भोर की लालिमा सुनहरे रंग में बदल रही थी। चिड़ियों के बीतों ने डाँक्टर मनीष को जगा दिया। आँखें खोलते ही खिड़की के बाहर फैली सरसों की पीली चादर ने डाँक्टर मनीष को मुग्ध कर दिया। सामने उनके छोटे से हाँस्पिटल में जीवन की गति प्रारम्भ हो गयी थी। वसंुधरा की माँ, मम्मी की पूजा के लिए फूल चुन रही थीं। जब से मम्मी उन्हें अपने साथ लाई हैं वह मम्मी का हर काम कर उनके उपकार के प्रति अपनी कृतज्ञता दर्शाती है। डाँक्टर मनीष या मम्ी उनसे जब भी आराम करने को कहते, वह एक निःश्वास छोड़ कहती, ”आराम-चैन अब कहाँ? भगवान जल्दी उनके पास भेज दो।“
वसुंधरा की मृत्यु के बाद उसकी माँ को अपनी आँखों के आँपरेशन के लिए कितनी मुश्किल से राजी किया गया था, ”अपना सब कुछ खोकर अब किसे देखने का अरमान है डाँक्टर साहिब? अब तो बस इस अन्धी को यॅंू ही मरने दो।“
मम्मी ने उनके कंधे पर हाथ धर प्यार से समझाया था, ”भगवान की इच्छा के आगे किसकी चलती है? हमारे रहते लड़के, बच्चे चले जाएँ क्या यह न्याय है? बिटिया के जाने का किसे दुःख नहीं? उसकी कितनी इच्छा थी तुम्हारी आँखों को ठीक कराने की, आँपरेशन करा लो, बेटी की आत्मा को शांति मिलेगी बहिन।“
आँपरेशन की सफलता के बाद वृद्धा की आँखों से टपटप आँसू बह निकले थे, ”कहाँ है उनकी वसु? कहाँ गया उनका परिवार? क्या देखने को आँखें पायी हैं।“ डाँक्टर मनीष की मम्मी जब उस अकेली असहाय स्त्री को अपने साथ रखने को ले आयी तो डाँक्टर मनीष उनके प्रति कृतज्ञता से भर उठे थे।
वसुंधरा की माँ अन्दर जा चुकी थी। मम्मी डाँक्टर मनीष को चाय के लिए आवाज दे रही थीं। जल्दी-जल्दी एक कप चाय पी डाँक्टर मनीष जैसे ही अपने उस छोटे-से अस्पताल में पहुँचे, मरीज खड़े हो गये थे। कुछ ही दिनों में वह उस गाँव में देवता की तरह पूजे जाने लगे थे। न जाने कितने असाध्य रोगियों को उन्होंने पुनर्जीवन दिया है। उनके पहुँचते ही कम्पाउंडर ने एक-एक का नाम पुकारना शुरू कर दिया था।
शायद ग्यारवें नम्बर पर एक नन्हीं बालिका का हाथ थामे वह स्त्री भीतर आयी थी।
”डाँक्टर साहिब ई हमार बिटिया को तनिको भूख नाही लागत।“
नन्ही बालिका की उज्ज्वल हॅंसती दृष्टि डाँक्टर मनीष को न जाने किसकी याद करा गयी।
”क्या नाम है तुम्हारा गुड़िया?“
”वसु!“ उत्तर दिया था बालिका ने और हॅंस कर डाँक्टर मनीष का स्टेथिस्कोप उठा लिया था। ”वसु!“ झन्न से डाँक्टर मनीष की स्मृति को मानो उस एक शब्द ने झकझोरकर निर्ममता से जगा दिया था।
पिछले कुछ दिनों पूर्व की कहानी फिर याद हो आयी। पेट के असह्य दर्द की शिकायत के साथ वह लड़की डाँक्टर मनीष के पास आ रही थी। अन्धी माँ छटपटाती कभी अजवाइन का पानी पिलाती तो कभी असहाय उसका सिर सहलाती रह जाती थी। बेटी की व्यथा उसे असह्य थी।
स्टोन का पता लगते ही डाँक्टर मनीष ने उसके आँपरेशन का सुझाव दिया था। एक पल को उसके मुख का रंग उतर गया था, ”आँपरेशन में तो बहुत पैसे लगते हैं न?“
”अच्छा पैसों की बहुत चिंता है- क्या पापा के पैसे बचाने हैं?“ किंचित मुस्करा उन्होंने प्रश्न पूछा था।
”अगर पापा होते तो खर्च कराती।“ उदास हो गयी थी।
”क्या पापा नहीं है? आई एम साँरी! कौन-कौन है घर में?“
”सब थे। पापा, भाई पर अब तो माँ और मैं बची हूँ, माँ अंधी है। यहाँ स्कूल में मैं पढ़ाती हूँ।“ स्वर भीग-सा गया था।
”क्या तुम टीचर हो? देखकर तो नहीं लगता।“ डाँक्टर मनीष ने परिहास की चेष्टा की थी।
”देखकर ही तो सब कुछ नहीं जाना जा सकता डाँक्टर। क्या मुझे देखकर आप यह जान सकते हैं, मैंने अपनी आँखों के सामने भाई और पिता को एक साथ हॅंसते हुए स्कूटर पर जाते देखा और एक साथ ही दोनों के शव उठते देखे। भाई मेरे लिए साड़ी लेने गया था। रोते-रोते माँ ने अपनी आँखें खो दी हैं, पर मैं हॅंसती रहती हूँ।“
स्तब्ध डाँक्टर मनीष उस लड़की का मुख लेखते रह गये थे। एक पल बाद बोले, ”तुम सचमुच बहुत बहादुर लड़की हो, अगर तुम्हारे घर आऊॅं तो अच्छा लगेगा तुम्हें?“
”माँ बहुत खुश होंगी, घर का सूनापन उन्हें खाये डालता है।“
डाँक्टर मनीष अस्पताल के सर्वाधिक हॅंसमुख, दक्ष और रोगियों के मध्य बहुत प्रिय थे। अविवाहित होने के कारण युवा वर्ग के नेता भी थे। अपने जीवंत स्वभाव के कारण मित्रों, महफिलों की जान थे। मरीजों के चेहरों पर जरा-सी मायूसी देख बच्चों जैसे दुलराते थे। बूढ़े रोगी उन्हें आशीषते नहीं थकते थे। अपनी भावुकता के लिए डाँक्टर मनीष पूरे अस्पताल में ‘बदनाम’ थे। पाँच माह पूर्व एक अनाथ बालक की मृत्यु पर डाँक्टर मनीष ने न केवल उसके दाह कर्म का खर्चा उठाया था वरन् दो दिन तक ठीक से भोजन भी न कर सके थे।
कुछ दिनों बाद डाँक्टर मनीष उसके घर गये थे। एक कमरे का घर, अन्दर के छोटे-से बरामदे को रसोई का रूप दे दिया गया था। सामान कुछ भी न होते हुए भी सुव्यवस्थित करीने से सजा था। डाँक्टर को अपने घर आया जान माँ निहाल हो उठी थी। बेटी को चाय बनाने को कह स्वंय डाँक्टर के पास मूढ़ा डाल बैठ गयी थी। धीमे-धीमे डाँक्टर मनीष से उनके घर-परिवार के बारे में पूछती गयी थी। डाँक्टर साहिब की माँ और एक बहिन हैं। बहिन का विवाह हो चुका था, बस अब उन्हीं का नम्बर है। भगवान उन्हें सुखी रखे, बहुत प्रशंसा सुनी है उनकी, काश आँखों से देख पाती। इस लड़की के लिए भी वर खोज पाती, माँ का चेहरा उदास हो गया था। अतीत की सुखद गुहस्थी की याद में नयन भर आये थे।
चाय लाती लड़की ने झिड़की दी थी, ”माँ फिर वही पुरानी बातें ले रो रही हो न? देखो माँ, जो अपने दुःख को पी दूसरों को हॅंसाते हैं, उनके पास तो चार लोग बैठते हैं वर्ना रोने वालों से लोग भी कतराते हैं। कितनी बार समझा चुकी हूँ माँ!“
”नहीं-नहीं माँ, अपनी बात कहो, मैं कोई दूसरा तो नहीं।“ चाय का कप डाँक्टर मनीष ने थाम लिया था। घर देख कर आर्थिक स्थिति का सहज ही अन्दाज हो गया था।
उस लड़की की कहानी सुन डाँक्टर मनीष उसके प्रति विशेष सदय हो उठे थे। उसके साहस के प्रति वे मन-ही-मन मुग्ध थे। इतना दुःख सह वह हमेशा फूल-सी खिली दिखती लड़की कभी गलती से एक पल को गम्भीर भी हुई तो अगले क्षण उस गलती को सुधारने के लिए जबरदस्ती जोरों से हॅंस पड़ती थी। विस्मित, विमुग्ध डाँक्टर मनीष उसे निहारते रह जाते थे। उसकी हॅंसी के पीछे छिपी पीड़ा क्या वे पहचान नहीं सके थे? धरती-सी सहनशील उस लड़की का ‘वसुंधरा’ नाम सार्थक था।
वसंुधरा की माँ के आग्रह पर डाँक्टर मनीष प्रायः ही उसके पास जा बैठते थे। कभी गली-मुहल्ले वालों ने कुछ सोचा होगा, वह सोच भी न सके। वसंुधरा को जब उन्होंने अपनी मम्मी से मिलाया तो वे ममता से आत्मविभोर हो उठी थीं, ”इत्ती प्यारी लड़की को ही भगवान को दुःख देना था!“ स्नेह से वसुंधरा के सिर पर हाथ धर उन्होंने आशीष दिया था।
अपने काँलेज के चैरिटी शो में वसुंधरा ने एक गजल गायी थी। डाँक्टर मनीष को उनकी मम्मी के साथ आमन्त्रित किया था। मनीष की मम्मी मंत्रमुग्ध रह गयी थीं। चैरिटी शो में अपनी ओर से पाँच सौ एक रूपये दे डाले थे उन्होंने। घर जाकर शायद दोनों सोचते रह गये थे, क्या उसकी वाणी का दर्द उसकी अपनी पीड़ा की कहानी नहीं कह रहा था? न जाने क्यों उस रात बहुत देर तक मनीष उसके बारे में सोचता रह गया था। एक बार मन में एक नन्हें-से प्रश्न ने उगने का दुस्साहस किया था , ‘कहीं वसंुधरा एक पेशेंट से अगल उसके लिए कुछ और तो नहीं बन पड़ी थी? क्यों अपने खाली क्षणों में वह उस लड़की के विषय में सोचता था।’ अपने मन के इस भ्रम को उन्होने हमेशा झटका दे दूर कर दिया, ‘नहीं वह लड़की बहुत दुःखी, बहुत अकेली है, उसके कंधों पर बहुत बड़ा दायित्व है। बस, शायद इसीलिए वह उसके प्रति सहानुभूति रखते हैं, उससे अधिक कुछ नहीं।’ फिर भी वसंुधरा के साथ उनके क्षण पूर्ण हो उठते थे और उन्हें लगता था वसंुधरा का एकांत मनीष के साथ चहक उठता था।
स्टोन निकालने के लिए आँपरेशन करना होगा, सुन डाँक्टर मनीष की मम्मी भी उद्विग्न हो उठी थीं। विधवा अन्धी माँ की चिन्ता तो स्वाभाविक ही थ, पर वसुंधरा शांत, निर्विकार मुस्कराती रह गयी थी। डाँक्टर मनीष की मम्मी ने व्यग्र हो होम्योपैथिक इलाज का सुझाव दिया था। वसुंधरा ने प्रतिवाद करते हुए कहा था, ”वाह माँ, आप ही अपने बेटे पर विश्वास नहीं रखतीं, मुझे तो अगाध विश्वास है।“ वाक्य समाप्त कर डाँक्टर मनीष को देख हॅंस पड़ी थी।
”नहीं बेटी, तेरा पेट चीरा जायेगा, सुन कर ही डर लगता है।“
”मैं तो नहीं डरती माँ।“ डाँक्टर मनीष उसके इस अगाध विश्वास पर मौन रह गये थे। दो दिन पूर्व ही वह डाँक्टर रविकांत से स्वंय कह चुके थे, ”सर, यह आँपरेशन आप कर दीजिए।“ डाँक्टर मनीष ने मुख्य चिकित्सा अधिकारी डाँक्टर रविकांत से अनुरोध किया था।
”क्यों, इतने बड़े सर्जन हो और इस छोटे-से आँपरेशन से घबरा रहे हो?“ डाँक्टर रविकांत का विस्मय स्वाभाविक था।?
”नहीं सर, बात यह है कि यह लड़की अपनी अंधी विधवा माँ की एकमात्र बेटी है।“ न जाने क्यों डाँक्टर मनीष यह आँपरेशन करने में हिचक रहे थे।
”डोंट बी सिली, इस पेशे में भावुकता नहीं चलती, समझें!“ डाँक्टर मनीष की पीठ ठोक डाँक्टर रविकांत चले गये थे।
अन्ततः आँपरेशन की तिथि नियत कर दी गयी थी। स्टेªक्चर पर लिटा जब उस लड़की को आँपरेशन थिएटर ले जाया जा रहा था तो वह निर्णय निःशंक मुस्करा रही थी। आपॅपरेशन थिएटर में भेजने के पूर्व अंधी माँ के हाथों ने बेटी के पूरे शरीर पर हाथ फिरा तसल्ली कर ली थी कि उसकी बेटी सही-सलामत तो है न? माँ के मुख को ताकती उसकी वसु एक पल को उदास-सी हो गयी थी, फिर हॅंस कर माँ के दोनों स्नेहिल हाथ अपने गालों पर फिरा बोली, ”रोज अपने पेट के दर्द के कारण तुझे परेशान करती थी न माँ, अब एकदम ठीक हो जाऊॅंगी। तेरी परेशानी दूर हो जायेगी।“
विधवा ने हाथ जोड़ डाँक्टर से विनती की थी, ”मेरी बिटिया ठीक हो जायेगी न डाँक्टर?“
”हाँ अम्मा, छोटा-सा आँपरेशन है, दो दिन में ठीक हो जायेगी।“ हॅंसते हुए डाँक्टर मनीष ने तसल्ली दी थी। असहाय माँ की पीठ पर हाथ धरते डाँक्टर मनीष की दृष्टि स्ट्रेचर पर पड़ी वसुंधरा की दृष्टि से टकरा गयी थी।
कश्मीरी सेब से गाल, गहरी काली आँखें, पतले, गुलाबी अधखुले मुसकराते होंठों के मध्य से झलकते अनार के दोनों से चमचमाते दाँत। जीवन से भरपूर, हॅंसी मानो छलक रही हो। दृष्टि मिलते ही चेहरा लाल हो उठा था। पूरे विश्वास से अनजाने डाँक्टर के हाथों अपने को सौंप वह मुस्करा रही थी।
अन्दर पहुँच न जाने क्यों डाँक्टर मनीष एक बचकाना प्रश्न पूछ बैठे थे, ”डर नहीं लग रहा है, पूरा पेट चीरा जायेगा?“
”लगता तो है पर जानती हूँ आपके हाथों मरूँगी नहीं।“ कह वह विश्वासपूर्ण हॅंसी हॅंस दी थी। डाँक्टर मनीष और नर्स मुस्करा उठे थे। आँपरेशन के समय अच्छे-अच्छे लोग भयभीत हो उठते हैं और यह लड़की यॅंू मुस्करा रही थी, बातें कितनी सहजता से कर रही थी।
”डाँक्टर, ठीक होने के बाद माँ की आँखों का आँपरेशन भी आप से ही कराऊॅंगी।“
”पर मैं तो आँखों का डाँक्टर नहीं हूँ और फिर मुझसे ही क्यों? अभी तो तुम्हारा भी आँपरेशन नहीं हो पाया है।“
”इसीलिए कि आपकी बातों से ही माँ की आधी बीमारी जो भाग जाती है। अगर माँ से रोज बात भी करोगे तो उसकी आँखें ठीक हो जायेंगी।“
नर्स ने बाहर आ सब को बताया था, बेहोश होने के पहले वह जिद कर रही थी, ”मैं डरती नहीं, मुझे लोकल इनेसथीसिया दे दो।“
डाँक्टर बोस ने गिनती गिनवानी शुरू की तो पूरे तीस तक गिन गयी, बड़े जीवट वाली लड़की है। आँपरेशन ठीक हो गया, बाहर आ डाँक्टर मनीष ने उसकी माँ को पूरी तसल्ली दी थी, ”अब भय की कोई बात नहीं है, दो-चार दिन में बेटी को घर ले जाइयेगा!“ माँ ने आँचल फैला डाँक्टर को आशीष दिया था।
दूसरे दिन सुबह जब वह वार्ड में उसे देखने गया तो पास में बैठी माँ, बेटी के बालों को स्नेह से सहला रही थी। डाँक्टर मनीष को देखते ही वसुंधरा का पीला मुख चमक उठा था, ”देखा ठीक कहा था न मैंने आपके हाथों मर नहीं सकती।“ आँखें जगमगा रही थीं और स्वर में कुछ शोखी झलक उठी थी। प्रत्युत्तर में डाँक्टर मनीष मुस्करा भर दिये थे।
वसुंधरा की वस्तुस्थिति से डाँक्टर मनीष ने डाँक्टर रविकांत को अवगत करा पूरी कहानी सुना दी थी। साथ ही जोड़ दिया था, ”अगर आँपरेशन निःशुल्क नहीं किया जा सकता तो मैं अपनी ओर से फीस भर दुँगा।“
डाँक्टर रविकांत हॅंस पड़े थे, ”चलो तुम्हारे इस पुण्य काम में हम भी हाथ बटा लेते हैं, मुझे मौका नहीं दोगे?“
कृतज्ञ डाँक्टर मनीष धन्यवाद दे चले आये थे। उस लड़की और उसकी माँ को देख डाँक्टर रविकांत बहुत उदास हो जाते थे। इस छोटी-सी अवस्था में उस लड़की का धैर्य सचमुच प्रशंसनीय था।
अस्पताल से छुट्टी मिलने वाले दिन वसंुधरा की माँ ने सब को पेड़े खिलाये थे। अनगिनत दुआएँ दे, बेटी को जब वे रिक्शे में ले जाने लगी तो डाँक्टर रविकांत ने ड्राइवर को बुला अपनी गाड़ी में घर छुड़वाया था।
दो दिन बाद वसुंधरा का एक पड़ोसी डाँक्टर मनीष के पास आया था, ”वसुंधरा की हालत खराब है।“ एम्बुलेंस से जब वसुंधरा अस्पताल पहुँची तो दर्द से तड़प रही चेतना-शून्य होती जा रही थी। माँ का रो-रो के बुरा हाल था। अस्पताल के केबिन में पहुँचने के पूर्व ही उसने दम तोड़ दिया। सारे डाँक्टर निरूपाय खड़े रह गये थे। माँ का दिल दहला देने वाला हाहाकार चीत्कार में बदल चुका था।
डाँक्टर रविकांत को कुछ डाँक्टरों ने वसंुधरा के पोस्टमार्टम की सलाह दी थी, पर बेचारी लड़की को और क्या दुःख पहॅुंचाना, कह बात उन्होंने टाल दी थी। उसके घर में कुछ कहने-सुनने वाला था ही कौन? अंधी माँ हाथों से निष्प्राण बेटी के अंग-प्रत्यंग सहलाती करूण स्वर में दुलार कर रही थी। वही बेटी जो माँ की आँखों में ज्योति लाने वाली थी, अंधी की दुनिया हमेशा के लिए अॅंधेरी कर गयी थी। अस्पताल में इस करूण दृश्य को देख सब की आँखें गीली हो उठी थीं।
बड़ी मुश्किल से माँ को हटाया गया। पास-पड़ोसियों की मदद से शव श्मशान ले जाया गया। उकस दाह-संस्कार कौन करेगा? न जाने किस प्रेरणा से डाँक्टर मनीष ने यह दायित्व स्वंय उठा लिया। अग्नि देने के पूर्व दो चमकीले नयन उन्हें चिढ़ा गये, ”आपके हाथों नहीं मरूँगी।“ दो बॅंूद आँसुओं का अघ्र्य दे डाँक्टर मनीष घर आ चित्त पड़े कमरे की छत निहारते रह गये थे।
डाँक्टर मनीष वसु की माँ के पास जाने का साहस नहीं बटोर पा रहे थे। माँ को साथ ले उस घर पहुँचे, जहाँ सब कुछ लुटा अंधकार को गहराती वसंुधरा की माँ बैठी थी। मनीष की पदचाप सुन वसु की माँ करूण हाहाकार कर उठी, ”तुम पर तो उसे भगवान-सा विश्वास था बेटे, तुम भी उसे बचा न सके?“
मनीष की माँ के नयन भर आये। स्नेह से उस असहाय नारी के कंधे पर हाथ धर समझाने की चेष्टा की थी, ”डाँक्टर भी साधारण आदमी ही है बहिन, अगर इसके हाथ में होता तो क्या वसु बेटी को यॅंू जाने देता?“ माँ की दृष्टि अपने बेटे के मुख पर टिक गयी थी।
यह सभी बातें तो रूँधे कंठ से डाँक्टर मनीष ने डाँक्टर रविकांत को सुनायी थीं। उस अंधी विधवा की समस्या सचमुच गम्भीर थी। डाँक्टर रविकांत ने ही सुझाया था, ”कुछ दिनों बाद उसकी आँखों का आँपरेशन करेंगे, भगवान ने चाहा तो ठीक हो जायेगी। नयनों की ज्योति पाकर भी बेचारी को जीवन तो अंधकार में ही काटना था। फिर भी कम-से-कम किसी की मोहताज तो न रहेगी।“ सुन कर डाँक्टर मनीष बहुत हद तक आश्वस्त हो उठे थे। डाँक्टर रविकांत को न जाने क्यों लग रहा था डाँक्टर मनीष कहीं से टूट गये थे, मानो वे उस विधवा के दुर्भाग्य के लिए स्वंय को उत्तरदायी ठहराते थे। क्या वसुंधरा और डाँक्टर मनीष डाँक्टर और रोगी से कुछ अधिक तो नहीं हो उठे थे? कहीं डाँक्टर मनीष उस प्यारी-सी लड़की के प्यार में तो नहीं बॅंध चुके थे?
डाँक्टर रविकांत ने ही मनीष के साथ वसु की माँ के पास जाने का आग्रह किया था। बहुत देर रो चुकने के बाद अस्फुट शब्दों में वसु की माँ ने डाँक्टर मनीष से कहा था, ”अभागी का इस दुनिया में मेरे सिवाय कोई नहीं है बेटा। दाह कर्म कर तुमने उसे मुक्ति दे दी, तुम तो देवता हो बेटा। मुझ अंधी को ले चलो, उसके फूल बटोर अंतिम काम भी निपटा दुँ।“ कहती वह स्वंय ही फफक उठी थी।
तभी याद आया मनीष को- सचमुच चिता के भस्मावशेष तो अभी भी वहाँ किसी अपने की प्रतिक्षा कर रहे हैं। कुछ भी न होते हुए वह उसके विश्वास थे। वसु की माँ से अंतिम दायित्व निभाने का वादा कर वह दूसरे दिन अकेले ही चले गये थे। चिता की ठंडी राख मानो उनकी ही प्रतीक्षा कर रही थी। फूल बटोरते डाँक्टर मनीष को वसंुधरा का हमेशा मुस्कराते रहने वाला मुख बार-बार याद आ रहा था। अचानक उनकी दृष्टि एक छोटी-सी चमकीली चीज पर पड़ी थी। उसे साफ करते डाँक्टर मनीष स्तब्ध रह गये थे। उनके हाथ में एक फाँरसेप था।
हाथ में उस फाँरसेप को लिये डाँक्टर मनीष अवाक् खड़े रह गये थे- इतनी बड़ी भूल क्यों कर सम्भव हुई? यह अपराध क्या उन्हीं से होना था। सीधे घर वापिस आ कमरा बन्द कर लिया था, यह भी याद न रहा, कोई अभागिन माँ उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। बेटी के अंतिम कार्य को उसने पूर्ण कर दिया जानने को उनके पदचाप सुनने को आतुर होगी। मम्मी ने बार-बार चाय पीने का आग्रह किया, कुछ खा लेने को कहा पर सिर दर्द की बात कह लेटा रह गया था।
सवेरा होते ही डाँक्टर रविकांत के हाँस्पिटल पहुँचने के पूर्व वह उनके घर चले गये थे। लाल आँखें रात्रि जागरण का संदेश दे रही थीं। डाँक्टर रविकांत चैंक उठे थे, ”क्या बात है डाँक्टर?“ प्रत्युत्तर में डाँक्टर मनीष ने उन्हें एक लिफाफा थमा दिया था।
पत्र पढ़ते ही डाँक्टर रविकांत चैंक उठे थे, ”ये क्या? तुम त्यागपत्र दे रहे हो! आखिर क्यों?“
”मैं हत्यारा हूँ सर, किसी का अपराधी हूँ। आप पुलिस को सब बता सकते हैं।“ डाँक्टर मनीष बस इतना ही कह सके थे।
”ठीक है, पहले एक कम चाय लेते हैं फिर तुमसे पूरी बात सुनूँगा।“
एक तरह से जबरन उसे बिठा कर डाँक्टर रविकांत ने चाय थमा दी थी।
”मैं ठीक कह रहा हूूं सर, मैंने उसे मार डाला है। पूरी बात बताते डाँक्टर मनीष का स्वर आर्द्र हो उठा था, ”जिस पर उसने भगवान की तरह विश्वास किया, वही उसका हत्यारा है। मुझे जीने का कोई अधिकार नहीं है सर।“
डाँक्टर रविकांत ने अपनी दृष्टि एक पल उस युवा डाँक्टर के मुख पर डाल कहा था, ”न तुम अपराधी हो, न हत्यारे मनीष। यह एक दुर्घटना थी जो कभी भी किसी पल घट सकती है। तुमने अपनी ओर से किसी त्रुटि की सम्भावना नहीं छोड़ी थी। फिर यह अपराध बोध क्यों?“
”सर, आँपरेशन मैंने किया था फिर उसकी मृत्यु का उत्तरदायी और कौन है?“
”जो हो गया उसे भूल, भविष्य में और भी सतर्कता से जीवन दान देना होगा डाँक्टर।“
”मैं दंड पाना चाहता हूँ सर, मेरी आत्मा को बिना सजा पाये शांति नहीं मिलेगी। आप मुझे दंडित कीजिए।“
”ठीक है मनीष, पश्चाताप सभी दोषों से मुक्त कर देता है। मेरे पास गाँव में कुछ डाक्टर्स भेजने की रिक्वेस्ट आयी है- तुम वहाँ जाकर एक जीवन के स्थान पर न जाने कितने लोगों को प्राणदान दे सकते हो। गाँव का जीवन कठिन होगा, तुम्हें बहुत-सी प्रावलम्स फेस करनी होंगी, कर सकोगे मनीष?“
”सर, मैं कठिन-से-कठिन दण्ड पाना चाहता हूँ सिर्फ गाँव जाने से क्या होगा?“
डाँक्टर रविकांत ने उसे यह बात किसी से न कहने की भी सजा दी थी। स्वंय मम्मी आज तक नहीं जानती, उनका बेटा अनजाने कितना बड़ा अपराध कर बैठा है।
कुछ ही दिनों बाद डाँक्टर मनीष इस गाँव में आ गये थे और आज सचमुच ‘वसुंधरा’ नन्ही, मुस्कराती कली के रूप में उनके सामने आ खड़ी हुई है। सन्तोष की मीठी आभा से उनका मुखमंडल उज्ज्वल हो उठा। बालिका के हाथ से स्टेथिस्कोप ले वह उसका निरीक्षण करने लगे।
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