11/17/10

मेरे बाद

मेरे बाद

सरस्वती का नश्वर शरीर नंगी ज़मीन पर रखा देख, उसकी मुँहबोली स्नेही बहिन, गंगा से नहीं रहा गया-

‘एक चटाई या चादर तो बिछा देतीं। खाली ज़मीन पर सरस्वती को सुला दिया ?’

‘अरे माटी का शरीर माटी में ही तो मिलता है, गंगा। अब सुरसती को क्या पलंग, क्या चटाई ? सरस्वती की सास शांता ने आवाज़ को भरसक दुखी बनाते हुए कहा।

‘कल तक तो बाते कर रही थीं, बस खांसी का ज़ोर था। ऐसे चली जाएगी, किसने सोचा था।’ गंगा रो पड़ी।

‘अरे, गंगा। जाने का बखत तो बस ऊपर वाला जाने है। जाने की उमर हमारी है, पर वह बुलाना ही भूल गया है। न जाने क्यों ज़िंदा हैं।’ बूढ़ी काकी ने आँचल से आँसू पोंछे।

‘उठावनी कब तक होगी ?’ धीमे से एक स्त्री ने पूछा।

‘सुरसती की एक ही तो बेटी है, उसके बिना आए, सुरसती कैसे विदा होगी ? गंगा ने उसाँस ली।

‘बेटी के आने तक और तैयारी तो की जा सकती हैं। मेरा मतलब बहू को स्नान वग़ैरह भी तो कराना है।’ एक बुजुर्ग स्त्री ने गंभीरता से कहा।

‘अरे, हम कौन होते हैं, कोई फ़ैसला लेने वाले। देखती नहीं, वो सामने इंस्पेक्टर उसका फ़रमान लेकर आया है।’ कड़वे स्वर में शांता ने कहा।

‘किसका फ़रमान, शांता बहन ?’

‘अरे इसी सुरसती की लाड़ली बिटिया आकांक्षा ने फ़रमान भेजा है, उसके आने तक उसकी माँ को कोई हाथ भी न लगाए। जैसे हमारा सुरसती से कोई नाता ही नहीं था।’ शांता ने आँसू पोंछे।

‘दिल्ली से आ रही है, आकांक्षा, शायद हवाई जहाज़ से आएगी ?'



‘हाँ-हाँ, पुलिस-कप्तान क्या बन गई, पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते। देख लो ऐसे दुख में भी हम पर हुकुम चला रही है।’ सरस्वती की विधवा जिठानी माया ने ज़हर उगला। औरतों ने एक-दूसरे से संकेतों में बात कर डाली।

अचानक खुले दरवाजे़ से हाथ में बैग़ थामे, दृढ़ता से ओंठ भींचे आकांक्षा कमरे में आ गई। चेहरे का विषाद और लाल आँखे साफ़ बता रही थीं, वह काफ़ी रो चुकी थी। साथ में एक सुदर्शन युवक और दो सादी धोती पहने स्त्रियाँ थीं। युवक को बाहर रूकने का संकेत कर, आकांक्षा स्त्रियों के साथ माँ के नश्वर शरीर के पास पहुँची थी।

माँ को एक क्षण निहार, आकांक्षा पास वाले कमरे में चली गयी। कमरे से एक गद्दा-तक़िया और नई चादर ले आई। संकेत समझते ही दोनों स्त्रियों ने गद्दे पर चादर बिछाकर, सिरहाने तकिया रख दिया। उनकी सहायता से माँ के शरीर को सम्मानपूर्वक गद्दे पर लिटाकर सिर के नीचे तक़िया लगा दी।

‘यह क्या कर रही है, आकांक्षा ? मरे हुए को क्या गद्दे-तकिए पर लिटाया जाता है ? तू नया ढंग चलाएगी ?’ तीख़ी आवाज़ में शांता ने कहा।

अनुत्तरित आकांक्षा ने हाथ जोड़कर स्त्रियों से विनती की- आप लोग कृपया थोड़ी देर के लिए बाहर चली जाएँ। मैं माँ के साथ कुछ देर अकेली रहना चाहती हूँ।’

विस्मित स्त्रियों के पास बाहर जाने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं रह गया। आकांक्षा ने दरवाज़ा बंद कर, बाहर हो रही कानाफूसियों के लिए कोई जग़ह नहीं छोड़ी।

‘मुक्त हो गई, सुरसती।’ भरे गले से गंगा ने बहुत धीमें से कहा, पर पास बैठी शैली से उनके शब्द अनसुने नहीं रह सके।

‘क्या कह रही हो, गंगा मौसी ?

‘कुछ नहीं, जाने दे।’ शैली विस्मिय देखती रह गई।

पंद्रह मिनट बाद आकांक्षा ने साथ आई दोनों स्त्रियों को अंदर बुलाया था। शांता ने आगे आकर कहा-

‘बहू को स्नान कराकर नई साड़ी पहनानी है। सुहागिन गई है, सुरसती सो उसका श्रृंगार भी करना है, बड़ी भाग्यवान थी हमारी बहू।’

‘लगता है माँ की अंतिम विदाई की पूरी तैयारी पहले से कर रखी है, दादी ? चिंता मत करो मैं भी माँ को ठीक से विदा करूँगी।’ आकांक्षा की आवाज़ में पता नहीं व्यंग्य था या आक्रोश, शांता समझ नहीं सकी।

आकांक्षा द्वारा कमरे का द्वार बंद करते ही शांता विफर पड़ीं-

‘देख रही हो, यह बित्ते भर की छोकरी सारे नियम-विधान ताक पर रखकर, क्या कर रही है। अरे, बड़े-बुजुर्गो का सम्मान न करे, पर ऐसे वक्त में भी भला कोई अपनी चलाता है ?’

कई औरतों ने स्वीकृति में सिर हिलाए। शांता की बात में सचमुच दम था। मुहल्ले की कुछेक सुहागिनों की उठावनी में भाग लेने वाली कई औरतें, आज भी सरस्वती की अंतिम विदाई के लिए हाथ लगाने आई थीं। उनका विश्वास था सुहागिन के शव को सजाने-तैयार करने से खुद भी सुहागिन मरने का चाँस बन जाता है। वैसे भी एक ज़वान कुँवारी लड़की विधि-विधान क्या जानेगी ? मन में बुदबुदाती औरतें दरवाज़ा खुलने की प्रतीक्षा कर रही थीं। न जाने द्वार खुलने पर कौन- सा अचरज़ देखने को मिले। कहीं आकांक्षा कोई जादू-टोना तो नहीं जानती, जो माँ के मृत शरीर में प्राण डाल दे, वर्ना इतनी देर कमरा बंद करके, सबको बाहर करने की क्या ज़रूरत थी ?

दरवाज़ा खुलते ही औरतें धड़धड़ा कर कमरे में घुस र्गइं। आकांक्षा माँ के शरीर के सिरहाने बैठी थी। कमरा धूप और अगरबत्ती से सुवासित था। सरस्वती के निश्चेष्ट शरीर पर दृष्टि जाते ही स्त्रियाँ चौंक गई। यह क्या ज़री पाड़ की सफ़ेद सिल्क की साड़ी, माथे पर सिंदूर की बिंदिया की जगह शुभ्र चंदन का टीका, सूनी माँग, भला यह सुहागिन का रूप था ? सरस्वती क्या विधवा थी ? यह लड़की सचमुच कुछ नहीं जानती।

‘अरी लड़की, यह कैसा अपशगुन कर रही है ? सामने रखी लाल साड़ी, सिंदूर, चूड़ियाँ नहीं दिखाई दीं ? इतना भी नहीं जानती, तेरी माँ सुहागिन मरी है। अपने बाप का भी ख़्याल नहीं आया।’

‘माँ जैसी सुहागिन थी, वैसा ही उसका श्रृंगार हुआ है, यह बात तुमसे ज़्यादा अच्छी तरह कौन जानेगा, दादी।’ आक्रोश और व्यंग्य से मिलकर आकांक्षा की आवाज़ तीख़ी हो उठी।

‘बकवास बंद कर। क्यों दुनिया के सामने तमाशा कर रही है। माँ के मरने से शायद तेरा दिमाग़ चल गया है। यह ले ऊपर से लाल साड़ी डाल दे दुनिया वालों का तो ख़्याल कर।’ शांता ने लाल साड़ी उठाकर देनी चाही।

‘मुझे दुनिया वालों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। वैसे भी माँ ने कब बिंदी-चूड़ी या बिछिया पहना था, दादी ? परेशान मत हो, मैं माँ की वसीयत के अनुसार ही काम कर रही हूँ।’ शांति से आकांक्षा ने कहा।

‘वाह री, तू और तेरी माँ ! ज़रा हम भी तो सुने, क्या वसीयत की है, तेरी माँ ने ?’

‘वहीं जो मैं कर रही हूँ।’

‘बाहर से कुछ लोग फूल लेकर सरस्वती के निकट श्रद्धा-सुमन चढ़ाने आने लगे। आकांक्षा ने हाथ जोड़कर कहा-

‘कृपया माँ के शरीर पर फूल न चढ़ाएँ। माँ को कष्ट होगा।’

विस्मय और नाराज़गी के भाव लिए लोग पीछे हट गए।

थोड़ी ही देर में आकांक्षा के साथ आए युवक और दोनों स्त्रियों ने तत्परता से तैयारी कर डाली। आकांक्षा के साथ उन्हें, सरस्वती के शरीर की अरथी पर लिटाते देख, शांता चीख पड़ी-

‘बस, बहुत मनमानी कर ली। घर की बहू पराए हाथों विदा नहीं होगी। यह हक सिर्फ मेरे बेटे विमल का है, वह सुरसती का पति है। विमल बेटा ज़रा आ कर देख, यहाँ अनर्थ हो रहा है।’

‘आपके बेटे को माँ की अंतिम इच्छा बता दी गई है, वह माँ के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होंगे।’ दृढ़ता से आकांक्षा ने कहा।

माँ के शरीर को अरथी पर रस्सी से बँधता देख, आकांक्षा सह न सकी। इतनी देर से रूके आँसू बह निकले।

‘नहीं, आकांक्षा ! तुम्हारे आँसू माँ की आत्मा को दुख पहुँचाएँगे। तुमने न रोने का वादा किया था।’ सदुर्शन युवक ने स्नेह से कहा।

‘पंडित जी आप ऐसे मंत्रा पढ़िए जिनसे मेरी माँ की आत्मा को शांति मिले। वह मेरे मोह से मुक्त होकर स्वर्ग जाएँ।’ आँसू पोंछ, आकांक्षा ने कहा।

‘ऐसा ही होगा, बेटी।’ पंडित जी ने मंत्रोच्चार प्रारंभ कर दिए।

बाहर शव-वाहक वाहन आ गया था। अरथी को कंधे पर उठाने के लिए आकांक्षा को आगे आते देख, औरतें चौंक गईं। गंगा मौसी ने प्यार से कहा-

अब यह काम तू रहने दे, आकांक्षा बेटी ! यह काम आदमियों का है।’

‘माँ ने मुझे हमेशा अपना बेटा माना है। उनका अंतिम संस्कार मैं ही करूँगी। माँ की अंतिम विदाई के समय एक-एक पल मैं उनके साथ रहूँगी। गौरव, हम माँ को ले चलते हैं।’ आकांक्षा ने साथी युवक को संबोधित कर, कहा।

गौरव के साथ आगे से आकांक्षा ने माँ को कंधो पर उठा लिया। पीछे दोनों स्त्रियाँ थीं। सभी पुरूष और स्त्रियाँ इस दृश्य को अचरज़ से देखते रह गए। विमल का बाहर न आना एक प्रश्न चिन्ह था, पर शांता ने बात बना दी- 

घरवाली की मौत की वज़ह से विमल को चक्कर आ रहे हैं। डॉक्टर ने घाट जाने को मना किया है।’

दाल में कुछ काला है, सोचकर भी वो समय पूछताछ का नहीं था।

माँ के शरीर को चिता पर लिटाती आकांक्षा की आँखें डबडर्बा आईं, पर अपने को सम्हाल उसने पंडित के साथ स्वयं भी कुछ मंत्र पढ़ डाले।

‘चिता को आग कौन देगा ?’ पंडित जी ने पूछा-

‘मैं दूँगी ! अपनी माँ की मैं ही वारिस हूँ। माँ का अंतिम संस्कार मैं ही करूँगी।’

‘पर बेटी, तुम्हारे तो पिता जीवित हैं। उनके रहते तुम यह कठिन काम क्यों करोगी ? ऐसे निर्मम काम पुरूष ही साधते हैं। इसीलिए तो लड़कियों को घाट पर आने की भी मनाही होती है।

‘आप शुरू कीजिए। आग मैं दूँगी।’ आकांक्षा की दृढ़ता ने पंडित जी को और कुछ कहने का अवसर नहीं दिया। माँ की चिता को प्रणाम कर आकांक्षा ने माँ का शरीर अग्नि की लपटों को समर्पित कर दिया। ऊपर लपटों में से झाँकता- सा माँ का वात्सल्यपूर्ण चेहरा, आकांक्षा को रूला गया।

‘जानते हो, गौरव ! एक बार मेरी उँगली ज़रा- सी जल गई थी। मुझसे ज़्यादा माँ रोई थीं। उनका रोना सुनकर, मैं चुप हो गई थी। आज मैंने स्वयं माँ को अग्नि को समर्पित कर दिया। उन्हें कष्ट तो नहीं हो रहा होगा ?’ आकांक्षा भावुक हो उठी।

‘नहीं, आकांक्षा ! माँ अब कष्ट, दुख-सुख से परे हैं। उन्हें कुछ भी महसूस नहीं हो सकता। ऑपरेशन के वक्त शरीर कैसे भी काटा जाए, भला पता लगता है ?’

‘तुम्हारे साथ ने मुझे बहुत साहस दिया है, गौरव ! माँ की मौत की ख़बर सह पाना आसान नहीं था। थैंक्स फ़ॉर एवरी थिंग।’

‘तुम्हारा दुख क्या मेरा दुख नहीं है, आकांक्षा ?’

दोनों मौन बुझती लौ को देखते रहे। साथ आने वालों को घर-वापसी की ज़ल्दी थी। आकांक्षा चिता ठंडी होेने तक रूकेगी, गौरव ने सबको हाथ जोड़, विदा कर दिया।

आँसू भरी आँखों के साथ चिता की राख समेट, आकांक्षा ने उसी नदी में प्रवाहित कर, हमेशा के लिए माँ को विदा दे दी।

‘हम माँ के फूल हरिद्वार या प्रयाग ले जा सकते हैं, आकांक्षा।’

‘नहीं, गौरव ! माँ ने हमेशा कहा, सारी नदियाँ एक- सी हैं। सबकी मंज़िल सागर ही है, पता नहीं लोग गंगा को ही मुक्ति-दात्री क्यों मानते हैं।’

‘चलो, तुम्हारी यह बात मान ली, पर लोग श्रद्धावश माँ के ऊपर फूल चढ़ाना चाहते थे। तुमने उन्हें मना करके, उनकी भावनाओं को ठेस क्यों पहुँचाई, आकांक्षा ? सच कहूँ, तो मैंने भी माँ के लिए फूल मँगाए थे।’

‘माँ के साथ एक अज़ीब बात हुई थी गौरव एक रात सपने में उन्होंने कविता की कुछ पंक्तियाँ देखीं। जानते हो वो कौन- सी पंक्तियाँ थीं ?

‘क्या सपने में कविता देखी थी, माँ ने ?’ गौरव विस्मित था।

‘हाँ गौरव ! वो पंक्तियाँ थी-

‘मेरे मरने के बाद फूलों के गुलदस्ते मत लाना

क्योंकि हँसते फूलों को रूलाना मुझे अच्छा नहीं लगता।’

‘लंबी कविता थी, पर माँ को पूरी याद रही !’ आकांक्षा चुप हो गई।

 ‘सच ! यह तो अज़ीब बात है, आकांक्षा !

‘हाँ उसी दिन माँ ने कहा था,’ कितनी सही बात है, कांक्षा। जीवित व्यक्ति तो फूलों का सौंदर्य, उनकी सुगंध का आनंद उठा सकता है, पर एक नश्वर शरीर पर हँसते खिले फूल चढ़ाना तो फूलों का अपमान करना है। मेरे मरने के बाद फूल मत चढ़ाने देना, कांक्षा।’

‘डरकर मैंने माँ का मुँह बंद कर दिया, पर उनकी वो बात दिल में बैठ गई, मैं भूल नहीं सकी। इतनी ज़ल्दी माँ चली जाएगी, यह नहीं सोच सकी थी।’ आकांक्षा सुबक उठी। गौरव ने सहानुभूति भरा हाथ उसकी पीठ पर धर दिया।

वापस लौटी आकांक्षा ने किसी से कोई बात नहीं की। सबकी उत्सुक दृष्टियों को नकार, अपने को उसी कमरे में बंद कर लिया, जहाँ माँ के साथ उसने जीवन के बाईस वर्ष बिताए थे।

ढूंढने पर भी माँ की कोई तस्वीर उसे नहीं मिली। बहुत ख़ोजने पर एक धूमिल पड़ गई तस्वीर मिली थी, जिसमें माँ नन्हीं आकांक्षा को गोद में लिए खड़ी थी।

फ़ोटो को सीने से चिपका, आकांक्षा फफक पड़ी- इतनी ज़ल्दी तुम क्यों चली गईं, माँ ? दस दिन बाद तो तुम्हें हमेशा के लिए इस घर से मुक्ति दिलाकर, ले जाने आ रही थी। मेरा इंतज़ार क्यों नहीं किया ? तुम्हारी आँखों ने मेरे लिए जो सपना देखा, मैंने पूरा किया। तुम्हारा सपना तो सच हो गया, पर मैंने तुम्हारे लिए जो सपने देखे, उन्हें क्यों नहीं पूरा होने दिया ? बहुत देर से रूका बाँध, आँखों से बह निकला।

बाहर से दरवाज़े पर कोई ज़ोर-ज़ोर से दस्तक दे रहा था। बहुत देर बाद आकांक्षा को इसका भान हुआ। आँखें पोंछ, दरवाज़ा खोला, सामने गंगा मौसी खड़ी थीं।

‘जानती हूँ बिटिया, तेरी माँ का दुख तो कोई नहीं बाँट सकता, पर सुरसती मेरी छोटी बहिन थी। अपनी मौसी के साथ तो अपना दुख बाँट ले, आकांक्षा।’

‘मौसी कहकर आकांक्षा गंगा मौसी के सीने पर सिर धर, बिलख पड़ी।

‘चल, अब नहा धोकर कुछ पेट में डाल ले। अगर सारे कर्मकांड तुझे ही पूरे करने हैं तो शरीर में कुछ जान भी तो होनी चाहिए।

‘माँ कर्मकांड में विश्वास नहीं रखती थीं, मौसी ! इस घर में माँ ने काले पानी की सज़ा भोगी है।’

‘पर जाने वाले की आत्मा के लिए शांति-हवन तो करना ही होगा।’

‘जिसे जीते जी शांति नहीं मिल सकी, मृत्यु के बाद उसे क्या मिलेगा, कौन जाने। हाँ, मैं एक काम करना चाहती हूँ। ‘कौन- सा काम, बेटी ?’

‘अनाथालय के बच्चों को खाना खिलाना चाहती हूँ। माँ के पास अपना कहने के लिए तो कुछ था ही नहीं, दो-चार धोतियाँ होंगी, उन्हें ग़रीब स्त्रियों में बाँटना है। आप मेरी मदद करेंगी, मौसी ?’

‘सुरसती और तेरे लिए कुछ भी करूँगी, बेटी।’ गंगा मौसी रो पड़ीं।

‘यहाँ क्या खुसुरपुसुर हो रही है, गंगा ? हमारे घर के मामलों में दख़ल मत देना।’ अचानक माया के साथ पहुँच, शांता ने अपना क्रोध प्रकट कर दिया।

‘माँ, को इस घर का सदस्य कब माना गया था, दादी ?’

‘देख, आकांक्षा, मेरा मुँह मत खुलवा। तेरी माँ के लच्छन ही ऐसे थे, जो अपने आदमी की इज़्ज़त न कर सकी.....।

‘ख़बरदार जो माँ के खिलाफ़ एक शब्द भी और कहा।’ आकांक्षा का चेहरा आवेश में लाल हो उठा।

गंगा मौसी चुपचाप बाहर चली गईं। बैग़ से कपड़े निकाल, आकांक्षा बाथरूम में घुस गई। ठंडे पानी की धार भी उसका मन शांत न कर सकी।

भीगे बालों के साथ तक़िए में मुँह गड़ा, आकांक्षा सिसक उठी। बचपन की घटनाएँ एक-एक करके आँखों के सामने साकार होने लगीं।

जब से होश सम्हाला माँ और अपने को इसी छोटे से कमरे में रहते पाया। नन्हीं आकांक्षा समझ नहीं पाती, इतने बड़े से घर में उसे और माँ को इतने छोटे से कमरे में क्यों रहना पड़ता था ? जब भी आकांक्षा अपने कमरे से बाहर निकलकर, सजी हुई बैठक में जाकर खेलना चाहती, दादी घुड़की दे डालतीं-

‘ऐ छोरी, बैठक में उल्टा-पुल्टा कर डालेगी। जा अपने कमरे में बैठ।’

‘नहीं, हम यहीं खेलेंगे। हमें माँ का कमरा अच्छा नहीं लगता।’

‘अरी, तुझे घर में रहने दे रहे हैं, यही क्या कम है। बड़ी आई अच्छा-बुरा कहने वाली। भाग यहाँ से वर्ना टाँगे तोड़ दूंगी। खेलने लायक भी नहीं रहेगी।’

दादी की डाँट से नन्हीं बच्ची माँ के सीने से बहुत देर तक चिपटी-सहमी रहती। माँ का वात्सल्यपूर्ण हाथ उसे सहला जाता।

ऊपर के सज्जित कमरे में रहने वाला दबंग पुरूष उसका पिता है, यह बात दादी से ही पता लगी थी। बड़ी उमंग से एक दिन नन्हें-नन्हें पैरों से धीमे-धीमे सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँची थी। कमरे का परदा उठाया तो पिता के साथ माया ताई को पलंग पर लेटा देख, वह सहम गई। माया ताई और माँ की उम्र लगभग एक बराबर रही होगी, पर माया ताई खूब सज-धज कर रहतीं और माँ हल्के रंग वाली मामूली धोती पहनती। दादी भी माया ताई की खूब मान-मनौवल करतीं, पर माँ से हमेशा झिड़क कर बोलतीं। आकांक्षा ने माँ से कहा था-

‘माँ तुम भी ताई की तरह अच्छी-अच्छी साड़ियाँ क्यों नहीं पहनतीं ?’

‘वह सुहागिन है, बेटी।’

‘और तुम ?’

‘कुछ नहीं। तू इन बातों पर अपना ध्यान मत दिया कर। कपड़ों से क्या होता है ?’

‘माँ, हम भी पापा के साथ उनके कमरे में सोएंगे।’

‘नहीं, वो हमारा कमरा नहीं है।’

शायद वही उत्सुकता, आकांक्षा को ऊपर वाले कमरे तक खींच ले गई थी।’ परदा उठाए खड़ी आकांक्षा को देख, माया घबरा- सी गई। पापा का चेहरा तमतमा आया।

‘ऐ लड़की तू यहाँ क्यों आई। भाग यहाँ से ख़बरदार जो कभी सीढ़ियाँ चढ़ी।

भय से काँपती आकांक्षा न जाने किसी तरह से लड़खड़ाती हुई सीढ़ियाँ उतरी थी। पूरी बात सुनती माँ का चेहरा विवर्ण हो उठा।

‘तुझे मना किया था, न ? फिर क्यों गई ?’

‘हम पापा से बात करना चाहते थे, माँ।’ रोती आकांक्षा ने कहना चाहा।

‘वह तेरे पापा नहीं हैं। तू बस मेरी है आकांक्षा।’ माँ ने रोती आकांक्षा को सीने से चिपटा लिया।

उस दिन के बाद पहली बार माँ ने ऊपर जाकर पापा से न जाने क्या बात की कि आकांक्षा को होस्टेल भेजने का निर्णय ले लिया गया।

माँ से अलग होना, सज़ा से कम नहीं था, पर माँ ने दृढ़ता से कह दिया-

‘इसी में तेरी भलाई है, कांक्षा ! यह बात बाद में समझेगी। अपनी माँ के सपने तुझे ही तो पूरे करने हैं। यहाँ के माहौल में तू पनप नहीं सकेगी, बेटी।’

बड़ी होती आकांक्षा सच्चाई से परिचित होती गई। माया ताई, दादी के एकमात्र भतीजे की पत्नी थी। भाई-भाभी पहले ही स्वर्ग-वासी हो चुके थे। भतीजे की मृत्यु के बाद नवविवाहित भतीजे की पत्नी, माया को दादी अपने साथ र्ले आईं। विमल और युवती माया का साथ रहना अस्वाभाविक नहीं लगा था। दोनों में खूब पटती। सरस्वती के साथ शादी के लिए विमल तैयार नहीं था, पर चाचा के घर पल रही अनाथ सरस्वती के नाम माँ की कुछ सम्पत्ति थी। उसी लोभवश शांता ने बेटे को समझा -बुझाकर शादी के लिए तैयार कर लिया। सरस्वती की सम्पत्ति विमल के नाम करने का प्रस्ताव पर चाचा ने अड़चन नहीं डाली थी। अंततः शादी के बाद सम्पत्ति विमल की तो होगी।

प्रथम रात्रि, विमल ने मीठी-मीठी बातें करके भोली सरस्वती को मुग्ध कर लिया। मातृ-पितृ विहीन सरस्वती, पति का प्यार पाकर निहाल हो उठी। अपना सब कुछ देकर भी वह प्रसन्न थी। आकांक्षा शायद प्रथम-रात्रि ही कोख में आगई थी।

अचानक एक घटना से सारी सच्चाई उजागर हो गई। जिस पति को देवता मानकर पूजा की, वह तो उसका था ही नहीं। उसे सोया जानकर पति माया के पास चला गया था। पानी पीने को उठी सरस्वती पति को न पा, चौंक गई। हल्की दबी हँसी की आवाज़ों को सुनकर, माया के कमरे की दरार से जो दृश्य देखा, उसे जड़ बना देने को पर्याप्त था। तो यह थी पति की सच्चाई ? घृणा से सरस्वती का सर्वांग कंटकित हो उठा। किसी की जूठन पर वह गर्वित थी। नहीं, उसके संस्कार व्यभिचारी पति को स्वीकार नहीं कर सकते।

भोर की उजास के ज़रा पहले ही पति ने वापस आकर देखा सरस्वती कुर्सी पर निश्चल बैठी थी।

‘क्या हुआ, सोई नहीं ?

कोई उत्तर न पा, ज़रा ज़ोरों से प्रश्न दोहराया था-

‘मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूँ।’

‘आज पूरी तरह से जाग गई हूँ।’ धीमे से सरस्वती ने कहा।

‘क्या मतलब ?’

‘यही कि आज, अभी से हमारे बीच के सारे संबंध ख़त्म हो गए। हम पति-पत्नी नहीं हैं।’ दृढ़ता से सरस्वती ने कहा।

‘क्यों, ऐसा क्या हो गया ?’ व्यंग्य से विमल ने पूछा।

‘जिसे मेरे पहले ही पत्नी के अधिकार दे रखे हैं, उसके बाद हमारे संबंध का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता।

‘तब तो तुम्हारा इस घर में रहने का भी कोई औचित्य नहीं है।’

‘मेरी सम्पत्ति अपने नाम लिखवाकर मुझे बेघर करने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। मैं कहीं नहीं जाऊँगी। भगवान मेरा न्याय करेगा।’

‘अरे भगवान को जो न्याय करना था, कर दिया। माँ-बाप पहले ही सिधार गए, अब तो तुम्हारे चाचा भी सब कुछ बेचकर बेटे के पास अमरीका चले गए हैं। अब इस घर के अलावा दूसरा ठौर ही कहाँ है ?’ विमल ने सरस्वती के मर्म पर सीधा प्रहार किया।

‘मेरी संतान मुझे न्याय दिलाएगी।’

‘ठीक है, देखती रहो संतान के सपने, देखें कौन- सा अर्जुन पैदा करोगी। अगर वचन की पक्की हो तो याद रखना, अपने बच्चे के साथ इसी कमरे में पड़ी रहना। ख़बरदार जो अपना कोई हक़ जमाने की कोशिश की।’ उत्तेजित विमल बाहर चला गया।

बाहर खड़ी शांता ने बेटे का मन पढ़ लिया। चतुर सास समझ गई, माया का साथ देने में ही भलाई है। वैसे भी घर के कामकाज निबटाने के लिए सरस्वती ही ठीक है। माया ने अपने माया-जाल में विमल को पूरी तरह से फँसा लिया था। उसके जैसे लटके-झटके सीधी-साधी सरस्वती में कहाँ ?

उस दिन सरस्वती बहुत रोई। संस्कृत-शिक्षक पिता ने बेटी को आठवीं तक संस्कृत पढ़ाई थी। माँ ने बेटी को स्त्री--धर्म के सारे गुण सिखा दिए थे, पर दुनियादारी नहीं सिखाई। सरस्वती को आगे शिक्षा दिलाने के पहले ही माता-पिता की एक बस-दुर्घटना में मृत्यु हो गई। सरस्वती उस समय चाचा के घर आई हुई थी, सो बच गई। काश् ! वह शिक्षित होती तो इस नरक में रहने को क्यों विवश होती ?

घर में बच्चा आने वाला था, पर उसकी न किसी को प्रतीक्षा थी न सरस्वती के लिए कोई चिंतित था। सरस्वती को गंगा दीदी का ही सहारा था। सरस्वती की स्थिति से वह परिचित हो चुकी थीं। सरस्वती के स्वाभिमान का वह आदर करती थीं। एक वहीं थीं जो सरस्वती के लिए कभी कुछ बना लातीं, उसका हौसला बढ़ातीं।

एकाध बार विमल ने पत्नी से भी अपना प्राप्य वसूलना चाहा। अंततः उसके शरीर पर उसका ही तो अधिकार था, पर सरस्वती ने उसे पास नहीं आने दिया। गंगा ने दबी जुबान से कहना चाहा-

‘तू विमल को धिक्कारती क्यों है ? हो सकता है, बच्चा आने के बाद वह तेरी ओर खिंच जाए।’

‘नहीं दीदी। मुझे जूठन से नफ़रत है। बचपन में अम्मा ने कभी बचा खाना भी नहीं खाने दिया। जूठा पति स्वीकार कर, अपना धर्म नहीं बिगाड़ूंगी।’

गंगा मुग्ध ताक़ती रह गयी। आठवीं पास सरस्वती में स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा था। दुर्भाग्यवश उसके पास कहीं और रहने का ठौर नहीं था, वर्ना क्या वह एक पल को भी उस छत के नीचे ठहरती ? वैसे भी घर की खरीद में सरस्वती के पिता के पैसे ही लगे थे। अगर विमल ने चालाकी से सम्पत्ति अपने नाम न करवा ली होती तो सरस्वती ही तो घर की मालकिन होती।

प्रसव के समय भी सब कुछ गंगा ने ही सम्हाला था। सरस्वती की बेटी को सीने से लगा, सरस्वती की सास से कहा था-

‘लो शांता काकी, चाँद- सी बिटिया हुई है। तुम्हारे घर लक्ष्मी आ गई।’

‘हाँ-हाँ, माँ सरस्वती और बेटी लक्ष्मी। कौन- सा बेटा जना है जो खुशी मनाऊँ। एक बोझ आ गई है।’

‘नहीं, मेरी बेटी मेरी आकांक्षा है। यह बोझ नहीं, मेरा सपना मेरी आकांक्षा पूरा करेगी।’

‘खुद तो पति से नाता तोड़े बैठी है, बेटी को वकील बनाकर बाप पर मुकदमा कराएगी। यही सपना देख रहीं है, न ? सास ने ताना मारा।

‘भगवान आपका कहा सच करे।’ सरस्वती धीमें से बुदबुदाई।

आकांक्षा के जन्म के बाद सरस्वती जैसे सब कुछ भूल बैठी। बेटी का लाड़ सास को नहीं भाता, पर उनकी बातें अनुसुनी करती सरस्वती मगन रहती। उसे जीने का सहारा मिल गया था। गंगा को आकांक्षा मौसी पुकारती। माँ और गंगा मौसी के बीच आकांक्षा बड़ी होती गई।

आकांक्षा मेधावी लड़की थी। उसकी तेजस्विता से सास भी भय खाती। एक बात ज़रूर थी उसने कभी भूलकर भी पिता या माया पर दृष्टि नहीं डाली। माया का सामना होते ही उसके चेहरे पर घृणा आ जाती।

होस्टेल से घर आने पर पिता को माया के साथ देख, आकांक्षा का खून खौल उठता। माँ से कहती-

‘माँ, इस घर में अपमानित जीवन क्यों जी रही हो ? नाना की सम्पत्ति वापस पाने के लिए तुम मुकदमा क्यों नहीं करतीं ?’

‘तेरी गंगा मौसी ने किसी वक़ील से बात की थी, उसका कहना है स्वयं दी गई ज़ायदाद वापस लेने का हक़ नहीं होता। हाँ, अगर कोई साबित कर दे ज़ायदाद धोखे से ली गई थी तभी कुछ हो सकता है। अब तू पढ़-लिखकर कुछ बन जा, आकांक्षा तभी इस नरक से बाहर निकल सकूँगी, बेटी।’ सरस्वती की आँखों में आँसू आ गए।

‘मैं सुपरिटेंडेंट पुलिस बनकर पापा, दादी, माया ताई सबको जेल में बंद कर दूँगी, माँ।’ उत्तेजित आकांक्षा का मुँह लाल हो जाता।

फ़र्स्ट आने पर आकांक्षा को स्कूल से वजीफ़ा मिलने लगा। आकांक्षा ने माँ के लिए एक साड़ी और किताबें ख़रीदी थीं।

‘माँ, इन किताबों से तुम्हें जीने का साहस मिलेगा। अगली बार मैट्रिक की किताबें लाऊँगी। तुम्हें मैट्रिक की परीक्षा देनी है।’

‘इस उम्र में मैं पढूंगी, कांक्षा ?’ सरस्वती हँस पड़ी।

‘हाँ, माँ ! तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा होना है। कोई किसी को कब तक सहारा देगा ? कल को मैं न रहूँ तो.....।’

सरस्वती ने आकांक्षा को आगे बोलने नहीं दिया था। मन पर भय हावी हो गया था। नहीं, भगवान इतने निर्दयी नहीं हो सकते। सरस्वती ने अपने को किताबों में डुबो दिया। घर के कामकाज़ निबटा, वह आकांक्षा की लाई किताबें पढ़ती। आकांक्षा ने प्रेरणा की चिंगारी प्रज्ज्वलित कर दी थी।

समय बीतता गया। आकांक्षा ने बी0ए0 की परीक्षा में प्रथम स्थान के साथ प्रथम श्रेणी पाई थी। माँ के पाँव छूकर कहा था-

‘आशीर्वाद दो माँ, मैं पुलिस-सेवा में चुन ली जाऊँ और इस वर्ष तुम मैट्रिक की परीक्षा पास कर लो।’

‘क्या, पुलिस-सेवा में जाने की बात तू भूली नहीं, कांक्षा ?’ सरस्वती विस्मित थी।

‘नहीं, माँ ! मुझे सब याद है। मैं जानती हूँ, अन्याय का प्रतिकार करने के लिए कोई ऐसा पद होना चाहिए, जिसमें शक्ति निहित हो।’ दृढ़ता से ओंठ भींच आकांक्षा ने कहा।

‘भगवान तुझे सफलता दें, बेटी, पर बदले की भावना मन से निकाल दे। मेरे साथ अन्याय हुआ, पर तेरी पढ़ाई का खर्चा देने के लिए मैं उनकी आभारी हूँ।

‘क्या एक बाप का बस यही फर्ज़ होता है, माँ ? कभी बेटी को प्यार नहीं किया। अपने घर में परायों की तरह डरी-सहमी बड़ी हुई। नहीं माँ, मैंने सोच लिया है, मेरी पढ़ाई पर उन्होंने जो भी पैसा खर्च किए हैं, सूद-समेत लौटा दूँगी।’ मेरे लिए तो तुम्ही मेरी माँ और पिता हो।’ तल्ख़ी से आकांक्षा ने कहा।

‘अब तू सचमुच बड़ी हो गई है, कांक्षा ! तू मेरी बेटी नहीं, मेरा बेटा है।’ गदगद् कंठ से सरस्वती ने कहा।

‘हाँ, माँ ! मैं तुम्हारा बेटा हूँ। तुम्हारे सारे सपने पूरे करूँगी।’ प्यार से आकांक्षा ने माँ के गले में बाँहें डाल दीं।

भारतीय पुलिस सेवा में चयन पर आकांक्षा को माँ ने गले से लिपटा, ढेर सारे खुशी के आँसू बहा डाले। ट्रेनिंग पर जाती आकांक्षा ने माँ से वादा किया था, पहली पोस्टिंग होते ही वह माँ को अपने साथ ले जाएगी। अब इसे इस नरक में नहीं रहने देगी।

दिल्ली में पोस्टिंग मिलने की वज़ह प्रतियोगिता-परीक्षा में आकांक्षा की ऊँची पोज़ीशन ही थी। घर मिलते ही माँ को ले जाने की सूचना माँ को भेज दी थी।
ट्रेगिंन के दौरान आकांक्षा को माँ का एक अज़ीब पत्र मिला। जैसे माँ को अपनी मृत्यु का आभास हो गया था, शायद तभी उन्होंने लिखा था,

मैं चाहती हूँ मेरा अंतिम संस्कार मेरी बेटी ही करे। मेरे शरीर का वे लोग स्पर्श भी न करें। जिनकी वज़ह से जीवन भर चिता की आग में जली हूँ। मैंने एक विधवा जैसा एकाकी जीवन जिया है। मुझे विधवा की तरह ही अंतिम विदाई देना, बेटी। यही मेरी आखि़री वसीयत है।’

पत्र पढ़ती आकांक्षा रो पड़ी। काश् ! उसी दिन छुट्टी लेकर वह आ पाती, माँ अक्सर ऐसी निराशाजनक बातें नहीं करती थीं।

माँ की अल्मारी देखती आकांक्षा के हाथ सरस्वती की एक मेडिकल-रिपोर्ट आ गई। रिपोर्ट देखती आकांक्षा चीख पड़ी- ये क्या माँ को लंग- कैंसर था ? माँ ने यह बात आकांक्षा तक से छिपाई। कई बार माँ को खाँसी का दौरा- सा पड़ता। लगता जैसे उनका दम घुट रहा हो। आकांक्षा की चिंता पर माँ हँस देती।

‘कुछ नहीं, परसों भीगे बालों को बाँध लिया था, सो ठंडक लग गई।’ पानी पीकर माँ अपनी पीड़ा किस आसानी से छिपा लेती थीं।

आँसू बह निकले। सबको तो वह दंडित कर सकती थी, पर अपने को क्या सजा़ दे ? माँ से चिपक कर सोती आकांक्षा, उसके लंग-कैंसर की आवाज़ क्यों नहीं सुन सकी ?

‘माँ तुमने मुझे, अपनी बेटी को यह सज़ा क्यों दी ?’

भूखी-प्यासी आकांक्षा कमरा बंद किए पड़ी थी। गौरव की आवाज़ पर द्वार खुला था। लाल सूजी आँखे, बिखरे बाल देखकर गौरव डर- सा गया।

‘तुम तो अपनी माँ की बहादुर बेटी हो, आकांक्षा। हिम्मत रखो। तुम्हारे रोने से माँ को कष्ट होगा।

‘माँ ने जो कष्ट सहा, वह तो मैं उनकी जाई बेटी भी नहीं बाँट सकी, गौरव। माँ को लंग-कैंसर था। उन्होंने मुझे क्यों नहीं बताया, क्यों गौरव क्यों ?’

‘वह चाहती थीं उनकी बेटी का सपना पूरा हो। उसमें कोई बाधा न आए, इसीलिए उन्होंने यह बात तुमसे भी छिपाई आकांक्षा।’

‘चलो, गौरव। हमें अभी वापस जाना है।’

‘यह क्या अनर्थ कर रही है, आकांक्षा। अरे तूने चिता को आग दी है। तेरह दिन तक तुझे वहीं बैठना-सोना है, जहाँ तेरी माँ का शरीर रखा गया था। ऐसा न करने से सुरसती की आत्मा भटकेगी।’ शांता ने चेतावनी- सी दी।

‘नहीं, इस घर में जीवित माँ की आत्मा अपना स्थान पाने के लिए भटकती रही। अब वह इस भूतों के डेरे से मुक्त हो गई है। मैं यहाँ एक पल के लिए भी नहीं ठहर सकती।’ बैग़ उठा, आकांक्षा घर से बाहर आ गई। पीछे-पीछे गौरव था।

स्नान कर, सूर्य को अर्ध्य देती आकांक्षा बुदबुदाई-

‘माँ तुम शून्य में विलीन हो गई हो, पर तुम्हारी स्मृति हमेशा मुझे प्रेरित करती रहेगी। किसी भी परिवार में प्रताड़ित स्त्री को न्याय और उसका प्राप्य दिलाना, मेरे जीवन का एकमात्रि ध्येय और संकल्प होगा।

आँखे बंद किए आकांक्षा के दृढ़ चेहरे को सूर्य की सुनहरी रश्मियाँ बिखर, उसे ज्योतिर्मय बना गई।




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