यूनीवर्सिटी कैम्पस के फाउंटेन के पास खड़ी आकांक्षा ने झुँझला कर रिस्टवाँच पर दृष्टि डाली थी। पूरे बीस मिनटों से वहाँ खड़ी वह अक्षत की प्रतीक्षा कर रही थी। धीमे-धीमे सिप करते कोक भी समाप्त हो गया था। व्यग्रता से सामने दृष्टि डालते आकांक्षा को पेड़ों के पीछे से आती अक्षत की सफेद कार दिखी थी। नहीं बोलना है उससे .......कोक का खाली कैन डस्टबिन में डाल, फाउंटेन के सामने वाली सीढ़ियों पर बैठ आकांक्षा ने किताब खोल ली थी।
”आई एम एक्स्ट्रीमली साँरी आकांक्षा। जैसे ही कार निकाली, अनुराग मिल गया। तुम तो उसे जानती ही हो, जल्दी पीछा छोड़ने वाला नहीं है। किसी तरह उसे डिपार्टमेंटल स्टोर पर उतार, भागा आया हूँ।“ अक्षत ने आते ही सफाई दी थी।
”आने की क्या जरूरत थी, उसी के साथ पूरा डे स्पेण्ड करते।“ आकांक्षा ने मान दिखाया था।
”ठीक है, वापिस चला जाता हूँ, बेचारा लंच के लिए इन्वाइट कर रहा था। मैंने सोचा, शायद यहाँ मेरी ज्यादा जरूरत हो।“
”लंच छोड़ने का इतना गम है? यहाँ एक घंटे से अकेले हम इन्ज्वाँय कर रहे है न?“
”कहा न भई, अब गुस्सा छोड़ो। आओ पहले कैंटीन चलते हैं, कुछ ठंडा लोगी तभी दिमाग ठंडा होगा।“ अक्षत ने परिहास किया था।
”मैं पहले ही कोक ले चुकी हूँ, तुम्हें लेना हे तो ले लो...........“
”चलो तुमने कोक ले लिया, मुझ तक ठंडक पहुँच गयी।“ अक्षत शरारती हॅंसी हॅंस दिया था।
”तुमने वादा किया था अपनी यूनीवर्सिटी लाइब्रेरी में मुझे इंट्रोड्यूस करा दोगे, भूल गये न? प्लीज अक्षत मुझे कुछ जरूरी रेफरेंस बुक्स चाहिए, चलो न!“
”इस तरह प्यार से कहो तो आकाश के तारे भी तोड़ लाऊॅंगा। बस दो मिनट......... कल जो स्पेसिमेन (नमूना) रखा था, उसकी प्रोग्रेस देखता चलुँ...... ओ.के........“
अक्षत के साथ आकांक्षा भी उसके डिपार्टमेंट में चली गयी थी। शीशे के जारों में रखे उन अजीब नमूनों को देख उसे न जाने कैसी वितृष्णा-सी हो उठी थी। शोध छात्रों के नमूने कल्चर प्लेट्स में ह्यू मन डिप्लायड सेल्स ग्रो कर रहे थे।
”इन विकृत नमूनों से ही हम सुन्दर आकृति दे सकेंगे आकांक्षा।“ अक्षत ने उसे बताया था।
”तुम्हें ये शोध-कार्य अच्छा लगता है अक्षत? कभी किसी तरह की ऊब नहीं लगती?“ आकांक्षा विस्मित थी।
”किसी टूटी-फूटी व्यर्थ की वस्तु को सुन्दर-सुडौल रूप देकर जो आनन्द मिलता है, वो कल्पनातीत है आकांक्षा।“
”तुम्हें अपनी शोध-सफलता पर पूरा विश्वास है अक्षत? सुना है कभी वर्षो के श्रम व्यर्थ चले जाते हैं?“
”जेनेटिक इंजीनियर हूँ मैडम, जीन सुधारने में महारत हासिल करके ही रहूँगा।“ सहास्य कहा था अक्षत ने।
जारों में सुरक्षित नमूनों को देखती आकांक्षा के पास आकर अक्षत ने पूछा था-”क्या देख रही हो आकांक्षा?“
”विकृति के साथ रह पाना क्या आसान है अक्षत?“
”काश, किसी सजीव नमूने को सामने रख एक्सपेरिमेंट कर पाता.........“
”मतलब?“
”तुम नहीं समझ सकोगी आकांक्षा। एक ऐसा जुनून-सा उठता है, कैसे........ किस तरह अविकसित मस्तिष्क, प्रकाश रहित आँखों और टेढ़ी-मेढ़ी, अविकसित मांसपेश्यिों को सुधार कर रख दूँ।“
”मुझे तो ये सब सोचकर भी घबराहट-सी होती है अक्षत........।“
”ये देखो, एक ऐसा मानव-नमूना, जिसकी न आँखें थीं, न कान....... व्हाट ए ट्रेजेडी। जेनरेली ऐसे नमूने ज्यादा दिन जीवित नहीं रहते वर्ना........।“ष्
”......... वर्ना ये राक्षस पिता को खा जाता.........।“ अचानक ये वाक्य जैसे आकांक्षा के मुँह से फिसल गया था।
विस्मित अक्षत ने मुड़कर आकांक्षा को निहारा था।
”अक्षत.......... आई एम नाँट फीलिंग ओ के ..... मैं जा रही हूँ........।“
सफेद पड़े चेहरे के साथ, खुली हवा में पहुँच पाने के लिए मानो आकांक्षा उतावली हो उठी थी। लगभग भागते हुए वह डिपार्टमेंट के बाहर वाले लाँन में पहुँची थी। पीछे से आये अक्षत के स्वर में घबराहट थी- ”क्या हुआ आकांक्षा? ऐनी प्राबलेम?“
”नथिंग........ कुछ ठीक नहीं लग रहा है, मैं वापिस जा रही हूँ- दैट्स आँल......।“
”चलो तुम्हें ड्राप कर दूँ.......।“
”नहीं अक्षत, मैं कार लाई हूँ......।“
”पहले डाँक्टर के पास चलते है।“
”नहीं.......नहीं......... मैं ठीक हूँ, अचानक हल्का-सा चक्कर आ गया था। तुम परेशान मत हो अक्षत। कल मिलेंगे।“ विस्मित अक्षत को वहीं खड़ा छोड़, पार्किंग प्लेस से कार निकाल, आकांक्षा ने अपार्टमेंट की ओर गाड़ी मोड़ दी थी।
अपार्टमेंट के अपने रूम में पड़े पलंग पर, आकांक्षा गिर-सी पड़ी थी। बारह वर्ष पूर्व की उस घटना ने उसे उद्वेलित कर दिया था।
आकांक्षा के जन्म के आठ वर्ष बाद उस भाई नामधारी जीव ने जन्म लिया था। उसे देख डाँक्टर स्तब्ध रह गये थे...... प्रकाश-विहीन नयन और स्वर-विहीन कान मांस का सजीव लोथड़ा ..... जिससे कोई आशा नहीं........। ”हे भगवान, ये दंड क्यों दिया?“ माँ रो पड़ी थीं।
पिता के पास माँ को सांत्वना देने के लिए शब्द भी कहाँ शेष थे। डाँक्टरों ने निराशासूचक सिर हिला दिये थे- ‘नही’ कुछ भी कर पाना सम्भव नहीं था......।
किसी मित्र ने सांत्वना-सी दी थी - ‘ऐसे बच्चे ज्यादा दिन नहीं जीते......’ पिता तड़प उठे थे।
‘अगर आप चाहें, इस बच्चे को मेडिकल-काँलेज के विकलांग विंग में रखने की व्यवस्था की जा सकती है।’ एक सदय डाँक्टर ने सुझाव दिया था।
‘नहीं.........नहीं.........पराए हाथों मेरा बच्चा नहीं पलेगा ......’ माँ विलख पड़ी थी।
दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता कहाँ नहीं गये थे माँ और बाबा, पर उनके जीवन का अंधकार गहराता ही गया था। चाहकर भी बाबा डाँक्टरों के सुझाव स्वीकार नहीं कर सके थे। माँ हमेशा बीच में आ जाती थीं- ‘मैं अपने बेटे को अपने से अलग नहीं करूँगी। मैं इसे पालुँगी, बड़ा करूँगी भगवान मेरी मदद जरूर करेंगे।’
घर में वह भाई नामधारी जीव बड़ा होने लगा था। विस्तर पर पड़े उस भाई को बचपन में आकांक्षा कौतुक से देखा करती। माँ उसका लाड़ करती, माथे पर काजल का टीका लगा देती थी। जिस बच्चे का अस्तित्व ही आतंकित करे, उसके माथे पर नजर का टीका?
वर्ष बीतते गये थे, आकांक्षा ने दसवीं कक्षा पास कर ली थी। बाबा को किसी ने बताया था अगर वह चारों धाम की दर्शन-यात्रा कर लें तो शायद भगवान कोई चमत्कार कर दे। इतने विद्वान बाबा ने माँ का मन रखने के लिए चारों धाम जाने का निर्णय ले लिया था।
‘भगवान तुम्हारी यात्रा सफल करे, हमारे बेटे को नेत्रों की ज्योति मिल जाये।’ रूँधे गले से माँ ने प्रार्थना की थी।
बाबा एक धाम की यात्रा भी तो पूरी नहीं कर सके थे। बस-दुर्घटना में उनकी मृत्यु की सूचना ही आ सकी थी। पड़ोस की किसी स्त्री को फुसफुसाते आकांक्षा ने सुना था- ‘बेटा क्या, राक्षस जन्मा है। बाप को भी खा गया।’
आकांक्षा आपादमस्तक सिहर गयी थी। भाई को कोई नमा नहीं दिया गया था, उस स्त्री की बात सुनते ही आकांक्षा ने उसका नामकरण कर दिया था-‘राक्षस’। पलंग पर पड़े-पड़े उसे नित्य क्रियाओं से निवृत होते देख आकांक्षा का मन वितृष्णा से भर उठता था।
माँ लाड़ से उसे खिड़की के सीखचे पकड़ा खड़ा करने लगी थीं। लड़खड़ाते कदमों से उसे दो-चार कदम चलता देख, माँ के मन में आशा का संचार हो आता था शायद एक दिन वह ठीक हो जाय, उनके सारे संकट कट जाएँ।
बी एस सी प्रीवियस में आकांक्षा के फिजिक्स में सर्वाधिक अंक आये थे। रजत चिढ़ गया था..... एक लड़की फिजिक्स जैसे विषय में टाँप करे-धिक्कार है। आकांक्षा को जिस पुस्तक की जरूरत होती, वही रजत को चाहिए होती थी। कभी आकांक्षा कोई विशेष पुस्तक अपने लिए रिजर्व कराती तो रजत का पहले से ही रिजर्वेशन रहता। दोनों की प्रतिद्वंद्विता दूसरों के मनोरंजन का कारण बन गयी थी। एक दिन आकांक्षा गुस्से में बरस पड़ी थी- ”क्या बात है मिस्टर रजत? मेरी किताबों की यॅंू जासूसी करते शर्म नहीं आती?“
”जासूसी भी करूँगा वो भी निर्जीव किताबों की-कमाल करती हैं आकांक्षा जी। जिंदगी में ऐसी बहुत-सी बातें हैं जिनकी जानकारी पाने में खुशी होगी मसलन आपको ही ले लें..... आपके बारे में जानकारी पाकर सचमुच खुशी होगी मुझे।“ रजत हॅंस रहा था।
क्रोध से आकांक्षा के कान तक जल उठे थे-”अपने प्रति आपकी उत्सुकता जानकर मैं खुश हो जाऊॅंगी- ऐसी मूर्ख नहीं हूँ। बहुत देखे हैं आप जैसे। मुझे आपसे कुछ लेना-देना नहीं है, समझे!“
लाइब्रेरी छोड़ आकांक्षा बाहर चली गयी थी। स्पष्टतः लाइब्रेरियन का सुपुत्र रजत की मदद करता था। आकांक्षा ने काँलेज लाइब्रेरी जाना छोड़ दिया था। जिस पुस्तक की जरूरत होती वो यूनीवर्सिटी लाइब्र्रेरी से ले आती। यूनीवर्सिटी में पिता के मित्र फिजिक्स डिपार्टमेंट में ही प्रोफेसर थे।
देर रात तक यूनीवर्सिटी लाइब्रेरी में बैठी आकांक्षा नोट्स उतारती रहती थी। घर में उसे न जाने क्यों कुछ उद्विग्नता-सी बनी रहती थी।
उस विचित्र से भाई का अस्तित्व आकांक्षा को घर में सामान्य नहीं रहने देता था। एक दिन काफी देर से घर लौटते समय रजत ने राह रोक क्षमा याचना की थी - ”मुझे क्षमा नहीं कर सकोगी आकांक्षा?“
”किस बात की क्षमा माँग रहे है?“
”मेरे कारण इतनी दूर इस लाइब्रेरी में जो आना पड़ता है...... सच मैं स्वंय को बहुत अपराधी पाता हूँ, आकांक्षा।“
”आप व्यर्थ ही अपराध-बोध पाल रहे हैं रजत जी। यहाँ अधिक पुस्तकों की सुविधा है, इसीलिए यहाँ आता हूँ...........।“ रजत की क्षमा-याचना आकांक्षा को पिघला गयी थी। चाह कर भी वह उससे नाराज नहीं रह सकी थी। उस दिन के बाद से दोनों की प्रतिद्वंद्विता मित्रता में बदल गयी थी। किसी पुस्तक में कुछ नया पाने पर दोनों उसे बाँट लेते थे। क्लास के बाद साथ ही लाइब्रेरी जाते और घर लौटते थे। बी एस सी फाइनल का परीक्षाफल आ गया था। आकांक्षा ने दो अंक अधिक प्राप्त कर प्रथम स्थान पाया था और रजत द्वितीय स्थान पर रहा था।
”कांग्रेच्युलेशन्स, आकांक्षा।“
”नहीं रजत, तुम्हें फस्र्ट आना चाहिए था........“
”कम आँन माई डियर......... यू डिजर्व दिस। मैं तुम्हारी प्रसन्नता से बहुत ही प्रसन्न हूँ। एम एस सी ज्वाइन कर रही हो न?“
”सोचती हूँ केमेस्ट्री ज्वाइन कर लुँ...... एप्लीकेशन भेज रही हूँ।“
”फिजिक्स में टाँप करके दूसरा विषय चुनोगी आकांक्षा? यहाँ तुम एम एस सी में भी टाँप करके यू जी सी स्काँलरशिप पा लोगी या विदेश जा सकती हो।“
”फिजिक्स में तुम ही टाँप करो रजत..... मुझे केमिस्ट्री में द्वितीय स्थान मिला है, चाहती हूँ वहाँ प्रथम आने का प्रयास करूँ।“
”तो यूँ कहो, मुझ पर दया कर रही हो, मेरी भी एक बात सुन लो आकांक्षा, मैं किसी की दया का मोहताज नहीं........... रही बात टाँप करने की तो क्या जरूरी है प्रथम स्थान हम दोनों में से ही किसी को मिले? कोई तीसरा भी तो हो सकता है न? अगर तुम मेरी प्रतिद्वंद्वी न रही तो प्रथम आने की प्रेरणा कहाँ से पा सकूगा?“
अन्ततः दोनों ने फिजिक्स में ही एम एस सी किया था। उस बार फाइनल परीक्षा में रजत को स्वर्ण पदक मिला था। बधाई देती आकांक्षा से रजत ने कहा था- ”कहीं जानकर तो तुमने मेरे लिए ये स्वर्ण पदक नहीं छोड़ दिया आकांक्षा?“
”उतनी उदार नहीं हॅूं रजत, मैंने कम श्रम तो नहीं किया था पर विजयश्री तुम्हें मिल, आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ, रजत...........“
”हमारी प्रसन्नता अलग-अलग तो नहीं, हम दोनों जीवन की हर चीज साथ ही शेयर करगे आकांक्षा।“ रजत कुछ भावुक हो चला था।
रजत प्रशासनिक सेवा की तैयारी में जुट गया था और आकांक्षा ने शोध-कार्य प्रारम्भ किया था, किन्तु संध्या का समय दोनों का साथ बीतता था।
”आई एस बनकर सबसे पहला काम क्या करोगे रजत?“
”तुमसे विवाह करूँगा आकांक्षा।“ रजत हॅंस दिया था।
”मेरी स्वीकृति लिए बिना ये निर्णय? तुम्हें अपने पर बहुत विश्वास है रजत?“
”अपने पर नहीं तुम्हारे निर्णय पर विश्वास है आकांक्षा। ठीक पहचाना है न?“ रजत शरारती हॅंसी हॅंस दिया था। आकांक्षा ने सिर झुका दिया था।
प्रशासनिक परीक्षा के परिणाम पर दृष्टि डालती आकांक्षा हर्ष-विभोर हो उठी थी। रजत का नाम प्रथम दस सफल प्रत्याशियों में चमक रहा था।
चार दिन बाद भोपाल से रजत के माता-पिता उससे मिलने आ पहुँचे थे। अपने पुत्र के लिए माँ से उन्होंने आकांक्षा को माँगा था। प्रसन्नता से माँ का थका मुख चमक उठा था।
”आकांक्षा के पिता नहीं हैं, अन्यथा रजत-सा दामाद पर कितने खुश होते।“ माँ की आँखें छलछला आयी थीं।
”भगवान की इच्छा के आगे किसी का वश नहीं चलता, अब तो इन बच्चों की प्रसन्नता में ही हमारी प्रसन्नता है।“ रजत की माँ ने सांत्वना दी थी।
”आप विवाह कब करना चाहेगी?“ माँ ने संयत हो पूछा था।
”आपके कोई बड़े-बुजुर्ग होंगे, उनकी राय ले लीजिए-जितनी जल्दी सम्भव हो........... हमें कोई असुविधा नहीं होगी।“
अचानक पास वाले कमरे से अजीब-सी गों.........गों.... की आवाज आयी थी। रजत के माता-पिता चैंक उठे थे। माँ तनिक असहज हो उठी थीं- ”मेरा बेटा है, जन्म से अभागा है.......“ बीच में माँ रूक गयी थीं।
”क्या हुआ आपके पुत्र को? रजत के पिता शंकित दिखे थे।
”“अभागे को भगवान ने जन्म से आँख-कान नहीं दिये हैं........ “
”ओह माई गाँड...... उसकी केयर कौन लेता है? में आई हैव ए लुक आँफ हिम?“ रजत के पिता अस्थिर से थे।
और उस मानवाकृति को देख रजत के माता-पिता के चेहरों पर वितृष्णा आ गयी थी।
”आपको तो इसके लिए पूरा समय देना होता होगा मिसेज कुमार? आपकी फेमिली में कोई और ऐसा है जो इसका दायित्व ले सके?“
इस कटु प्रश्न के उत्तर में सहजता से माँ ने कह दिया था- ”जब तक मैं हूँ, किसी अन्य की आवश्यकता नहीं, मेरे बाद इसकी बड़ी बहिन है......... उसे ही निर्णय लेना होगा।“
”ठीक है, हम आपको भोपाल जाकर पत्र लिखेंगे।“
भोपाल से रजत का पत्र आया था - अपने जीवन से जुड़ा इतना बड़ा सत्य तुमने मुझसे छिपाये रखा ... क्यों आकांक्षा? काश ये सत्य तुमने पहले ही बता दिया होता। माँ-पापा इस बात को गले से नीचे नहीं उतार पा रहे हैं कि तुमने मुझे सब कुछ जानते-समझते अंधकार में रखा। उनकी भावनाएँ भी समझने की कोशिश करना आकांक्षा अन्ततः वे मेरे जन्मदाता है। वे कैसे इस बात पर विश्वास करें कि जिस प्रेम-विवाह का आधार ही झूठ पर टिका है, वह चिरस्थायी हो सकेगा? मैं विवश हूँ...... काश हम कभी न मिले होते.....
---रजत
पत्र की एक-एक पंक्ति मानो आकांक्षा को उलाहना दे रही थी....... झूठी है वह, अपने स्वार्थ के लिए उसने धोखा दिया......... उस रजत को, जिसके प्रथम स्थान के लिए उसने अपना प्रिय विषय फिजिक्स तक छोड़ने का निर्णय ले लिया था। आज उसी रजत ने उसे स्वार्थी ठहराया था। सिर धुनकर रोने की इच्छा मन में दबाये, घर में घुसती आकांक्षा को भाई की गों-गों सुनाई पड़ी थी। उस आवाज को सुनते ही आकांक्षा क्रोध में पागल-सी हो उठी थी। माँ बाथरूम में थी। खुले नल की तेज आवाज से भाई की विकृत कंठ-ध्वनि दब गयी थी। क्रोधावेश में जोर लगाकर भाई के शरीर को बलपूर्वक खींचकर, आकांक्षा ने धरती पर पटक-सा दिया था। औंधे मॅंुह धरती पर गिरे भाई की कंठ-ध्वनि अचानक मौन हो गयी थी। आकांक्षा का उस ओर ध्यान भ नहीं गया था। उसी आवेश में द्वार खुला छोड़ आकांक्षा बाहर चली गयी थी। कहीं किसी एकान्त की खोज में, लाइब्ररी के एक कोने में बैठ, आकांक्षा रो पड़ी थी। घंटो बाद पुस्तकालय के उस एकान्त कोने में बैठी आकांक्षा को पड़ोस के लड़के ने खोजकर खबर दी थी-”जल्दी घर चलिए दीदी -आपके भाई नहीं रहे..... वे पलंग से नीचे गिर गये थे, डाँक्टर कहते हैं नीचे गिरने से उनकी गर्दन की हड्डी टूट गयी थी........“
”क्या.........? आकांक्षा स्तब्ध रह गयी थी।“
स्वप्नवत् आकांक्षा घर पहुँची थी। माँ का रो-रो के बुरा हाल था। पड़ोस की स्त्रियों ने आकांक्षा के जर्द पड़े चेहरे पर दया की दृष्टि डाल रोना शुरू किया था- ”हाय बिटिया......तेरा भइया चला गया रे....“
आकांक्षा मानो इस संसार में ही नहीं थी- अनजाने में वह क्या कर बैठी? कई दिनों तक निःशब्द पड़ी आकांक्षा को माँ ने समझाना चाहा था- ”ऐसे मन छोटा करने से कैसे चलेगा कांक्षी? बेटी, हमारे भाग्य में उसका इतने ही दिनों का साथ था।“
”माँ...... आँ.....“ माँ के आँचल में मॅुंह छिपा आकांक्षा सिसक-सिसक के रो पड़ी थी।
”ना बेटी ना.... उसके हित में तो जाना ही ठीक था। तू क्यों रोती है- अभी तेरी माँ जीवित है बेटी.........“ आँचल से उसके आँसू पोंछती माँ भी रो पड़ी थीं।
”माँ मैंने ही उसे मार दिया.........“
”छिः, क्या कहती है कांक्षी....... वो इस तरह जरा-सी देर में पलंग के नीचे आ गिरेगा और झटके से गर्दन टूट जायेगी, कौन जानता था बेटी। जरा नहाने ही तो घुसी थी- हाँ, शायद तू घर का द्वार खुला ही छोड़ गयी थी कांक्षी?“
माँ से लाइब्रेरी जाने की बात कहकर ही तो आकांक्षा घर से जरा दूर पहुँची थी कि पोस्टमैन ने वह पत्र उसे थमाया था। लाइब्रेरी जाने का साहस कहाँ रह गया था। वापिस घर पहुँच उसने अपनी चाभी से ही तो द्वार खोला था। द्वार भेड़ते ही लाँक हो जाया करता था। माँ-बेटी दोनों ही पर्स में द्वार की चाभी अवश्य रखती थीं। काश, उस दिन वह चाभी पर्स में न मिलती पर..........
कई बार आकांक्षा ने चाहा था, माँ को उस सत्य से परिचित करा दे किन्तु साहस ने कभी साथ नहीं दिया। अपने पुत्र की हत्यारिन को क्या माँ क्षमा कर, अपना स्नेह दे सकेंगी?
उस घटना के बाद से कितनी रातें उसने जाग कर बिताई थीं, कितनी बार सोते-सोते वह अचानक चिल्ला कर जाग उठती। माँ उन बातों को उसके दिल पर लगा सदमा ही मानती रहीं। अपने आपसे उसे डर लगने लगा था न जाने कब, कहाँ वह सत्य उसके मुख से न निकल जाए? भाई की मृत्यु ने उसे सामान्य नहीं रहने दिया था।
माँ ने रजत के विषय में पूछना चाहा था- ”यहाँ से जाकर उन्होंने कोई पत्र नहीं डाला..... तू रजत को लिखकर पूछती क्यों नहीं कांक्षी?“
”क्या पूछॅंू माँ..... तुम्हें अकेला कैसे छोड़ सकुँगी मैं?“
”अरे पगली, मेरी किस्मत में जो है झेल लुँगी, तू क्यों मेरे लिए अपना जीवन नष्ट करेगी। रजत अच्छा लड़का है। तेरा विवाह कर मैं किसी आश्रम में जा बसॅंूगी।“
”नहीं माँ...... मेरी शादी की बात कभी मत करना। इस जीवन में वह सम्भव नहीं।“
”तेरे और रजत के बीच कोई बात हुई है बेटी?“
”यही समझ लो..........“
”मुझे नहीं बतायेगी बेटी?“
”नहीं माँ...... वो बात नितान्त मेरी अपनी है।“ जन्मदात्री माँ को कैसे बताती, उसके स्वर्गवासी पुत्र के कारण ही बेटी का जीवन नष्ट हो गया था।
कितनी बार उसने रजत को अपने घर-परिवार के बारे में बताना चाहा था, पर हमेशा उसने यही कहकर टाल दिया था- ”तुम मेरी आकांक्षा हो, तुमसे जुड़े, जो तुम्हारे अपने हैं, वे भी मेरे हैं।“ वही रजत उसे धोखेबाज की संज्ञा दे, त्याग गया था।
आकांक्षा अपने से डरने लगी थी। रात में माँ को शान्ति से सोते देख आकांक्षा उद्विग्न हो उठती। अगर माँ को सच्चाई पता चल जाये, तब भी क्या वह उसे प्यार से यूँ चिपटा निद्र्वन्द्व सो सकेगी?
भाई की जिस गों......गों ........... की आवाज से हव घृणा करती आयी थी। रात के गहन सन्नाटे में अब वह निरन्तर वही सुनती रहती थी।
न जाने अन्त में उसे कितना कष्ट हुआ होगा? कभी-कभी अपने को दंडित करने के लिए आकांक्षा, गर्मियों की तिलमिलाती धूप में यूनीवर्सिटी से घर तक पैदल आती, बदहवास हो उठती थी। अपराध-बोध उस पर कभी इस हद तक हावी हो उठता कि माँ शंकित हो उठती।
”तुझे क्या हो गया है कांक्षी, खाने-पीने की सुध भी नहीं रहती..... क्या सोचती रहती है मेरी बच्ची?“
”माँ...... भाई के बिना तेरा सब कुछ खत्म हो गया न?“ उदास आकांक्षा माँ के निष्प्रभ मुख पर दृष्टि जमा देती थी।
”सच कहूँ कांक्षी....... उसके हक में तो चला जाना ही ठीक था...... पर माँ हूँ न, लेकिन तूने ये कैसी बात कह दी बिटिया ...... मेरा सब कुछ अब तू है कांक्षी। भगवान तुझे सुखी रखें।“
विभाग में कार्य करती आकांक्षा अचानक गलतियाँ कर जाती। विभागाध्यक्ष विस्मित होते उस प्रतिभाशाली लड़की से ऐसी त्रुटि?
”कहाँ खो गयी हो आकांक्षा?“
”साँरी सर।“ आकांक्षा जैसे अचानक जाग उठती।
”क्या बात है, माँ तो ठीक हैं न?“
”जी सर...........“
”ऐसा लगता है, तुम अपना आत्मविश्वास खो रही हो- क्यों आकांक्षा?“
”पता नहीं क्यों सर मुझे हमेशा डर लगता है...........“
”किस बात का डर आकांक्षा ...............“
आकांक्षा मौन रह गयी थी।
घर में माँ से आकांक्षा कभी बचकाने प्रश्न पूछ बैठती- ”माँ अगर कोई पाप करे तो क्या उसे सचमुच नर्क में दंड मिलता है?“
”हाँ बेटी...... मैं भी तो नर्क भोग रही हूँ, न जाने क्या गलती की थी...........“
”पर माँ तूने तो कोई गलती नहीं की...... दंड तो मुझे मिलना चाहिए।“
”छिः मेरी बच्ची, भगवान तुझ पर दयालु रहे। दुखों का साया भी तुझ पर न पड़े।“ माँ भयभीत हो उठती।
उस दिन पास के घर में पुलिस आयी थी।
”देख तो कांक्षी गिरजा ताई के यहाँ पुलिस क्यों आयी है?“
”मैं नहीं जाऊॅंगी माँ.....“
”अरे वो तेरी बूढ़ी ताई हैं। परेशानी में हमें उनका साथ देना चाहिए न। चल मेरे साथ।“
माँ आकांक्षा का हाथ पकड़ गिरजा ताई के घर ले गयी थीं। गिरजा ताई का हृदय-दावक रूदन सुन आकांक्षा सिहर गयी थी। पड़ोसियों ने सूचित किया था- ”बेचारी की एकमात्र बेटी जल कर मर गयी।“
”अरे जल कर नहीं जलाकर मार दी गयी है।“ दूसरा पड़ोसी फुस-फुसाया था।
”हाय मेरी बेटी......रे....... कहाँ से पाऊॅंगी मैं अपनी लाड़ली ........रे ........“
गिरजा ताई को सम्हाल पाना कठिन था। आकांक्षा सामान्य न हो सकी थी।
दो दिन बाद पुलिस इंस्पेक्टर माँ के पास भी आया था। द्वार खोलती आकांक्षा इंस्पेक्टर को देख एकदम पीली पड़ गयी थी। झटके से द्वार बन्द कर वापिस भाग, उसने कमरा बन्द कर लिया था।
इंस्पेक्टर द्वारा पुनः द्वार खटखटाने पर माँ ने द्वार खोला था।
”ये क्या आकांक्षा ...... इंस्पेक्टर देख तू इस कदर डर क्यों गयी थी? क्या सोचा होगा उसने?“ माँ स्पष्टतः रूष्ट थीं।
”मुझे डर लगता है माँ.....................“
”किस बात का डर? तू मुझसे कुछ छिपाती है कांक्षी। कहीं रजत के साथ कुछ गलती तो नहीं कर दी?“ माँ चिन्तित हो उठतीं। कहीं अनजाने में लड़की से कोई अपराध तो नहीं हो गया।
पिता के मित्र विभागाध्यक्ष ने भी आकांक्षा की माँ से उसके प्रति चिन्ता व्यक्त की थी- ”न जाने क्यों आकांक्षा सामान्य नहीं लगती। घर में सब ठीक तो है न?“
”जी हाँ, शायद भाई की मृत्यु और रजत से अलगाव इसकी वजह हो।“
”सोचता हूँ स्थान-परिवर्तन आकांक्षा के लिए अच्छा रहेगा।“
”विवाह के लिए तो वह तैयार ही नहीं होतीकृकहाँ भेजॅंू उसे? आप तो पूरी स्थिति जानते ही हैं।“ माँ के नयन भर आये थे।
”आप परेशान न हों, मैं पूरी कोशिश करूँगा.....“ विभागाध्यक्ष ने माँ को आश्वासन दिया था।
कुछ ही दिनों बाद विभागाध्यक्ष ने अचानक आकांक्षा को बुलाकर कहा था- ”तुम्हारा रिसर्च-वर्क कैसा चल रहा है आकांक्षा?“
”दो एक्सपेरिमेंट्स के रिजल्ट्स ठीक नहीं आये हैं सर।“
”मुझे लगता है किसी वजह से तुम काम में पूरी तरह इन्वाँल्व नहीं हो पा रही हो?“
”मैं पूूरी कोशिश करूँगी सर, आपको शिकायत का मौका न दें..............“
”संयुक्त राज्य की दो छात्रवृत्तियाँ आयी हैं, अगर तुम इंटरेस्टेड हो तो मैं तुम्हे नाँमिनेट कर सकता हूँ।“
”माँ से पूछ कर बताऊॅंगी सर।“
माँ ने सहर्ष स्वीकृति दे दी थी।
”नयी जगह जाकर तू इस हादसे को भुला सकेगी कांक्षी। तू चली जा।“
”पर तुम अकेली पड़ जाओगी माँ?“ आकांक्षा चिन्तित थी।
”मेरी चिन्ता छोड़। अपने घर में तेरी दीपा मौसी को रख लुँगी। दोनों अकेली जान आराम से रह लेंगी।“ दीपा सान्याल माँ की घनिष्ठ मित्र और उसकी मॅंुहबोली मौसी थीं।
आकांक्षा को सितम्बर के अन्त तक न्यूयार्क पहुँच जाना था। दीपा मौसी ने ही अपनी बहिन के लड़के अक्षत को पत्र लिखा था कि वह एयरपोर्ट पर उसे रिसीव कर ले।
कैनेडी एयरपोर्ट पर उतरी आकांक्षा घबरा-सी गयी थी। इस भीड़ में उस अपरिचित को कैसे पहिचानेगी। कस्टम आदि से निबट, बाहर आती आकांक्षा की दृष्टि सामने खड़े युवक के हाथ में कड़े गये प्लेकार्ड पर पड़ी थी। बड़े स्पष्ट अक्षरों में उसका नाम उभर आया था- ”आकांक्षा“।
उसके निकट जा धीमे से आकांक्षा ने कहा था- ”आकांक्षा“।
”थैंक्स गाँड, आप सचमुच किसी की भी आकांक्षा हो सकती हैं। मैं अक्षत....... दीपा मौसी का लाड़ला भानजा। आइये!“
शालीनता से पीछे हट उसने आकांक्षा के लिए राह दी थी।
बाहर खड़ी अनगिनत कारों की संख्या देख आकांक्षा विस्मित हो उठी थी। कार की चाबी से द्वार खोल, अक्षत ने आकांक्षा को बैठने के लिए आमंत्रित किया था। कार तीव्र गति से भाग चली थी। साथ भाग रहे दृश्यों को देख आकांक्षा मुग्ध हो उठी थी। पूरे रास्ते अक्षत रनिंग केमेंट्री देता गया था। एक रेस्ट्रांँ के सामने कार रोक अक्षत ने कहा था- ”आइए कोल्ड डिंªक ले लें - फिर आपको होस्टेल पहॅुंचा दूँगा।“
”नहीं-नहीं, पहले होस्टेल ही जाना चाहूँगी। अभी प्लेन में इतना सब दिया गया कि कुछ और ल पाने की गुजाइश भी नहीं है।“
”श्योर? कोल्ड ड्रिंक भी नही चलेगा?“
”न................“
”ऐज यू विश ...............“ अक्षत ने कार उसके होस्टेल के सामने ही लाकर रोकी थी। सामान उठाते अक्षत को देख वह झिझक गयी थी।
”आप रहने दें, मैं ले जाऊॅंगी।“
”आप लकी हैं मिस, जो बोझा उठाने ये गुलाम हाजिर है, वर्ना यहांँ अपने काम के लिए अपने दो हाथें पर ही निर्भर रहना होता है। कुछ दिनों में जान जाएँगी यहाँ महिलाओं को पुरूषों से विशेष मद्द नहीं मितली है, मिस आकांक्षा।“
”थैंक्यू- आप मुझे सिर्फ आकांक्षा ही पुकारें अक्षत जी।“
”फिर मैं क्यों अक्षत जी कहलाऊॅं? अच्छा-भला-सा नाम है- अक्षत -चाहकर भी मेरा नुकसान नहीं कर सकेंगी आकांक्षा।“ दोनों हॅंस पड़े थे।
अक्षत के वहाँ रहने से सब कुछ कितना आसान हो गया था। डिपार्टमेंट में पहॅंचाकर अक्षत ने ही समझाया था। अमेरिकन भोजन उसे अप्रिय लगा तो अक्षत ने समझाया था- ”एक पार्टनर के साथ अपार्टमेंट लेना ठीक रहेगा, वहाँ अपने मन का खाना भी बना सकती हो और होस्टेल के मुकाबले अपार्टमेंट सस्ता भी पडे़गा।“
अक्षत के प्रयासों से ही पिछले छह माह से आकांक्षा एक दक्षिण भारतीय लड़की के साथ अपार्टमेंट शेयर कर रही थी। अक्षत पर आकांक्षा कितना निर्भर करने लगी थी। एक दिन अक्षत हॅंस पड़ा था- ”कभी तुम्हारे साथ रहते लगता है, विवाह के पहले ही उत्तरदायी पति बन गया हूँ।“
”छिः ...ठीक है...... अब कभी कोई काम करने को नहीं कहूँगी।“ आकांक्षा रूष्ट हो गयी थी।
”फिर तो मुश्किल है, अपनी आदत ही हुक्म बजा लाने की पड़ गयी है। तुम अगर आर्डर नहीं दोगी तो बेमौत मर जाऊॅंगा।“
आकांक्षा उसकी नाटकीय मुद्रा पर हॅंस पड़ी थी। जो भी हो, अक्षत के कारण भारत में रह रही माँ को आकांक्षा को भी चिन्तामुक्त कर गया था। इस शांतिपूर्ण जीवन में आज अचानक ये उद्वेलन क्यों?
काँल-बेल बज रही थी। मुश्किल से उठकर आकांक्षा ने द्वार खोला तो अक्षत को व्यग्र खड़ा पाया।
”कैसी हो आकांक्षा? मैं काम में काँन्संट्रेट नहीं कर पा रहा था, इसीलिए चला आया।“
”ठीक हूँ अक्षत-थैंक्स।“
”पर तुम्हारा चेहरा तो दूसरी ही कहानी कह रहा है। मुझसे सच नहीं बताओगी आकांक्षा? यहाँ हम एक-दूसरे के सहारे ही तो रहते हैं, तुम्हारा कष्ट जाने बिना, दूर कैसे कर सकता हॅँू।“
अक्षत की वाणी में न जाने क्या था ......... आकांक्षा अपने हाथों में मॅंुह छिपा रो पड़ी थी। प्यार से आकांक्षा का सिर वक्ष से सटा, उसके केश सहलाता अक्षत मौन खड़ा रह गया था। रोते हुए आकांक्षा ने उस कटु सत्य की कहानी टूटे-फूटे शब्दों में सुना डाली थी। आज अक्षत के साथ जार में रखे उस नमूने ने उसे सब याद दिला दिया था।
”मैं हत्यारिन हूँं......... अपराधिनी हूँ.....अक्षत......... मैं क्या करूँ?“
वो कहानी सुन अक्षत स्तब्ध रह गया था। बहुत देर निर्वाक बैठे अक्षत को ताक, आकांक्षा ने कहा था- ”मुझे पुलिस में दे दो अक्षत ...... मैंने उसकी हत्या की है..........“
”तुम्हें दंड दिलाकर, तुम्हारी माँ को क्यों दंडित करूँ? आकांक्षा“
आकांक्षा की प्रश्नभरी दृष्टि के उत्तर में अक्षत ने कहा था- ”उत्तेजना में भाई को धक्का देते समय तुम सामान्य नहीं थी। क्रोधावेश में व्यक्ति पागल हो जाता है। सच कहो, क्या तुमने सोचा था तुम उसकी हत्या कर रही थीं?“
आकांक्षा ने नकारात्मक सिर हिलाया था- ”वो एक दुर्घटना थी आकांक्षा, भाई-बहिन लड़ते समय एक-दूसरे को धक्का देते हैं - शायद यह भी वैसी ही एक घटना थी, पर इसका अन्त त्रासदीपूर्ण था।“
आकांक्षा को मौन पा, अक्षत ने आगे कहा था- ”यही सच है आकांक्षा ....... मैं यह नहीं कहता तुमने गलती नहीं की, एक असहाय के प्रति तुम्हारा क्रर व्यवहार गलत था। पर इस गलती का दंड तुम्हारा भयंकर अन्तर्दाह रहा है। क्या इतने दिनों तुम कभी शांति की नींद सो सकीं?“
”नहीं अक्षत, हमेशा मेरा अपराध-बोध मुझे झकझोरता रहा.........“
”शायद इसीलिए कई बार मेरे साथ भी तुम अचानक असहज हो जाती थीं.............“
”तुम जब भी मानव-विकृति की बात करते थे अक्षत, मेरा अतीत मुझे अपराधी ठहरा, मुझे असहज बना जाता था। कई दिनों के लिए मैं असामान्य हो जाती थी अक्षत..............“
”कई बार मैंने सोचा क्यों तुम्हें उन बातों से इस कदर वितृष्णा थी? विकलांगता घृणा की वस्तु नहीं है आकांक्षा।“
”सच कहूँ अक्षत, यहाँ आकर विकलांगता के प्रति मेरा जीवन-दर्शन ही बदल गया है। इस देश में वे कितने सहज, आत्मविश्वास से परिपूर्ण जीवन जीते हैं। प्रत्येक व्यक्ति उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण है। हर जगह उनकी सुविधा का ध्यान रखा जाता है............“
”अगर आज तुम्हारा भाई जीवित होता तो आकांक्षा?“
”मैं उसे अपना दायित्व स्वीकार कर, माँ को सनतोष देती अक्षत............“
”अब क्या करोगी आकांक्षा?“
”अपनी भूल का परिष्कार करना चाहूँगी अक्षत। मैं भारत लौट रही हूँ।“
”क्यों?“
”उनकी सहायता में जीवन अर्पित करना चाहॅूंगी अक्षत, जिन्हें सहारे की आवश्यकता है।“
”मैं भी तुम्हारे साथ का प्रत्याशी हूँं आकांक्षा?“
”तुम समर्थ हो अक्षत, मेरे गुरू हो......... तुम विकृति को सुकृति में बदल सकोगे, मुझे विश्वास है।“
”गुरू-दक्षिणा दोगी आकांक्षा?“
”तुम माँग कर तो देखो अक्षत, मेरा सब कुछ तुम्हारा है।“
”ठीक है, यहाँ की पढ़ाई पूरी करके हम दोनों साथ भारत वापिस लौटेंगे। वहाँ तुम अपने निर्णय को साकार कर सकोगी आकांक्षा।“
”तुम मेरे साथ चलोगे, ये सब जानकर तुम मुझसे घृणा नहीं करते अक्षत?“
”स्वंय गलती स्वीकार करने के बाद, अपराधी से घृणा करना पाप है आकांक्षा, तुमने जो सत्य किसी के सामने नहीं स्वीकारा, वो मेरे समक्ष क्यों स्वीकार किया, बता सकती हो आकांक्षा?“
निरूत्तरित आकांक्षा के मुख पर आयी लट को प्यार से सॅंवारते अक्षत ने कहा था- ”क्योंकि तुम मुझसे बेहद प्यार करती हो, मुझ पर अगाध विश्वास रखती हो। ठीक कहा न?“
”.......... शायद......“ आकांक्षा को उत्तर नहीं सुझ रहा था।
”अपने अन्तर के बन्दी अपराधी को मुक्त करने का समय आ गया है। आकांक्षा, चलो कहीं बाहर चलते हैं, मन शांत हो जाएगा।“
”अब कहीं बाहर जाकर मन की शांति खोजने की जरूरत नहीं रही अक्षत। तुमने मेरे अन्तर की वेदना समझी है। आशीर्वाद दो, मेरी यही अन्र्वेदना मेरे भाई जैसे असहायों को अपनी स्नेह-धार से आप्लावित कर सके। तुम मेरे गुरू हो अक्षत.............“
अक्षत की चरण-धूलि लेने को झुकती आकांक्षा को अक्षत ने उठाकर अपने हृदय से लगा लिया।
No comments:
Post a Comment