11/17/10

अनुत्तरित प्रश्न

अनुत्तरित प्रश्न    (संस्मरण)




रात के डेढ़ बजे टेलीफ़ोन की घंटी घनघना उठी। घड़ी पर दृष्टि डालती पूजा के मन में खुशी की लहर दौड़ गई। ज़रूर बच्चों ने उसके जन्मदिन की बधाई के लिए फ़ोन किया होगा। बारह बजते ही वे माँ को बधाई देना कभी नही भूलते।

हलो !’ उत्साहित पूजा ने फ़ोन उठाया।

हिम्मत रखो, पूजा....छोटे भाई अवनीश ने गंभीर स्वर में कहा।

क्यों, क्या हुआ, अवनीश ?’

जीजी क्रिटिकल हैं। बहुत ख़राब हालत है।

आवाज़ का सुर सुनती पूजा जैसे सब समझ गई।

सच कहो, जीजी होश में तो हैं ?’

शायद नहीं.....

जीजी हैं तो ?’

शायद नहीं.....

बात स्पष्ट थी, फिर भी विश्वास नहीं हो रहा था।

इतनी कर्मठ, सक्रिय जीजी कभी हमेशा के लिए मौन हो सकती हैं, किसने सोचा था ?

छोटी- सी बात, छोटे-मोटे अवसरों को भी जीजी महोत्सव का रूप देतीं। उनके आते ही त्यौहार का माहौल बन जाता। तीज-त्यौहार उनके लिए लोगों को बुलाने-खिलाने-पिलाने के बहाने होते। अम्मा उनके इस शौक़ पर कहतीं-

कोई जीने के लिए खाता है, हमारी स्वाति खाने के लिए जीती है।

आवाज़ इतनी बुलंद कि दूर से उनका आना पता लग जाता। सच तो यही है हर काम में जीजी सिर्फ़ स्वयं ही उत्साहित नहीं होतीं बल्कि सबमें उत्साह भर देतीं। खुशी जैसे जीजी का पर्याय थी। ईर्षा, द्वे, दुख उन्हें छू भी नहीं गए थे। अगर किसी ने अपमान भी किया तो उसे अपने उदार हृदय से केवल क्षमा किया, वरन् बहुत प्यार से अपना लिया। सच यही है, जो भी उनसे मिला, हमेशा के लिए उनका अपना हो गया।

घर के आंगन में स्वाति जीजी अपनी अंतिम यात्रा के लिए तैयार थीं। चेहरे पर वही शांति, तेज़ और वही जीवंतता देख लगता ही नहीं था जीजी अब कभी नहीं बोलेंगी। उनकी मनपंसद काँच की चूड़ियाँ, कानों में बाली, लाल सिल्क की साड़ी में लग रहा था, कहीं बाहर जाने के पहले जीजी ज़रा देर के लिए सो गई हैं।

अंतिम यात्रा के लिए अरथी उठाई जानी थी। बाहर एंबुलेंस चुकी थी। शहर में जीजी ने साहित्यिक-सामाजिक संस्थाएँ स्थापित कर रखीं थीं। साहित्यिक संस्था की सचिव कल्पना ने भीगे कंठ से कहा-

स्वाति दीदी की अरथी को हम औरतें कंधा देंगे।

कल्पना की बात पर सब चौंक गए। भला यह भी क्या संभव है ? कल्पना की बात अनसुनी कर, भइया के साथ लोगों ने जीजी को कंधे पर उठा एंबुलेंस में पहुँचा दिया।

जीजी की दोनों छोटी बहिनें, भतीजियाँ, मित्र-गण और संस्था की सदस्याएँ घाट पहुँच गई। उनके घर काम करने वाली पैंतीस वर्षों की सहचरी रूपा का रो-रोकर बुरा हाल था। छुटपन से जीजी के घर काम करने आई रूपा जीजी के प्यार के कारण बस उन्हीं की होकर रह गई। रूपा की गोद में सिर रखकर ही जीजी ने हमेशा के लिए आँखे मूँदी थीं।

दीदी, हमें धोखा दे गईं। हमसे कहा पेट ख़राब है, नहीं तो क्या  हम डॉक्टर नहीं बुलाते ?’ रोती रूपा बिलख रही थी।

लोग ताज़्जुब में थे, पहले चार दिनों से शहर में आयोजित कार्यक्रमों में जीजी अध्यक्षता करती रहीं, वक्तव्य दिए। सुबह की गईं रात के दस बजे तक लौटतीं रहीं। अवसान की रात नौ बजे दूसरे दिन की मीटिंग के बारे में कल्पना को निर्देश दे रही थीं। अचानक उल्टी और बेचैनी प्राणघातक सिद्ध होगी, कौन सोच सकता था ? कल्पना कह रही थीं-

स्वाति दीदी ने जीवन भर महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष किया, हम सबको समझातीं, पुरूषों को अपनी बैसाखी बनाना स्त्रियों की कमज़ोरी है। स्वाति दीदी की अंतिम यात्रा तो हमारे कंधों पर होनी चाहिए थी।

स्वाति जीजी का सौदर्य अनुपम था। गोरा रंग, तीख़े नक्शगोरा चेहरा जब धूप में लाल हो जाता तो जीजी दर्शनीय बन जातीं। तीनों बहनों में सबसे बड़ी स्वाति जीजी को घर में भी कम संघर्ष नहीं करने पड़े थे।

अम्मा का सोचना था, बाबूजी की मामूली आय में तीन-तीन बेटियों का ब्याह निबटाना आसान काम नहीं है। बारहवीं पास करते ही अम्मा उनकी शादी के लिए परेशान रहने लगीं। जीजी विरोध करतीं-

हमें शादी नहीं करनी है। हम पढ़ेंगे।

बस बहुत पढ़ाई कर ली। शादी के बाद तुझे कौन- सी कमाई करनी है, स्वाति ?’ अम्मा चिढ़ जातीं।

जीजी के अनुरोध का बाबूजी समर्थन करते। अम्मा की बहस के बावजूद जीजी को फ़ीस के पैसे दे देते। अम्मा नाराज़ होती रह जातीं।

इण्टरमीडिएट से एम00 तक हर बार फ़ीस के लिए जीजी को संघर्ष करना पड़ा। इतना ज़रूर है, जीजी के संघर्ष ने छोटी बहिनों की पढ़ाई पूरी करने की राह प्रशस्त कर दी।

एम00 करते वक्त एक सेमिनार में लखनऊ यूनीवर्सिटी के प्राध्यापक राजीव से जीजी की भेंट हुई थी। जीजी के शांत-सौम्य मुख ने राजीव को मुग्ध कर लिया। कुछ ही दिनों बाद राजीव के घर से राजीव के साथ जीजी के विवाह का प्रस्ताव आना सबकी प्रसन्नता का कारण बन गया।

उत्साहित बाबूजी ने बड़े भाई से जब प्रस्ताव की चर्चा की तो उन्होंने तीख़ी आवाज़ में घोषणा कर दी-

राजीव का परिवार माँसाहारी है। अगर उस घर में शादी हुई तो मैं शादी में शामिल नहीं होऊँगा। माँस-भक्षियों के साथ मुझे रिश्ता मंजूर नहीं है।’’

बाबूजी में बड़े भाई की बात काटने की सामर्थ्य नहीं थी। पहली ही शादी में घर के सबसे बड़े सदस्य शामिल हो तो कैसी शादी ? बड़े भाई की आपत्ति पर रिश्ता नकार दिया गया। स्वाति के चेहरे पर आई उदासी की परत पर किसी का ध्यान नहीं गया।

स्वाति जीजी ने योग्यता-श्रेणी के साथ एम00 की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। राजीव के विवाह और कनाडा जाने की सूचना ने जीजी को कुछ देर को मौन कर दिया, फिर तुरन्त ही अपने को सहेज दूसरे कार्यों में व्यस्त हो गईं।

स्वाति के आदरणीय ताऊजी ने स्वाति के विवाह की समस्या का शीघ्र ही समाधान कर दिया। उनके मित्र का आदर्शवादी बेटा नीरज बिना दान-दहेज शादी के लिए उपलब्ध था। अम्मा-बाबूजी, ताऊजी के आभारी थे, उन्होंने अगर एक रिश्ता नकारा तो दूसरा खोज़ भी दिया।

शादी के बाद स्वाति जीजी राख-बुझे चेहरे के साथ वापस लौटी थीं। आदर्शवादी नामधारी नीरज तो पहले ही किसी के साथ अवैध संबंध बनाकर रह रहा था। उस संबंध को तोड़ना उसके लिए असंभव था। स्वामिमानी स्वाति जीजी, उस अवैध संबंध को कैसे स्वीकार करतीं ? घरवाले स्तब्ध रह गए। ताऊजी ने अपने मित्र से हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया, पर उससे जीजी का घर तो नहीं बस सका। कोर्ट से नो मैरिज सर्टिफ़िकेट मिलने के बावजूद जीजी की दूसरी शादी नहीं हो सकी। समाज तो लड़की को ही दोषी ठहराता है।

इतना बड़ा तू़फ़ान झेलने के बावजूद स्वाति जीजी की शांति विस्मित करती। निर्विकार चेहरे के साथ उन्होंने अपने को शोध-कार्य पूरा करने में डुबो लिया। लोगों के निष्ठुर प्रश्न, ताने अनसुने करती रहीं। अनुत्तरित प्रश्न लोगों का कौतूहल बढ़ाते, पर जीजी के मुँह से उस व्यक्ति के लिए एक भी अपशब्द नहीं निकलवा सके, जिसने उनका जीवन व्यर्थ कर दिया-

औरतें फुसफुसातीं-

अरे ज़्यादा पढ़ाई का यही नतीज़ा तो होना था। पति से दबकर रहना तो स्वाति ने सीखा ही नहीं।कुरेद-कुरेद कर सवाल पूछे जाते-

क्यों स्वाति, आख़िर बात क्या हुई ? ऐसे ही तो वापस नहीं लौट आई। हम तेरे अपने हैं, हमें नहीं बताएगी ?’

स्वाति जीजी के मौन पर स्त्रियाँ चिढ़ जातीं-

बड़ी घुन्नी है, असल बात छिपा रही है, इसीलिए चुप है। इसीलिए तो खोटे सिक्के- सी वापस कर दी गई।

कुछ प्यार से पुचकारतीं-

तेरे साथ तो बड़ा अन्याय हुआ, स्वाति। ज़रूर लड़के में कोई खोट रहा होगा, वर्ना तुझ जैसी लड़की को भला कोई यूँ ही छोड़ देता ?’

ऐसा नहीं कि स्वाति जीजी के साथ विवाह के लिए किसी ने हाथ नहीं बढ़ाना चाहा, पर कोई कोई बात आड़े जाती। जीजी की अवज्ञा तो उनके भाई-बहिन भी करने से नहीं चूकते, जीजी के नाम पर परित्यक्ता का ठप्पा लग जाने से उन्हें सब सुनाने, अपमानित करने का जैसे सबको अधिकार मिल गया था।

स्वाति जीजी भाई बहनों में शुरू से ही सबसे अलग थीं। जहाँ भाई-बहन मौज़-मस्ती में समय व्यर्थ करते, स्वाति जीजी पुस्तकों में सिर झुकाए, अध्ययन में डूबी रहतीं। अपनी पढ़ाई के कारण अम्मा की झिड़कियाँ उन्होंने ही झेली थीं।

पूजा सोच रही थी जीजी किस मिट्टी की बनी थीं, कोई भी आघात वह किस आसानी से झेल पाती थीं। जब जिसने चाहा, उन्हें बात-बेबात उल्टी-सीधी सुना दी। बदले में उसी उत्फुल्ल चेहरे के साथ जीजी उसी व्यक्ति के साथ इस सहजता से बातें करतीं कि आश्चर्य होता। क्या जीजी संवेदनाशून्य थीं, नहीं यह सोचना भी ग़लत है। जीजी के सम्पर्क में तो जो भी आया उनके निश्छल प्यार में सराबोर हो गया। जीजी के शब्दकोष में ईर्षा, द्वेष, शत्रुता, घृणा जैसे शब्दों के लिए स्थान ही कहाँ था।

उन्होंने अपने दुखद अतीत की चर्चा कभी अपने आत्मीयों तक से नहीं की। पूजा कभी अपने दुख, परेशानी की चर्चा करती तो जीजी स्नेह से समझातीं-

देख पूजा, हँसी-खुशी की बातें सुनना-सुनाना सबको अच्छा लगता है। अपना रोना सुनाएगी तो कोई पास भी नही फटकेगा।

अपनी योग्यता के बल पर जीजी को यूनिवर्सिटी में लेक्चरर- शिप मिल गयी। शहर में जीजी की बहुत प्रतिष्ठा थी। साहित्यिक-सामाजिक गतिविधियों में उन्होंने अपने को ऐसा रमाया कि कोई अनुमान भी नहीं कर सका कि उनके जीवन में कहीं कोई अभाव था। खुशी से छलकती स्वाति जीजी हर जगह खुशी का माहौल बना देतीं। छोटे भाई-बहनों के विवाह में जीजी ने जिस उत्साह से काम किया कि अम्मा रो पड़ीं-

अपने गहने-कपड़े तू दूसरों पर लुटा रही है, अपने लिए भी तो कुछ रहने दे, स्वाति।

मेरे भाई-बहन क्या दूसरे हैं, अम्मा ? इनके सिवा मेरा और कौन है ?’ प्रसन्न मुख जीजी ने अम्मा को निरूत्तर कर दिया, निःस्वासा लेकर अम्मा मौन रह गई।

जीजी की मेधा और अध्यवसाय के बावजूद उन्हें विभागाध्यक्ष का पद आसानी से नहीं मिल सका। वरिष्ठता और योग्यता का आधार होने पर भी जब उनकी परम मित्र ने ही उनके अध्यक्ष- पद के विरूद्ध अभियान छेड़ दिया तो जीजी विस्मित रह गईं। जीजी ने विरोध में कोई कार्यवाही नहीं की। पद मिल जाने के बाद उसी के साथ वह सच्चे दिल से उसी विरोध करने वाली मित्र से पूर्ववत मित्रता निभाती रहीं।

इतनी कर्मठ, सक्रिय स्वाति जीजी को हार्ट-अटैक तो होना ही था। अन्ततः उनके दुखों ने उनके हृदय को छलनी कर ही दिया, पर दुखों को क्या उन्होंने अपने दिल पर कभी अधिकार जमाने दिया था ? शायद नहीं।

बाई पास सर्जरी जीजी ने अपनी ज़िद से कराई थी। ऑपरेशन के लिए जाते समय भी वह पूर्ण निश्न्चित और प्रसन्न थीं। सबके भय को निराधार ठहरा, वह जीवित वापस गई थीं। डॉक्टर से कहा-

आपने मुझे नव जीवन दिया है, आपकी ऋणी हूँ।

अपने स्नेहपूर्ण निश्छल स्वभाव से उन्होंने डॉक्टरों और नर्सों का भी मन जीत लिया।

सिर्फ एक बार जाने किन आहत् क्षणों में जीजी पूजा के सामने कह बैठीं-

जानती है, कल नीरज के रिश्ते की मौसी नीरज की मृत्यु की सूचना देते हुए संवेदना प्रकट करने आई थीं। नीरज का अस्तित्व कभी मेरे जीवन में नहीं रहा। मैंने उसके प्रति कोई शिक़ायत नहीं की फिर क्यों आज भी उसका नाम मेरे सामने लिया जाता है ?’ पहली बार जीजी की आँखे छलछला आईं।

जीजी के अंतर में ज्वालामुखी जलता था, पर उन्होंने अपनी शांति से ज्वालामुखी के विस्फोट को दबाए रखा। पूजा का जी चाहा था उस निष्ठुर मौसी को खरी-खोटी सुना आए। पर जीजी ने पूजा को रोक दिया।

जाने दे, पूजा। अब ऐसी बातें सुनने की आदत हो गई है, पर यह क्या उनका सच था ?’

सचमुच अपने नए जीवन से आह्लादित स्वाति जीजी शायद जीवन के साथ कुछ ज़्यादा ही अन्याय कर गईं। सुबह नौ बजे से रात्रि नौ बजे तक कार्यक्रमों में अध्यक्षीय वक्तव्य, अपनी संस्था की बैठकों का आयोजन, टी0वी, आकाशवाणी-कार्यक्रमों में भाग लेने के साथ एक नवयुवती की तरह व्यस्त हो गईं। शायद कोई नवयुवती भी उतना स्ट्रेन नहीं ले सकती थी।

रात के सात-आठ बजे बेचैनी के साथ उल्टियों से यही लगा पेट की खराबी है। उनका दिल तो नव-जीवन पा चुका था।

उस रात भी फ़ोन पर अपनी संस्था की अगली बैठक का कार्यक्रम तय कर रही थीं औरतों की पीड़ा को उनसे ज़्यादा और कौन समझ सकता था। हर मंच से नारी-उत्पीड़न के विरूद्ध आवाज़ देने वाली वाणी में प्रेरक शक्ति थी। वह स्त्रियों को घरों से खींचकर बाहर लाईं उन्हें अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष की प्रेरणा दी। उन्हें आत्म निर्भर बनने में सहायता दी।

वो दवाई दे दो, बाहर खाना खाया था, इसीलिए उल्टी हो रही है।जीजी रूपा से कह रही थीं।

स्वाति जीजी की दवाइयों पर सब हँसते थे, अम्मा कहतीं-

स्वाति के तो पेट में दवाखाना है।

खाने के पहले, खाने के बाद, सुबह-शाम के लिए होमयोपैथिक, एलोपैथिक, आयुवैर्दिक दवाइयों की गिनती करना कठिन था।

पिछले कुछ दिनों से उनके पैरों में भयंकर सूजन रही थी। पेट में लम्प से बन रहे थे, पर स्वाति जीजी की सक्रियता में कोई कमी नहीं आई थी। सूजे पैरों के साथ घंटों खड़ी हो कर व्याख्यान देती रहीं, जुलूसों में पैदल चलती रहीं।

स्वाति जीजी की बेचैनी बढ़ती जा रही थी।

मुझे नींद की गोली दे दो। मै सोना चाहती हूँ।

स्वाति जीजी अपने इन शब्दों के साथ हमेशा के लिए सो गईं।। पास खड़े भाई, भाभी उनकी 35 वर्षों की सहचरी रूपा स्तब्ध खड़ी रह गई। सबसे छोटी बहिन रो रही थी-

दो दिन बाद तुम्हारे पास आना था जीजी। तुमने मेरा इंतज़ार क्यों नहीं किया ? स्वाति जीजी की मौत की गूँज से शहर शोकाकुल हो उठा।

स्वाति जीजी का चेहरा इतना सुंदर कैसे लग रहा था। मृत्यु तो भयानक होती है, पर स्वाति जीजी मुस्करा रही थीं। हमेशा की तरह सबको आशीर्वाद दे रही थीं।

कल्पना के साथ बहिनों ने स्वाति जीजी के शरीर को उठाकर चिता पर लिटा दिया। जीवन भर स्त्री-न्याय के लिए संघर्ष करने वाली स्वाति जीजी के लिए यह उनकी अंतिम श्रद्धांजलि थी।

झरझर बहते आँसू पोंछ रीता ने कहा-

स्वाति जीजी के जीवन में रोना निषिद्ध था। हममें से कोई नहीं रोएगा।

ठीक कहती हो, रीता। स्वाति जीजी कहीं नहीं गई हैं। अपनी अच्छाइयों के साथ वह हमेशा हमारे बीच रहेंगी।

पूजा का अंतर हाहाकार कर रहा था। उसने स्वाति जीजी से कितनी बार जानना चाहा, कितना कुरेदा-क्या उन्हें अपने प्रति हुए अन्याय के विरूद्ध कोई आक्रोश, कोई शिक़ायत कभी नहीं हुई। एकाकी जीवन जीने को विवश करने वाले नीरज को, क्या उन्होंने सच्चे मन से क्षमा किया था ? अपने एकाकी जीवन में क्या कोई अभाव नहीं लगा।

लाख पूछने पर भी जीजी ने कभी कोई जवाब नहीं दिया और आज अपने अनुत्तरित प्रश्नों के साथ स्वाति जीजी हमेशा के लिए चली गईं

ऊँची लपटों के साथ स्वाति जीजी का शरीर पंच तत्व में विलीन होता जा रहा था। सब मौन स्तब्ध खड़े रह गए। काश् कोई आवाज़ उन्हें रोक पाती----  -

4 comments:

  1. धन्यवाद। कभी-कभी जीवन में ऐसे कटु अनुभव होते हैं, पर मन की गहन पीड़ा को मन में ही रख कर अपराधी को क्षमा करने वाले बिरले ही होते हैं। आपने कहानी के मर्म को छुआ है, आभारी हूं।

    पुश्पा सक्सेना

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  2. पुष्पा जी, सादर नमस्कार,
    आपकी कहानियां पढ़ी, बहुत अच्छे और जीवन के उन हिस्सों छूते लेख है आपके जिनको हम अक्सर भुला देते है जीवन की अमूर्तता मे उलझे बस बहे जा रहे है हम सब.

    मै वैसे तो लखनऊ का रहने वाला हूँ कई कहानियों मे आपने लखनऊ का जिक्र किया है, कभी आपसे मिल कर कुछ सीखने को मिले तो जीवन मे यह कोई उपलब्धि से कम न होगा।

    कुछ लिखने का प्रयास मैंने भी किया है समय समय पर

    http://yashlucky.blogspot.in

    धन्यवाद

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  3. पुष्पा जी, सादर नमस्कार,
    आपकी कहानियां पढ़ी, बहुत अच्छे और जीवन के उन हिस्सों छूते लेख है आपके जिनको हम अक्सर भुला देते है जीवन की अमूर्तता मे उलझे बस बहे जा रहे है हम सब.

    मै वैसे तो लखनऊ का रहने वाला हूँ कई कहानियों मे आपने लखनऊ का जिक्र किया है,कभी आपसे मिल कर कुछ सीखने को मिले तो जीवन मे यह कोई उपलब्धि से कम न होगा।

    कुछ लिखने का प्रयास मैंने भी किया है समय समय पर

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    धन्यवाद

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