12/3/09

चम्पा का कर्ज

पेड़ की ऊंची डाल से चिपकी चम्पा नीचे का कोलाहल देख-सुन भय से काँप रही थी। पीठ पर बॅंधा पप्पू न जाने कब शोर से जाग जाये। लालटेन लिये सेठ के आदमी उसकी खोज कर रहे थे।


”यहां भी नहीं है, क्या जमीन लील की?“ हरखू कह रहा था।

”उधर मैदान का चप्पा-चप्पा छान मारा, कहाँ गयी।“ रामलाल झुँझला उठा था।

”भागने को यही सर्दी का मौसम मिला था स्साली को? ठंड से हाथ-पाँव सुन्न हो गये।“ केहरसिंह के क्रोधित स्वर पर चम्पा को कॅंपकॅंपी आ गयी थी।

”मेरी मानो, वहीं कहीं खेत में छिपी बैठी होगी। बच्चे के साथ इतनी दूर भाग कर आना आसान बात नहीं है।“ हरखू थक-सा गया था।

”ना मिलने पर सेठ हमारी खाल उधेड़ देगा। पूरा जल्लाद है साल्ला।“ रामलाल ने घृणा से जमीन पर पिच्च से थूक दिया था।

तीनों वापिस लौट चले थे। उस सर्दी में भी चम्पा के माथे पर पसीना चुहचुहा आया था। तीनों के दूर चले जाने का आभास पा, चम्पा ने पेड़ से नीचे अतरना शुरू किया था। चढ़ते समय उसे पता भी न लगा, उतनी ऊूंचाई पर वह कैसे पहुँच गयी थी। उस समय तो पीछे से आती आवाजें ओर पग-चापों से बच पाने का यही एक तरीका सूझ पड़ा था।

पाँव तले धरती का ठोस स्पर्श होते ही चम्पा के सामने सच उजागर हो आया था। खाली हाथ तीनों के वापिस पहुँचने को क्या सेठ आसानी से स्वीकार कर सकगा? तुरन्त और दस आदमी दौड़ाए जाएँ, उससे पहले चम्पा को स्टेशन पहुँच जाना है।

पीठ पर चिपके पप्पू को धोती से और कस के बाँध चम्पा दौड़ पड़ी थी। स्टेशन तक की दूरी तय करती चम्पा हाँफ उठी थी। सामने आती रोशनी देख स्टेशन पहुँचने का भान हो आया था। जन शून्य स्टेशन देख, चम्पा आश्वस्त -सी हो उठी थी। गले के नीचे नल का ठंडा पानी उतरते ही चम्पा फिर डर से काँप उठी थीं तभी लाइन-मैन ने घंटी बजा गाड़ी आने की सूचना दी थी। गाड़ी रूकते ही सामने आये डिब्बे में चम्पा चढ़ गयी थी। भगवान की किरपा कम्पार्टमेंट का दरवाजा खोल तभी कोई नीचे उतरा था। बदहवास चम्पा सिर तक आँचल खींच, गठरी-सी बन, खुले अपार्टमेंट में नीचे ही बैठ गयी थी। साँस घौंकनी-सी चल रही थी। बहते आँसू पोंछने की भी उसे सुध नहीं रह गयी थी।

”वहाँ नीचे क्यों बैठी हो, आओ यहाँ बैठ जाओ।“

उस मिश्री से बोल पर चम्पा ने सिर उठा ताका था। सामने की बर्थ पर बैठी स्त्री उसे स्नेह से निहार रही थी।

चम्पा के अचकचाए मुँह को देख उसने फिर साहस दिया था- ”क्या बात है? क्या घर से झगड़ा करके आयी हो?“

चम्पा बस ‘न’ में सिर भर हिला सकी थी। स्त्री के साथ वाला नीचे उतरा पुरूष भीतर आ गया था।

”क्या गजब की सर्दी पड़ रही है। हाथ-पाँव सुन्न होने लग रहे हैं। सोचा था शायद गर्म चाय का एक कप मिल जाये पर यहाँ तो जैसे कोई रहता ही नहीं।“

”स्टेशन पर कितना सन्नाटा है अरविन्द। क्या रात में कोई सफर ही नहीं करता।“ स्त्री ने पुरूष से प्रश्न किया था।

”आजकल छोटे गाँव के स्टेशनों पर सुबह भीड़ होती है- काम के लिए शहर जाना होता है। रात में तो हम जैसे परदेसी ही सफर की हिम्मत रखते हैं।“

”सच क्या से क्या हो गया। अपने ही घर में हम इतना डरते हैं।“

”हू इज दिस वुमन? कहाँ जा रही हो बहिन?“ अरविन्द ने चम्पा की ओर देख पूछा था।

चम्पा अपने आप में और सिमट गयी थी।

”डरो नहीं, हमें सब बता दो, हम तुम्हारी मदद करेंगे। आओ यहाँ मेरे पास बैठ जाओ। फर्श ठंडा होगा।“ चम्पा को एक तरह जबरन ही पूर्णिमा उठा सकी थी।

पीठ पर बॅंधा पप्पू कुलमुला उठा था। रोते बच्चे को पीठ से खोल चम्पा ने गोद में ले लिया था। बच्चा रोता ही जा रहा था।

”हे भगवान, इस सर्दी में बच्चे को कोई ऊनी कपड़ा भी नहीं पहनाया? ठंड लग गयी तो?“ बात पूरी करती पूर्णिमा की दृष्टि चम्पा के जर्द पड़े चेहरे पर पड़ी थी। ”अरविन्द वी हैव टू डू सकथिंग। आई थिक शी इज इन टेरिबल ट्रबल।“ (अरविन्द हमें कुछ करना होगा, लगता है यह बहुत मुश्किल में है।)

”अगले स्टेशन पर देखूँगा शायद गर्म चाय मिल सके।“

”इस ट्रेन में फस्र्ट क्लास में चलना ही गलती थी हमारी..........“

चम्पा को एक चादर देती पूर्णिमा ने दिलासा-सा दिया था- ”यह चादर ओढ़ा दो, बहुत सर्दी है। बच्चा ठंडक खा जायेगा।“

”नहीं........ रहने दें।“ बस इतना कहती चम्पा की आँखों से आँसुओं की धार बह चली थी।

”अरे....... रे....ये क्या ...... बच्चे की जान से क्या ये चादर बड़ी है?“ जबरदस्ती चम्पा के चारों ओर पूर्णिमा ने वह मोटा बेडकवर लपेट दिया था।

दूसरे स्टेशन पर गाड़ी रूकते ही अरविन्द उतरने को तत्पर था। इस स्टेशन पर अपेक्षाकृत जीवन के कुछ लक्षण परिलक्षित थे। उतरते अरविन्द के हाथ में पूर्णिमा ने फ्लास्क थमा दिया था।

”देखो अगर दूध मिल जाए तो लेते आना। बच्चा न जाने कब से भूखा है।“ पूर्णिमा के स्वर में मातृत्व छलक आया था।

पूर्णिमा को दो कम चाय पकड़ाते अरविन्द ने सूचित किया था- ”ट्रेन यहाँ पाँच-सात मिनट रूकेगी, देखता हूँ, शायद दूध मिल ही जाये।“

”लो चाय पी लो, तबियत सम्हलेगी। तुम्हारा नाम क्या है?“

”चम्पा..............“

”वाह, बड़ा प्यारा नाम है। कुछ पढ़ी-लिखी हो चम्पा?“

”सात क्लास तक पढ़ी हूँ, दीदी जी...........“

”इस समय कहाँ से आ रही हो?“

चम्पा के चेहरे पर आतंक छा गया था। निरूत्तरित चम्पा को साहस देती पूर्णिमा ने फिर कहा था- ”डरो नहीं चम्पा। मुझे दीदी कहा है, मैं तुम्हारी मदद करूँगी। मेरे रहते तुम्हें कोई परेशान नहीं कर सकता। अपनी पूरी बात मुझे बताओगी चम्पा?“

”क्या बताऊं, दीदी.........? मर जाती तो अच्छा था, पर इस बच्चे का मुँह देख जीना पड़ रहा है।“

”ये लो थोड़ा दूध ले आया हूँ, बच्चे को दे दो।“ पूर्णिमा को फ्लास्क थमाते अरविन्द ने कहा था।

”लो चम्पा, बच्चे को दूध पिला दो।“

”आप कितनी अच्छी हैं दीदी जी, आपका अहसान कैसे चुका।ऊंगी?“

”अहसान कैसा चम्पा? मुसीबत में दूसरों की सहायता करना इन्सान का फ़र्ज होता है।“

पप्पू दूध गटगट पी गया था। दूध पीते ही जैसे वह शक्ति पा गया था। चंचल आँखों से इधर-उधर ताकते पप्पू को पूर्णिमा प्यार से निहार रही थी।

”इसका बाप कहाँ हैं चम्पा? यह गोरा-चिट्टा बेटा तेरा ही न?“ कहीं से उड़ाकर तो नहीं ले आयी?“ स्वर में परिहास खनक उठा था।

”यह मेरा बेटा है दीदी सिर्फ मेरा। इसे मैंने जन्म दिया है बस।“

”इसके बाप से इतनी लड़ाई कर डाली चम्पा कि उसका नाम भी नहीं बतायेगी।“

”पूर्णिमा मैं ऊपर सोने जा रहा हूँ जरा ब्लैंकेट तो देना।“ पूर्णिमा से कम्बल ले अरविन्द ऊपर की बर्थ पर सोने चला गया था। फस्र्ट क्लास के उस कूपे में चम्पा की उपस्थिति से उनकी स्वतन्त्रता में बाधा आ गयी थी, पर आश्चये कि दोनों में से किसी ने भी इस बाधा के कारण रोष प्रकट नहीं किया था।

”अब बता चम्पा, इसके बाप को कहाँ छोड़ आयी है?“

”अगर इस अभागे को बाप का नाम मिल पाता तो हजार दुख सहकर मैं वहाँ रह जाती, दीदी.....“

”क्या मतलब?“

”कैसे बताऊं, दीदी..........“

”मैं भी औरत हूँ, जानती हूँ औरत किस तरह मजबूर की जाती है। मुझसे अपना दुख मत छिपा, चम्पा।“

”लम्बी कहानी है दीदी, पूरे पाँच बरस बीत चुके हैं...........“

”शहर से तीस मील दूर झिंझर गाँव में हमारा घर था। शराबी बाप ने हमारी कभी सुध नहीं ली। माँ किसी तरह लकड़ी-पत्ते बटोर, हाट में बेच हमारा पेट भरती रही। सब से बड़ी मैं और उसके पीछे पाँच भाई-बहिनों की जमात। सब को एक ही बीमारी ....... बहुत भूख लगती थी हम सबको।“

”दस साल की उमर से अम्मा का बोझ उठाने लगी थी। अम्मा के साथ लकड़ियाँ बीनना, घर में चूल्हा जलाना, भाई-बहिनों का पेट भरना, साथ ही पीठ पर कोई न कोई छोटा भाई-बहिन बॅंधा ही रहता। एक दिन नशे में धुत्त बाप के साथ एक जवान औरत आ खड़ी हुई थी, उस समय मेरी उमर तेरह साल रही होगी। बाप ने बीमार माँ को डपट कर आवाज दी थी- ‘ये लक्षमनिया, कहाँ मर गयी, मेहमान को चाह बनाकर ला।’“

”‘कैसी चाह? कहाँ से लाऊं चाह? चार दिनों से बीमार पड़ी हूँ। बच्चों के मुँह में दाना तक नहीं गया। जड़-पत्ते उबाल कर पेट की भट्टी भर रहे हैं। कौन है ये छेल-छबीली?’ मुश्किल से माँ कह सकी थी।“

”‘जवान लड़ाती है स्साल्ली। निक इस घर से, आज से इस घर में यह रहेगी। निकल अपने इन पिल्लों के साथ्...........’“

”बाप ने बीमार माँ को झटके से उठा खड़ा किया था। हम सब रोने-चिल्लाने लगे थे। अपना बाप राच्छस लग रहा था दीदी जी। जी चाहा था, उस औरत का खून पी सकती। क्रोध में माँ ने उस औरत के केश पकड़ने की गलती भी कर डाली। उसके बाद बापू ने हमें वहाँ एक पल भी ठहरने नहीं दिया था। जानवरों-सा खदेड़ दिया था हमें। घर के बाहर बैठना चाहा तो बाप ने माँ को जान से मार डालना चाहा था। भय से हम सब माँ से लिपट गये थे।“

”हमारे बुरे दिनों की कहानी यहीं से शुरू हुई थी दीदी। उस रात पास के घर के बरौठे में बैठ रात काटी थी। गाँव के सभी घरों में वैसी ही हालत थी। -

‘क्यों री लछमनिया, सुना तेरा आदमी दूसरी औरत ले आया है।’“

”माँ ने कपाल पर हाथ मारा था।“

”छिः छिः, अब इन बच्चों का क्या करेगी? सिर के ऊपर छत भी न रही।“

”हमार भाग ही खोटा रहा।“

”भाग्य को दोख देने से पेट तो नहीं भर जायेगा। सिर पर छत तो नहीं पड़ जायेगी। कितने दिन जवान लड़की को ले बाहर पड़ी रहेगी लछमनिया?“

”अब तुम्हीं राह दिखाओ भइया। ये बच्चे तुम्हारे ही हैं, इनकी रच्छाकरो।“

”अब तुमने भाई कहा है तो कुछ-न-कुछ करना ही होगा। ठेकेदार से बात कर देखता हूँ, उन्हें कुछ काम वाली लड़कियाँ शहर ले जानी हैं। तेरी चम्पा के लिए बात कर देखता हूँ। तब तक ये पचास रूपये रख ले, काम आएँगे।“

”तुम देवता हो मोहन भइया पर चम्पा तो अभी बच्ची है। उतनी दूर शहर में अकेली..........?“

”अरे तुम घबराओं नहीं लछमी बहिन। मैं भी तो साथ रहूँगा। फिर चम्पा अब बच्ची नहीं, जवान-समझदार लड़की है। क्यों री चम्पा?“ मोहन की उस दृष्टि ने चम्पा को संकुचित कर दिया था।

”दो निद बाद ही मोहन मिठाई का पैकेट ले आ खड़ा हुआ था।“

”ये ले लछमनिया, बच्चों का मुंह मीठा करा। ठेकेदार मान गया। चम्पा की नौकरी पक्की हो गयी।“

”माँ के साथ भाई-बहिनों के मुंह भी खिल उठे थे। पेट-भर खाना न पाने वालों को मिठाई देखे तो युग बीत चुके थे।“

”पर भइया हमार चम्पा को धियान रखना, बहुत भोली है हमार बिटिया।“

”अरे तू फिकिर न कर लछमनिया, तेरी चम्पा बड़े मजे में रहेगी। फिर तू घबराती काहे हैं, कोई अकेली तो जा नहीं रही है- गाँव से और छोकरियाँ भी तो जा रही है।“

”कितनी पगार मिलेगी भइया।“ माँ का स्वर करूण हो उठा था।

”अरे पगार की चिन्ता काहे करे है लछमनिया। क्यों चम्पा, ठीक कहा न?“

”मोहन की घृष्ट मुस्कान पर चम्पा ने सिर और झुका लिया था।

”जाने के पहले मोहन ने माँ के हाथ पर पचास रूपये और धरे थे। चम्पा को कलेजे से लगा, माँ रो पड़ी थी। छोटा भाई तो उसका आँचल ही नहीं छोड़ रहा था। ट्रक चलते ही रोती चम्पा भाई का नाम ले चीख उठी थी। लगा था, सब कुछ हमेशा के लिए छूटा जा रहा था।“

”मोहन ने चम्पा के गालों पर प्यार से हाथ फिराते दिलासा दिया था झूले में झूलेगी।“ चम्पा के शरीर से सटकर मोहन बैठ गया था। जाने-अनजाने उसके हाथ चम्पा के अंगो का स्पर्श कर जाते थे। कहाँ जाती चम्पा-ट्रक के उस कोने से तिल भर भी आगे बढ़ पाना असम्भव था।

”दो दिन, दो रात ट्रक में बैठे-बैठे बदन अकड़ गया था दीदी। जानवरों की तरह हम हाँके जा रहे थे। आखिर हमारा मुकाम आ पहुँचा था। मोहन चाचा ने गुहार लगाई थी- ‘चलो-चलो, जल्दी नीचे उतरो लड़कियो........ हमें यही रूकना है।’

”एक-दूसरे को ठेलते हम नीचे कूद पड़े थे। चारों ओर सरसों के पीले खेत, सामने मोटी धार से बहता पानी कितना लुभावना लगा था। चाचा ने आवाज दी थी- ‘दस मिनट में हाथ-मुंह धोकर तैयार हो जाना है। सेठ आने वाले हैं। उनको सब हाथ जोड़कर परनाम करना, समझीं!’“

”नये वातावरण, खुली हवा में साँस लेते ही हममें नवजीवन आ गया था। मोहन चाचा एकदम मेरे पास आ बोला था-

‘ऐ चम्पा, तू इधर मेरे साथ आ, उन्हें उधर कुएँ पर जाने दे।’“

”क्यों चाचा? मैं भी उनके साथ जाऊंगी।“

”अरी पगली, उनका और तेरा क्या मुकाबला? तू तो रानी बनने के लिए ही ऐसा रूप और भाग्य लाई है। तू ही बता, तुझ जैसी रूपवती, कद-काठी की कोई दूसरी लड़की है यहाँ? चाचा ने चम्पा के गाल मसल दिये थे।“

”छिः चाचा, हमें ये सब अच्छा नहीं लगता......“ चम्पा रूष्ट हो उठी थी।

”उस बड़े खेत के पीछे उतना बड़ा महल-सा घर खड़ा था। चाचा मुझे वहीं ले गया था। घर का द्वार खटखटाते ही हरखू बाहर आया था।“

”कहो मोहन भाई ........ बड़े दिन लगा दिये। सेठ बड़ी याद कर रहे थे।“

”क्या करूँ, अच्छा माल खोजने में तो समय लगता ही है। हीरा क्या आसानी से पड़ा मिल जाता है हरखू भाई।“

”हूँ....... बात तो ठीक कह रहे हो मोहन सेठ। लाये तो तुम सचमुच हीरा ही हो। सच कहो हीरा कुंआरा है या ....... हरखू ने आँख मींच भद्दा सा इशारा किया था।“

”सेठ के साथ ऐसी गलती की गुस्ताखी कर क्या जान से हाथ धोना है? एकदम नया-ताजा माल लाया हूँ।“

”उन दोनों की बातों से चम्पा का मन घबराने-सा लगा था।“

”मैं और लड़कियों के साथ जाऊंगी चाचा...... मैं उन्हीं के साथ रहूँगी। तुमने तो माँ से यही कहा था चाचा।“ चम्पा के बड़े-बड़े नयन भर आये थे।

”अरे काहे घबरात है चम्पा रानी, आ अन्दर तो चल। कहा न तू दूसरों से अलग है। तू रानी है, वे तेरी दासी हैं।“

”चम्पा का हाथ पकड़ उसे लगभग खींचता-सा मोहन घर के अन्दर ले गया था। कमरे का वैभव देख चम्पा की आँखें फटी रह गयी थी। एक नयी साड़ी हाथ में थमा मोहन ने आदेश दिया था-‘सुन चम्पा रानी, वो सामने नहान-घर है। अन्दर साबुन की बट्टी रखी है। नहा-धोकर ये साड़ी पहिन ले।’“

”ये साड़ी.........?“

”हाँ-हाँ.......अरे ये सब तेरा ही है। एक क्या सेठ जी हजार साडियाँ पहिनाएँगे तुझे बस उनकी बात मानती जा। तेरी महतारी को भी ऐसी साड़ियाँ भेजेंगे हमारे सेठ।“

”बिलाउज तो है ही नहीं चाचा...........“

”अरे क्या गाँव मे तू बिलाउज के साथ ही साड़ी बाँधती थी, चम्पा? तेरा जैसा बदन क्या ढाँपने की चीज है?“

”मोहन की घृणित हॅंसी से चम्पा और सिकुड़ गयी थी। जल्दी से नहान-घर में घुस गयी थी। नल खोलते ही सिर के ऊपर से पानी की बौछार ने उसे पूरा भिगो दिया था। सुगन्धित साबुन की बट्टी से घिस-घिस कर बदन रगड़ती चम्पा गुनगुना उठी थी। साड़ी में अपने गठे शरीर को लपेट वह बाहर आयी थी।“

”सामने खड़े बड़ी-बड़ी मूंछोंवाले बलिष्ठ व्यक्ति को देख चम्पा संकुचित हो उठी थी। चम्पा के संकोच पर वह व्यक्ति मुस्करा उठा था।“

”वाह ...... मोहन सिंह, इस बार तुमने सचमुच चीज तलाशी है। खुश कर दुँगा।“

”हुजूर की किरपा बनी रहे। ऐ चम्पा, मालिक को हाथ जोड़ परणाम कर..........“

”डरी-सहमी चम्पा ने दोनों हाथ जोड़ दिये थे। चम्पा के दोनों जुड़े हाथों को उस व्यक्ति ने पकड़ चूम लिया था। एक अजीब सिहरन-सी दौड़ गयी थी उसके बदन में।“

”कुछ खया-पिया या नहीं? क्यों मोहन सिंह इसे कुछ तर माल नहीं दिया............“

”अभी तो पहुंचे हैं हुजूर ...... अब आपके राज्य में तर माल ही खायेगी।“ सम्मिलित अट्टहास ने चम्पा को डरा दिया था।

”मैं उनके पास जाऊंगी.......“

”किनके पास जायेगी? अरे हम जो कब से इंतजार कर रहे थे, हमें क्या अकेला छोड़ जाओगी, चम्पा रानी?“

”उसके बाद की कहानी नहीं सुना सकती दीदी.....“ हाथों में मुंह छिपा, चम्पा सिसक उठी थी।

”मैं समझ सकती हूँ बहिन, तुम पर क्या गुजरी होगी........“ पूर्णिमा ने सांत्वनापूर्ण हाथ चम्पा के मस्तक पर रखा था।

”न जाने कितनी बार रात-दिन कुचली गयी दीदी, पर मौत नहीं आयी। बड़ा अभागा है यह पप्पू।“

”बच्चे का मुंह देखकर भी वह नहीं पसीजा, चम्पा?“

”बच्चा आ रहा है, यह बात तो मैं भी नहीं जान सकी थी दीदी वर्ना क्यों जनम देती अभागे को। उसने तो डाँक्टर के पास इसे गिराने भेजा था दीदी.........“

”क्यों?“

”उसे शक जो था ये बच्चा उसका नहीं। मुझे कितना कूटा था उसने। शराब की बोतल से सिर फोड़ दिया था........“

”फिर तू कैसे बची चम्पा?“

”डाँक्टर ने कह दिया-बहुत देर हो चुकी थी......... बच्चा गिराने से माँ की मौत का खतरा था। उसी ने कानून का डर भी दिखाया था, इसीलिए मेरी जान बच गयी दीदी।“

”पर बच्चे के जन्म के बाद....“

”बच्चे को भी वह मार डालता दीदी, पर मैं पैरों पड़ गयी थी। हजार कसमें खाई थीं जो वह कहेगा- करूँगी पर इसकी जान बख्श दे।“

”ओह... पर इस समय तू यहाँ कैसे आयी चम्पा?“

”उस सेठ के घर टी वी लगा था दीदी। उसी से जाना कचहरी में जाने से मैं पप्पू का हक पा सकती हूँ............ मेरी ही जैसी एक और की कहानी दिखाई थी टी वी पर........“

”कहानी तो हर औरत की एक-सी होती है चम्पा, पर तू उस पहरे से कैसे भाग सकी?“

”जब से टी वी पर वो कहानी देखी, सेठ को खुश करने की कोशिश करती रही। सेठ से जो पैसा मिलता, उसे भी छिपाकर जमा करती गयी।“

”पर तूने भागने की क्यों सोची चम्पा? बहुत-सी लड़कियाँ इससे भी गयी-गुजरी जिन्दगी बिता रही हैं, तू तो फिर भी सुरक्षित थी।“

”सुरक्षित?“ कुछ ही दिन पहले सुना था वह सेठ मोहनसिंह से कह रहा था-

”यार मोहनसिंह, अब तो इस स्साली में कोई दम-खम नहीं रहा। इसे भी वहीं पहुँचा दे और इसके पिल्ले को कहीं बेच-बाच कर छुट्टी कर।“

”बस हुजूर दो महीने और ठहरें, इस बार ऐसा माल लाऊंगा कि तबियत खुश हो जायेगी। इसको भी श्यामा बाई के कोठे पर पहुँचाता जाऊंगा।“

”उनकी बातों ने मेरे सोच को पक्का किया था। अपने बेटे को बाप का नाम दिलवा कर रहूँगी दीदी, भले ही मेरी जान चली चाये।“

”कैसे कर पायेगी ये, चम्पा?“

”क्यों नहीं कर सकुँगी? इतने दिन उनके बीच रहकर मैंने अपने आँख-कान खुले रखें हैं दीदी। टी वी से बहुत ज्ञान पाया है मैंने। मैं घर पहचते ही पुलिस में रपट लिखाऊंगी।“ चम्पा का मुँह दृढ़ निश्चय से चमक उठा था।

”पुलिस तेरे साथ बदसलूकी भी तो कर सकती है चम्पा................“

”मैं अकेली थाने नहीं जाऊंगी, अपने कुटुम-कबीले के लोगों को साथ लेकर जाऊंगी। न्याय के लिए भूख-हड़ताल करूँगी, पर बेटे का नाजायज नहीं कहलाने दूँगी।“

”तो ठीक है, तू मेरे साथ चल। देखूँ क्या कर सकती हूँ तेरे लिए!“

”पूर्णिमा के घर पहुँच चम्पा जी गयी थी। घुटने चलता पप्पू मानो घर के कोने-कोने से परिचित हो रहा था। चम्पा ने पूर्णिमा के घर के कामों को सम्हाल लिया था और पूर्णिमा ने उसके पप्पू का भार अपने ऊपर ले लिया था। पूर्णिमा उस नन्हें शिशु को ले इस कदर व्यस्त हो गयी थी कि अरविंद को टोकना पड़ा था-

”देखो पूर्णिमा, तुम्हें इस लड़की के साथ सहानुभूति है वहाँ तक तो ठीक है पर तुम इसके बच्चे के मोह में बॅंध रही हो, यह ठीक नहीं। अन्ततः यह पराया खून है, कभी न कभी इसे यहाँ से चले ही जाना है न?“

”अगर हम इसे हमेशा के लिए यहाँ रख लें?“

”मतलब?“

”हम इस बच्चे को गोद ले लें अरविंद?“

”उसके लिए उसकी माँ की सहमति चाहिए।“

”वह मैं ले लुँगी.......... ओह अरविंद, कितना प्यारा है ये बच्चा ...........“ पप्पू को गोद में उठा पूर्णिमा ने चूम लिया था। उसी शाम बरामदे में बैठी पूर्णिमा ने चम्पा से कहा था- ”तेरा बेटा इतना प्यारा है चम्पा, इसे मूझे दे दे। वैसे भी यह तेरा बेटा तो लगता नहीं..........“

”आप ही का तो है दीदी जी,“ पप्पू पर दृष्टि जमाये चम्पा ने उत्तर दिया था।

”ऐसे नहीं, इसे मैं सचमुच अपनाना चाहती हूं। तू कह रही थी न, इसे नाजायज औलाद नहीं कहलाना चाहती। मैं इसे गोद लेना चाहती हूँ.........इसे बाप का नाम मिल जायेगा।“

”आपको पराये बच्चे की क्या जरूरत है दीदी जी। भगवान चाहेगा, आपके आँगन में अपने बच्चे खेलेंगे।“

”नहीं चम्पा, मेरे अपने बच्चे कभी नहीं होंगे, इसीलिए तुझ से तेरा बेटा माँग रही हूँ। देगी न, चम्पा !“

”नहीं......नहीं.......दीदी जी, ऐसा न कहें। अपने बेटे के बिना मैं जी न सकूंगी।“ खिलौने से खेलते पप्पू को चम्पा ने कसकर वक्ष से चिपटा लिया था।

”सोच ले चम्पा, सेठ के पास पैसे की कमी नहीं है, तेरे हर आरोप को वह झुठला देगा। तेरा बच्चा उसका नाम कभी न पा सकेगा।“

”मैं पप्पू के खून का टेस्ट कराऊंगी, दीदी जी। बाप-बेटे का रक्त एक होता है, तब तो उसे मानना ही होगा न?“

”मान ले, यह सिद्ध भी हो गया कि यह उसका बेटा है, तब भी क्या वह इसे या तुझे अपने परिवार में जगह देगा? वह चरित्रहीन व्यक्ति है, क्या पता तुझे और इसे खत्म ही करा डाले..........“

”नहीं.......ऐसा मत कहो....... मत कहो। आपने तो वादा किया था मेरी मदद करेंगी..... इसी भरोसे मैं यहाँ पड़ी हूँ, दीदी जी।“ रोती चम्पा अपने कमरे की ओर भाग गयी थी।

पूर्णिमा उदास हो उठी थी- व्यर्थ ही चम्पा का दिल दुखा बैठी। माँ की ममता, भला पुत्र-बिछोह सह सकेगी। अरविन्द ने उसे सांत्वना देनी चाही थी-

”तुम इतनी परेशान क्यों हो पूर्णिमा? हमने डाँक्टर कुमार को लिखा है, वह जरूर कोई बच्चा हमारे लिए रखेंगे।“

”पर मुझे इससे प्यार हो गया है, अरविन्द..............“

”वो भी बच्चा सिर्फ हमारा होगा, उससे हमें और भी ज्यादा प्यार होगा पूर्णिमा। तुम स्वार्थ में अपना उद्धेश्य भूल रही हो, अब सो जाओ।“

सुबह-सुबह पप्पू को पूर्णिमा के कमरे में छोड़ चम्पा चाय बनाने जाती थी। नन्हे हाथों से पूर्णिमा के बाल खींचता पप्पू मुस्करा उठता था। जब तक पूर्णिमा जागती, चम्पा चाय ले आया करती थी।

”देख चम्पा, तेरा शरारती बैटा मुझे चैन से सोने भी नहीं देता। दुश्मन है मेरा। शैतान कहीं का - छोड़ बाल.........“ पप्पू की मुट्ठी से अपने बाल छुड़ा पूर्णिमा उसे गोद में उठा लेती थी।

सूर्य की किरणें खिड़की से छनकर पूर्णिमा के मूख पर जैसे एक साथ आ पड़ी थीं.........आखें खोलती पूर्णिमा चैंक-सी उठी थी। इतनी देर हो गयी और चम्पा ने उठाया भी नहीं कहीं शाम की बात पर वह रूष्ट तो नहीं है।

”चम्पा ...... पप्पू.......अरे कहाँ हो तुम लोग?“

स्लीपर पहिन किचन की ओर आती पूर्णिमा की दृष्टि चम्पा के बन्द कमरे पर पड़ी थी। कमरे का द्वार बाहर से बन्द था। आशंका से पूर्णिमा शंकित हो उठी थी। घबराये स्वर में माली को आवाज दी थी- ”रामदीन ....... चम्पा कहाँ है।?“

”वह तो भोर होते ही चली गयी मालकिन..........“

”क्या ......आ, कहाँ गयी........मुझे बताया भी नहीं?“

”हमसे तो बोली, आपको राते खबर कर दी है। हाँ ये कागज देने को बोल गयी थी।“ रामदीन के हाथ से कागज छीन पूर्णिमा एक साँस में पढ़ गयी थी-

”दीदी जी,

आपके बहुत अहसान हैं। अपनी जान भी आपके लिए दे सकती हूँ, पर पप्पू का कर्जा चुकाना है मुझे। मैंने कसम खाई है, कचहरी में सब के सामने इसके बाप से यह बात कहलवा के रहूँगी कि यह पाप की औलाद नहीं- उसका अपना खून है।“

जब से पप्पू का जन्म हुआ, तब से दिमाग में यही बात घूमती रही.......... क्या बिना अपराध यह नाजायज औलाद कहलाएगा? सच कहिए दीदी, क्या यह बात आपके मन में कभी नहीं आयी? जिन परिस्थितियों में मुझे रहना पड़ा, उसमें क्या पवित्रता की दुहाई दी जा सकती है।

अपने बेटे के सामने मैं सिर उठाकर चलना चाहती हूँ, इसीलिए मुझे यह काम पूरा करना होगा। जिस दिन यह काम पूरा हो गया, पप्पू को आपकी गोद में सौंप दूँगी- यह मेरा वादा है।

मेरा अपराध छिमा करें।

-अभागिन चम्पा“

पूर्णिमा के हाथ से पत्र छूटकर नीचे लगे गुलाब की टहनियों में जा अटका था।

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