचा रहा था। हेमंत की अशिष्टता समाप्त करने के प्रयास में सीनियर छात्रों ने उसे ही समाप्त कर दिया, यह भान होते ही हेमंत का क्षत-विक्षत शरीर वहीं छोड़ सब गायब हो चुके थे।

पुत्र के साथ उस प्राण प्रिय शरीर पर पड़े सारे आघात रोजी हर पल आज भी महसूस करती है। कैसे सहे होंगे उस बच्चे ने इतने सारे आघात? जिसे कभी फूल से भी नहीं छुआ उसने, माँ के सम्मान की रक्षा में मृत्यु तक इतने बड़े आघात निःशब्द कैसे सहे?

उसकी ममता अपने लाल को न बचा सकी और उसका लाला माँ की श्रद्धा में अपने को अर्पित कर गया।

उस रात-नींद की ढेर सारी गोलियाँ खा रोजी ने फिर एक बार अपने को समाप्त करना चाहा था, पर अब डाँक्टरों ने इस जगह कमाल ही कर दिया। जानती हैं मिसेज कान्त, हम आज तक एक शव को जिन्दा रखे हैं! आज वह क्रूर कर्कश बुढ़िया है वो क्या जाने माँ की ममता? अनिता की चीखें सुन आपको इतना क्रोध आ गया, पर एक पल को उस माँ की बात भी सोच सकती हैं, जिसके शरीर पर, मन पर हर पल हजारों हाकी-स्टिक्स टूटती रहती हैं, जिसकी दृष्टि के सामने पीड़ा से कराहता निःशब्द मुख माँ के लिए असीम श्रद्धा से ताकता रहता है। बेटे की साँस टूटने तक अपने लिए उसकी करूण पुकार हर क्षण कानों में गूँजती रहती है।

सब कुछ अनदेखा, अनसुना कर दिन-रात यंत्रवत जीती दूसरों की पीड़ा दूर करती रोजी जा रही है। उसके साथ जो हुआ, क्या उसे न्याय दिला सकेंगी, मिसेज कान्त!

आज भी अनुभवी डाँक्टर रोजी के अलावा गम्भीर केस में अन्य किसी नर्स पर निर्भर नहीं रहते।
कब छड़ी उठा डाँक्टर घोष चले गये, पता ही नहीं लगा। झरते आँसुओं के मध्य पीड़ा से कराहता एक दृढ़ युवा मुख मानो साकार हो उठा। माँ का वात्सल्यपूर्ण काँपता हाथ उस तेजस्वी युवा को अन्तिम समय में सांत्वनापूर्ण स्पर्श भी न दे सका।

”माँ-माँ “ मैं शायद पागल हो रो रही हूँ। अनिता नहीं-नहीं, हेमंत रोजी को पुकार रहा है। नहीं-नहीं, मैं रोजी के प्रति अन्याय नहीं होने दूंगी। आँसू पोंछ मैं रोजी के घर की ओर चल दी।

फूलों का अभियोगी

भोर की लालिमा सुनहरे रंग में बदल रही थी। चिड़ियों के बीतों ने डाँक्टर मनीष को जगा दिया। आँखें खोलते ही खिड़की के बाहर फैली सरसों की पीली चादर ने डाँक्टर मनीष को मुग्ध कर दिया। सामने उनके छोटे से हाँस्पिटल में जीवन की गति प्रारम्भ हो गयी थी। वसंुधरा की माँ, मम्मी की पूजा के लिए फूल चुन रही थीं। जब से मम्मी उन्हें अपने साथ लाई हैं वह मम्मी का हर काम कर उनके उपकार के प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाती है। डाँक्टर मनीष या मम्ी उनसे जब भी आराम करने को कहते, वह एक निःश्वास छोड़ कहती, ”आराम-चैन अब कहाँ? भगवान जल्दी उनके पास भेज दो।“


वसुंधरा की मृत्यु के बाद उसकी माँ को अपनी आँखों के आँपरेशन के लिए कितनी मुश्किल से राजी किया गया था, ”अपना सब कुछ खोकर अब किसे देखने का अरमान है डाँक्टर साहिब? अब तो बस इस अन्धी को यॅंू ही मरने दो।“

मम्मी ने उनके कंधे पर हाथ धर प्यार से समझाया था, ”भगवान की इच्छा के आगे किसकी चलती है? हमारे रहते लड़के, बच्चे चले जाएँ क्या यह न्याय है? बिटिया के जाने का किसे दुःख नहीं? उसकी कितनी इच्छा थी तुम्हारी आँखों को ठीक कराने की, आँपरेशन करा लो, बेटी की आत्मा को शांति मिलेगी बहिन।“

आँपरेशन की सफलता के बाद वृद्धा की आँखों से टपटप आँसू बह निकले थे, ”कहाँ है उनकी वसु? कहाँ गया उनका परिवार? क्या देखने को आँखें पायी हैं।“ डाँक्टर मनीष की मम्मी जब उस अकेली असहाय स्त्री को अपने साथ रखने को ले आयी तो डाँक्टर मनीष उनके प्रति कृतज्ञता से भर उठे थे।

वसुंधरा की माँ अन्दर जा चुकी थी। मम्मी डाँक्टर मनीष को चाय के लिए आवाज दे रही थीं। जल्दी-जल्दी एक कप चाय पी डाँक्टर मनीष जैसे ही अपने उस छोटे-से अस्पताल में पहुँचे, मरीज खड़े हो गये थे। कुछ ही दिनों में वह उस गाँव में देवता की तरह पूजे जाने लगे थे। न जाने कितने असाध्य रोगियों को उन्होंने पुनर्जीवन दिया है। उनके पहुँचते ही कम्पाउंडर ने एक-एक का नाम पुकारना शुरू कर दिया था।

शायद ग्यारवें नम्बर पर एक नन्हीं बालिका का हाथ थामे वह स्त्री भीतर आयी थी।

”डाँक्टर साहिब ई हमार बिटिया को तनिको भूख नाही लागत।“

नन्ही बालिका की उज्ज्वल हॅंसती दृष्टि डाँक्टर मनीष को न जाने किसकी याद करा गयी।

”क्या नाम है तुम्हारा गुड़िया?“

”वसु!“ उत्तर दिया था बालिका ने और हॅंस कर डाँक्टर मनीष का स्टेथिस्कोप उठा लिया था। ”वसु!“ झन्न से डाँक्टर मनीष की स्मृति को मानो उस एक शब्द ने झकझोरकर निर्ममता से जगा दिया था।

पिछले कुछ दिनों पूर्व की कहानी फिर याद हो आयी। पेट के असह्य दर्द की शिकायत के साथ वह लड़की डाँक्टर मनीष के पास आ रही थी। अन्धी माँ छटपटाती कभी अजवाइन का पानी पिलाती तो कभी असहाय उसका सिर सहलाती रह जाती थी। बेटी की व्यथा उसे असह्य थी।

स्टोन का पता लगते ही डाँक्टर मनीष ने उसके आँपरेशन का सुझाव दिया था। एक पल को उसके मुख का रंग उतर गया था, ”आँपरेशन में तो बहुत पैसे लगते हैं न?“

”अच्छा पैसों की बहुत चिंता है- क्या पापा के पैसे बचाने हैं?“ किंचित मुस्करा उन्होंने प्रश्न पूछा था।

”अगर पापा होते तो खर्च कराती।“ उदास हो गयी थी।

”क्या पापा नहीं है? आई एम साँरी! कौन-कौन है घर में?“

”सब थे। पापा, भाई पर अब तो माँ और मैं बची हूँ, माँ अंधी है। यहाँ स्कूल में मैं पढ़ाती हूँ।“ स्वर भीग-सा गया था।

”क्या तुम टीचर हो? देखकर तो नहीं लगता।“ डाँक्टर मनीष ने परिहास की चेष्टा की थी।

”देखकर ही तो सब कुछ नहीं जाना जा सकता डाँक्टर। क्या मुझे देखकर आप यह जान सकते हैं, मैंने अपनी आँखों के सामने भाई और पिता को एक साथ हॅंसते हुए स्कूटर पर जाते देखा और एक साथ ही दोनों के शव उठते देखे। भाई मेरे लिए साड़ी लेने गया था। रोते-रोते माँ ने अपनी आँखें खो दी हैं, पर मैं हॅंसती रहती हूँ।“

स्तब्ध डाँक्टर मनीष उस लड़की का मुख लेखते रह गये थे। एक पल बाद बोले, ”तुम सचमुच बहुत बहादुर लड़की हो, अगर तुम्हारे घर आऊॅं तो अच्छा लगेगा तुम्हें?“

”माँ बहुत खुश होंगी, घर का सूनापन उन्हें खाये डालता है।“

डाँक्टर मनीष अस्पताल के सर्वाधिक हॅंसमुख, दक्ष और रोगियों के मध्य बहुत प्रिय थे। अविवाहित होने के कारण युवा वर्ग के नेता भी थे। अपने जीवंत स्वभाव के कारण मित्रों, महफिलों की जान थे। मरीजों के चेहरों पर जरा-सी मायूसी देख बच्चों जैसे दुलराते थे। बूढ़े रोगी उन्हें आशीषते नहीं थकते थे। अपनी भावुकता के लिए डाँक्टर मनीष पूरे अस्पताल में ‘बदनाम’ थे। पाँच माह पूर्व एक अनाथ बालक की मृत्यु पर डाँक्टर मनीष ने न केवल उसके दाह कर्म का खर्चा उठाया था वरन् दो दिन तक ठीक से भोजन भी न कर सके थे।

कुछ दिनों बाद डाँक्टर मनीष उसके घर गये थे। एक कमरे का घर, अन्दर के छोटे-से बरामदे को रसोई का रूप दे दिया गया था। सामान कुछ भी न होते हुए भी सुव्यवस्थित करीने से सजा था। डाँक्टर को अपने घर आया जान माँ निहाल हो उठी थी। बेटी को चाय बनाने को कह स्वंय डाँक्टर के पास मूढ़ा डाल बैठ गयी थी। धीमे-धीमे डाँक्टर मनीष से उनके घर-परिवार के बारे में पूछती गयी थी। डाँक्टर साहिब की माँ और एक बहिन हैं। बहिन का विवाह हो चुका था, बस अब उन्हीं का नम्बर है। भगवान उन्हें सुखी रखे, बहुत प्रशंसा सुनी है उनकी, काश आँखों से देख पाती। इस लड़की के लिए भी वर खोज पाती, माँ का चेहरा उदास हो गया था। अतीत की सुखद गुहस्थी की याद में नयन भर आये थे।

चाय लाती लड़की ने झिड़की दी थी, ”माँ फिर वही पुरानी बातें ले रो रही हो न? देखो माँ, जो अपने दुःख को पी दूसरों को हॅंसाते हैं, उनके पास तो चार लोग बैठते हैं वर्ना रोने वालों से लोग भी कतराते हैं। कितनी बार समझा चुकी हूँ माँ!“

”नहीं-नहीं माँ, अपनी बात कहो, मैं कोई दूसरा तो नहीं।“ चाय का कप डाँक्टर मनीष ने थाम लिया था। घर देख कर आर्थिक स्थिति का सहज ही अन्दाज हो गया था।

उस लड़की की कहानी सुन डाँक्टर मनीष उसके प्रति विशेष सदय हो उठे थे। उसके साहस के प्रति वे मन-ही-मन मुग्ध थे। इतना दुःख सह वह हमेशा फूल-सी खिली दिखती लड़की कभी गलती से एक पल को गम्भीर भी हुई तो अगले क्षण उस गलती को सुधारने के लिए जबरदस्ती जोरों से हॅंस पड़ती थी। विस्मित, विमुग्ध डाँक्टर मनीष उसे निहारते रह जाते थे। उसकी हॅंसी के पीछे छिपी पीड़ा क्या वे पहचान नहीं सके थे? धरती-सी सहनशील उस लड़की का ‘वसुंधरा’ नाम सार्थक था।

वसंुधरा की माँ के आग्रह पर डाँक्टर मनीष प्रायः ही उसके पास जा बैठते थे। कभी गली-मुहल्ले वालों ने कुछ सोचा होगा, वह सोच भी न सके। वसंुधरा को जब उन्होंने अपनी मम्मी से मिलाया तो वे ममता से आत्मविभोर हो उठी थीं, ”इत्ती प्यारी लड़की को ही भगवान को दुःख देना था!“ स्नेह से वसुंधरा के सिर पर हाथ धर उन्होंने आशीष दिया था।

अपने काँलेज के चैरिटी शो में वसुंधरा ने एक गजल गायी थी। डाँक्टर मनीष को उनकी मम्मी के साथ आमन्त्रित किया था। मनीष की मम्मी मंत्रमुग्ध रह गयी थीं। चैरिटी शो में अपनी ओर से पाँच सौ एक रूपये दे डाले थे उन्होंने। घर जाकर शायद दोनों सोचते रह गये थे, क्या उसकी वाणी का दर्द उसकी अपनी पीड़ा की कहानी नहीं कह रहा था? न जाने क्यों उस रात बहुत देर तक मनीष उसके बारे में सोचता रह गया था। एक बार मन में एक नन्हें-से प्रश्न ने उगने का दुस्साहस किया था , ‘कहीं वसंुधरा एक पेशेंट से अगल उसके लिए कुछ और तो नहीं बन पड़ी थी? क्यों अपने खाली क्षणों में वह उस लड़की के विषय में सोचता था।’ अपने मन के इस भ्रम को उन्होने हमेशा झटका दे दूर कर दिया, ‘नहीं वह लड़की बहुत दुःखी, बहुत अकेली है, उसके कंधों पर बहुत बड़ा दायित्व है। बस, शायद इसीलिए वह उसके प्रति सहानुभूति रखते हैं, उससे अधिक कुछ नहीं।’ फिर भी वसंुधरा के साथ उनके क्षण पूर्ण हो उठते थे और उन्हें लगता था वसंुधरा का एकांत मनीष के साथ चहक उठता था।

स्टोन निकालने के लिए आँपरेशन करना होगा, सुन डाँक्टर मनीष की मम्मी भी उद्विग्न हो उठी थीं। विधवा अन्धी माँ की चिन्ता तो स्वाभाविक ही थ, पर वसुंधरा शांत, निर्विकार मुस्कराती रह गयी थी। डाँक्टर मनीष की मम्मी ने व्यग्र हो होम्योपैथिक इलाज का सुझाव दिया था। वसुंधरा ने प्रतिवाद करते हुए कहा था, ”वाह माँ, आप ही अपने बेटे पर विश्वास नहीं रखतीं, मुझे तो अगाध विश्वास है।“ वाक्य समाप्त कर डाँक्टर मनीष को देख हॅंस पड़ी थी।

”नहीं बेटी, तेरा पेट चीरा जायेगा, सुन कर ही डर लगता है।“

”मैं तो नहीं डरती माँ।“ डाँक्टर मनीष उसके इस अगाध विश्वास पर मौन रह गये थे। दो दिन पूर्व ही वह डाँक्टर रविकांत से स्वंय कह चुके थे, ”सर, यह आँपरेशन आप कर दीजिए।“ डाँक्टर मनीष ने मुख्य चिकित्सा अधिकारी डाँक्टर रविकांत से अनुरोध किया था।

”क्यों, इतने बड़े सर्जन हो और इस छोटे-से आँपरेशन से घबरा रहे हो?“ डाँक्टर रविकांत का विस्मय स्वाभाविक था।?

”नहीं सर, बात यह है कि यह लड़की अपनी अंधी विधवा माँ की एकमात्र बेटी है।“ न जाने क्यों डाँक्टर मनीष यह आँपरेशन करने में हिचक रहे थे।

”डोंट बी सिली, इस पेशे में भावुकता नहीं चलती, समझें!“ डाँक्टर मनीष की पीठ ठोक डाँक्टर रविकांत चले गये थे।

अन्ततः आँपरेशन की तिथि नियत कर दी गयी थी। स्टेªक्चर पर लिटा जब उस लड़की को आँपरेशन थिएटर ले जाया जा रहा था तो वह निर्णय निःशंक मुस्करा रही थी। आपॅपरेशन थिएटर में भेजने के पूर्व अंधी माँ के हाथों ने बेटी के पूरे शरीर पर हाथ फिरा तसल्ली कर ली थी कि उसकी बेटी सही-सलामत तो है न? माँ के मुख को ताकती उसकी वसु एक पल को उदास-सी हो गयी थी, फिर हॅंस कर माँ के दोनों स्नेहिल हाथ अपने गालों पर फिरा बोली, ”रोज अपने पेट के दर्द के कारण तुझे परेशान करती थी न माँ, अब एकदम ठीक हो जाऊॅंगी। तेरी परेशानी दूर हो जायेगी।“

विधवा ने हाथ जोड़ डाँक्टर से विनती की थी, ”मेरी बिटिया ठीक हो जायेगी न डाँक्टर?“

”हाँ अम्मा, छोटा-सा आँपरेशन है, दो दिन में ठीक हो जायेगी।“ हॅंसते हुए डाँक्टर मनीष ने तसल्ली दी थी। असहाय माँ की पीठ पर हाथ धरते डाँक्टर मनीष की दृष्टि स्ट्रेचर पर पड़ी वसुंधरा की दृष्टि से टकरा गयी थी।

कश्मीरी सेब से गाल, गहरी काली आँखें, पतले, गुलाबी अधखुले मुसकराते होंठों के मध्य से झलकते अनार के दोनों से चमचमाते दाँत। जीवन से भरपूर, हॅंसी मानो छलक रही हो। दृष्टि मिलते ही चेहरा लाल हो उठा था। पूरे विश्वास से अनजाने डाँक्टर के हाथों अपने को सौंप वह मुस्करा रही थी।

अन्दर पहुँच न जाने क्यों डाँक्टर मनीष एक बचकाना प्रश्न पूछ बैठे थे, ”डर नहीं लग रहा है, पूरा पेट चीरा जायेगा?“

”लगता तो है पर जानती हूँ आपके हाथों मरूँगी नहीं।“ कह वह विश्वासपूर्ण हॅंसी हॅंस दी थी। डाँक्टर मनीष और नर्स मुस्करा उठे थे। आँपरेशन के समय अच्छे-अच्छे लोग भयभीत हो उठते हैं और यह लड़की यॅंू मुस्करा रही थी, बातें कितनी सहजता से कर रही थी।

”डाँक्टर, ठीक होने के बाद माँ की आँखों का आँपरेशन भी आप से ही कराऊॅंगी।“

”पर मैं तो आँखों का डाँक्टर नहीं हूँ और फिर मुझसे ही क्यों? अभी तो तुम्हारा भी आँपरेशन नहीं हो पाया है।“

”इसीलिए कि आपकी बातों से ही माँ की आधी बीमारी जो भाग जाती है। अगर माँ से रोज बात भी करोगे तो उसकी आँखें ठीक हो जायेंगी।“

नर्स ने बाहर आ सब को बताया था, बेहोश होने के पहले वह जिद कर रही थी, ”मैं डरती नहीं, मुझे लोकल इनेसथीसिया दे दो।“

डाँक्टर बोस ने गिनती गिनवानी शुरू की तो पूरे तीस तक गिन गयी, बड़े जीवट वाली लड़की है। आँपरेशन ठीक हो गया, बाहर आ डाँक्टर मनीष ने उसकी माँ को पूरी तसल्ली दी थी, ”अब भय की कोई बात नहीं है, दो-चार दिन में बेटी को घर ले जाइयेगा!“ माँ ने आँचल फैला डाँक्टर को आशीष दिया था।

दूसरे दिन सुबह जब वह वार्ड में उसे देखने गया तो पास में बैठी माँ, बेटी के बालों को स्नेह से सहला रही थी। डाँक्टर मनीष को देखते ही वसुंधरा का पीला मुख चमक उठा था, ”देखा ठीक कहा था न मैंने आपके हाथों मर नहीं सकती।“ आँखें जगमगा रही थीं और स्वर में कुछ शोखी झलक उठी थी। प्रत्युत्तर में डाँक्टर मनीष मुस्करा भर दिये थे।

वसुंधरा की वस्तुस्थिति से डाँक्टर मनीष ने डाँक्टर रविकांत को अवगत करा पूरी कहानी सुना दी थी। साथ ही जोड़ दिया था, ”अगर आँपरेशन निःशुल्क नहीं किया जा सकता तो मैं अपनी ओर से फीस भर दुँगा।“

डाँक्टर रविकांत हॅंस पड़े थे, ”चलो तुम्हारे इस पुण्य काम में हम भी हाथ बटा लेते हैं, मुझे मौका नहीं दोगे?“

कृतज्ञ डाँक्टर मनीष धन्यवाद दे चले आये थे। उस लड़की और उसकी माँ को देख डाँक्टर रविकांत बहुत उदास हो जाते थे। इस छोटी-सी अवस्था में उस लड़की का धैर्य सचमुच प्रशंसनीय था।

अस्पताल से छुट्टी मिलने वाले दिन वसंुधरा की माँ ने सब को पेड़े खिलाये थे। अनगिनत दुआएँ दे, बेटी को जब वे रिक्शे में ले जाने लगी तो डाँक्टर रविकांत ने ड्राइवर को बुला अपनी गाड़ी में घर छुड़वाया था।

दो दिन बाद वसुंधरा का एक पड़ोसी डाँक्टर मनीष के पास आया था, ”वसुंधरा की हालत खराब है।“ एम्बुलेंस से जब वसुंधरा अस्पताल पहुँची तो दर्द से तड़प रही चेतना-शून्य होती जा रही थी। माँ का रो-रो के बुरा हाल था। अस्पताल के केबिन में पहुँचने के पूर्व ही उसने दम तोड़ दिया। सारे डाँक्टर निरूपाय खड़े रह गये थे। माँ का दिल दहला देने वाला हाहाकार चीत्कार में बदल चुका था।

डाँक्टर रविकांत को कुछ डाँक्टरों ने वसंुधरा के पोस्टमार्टम की सलाह दी थी, पर बेचारी लड़की को और क्या दुःख पहॅुंचाना, कह बात उन्होंने टाल दी थी। उसके घर में कुछ कहने-सुनने वाला था ही कौन? अंधी माँ हाथों से निष्प्राण बेटी के अंग-प्रत्यंग सहलाती करूण स्वर में दुलार कर रही थी। वही बेटी जो माँ की आँखों में ज्योति लाने वाली थी, अंधी की दुनिया हमेशा के लिए अॅंधेरी कर गयी थी। अस्पताल में इस करूण दृश्य को देख सब की आँखें गीली हो उठी थीं।

बड़ी मुश्किल से माँ को हटाया गया। पास-पड़ोसियों की मदद से शव श्मशान ले जाया गया। उकस दाह-संस्कार कौन करेगा? न जाने किस प्रेरणा से डाँक्टर मनीष ने यह दायित्व स्वंय उठा लिया। अग्नि देने के पूर्व दो चमकीले नयन उन्हें चिढ़ा गये, ”आपके हाथों नहीं मरूँगी।“ दो बॅंूद आँसुओं का अघ्र्य दे डाँक्टर मनीष घर आ चित्त पड़े कमरे की छत निहारते रह गये थे।

डाँक्टर मनीष वसु की माँ के पास जाने का साहस नहीं बटोर पा रहे थे। माँ को साथ ले उस घर पहुँचे, जहाँ सब कुछ लुटा अंधकार को गहराती वसंुधरा की माँ बैठी थी। मनीष की पदचाप सुन वसु की माँ करूण हाहाकार कर उठी, ”तुम पर तो उसे भगवान-सा विश्वास था बेटे, तुम भी उसे बचा न सके?“

मनीष की माँ के नयन भर आये। स्नेह से उस असहाय नारी के कंधे पर हाथ धर समझाने की चेष्टा की थी, ”डाँक्टर भी साधारण आदमी ही है बहिन, अगर इसके हाथ में होता तो क्या वसु बेटी को यॅंू जाने देता?“ माँ की दृष्टि अपने बेटे के मुख पर टिक गयी थी।

यह सभी बातें तो रूँधे कंठ से डाँक्टर मनीष ने डाँक्टर रविकांत को सुनायी थीं। उस अंधी विधवा की समस्या सचमुच गम्भीर थी। डाँक्टर रविकांत ने ही सुझाया था, ”कुछ दिनों बाद उसकी आँखों का आँपरेशन करेंगे, भगवान ने चाहा तो ठीक हो जायेगी। नयनों की ज्योति पाकर भी बेचारी को जीवन तो अंधकार में ही काटना था। फिर भी कम-से-कम किसी की मोहताज तो न रहेगी।“ सुन कर डाँक्टर मनीष बहुत हद तक आश्वस्त हो उठे थे। डाँक्टर रविकांत को न जाने क्यों लग रहा था डाँक्टर मनीष कहीं से टूट गये थे, मानो वे उस विधवा के दुर्भाग्य के लिए स्वंय को उत्तरदायी ठहराते थे। क्या वसुंधरा और डाँक्टर मनीष डाँक्टर और रोगी से कुछ अधिक तो नहीं हो उठे थे? कहीं डाँक्टर मनीष उस प्यारी-सी लड़की के प्यार में तो नहीं बॅंध चुके थे?

डाँक्टर रविकांत ने ही मनीष के साथ वसु की माँ के पास जाने का आग्रह किया था। बहुत देर रो चुकने के बाद अस्फुट शब्दों में वसु की माँ ने डाँक्टर मनीष से कहा था, ”अभागी का इस दुनिया में मेरे सिवाय कोई नहीं है बेटा। दाह कर्म कर तुमने उसे मुक्ति दे दी, तुम तो देवता हो बेटा। मुझ अंधी को ले चलो, उसके फूल बटोर अंतिम काम भी निपटा दुँ।“ कहती वह स्वंय ही फफक उठी थी।

तभी याद आया मनीष को- सचमुच चिता के भस्मावशेष तो अभी भी वहाँ किसी अपने की प्रतिक्षा कर रहे हैं। कुछ भी न होते हुए वह उसके विश्वास थे। वसु की माँ से अंतिम दायित्व निभाने का वादा कर वह दूसरे दिन अकेले ही चले गये थे। चिता की ठंडी राख मानो उनकी ही प्रतीक्षा कर रही थी। फूल बटोरते डाँक्टर मनीष को वसंुधरा का हमेशा मुस्कराते रहने वाला मुख बार-बार याद आ रहा था। अचानक उनकी दृष्टि एक छोटी-सी चमकीली चीज पर पड़ी थी। उसे साफ करते डाँक्टर मनीष स्तब्ध रह गये थे। उनके हाथ में एक फाँरसेप था।

हाथ में उस फाँरसेप को लिये डाँक्टर मनीष अवाक् खड़े रह गये थे- इतनी बड़ी भूल क्यों कर सम्भव हुई? यह अपराध क्या उन्हीं से होना था। सीधे घर वापिस आ कमरा बन्द कर लिया था, यह भी याद न रहा, कोई अभागिन माँ उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। बेटी के अंतिम कार्य को उसने पूर्ण कर दिया जानने को उनके पदचाप सुनने को आतुर होगी। मम्मी ने बार-बार चाय पीने का आग्रह किया, कुछ खा लेने को कहा पर सिर दर्द की बात कह लेटा रह गया था।

सवेरा होते ही डाँक्टर रविकांत के हाँस्पिटल पहुँचने के पूर्व वह उनके घर चले गये थे। लाल आँखें रात्रि जागरण का संदेश दे रही थीं। डाँक्टर रविकांत चैंक उठे थे, ”क्या बात है डाँक्टर?“ प्रत्युत्तर में डाँक्टर मनीष ने उन्हें एक लिफाफा थमा दिया था।

पत्र पढ़ते ही डाँक्टर रविकांत चैंक उठे थे, ”ये क्या? तुम त्यागपत्र दे रहे हो! आखिर क्यों?“

”मैं हत्यारा हूँ सर, किसी का अपराधी हूँ। आप पुलिस को सब बता सकते हैं।“ डाँक्टर मनीष बस इतना ही कह सके थे।

”ठीक है, पहले एक कम चाय लेते हैं फिर तुमसे पूरी बात सुनूँगा।“

एक तरह से जबरन उसे बिठा कर डाँक्टर रविकांत ने चाय थमा दी थी।

”मैं ठीक कह रहा हूूं सर, मैंने उसे मार डाला है। पूरी बात बताते डाँक्टर मनीष का स्वर आर्द्र हो उठा था, ”जिस पर उसने भगवान की तरह विश्वास किया, वही उसका हत्यारा है। मुझे जीने का कोई अधिकार नहीं है सर।“

डाँक्टर रविकांत ने अपनी दृष्टि एक पल उस युवा डाँक्टर के मुख पर डाल कहा था, ”न तुम अपराधी हो, न हत्यारे मनीष। यह एक दुर्घटना थी जो कभी भी किसी पल घट सकती है। तुमने अपनी ओर से किसी त्रुटि की सम्भावना नहीं छोड़ी थी। फिर यह अपराध बोध क्यों?“

”सर, आँपरेशन मैंने किया था फिर उसकी मृत्यु का उत्तरदायी और कौन है?“

”जो हो गया उसे भूल, भविष्य में और भी सतर्कता से जीवन दान देना होगा डाँक्टर।“

”मैं दंड पाना चाहता हूँ सर, मेरी आत्मा को बिना सजा पाये शांति नहीं मिलेगी। आप मुझे दंडित कीजिए।“

”ठीक है मनीष, पश्चाताप सभी दोषों से मुक्त कर देता है। मेरे पास गाँव में कुछ डाक्टर्स भेजने की रिक्वेस्ट आयी है- तुम वहाँ जाकर एक जीवन के स्थान पर न जाने कितने लोगों को प्राणदान दे सकते हो। गाँव का जीवन कठिन होगा, तुम्हें बहुत-सी प्रावलम्स फेस करनी होंगी, कर सकोगे मनीष?“

”सर, मैं कठिन-से-कठिन दण्ड पाना चाहता हूँ सिर्फ गाँव जाने से क्या होगा?“

डाँक्टर रविकांत ने उसे यह बात किसी से न कहने की भी सजा दी थी। स्वंय मम्मी आज तक नहीं जानती, उनका बेटा अनजाने कितना बड़ा अपराध कर बैठा है।

कुछ ही दिनों बाद डाँक्टर मनीष इस गाँव में आ गये थे और आज सचमुच ‘वसुंधरा’ नन्ही, मुस्कराती कली के रूप में उनके सामने आ खड़ी हुई है। सन्तोष की मीठी आभा से उनका मुखमंडल उज्ज्वल हो उठा। बालिका के हाथ से स्टेथिस्कोप ले वह उसका निरीक्षण करने लगे।

परिष्कार

यूनीवर्सिटी कैम्पस के फाउंटेन के पास खड़ी आकांक्षा ने झुँझला कर रिस्टवाँच पर दृष्टि डाली थी। पूरे बीस मिनटों से वहाँ खड़ी वह अक्षत की प्रतीक्षा कर रही थी। धीमे-धीमे सिप करते कोक भी समाप्त हो गया था। व्यग्रता से सामने दृष्टि डालते आकांक्षा को पेड़ों के पीछे से आती अक्षत की सफेद कार दिखी थी। नहीं बोलना है उससे .......कोक का खाली कैन डस्टबिन में डाल, फाउंटेन के सामने वाली सीढ़ियों पर बैठ आकांक्षा ने किताब खोल ली थी।


”आई एम एक्स्ट्रीमली साँरी आकांक्षा। जैसे ही कार निकाली, अनुराग मिल गया। तुम तो उसे जानती ही हो, जल्दी पीछा छोड़ने वाला नहीं है। किसी तरह उसे डिपार्टमेंटल स्टोर पर उतार, भागा आया हूँ।“ अक्षत ने आते ही सफाई दी थी।

”आने की क्या जरूरत थी, उसी के साथ पूरा डे स्पेण्ड करते।“ आकांक्षा ने मान दिखाया था।

”ठीक है, वापिस चला जाता हूँ, बेचारा लंच के लिए इन्वाइट कर रहा था। मैंने सोचा, शायद यहाँ मेरी ज्यादा जरूरत हो।“

”लंच छोड़ने का इतना गम है? यहाँ एक घंटे से अकेले हम इन्ज्वाँय कर रहे है न?“

”कहा न भई, अब गुस्सा छोड़ो। आओ पहले कैंटीन चलते हैं, कुछ ठंडा लोगी तभी दिमाग ठंडा होगा।“ अक्षत ने परिहास किया था।

”मैं पहले ही कोक ले चुकी हूँ, तुम्हें लेना हे तो ले लो...........“

”चलो तुमने कोक ले लिया, मुझ तक ठंडक पहुँच गयी।“ अक्षत शरारती हॅंसी हॅंस दिया था।

”तुमने वादा किया था अपनी यूनीवर्सिटी लाइब्रेरी में मुझे इंट्रोड्यूस करा दोगे, भूल गये न? प्लीज अक्षत मुझे कुछ जरूरी रेफरेंस बुक्स चाहिए, चलो न!“

”इस तरह प्यार से कहो तो आकाश के तारे भी तोड़ लाऊॅंगा। बस दो मिनट......... कल जो स्पेसिमेन (नमूना) रखा था, उसकी प्रोग्रेस देखता चलुँ...... ओ.के........“

अक्षत के साथ आकांक्षा भी उसके डिपार्टमेंट में चली गयी थी। शीशे के जारों में रखे उन अजीब नमूनों को देख उसे न जाने कैसी वितृष्णा-सी हो उठी थी। शोध छात्रों के नमूने कल्चर प्लेट्स में ह्यू मन डिप्लायड सेल्स ग्रो कर रहे थे।

”इन विकृत नमूनों से ही हम सुन्दर आकृति दे सकेंगे आकांक्षा।“ अक्षत ने उसे बताया था।

”तुम्हें ये शोध-कार्य अच्छा लगता है अक्षत? कभी किसी तरह की ऊब नहीं लगती?“ आकांक्षा विस्मित थी।

”किसी टूटी-फूटी व्यर्थ की वस्तु को सुन्दर-सुडौल रूप देकर जो आनन्द मिलता है, वो कल्पनातीत है आकांक्षा।“

”तुम्हें अपनी शोध-सफलता पर पूरा विश्वास है अक्षत? सुना है कभी वर्षो के श्रम व्यर्थ चले जाते हैं?“

”जेनेटिक इंजीनियर हूँ मैडम, जीन सुधारने में महारत हासिल करके ही रहूँगा।“ सहास्य कहा था अक्षत ने।

जारों में सुरक्षित नमूनों को देखती आकांक्षा के पास आकर अक्षत ने पूछा था-”क्या देख रही हो आकांक्षा?“

”विकृति के साथ रह पाना क्या आसान है अक्षत?“

”काश, किसी सजीव नमूने को सामने रख एक्सपेरिमेंट कर पाता.........“

”मतलब?“

”तुम नहीं समझ सकोगी आकांक्षा। एक ऐसा जुनून-सा उठता है, कैसे........ किस तरह अविकसित मस्तिष्क, प्रकाश रहित आँखों और टेढ़ी-मेढ़ी, अविकसित मांसपेश्यिों को सुधार कर रख दूँ।“

”मुझे तो ये सब सोचकर भी घबराहट-सी होती है अक्षत........।“

”ये देखो, एक ऐसा मानव-नमूना, जिसकी न आँखें थीं, न कान....... व्हाट ए ट्रेजेडी। जेनरेली ऐसे नमूने ज्यादा दिन जीवित नहीं रहते वर्ना........।“ष्

”......... वर्ना ये राक्षस पिता को खा जाता.........।“ अचानक ये वाक्य जैसे आकांक्षा के मुँह से फिसल गया था।

विस्मित अक्षत ने मुड़कर आकांक्षा को निहारा था।

”अक्षत.......... आई एम नाँट फीलिंग ओ के ..... मैं जा रही हूँ........।“

सफेद पड़े चेहरे के साथ, खुली हवा में पहुँच पाने के लिए मानो आकांक्षा उतावली हो उठी थी। लगभग भागते हुए वह डिपार्टमेंट के बाहर वाले लाँन में पहुँची थी। पीछे से आये अक्षत के स्वर में घबराहट थी- ”क्या हुआ आकांक्षा? ऐनी प्राबलेम?“

”नथिंग........ कुछ ठीक नहीं लग रहा है, मैं वापिस जा रही हूँ- दैट्स आँल......।“

”चलो तुम्हें ड्राप कर दूँ.......।“

”नहीं अक्षत, मैं कार लाई हूँ......।“

”पहले डाँक्टर के पास चलते है।“

”नहीं.......नहीं......... मैं ठीक हूँ, अचानक हल्का-सा चक्कर आ गया था। तुम परेशान मत हो अक्षत। कल मिलेंगे।“ विस्मित अक्षत को वहीं खड़ा छोड़, पार्किंग प्लेस से कार निकाल, आकांक्षा ने अपार्टमेंट की ओर गाड़ी मोड़ दी थी।

अपार्टमेंट के अपने रूम में पड़े पलंग पर, आकांक्षा गिर-सी पड़ी थी। बारह वर्ष पूर्व की उस घटना ने उसे उद्वेलित कर दिया था।

आकांक्षा के जन्म के आठ वर्ष बाद उस भाई नामधारी जीव ने जन्म लिया था। उसे देख डाँक्टर स्तब्ध रह गये थे...... प्रकाश-विहीन नयन और स्वर-विहीन कान मांस का सजीव लोथड़ा ..... जिससे कोई आशा नहीं........। ”हे भगवान, ये दंड क्यों दिया?“ माँ रो पड़ी थीं।

पिता के पास माँ को सांत्वना देने के लिए शब्द भी कहाँ शेष थे। डाँक्टरों ने निराशासूचक सिर हिला दिये थे- ‘नही’ कुछ भी कर पाना सम्भव नहीं था......।

किसी मित्र ने सांत्वना-सी दी थी - ‘ऐसे बच्चे ज्यादा दिन नहीं जीते......’ पिता तड़प उठे थे।

‘अगर आप चाहें, इस बच्चे को मेडिकल-काँलेज के विकलांग विंग में रखने की व्यवस्था की जा सकती है।’ एक सदय डाँक्टर ने सुझाव दिया था।

‘नहीं.........नहीं.........पराए हाथों मेरा बच्चा नहीं पलेगा ......’ माँ विलख पड़ी थी।

दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता कहाँ नहीं गये थे माँ और बाबा, पर उनके जीवन का अंधकार गहराता ही गया था। चाहकर भी बाबा डाँक्टरों के सुझाव स्वीकार नहीं कर सके थे। माँ हमेशा बीच में आ जाती थीं- ‘मैं अपने बेटे को अपने से अलग नहीं करूँगी। मैं इसे पालुँगी, बड़ा करूँगी भगवान मेरी मदद जरूर करेंगे।’

घर में वह भाई नामधारी जीव बड़ा होने लगा था। विस्तर पर पड़े उस भाई को बचपन में आकांक्षा कौतुक से देखा करती। माँ उसका लाड़ करती, माथे पर काजल का टीका लगा देती थी। जिस बच्चे का अस्तित्व ही आतंकित करे, उसके माथे पर नजर का टीका?

वर्ष बीतते गये थे, आकांक्षा ने दसवीं कक्षा पास कर ली थी। बाबा को किसी ने बताया था अगर वह चारों धाम की दर्शन-यात्रा कर लें तो शायद भगवान कोई चमत्कार कर दे। इतने विद्वान बाबा ने माँ का मन रखने के लिए चारों धाम जाने का निर्णय ले लिया था।

‘भगवान तुम्हारी यात्रा सफल करे, हमारे बेटे को नेत्रों की ज्योति मिल जाये।’ रूँधे गले से माँ ने प्रार्थना की थी।

बाबा एक धाम की यात्रा भी तो पूरी नहीं कर सके थे। बस-दुर्घटना में उनकी मृत्यु की सूचना ही आ सकी थी। पड़ोस की किसी स्त्री को फुसफुसाते आकांक्षा ने सुना था- ‘बेटा क्या, राक्षस जन्मा है। बाप को भी खा गया।’

आकांक्षा आपादमस्तक सिहर गयी थी। भाई को कोई नमा नहीं दिया गया था, उस स्त्री की बात सुनते ही आकांक्षा ने उसका नामकरण कर दिया था-‘राक्षस’। पलंग पर पड़े-पड़े उसे नित्य क्रियाओं से निवृत होते देख आकांक्षा का मन वितृष्णा से भर उठता था।

माँ लाड़ से उसे खिड़की के सीखचे पकड़ा खड़ा करने लगी थीं। लड़खड़ाते कदमों से उसे दो-चार कदम चलता देख, माँ के मन में आशा का संचार हो आता था शायद एक दिन वह ठीक हो जाय, उनके सारे संकट कट जाएँ।

बी एस सी प्रीवियस में आकांक्षा के फिजिक्स में सर्वाधिक अंक आये थे। रजत चिढ़ गया था..... एक लड़की फिजिक्स जैसे विषय में टाँप करे-धिक्कार है। आकांक्षा को जिस पुस्तक की जरूरत होती, वही रजत को चाहिए होती थी। कभी आकांक्षा कोई विशेष पुस्तक अपने लिए रिजर्व कराती तो रजत का पहले से ही रिजर्वेशन रहता। दोनों की प्रतिद्वंद्विता दूसरों के मनोरंजन का कारण बन गयी थी। एक दिन आकांक्षा गुस्से में बरस पड़ी थी- ”क्या बात है मिस्टर रजत? मेरी किताबों की यॅंू जासूसी करते शर्म नहीं आती?“

”जासूसी भी करूँगा वो भी निर्जीव किताबों की-कमाल करती हैं आकांक्षा जी। जिंदगी में ऐसी बहुत-सी बातें हैं जिनकी जानकारी पाने में खुशी होगी मसलन आपको ही ले लें..... आपके बारे में जानकारी पाकर सचमुच खुशी होगी मुझे।“ रजत हॅंस रहा था।

क्रोध से आकांक्षा के कान तक जल उठे थे-”अपने प्रति आपकी उत्सुकता जानकर मैं खुश हो जाऊॅंगी- ऐसी मूर्ख नहीं हूँ। बहुत देखे हैं आप जैसे। मुझे आपसे कुछ लेना-देना नहीं है, समझे!“

लाइब्रेरी छोड़ आकांक्षा बाहर चली गयी थी। स्पष्टतः लाइब्रेरियन का सुपुत्र रजत की मदद करता था। आकांक्षा ने काँलेज लाइब्रेरी जाना छोड़ दिया था। जिस पुस्तक की जरूरत होती वो यूनीवर्सिटी लाइब्र्रेरी से ले आती। यूनीवर्सिटी में पिता के मित्र फिजिक्स डिपार्टमेंट में ही प्रोफेसर थे।

देर रात तक यूनीवर्सिटी लाइब्रेरी में बैठी आकांक्षा नोट्स उतारती रहती थी। घर में उसे न जाने क्यों कुछ उद्विग्नता-सी बनी रहती थी।

उस विचित्र से भाई का अस्तित्व आकांक्षा को घर में सामान्य नहीं रहने देता था। एक दिन काफी देर से घर लौटते समय रजत ने राह रोक क्षमा याचना की थी - ”मुझे क्षमा नहीं कर सकोगी आकांक्षा?“

”किस बात की क्षमा माँग रहे है?“

”मेरे कारण इतनी दूर इस लाइब्रेरी में जो आना पड़ता है...... सच मैं स्वंय को बहुत अपराधी पाता हूँ, आकांक्षा।“

”आप व्यर्थ ही अपराध-बोध पाल रहे हैं रजत जी। यहाँ अधिक पुस्तकों की सुविधा है, इसीलिए यहाँ आता हूँ...........।“ रजत की क्षमा-याचना आकांक्षा को पिघला गयी थी। चाह कर भी वह उससे नाराज नहीं रह सकी थी। उस दिन के बाद से दोनों की प्रतिद्वंद्विता मित्रता में बदल गयी थी। किसी पुस्तक में कुछ नया पाने पर दोनों उसे बाँट लेते थे। क्लास के बाद साथ ही लाइब्रेरी जाते और घर लौटते थे। बी एस सी फाइनल का परीक्षाफल आ गया था। आकांक्षा ने दो अंक अधिक प्राप्त कर प्रथम स्थान पाया था और रजत द्वितीय स्थान पर रहा था।

”कांग्रेच्युलेशन्स, आकांक्षा।“

”नहीं रजत, तुम्हें फस्र्ट आना चाहिए था........“

”कम आँन माई डियर......... यू डिजर्व दिस। मैं तुम्हारी प्रसन्नता से बहुत ही प्रसन्न हूँ। एम एस सी ज्वाइन कर रही हो न?“

”सोचती हूँ केमेस्ट्री ज्वाइन कर लुँ...... एप्लीकेशन भेज रही हूँ।“

”फिजिक्स में टाँप करके दूसरा विषय चुनोगी आकांक्षा? यहाँ तुम एम एस सी में भी टाँप करके यू जी सी स्काँलरशिप पा लोगी या विदेश जा सकती हो।“

”फिजिक्स में तुम ही टाँप करो रजत..... मुझे केमिस्ट्री में द्वितीय स्थान मिला है, चाहती हूँ वहाँ प्रथम आने का प्रयास करूँ।“

”तो यूँ कहो, मुझ पर दया कर रही हो, मेरी भी एक बात सुन लो आकांक्षा, मैं किसी की दया का मोहताज नहीं........... रही बात टाँप करने की तो क्या जरूरी है प्रथम स्थान हम दोनों में से ही किसी को मिले? कोई तीसरा भी तो हो सकता है न? अगर तुम मेरी प्रतिद्वंद्वी न रही तो प्रथम आने की प्रेरणा कहाँ से पा सकूगा?“

अन्ततः दोनों ने फिजिक्स में ही एम एस सी किया था। उस बार फाइनल परीक्षा में रजत को स्वर्ण पदक मिला था। बधाई देती आकांक्षा से रजत ने कहा था- ”कहीं जानकर तो तुमने मेरे लिए ये स्वर्ण पदक नहीं छोड़ दिया आकांक्षा?“

”उतनी उदार नहीं हॅूं रजत, मैंने कम श्रम तो नहीं किया था पर विजयश्री तुम्हें मिल, आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ, रजत...........“

”हमारी प्रसन्नता अलग-अलग तो नहीं, हम दोनों जीवन की हर चीज साथ ही शेयर करगे आकांक्षा।“ रजत कुछ भावुक हो चला था।

रजत प्रशासनिक सेवा की तैयारी में जुट गया था और आकांक्षा ने शोध-कार्य प्रारम्भ किया था, किन्तु संध्या का समय दोनों का साथ बीतता था।

”आई एस बनकर सबसे पहला काम क्या करोगे रजत?“

”तुमसे विवाह करूँगा आकांक्षा।“ रजत हॅंस दिया था।

”मेरी स्वीकृति लिए बिना ये निर्णय? तुम्हें अपने पर बहुत विश्वास है रजत?“

”अपने पर नहीं तुम्हारे निर्णय पर विश्वास है आकांक्षा। ठीक पहचाना है न?“ रजत शरारती हॅंसी हॅंस दिया था। आकांक्षा ने सिर झुका दिया था।

प्रशासनिक परीक्षा के परिणाम पर दृष्टि डालती आकांक्षा हर्ष-विभोर हो उठी थी। रजत का नाम प्रथम दस सफल प्रत्याशियों में चमक रहा था।

चार दिन बाद भोपाल से रजत के माता-पिता उससे मिलने आ पहुँचे थे। अपने पुत्र के लिए माँ से उन्होंने आकांक्षा को माँगा था। प्रसन्नता से माँ का थका मुख चमक उठा था।

”आकांक्षा के पिता नहीं हैं, अन्यथा रजत-सा दामाद पर कितने खुश होते।“ माँ की आँखें छलछला आयी थीं।

”भगवान की इच्छा के आगे किसी का वश नहीं चलता, अब तो इन बच्चों की प्रसन्नता में ही हमारी प्रसन्नता है।“ रजत की माँ ने सांत्वना दी थी।

”आप विवाह कब करना चाहेगी?“ माँ ने संयत हो पूछा था।

”आपके कोई बड़े-बुजुर्ग होंगे, उनकी राय ले लीजिए-जितनी जल्दी सम्भव हो........... हमें कोई असुविधा नहीं होगी।“

अचानक पास वाले कमरे से अजीब-सी गों.........गों.... की आवाज आयी थी। रजत के माता-पिता चैंक उठे थे। माँ तनिक असहज हो उठी थीं- ”मेरा बेटा है, जन्म से अभागा है.......“ बीच में माँ रूक गयी थीं।

”क्या हुआ आपके पुत्र को? रजत के पिता शंकित दिखे थे।

”“अभागे को भगवान ने जन्म से आँख-कान नहीं दिये हैं........ “

”ओह माई गाँड...... उसकी केयर कौन लेता है? में आई हैव ए लुक आँफ हिम?“ रजत के पिता अस्थिर से थे।

और उस मानवाकृति को देख रजत के माता-पिता के चेहरों पर वितृष्णा आ गयी थी।

”आपको तो इसके लिए पूरा समय देना होता होगा मिसेज कुमार? आपकी फेमिली में कोई और ऐसा है जो इसका दायित्व ले सके?“

इस कटु प्रश्न के उत्तर में सहजता से माँ ने कह दिया था- ”जब तक मैं हूँ, किसी अन्य की आवश्यकता नहीं, मेरे बाद इसकी बड़ी बहिन है......... उसे ही निर्णय लेना होगा।“

”ठीक है, हम आपको भोपाल जाकर पत्र लिखेंगे।“

भोपाल से रजत का पत्र आया था - अपने जीवन से जुड़ा इतना बड़ा सत्य तुमने मुझसे छिपाये रखा ... क्यों आकांक्षा? काश ये सत्य तुमने पहले ही बता दिया होता। माँ-पापा इस बात को गले से नीचे नहीं उतार पा रहे हैं कि तुमने मुझे सब कुछ जानते-समझते अंधकार में रखा। उनकी भावनाएँ भी समझने की कोशिश करना आकांक्षा अन्ततः वे मेरे जन्मदाता है। वे कैसे इस बात पर विश्वास करें कि जिस प्रेम-विवाह का आधार ही झूठ पर टिका है, वह चिरस्थायी हो सकेगा? मैं विवश हूँ...... काश हम कभी न मिले होते.....
---रजत


पत्र की एक-एक पंक्ति मानो आकांक्षा को उलाहना दे रही थी....... झूठी है वह, अपने स्वार्थ के लिए उसने धोखा दिया......... उस रजत को, जिसके प्रथम स्थान के लिए उसने अपना प्रिय विषय फिजिक्स तक छोड़ने का निर्णय ले लिया था। आज उसी रजत ने उसे स्वार्थी ठहराया था। सिर धुनकर रोने की इच्छा मन में दबाये, घर में घुसती आकांक्षा को भाई की गों-गों सुनाई पड़ी थी। उस आवाज को सुनते ही आकांक्षा क्रोध में पागल-सी हो उठी थी। माँ बाथरूम में थी। खुले नल की तेज आवाज से भाई की विकृत कंठ-ध्वनि दब गयी थी। क्रोधावेश में जोर लगाकर भाई के शरीर को बलपूर्वक खींचकर, आकांक्षा ने धरती पर पटक-सा दिया था। औंधे मॅंुह धरती पर गिरे भाई की कंठ-ध्वनि अचानक मौन हो गयी थी। आकांक्षा का उस ओर ध्यान भ नहीं गया था। उसी आवेश में द्वार खुला छोड़ आकांक्षा बाहर चली गयी थी। कहीं किसी एकान्त की खोज में, लाइब्ररी के एक कोने में बैठ, आकांक्षा रो पड़ी थी। घंटो बाद पुस्तकालय के उस एकान्त कोने में बैठी आकांक्षा को पड़ोस के लड़के ने खोजकर खबर दी थी-”जल्दी घर चलिए दीदी -आपके भाई नहीं रहे..... वे पलंग से नीचे गिर गये थे, डाँक्टर कहते हैं नीचे गिरने से उनकी गर्दन की हड्डी टूट गयी थी........“

”क्या.........? आकांक्षा स्तब्ध रह गयी थी।“

स्वप्नवत् आकांक्षा घर पहुँची थी। माँ का रो-रो के बुरा हाल था। पड़ोस की स्त्रियों ने आकांक्षा के जर्द पड़े चेहरे पर दया की दृष्टि डाल रोना शुरू किया था- ”हाय बिटिया......तेरा भइया चला गया रे....“

आकांक्षा मानो इस संसार में ही नहीं थी- अनजाने में वह क्या कर बैठी? कई दिनों तक निःशब्द पड़ी आकांक्षा को माँ ने समझाना चाहा था- ”ऐसे मन छोटा करने से कैसे चलेगा कांक्षी? बेटी, हमारे भाग्य में उसका इतने ही दिनों का साथ था।“

”माँ...... आँ.....“ माँ के आँचल में मॅुंह छिपा आकांक्षा सिसक-सिसक के रो पड़ी थी।

”ना बेटी ना.... उसके हित में तो जाना ही ठीक था। तू क्यों रोती है- अभी तेरी माँ जीवित है बेटी.........“ आँचल से उसके आँसू पोंछती माँ भी रो पड़ी थीं।

”माँ मैंने ही उसे मार दिया.........“

”छिः, क्या कहती है कांक्षी....... वो इस तरह जरा-सी देर में पलंग के नीचे आ गिरेगा और झटके से गर्दन टूट जायेगी, कौन जानता था बेटी। जरा नहाने ही तो घुसी थी- हाँ, शायद तू घर का द्वार खुला ही छोड़ गयी थी कांक्षी?“

माँ से लाइब्रेरी जाने की बात कहकर ही तो आकांक्षा घर से जरा दूर पहुँची थी कि पोस्टमैन ने वह पत्र उसे थमाया था। लाइब्रेरी जाने का साहस कहाँ रह गया था। वापिस घर पहुँच उसने अपनी चाभी से ही तो द्वार खोला था। द्वार भेड़ते ही लाँक हो जाया करता था। माँ-बेटी दोनों ही पर्स में द्वार की चाभी अवश्य रखती थीं। काश, उस दिन वह चाभी पर्स में न मिलती पर..........

कई बार आकांक्षा ने चाहा था, माँ को उस सत्य से परिचित करा दे किन्तु साहस ने कभी साथ नहीं दिया। अपने पुत्र की हत्यारिन को क्या माँ क्षमा कर, अपना स्नेह दे सकेंगी?

उस घटना के बाद से कितनी रातें उसने जाग कर बिताई थीं, कितनी बार सोते-सोते वह अचानक चिल्ला कर जाग उठती। माँ उन बातों को उसके दिल पर लगा सदमा ही मानती रहीं। अपने आपसे उसे डर लगने लगा था न जाने कब, कहाँ वह सत्य उसके मुख से न निकल जाए? भाई की मृत्यु ने उसे सामान्य नहीं रहने दिया था।

माँ ने रजत के विषय में पूछना चाहा था- ”यहाँ से जाकर उन्होंने कोई पत्र नहीं डाला..... तू रजत को लिखकर पूछती क्यों नहीं कांक्षी?“

”क्या पूछॅंू माँ..... तुम्हें अकेला कैसे छोड़ सकुँगी मैं?“

”अरे पगली, मेरी किस्मत में जो है झेल लुँगी, तू क्यों मेरे लिए अपना जीवन नष्ट करेगी। रजत अच्छा लड़का है। तेरा विवाह कर मैं किसी आश्रम में जा बसॅंूगी।“

”नहीं माँ...... मेरी शादी की बात कभी मत करना। इस जीवन में वह सम्भव नहीं।“

”तेरे और रजत के बीच कोई बात हुई है बेटी?“

”यही समझ लो..........“

”मुझे नहीं बतायेगी बेटी?“

”नहीं माँ...... वो बात नितान्त मेरी अपनी है।“ जन्मदात्री माँ को कैसे बताती, उसके स्वर्गवासी पुत्र के कारण ही बेटी का जीवन नष्ट हो गया था।

कितनी बार उसने रजत को अपने घर-परिवार के बारे में बताना चाहा था, पर हमेशा उसने यही कहकर टाल दिया था- ”तुम मेरी आकांक्षा हो, तुमसे जुड़े, जो तुम्हारे अपने हैं, वे भी मेरे हैं।“ वही रजत उसे धोखेबाज की संज्ञा दे, त्याग गया था।

आकांक्षा अपने से डरने लगी थी। रात में माँ को शान्ति से सोते देख आकांक्षा उद्विग्न हो उठती। अगर माँ को सच्चाई पता चल जाये, तब भी क्या वह उसे प्यार से यूँ चिपटा निद्र्वन्द्व सो सकेगी?

भाई की जिस गों......गों ........... की आवाज से हव घृणा करती आयी थी। रात के गहन सन्नाटे में अब वह निरन्तर वही सुनती रहती थी।

न जाने अन्त में उसे कितना कष्ट हुआ होगा? कभी-कभी अपने को दंडित करने के लिए आकांक्षा, गर्मियों की तिलमिलाती धूप में यूनीवर्सिटी से घर तक पैदल आती, बदहवास हो उठती थी। अपराध-बोध उस पर कभी इस हद तक हावी हो उठता कि माँ शंकित हो उठती।

”तुझे क्या हो गया है कांक्षी, खाने-पीने की सुध भी नहीं रहती..... क्या सोचती रहती है मेरी बच्ची?“

”माँ...... भाई के बिना तेरा सब कुछ खत्म हो गया न?“ उदास आकांक्षा माँ के निष्प्रभ मुख पर दृष्टि जमा देती थी।

”सच कहूँ कांक्षी....... उसके हक में तो चला जाना ही ठीक था...... पर माँ हूँ न, लेकिन तूने ये कैसी बात कह दी बिटिया ...... मेरा सब कुछ अब तू है कांक्षी। भगवान तुझे सुखी रखें।“

विभाग में कार्य करती आकांक्षा अचानक गलतियाँ कर जाती। विभागाध्यक्ष विस्मित होते उस प्रतिभाशाली लड़की से ऐसी त्रुटि?

”कहाँ खो गयी हो आकांक्षा?“

”साँरी सर।“ आकांक्षा जैसे अचानक जाग उठती।

”क्या बात है, माँ तो ठीक हैं न?“

”जी सर...........“

”ऐसा लगता है, तुम अपना आत्मविश्वास खो रही हो- क्यों आकांक्षा?“

”पता नहीं क्यों सर मुझे हमेशा डर लगता है...........“

”किस बात का डर आकांक्षा ...............“

आकांक्षा मौन रह गयी थी।

घर में माँ से आकांक्षा कभी बचकाने प्रश्न पूछ बैठती- ”माँ अगर कोई पाप करे तो क्या उसे सचमुच नर्क में दंड मिलता है?“

”हाँ बेटी...... मैं भी तो नर्क भोग रही हूँ, न जाने क्या गलती की थी...........“

”पर माँ तूने तो कोई गलती नहीं की...... दंड तो मुझे मिलना चाहिए।“

”छिः मेरी बच्ची, भगवान तुझ पर दयालु रहे। दुखों का साया भी तुझ पर न पड़े।“ माँ भयभीत हो उठती।

उस दिन पास के घर में पुलिस आयी थी।

”देख तो कांक्षी गिरजा ताई के यहाँ पुलिस क्यों आयी है?“

”मैं नहीं जाऊॅंगी माँ.....“

”अरे वो तेरी बूढ़ी ताई हैं। परेशानी में हमें उनका साथ देना चाहिए न। चल मेरे साथ।“

माँ आकांक्षा का हाथ पकड़ गिरजा ताई के घर ले गयी थीं। गिरजा ताई का हृदय-दावक रूदन सुन आकांक्षा सिहर गयी थी। पड़ोसियों ने सूचित किया था- ”बेचारी की एकमात्र बेटी जल कर मर गयी।“

”अरे जल कर नहीं जलाकर मार दी गयी है।“ दूसरा पड़ोसी फुस-फुसाया था।

”हाय मेरी बेटी......रे....... कहाँ से पाऊॅंगी मैं अपनी लाड़ली ........रे ........“

गिरजा ताई को सम्हाल पाना कठिन था। आकांक्षा सामान्य न हो सकी थी।

दो दिन बाद पुलिस इंस्पेक्टर माँ के पास भी आया था। द्वार खोलती आकांक्षा इंस्पेक्टर को देख एकदम पीली पड़ गयी थी। झटके से द्वार बन्द कर वापिस भाग, उसने कमरा बन्द कर लिया था।

इंस्पेक्टर द्वारा पुनः द्वार खटखटाने पर माँ ने द्वार खोला था।

”ये क्या आकांक्षा ...... इंस्पेक्टर देख तू इस कदर डर क्यों गयी थी? क्या सोचा होगा उसने?“ माँ स्पष्टतः रूष्ट थीं।

”मुझे डर लगता है माँ.....................“

”किस बात का डर? तू मुझसे कुछ छिपाती है कांक्षी। कहीं रजत के साथ कुछ गलती तो नहीं कर दी?“ माँ चिन्तित हो उठतीं। कहीं अनजाने में लड़की से कोई अपराध तो नहीं हो गया।

पिता के मित्र विभागाध्यक्ष ने भी आकांक्षा की माँ से उसके प्रति चिन्ता व्यक्त की थी- ”न जाने क्यों आकांक्षा सामान्य नहीं लगती। घर में सब ठीक तो है न?“

”जी हाँ, शायद भाई की मृत्यु और रजत से अलगाव इसकी वजह हो।“

”सोचता हूँ स्थान-परिवर्तन आकांक्षा के लिए अच्छा रहेगा।“

”विवाह के लिए तो वह तैयार ही नहीं होतीकृकहाँ भेजॅंू उसे? आप तो पूरी स्थिति जानते ही हैं।“ माँ के नयन भर आये थे।

”आप परेशान न हों, मैं पूरी कोशिश करूँगा.....“ विभागाध्यक्ष ने माँ को आश्वासन दिया था।

कुछ ही दिनों बाद विभागाध्यक्ष ने अचानक आकांक्षा को बुलाकर कहा था- ”तुम्हारा रिसर्च-वर्क कैसा चल रहा है आकांक्षा?“

”दो एक्सपेरिमेंट्स के रिजल्ट्स ठीक नहीं आये हैं सर।“

”मुझे लगता है किसी वजह से तुम काम में पूरी तरह इन्वाँल्व नहीं हो पा रही हो?“

”मैं पूूरी कोशिश करूँगी सर, आपको शिकायत का मौका न दें..............“

”संयुक्त राज्य की दो छात्रवृत्तियाँ आयी हैं, अगर तुम इंटरेस्टेड हो तो मैं तुम्हे नाँमिनेट कर सकता हूँ।“

”माँ से पूछ कर बताऊॅंगी सर।“

माँ ने सहर्ष स्वीकृति दे दी थी।

”नयी जगह जाकर तू इस हादसे को भुला सकेगी कांक्षी। तू चली जा।“

”पर तुम अकेली पड़ जाओगी माँ?“ आकांक्षा चिन्तित थी।

”मेरी चिन्ता छोड़। अपने घर में तेरी दीपा मौसी को रख लुँगी। दोनों अकेली जान आराम से रह लेंगी।“ दीपा सान्याल माँ की घनिष्ठ मित्र और उसकी मॅंुहबोली मौसी थीं।

आकांक्षा को सितम्बर के अन्त तक न्यूयार्क पहुँच जाना था। दीपा मौसी ने ही अपनी बहिन के लड़के अक्षत को पत्र लिखा था कि वह एयरपोर्ट पर उसे रिसीव कर ले।

कैनेडी एयरपोर्ट पर उतरी आकांक्षा घबरा-सी गयी थी। इस भीड़ में उस अपरिचित को कैसे पहिचानेगी। कस्टम आदि से निबट, बाहर आती आकांक्षा की दृष्टि सामने खड़े युवक के हाथ में कड़े गये प्लेकार्ड पर पड़ी थी। बड़े स्पष्ट अक्षरों में उसका नाम उभर आया था- ”आकांक्षा“।

उसके निकट जा धीमे से आकांक्षा ने कहा था- ”आकांक्षा“।

”थैंक्स गाँड, आप सचमुच किसी की भी आकांक्षा हो सकती हैं। मैं अक्षत....... दीपा मौसी का लाड़ला भानजा। आइये!“

शालीनता से पीछे हट उसने आकांक्षा के लिए राह दी थी।

बाहर खड़ी अनगिनत कारों की संख्या देख आकांक्षा विस्मित हो उठी थी। कार की चाबी से द्वार खोल, अक्षत ने आकांक्षा को बैठने के लिए आमंत्रित किया था। कार तीव्र गति से भाग चली थी। साथ भाग रहे दृश्यों को देख आकांक्षा मुग्ध हो उठी थी। पूरे रास्ते अक्षत रनिंग केमेंट्री देता गया था। एक रेस्ट्रांँ के सामने कार रोक अक्षत ने कहा था- ”आइए कोल्ड डिंªक ले लें - फिर आपको होस्टेल पहॅुंचा दूँगा।“

”नहीं-नहीं, पहले होस्टेल ही जाना चाहूँगी। अभी प्लेन में इतना सब दिया गया कि कुछ और ल पाने की गुजाइश भी नहीं है।“

”श्योर? कोल्ड ड्रिंक भी नही चलेगा?“

”न................“

”ऐज यू विश ...............“ अक्षत ने कार उसके होस्टेल के सामने ही लाकर रोकी थी। सामान उठाते अक्षत को देख वह झिझक गयी थी।

”आप रहने दें, मैं ले जाऊॅंगी।“

”आप लकी हैं मिस, जो बोझा उठाने ये गुलाम हाजिर है, वर्ना यहांँ अपने काम के लिए अपने दो हाथें पर ही निर्भर रहना होता है। कुछ दिनों में जान जाएँगी यहाँ महिलाओं को पुरूषों से विशेष मद्द नहीं मितली है, मिस आकांक्षा।“

”थैंक्यू- आप मुझे सिर्फ आकांक्षा ही पुकारें अक्षत जी।“

”फिर मैं क्यों अक्षत जी कहलाऊॅं? अच्छा-भला-सा नाम है- अक्षत -चाहकर भी मेरा नुकसान नहीं कर सकेंगी आकांक्षा।“ दोनों हॅंस पड़े थे।

अक्षत के वहाँ रहने से सब कुछ कितना आसान हो गया था। डिपार्टमेंट में पहॅंचाकर अक्षत ने ही समझाया था। अमेरिकन भोजन उसे अप्रिय लगा तो अक्षत ने समझाया था- ”एक पार्टनर के साथ अपार्टमेंट लेना ठीक रहेगा, वहाँ अपने मन का खाना भी बना सकती हो और होस्टेल के मुकाबले अपार्टमेंट सस्ता भी पडे़गा।“

अक्षत के प्रयासों से ही पिछले छह माह से आकांक्षा एक दक्षिण भारतीय लड़की के साथ अपार्टमेंट शेयर कर रही थी। अक्षत पर आकांक्षा कितना निर्भर करने लगी थी। एक दिन अक्षत हॅंस पड़ा था- ”कभी तुम्हारे साथ रहते लगता है, विवाह के पहले ही उत्तरदायी पति बन गया हूँ।“

”छिः ...ठीक है...... अब कभी कोई काम करने को नहीं कहूँगी।“ आकांक्षा रूष्ट हो गयी थी।

”फिर तो मुश्किल है, अपनी आदत ही हुक्म बजा लाने की पड़ गयी है। तुम अगर आर्डर नहीं दोगी तो बेमौत मर जाऊॅंगा।“

आकांक्षा उसकी नाटकीय मुद्रा पर हॅंस पड़ी थी। जो भी हो, अक्षत के कारण भारत में रह रही माँ को आकांक्षा को भी चिन्तामुक्त कर गया था। इस शांतिपूर्ण जीवन में आज अचानक ये उद्वेलन क्यों?

काँल-बेल बज रही थी। मुश्किल से उठकर आकांक्षा ने द्वार खोला तो अक्षत को व्यग्र खड़ा पाया।

”कैसी हो आकांक्षा? मैं काम में काँन्संट्रेट नहीं कर पा रहा था, इसीलिए चला आया।“

”ठीक हूँ अक्षत-थैंक्स।“

”पर तुम्हारा चेहरा तो दूसरी ही कहानी कह रहा है। मुझसे सच नहीं बताओगी आकांक्षा? यहाँ हम एक-दूसरे के सहारे ही तो रहते हैं, तुम्हारा कष्ट जाने बिना, दूर कैसे कर सकता हॅँू।“

अक्षत की वाणी में न जाने क्या था ......... आकांक्षा अपने हाथों में मॅंुह छिपा रो पड़ी थी। प्यार से आकांक्षा का सिर वक्ष से सटा, उसके केश सहलाता अक्षत मौन खड़ा रह गया था। रोते हुए आकांक्षा ने उस कटु सत्य की कहानी टूटे-फूटे शब्दों में सुना डाली थी। आज अक्षत के साथ जार में रखे उस नमूने ने उसे सब याद दिला दिया था।

”मैं हत्यारिन हूँं......... अपराधिनी हूँ.....अक्षत......... मैं क्या करूँ?“

वो कहानी सुन अक्षत स्तब्ध रह गया था। बहुत देर निर्वाक बैठे अक्षत को ताक, आकांक्षा ने कहा था- ”मुझे पुलिस में दे दो अक्षत ...... मैंने उसकी हत्या की है..........“

”तुम्हें दंड दिलाकर, तुम्हारी माँ को क्यों दंडित करूँ? आकांक्षा“

आकांक्षा की प्रश्नभरी दृष्टि के उत्तर में अक्षत ने कहा था- ”उत्तेजना में भाई को धक्का देते समय तुम सामान्य नहीं थी। क्रोधावेश में व्यक्ति पागल हो जाता है। सच कहो, क्या तुमने सोचा था तुम उसकी हत्या कर रही थीं?“

आकांक्षा ने नकारात्मक सिर हिलाया था- ”वो एक दुर्घटना थी आकांक्षा, भाई-बहिन लड़ते समय एक-दूसरे को धक्का देते हैं - शायद यह भी वैसी ही एक घटना थी, पर इसका अन्त त्रासदीपूर्ण था।“

आकांक्षा को मौन पा, अक्षत ने आगे कहा था- ”यही सच है आकांक्षा ....... मैं यह नहीं कहता तुमने गलती नहीं की, एक असहाय के प्रति तुम्हारा क्रर व्यवहार गलत था। पर इस गलती का दंड तुम्हारा भयंकर अन्तर्दाह रहा है। क्या इतने दिनों तुम कभी शांति की नींद सो सकीं?“

”नहीं अक्षत, हमेशा मेरा अपराध-बोध मुझे झकझोरता रहा.........“

”शायद इसीलिए कई बार मेरे साथ भी तुम अचानक असहज हो जाती थीं.............“

”तुम जब भी मानव-विकृति की बात करते थे अक्षत, मेरा अतीत मुझे अपराधी ठहरा, मुझे असहज बना जाता था। कई दिनों के लिए मैं असामान्य हो जाती थी अक्षत..............“

”कई बार मैंने सोचा क्यों तुम्हें उन बातों से इस कदर वितृष्णा थी? विकलांगता घृणा की वस्तु नहीं है आकांक्षा।“

”सच कहूँ अक्षत, यहाँ आकर विकलांगता के प्रति मेरा जीवन-दर्शन ही बदल गया है। इस देश में वे कितने सहज, आत्मविश्वास से परिपूर्ण जीवन जीते हैं। प्रत्येक व्यक्ति उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण है। हर जगह उनकी सुविधा का ध्यान रखा जाता है............“

”अगर आज तुम्हारा भाई जीवित होता तो आकांक्षा?“

”मैं उसे अपना दायित्व स्वीकार कर, माँ को सनतोष देती अक्षत............“

”अब क्या करोगी आकांक्षा?“

”अपनी भूल का परिष्कार करना चाहूँगी अक्षत। मैं भारत लौट रही हूँ।“

”क्यों?“

”उनकी सहायता में जीवन अर्पित करना चाहॅूंगी अक्षत, जिन्हें सहारे की आवश्यकता है।“

”मैं भी तुम्हारे साथ का प्रत्याशी हूँं आकांक्षा?“

”तुम समर्थ हो अक्षत, मेरे गुरू हो......... तुम विकृति को सुकृति में बदल सकोगे, मुझे विश्वास है।“

”गुरू-दक्षिणा दोगी आकांक्षा?“

”तुम माँग कर तो देखो अक्षत, मेरा सब कुछ तुम्हारा है।“

”ठीक है, यहाँ की पढ़ाई पूरी करके हम दोनों साथ भारत वापिस लौटेंगे। वहाँ तुम अपने निर्णय को साकार कर सकोगी आकांक्षा।“

”तुम मेरे साथ चलोगे, ये सब जानकर तुम मुझसे घृणा नहीं करते अक्षत?“

”स्वंय गलती स्वीकार करने के बाद, अपराधी से घृणा करना पाप है आकांक्षा, तुमने जो सत्य किसी के सामने नहीं स्वीकारा, वो मेरे समक्ष क्यों स्वीकार किया, बता सकती हो आकांक्षा?“

निरूत्तरित आकांक्षा के मुख पर आयी लट को प्यार से सॅंवारते अक्षत ने कहा था- ”क्योंकि तुम मुझसे बेहद प्यार करती हो, मुझ पर अगाध विश्वास रखती हो। ठीक कहा न?“

”.......... शायद......“ आकांक्षा को उत्तर नहीं सुझ रहा था।

”अपने अन्तर के बन्दी अपराधी को मुक्त करने का समय आ गया है। आकांक्षा, चलो कहीं बाहर चलते हैं, मन शांत हो जाएगा।“

”अब कहीं बाहर जाकर मन की शांति खोजने की जरूरत नहीं रही अक्षत। तुमने मेरे अन्तर की वेदना समझी है। आशीर्वाद दो, मेरी यही अन्र्वेदना मेरे भाई जैसे असहायों को अपनी स्नेह-धार से आप्लावित कर सके। तुम मेरे गुरू हो अक्षत.............“

अक्षत की चरण-धूलि लेने को झुकती आकांक्षा को अक्षत ने उठाकर अपने हृदय से लगा लिया।

चम्पा का कर्ज

पेड़ की ऊंची डाल से चिपकी चम्पा नीचे का कोलाहल देख-सुन भय से काँप रही थी। पीठ पर बॅंधा पप्पू न जाने कब शोर से जाग जाये। लालटेन लिये सेठ के आदमी उसकी खोज कर रहे थे।


”यहां भी नहीं है, क्या जमीन लील की?“ हरखू कह रहा था।

”उधर मैदान का चप्पा-चप्पा छान मारा, कहाँ गयी।“ रामलाल झुँझला उठा था।

”भागने को यही सर्दी का मौसम मिला था स्साली को? ठंड से हाथ-पाँव सुन्न हो गये।“ केहरसिंह के क्रोधित स्वर पर चम्पा को कॅंपकॅंपी आ गयी थी।

”मेरी मानो, वहीं कहीं खेत में छिपी बैठी होगी। बच्चे के साथ इतनी दूर भाग कर आना आसान बात नहीं है।“ हरखू थक-सा गया था।

”ना मिलने पर सेठ हमारी खाल उधेड़ देगा। पूरा जल्लाद है साल्ला।“ रामलाल ने घृणा से जमीन पर पिच्च से थूक दिया था।

तीनों वापिस लौट चले थे। उस सर्दी में भी चम्पा के माथे पर पसीना चुहचुहा आया था। तीनों के दूर चले जाने का आभास पा, चम्पा ने पेड़ से नीचे अतरना शुरू किया था। चढ़ते समय उसे पता भी न लगा, उतनी ऊूंचाई पर वह कैसे पहुँच गयी थी। उस समय तो पीछे से आती आवाजें ओर पग-चापों से बच पाने का यही एक तरीका सूझ पड़ा था।

पाँव तले धरती का ठोस स्पर्श होते ही चम्पा के सामने सच उजागर हो आया था। खाली हाथ तीनों के वापिस पहुँचने को क्या सेठ आसानी से स्वीकार कर सकगा? तुरन्त और दस आदमी दौड़ाए जाएँ, उससे पहले चम्पा को स्टेशन पहुँच जाना है।

पीठ पर चिपके पप्पू को धोती से और कस के बाँध चम्पा दौड़ पड़ी थी। स्टेशन तक की दूरी तय करती चम्पा हाँफ उठी थी। सामने आती रोशनी देख स्टेशन पहुँचने का भान हो आया था। जन शून्य स्टेशन देख, चम्पा आश्वस्त -सी हो उठी थी। गले के नीचे नल का ठंडा पानी उतरते ही चम्पा फिर डर से काँप उठी थीं तभी लाइन-मैन ने घंटी बजा गाड़ी आने की सूचना दी थी। गाड़ी रूकते ही सामने आये डिब्बे में चम्पा चढ़ गयी थी। भगवान की किरपा कम्पार्टमेंट का दरवाजा खोल तभी कोई नीचे उतरा था। बदहवास चम्पा सिर तक आँचल खींच, गठरी-सी बन, खुले अपार्टमेंट में नीचे ही बैठ गयी थी। साँस घौंकनी-सी चल रही थी। बहते आँसू पोंछने की भी उसे सुध नहीं रह गयी थी।

”वहाँ नीचे क्यों बैठी हो, आओ यहाँ बैठ जाओ।“

उस मिश्री से बोल पर चम्पा ने सिर उठा ताका था। सामने की बर्थ पर बैठी स्त्री उसे स्नेह से निहार रही थी।

चम्पा के अचकचाए मुँह को देख उसने फिर साहस दिया था- ”क्या बात है? क्या घर से झगड़ा करके आयी हो?“

चम्पा बस ‘न’ में सिर भर हिला सकी थी। स्त्री के साथ वाला नीचे उतरा पुरूष भीतर आ गया था।

”क्या गजब की सर्दी पड़ रही है। हाथ-पाँव सुन्न होने लग रहे हैं। सोचा था शायद गर्म चाय का एक कप मिल जाये पर यहाँ तो जैसे कोई रहता ही नहीं।“

”स्टेशन पर कितना सन्नाटा है अरविन्द। क्या रात में कोई सफर ही नहीं करता।“ स्त्री ने पुरूष से प्रश्न किया था।

”आजकल छोटे गाँव के स्टेशनों पर सुबह भीड़ होती है- काम के लिए शहर जाना होता है। रात में तो हम जैसे परदेसी ही सफर की हिम्मत रखते हैं।“

”सच क्या से क्या हो गया। अपने ही घर में हम इतना डरते हैं।“

”हू इज दिस वुमन? कहाँ जा रही हो बहिन?“ अरविन्द ने चम्पा की ओर देख पूछा था।

चम्पा अपने आप में और सिमट गयी थी।

”डरो नहीं, हमें सब बता दो, हम तुम्हारी मदद करेंगे। आओ यहाँ मेरे पास बैठ जाओ। फर्श ठंडा होगा।“ चम्पा को एक तरह जबरन ही पूर्णिमा उठा सकी थी।

पीठ पर बॅंधा पप्पू कुलमुला उठा था। रोते बच्चे को पीठ से खोल चम्पा ने गोद में ले लिया था। बच्चा रोता ही जा रहा था।

”हे भगवान, इस सर्दी में बच्चे को कोई ऊनी कपड़ा भी नहीं पहनाया? ठंड लग गयी तो?“ बात पूरी करती पूर्णिमा की दृष्टि चम्पा के जर्द पड़े चेहरे पर पड़ी थी। ”अरविन्द वी हैव टू डू सकथिंग। आई थिक शी इज इन टेरिबल ट्रबल।“ (अरविन्द हमें कुछ करना होगा, लगता है यह बहुत मुश्किल में है।)

”अगले स्टेशन पर देखूँगा शायद गर्म चाय मिल सके।“

”इस ट्रेन में फस्र्ट क्लास में चलना ही गलती थी हमारी..........“

चम्पा को एक चादर देती पूर्णिमा ने दिलासा-सा दिया था- ”यह चादर ओढ़ा दो, बहुत सर्दी है। बच्चा ठंडक खा जायेगा।“

”नहीं........ रहने दें।“ बस इतना कहती चम्पा की आँखों से आँसुओं की धार बह चली थी।

”अरे....... रे....ये क्या ...... बच्चे की जान से क्या ये चादर बड़ी है?“ जबरदस्ती चम्पा के चारों ओर पूर्णिमा ने वह मोटा बेडकवर लपेट दिया था।

दूसरे स्टेशन पर गाड़ी रूकते ही अरविन्द उतरने को तत्पर था। इस स्टेशन पर अपेक्षाकृत जीवन के कुछ लक्षण परिलक्षित थे। उतरते अरविन्द के हाथ में पूर्णिमा ने फ्लास्क थमा दिया था।

”देखो अगर दूध मिल जाए तो लेते आना। बच्चा न जाने कब से भूखा है।“ पूर्णिमा के स्वर में मातृत्व छलक आया था।

पूर्णिमा को दो कम चाय पकड़ाते अरविन्द ने सूचित किया था- ”ट्रेन यहाँ पाँच-सात मिनट रूकेगी, देखता हूँ, शायद दूध मिल ही जाये।“

”लो चाय पी लो, तबियत सम्हलेगी। तुम्हारा नाम क्या है?“

”चम्पा..............“

”वाह, बड़ा प्यारा नाम है। कुछ पढ़ी-लिखी हो चम्पा?“

”सात क्लास तक पढ़ी हूँ, दीदी जी...........“

”इस समय कहाँ से आ रही हो?“

चम्पा के चेहरे पर आतंक छा गया था। निरूत्तरित चम्पा को साहस देती पूर्णिमा ने फिर कहा था- ”डरो नहीं चम्पा। मुझे दीदी कहा है, मैं तुम्हारी मदद करूँगी। मेरे रहते तुम्हें कोई परेशान नहीं कर सकता। अपनी पूरी बात मुझे बताओगी चम्पा?“

”क्या बताऊं, दीदी.........? मर जाती तो अच्छा था, पर इस बच्चे का मुँह देख जीना पड़ रहा है।“

”ये लो थोड़ा दूध ले आया हूँ, बच्चे को दे दो।“ पूर्णिमा को फ्लास्क थमाते अरविन्द ने कहा था।

”लो चम्पा, बच्चे को दूध पिला दो।“

”आप कितनी अच्छी हैं दीदी जी, आपका अहसान कैसे चुका।ऊंगी?“

”अहसान कैसा चम्पा? मुसीबत में दूसरों की सहायता करना इन्सान का फ़र्ज होता है।“

पप्पू दूध गटगट पी गया था। दूध पीते ही जैसे वह शक्ति पा गया था। चंचल आँखों से इधर-उधर ताकते पप्पू को पूर्णिमा प्यार से निहार रही थी।

”इसका बाप कहाँ हैं चम्पा? यह गोरा-चिट्टा बेटा तेरा ही न?“ कहीं से उड़ाकर तो नहीं ले आयी?“ स्वर में परिहास खनक उठा था।

”यह मेरा बेटा है दीदी सिर्फ मेरा। इसे मैंने जन्म दिया है बस।“

”इसके बाप से इतनी लड़ाई कर डाली चम्पा कि उसका नाम भी नहीं बतायेगी।“

”पूर्णिमा मैं ऊपर सोने जा रहा हूँ जरा ब्लैंकेट तो देना।“ पूर्णिमा से कम्बल ले अरविन्द ऊपर की बर्थ पर सोने चला गया था। फस्र्ट क्लास के उस कूपे में चम्पा की उपस्थिति से उनकी स्वतन्त्रता में बाधा आ गयी थी, पर आश्चये कि दोनों में से किसी ने भी इस बाधा के कारण रोष प्रकट नहीं किया था।

”अब बता चम्पा, इसके बाप को कहाँ छोड़ आयी है?“

”अगर इस अभागे को बाप का नाम मिल पाता तो हजार दुख सहकर मैं वहाँ रह जाती, दीदी.....“

”क्या मतलब?“

”कैसे बताऊं, दीदी..........“

”मैं भी औरत हूँ, जानती हूँ औरत किस तरह मजबूर की जाती है। मुझसे अपना दुख मत छिपा, चम्पा।“

”लम्बी कहानी है दीदी, पूरे पाँच बरस बीत चुके हैं...........“

”शहर से तीस मील दूर झिंझर गाँव में हमारा घर था। शराबी बाप ने हमारी कभी सुध नहीं ली। माँ किसी तरह लकड़ी-पत्ते बटोर, हाट में बेच हमारा पेट भरती रही। सब से बड़ी मैं और उसके पीछे पाँच भाई-बहिनों की जमात। सब को एक ही बीमारी ....... बहुत भूख लगती थी हम सबको।“

”दस साल की उमर से अम्मा का बोझ उठाने लगी थी। अम्मा के साथ लकड़ियाँ बीनना, घर में चूल्हा जलाना, भाई-बहिनों का पेट भरना, साथ ही पीठ पर कोई न कोई छोटा भाई-बहिन बॅंधा ही रहता। एक दिन नशे में धुत्त बाप के साथ एक जवान औरत आ खड़ी हुई थी, उस समय मेरी उमर तेरह साल रही होगी। बाप ने बीमार माँ को डपट कर आवाज दी थी- ‘ये लक्षमनिया, कहाँ मर गयी, मेहमान को चाह बनाकर ला।’“

”‘कैसी चाह? कहाँ से लाऊं चाह? चार दिनों से बीमार पड़ी हूँ। बच्चों के मुँह में दाना तक नहीं गया। जड़-पत्ते उबाल कर पेट की भट्टी भर रहे हैं। कौन है ये छेल-छबीली?’ मुश्किल से माँ कह सकी थी।“

”‘जवान लड़ाती है स्साल्ली। निक इस घर से, आज से इस घर में यह रहेगी। निकल अपने इन पिल्लों के साथ्...........’“

”बाप ने बीमार माँ को झटके से उठा खड़ा किया था। हम सब रोने-चिल्लाने लगे थे। अपना बाप राच्छस लग रहा था दीदी जी। जी चाहा था, उस औरत का खून पी सकती। क्रोध में माँ ने उस औरत के केश पकड़ने की गलती भी कर डाली। उसके बाद बापू ने हमें वहाँ एक पल भी ठहरने नहीं दिया था। जानवरों-सा खदेड़ दिया था हमें। घर के बाहर बैठना चाहा तो बाप ने माँ को जान से मार डालना चाहा था। भय से हम सब माँ से लिपट गये थे।“

”हमारे बुरे दिनों की कहानी यहीं से शुरू हुई थी दीदी। उस रात पास के घर के बरौठे में बैठ रात काटी थी। गाँव के सभी घरों में वैसी ही हालत थी। -

‘क्यों री लछमनिया, सुना तेरा आदमी दूसरी औरत ले आया है।’“

”माँ ने कपाल पर हाथ मारा था।“

”छिः छिः, अब इन बच्चों का क्या करेगी? सिर के ऊपर छत भी न रही।“

”हमार भाग ही खोटा रहा।“

”भाग्य को दोख देने से पेट तो नहीं भर जायेगा। सिर पर छत तो नहीं पड़ जायेगी। कितने दिन जवान लड़की को ले बाहर पड़ी रहेगी लछमनिया?“

”अब तुम्हीं राह दिखाओ भइया। ये बच्चे तुम्हारे ही हैं, इनकी रच्छाकरो।“

”अब तुमने भाई कहा है तो कुछ-न-कुछ करना ही होगा। ठेकेदार से बात कर देखता हूँ, उन्हें कुछ काम वाली लड़कियाँ शहर ले जानी हैं। तेरी चम्पा के लिए बात कर देखता हूँ। तब तक ये पचास रूपये रख ले, काम आएँगे।“

”तुम देवता हो मोहन भइया पर चम्पा तो अभी बच्ची है। उतनी दूर शहर में अकेली..........?“

”अरे तुम घबराओं नहीं लछमी बहिन। मैं भी तो साथ रहूँगा। फिर चम्पा अब बच्ची नहीं, जवान-समझदार लड़की है। क्यों री चम्पा?“ मोहन की उस दृष्टि ने चम्पा को संकुचित कर दिया था।

”दो निद बाद ही मोहन मिठाई का पैकेट ले आ खड़ा हुआ था।“

”ये ले लछमनिया, बच्चों का मुंह मीठा करा। ठेकेदार मान गया। चम्पा की नौकरी पक्की हो गयी।“

”माँ के साथ भाई-बहिनों के मुंह भी खिल उठे थे। पेट-भर खाना न पाने वालों को मिठाई देखे तो युग बीत चुके थे।“

”पर भइया हमार चम्पा को धियान रखना, बहुत भोली है हमार बिटिया।“

”अरे तू फिकिर न कर लछमनिया, तेरी चम्पा बड़े मजे में रहेगी। फिर तू घबराती काहे हैं, कोई अकेली तो जा नहीं रही है- गाँव से और छोकरियाँ भी तो जा रही है।“

”कितनी पगार मिलेगी भइया।“ माँ का स्वर करूण हो उठा था।

”अरे पगार की चिन्ता काहे करे है लछमनिया। क्यों चम्पा, ठीक कहा न?“

”मोहन की घृष्ट मुस्कान पर चम्पा ने सिर और झुका लिया था।

”जाने के पहले मोहन ने माँ के हाथ पर पचास रूपये और धरे थे। चम्पा को कलेजे से लगा, माँ रो पड़ी थी। छोटा भाई तो उसका आँचल ही नहीं छोड़ रहा था। ट्रक चलते ही रोती चम्पा भाई का नाम ले चीख उठी थी। लगा था, सब कुछ हमेशा के लिए छूटा जा रहा था।“

”मोहन ने चम्पा के गालों पर प्यार से हाथ फिराते दिलासा दिया था झूले में झूलेगी।“ चम्पा के शरीर से सटकर मोहन बैठ गया था। जाने-अनजाने उसके हाथ चम्पा के अंगो का स्पर्श कर जाते थे। कहाँ जाती चम्पा-ट्रक के उस कोने से तिल भर भी आगे बढ़ पाना असम्भव था।

”दो दिन, दो रात ट्रक में बैठे-बैठे बदन अकड़ गया था दीदी। जानवरों की तरह हम हाँके जा रहे थे। आखिर हमारा मुकाम आ पहुँचा था। मोहन चाचा ने गुहार लगाई थी- ‘चलो-चलो, जल्दी नीचे उतरो लड़कियो........ हमें यही रूकना है।’

”एक-दूसरे को ठेलते हम नीचे कूद पड़े थे। चारों ओर सरसों के पीले खेत, सामने मोटी धार से बहता पानी कितना लुभावना लगा था। चाचा ने आवाज दी थी- ‘दस मिनट में हाथ-मुंह धोकर तैयार हो जाना है। सेठ आने वाले हैं। उनको सब हाथ जोड़कर परनाम करना, समझीं!’“

”नये वातावरण, खुली हवा में साँस लेते ही हममें नवजीवन आ गया था। मोहन चाचा एकदम मेरे पास आ बोला था-

‘ऐ चम्पा, तू इधर मेरे साथ आ, उन्हें उधर कुएँ पर जाने दे।’“

”क्यों चाचा? मैं भी उनके साथ जाऊंगी।“

”अरी पगली, उनका और तेरा क्या मुकाबला? तू तो रानी बनने के लिए ही ऐसा रूप और भाग्य लाई है। तू ही बता, तुझ जैसी रूपवती, कद-काठी की कोई दूसरी लड़की है यहाँ? चाचा ने चम्पा के गाल मसल दिये थे।“

”छिः चाचा, हमें ये सब अच्छा नहीं लगता......“ चम्पा रूष्ट हो उठी थी।

”उस बड़े खेत के पीछे उतना बड़ा महल-सा घर खड़ा था। चाचा मुझे वहीं ले गया था। घर का द्वार खटखटाते ही हरखू बाहर आया था।“

”कहो मोहन भाई ........ बड़े दिन लगा दिये। सेठ बड़ी याद कर रहे थे।“

”क्या करूँ, अच्छा माल खोजने में तो समय लगता ही है। हीरा क्या आसानी से पड़ा मिल जाता है हरखू भाई।“

”हूँ....... बात तो ठीक कह रहे हो मोहन सेठ। लाये तो तुम सचमुच हीरा ही हो। सच कहो हीरा कुंआरा है या ....... हरखू ने आँख मींच भद्दा सा इशारा किया था।“

”सेठ के साथ ऐसी गलती की गुस्ताखी कर क्या जान से हाथ धोना है? एकदम नया-ताजा माल लाया हूँ।“

”उन दोनों की बातों से चम्पा का मन घबराने-सा लगा था।“

”मैं और लड़कियों के साथ जाऊंगी चाचा...... मैं उन्हीं के साथ रहूँगी। तुमने तो माँ से यही कहा था चाचा।“ चम्पा के बड़े-बड़े नयन भर आये थे।

”अरे काहे घबरात है चम्पा रानी, आ अन्दर तो चल। कहा न तू दूसरों से अलग है। तू रानी है, वे तेरी दासी हैं।“

”चम्पा का हाथ पकड़ उसे लगभग खींचता-सा मोहन घर के अन्दर ले गया था। कमरे का वैभव देख चम्पा की आँखें फटी रह गयी थी। एक नयी साड़ी हाथ में थमा मोहन ने आदेश दिया था-‘सुन चम्पा रानी, वो सामने नहान-घर है। अन्दर साबुन की बट्टी रखी है। नहा-धोकर ये साड़ी पहिन ले।’“

”ये साड़ी.........?“

”हाँ-हाँ.......अरे ये सब तेरा ही है। एक क्या सेठ जी हजार साडियाँ पहिनाएँगे तुझे बस उनकी बात मानती जा। तेरी महतारी को भी ऐसी साड़ियाँ भेजेंगे हमारे सेठ।“

”बिलाउज तो है ही नहीं चाचा...........“

”अरे क्या गाँव मे तू बिलाउज के साथ ही साड़ी बाँधती थी, चम्पा? तेरा जैसा बदन क्या ढाँपने की चीज है?“

”मोहन की घृणित हॅंसी से चम्पा और सिकुड़ गयी थी। जल्दी से नहान-घर में घुस गयी थी। नल खोलते ही सिर के ऊपर से पानी की बौछार ने उसे पूरा भिगो दिया था। सुगन्धित साबुन की बट्टी से घिस-घिस कर बदन रगड़ती चम्पा गुनगुना उठी थी। साड़ी में अपने गठे शरीर को लपेट वह बाहर आयी थी।“

”सामने खड़े बड़ी-बड़ी मूंछोंवाले बलिष्ठ व्यक्ति को देख चम्पा संकुचित हो उठी थी। चम्पा के संकोच पर वह व्यक्ति मुस्करा उठा था।“

”वाह ...... मोहन सिंह, इस बार तुमने सचमुच चीज तलाशी है। खुश कर दुँगा।“

”हुजूर की किरपा बनी रहे। ऐ चम्पा, मालिक को हाथ जोड़ परणाम कर..........“

”डरी-सहमी चम्पा ने दोनों हाथ जोड़ दिये थे। चम्पा के दोनों जुड़े हाथों को उस व्यक्ति ने पकड़ चूम लिया था। एक अजीब सिहरन-सी दौड़ गयी थी उसके बदन में।“

”कुछ खया-पिया या नहीं? क्यों मोहन सिंह इसे कुछ तर माल नहीं दिया............“

”अभी तो पहुंचे हैं हुजूर ...... अब आपके राज्य में तर माल ही खायेगी।“ सम्मिलित अट्टहास ने चम्पा को डरा दिया था।

”मैं उनके पास जाऊंगी.......“

”किनके पास जायेगी? अरे हम जो कब से इंतजार कर रहे थे, हमें क्या अकेला छोड़ जाओगी, चम्पा रानी?“

”उसके बाद की कहानी नहीं सुना सकती दीदी.....“ हाथों में मुंह छिपा, चम्पा सिसक उठी थी।

”मैं समझ सकती हूँ बहिन, तुम पर क्या गुजरी होगी........“ पूर्णिमा ने सांत्वनापूर्ण हाथ चम्पा के मस्तक पर रखा था।

”न जाने कितनी बार रात-दिन कुचली गयी दीदी, पर मौत नहीं आयी। बड़ा अभागा है यह पप्पू।“

”बच्चे का मुंह देखकर भी वह नहीं पसीजा, चम्पा?“

”बच्चा आ रहा है, यह बात तो मैं भी नहीं जान सकी थी दीदी वर्ना क्यों जनम देती अभागे को। उसने तो डाँक्टर के पास इसे गिराने भेजा था दीदी.........“

”क्यों?“

”उसे शक जो था ये बच्चा उसका नहीं। मुझे कितना कूटा था उसने। शराब की बोतल से सिर फोड़ दिया था........“

”फिर तू कैसे बची चम्पा?“

”डाँक्टर ने कह दिया-बहुत देर हो चुकी थी......... बच्चा गिराने से माँ की मौत का खतरा था। उसी ने कानून का डर भी दिखाया था, इसीलिए मेरी जान बच गयी दीदी।“

”पर बच्चे के जन्म के बाद....“

”बच्चे को भी वह मार डालता दीदी, पर मैं पैरों पड़ गयी थी। हजार कसमें खाई थीं जो वह कहेगा- करूँगी पर इसकी जान बख्श दे।“

”ओह... पर इस समय तू यहाँ कैसे आयी चम्पा?“

”उस सेठ के घर टी वी लगा था दीदी। उसी से जाना कचहरी में जाने से मैं पप्पू का हक पा सकती हूँ............ मेरी ही जैसी एक और की कहानी दिखाई थी टी वी पर........“

”कहानी तो हर औरत की एक-सी होती है चम्पा, पर तू उस पहरे से कैसे भाग सकी?“

”जब से टी वी पर वो कहानी देखी, सेठ को खुश करने की कोशिश करती रही। सेठ से जो पैसा मिलता, उसे भी छिपाकर जमा करती गयी।“

”पर तूने भागने की क्यों सोची चम्पा? बहुत-सी लड़कियाँ इससे भी गयी-गुजरी जिन्दगी बिता रही हैं, तू तो फिर भी सुरक्षित थी।“

”सुरक्षित?“ कुछ ही दिन पहले सुना था वह सेठ मोहनसिंह से कह रहा था-

”यार मोहनसिंह, अब तो इस स्साली में कोई दम-खम नहीं रहा। इसे भी वहीं पहुँचा दे और इसके पिल्ले को कहीं बेच-बाच कर छुट्टी कर।“

”बस हुजूर दो महीने और ठहरें, इस बार ऐसा माल लाऊंगा कि तबियत खुश हो जायेगी। इसको भी श्यामा बाई के कोठे पर पहुँचाता जाऊंगा।“

”उनकी बातों ने मेरे सोच को पक्का किया था। अपने बेटे को बाप का नाम दिलवा कर रहूँगी दीदी, भले ही मेरी जान चली चाये।“

”कैसे कर पायेगी ये, चम्पा?“

”क्यों नहीं कर सकुँगी? इतने दिन उनके बीच रहकर मैंने अपने आँख-कान खुले रखें हैं दीदी। टी वी से बहुत ज्ञान पाया है मैंने। मैं घर पहचते ही पुलिस में रपट लिखाऊंगी।“ चम्पा का मुँह दृढ़ निश्चय से चमक उठा था।

”पुलिस तेरे साथ बदसलूकी भी तो कर सकती है चम्पा................“

”मैं अकेली थाने नहीं जाऊंगी, अपने कुटुम-कबीले के लोगों को साथ लेकर जाऊंगी। न्याय के लिए भूख-हड़ताल करूँगी, पर बेटे का नाजायज नहीं कहलाने दूँगी।“

”तो ठीक है, तू मेरे साथ चल। देखूँ क्या कर सकती हूँ तेरे लिए!“

”पूर्णिमा के घर पहुँच चम्पा जी गयी थी। घुटने चलता पप्पू मानो घर के कोने-कोने से परिचित हो रहा था। चम्पा ने पूर्णिमा के घर के कामों को सम्हाल लिया था और पूर्णिमा ने उसके पप्पू का भार अपने ऊपर ले लिया था। पूर्णिमा उस नन्हें शिशु को ले इस कदर व्यस्त हो गयी थी कि अरविंद को टोकना पड़ा था-

”देखो पूर्णिमा, तुम्हें इस लड़की के साथ सहानुभूति है वहाँ तक तो ठीक है पर तुम इसके बच्चे के मोह में बॅंध रही हो, यह ठीक नहीं। अन्ततः यह पराया खून है, कभी न कभी इसे यहाँ से चले ही जाना है न?“

”अगर हम इसे हमेशा के लिए यहाँ रख लें?“

”मतलब?“

”हम इस बच्चे को गोद ले लें अरविंद?“

”उसके लिए उसकी माँ की सहमति चाहिए।“

”वह मैं ले लुँगी.......... ओह अरविंद, कितना प्यारा है ये बच्चा ...........“ पप्पू को गोद में उठा पूर्णिमा ने चूम लिया था। उसी शाम बरामदे में बैठी पूर्णिमा ने चम्पा से कहा था- ”तेरा बेटा इतना प्यारा है चम्पा, इसे मूझे दे दे। वैसे भी यह तेरा बेटा तो लगता नहीं..........“

”आप ही का तो है दीदी जी,“ पप्पू पर दृष्टि जमाये चम्पा ने उत्तर दिया था।

”ऐसे नहीं, इसे मैं सचमुच अपनाना चाहती हूं। तू कह रही थी न, इसे नाजायज औलाद नहीं कहलाना चाहती। मैं इसे गोद लेना चाहती हूँ.........इसे बाप का नाम मिल जायेगा।“

”आपको पराये बच्चे की क्या जरूरत है दीदी जी। भगवान चाहेगा, आपके आँगन में अपने बच्चे खेलेंगे।“

”नहीं चम्पा, मेरे अपने बच्चे कभी नहीं होंगे, इसीलिए तुझ से तेरा बेटा माँग रही हूँ। देगी न, चम्पा !“

”नहीं......नहीं.......दीदी जी, ऐसा न कहें। अपने बेटे के बिना मैं जी न सकूंगी।“ खिलौने से खेलते पप्पू को चम्पा ने कसकर वक्ष से चिपटा लिया था।

”सोच ले चम्पा, सेठ के पास पैसे की कमी नहीं है, तेरे हर आरोप को वह झुठला देगा। तेरा बच्चा उसका नाम कभी न पा सकेगा।“

”मैं पप्पू के खून का टेस्ट कराऊंगी, दीदी जी। बाप-बेटे का रक्त एक होता है, तब तो उसे मानना ही होगा न?“

”मान ले, यह सिद्ध भी हो गया कि यह उसका बेटा है, तब भी क्या वह इसे या तुझे अपने परिवार में जगह देगा? वह चरित्रहीन व्यक्ति है, क्या पता तुझे और इसे खत्म ही करा डाले..........“

”नहीं.......ऐसा मत कहो....... मत कहो। आपने तो वादा किया था मेरी मदद करेंगी..... इसी भरोसे मैं यहाँ पड़ी हूँ, दीदी जी।“ रोती चम्पा अपने कमरे की ओर भाग गयी थी।

पूर्णिमा उदास हो उठी थी- व्यर्थ ही चम्पा का दिल दुखा बैठी। माँ की ममता, भला पुत्र-बिछोह सह सकेगी। अरविन्द ने उसे सांत्वना देनी चाही थी-

”तुम इतनी परेशान क्यों हो पूर्णिमा? हमने डाँक्टर कुमार को लिखा है, वह जरूर कोई बच्चा हमारे लिए रखेंगे।“

”पर मुझे इससे प्यार हो गया है, अरविन्द..............“

”वो भी बच्चा सिर्फ हमारा होगा, उससे हमें और भी ज्यादा प्यार होगा पूर्णिमा। तुम स्वार्थ में अपना उद्धेश्य भूल रही हो, अब सो जाओ।“

सुबह-सुबह पप्पू को पूर्णिमा के कमरे में छोड़ चम्पा चाय बनाने जाती थी। नन्हे हाथों से पूर्णिमा के बाल खींचता पप्पू मुस्करा उठता था। जब तक पूर्णिमा जागती, चम्पा चाय ले आया करती थी।

”देख चम्पा, तेरा शरारती बैटा मुझे चैन से सोने भी नहीं देता। दुश्मन है मेरा। शैतान कहीं का - छोड़ बाल.........“ पप्पू की मुट्ठी से अपने बाल छुड़ा पूर्णिमा उसे गोद में उठा लेती थी।

सूर्य की किरणें खिड़की से छनकर पूर्णिमा के मूख पर जैसे एक साथ आ पड़ी थीं.........आखें खोलती पूर्णिमा चैंक-सी उठी थी। इतनी देर हो गयी और चम्पा ने उठाया भी नहीं कहीं शाम की बात पर वह रूष्ट तो नहीं है।

”चम्पा ...... पप्पू.......अरे कहाँ हो तुम लोग?“

स्लीपर पहिन किचन की ओर आती पूर्णिमा की दृष्टि चम्पा के बन्द कमरे पर पड़ी थी। कमरे का द्वार बाहर से बन्द था। आशंका से पूर्णिमा शंकित हो उठी थी। घबराये स्वर में माली को आवाज दी थी- ”रामदीन ....... चम्पा कहाँ है।?“

”वह तो भोर होते ही चली गयी मालकिन..........“

”क्या ......आ, कहाँ गयी........मुझे बताया भी नहीं?“

”हमसे तो बोली, आपको राते खबर कर दी है। हाँ ये कागज देने को बोल गयी थी।“ रामदीन के हाथ से कागज छीन पूर्णिमा एक साँस में पढ़ गयी थी-

”दीदी जी,

आपके बहुत अहसान हैं। अपनी जान भी आपके लिए दे सकती हूँ, पर पप्पू का कर्जा चुकाना है मुझे। मैंने कसम खाई है, कचहरी में सब के सामने इसके बाप से यह बात कहलवा के रहूँगी कि यह पाप की औलाद नहीं- उसका अपना खून है।“

जब से पप्पू का जन्म हुआ, तब से दिमाग में यही बात घूमती रही.......... क्या बिना अपराध यह नाजायज औलाद कहलाएगा? सच कहिए दीदी, क्या यह बात आपके मन में कभी नहीं आयी? जिन परिस्थितियों में मुझे रहना पड़ा, उसमें क्या पवित्रता की दुहाई दी जा सकती है।

अपने बेटे के सामने मैं सिर उठाकर चलना चाहती हूँ, इसीलिए मुझे यह काम पूरा करना होगा। जिस दिन यह काम पूरा हो गया, पप्पू को आपकी गोद में सौंप दूँगी- यह मेरा वादा है।

मेरा अपराध छिमा करें।

-अभागिन चम्पा“

पूर्णिमा के हाथ से पत्र छूटकर नीचे लगे गुलाब की टहनियों में जा अटका था।