”मीना की बड़ी दीदी लकी रहीं। इतनी उम्र में भी उनकी शादी हो गयी।“ एक उसाँस के साथ उमा दी ने वाक्य पूरा किया था।
ये क्या कह गयी उमा दी? छोटी बहिन कम्मो ने जैसे चैंकते हुए उमा दी के शान्त मुख पर दृष्टि डाली थी। जीवन के पचास बसन्त जिनसे अछूते निकल गये, पतझड़ का वरण किये, उमा दी ने यह कैसी बात कही थी?
कम्मो को अच्छी तरह याद हैं। चारों बहिनों में उमा दी सब से अलग थीं। जहाँ साज-सिंगार की शौकीन छोटी बहिनें हर शाम सिविल लाइन्स घूमने निकल जाती थीं, उमा दी किताबों में सिर गड़ाये अपना भविष्य सॅंवारती थीं। अम्मा को उमा दी का वह पुस्तक-प्रेम कभी नहीं भाया था।
”जब देखो तब उमा किताबें लिये बैठी रहती है। क्या करना है इतनी पढ़ाई करके? बड़ी लड़की से घर के काम में मदद मिलनी चाहिए यहाँ उसे भी परोस कर थाली दो।“
”निःशब्द उमा दी पुस्तक छोड़ माँ के पास रसोई में जा खड़ी होती थीं।“
”अच्छा अम्मा, अब तुम आराम कर लो। हम खाना बना लेंगे।“
”रहने दो, तुम्हें हमारे दुख-कष्ट से क्या मतलब?“ अम्मा मान दिखातीं।
”तूम्हारे कष्ट को तुम्हारी बेटी नहीं समझेगी, अम्मा? लाओ, रोटी मैं बना दूँगी।“ अम्मा के हाथ से जबरन बेलन छीन उमा दी गोल-गोल, फूली रोटियाँ, मिनटों में सेंक डालती थीं। घर में जब भी किसी को भोजन पर आमंत्रित किया जाता, उमा दी रसोई का पूरा दायित्व सहज ही उठा लेती थीं।
”सच उमा के हाथ में जादू है, ऐसी स्वादिष्ट कटहल की सब्जी पहले नहीं खाई।“ अतिथि सदैव ही उनकी पाक-कला का लोहा मानते थे।
घर की बड़ी लड़की के नाते उमा दी को जो संघर्ष झेलने पड़े, छोटी बहिनों ने वो कष्ट जाने ही नहीं। उमा दी के बनाये रास्ते के कारण अन्य बहिनों को सभी कुछ आसानी से प्राप्त हो सका था। उनके इण्टरमीडिट पास करते ही अम्मा ने उमा दी की शादी के लिए शोर मचाना शुरू कर दिया था।
”बस बहुत हो गयी पढ़ाई। इसके पीछे अभी तीन-तीन लड़कियों को निपटाना है।“
”मैं अभी पढ़ना चाहती हूँ..... मुझे नहीं करना है विवाह। मेरी मद्द कीजिए बाबू जी।“ बाबू जी के सामने विनय करती दीदी रो पड़ती थीं।
बाबूजी के उदार विचारों ने उमा दी को सहारा दिया था। हर महीने काँलेज की फीस न देने की बात पर अम्मा अड़ जातीं और उमा दी फीस ले पाने के लिए उनकी मिन्नतें करतीं। अन्ततः फैसला बाबू जी ही करा पाते थे।
उमा दी को कोसती अम्मा उनके हाथ पर फीस के रूपये पटक देती थीं।
उमा दी के संघर्षो को छोटी बहिनों ने कभी सीरियसली नही लिया। मझली कृष्णा दी तो उनके पढ़ाई-प्रेम को व्यर्थ के काम की संज्ञा देती रहीं।
”न जाने बड़की दीदी को किताबों से कैसा प्रेम है, सिर भी ऊपर नहीं उठातीं।“
शाम को छोटी बहिनें मुहल्ले-पड़ोस के घरों में जा बैठती, कभी चाट वाले को बुला चाट खाई जाती, पर उमा दी उनके कार्यक्रमों में कभी सम्मिलित नहीं होतीं, इसीलिए घूमने-फिरने की शौकीन मझली कृष्णा दी, सबकी आदर्श थीं।
”बड़की दी तो महाबोर हैं।“ नन्ही निम्मो अपनी सम्मति देती। बुरा-सा मुंह बना लेती थी।
सझली कम्मों ने कहीं सुन लिया था कविता कहानी, लिखने वाले अर्द्धविक्षिप्त होते हैं, सो निम्मो को समझाती - ”अरी हिन्दी वालों के दिमाग का थोड़ा स्क्रू ढीला होता है, उमा दी भी तो हिन्दी वाली है न?“
बहिनों के सम्मिलित हास्य से उमा दी कभी विचलित नहीं हुई।
कृष्णा दी इन्टरमीडिएट के बाद घर बैठ गयी थीं।
”हमें आगे नहीं पढ़ना है, अम्मा। हमें लिखाई-पढ़ाई का शौक नहीं है।“
”क्या करूँ जब तक बड़ी की शादी नहीं हो जाती, छोटी की बात कैसे चलाई जाये।“
इसी समस्या के कारण अम्मा मन मार के रह जाती थीं। उमा दी से फैशन की बात दूर, रंगीन कपड़े पहनने का आग्रह भी व्यर्थ था। हद तो तब हो गयी जब वह बिना किनारे की सूती धोती और सफेद ब्लाउज के साथ यूनीवर्सिटी जाने लगीं।
ये नहीं कि वह देखने-सुनने में कृष्णा दी से उन्नीस थीं, पर कृष्णा दी अपने रख-रखाव के प्रति बेहद सजग थीं। कृष्णा दी जहाँ अपने परिधान और मेकअप की विशिष्टता से चार लोगों में अलग दीखतीं, वहीं उमा दी अपनी सादी वेशभूषा में उदास सुबह-सी अलग पहचानी जातीं। उमा दी का उजला गोरा रंग बिना मेकअप के चमकता था। धूप में पैदल चलती उमा दी के गुलाबी हो आये गालों को साँवली कम्मो, बड़ी हसरत से देखती थी।
”बड़की दीदी को भगवान ने बेकार ही इतना उजला रंग दे दिया। उन्हें तो इस रंग से मतलब ही नहीं, अगर हमारा ऐसा रंग होता तो लोग देखते रह जाते।“
उमा दी एम ए फाइनल में पहुँच गयी थीं। कृष्णा दी को भी बाबू जी ने जबरन बी ए करने भेज दिया था।
”घर में बैठकर समय नष्ट करने से कोई फायदा नहीं कृष्णा। पढ़ने-लिखने से दिमाग की खिड़कियाँ खुलती हैं- उमा को देखकर तो कुछ सीखो बेटी।“
उमा दी के विवाह के लिए अम्मा की रातों की नींद उड़ गयी थी। जिस दिन अम्मा को खबर लगी कोई साइकिल वाला लड़का उमा दी को घर तक पहुंचाने आता है, अम्मा ने खाना त्याग देने की घोषणा कर दी थी।
”अम्मा वह तो अक्षय जी हैं, यहीं पास ही उनका घर है। उनका रास्ता भी तो यहीं से होकर जाता है।“ उमा दी ने उन्हें समझाना चाहा था।
”रहने दे उमा, बहुत दिन तेरी बातें सह लीं, अब और सहन कर पाना कठिन है। मुझे ये बेशर्मी बर्दाश्त नहीं। कल से तेरा यूनीवर्सिटी जाना बन्द, समझी!“
”ठीक है अम्मा, पर इतना जान लो अगर तुम जिद कर सकती हो तो मैं भी अपने मन की करने को स्वतंत्र हूँ।“
”क्या करेगी, जरा बता तो?“
”तुम स्वंय देख लोगी, अम्मा।“
उमा दी के दृढ़ स्वर से अम्मा शान्त हो गयी थीं। उमा दी की पढ़ाई पूर्ववत चलती रही।
”ऐ उमा दी सच कहो, अक्षय जी से तुम्हारा कोई अफेयर है क्या ?“ कृष्णा दी ने शब्दों में मधु घोल पूछा था।
”धत्।“ उमा दी का मुंह लाल हो आया था।
उमा दी की बीमारी की खबर पा अक्षय घर आ गया था। अम्मा पर तो जैसे वज्रपात हुआ, पर थोड़ी ही देर में अक्षय ने अपनी मीठी बातों से अम्मा का भ्रम दूर कर दिया था।
”अम्मा जी, पहले तो मैं आपका आशीर्वाद ले लूं ,उमा बताती है, आप की प्रेरणा पाकर ही वह हर परीक्षा में इतने अच्छे अंक पाती है। मुझे भी आशीष दीजिए, कम-से-कम सेकंड तो आ जाऊं।“ अक्षय ने झुककर अम्मा के पाँव छू लिए।
”क्या उमा ऐसा कहती है? नहीं बेटा, सच तो यह है, वह अपनी मेहनत का फल पाती है। मैं अनपढ़ उसकी क्या मदद कर सकती हूँ।“ अम्मा गदगद हो उठी थीं।
कृष्णा के हाथ चाय के साथ पकौड़ियाँ और हलवा भेज, अम्मा निश्चिन्त हो किचेन के काम निबटाने लगी थीं।
उस दिन से अक्षय का उस घर में आने-जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं रह गया था। अक्सर यूनीवर्सिटी से लौटते समय अक्षय अम्मा के हाथ की चाय पीने रूक जाया करता था।
कुछ दिनों से उमा दी की अपेक्षा कृष्णा को अक्षय का ज्यादा इन्तजार रहता था।
”अक्षय जी, आपका कब से इन्तजार कर रही हूँ, इतनी देर क्यों की?“ स्वर में जैसे शिकायत रहती।
”क्यों भई, ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी है?“ अक्षय मुस्करा उठता।
”क्यों बिना जरूरत आपका इन्तजार नहीं हो सकता?“ अपनी बात पर स्वंय चौंक, कृष्णा आगे कहती जाती- ”मिस दत्ता के हिन्दी सेमिनार के लिए एक अच्छा-सा निबन्ध लिखना है। कुछ प्वाइंट्स बता दें तो मेरी धाक जम जायेगी।“
”तुम्हारी उमा दी से ज्यादा अच्छा निबंध थोड़ी लिखा सकता हूँ, उनकी मदद क्यों नहीं लेतीं।“
”उमा दी से मदद? अरे आप उन्हें नहीं जानते, अपनी किताबों से उन्हें फुर्सत कहाँ। दूसरों के लिए तो उनके पास वक्त ही नहीं है। आप भी बता दीजिए, मेरे लिए आपके पास समय है या नहीं।“ कृष्णा मान दिखाती।
”अरे भई मेरे पास तो समय ही समय है, लाइए देखूँ क्या लिखना है!“
अक्षय का पूरा समय जैसे कृष्णा के नाम हो जाता। उमा दी ने एक बार हल्के से प्रतिवाद करना चहा था।
”तू अपना काम स्वंय क्यों नहीं करती कृष्णा, वह तेरे ट्यूटर तो नहीं हैं न?“
”मुझे समय देने के लिए अगर उन्हें आपत्ति नहीं तो तुम्हें क्यों जलन होती है उमा दी?“ कृष्णा के उस मुंहफट उत्तर ने उमा का मुख लाला कर दिया था। उस दिन के बाद से अक्षय से जैसे उमा दी कतराने-सी लगी थीं। कृष्णा का अधिकार- क्षेत्र बढ़ता ही जा रहा था। अक्षय के आते ही उसके कामों की सूची खुल जातीं थी-
”अक्षय जी, कल हमारे डिपार्टमेंट का फेट है। लकी ड्राँ के लिए मुझे गिफ्ट्स लानी हैं। जल्दी चलिए वर्ना रात होने पर अम्मा नाराज होंगी।“
”अरे उसे चाय तो पीने दे !“ अम्मा स्नेह से पुकारती।
”न अम्मा, देर हो जायेगी। चाय इन्हें बाहर ही पिला दूँगी। आइए, अब और देर न कीजिए।“
उल्टे पाँव अक्षय को कृष्णा के साथ वापिस जाना पड़ जाता था।?
अक्षय की कृष्णा के साथ बढ़ती व्यस्तता के कारण उमा दी को अक्षय के साथ बैठ बातें करने की जरूरत नहीं-सी रह गयी थी। उमा दी सब से उदासीन फिर अपने कवच में सिमट गयी थीं। अकेले पुस्तकों में सिर गड़ाये रहने वाली उमा दी पर किसी ने विशेष ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी थी। उस समय कम्मो ने महसूस भी किया था उमा दी पहले तो अक्षय जी के आने पर खिल-सी जाती थीं। शुरू में अक्षय उनकी पूछताछ करता था। धीरे-धीरे उमा दी की अनुपस्थिति भुला दी गयी थी।
उस दिन सदा के शान्त, गम्भीर बाबू जी कृष्णा पर अचानक दहाड़ उठे थे-
”इतनी रात गये कहाँ से आ रही हो?“ साथ आये अक्षय को उन्होंने अनदेखा कर दिया था।
”जी....ई...........हम लोग पिक्चर चले गये थे।“ बाबू जी के उस स्वर ने कृष्णा को हड़बड़ा-सा दिया था।
”शर्म नहीं आती, गैर आदमी के साथ अकेले पिक्चर जाते? चलो घर के अन्दर। यही भले घर की लड़कियों का ढंग है।“ अक्षय से कुछ न कहकर भी बाबू जी ने बहुत कुछ कह दिया था।
घर के अन्दर पहुँच बाबू जी ने कृष्णा को चेतावनी दे डाली थी-
”दोबारा उसके साथ देखा तो तुझ से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा, कृष्णा। मेरी जिद जानती है न?“
उस दिन का अपमानित अक्षय दोबारा घर नहीं आया था। कृष्णा की रोते-रोते आँखें सूज गयी थीं। अम्मा ने बाबू जी को समझाना चाहा था।
”मुझ से पूछकर गयी थी कृष्णा। इस तरह घर आये आदमी का अपमान किया जाता है क्या?“
”तुम चुप रहो। ऐसा आदमी किस काम का जिसमें सही-गलत पहचानने की शक्ति नहीं।“
”मतलब तुम्हारा?“
”तुम नहीं समझोगी। वह यह भी नहीं समझ सका, उसे क्या करना चाहिए था। जरा-सी भी गम्भीरता नहीं वर्ना हीरा छोड़............।“
”कौन-सा हीरा छोड़ा है उसने? कृष्णा हमारी किससे कम है?“ बाबू जी का वाक्य काट अम्मा ने पूछा था।
”तुम नहीं समझोगी- छोड़ो।“
उम्र के इस पड़ाव पर कम्मो समझ सकी है, उमा दी की जगह कृष्णा की ओर झुकने वाले अक्षय ने बाबू जी को आहत किया था। उमा दी बाबू जी की आदर्श बेटी रही हैं। बाबू जी की आकांक्षाएँ उनमें ही साकार हुई थीं। बाबू जी ने हमेशा कहा-
”धन-सम्पत्ति तो आती-जाती रहती है। असली धन तो विद्या-धन है, जितना खर्चो, बढ़ता जाता है।“
अम्मा को बाबू जी का वह दर्शन कभी नहीं भाया। सरकारी नौकरी कर रहे भाइयों के ठाठ-बाट के आगे शिक्षक बाबू जी अम्मा की दृष्टि में सदैव हेय ही रहे।
उस घटना के बाद बाबू जी ने उमा दी के लिए वर की तलाश शुरू कर दी थी। जल्दी ही बाबू जी उमा दी के लिए सुपात्र खोज लाये थे।
”अपने वीरेन्द्र का बेटा यहीं यूनीवर्सिटी में लेक्चरर है, हमें पता ही नहीं। सुनते ही बोला, उमा जैसी बहू मिलना उसके परिवार का सौभाग्य होगा।“ खिले मुख बाबू जी ने अम्मा को सूचना दी थी।
अम्मा ने बाबू जी को अपने भाइयों के सामने सदैव नकारा ही ठहराया। इकलौती बहिन के रूप में अम्मा को भाइयों का अगाध स्नेह प्राप्त था। कई बार भाइयों की इच्छा-अनिच्छा के आगे अम्मा ने बाबू जी की इच्छाओं की आसानी से अवहेलना की थी। इस बार भी वही हुआ।
”उमा के लिए इन्होंने एक लड़का देखा है, आपकी राय हो जाती तो बात आगे बढ़ाते।“ अम्मा ने बड़े भाई की राय लेना जरूरी समझा था।
”घर-बार, लड़का कैसा है? तुम तो जानती हो शान्ता, तुम्हारे पतिदेव भोले बाबा हैं, कहीं धोखा न खा जाएँ, जिन्दगी-भर की बात है।“ भाई ने बाबू जी की पसन्द पर शंका प्रकट की थी।
”इसीलिए तो चाहती हूँ, आप एक बार सब देखभाल आते तो तसल्ली हो जाती।“
”हूँ, देखता हूँ।“
लड़का देखने गये बड़े मामा घर आ रूष्ट हो उठे थे-
”मुझे तो पहले ही पता था, धर्मपाल ऐसा ही लड़का खोजेंगे। जानती हो शान्ता, मांसाहारी है पूरा खानदान, मांस-भक्षी लड़का खोज लाये हैं धर्मपाल।“
”ये बात तो इन्होंने बताई थी दादा, पर उमा को उसके लिए आपत्ति नहीं है।“
”क्या ! अगर मेरी अपनी बेटी मुँह से ऐसी बात निकालती तो कह देता- जा अपने लिए कोई म्लेच्छ ढूंढ़ ले। अरे जिस घर में प्याज तक नहीं आता, उस घर में मांस-भक्षी जमाई बनकर आयेगा।“ बड़े मामा दहाड़ उठे थे।
”लड़के के पिता का कहना है, उमा पर जबरदस्ती नहीं की जायेगी।“ डरते-डरते अम्मा ने भाई को बताना चाहा था।
”क्या कह रही हो शान्ता, लड़की को म्लेच्छों में देने की ठान ली है तो मुझे दूर ही रखना। मैं शादी में नही खड़ा होने वाला।“ बड़े मामा ने चेतावनी दे डाली थी।
बड़े भाई की घोषणा ने अम्मा को निरस्त्र कर दिया था।
”अगर बड़े दादा ही शादी में खड़े न हुए तो कौन सम्हालेगा? इन पर भरोसा नहीं मुझे।“
बाबू जी क्रुद्ध हो उठे थे।
”इतना नकारा नहीं हूँ मैं। मेरी भी बेटी है वह, कुएँ में नहीं झोंक दूँगा उसे।“
बाबूजी के क्रोध से अविचलित अम्मा ने उस प्रस्ताव को पूर्णतः रिजेक्ट कर दिया था।
”जब मेरे भाई ही शामिल न हों तो कैसी शादी?“
भाई के प्यार में डूबी अम्मा ने उमा दी के मन की बात भी नहीं जाननी चाही थी। उमा दी ने खूब पढ़-लिखकर प्रोफेसर बनने का सपना देखा था। प्रोफेसर पति के साथ उनकी कितनी अच्छी निभती। शायद आज यह बात सभी महसूस करते हैं।
अन्ततः बड़े मामा ने उमा दी के लिए वर खोज निकाला था। उनके एक पूर्व-परिचित की बहिन का लड़का था प्रकाश। बड़े मामा ने उसकी तारीफों के पुल बाँध दिये थे।
”इतना आदर्श घर-वर मिलना उमा का सौभाग्य ही समझो। एक पैसा दान-दहेज नहीं लेंगे। लड़के ने कहा कि एकदम सादगी से विवाह होना चाहिए। बैंड-बाजा कुछ नहीं चाहिए।“
अम्मा का मुंह खुशी से चमक उठा था।
”बैंड-बाजा नहीं होगा तो शादी का कैसे पता लगेगा। हम तो खूब रिकार्ड बजाएँगे,“ निम्मो ने विरोध प्रकट किया था।
”अम्मा, उमा दी कह रही थीं लड़के ने उन्हें देखने की भी इच्छा प्रकट नहीं की, कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं?“ कम्मो ने धीमे से अम्मा से शंका प्रकट की थी।
”बेशर्मी की हद है, और पढ़ाओं लड़कियों को। ऐसी बात मुंह से निकालते शर्म से मर क्यों न गयी उमा!“ बड़े मामा उमा दी के दुस्साहस पर चकित थे।
उमा दी की बारात को क्या बारात कहा जा सकता था? गिनती के पाँच-सात व्यक्ति प्रकाश के साथ आये थे। भाँवरों के लिए चलने को प्रस्तुत प्रकाश के पाजामें के फटे पाँयचे पर बड़े मामा की दृष्टि पड़ गयी थी।
”बेटा तैयार हो जाओ, भाँवरों का समय हो रहा है।“
”मैं तैयार हूँ।“ गम्भीर स्वर में प्रकाश ने उत्तर दिया था।
”.........पर .......पर, तुमने कपड़े नहीं बदले हैं शायद। तुम्हारा पाजामा पाँयचे से फटा हुआ है बेटा।“
”फटा हे तो क्या हुआ? बेकार के दिखावों से नफरत है मुझे, चलिए।“
बड़े मामा के दिल में जैसे कहीं कुछ दरक-सा गया था। अपने को संयत रख चुपचाप एक ओर जा खड़े हुए थे।
कभी रंगीन कपड़े न पहनने वाली उमा दी, लाल साड़ी में गजब की सुन्दर लग रही थीं। उमा दी के साथ बैठे प्रकाश किसी भी तरह उमा दी के योग्य नहीं जॅंच रहे थे।
उमा दी की विदाई की तैयारी हो रही थी। कचैड़ी की दाल पीसने को उठाई सिल, महरी के हाथ से गिर दो टुकड़ों में टूट गयी थी। भय से मौसी की आँखें फट गयी थीं।
”हाय राम, ये कैसा अपशकुन!“
”कैसा अपशकुन, मौसी?“ कम्मो हॅंस पड़ी थी।
”अरे पत्थर टूटना बहुत बड़ी बदशगुनी होती है, कम्मो!“
”चुप रहो बसन्ती, शादी का घर है, ऐसी बातें नहीं करते।“ ताई जी ने मौसी को झिड़का था।
विदा के समय अजीब दृश्य आ खड़ा हुआ था। उमा दी और प्रकाश के लिए फर्स्ट क्लास कूपे के टिकट खरीदे गये थे। शेष बारातियों के लिए सेकेंड क्लास में सीटें रिजर्व करा दी गयी थीं। प्रकाश ने शोर मचा दिया।
”मैं अपने साथियों का अपमान नहीं कर सकता। किसने कहा था मेरा टिकट अलग खरीदो। मैं उन्हीं के साथ जाऊंगा।“ उत्तेजना से प्रकाश का मुँह तमतमा आया था।
”पर बेटा ये तो सोचो सब के साथ उमा का क्या होगा.........!“ दबे स्वर में बड़े मामा ने प्रकाश को समझाना चाहा।
”मैं सेकेंड क्लास में ही जाऊंगा। अपनी बेटी को फर्स्ट क्लास में भेजना चाहें तो आप स्वतंत्र हैं।“ मामा जी उस सपाट उत्तर पर हतप्रभ रह गये थे।
उमा दी को भीड़-भरे कम्पार्टमेंट में बिठाते बाबू जी उदास हो गये थे।
”मेरी बेटी का ध्यान रखना, प्रकाश बेटा। सब के सामने कुछ माँगने में उसे संकोच होगा।“ बेटी के झुके मस्तक पर आशीर्वाद का हाथ धरते बाबू जी का कंठ रूँध आया था।
चार दिन बाद छोटे भइया को दीदी को विदा कराने भेजा गया था। उन्हें लेने पहुँचे लोग स्टेशन पर उमा दीदी के आने की प्रतिक्षा कर रहे थे। हरी-लाल चुनरी में उमा दी खूब प्यारी लग रही थीं।
घर पहुँचते ही अम्मा ने उन्हें सीने से लगा लिया था।
”कैसे हैं तेरे ससुराल वाले, उमा? सास तो अच्छी हैं न?“
”हाँ अम्मा, सब लोग खूब अच्छे हैं।“
”क्या दिया है तेरी सास ने?“ मौसी ने उत्सुकता से पूछा था।
”कंगन दिये थे उन्होंने, पर उन्हें पहन सफर में आते समय चोरी का डर था सो वहीं रख लिए हैं।“ उमा दी ने आसानी से बताया था।
”और तेरे यहाँ के गहने?“ अम्मा जैसे चैंक गयी थीं।
”वो तो साथ लाई हूँ, अम्मा।“
”प्रकाश कैसा लगा हमारी उमा को?“ छोटी भाभी ने परिहास किया था।
”उन्हें तो आफिस का जरूरी काम आ गया था- जिस दिन पहुंचे उसी दिन लखनऊ जाना पड़ गया। भाभी।“
”क्या.......आ.........शादी के बाद एक दिन भी घर नहीं रूका? क्या कह रही है, उमा?“ छोटी भाभी उमा दी के भोले मुख को निहारती विस्मित हो उठी थीं।
”उन्हें काम जो था भाभी।“ उसी सहज निश्छलता से उमा दी ने जवाब दिया था।
घर में कानाफूसी शुरू हो गयी थी। उस सब से उदासीन उमा दी, सहज और सामान्य सब काम करती रहीं।
अम्मा ने उमा दी की अभिन्न सहेली विभा से पूरी बात पता लगाने को कहा था।
”ये उमा तो पगली है, विभा। विवाह के बाद प्रकाश ने इससे बात भी नहीं की और ये इतनी खुश है.......“
”ठीक है चाची, मैं बात करती हूँ।“
विभा से पूरी बात सुन अम्मा मौन शून्य में ताकती रह गयी थीं। पाँच दिन ससुराल में रहने के बाद भी उमा कुँवारी है, भला इस बात पर कोई कैसे विश्वास कर सकेगा? विभा के द्वारा ही अम्मा ने उमा दी से प्रकाश के नाम पत्र लिखवाया था।
उत्तर सर्वथा अप्रत्याशित था। प्रकाश ने उमा दी को लिख भेजा था-
”उन्हें विवाह के लिए जबरन भेजा गया था। वे कहीं और बॅंधे हैं, उस बंधन से मुक्त हो पाना उन्हें सम्भव नहीं। उमा अपनी पढ़ाई पूरी कर कहीं नौकरी करने को स्वतंत्र हैं।“
कम्मो उस समय बहुत छोटी थी। उमा दी पर क्या बीती होगी, समझ पाने की शक्ति ही कहाँ थी? फिर भी बड़े मामा के साथ अम्मा, उमा दी को ले प्रकाश के घर गयी थीं। प्रकाश ने उन्हें एक रात भी अपने घर रूकने की अनुमति नहीं दी थी। उमा दी की सास ने माफी माँगते कहा था-
”हमने समझा था, सुन्दर पत्नी पाकर वह ठीक हो जायेगा, पर ..............।“
”एक्सपेरिमेंट करने के लिए हमारी ही लड़की मिली थी आपको? शर्म नहीं आती एक लड़की की जिन्दगी बिगाड़ते?“ बड़े मामा दहाड़ उठे थे।
कुछ भी कहना-सुनना या प्रकाश को समझा पाना व्यर्थ था। प्रकाश ने दो टूक फेसला सुना दिया था।
”अम्मा ने मरने की धमकी देकर शादी के लिए भेजा था। मैं चला गया था, पर विवाह का दायित्व निभाना असम्भव है।“
हाईकोर्ट से ‘नो मैरिज सर्टिफिकेट’ के लिए कोई ज्यादा परेशानी नहीं उठानी पड़ती थी। प्रकाश ने आसानी से कागजात साइन करके भेज दिये थे।
अम्मा-बाबू जी के सामने नयी समस्या आ खड़ी हुई थी। सबसे बड़ी बेटी का डाइवोर्स छोटी बहिनों को तो भविष्य अन्धकारमय कर जायेगा। उमा दी के डाइवोर्स की बात भरसक छिपा कर रखने के बावजूद मुहल्ले-पड़ोस की स्त्रियाँ उमा दी से उनके पति, ससुराल वालों की बातें पूछ-पूछ कर परेशान कर डालती थीं।
उस समय कम्मो को उमा दी पर ही गुस्सा आया था।
”उमा दी, तुम न ढंग के कपड़े पहनती थीं, न कभी जरा-सा भी मेकअप किया, इसीलिए तो जीजा जी ने तुम्हें पसन्द नहीं किया।“
”और क्या, कृष्णा दी को देखो, सभी लोग उनकी कित्ती तारीफ करते है।“ निम्मो ने भी हाँ में हाँ मिलाई थी।
दोनों की बातें सुनती उमा दी ने दृढ़ता से अपने होंठ भींच लिए थे।
घर में दूसरी ही समस्या थी, उमा दी के डाइवोर्स की बात फेलने से अन्य बहिनों के विवाह में बाधा का भय था। सब की सलाह पर कृष्णा दी का विवाह जल्दी करने का निर्णय लिया गया था। कृष्णा दी का लावण्य और रख-रखाव किसी को भी सहज ही आकृष्ट कर सकता था। कृष्णा दी का विवाह जल्दी ही तय हो गया था।
कृष्णा दी के विवाह में उमा दी भाग-भाग कर काम कर रही थीं। सब का उनसे एक ही प्रश्न था।
”अरी उमा, तेरे पतिदेव कब पहुँच रहे हैं?“
”उमा, प्रकाश नहीं आये?“
निम्मो-कम्मो की सहेलियाँ उन्हें अलग परेशान कर रही थीं।
”अरे बड़े जीजा जी नहीं आये, ऐसा भी क्या काम?“
आज कम्मो समझ सकती है, उस दिन को उमा दी ने कैसे झेला होगा। उत्साहित उमा दी तो अपने गहने-कपड़े भी कृष्णा दी को दे डालतीं, पर अम्मा ने उन्हें रोका था।
”ये सब तेरे हिस्से का है, उमा। कृष्णा को जो देना है, हम दे ही रहे हैं।“ अम्मा ने उदास उसाँस भरी थी।
कृष्णा दी के विदा होने के बाद से अम्मा को उमा दी का दुख खाये जा रहा था।
”लड़की की उमर ही क्या है! इतना बड़ा पहाड़ सिर पर आ पड़ा।“
अप्रत्यक्ष रूप से अम्मा अपने को अपराधी मानती थीं। बड़े मामा तो जैसे स्तब्ध रह गये थे- उनके हाथों ये कैसा अन्याय हो गया? बाबू जी बेहद उदास हो आये थे। उमा दी ने उस समय किस असीम धैर्य का परिचय दिया था। उनके जीवन के साथ इतना कुछ घट गया, पर वह उससे उदासीन सामान्य जीवन जीने का अभिनय करती रही थीं।
" तुमने वो सब कैसे सहा दीदी?" समझ्दार होने पर कम्मो ने पूछा था
कम्मो के सवाल का उमा दीदी ने कितनी सरलता से जवाब दिया था-
”अगर वैसा न करती तो क्या अम्मा-बाबूजी जी पाते ,कम्मो और फिर रो-धोकर मिल भी क्या पाता?“
अम्मा-बाबू जी ने उमा दी के लिए फिर वर की खोज शुरू कर दी थी, पर उमा दी के साथ परित्यवता शब्द जुड़ चुका था। वर-पक्ष की ओर से ऐसे-ऐसे प्रश्न किये जाते कि अपमानित बाबू जी क्रूद्ध हो उठते थे।
”देखिए साहब, कोई तो बात होगी जिसकी वजह से लड़के ने आपकी बेटी को छोड़ दिया?“
”भई जानते-बूझते तो दूध की मक्खी निगली नहीं जा सकती न?“
”अच्छा होता प्रकाश मर जाता, तब समस्या इतनी गम्भीर नहीं होती।“ बाबू जी झुँझला उठते।
बच्चों वाले व्यक्तियों से उमा दी की शादी के लिए अम्मा का मन नहीं ठहरता।
”हमारी लड़की तो कुंवारी है, बच्चों के साथ आगे चलकर बड़ी मुश्किलें आती हैं।“
अम्मा के तर्क-वितर्को में उमा दी की राय जानने की कतई कोशिश नहीं की गयी थी। उमा दी ने भी अपने को पुस्तकों के पीछे छिपा लिया था।
अपनी राय देने की कोशिश एक बार की थी, उस अपराध पर बड़े मामा ने जिन विशेषणों से अलंकृत किया था, उन्हें वह क्या कभी भूल सकती थीं?
कम्मो के लिए लड़का मिलते ही विवाह निबटा दिया गया था। उमा दी तब तक काँलेज में अस्थायी लेक्चरर नियुक्त हो चुकी थीं। कभी-कभी अम्मा झींकती कह जाती।
”पता नहीं इस उमा में क्या कमी है- फलाने की लड़की का आज डाइवोर्स हुआ और दो महीने बाद दूसरी शादी रचा बैठी।“
उमा दी ने कभी इन बातों के विरोध में यह भी नहीं कहा-
”अम्मा जो मेरे लिए घर आया तिलक लौटा, मुझसे विवाह करने को तैयार था, उस समय तुम्हारी यह बुद्धि कहाँ गयी थी?“
बाबू जी के मित्र का लेक्चरर पुत्र उमा दी पर सचमुच मुग्ध था। तिलक की दावत पर भी बाबू जी से उनके मित्र ने यही कहा था
-”उमा के लिए हम यह तिलक भी लौटा सकते हैं, धर्मपाल।“ आज उनका वह पुत्र कनाडा के विश्वविद्यालय का सम्मान बना हुआ है।
न उमा दी ने बड़े मामा से कभी कोई शिकायत की जिन्होंने उमा दी के विवाह का परिणाम देख अपनी बेटियों को मांसाहारियों में ब्याहने में बाधा नहीं डाली थी। उनकी समझ में आ गया था उन मांस-भक्षियों के मुकाबले प्रकाश तो नरभक्षी था, जिसने एक सजीव जीवन, निर्जीव जीने को छोड़ दिया था। बड़े मामा के जीते-जी उमा दी उनका भरपूर स्नेह पाती रहीं।
कृष्णा और कम्मो को भी उमा दी से शिकायत ही रही क्योंकि उनके कारण दोनों को ससुराल में हमेशा तानों का शिकार होना पड़ा। कहीं जरा कोई चूक हुई नहीं कि सुनाई पड़ता-
”अरे इसकी तो सारी बहिनें एक-सी हैं, बड़ी घर बैठी है, इसे भी वहीं भेज दो तो ठीक हो जायेगी।“
दोनों के पतियों ने असली बात जानने के लिए बार-बार कुरेदा था,
”भला यह भी कोई विश्वास-योग्य बात हुई कि प्रकाश का किसी और से सम्बन्ध था इसलिए उन्हें छोड़ दिया। अरे आदमी दस जगह संबंध बनाये रखकर भी पत्नी रखता है।“ कृष्णा दी के पति व्यंग्य से मुस्कराते।
”मुझे तो लगता है, प्रकाश ने तुम्हारी उमा दी के किसी गम्भीर अपराध की सजा दी होगी।“ कम्मो का पति और गहरे जाकर सोचता।
आँखों के सामने जवान लड़की को तपस्विनी का जीवन बिताते देखना अम्मा को बहुत भारी पड़ता था। शायद इसीलिए उमा दी ने दूसरे शहर में जाँब ले लिया था। उस समय उमा दी की उम्र ही क्या रही होगी पच्चीस या छब्बीस वर्ष। उमा दी ने लोगों की व्यंग्य- दृष्टियों का कैसे सामना किया होगा, किसी ने जानने की कोशिश नहीं की।
उमा दी के लिए अम्मा-बाबू जी बराबर प्रयत्नशील रहे, पर बात कहीं बन न सकी। यह सच था, उमा दी चाहतीं तो एक वर जुटा पाना उन्हें कठिन नहीं था। कभी किसी ने उनके पास तक पहुंचने की कोशिश की तो घर वाले चिहुँक उठते-
”छिः, भला वह हमारी उमा-योग्य है? अरे जात-पात न भी माने, कम-से-कम और दामादों के साथ तो बैठने लायक हो।“
धीरे-धीरे एकाकी जीवन ही उमा दी को रास आने लगा है- ऐसा मान, सब ने आश्वस्ति की साँस ली थी। घर के सभी सदस्यों की जरूरतें उमा दी से ही पूरी होतीं। बच्चों में तो उमा दी के प्राण बसते थे। हर बच्चे के जन्मदिन पर भारी उपहार के साथ उमा दी पहुँच, उत्सव-सा समारोह आयोजित कर डालतीं। बच्चों को भी उनकी प्रतीक्षा रहती- उमा मौसी से छोटी-बड़ी फर्माइशें की जातीं। अम्मा-बाबू जी की बीमारी उमा दी ही झेलतीं।
”तुम तो अकेली हो उमा दी, तुम्हीं छुट्टी लेकर घर चली जाओ। यहाँ बच्चों और उनके पापा को कौन देखेगा?“ कभी कृष्णा, कभी कम्मों, निम्मो के आदेश उन तक पहुंचते रहते।
अम्मा-बाबू जी को भी तो उन्हीं का आसरा रहता। अम्मा कहतीं, ”उमा तो हमारी लड़का है।“
एक बार दबी जबान उमा दी ने कोई बच्चा गोद लेने की बात की थी। पूरा घर स्तब्ध रह गया था।
”तुम समझती नहीं उमा, गोद लेने से क्या लीगल काँम्प्लिकेशन आएँगे, तुम नहीं जातनीं।“ बात कुछ हद तक ठीक भी थी। उमा दी का जो स्टेट्स था, उसमें गोद लिये बच्चे का भविष्य क्या बनता?
जीवन के पचास बसन्तों की मादक हवा से अछूती उमा दी ने आज पहली बार मीना की उस बहिन को भाग्यशाली ठहराया जिसका विवाह हो गया।
”एक बात पूछूँ उमा दी, क्या तुम्हें सचमुच कभी कोई मन लायक नहीं मिला?“
”जो नहीं मिला, उसके लिए अब क्या सोचना, कम्मो?“
”तुम चाहती तो अक्षय जी तुम्हें मिल सकते थे, उमा दी?“
”जो चीज अपने से छोटों को भा जाये, उसे छीनना क्या ठीक है ,कम्मो?“ म्लान मुख उमा दी ने पूछा था।
”तुमने ऐसा मौका ही क्यों आने दिया, उमा दी? जब तुम्हारे प्राप्य पर कोई अनाधिकार हक जमाने का प्रयास कर रहा था, तभी तुमने क्यों नहीं उसकी सीमा बता दी थी?“
”घर की बड़ी बेटी थी न कम्मो- मैने सब को देना ही जाना।“
”तुम्हें किसने क्या दिया? हम सब ने भी तो तुम्हारे साथ अन्याय ही किया है, उमा दी?“ कम्मो का स्वर तनिक भारी हो आया था।
”छिः, पगली मेरी यही नियति थी।“
”नहीं उमा दी, तुम्हारी इस नियति के लिए हम सब जिम्मेवार हैं। सब ने अपनी इच्छा तुम पर लादी वर्ना वीरेन्द्र अंकल के पुत्र से विवाह रचा, आज तुम भी कनाडा में सुख से न जीतीं?“
”पता नहीं कम्मो सुख से जी पाती या नहीं, पर आज तुम सब को सुखी देख मैं कितनी संतुष्ट हूँ, तू नहीं समझ सकेगी। जानती है, अपने अंतिम समय तक बड़े मामा अपने को क्षमा नहीं कर सके थे। जीवन का कितना बड़ा सत्य वह मेरे कारण ही तो जान सके न?“
”कैसा सत्य? यही न की तुम्हारे बाद किसी भी लड़की के विवाह के लिए सामिष-निरामिष वर का प्रश्न नहीं उठाया गया। भला ये भी कोई बात थी, जिसके लिए तुम्हारा जीवन व्यर्थ चला गया, उमा दी।“
”कुछ देकर ही तो बहुत कुछ पाया जा सकता है। मेरे कारण तुम सब को उन बेकार की बातों की कीमत तो नहीं चुकानी पड़ी- मुझे इसी का संतोष है, कम्मों।“
”दूसरों के लिए ही सोचती रहीं उमा दी, कभी अपने लिए, एक पल को भी नहीं सोचा?“
”सोचा था कम्मो, सच कहूँ तो आज भी सोचती हूँ, पर तू ही बता, क्या विवाह ही जीवन की नियति है? क्या तुम सब मेरे नहीं हो? क्या नहीं है मेरे पास...................?“
”एक सच कहूँ उमा दी, पूरे जीवन तुमने अपने को आदर्शवादिता के झूठे आवरण में लपेट, हर अन्याय सिर झुका स्वीकार किया। अपनी इच्छा-अनिच्छा दूसरों के नाम कर तुमने यश जरूर पाया, पर सच पूछो तो तुम्हें मिला क्या है- कोई है जो तुम्हें माँ कह पुकार सके?“ कम्मो का स्वर उत्तेजित हो उठा था।
”यह क्या कह रही है कम्मो, मैंने सचमुच कुछ नहीं पाया?“ उमा अवाक् थी।
”मुझे माफ करना दीदी। तुम्हारे प्रति हमेशा आक्रोश उमड़ता रहा, तुम विद्रोह क्यों न कर सकीं, उमा दी। तुम्हारा जीवन, तुम्हारा क्यों नहीं रहा? तुम तो ऐसी नहीं थीं, उमा दी?“
”ठीक कहती है, कम्मो, शायद तब इसलिए विरोध न कर सकी कि बचपन से सुनती आयी थी, बड़ी बेटी दूसरों के लिए आदर्श होनी चाहिए, बड़ों की आज्ञा-पालन ही उसका एकमात्र धर्म होना चाहिए........“
”और अब? अब क्यों नहीं अपना आक्रोश उनके प्रति व्यक्त करतीं, क्या तुम्हारे अन्तर में आग नहीं धधकती, उमा दी?“
”यह आग क्या आसानी से बुझ सकती है? सच तो यह है, पहले की अपेक्षा आज जब अपने बारे में ऐसा-वैसा कुछ सुनती हूँ तो तिलमिला जाती हूँ। क्या गलती की थीं मैंने? विवाह के सात फेरों के लिए अपराधिनी क्यों बना दी गयी मैं?“
”तुम्हें अपराधी कौन कहता है, दीदी?“
”ये समाज, कम्मो। क्लास में अगर लड़कियों से कहती हूँ अन्याय सहन करना गलती है तो बाहर ताने सुनती हूँ........“
”कैसे ताने दीदी?“
”यही कि पति से लड़कर अपनी जिन्दगी तो बिगाड़ ही ली, अब लड़कियों का जीवन बिगाड़ रही हूँ।“
”इतना अन्याय, कैसे सहती हो, उमा दी? जी चाहता है, प्रकाश का मुँह नोच डालूँ। सब के सामने ले जाकर कहूँ-असली अपराधी यह है, दंड इसे मिलना चाहिए।“
”मुँह नोचने से कया जबरन किसी का हृदय जीता जा सकता था, कम्मो? शांति से सोचकर देखो तो प्रकाश और मेरा अपराध क्या एक-सा नहीं है?“
”क्या कह रही हो, उमा दी? उस दुष्ट से अपनी तुलना कर रही हो?“
”क्या बड़ों की खुशी के लिए हमने अपना जीवन व्यर्थ नहीं किया? अपने मन की बात अगर साहसपूर्वक कह सकी होती तो आज यह स्थिति क्यों आती?“
”अब भी तो तुम किसी से कुछ नहीं कहतीं, उमा दी।“
अब किससे क्या कहूँ? अम्मा का दयनीय मुख, बड़े मामा का क्षमा माँगता-सा अपराधी चेहरा, बाबू जी का असहाय आक्रोश, देख कुछ कहने-सुनने की हिम्मत ही नहीं होती फिर सबसे बड़ी शिकायत तो अपने से ही है।
”अपने से शिकायत क्यों?“ कम्मो विस्मित थी।
”अपने भाग्य की रेखाएँ बदल सकने का दम्भ रखने वाली मैं, इतनी कमजोर क्यों पड़ गयी थी? अपने लिए निर्णय लेने का साहस क्यों न कर सकी। क्यों मैंने अपने को नियति के हाथों छोड़ दिया - क्यों उससे मैं हार गयी?“
”नहीं उमा दी, तुम कभी पराजित नहीं हुई। लोग तुम्हारी हॅंसी उड़ाते रह, उल्टा-सीधा कहते रहे, तुमने पलटकर भले ही उन्हें जवाब न दिया हो, अपने लिए सही रास्ता चुन, आज उनसे प्रशंसा पाती हो न? कितनी लड़कियों का भविष्य सॅंवार रही हो तुम।“ सचमुच उमा दी की प्रशंसा करने वालों की भी कमी न थी।
”किसी की निन्दा प्रशंसा का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है कम्मो।“
”एक बात पूछूँ उमा दी- तुम तो हम सब से अलग थीं। विद्रोहिणी रूप में हम तुम्हें पहचानते रहे फिर विवाह को क्या तुमने भी अन्तिम नियति स्वीकार किया है?“
”विवाह अन्तिम नियति नहीं, पर एक सत्य स्वीकार करूँगी, मैंने भी पति-बच्चों के साथ एक घर का सपना जरूर देखा था कम्मो।“
”उसके लिए अब क्या करोगी, दीदी?“
”बहुत सोचने के बाद लगता है, अपने को बहुत सीमित दायरे में बाँधे रही हूँ मैं, इसीलिए कभी-कभी अभाव कसक उठते हैं। अब अपने क्षितिज का विस्तार कर सुख पाना है।“
”क्षितिज का विस्तार?“
”हाँ, निस्सहाय स्त्रियों और अनाथ बच्चों के लिए सपनों की दुनिया बसाऊंगी, कम्मों। उन स्त्रियों और बच्चों में, मैं भी क्या अपनी खुशी नहीं पा सकूंगी?“
”जरूर पा सकोगी, उमा दी। अपने इस नये परिवार में तुम्हारा सपना पूरा हो यही मेरी कामना है।“ कम्मो का स्वर भावविह्नल था।
”हाँ, न जाने किस कमजोर पल में मीना की दीदी की बात कर बैठी थी कम्मो, सच तो यही है विवाह के बाद भी कितनी स्त्रियाँ भरपूर जीवन जी पाती है? फिर इसे हम अपनी नियति क्यों स्वीकार करें?“
”ठीक कहती हो, उमा दी। कभी तो लगता है तुम्हीं अच्छी रहीं, अपने मन का कुछ भी करने को स्वतंत्र तो हो। हमें तो हर बात के लिए घर भर का मुँह ताकना पड़ता है।“ कम्मों फिर उत्तेजित हो उठी थी।
”अच्छा-अच्छा, अपना मूड मत खराब कर, शायद अम्मा ठीक ही कहती थीं जो मिले उसी पर संतोष कर।“ उमा ने बात हॅंसी में टालनी चाही थी।
”काश अम्मा की बात सच होती, पर वास्तविकता तो यह है जो हमें मिलता है, हम कभी उससे संतुष्ट नहीं हो पाते। बताओ उमा दी, ये सच है या नहीं?“
”सच और झूठ के अपने अलग मापदंड होते है। अम्मा ने जीवन का सीधा रास्ता खोज लिया जो कुछ हुआ या होता है, वह भाग्य के अधीन है। सामान्य जीवन जीने के लिए यही आसान तरीका भी है, कम्मो।“
”कुछ अंशों में तुमने भी तो वही रास्ता अपने लिए चुना था, उमा दी।“
”शायद हाँ, पर अब मैंने अपनी राह अलग करने की ठान ली है, कम्मो। चल तुझे वह प्लाँट दिखाऊं जहाँ मेरे सपनों का घर, आकार ले रहा है।“
”सच दीदी, तुमने सपनों का महल बनवाना भी शुरू कर दिया और हमें बताया भी नहीं?“
”सोचा था सब को सरप्राइज दूंगी, पर आज बातों में तुम्हारे सामने रहस्य खुल ही गया।“
”ओह उमा दी, यू आर रियली ग्रेट। चलो अब और मैं रूक नहीं सकती।“ उतावली में उठती कम्मो को देख उमा दी स्नेह से हॅंस पड़ीं।
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