1/16/11

निर्वासन


निर्वासन

टाई ढीली कर ऋषि पलंग पर पड़ गया। उसके माथे की लट हटाती नेहा ने झुक कर प्यार से पूछा,

’’थक गए न, चाय मँगाऊँ ?’’  

‘‘नहीं यार ! बस तुम पास आ जाओ, चाय की गर्मी मिल जाएगी।’’  

‘‘छिः बड़े बेशर्म हो ! घर में सब क्या सोचेंगे ?’’  

‘‘इसमें सोचने की क्या बात है ? कुछ नया तो हो नहीं रहा, बल्कि सब खुश ही होंगे, जमाई राजा उनकी बिटिया रानी पर इस तरह फ़िदा हैं, ठीक कहा न ?’’  

‘‘अच्छा जी, जैसे कोई अहसान कर रहे हैं !’’ नेहा ने मान दिखाया।  

‘‘एक बात समझ में नहीं आयी, यह तुम्हारे इलाक़े में बच्चों तक को ‘आप’ कह कर क्यों बुलाते हैं....’’  

‘‘इसलिए कि हमारे यहाँ सबको आदर दिया जाता है। दिल्ली की तरह तू-तड़ाक की बोली हमारे इलाक़े में नहीं चलती।’’  

‘‘ओह, अब समझा, पर शादी के पहले तो मेरा तू पुकारना बड़ा प्यारा लगता था ज़नाब को ! ’’  

‘‘वो तो अब भी लगता है, पर सच बताऊँ, पहली बार बस कंडक्टर की धाराप्रवाह गालियों ने मुझे डरा दिया था....क्या लच्छेदार भाषा थी !’’  

‘‘क्यों, ऐसा क्या कह दिया था ?’’  

‘‘छुट्टे पैसों के लिए नाराज़गी सहो और अगर ग़लती से अपने बाकी बचे पैसों के लिए तकाज़ा कर दिया, तब तो शामत ही आ गयी समझो...’’  

‘‘पैसों के लिए ऐसा ही बावला था, तो छुट्टे लेकर चढ़ता...काए को भौंक रहा है, जा, जा, घर में जनानी तेरा इंतज़ार कर रही होगी ! बेकार जान से जाएगा....’’ यही सब सुनती थी न ?’’ ऋषि मज़े से मुस्करा रहा था।  

‘‘इतना सब क्या डराने को काफ़ी नहीं है ?’’ ऋषि की मुस्कराहट पर नेहा विस्मित थी।  

‘‘सच नेहा, तुम्हारे उस मासूम, डरे-सहमे चेहरे पर ही तो हम मर मिटे थे। ! दिल्ली की लड़कियों में अलग दिखती थी।’’  

एम0बी0ए0 करने आयी नेहा का ऋषि से परिचय बस स्टॉप पर ही हुआ था। बिहार के मिथिलांचल की नेहा की सादगी ऋषि को भा गयी। गर्मियों में पसीने की गंध में नहायी बस में दोनेां का प्रेम पींगे भरता गया। जगह न मिलने पर खड़े रह कर भी प्यार भरी बातें चलती रहतीं। अगर नेहा को सीट मिलती, तो उसकी सीट के पास खड़े रहना ऋषि का फर्ज़ बन जाता। खड़े-खड़े कभी नेहा के बाल सहलाना या पीठ पर हाथ धरना ऋषि को नितांत स्वाभाविक लगता। बस में रोज़ साथ जाने वालों के लिए ऋषि की यह दीवानग़ी आदत बन गयी थी और नए लोग मुस्करा कर प्यार का मज़ा लेते।  

एम0बी0ए0 पूरा करने के बाद ऋषि के प्रयत्नों से नेहा को उसके कार्यालय में ही जॉब मिल गया था। उदार माता-पिता नेहा और ऋषि के प्यार में बाधा नहीं बने। ऋषि की सौतेली माँ को उसके विवाह में कोई रूचि नहीं थी। ऋषि के आग्रह पर पिता दोनों को आशीर्वाद देने ज़रूर आ गए थे। विवाह का होहल्ला ऋषि के मित्रों ने बखूबीं निभाया। अंततः उनका दोस्त प्रेम में विजयी जो हुआ था।  

विवाह के बाद शिमला में हनीमूल मना कर लौटी नेहा को पिता का पत्र मिला था। नयी गृहस्थी शुरू करने से पहले कुलगुरू का आशीर्वाद लेने दोनों को पैतृक गाँव जाना ही चाहिए। ऋषि को भी गांव-दर्शन मे रुचि ना होते हुए भी गांव  जाना पड़ा था।  

गांव पहुंचे ॠषि ने प्रस्ताव रखा था-

'सुना है पास में एक सुंदर झील है। कल हम वहां बोटिंग के लिए चल सकते हैं।'

‘‘नो ऋषि, कल हम यहाँ के मंदिर देखने चलेंगे।’’  

‘‘ओह नो ! मंदिरों मे मेरी कोई दिलचस्पी नहीं, बहुत देख रखे हैं.....’’  

‘‘नहीं ऋषि, यहाँ के मंदिरों की सादग़ी में जो सच्चाई है, वो दिल्ली के तड़क-भड़कवाले मंदिरों में नहीं मिलेगी। चलोगे न प्लीज़ ?’’  

‘अब आपके इलाके में हूँ, तो हुक्मउदूली की जुर्रत कैसे कर सकता हूँ ? जहाँ कहेंगी, यह गुलाम साथ जाएगा।’’  

‘‘चलो, अपने इलाके में रहने का एडवांटेज कहीं तो मिला ! वैसे यहाँ की मशहूर लड़की रही हूँ। कॉलेज की डिबेट्स में हमेशा फ़र्स्ट आती थी।’’ नेहा के स्वर में गर्व की खनक थी।  

‘‘आपकी बहादुरी के आगे बंदा सिर झुकाता है, अब तो खुश हैं, मेरी सरकार ?’’  

ऋषि की नाटकीय मुद्रा पर नेहा खिलखिला उठी। सच तो यह है, ऋषि की ऐसी ही मनभावन बातों ने नेहा का मन जीत लिा था। बस स्टॉप पर सामान्य बातचीत से बढ़कर दोनों के बीच प्रेम का अंकुर कब पुष्पित-पल्लवित होने लगा, नेहा जान भी ना सकी।  

अपनी क्लास़ खत्म कर नेहा जब भी बस स्टॉप पहुँचती, ऋषि को प्रतीक्षा में खड़ा पाती। कभी बस की प्रतीक्षा में खड़ा पाती। कभी बस की प्रतीक्षा में ठंडा कोक लिए खड़े-खड़े काफ़ी देर हो जाती, पर दोनों के खिले चेहरे ‘कोक से मिली ताज़गी’ के प्रतीक बन लोगों को आकृष्ट करते।  

दूसरी सुबह मिथिलांचल के मंदिर दिखाती नेहा उत्साहित थी। दूध से उजले चेहरे को मुग्ध दृष्टि से देखता ऋषि अचानक पूछ बैठा,  
‘‘एक बात बताओ नेहा, यहाँ हर जगह जानकी के ही मंदिर क्यों हैं, राम मंदिर क्यों नहीं हैं ?’’ 
‘‘दादी कहा करती थीं कि जानकी जी मिथिला की बेटी थीं। रामचंद्र ने उनका परित्याग किया था। बेटी का निर्वासन मिथिलावालों के लिए दुखदायी था, पर दामाद को दंडित तो नहीं किया जा सकता न, सो अपना आक्रोश मिथिलावासियों ने इस तरह प्रकट किया है। जिस दामाद ने उनकी बेटी को त्यागा, उस दामाद को बेटी के साथ मंदिर में स्थापित नहीं करेंगे। बस, इसीलिए यहाँ जानकी मंदिर हैं, सीता-राम के नहीं।’’  

‘‘वाह, दंड के इस निराले तरीक़े को अगर मर्यादा पुरूषोत्तम राम देख पाते, तो मिथिलावासियों की सूझबूझ की दाद ज़रूर देते।’’  

‘यह परिहास का विषय नहीं ऋषि। सच कहो, क्या जानकी का परित्याग न्यायोचित था ? अगर राम की जगह तुम होते, तो क्या तुम भी वही करते, जो उन्होंने किया ?’’  

‘‘बिलकुल नहीं। अगर यह भी जान पाता कि ग़लती मेरी नेहा की है, फिर भी हज़ार बार हाथ जोड़ अपनी पत्नी को घर में रानी बना कर रखता।’’  

नेहा को कंधे से पकड़ अपने पास लाने के ऋषि के प्रयास में मुक्ता ने बाधा डाली थी,

‘‘चलिए जीजा जी, नीचे सब लोग इंतज़ार कर रहे हैं। मुझे तो लगा, कहीं आप दीदी को किसी मंदिर में देवी बना स्थापित ना कर दें।’’  

‘‘उस स्थिति में तुम्हें मेरे साथ चलना होगा, क्योंकि अब अकेले रहने की तो आदत छूट गयी है !’’ ऋषि के परिहास पर मुक्ता लजा गयी और नेहा हँस पड़ी।  

एक सप्ताह हँसी-खुशी में बीत गया। बहुत ज़ल्दी अपनी वाक्पटुता के कारण ऋषि सबका चहेता बन गया। दिल्ली वापिस जाती नेहा को सीने से लगा माँ रो पड़ीं। नम आँखों से दामाद से विनती की थी,

 ‘‘वैसे तो जबसे पढ़ाई के लिए घर से बाहर गयी, तबसे नेहा हमसे दूर रही, पर अब तो हमारा इस पर कोई अधिकार नहीं रहा। इसे प्यार से रखना बेटा.....’’  

‘‘आप चिंता न करें, अम्मा जी। नेहा को कभी किसी तरह की शिकायत का मौक़ा नहीं मिलेगा।’’  

छोटी बहन मुक्ता के सिर पर प्यार से हाथ धर नेहा ने दिलासा दिया था, ‘‘ज़ल्दी ही तुझे दिल्ली बुला लूँगी। लड़कियों के लिए वहाँ बहुत से कोर्सेज़ हैं, कहीं भी एडमीशन दिला दूँगी।’’  

‘‘हाँ, यह ठीक रहेगा। वैसे भी आपके बाबू जी ने हमारे लिए इतना बड़ा घर खरीद दिया है कि जगह ही जगह है। दूसरी सबसे बड़ी बात, दिल्ली मे मुझ जैसे अच्छे लड़कों की कमी नहीं, मुक्ता भी अपने लिए मनपसंद पति चुन लेगी। क्यों ठीक कहा न मुक्ता ?’’  

‘छिः जीजा जी, आप बड़े वो हैं !’’ सबके सम्मिलित हास्य पर मुक्ता लजा गयी थी।  

दिल्ली पहुँच पुरानी दिनचर्या शुरू हो गई। फ़र्क बस इतना था कि अब बस की जगह ऋषि का स्कूटर आ गया था। नेहा के साथ ऋषि का एकाकी जीवन परिपूर्ण हो गया था। कभी ऋषि माँ-बाप का लाड़ला इकलौता बेटा था, माँ की मृत्यु के बाद जब पिता ने दूसरी शादी कर ली, तो ऋषि बहुत अकेला पड़ गया। विमाता और उनके बच्चों के साथ ऋषि रिश्ता नहीं जोड़ सका। पिता ने कभी उसका मन समझने का प्रयास ही नहीं किया। ऋषि का अतीत उसे कभी-कभी उदास कर देता।  

अपनी छोटी- सी गृहस्थी को सजाने-सँवारने में नेहा जुट गयी। जब भी कुछ नया खरीदती, मुक्ता को पूरी खबर पहुँच जाती। अपनी उस दुनिया में सबसे बेख़बर दोनों खुश जी रहे थे। अपने सौभाग्य पर नेहा गर्वित थी। विवाह के पहले बाबू जी को शंका थी, कहीं नेहा के चयन में ग़लती तो नहीं, पर अब सब आश्वस्त थे। प्यार से दमकते उनके चेहरों से रश्क हो आता।  

पिछले कुछ दिनों से नेहा की तबीयत गिरी-गिरी- सी रहती। बिस्तर से उठते ही चक्कर से आते। ऋषि परेशान था। पड़ोस की उर्मिला चाची ने जब किसी खुशखबरी की संभावना की बात कही, तो नेहा चौंक उठी। ऑफिस से छुट्टी ले नेहा पास के हॉस्पिटल पहुँची थी। ऋषि किसी सेमिनार में लखनऊ गया हुआ था।  

लेडी डॉक्टर के केबिन में नेहा को परिचित चेहरा दिखा था। डॉक्टर की दृष्टि में भी पहचान उभर आयी....,  
‘‘नेहा....तू यहाँ ?’’ डOउक्टर विस्मित थी।

‘‘मैं भी चक्कर में पड़ गयी, तू डॉक्टर बन गयी सुरेखा ?’’  

‘‘क्यों, क्या मैं इस लायक नहीं थी यार ? ये माना तू मुझसे कुछ ज़्यादा होशियार थी, पर हम भी किसी से कम नहीं ! मेडिकल-एंट्रेंस परीक्षा में क्वालीफाई करके मेरिट में आयी, डोनेशन से नहीं.....। हाँ, यह बता,तू क्या कर रही है ?’’  

‘‘मैंने कब कहा, तू किसी से कम है ! कितने सालों बाद मिल रहे हैं हम। मैंने दिल्ली से एम0बी0ए0 करके यहीं जॉब कर लिया है। तूने तो एम0बी0बी0एस कानपुर से किया था न ? आज अचानक मिलकर कितना अच्छा लग रहा है।’’  

‘‘इसीलिए तो कहते हैं, यह दुनिया बड़ी छोटी है। लगता है, शादी-वादी भी कर डाली है। तुझे हर काम में बड़ी ज़ल्दी रहती है नेहा।’’  

‘‘मैंने तो ठीक वक़्त पर शादी की है, तू अपनी बता.....’’  

‘‘अरे भई, हम डॉक्टर तो बूढ़े होकर शादी कर पाते हैं। ज़नाब सुपर स्पेशलाइजेशन के लिए अमेरिका गए हैं, लौटने पर शादी होगी।’’  

‘‘और अगर वहाँ किसी अमेरिकन लड़कीं को दिल दे बैठे, तो....?’’ नेहा की पुरानी शरारत लौट आयी।  

‘‘तो तेरे लेक्चर बेकार नहीं जाएँगे, तुरंत मुकदमा ठोक दूँगी-मेरे इतने साल जो व्यर्थ किए, उनका भुगतान करें। आज तक तेरे कॉलेज के भाषण याद हैं। क्या ज़ोरदार तर्क दिया करती थी। लड़के भी तुझसे बहस करते घबराते थे। अब पतिदेव को भाषण देती है या नहीं ?’’  

‘‘अरे, वे इतने अच्छे हैं कि भाषण देने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। हर बात आसानी से मान जाते हैं, सुरेखा।’’  

‘‘यानी कि महिला उत्पीड़न के विरूद्ध दिए गए तेरे भाषण बेकार ही गए ! हाँ, यह तो बता, हॉस्पिटल का चक्कर लगाने क्यों आयी है ? निश्चय ही अपनी पुरानी सखी से मिलने तो आयी नहीं है।’’  

‘‘पुरानी सखी ने कोई अता-पता छोड़ा होता, तब न ये शिकायत की बात बनती ! पता नहीं क्यों, पिछले कुछ दिनों से सुबह-सुबह चक्कर आते हैं।’’  

‘‘तो आप खुशखबरी के लिए तैयार हो जाएँ, नेहा जी। पढ़ी-लिखी है, इतना भी नहीं समझ पायी ?’’  

‘‘पर अभी...., मेरा मतलब यह तो बहुत ज़ल्दी होगा सुरेखा। मैं अभी मेंटली प्रिपेयर्ड नहीं हूँ।’’  

‘‘क्या मतलब ? ‘फैमिली प्लानिंग’ शब्द कभी सुना है ? क्या कोई प्रिकॉशन ली थी ?’’  

‘‘नहीं...।’’  

‘‘नहीं, तो तैयार हो जा। घर में नन्ही जान आने से रौनक बढ़ जाएगी। चल, तेरा चेकअप कर लूँ।’’  

‘‘आज रहने ही दे। कल ऋषि के साथ आऊँगी तब....’’  

‘‘क्या नाम है तेरे मियाँ का ?’’  

‘‘ऋषि मेहता....।’’  

‘‘क्या हुआ ? नाम सुनकर चौंक क्यों गयी ?  

‘‘कुछ नहीं। इस नाम के साथ एक कहानी ज़रूर जुड़ी है, पर तुझे डरने की ज़रूरत नहीं। तेरे ऋषि का उस कहानी से कोई वास्ता नहीं है।’’ सुरेखा हँस दी।  

‘‘कहीं इस नाम के साथ प्रेम-वेम का चक्कर तो नहीं था ?’’  

‘‘छोड़। वो एक दर्दभरी दास्तां है, फिर कभी सुनाऊँगी। सुन, कल ऋषि के साथ ज़रा ज़ल्दी आना। पहले तेरा ही चेकअप कर लूँगी। घर यहाँ से दूर तो नहीं ?  

‘‘ओह ! बातों में अपना पता देना ही भूल गयी। अपना कार्ड दे रही हूँ, जब फुर्सत मिले, आ जा।’’  

विजिटिंग कार्ड निकालती नेहा के पर्स से ऋषि के साथ खिंचा नया फोटो टेबल पर गिर पड़ा फोटो उठा, सुरेखा ने भरपूर दृष्टि डाली थी। कुछ देर पहले का मुस्कराता चेहरा अचानक गंभीर हो उठा,
‘‘क्या यही तेरा हबी है ?’’  

‘‘हाँ, क्यों, ॠषि को पहचानती है ?’’  
‘‘नहीं....।’’ अपने को सामान्य बनाए रखने में सुरेखा को काफ़ी प्रयास- सा करना पड़ रहा था।  

‘‘कुछ देर पहले तू ऋषि के नाम पर चौंकी थी और अब फोटो देखकर जैसे डर गयी है। आखिर बात क्या है सुरेखा ?’’  

‘‘कुछ नहीं। तुझे यूँ ही वहम हो गया है। एक काम कर, कल चेकअप के लिए अकेले ही आना....।’’  

‘‘तेरी बातों से मेरा शक पक्का हो रहा है। जब तक सच नहीं बताएगी, मैं यहीं धरना देकर बैठूंगी।’’  

‘‘ज़िद मत कर नेहा। देख, बाहर दूसरे पेशेंट्स वेट कर रहे हैं...’’  

‘‘मैं सच जान कर ही जाऊँगी...’’ नेहा के स्वर में ज़िद थी।  

‘‘मुझे कुछ नहीं कहना नेहा, तू घर जा।’’ रूखाई से अपनी बात कह सुरेखा ने अगले पेशेंट को बुलाने के लिए घंटी बजायी थी। विस्मित नेहा केबिन से बाहर निकलती अपमानित अनुभव कर रही थी।  

उसी शाम ऋषि को साथ ले नेहा डॉक्टर सुरेखा के घर पहुँची थी। कॉल बेल बजाने पर दरवाज़ा खोलती सुरेखा चौंक गयी। ऋषि का तो चेहरा ही उतर गया।  

‘‘आप...?’’ ऋषि अचानक कह गया।  

‘‘तुम सुरेखा को जानते हो, ऋषि ?’’  

‘सॉरी नेहा, अभी इमर्जेसी कॉल पर निकल रही हूँ, किसी दिन हॉस्पिटल आ जाना...।’’  

‘‘इतनी दूर से तेरे पास आयी हूँ, ऐसी भी क्या बेरूखी ? दो मिनट रूक नहीं सकती ?’’ नेहा खिसिया गयी थी।  

‘‘दो मिनट में किसी का जीवन जा सकता है, आप तो यह बात अच्छी तरह समझते हैं न ऋषि जी ? होप, यू डोंट माइंड।’’ सुरेखा के स्वर के व्यंग्य पर नेहा चौक उठी थी।  

घर लौटता ऋषि एकदम चुप पड़ गया था। नेहा पीछे ही पड़ गयी, 
‘‘तुम दोनो के बीच क्या घटा है ? जब तक नहीं बताओगे, चैन से नहीं सो पाऊँगी।’’  

‘‘बता देने पर भी चैन से ना सो पायी, तो क्या करोगी, नेहा ?’’  

‘‘जब तक सच नहीं जान लेती, इस घर में साँस नहीं ले सकूँगी, ऋषि। तुम्हें सच बताना ही होगा।’’  

‘‘सच बस इतना है, मेरे साथ पढ़ने वाली दिव्या प्यार में धोखा खा बैठी थी। प्यार के वादे करने वाला किशोर उसकी प्रेगनेंसी की बात सुन शहर छोड़ गायब हो गया। वह माँ-बाप से सच बताने का साहस नहीं कर सकी। दिव्या को मुझ पर विश्वास था। उसे साथ ले हॉस्पिटल जाना पड़ा था। अनफ़ॉरच्युनेटली एबॉशर्न के समय एक्सेसिव ब्लीडिंग के कारण दिव्या की मौत हो गयी। उस वक़्त तुम्हारी सुरेखा ही सीनियर डॉक्टर को असिस्ट कर रही थी।’’  

‘‘अगर सच यही था, तो सुरेखा तुमसे क्यों नाराज़ दिख रही थी, ऋषि ? तुमने तो मुसीबत में पड़ी लड़की की मदद करनी चाही थी।’’  

'दूसरे दिन नेहा सुरेखा के पास अकेली पहुंची थी। 
'एक बात बता,सुरेखा, तू ॠषि को देख कर उखड़ सी गई थी। ॠषि ने दिव्या की मदद की थी, पर शायद तुझे कोई ग़लतफ़हमी हो गई।'
‘यह तो ऋषि की बतायी कहानी है। खुद उस लड़की ने मुझे बताया था, उसके गर्भ में ऋषि का शिशु था। दोनों के पास नौकरी या अन्य साधन ना होने के कारण एबॉर्शन कराने का निर्णय लेना पड़ा था। हॉस्पिटल के रजिस्टर में दिव्या के पति के रूप में आज भी तेरे ऋषि का नाम दर्ज है, नेहा। मरने वाले झूठ नहीं बोलते।’’  

‘‘ओह नो...., यह सच नहीं हो सकता !’’ सिर थाम नेहा कुर्सी पर ढह- सी गयी थी।  

‘‘मैंने पहले ही कहा था, सच सह पाना आसान नहीं होगा। वैसे बी प्रैक्टिकल नेहा, जो बीत गयी,सो बात गयी। तू ऋषि को प्यार करती है। अतीत को भुला देने में ही भलाई है।’’  

निर्णय लेने में नेहा को देर नहीं लगी थी। अपना सामा पैक करती नेहा को ऋषि ने समझाना चाहा था,  

‘‘मैंने तुम्हें सच बताया है नेहा, मेरी बात पर विश्वास करो।’’  

‘‘बात सच-झूठ की नहीं है ऋषि, तुमने मेरा विश्वास तोड़ा है। अगर तुम्हारा सच तुमसे सुन पाती, तो शायद मेरा निर्णय दूसरा होता। तुम्हारा अपराध भी क्षम्य होता, पर अब....? नहीं, ऋषि नहीं.....अब मेरा निर्णय नहीं बदल सकता।’’  

‘‘तुम्हारा निर्णय क्या है, नेहा ?’’  

‘‘हमारे लिए घर खरीदते वक़्त पापा-मम्मी ने कहा था, घर एक मंदिर होता है। पति-पत्नी का एक-दूसरे के प्रति प्यार और विश्वास ही घर की नींव मजबूत बनाता है, पर हमारी वो नींव खोखली निकली। मैं घर छोड़ कर जा रही हूँ, ऋषि....।’’  

‘‘पर यह घर तो तुम्हारा है नेहा, तुम्हें घर छोड़ने की ज़रूरत नहीं।’’  

‘‘याद है ऋषि, जानकी मंदिर देख तुमने कहा था, मिथिलावासियों के दंड का तरीका निराला है। आज उसी परिपाटी में मैं मिथिला की बेटी अपने को स्वयं इस घर से निर्वासित कर रही हूँ।’’  

‘‘पर इस तरह तो तुम अपने को दंडित कर रही हो नेहा, मुझे नहीं।’’  

‘‘मेरा निरपराध निर्वासन हमेशा तुम्हें अपनी भूल याद दिलाता रहेगा, ऋषि। हमारे दंड का तरीका सचमुच अनोखा है, ऋषि !’’ उदास मुस्कान नेहा के होठों पर आयी।  

सीढ़ियाँ उतरती नेहा को ऋषि निर्वाक ताकता रह गया।  


No comments:

Post a Comment