अप्रत्याशित
ऑफ़िस में उसे आता देख, सबकी निगाहें उसी पर टंग जातीं। यानी आज तक सब ठीक है। उन निगाहों में छिपा सवाल पल्लवी को अन्दर तक मथ जाता। पिछले एक-डेढ़ वर्ष में निखिल की हालत बद से बद्तर होती जा रही है। एक-एक करके सब सहानुभूतिपूर्ण स्वर में निखिल का हाल पूछतीं। उनके ताज़्जुब की एक वज़ह यह भी थी कि पल्लवी के ओंठों की मुस्कराहट में कोई फ़र्क नहीं आया था। हाथ में भारी से बैग के साथ ओंठों पर खिली सदाबहार मुस्कान, पल्लवी की पहचान थी, जो आज भी बदस्तूर थी।
‘क्या हाल है निखिल का?’
‘आज सुबह काफ़ी अच्छा महसूस कर रहे थे। बहुत दिनों बाद आज कुछ देर बाहर तक गए।’
उत्फुल्ल चेहरे से पल्लवी ने जवाब दिया।
‘चल अच्छा है। तेरी तपस्या सफल हो।’
जैसे कुछ निराश- सी शीला जी पीछे हट गईं।
हर सुबह सबका पल्लवी से एक ही सवाल रहता। आंशु को बुरा लगता, कौन नहीं जानता बचपन की डाइबेटीज़ ने गम्भीर रूप धारण कर लिया था। एक्यूट डाइबेटीज़ के साथ निखिल की दोनों किडनियाँ जवाब दे गईं। दिल भी अब उतना मज़बूत नहीं रह गया था कि दोनों किडनी आसानी से ट्रांसप्लांट की जा सकें। डाइलेसिस के वक़्त भी कार्डियोलॉ जिस्ट साथ खड़े, दिल की धड़कने गिनते रहते। न जाने कब दिल बोझ लेने से इंकार कर जाए।
निखिल की गम्भीर बीमारी के बावजूद पल्लवी नियमित रूप से ऑ फ़िस आती। घर में भी तो कोई ऐसा नहीं था जो उसके साथ खड़ा होता। वैसे भी एक-दो दिन की बीमारी में लोग भले ही साथ दे लें, रोज़ की बीमारी में किसके पास इतना वक्त है कि अस्पताल के चक्कर काटे जाएं।
बैग रख, पल्लवी अपनी जगह आ बैठी। बिना सवाल किए, आंशु पल्लवी के पास वाली कुर्सी पर बैठ गई।
‘आज डाइलेसिस नहीं है, पल्लवी?’
‘नहीं, डॉक्टर अब तुरन्त किडनी ट्रांसप्लांट कराने की बात कह रहे हैं।’
‘इतनी ज़ल्दी क्यों, पल्लवी?’
‘डॉक्टर का ख़्याल है, अभी दिल शायद आपरेशन का बोझ उठा सके। देर होने पर दिल का भरोसा नहीं किया जा सकता।’
चिन्ता की लकीरें पल्लवी के माथे पर उभर आई।।
‘ओह ! इतनी ज़ल्दी डोनर का इंतज़ाम हो जाएगा, पल्लवी ?’
‘हाँ, डॉक्टर ने कुछ अस्पतालों से सम्पर्क कर रखा है। शायद दिल्ली में इंतज़ाम हो जाए।’
पल्लवी आशान्वित थी।
पल्लवी के आशापूर्ण स्वर के बाद आंशु और कुछ न पूछ सकी उसके मन में बार-बार एक ही सवाल उठता, किडनी ट्रांसप्लांटेशन के लिए रूपयों की व्यवस्था पल्लवी कहाँ से करेगी ? एक बार डाइलेसिस में ही काफ़ी बड़ा खर्च आ जाता है। मध्यवर्गीय नौकरी पेशा वालों के पास इतना पैसा कहाँ से आएगा ? पिछले दो-ढ़ाई महीनों से निखिल डाइलेसिस पर चल रहे हैं। अक्सर बदन में फ़्लूइड भर जाता तो ज़मीन पर पांव रखना भी मुश्किल हो जाता। निखिल का सूजा बदन और मुँह देख पाना सबको सहज नहीं हो पाता। उसी निखिल के बारे में पल्लवी जिस सहजता से बातें करती कि लोग दातों तले उंगली दबा लेते। पल्लवी की एक और ख़ास बात थी। अपने दुख और समस्याओं की चर्चा उसने कभी किसी से नहीं की। आंशु को लगता वह किसी ख़ास मिट्टी की बनी थी वर्ना जहाँ ऑफ़िस की दूसरी महिला सहकर्मी ज़रा-ज़रा
-सी बात का रोना ले बैठतीं, अपनी गम्भीर समस्या के बारे में पल्लवी ने कभी एक शब्द भी नहीं कहा।
ऑफ़िस की पार्टी-पिकनिक में पल्लवी की उपस्थिति कुछ लोगों को आश्चर्य में डाल देती। पीठ पीछे की फुसफुसाहटें आंशु को ही नहीं, शायद पल्लवी को भी सुनाई पड़ती हों.
‘कमाल है घर में पति इतना सीरियस है और यह यहाँ मजे़ उड़ा रही हैं।’
‘मानना पड़ेगा, बहुत बड़े ज़िगरे वाली है। हमारे उनको तो मामूली बुख़ार भी हो जाए तो सच मानो जान ही निकल जाती है।‘ मिसे़ज मलकानी फुसफुसातीं।
‘ठीक कहती हैं, पल्लवी के पति को तो मामूली बुखार नहीं है न?’ चिढ़कर आंशु जवाब दे डालती।
‘तू तो बेकार ही नाराज़ हो जाती है। क्या हमें उससे हमदर्दी नहीं, पर हर बात की एक हद होती है।‘ शीला जी तिलमिलातीं।
‘हाँ, हर बात की एक सीमा होती है। क्या आप नहीं जानतीं पिछले एक-डेढ़ वर्ष से पल्लवी कैसी जिंदगी जी रही है। क्या ज़रा सी- खुली हवा में साँस लेने का उसे अधिकार नहीं? आंशु नाराज़ हो उठती।
‘हमें क्या पड़ी है, जिसका जो जी चाहे करे।‘ मिसेज़ मलकानी ने मुँह फेर लिया।
‘तू क्यों मेरे लिए सबसे झगड़ा मोल लेती है, आंशु? तू मुझे समझती है, बस मेरे लिए इतना ही काफ़ी है।’
पल्लवी आंशु को समझाती।
‘बात लड़ाई की नहीं है, मुझे उनकी ज़हालत पर गुस्सा आता है। क्या फ़र्क है इनमें और अनपढ़ औरतों मे ? आंशु उत्तेजित थी।
‘जाने दे आंशु, खुद मेरा क्या कहीं आने-जाने का मन करता है ? निखिल ही बार-बार ज़िद करके भेजते हैं। न जाऊँ तो उनका अपराध-बोध इस हद तक बढ़ जाता है कि सम्हाल पाना मुश्किल हो जाता है। एकदम अपसेट हो जाते हैं।’
‘जानती हूँ, पल्लवी। तीस वर्ष की उम्र में तू तपस्विनी बन गई है। जिस हिम्मत के साथ तू स्थिति का सामना कर रही है, शायद उसी की वज़ह से निखिल इतने सामान्य रह सके हैं।’
‘हाँ आंशु, निखिल कहते हैं बात सिर्फ़ मेरी नौकरी के पैसों की ही नहीं है, उन्हें लगता है मेरा घर से बाहर निकलना इसलिए भी ज़रूरी है कि चार लोगों से बात करके मन बदल जाए, वर्ना कमरे की चाहरदीवारी और अस्पताल के वार्ड्स में ही ज़िंदगी सिमटकर रह जाती है। कहते हैं कमरे की क़ैद उनकी तो मज़बूरी है, पर मेरी क़ैद उन्हें मंजूर नहीं.....।’
पल्लवी की आवाज़ रूंध -सी गई।
‘ठीक ही तो कहते हैं। तू बड़ी बहादुर है, पल्लवी। अगर तू ऐसी न होती तो निखिल की ज़िंदगी और भी बोझिल हो उठती।’
‘जानती है आंशु, कभी मैं ‘डरपोक लड़की’ के नाम से पहचानी जाती थी....।’
हल्की मुस्कान के साथ पल्लवी ने पहली बार अतीत के पृष्ठ पलटे थे।
‘कांट बिलीव। तू और डरपोक?’ आंशु हंस पड़ी।
‘सच कहती हूँ आंशु किसी मौत की ख़बर सुन, पूरी रात सो नहीं पाती थी। एम0ए0
करने तक छिपकली से डर कर, अम्मा से चिपट कर सो पाती और अब हर पल मौत की आहट सुनते हुए निःशंक सो जाती हूँ। म्लान मुस्कान ओं ठो पर तैर गई।
‘घबरा नहीं, तेरी तपस्या बेकार नहीं जाएगी। किडनी ट्रांसप्लांट होने के बाद अक्सर लोग बिल्कुल ठीक हो जाते हैं। अब तू सममुच बहादुर है, पल्लवी।‘ आंशु ने बात परिहास में टाल देनी चाही।
‘असल मे मैं सिर्फ़ डरपोक ही नहीं, बेहद नर्वस टेम्परामेंट वाली लड़की थी। घर में सबसे छोटी होने की वज़ह से सबकी लाड़ली थी। कभी कोई काम इंडिपेंडेंटली करने का मौक़ा ही नहीं मिलता था।’
‘फिर अब तूने इतना सब कैसे सम्हाल लिया है, पल्लवी? निखिल को डाइलेसिस के लिए ले जाना, दसियों बार अस्पताल के चक्कर लगाना, घर-ऑफ़िस, बेटी सब कुछ तेरे ही कंधों पर तो हैं।’
‘दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है, आंशु। निखिल अकेले बेटे हैं। एक बहिन है वह भी दुबई चली गई। ससुर जी उम्र की वज़ह से अशक्त हो चले हैं फिर भी घर में उनकी उपस्थिति से बल मिलता है....।
‘सच वक़्त के साथ इंसान कैसे बदल जाता है, तू इसकी जीती-जागती मिसाल है, पल्लवी।’ आंशु के स्वर में आदर -सा उभर आया था।
‘आज जिस पल्लवी को तू देख रही है, वह अपने अम्मा-बाबूजी की नहीं, निखिल की पल्लवी है।’
हल्का -सा गर्व छलक आया था पल्लवी की आवाज़ में।
‘एक बात बता, हर सुबह सबके सवालों का ज़वाब देते तो खीज़ नहीं जाती?’
‘नहीं आंशु, पर एक डर ज़रूर लगता है......एक दिन शायद सब ठीक न रहे। कैसे कह सकूंगी निखिल नहीं......। अचानक पल्लवी सहम -सी गई।
‘ऐसा क्यों सोचती है, पल्लवी?’
‘क्योंकि निखिल का ठीक होना चमत्कार ही होगा। लोग अगर उसी प्रत्याशित की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तो क्या उनकी सोच ग़लत है ? दूसरों की क्यों, क्या खुद मैं भी उसी का इंतज़ार नहीं कर रही ?’ पल्लवी की आवाज़ जैसे कहीं दूर से आ रही थी।
‘छिः तू इतनी हिम्मत वाली है फिर भी दिल छोटा कर रही है। भगवान पर भरोसा रख।’
‘हाँ आंशु मैं सचमुच साहसी हूँ। मौत की पदचाप सुनते हुए, सोने की आदत डाल लेना किसी कमज़ोर इंसान को शायद ही संभव हो।’
‘चल काफ़ी हाउस चलते हैं, तेरा मन बदल जाएगा।’
‘न, आज नहीं, निखिल की ब्लड-रिपोर्ट कलेक्ट करनी है।’
‘सच तू सच्ची साधना कर रही है, पल्लवी।’
‘अगर कोई किसी को अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करे तो उसके लिए कुछ भी करना बहुत आसान लगता है। तपस्या या साधना जैसे शब्द उसके आगे बेमानी हैं।’
‘तू निखिल को बेहद चाहती है न पल्लवी? उनके बिना जीने की आदत कैसे...। अचानक अपनी बात कहती आंशु ने जीभ काट ली। क्या कह गई वह ?
‘हाँ आंशु, निखिल के बिना रह पाना शायद आसान न हो, पर डॉक्टर हर बार कहते हैं किसी भी सिच्चुएशन के लिए मुझे तैयार रहना चाहिए।’
‘जानती हूँ उधर डॉक्टरों की चेतावनी, इधर लोगों के सवालों का आतंक, कैसे झेल पाती है, पल्लवी।
‘लोगों से शिकायत क्यों? वे तो अपना फर्ज़ अदा करते हैं। हाँ कभी उनकी आँखों में झांकता सवाल-और कब तक खींच सकेगी, तिलमिला जाता है। कभी-कभी हमदर्दी भी पीड़ा का कारण बन जाती है आंशु, यह बात अब जानी है।’
‘निखिल की मनःस्थिति तो और भी ज़्यादा तकलीफ़देह होगी, पल्लवी।’
‘यही तो ताज़्जुब है आंशु, जिंदगी से बेहद प्यार करने वाले निखिल जानते हैं ज़िंदगी उनके हाथ से फ़िसली जा रही है फिर भी कोई शिक़ायत नहीं, कोई अवसाद नहीं। मुझे हिम्मत देने के लिए कभी बेहद तकलीफ़ होने के बावजूद सामान्य रह, जबरन मुस्कराते हैं। कभी उनकी आँखों में अनगिनत सपने हुआ करते। सारी दुनिया को जीत लेने की आग रहती। वह आग अब मंद पड़ गई है, सपने जम गए हैं, लेकिन मुझे तराशने में जी-जान से जुटे हैं।’
‘क्या, निखिल तुझे तराश सकते हैं?’
‘हाँ आंशु, शादी के बाद हर काम के लिए निखिल पर निर्भर रहती। जिस दिन निखिल को अपनी बीमारी की गम्भीरता का एहसास हुआ, हर छोटे-बड़े काम की ज़िम्मेवारी मेरी होती गई। मैं रोई, प्रतिरोध करना चाहा, पर निखिल ने कभी प्यार से, कभी डांट कर हर काम सिखाया। धीरे-धीरे निखिल कमज़ोर होते गए और मुझे मज़बूत बनाते गए। बेटी को होस्टेल में रखकर पढ़ाने का निर्णय आज ठीक लगता है, पर तब मैं बहुत रोई थी।
‘देवयानी की पढ़ाई कैसी चल रही है, पल्लवी?’
‘बहुत तेज़ है, हर परीक्षा में फ़र्स्ट आती है। होस्टेल भेजते वक़्त उसके पापा ने कहा था उसे डॉक्टर बनकर अपने पापा की बीमारी पूरी तरह से दूर करनी है। बस जी-ज़ान से पढ़ाई में जुट गई है।’
‘सच निखिल जैसे इंसान कम होंगे। इतने कर्मठ, सक्रिय व्यक्ति को घर पर रहना कितना खलता होगा?’
‘जब तक शरीर ने पूरी तरह जवाब नहीं दे दिया, अपना हर काम खुद करते रहे। धीमे-धीमे ऑफ़िस जाना बंद कर देना पड़ा। अब निखिल की जगह मैंने ले ली है। निखिल घर में हैं और मैं ऑफ़िस आती हूँ।’
बात ख़त्म करती पल्लवी हाँफ़- सी उठी।
‘तू तो दूसरों के लिए एक मिसाल है, पल्लवी।’
‘नहीं आंशु मैं इन शब्दों के लायक़ नहीं। आदमी हमेशा से लापरवाह होते हैं। निखिल को बचपन से डाइबेटीज़ थी। डॉक्टर ने उन्हें जो सावधानियाँ रखने को कहीं, उन्होंने उन पर ध्यान नहीं दिया। अगर डाइबेटीज़ पर नियंत्रण रखा जा सके तो शायद किडनी और दिल बचाए जा सकते हैं। काश ! मैं उनकी ठीक केयर ले पाती।‘ पल्लवी ने लम्बी साँस ली थी।
‘जाने दे, होनी को कौन टाल सका है। अब तो उनकी केयर लेने में तू कोई कसर नहीं छोड़ रही। भगवान चाहेगा सब ठीक हो जाएगा।’
‘तेरी बात सच हो, आंशु। मैं तो विश्वास हार रही हूँ।’
पल्लवी उदास हो आई।
चार-पाँच दिनों से पल्लवी ऑफ़िस नहीं आ रही थी। पता लगा, निखिल की किडनी के लिए कोई डोनर मिल गया है। निखिल को लेकर पल्लवी दिल्ली गई है।
महिला सहकर्मियों की चिन्ता का ख़ास विषय यह था कि पल्लवी ने उतने ढ़ेर सारे रूपयों का इंतज़ाम कहाँ से किया होगा ?
‘किडनी ट्रांसप्लांटेशन में दो-तीन लाख रूपयों से कम का खर्च तो नहीं आएगा? किसने दिए होंगे ? निखिल के ऑफ़िस ने तो पहले ही आर्थिक सहायता देने से इंकार कर दिया था। प्राइवेट नौकरी में ज़्यादा की उम्मीद ही बेकार है।’
मिसेज़ जादवानी सचमुच कंसर्न थीं।
‘हाँ जमा-पूँजी तो बार-बार के डाइलेसिस पर ही खर्च हो गई होगी।’
जैसे शीला जी के पास निखिल के हर बार के डाइलेसिस का पूरा लेखा-जोख़ा था।
‘शायद ऑफ़िस से पी0एफ़0
लोन लिया हो।’
सरस्वती फिर भी सही लाइन पर सोचती।
‘ख़ाक लोन मिलेगा। बड़े बाबू कह रहे थे मैडम का सारा पी0एफ0
उनके पति की बीमारी खा गई।’
मिसेज़ नारायण की हमेशा से दूसरों में रूचि अधिक रहती।
‘अच्छा हो हम पैसों की व्यवस्था की चर्चा की जग़ह, भगवान से निखिल जी के स्वास्थ्य-लाभ के लिए प्रार्थना करें।’
सख़्त लहजे़ में अपनी बात कहकरआंशु ने फ़ाइल में सिर झुका लिया।
‘हमे क्या पड़ी है दूसरों के बारे में सिर खपाने की। साथ में काम करते हैं, सो सोचना तो पड़ता ही है।’
शीला जी ने नाराज़गी ज़ाहिर की।
‘ठीक कहती हो। हमे तो डॉक्टर साहनी ने बताया है निखिल जी के दिल की हालत भी काफ़ी नाजुक है। किडनी ट्रांसप्लांटेशन शायद आसान न हो।‘ मिसेज़ जादवानी ने शीला जी की बात का समर्थन किया।
‘ओह उस हालत में तो रूपए भी बेकार पानी में जाएँगे। इससे अच्छा तो जो पास में है उसे बचाकर रखती। सामने बेटी है, कल को उसका भी ब्याह करना होगा। मिसेज़ नारायण ने अपनी राय दी।
‘माफ़ करें, पल्लवी की जिंदग़ी, उसके सोच पर सिर्फ़ उसका अधिकार है हमें अपनी राय देने का हक़ नहीं है।’
आंशु चिढ़ गई थी।
‘तू तो ऐसी बात करती है, मानो तू ही उसकी सच्ची हमदर्द है। आखि़र पल्लवी से हमारा भी कुछ रिश्ता है। शीला जी नाराज़ हो गईं।
निखिल के बारे में सब जानने को उत्सुक थे। बेचैनी से आपरेशन के परिणाम का इंतज़ार था। अक्सर उनकी चर्चा का विषय आपरेशन की सफलता या असफलता रहता। ऊपर से कुछ भी कहा जाता, अन्दर से असफलता का ज़्यादा विश्वास था। दूसरे शब्दों में अब क्लाइमेक्स आ पहुँची थी। बस किसी भी घड़ी चले आ रहे नाटक का परदा गिरने ही वाला था। दिल्ली से लौटे गुप्ता बाबू ने जब बताया निखिल का आपरेशन सफल हो गया तो लोगों के बीच सन्नाटा- सा खिंच गया।
‘क्या कहते हैं गुप्ता जी, यह तो सचमुच चमत्कार ही हो गया।’
सरस्वती विस्मित थी।
‘अरे अभी क्या कहा जा सकता है, पहले यह तो देखो बाडी किडनी एक्सेप्ट करती है या नहीं। मैं कई लोगों को जानती हूँ, जिनका आपरेशन तो हो गया बाद में शरीर ने प्रत्यारोपित अंग को स्वीकार नहीं किया।’
शीला जी ने अपना ज्ञान बघारा।
‘यही चाहती हैं, आप?’
आंशु अपना नियंत्रण खो बैठी।
बात सचमुच सोचने की थी। आपरेशन की असफलता की स्थिति में हमदर्दी जताने के लिए हज़ार बातें थीं। शीला जी ने दूर तक की सोच रखी थी। पल्लवी का दिल जीतने के लिए अपने घर में एक कमरा मामूली किराए पर देने का निश्चय वह कर चुकी थीं।
‘भगवान की कृपा है। पल्लवी जीत गई, पर आगे भी सब ठीक रहे। शीला जी ने मुश्किल से बात कही।
‘हाँ बेचारी पर भगवान को तरस आ ही गया। हमे तो उम्मीद कम थी, पर चमत्कार भी होते हैं।’
मिसेज़ जादवानी ने तरस दिखाया।
‘पल्लवी कभी बेचारी नहीं थी। क्या उसने कभी किसी की सहायता माँगी, किसी के सामने रोई-गिड़गिड़ाई?’ आंशु का स्वर उत्तेजित था।
‘हाँ आंशु की यह बात तो सच है। पल्लवी ने किसी पर ज़ाहिर नहीं होने दिया कि घर में उसका पति इतना सीरियस है। हमेशा हंसकर अपना दुख पीती रही।‘पहली बार मिसेज़ जादवानी ने पल्लवी के प्रति सहानुभूति दर्शायी।
अब सबको पल्लवी का इंतज़ार था। एक महीने बाद अपनी पुरानी मुस्कान के साथ पल्लवी ऑफ़िस में हाज़िर थी। सबने घेर कर बधाइयों की बौछार कर डाली-
‘भई पल्लवी, मिठाई कहाँ है?’
‘हमें तो ग्रैंड पार्टी चाहिए, सिर्फ मिठाई से काम नहीं चलने वाला।’
‘हाँ भई अब तो निखिल भी कमाएंगे। दुगनी इनकम हो जाएगी।‘ शीला जी की ईर्ष्या बज उठी।
‘लगता है सिर्फ पैसा कमाने के लिए ही निखिल जी को नई ज़िंदगी मिली है। क्यों, शीला जी?’ आंशु का व्यंग्य स्पष्ट था।
‘छोड़ आंशु। ढे़र सारा काम पेंडिंग पड़ा है, पहले वो तो निबटा डालूं।‘हल्की मुस्कान के साथ पल्लवी ने बात टाली थी।
एकांत पाते ही आंशु ने पूछा-
‘अब कैसा महसूस करती है, पल्लवी? लगता होगा वर्षो का दुख, पल भर में दूर हो गया ?
‘हाँ आंशु, आज ऑफ़िस में बड़ी विचित्र सी अनुभूति हुई....।’
पल्लवी कुछ कहते रूक गई।
‘क्या हुआ, पल्लवी?’
‘सबकी दयापूर्ण नज़रें झेलने की आदत बन गई थी। आज बधाइयों के पीछे छिपी निराशा इतनी साफ़ चमक रही थी..... उसे झेल पाना सच बहुत मुश्किल लगा।’
पल्लवी की आँखें पनीली थीं।
पल्लवी के गम्भीर चेहरे को आंशु अवाक् ताकती रह गई।
सुंदर कथा।
ReplyDeleteयही है आज की दुनिया ...बहुत मर्मस्पर्शी कहानी ...जीने का हौसला देती हुई ...संघर्ष का नाम ही जीवन है ...
ReplyDeleteधन्यवाद्। आप जैसे सुधी पाठकों की उत्साह्वर्द्धक प्रतिक्रियाएं ही मेरी प्रेरणा हैं। अन्य कहानियों और उपन्यासों पर भी आपक्र विचार आमंत्रित हैं।
ReplyDeleteपुष्पा सक्सेना