ताऊजी की अर्थी तैयार की जा रही थी। उनकी मृत्यु की सूचना आग की तरह पूरे शहर में फैल चुकी थी। अंतिम दर्शनों के लिए बाहर भीड़ जमा होती जा रही थी। सभी के मुंह पर एक ही बात थी- ऐसा परोपकारी ईमानदार व्यक्ति तो बिरले ही जनम लेता है। मुहल्ले-शहर के गरीब बच्चों के लिए तो वे मसीहा ही थे। रिटायरमेंट के बाद बच्चों की शिक्षा ही उनका एकमात्र ध्येय था। आज उनके पढ़ाए छात्र इंजीनियर, डाक्टर ही नहीं कलक्टर बन चुके हैं। बच्चों को पढ़ाने के अलावा मुफ्त दवा-दारू के लिए भी उन्होंने सरकारी अस्पताल में व्यवस्था करा रखी थी। उन्हीं के प्रताप से गरीबों के लिए भी अस्पताल के दरवाजे खुले रहते थे। सभी के मन में एक ही बात बार-बार आ रही थी, भगवान अच्छे आदमियों को जल्दी अपने पास बुला लेते हैं, ताऊजी उन्हीं में से एक थे।
घर के अन्दर मंत्रोच्चार के साथ पंडित जी उनके माथे पर चंदन का लेप कर रहे थे। ताऊजी के मुख पर संतोष और शांति झलक रही थी। घर के सारे दायित्व पूर्ण कर, सावित्री ताई को भी अपने जाने के पहले अलविदा दे चुके ताऊजी ने कोई काम भी तो अधूरा नहीं छोड़ा था। ऐसा सौभाग्य क्या सबको नसीब होता है ? पर ताऊजी के ओंठ का तिरछा खिंचा कोना, सुमन का ध्यान बार-बार आकृष्ट कर रहा था। क्या ताऊजी सचमुच पूर्ण संतुष्ट गए हैं? जीवन भर न्याय, सच्चाई, ईमानदारी के सिद्धान्तों का अक्षरशः पालन किया है ?
चार भाई-बहिनों में सबसे बड़े ताऊजी के त्याग और ईमानदारी की कहानियाँ परिवार के बच्चे, बचपन से सुनते आए थे। पूरे विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने के बावजूद ताऊजी को क्यों गांव के एक छोटे स्कूल में नौकरी स्वीकार करनी पड़ी थी ? उनकी ऐसी ही बातों ने ताऊजी को महान बना दिया था।
बी.ए. में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान पाने के साथ ही पिछले कई वर्षो के अधिकतम अंको का रिकार्ड ताऊजी ने तोड़कर, एक कीर्तिमान स्थापित किया था। खुद वाइसचांसलर ने ताऊजी को अपने कक्ष में बुलाकर उनकी पीठ ठोंकी थी।
मेरी राय है तुम आई.सी.एस. की परीक्षा देने लंदन चले जाओ। तीनों फैकल्टी में टॉप तुम जैसा मेधावी ही कर सकता है। मुझे पूरा विश्वास है, आई.सी.एस. परीक्षा में भी तुम प्रथम स्थान पाओगे, विष्णु।
ये तो आपकी कृपा है सर, पर मेरी आर्थिक स्थिति आप शायद नहीं जानते। मेरे पिता एक प्राइमरी स्कूल में क्लर्क हैं -विनम्रता से अपनी बात कह ताऊजी ने सिर झुका लिया था।
इसकी तुम चिन्ता मत करो, विष्णु। लंदन जाने-आने की व्यवस्था यूनीवर्सिटी की ओर से कर दी जाएगी। लंदन में मेरा एक मित्र है, तुम उनके घर ठहर सकते हो।
उन दिनों आई.सी.एस. की परीक्षाएं लंदन में हुआ करती थी। वाइस चांसलर के सुझाव पर ताऊजी ने सोचने का समय मांग लिया था, आई.सी.एस. का आकर्षण उन्हें अपनी ओर खींच रहा था। इस परीक्षा में सफलता का अर्थ-संभावनाओं के द्वार खुल जाना था। ताऊजी को निर्णय का मौका ही कहां मिल पाया था, पिता के आकस्मिक निधन ने उन्हें स्तब्ध कर दिया था। चार छोटे भाई-बहिनों और माँ का दायित्व उनके किशोर कंधो पर अनायास ही आ गया था। उनका मुंह देखकर ही तो माँ का रूदन शांत हो सका था। यूनीवर्सिटी की तीनों फैकल्टी के टॉपर ताऊजी को पिता के स्कूल में अध्यापक की नौकरी स्वीकार करना, उनकी विवशता थी।
सपने देखना सुखद होता है, पर खुद मीठे सपने तोड़ते ताऊजी को ही देखा गया। सब कुछ भूलना आसान हो सकता था, पर अपनी सहपाठिन माया दत्त से नाता तोड़ पाना उतना आसान तो नहीं था। दोनों ने भविष्य के सपने, एक साथ संजोए थे, पर वस्तुस्थिति से मुंह भी नहीं मोड़ा जा सकता था। पिता की मृत्यु के बाद हमेशा की कमजोर माँ ने खाट पकड़ ली थी। दस वर्ष की छोटी बहिन के हाथ जिस दिन रोटी सेकते जल गए, उसी दिन उन्होंने अंतिम निर्णय ले लिया था। एक माह के अन्दर अपने मित्र की बेहद मामूली नैन-नक्शवाली बहिन सावित्री से ताऊजी का विवाह हो गया था।
ताऊजी का धूप सा उजला रंग, खड़ी नाक और बड़ी-बड़ी प्रदीप्त आँखें, उनके काश्मीरी होने का भ्रम देती थीं। उनके उस आकर्षक व्यक्तित्व पर ही तो शहर के जज की इकलौती बेटी माया दत्त मर मिटी थी। उनकी तुलना में सावित्री ताई भले ही न ठहरती हों, पर अपने शांत-शौम्य व्यवहार से उन्होंने पूरे घर को एक ठहराव या स्थिरता जरूर दी थी।
सास की सेवा-सुश्रूषा से लेकर छोटे देवर-ननदों को उन्होंने अपने सगों की तरह अपना लिया था। माँ और भाई-बहिन अपने को अकेला न समझें, इसलिए ताऊजी घर से पचास मील दूर अलमोड़ा रहते, और ताई सास के साथ रहतीं। इन दिनों अलमोड़ा के लिए कई मील पैदल रास्ता तय करना पड़ता था। पूरा घर-परिवार ही नहीं, दूर दराज के नाते-रिश्तेदार भी ताऊजी के गुण गाते नहीं थकते। सच्चाई और ईमानदारी के संकल्प के साथ ताऊजी हर मुश्किल सहते गए। प्राइवेट बी.एड. की परीक्षा पास करते ही उनकी नौकरी स्थायी हो गई थी। ताऊजी चाहते तो शहर में उन्हें अच्छी नौकरी मिल सकती थीं, पर उनके शहर जाने के नाम पर माँ के आँसू बहना शुरू हुए तो तभी बंद हुए जब ताऊजी ने शहर न जाने का निर्णय ले लिया। पति को खोकर वह पुत्र बिछोह नहीं सह सकती थीं। पैतृक घर के एक-एक कण में पति की स्मृतियां थीं, उसे छोड़कर कहीं और जाना माँ ने स्वीकार नहीं किया था।
उनके सीमित वेतन में सावित्री ताई न जाने कैसे घर चलाती रहीं। अपने लिए उनकी कोई जरूरत नहीं थी, कभी कुछ नहीं मांगा, पर ननद देवरों की पढ़ाई की फ़ीस, शादियों में उनके गहने-बर्तन कम ही होते गए! सावित्री ताई के चेहरे पर कभी कोई शिकन आते, किसी ने नहीं देखी। सुमन जबसे समझदार हुई, इन बातों को सोचती वह निर्णय नहीं ले पाती कि असली प्रशंसा के हकदार ताऊजी थे या सावित्री ताई ?
दूसरे भाई इन्द्रदेव बड़े भाई के विश्वविद्यालय में ही बी.ए. करने गए थे। विश्वविद्यालय में लगे योग्यता बोर्ड पर बड़े भाई का स्वर्णाक्षरों में अंकित नाम देख, गर्व से उनका सीना फूल गया थां, पर तीनों फैकल्टी के टॉपर भाई का गौरव वह नहीं पा सके। मामूली द्वितीय श्रेणी पा, वह रो पड़े थे। उस समय ताऊजी ने ही उन्हें हिम्मत दी थी - एम.ए. मे फ़र्स्ट डिवीजन ही नहीं फ़र्स्ट पोजीशन लाओगे इन्द्र, ये मेरा विश्वास है।
बड़े भाई के आशीर्वाद से इन्द्रदेव एम.ए. में प्रथम श्रेणी के साथ पी.सी.एस. परीक्षा में भी सफल रहे थे। उनके पी.सी.एस. होते ही घर में लड़की वालों की कतार लग गई थी। ताऊजी की आँखों में खुशी के आँसू आ गए थे। वह आई.सी.एस. भले ही न बन सके, छोटा भाई तो डिप्टी कलक्टर बन गया।
इन्द्रदेव ने अपनी शादी के लिए अपने मन की बात सावित्री भाभी से ही कही थी। कलक्टर की बेटी, सविता से इन्द्रदेव की शादी की बात सुन, ताऊजी सोच में पड़ गए थे। इस मामूली घर में क्या सविता रह सकेगी ?
सावित्री ताई ने पति के अन्तरद्वंद का आसानी से समाधान कर दिया था -
देखो जी, हमें उनसे क्या चाहिए ? कभी तीज-त्योहार तो इकट्ठे हो सकते हैं, हमारे लिए इससे ज्यादा और चाहिए भी क्या ?
ये सच था ताऊजी के मानसिक स्तर तक सावित्री ताई कभी न पहुंच सकीं, पर घर में देवर-ननदों ने उन्हें देवी के दर्जे पर अवश्य प्रतिष्ठित कर रखा था। कभी ताई के सीधे-सादे व्यक्तित्व के सामने मायादत्त की तेजस्वी बुद्धि प्रदीप्त चेहरा भले ही ताऊजी को विचलित कर जाता हो, पर ये सत्य था माया दत्त उस परिवार के लिए नहीं बनी थीं। फिर भी कभी अनजाने ही उनका आक्रोश सावित्री ताई पर उतर ही आता था।
सविता को लेकर ताऊजी की शंका निर्मूल नहीं थी। इन्द्रदेव से विवाह के बाद सविता उस घर से तालमेल नहीं बिठा सकी थी। सविता के साथ इन्द्रदेव भी अपने घर से कटते चले गए थे। तीज त्योहार पर सबके इकट्ठे होने का प्रश्न ही नहीं उठता था। छोटे भाई की तरक्की सुन ताऊजी खुश होते रहे। सविता की पहली बेटी सुमन के जन्म पर भी सावित्री ताई ने घर में कथा करवाई थी। सावित्री ताई को सविता या इन्द्रदेव से कभी कोई शिकायत नहीं थी। ताऊजी ने अगर कुछ महसूस किया तो सावित्री ताई ने देवर-देवरानी का ही पक्ष लिया।
यह विधाता का ताऊजी के साथ अन्याय ही था कि उनके बच्चों में उनकी जैसी बुद्धि किसी को नहीं मिल सकी। छोटे भाई इन्द्रदेव के बच्चों की सफलता पर उन्होंने हमेशा प्रशंसा के पत्र भले ही भेजे हों या हाई स्कूल में जब सुमन को तीन विषयों डिस्टींकशन मिला तो ताऊजी ने उसकी पीठ ठोंकते सावित्री ताई पर व्यंग कस अपने मन की बात ही निकाली थी -
देखा पढ़ी-लिखी माँ के बच्चें ऐसे होते हैं। एक हमारे होनहार सपूत हैं फ़र्स्ट डिवीजन दूर, पास भर हो जाएं तो उनकी माँ उन पर न्योछावर हो जाए।
सावित्री ताई के चेहरे का रंग भले ही उतरा हो, पर उन्होंने अपनी बात कह ताऊजी को निरूत्तर कर दिया था-
सुमन क्या हमारी बेटी नहीं है।
ताऊजी स्तब्ध पत्नी का मुंह देखते रह गए थे। सुमन जैसे-जैसे समझदार होती गई सावित्री ताई से बहुत प्रभावित होती गई। जब भी माँ सामने नहीं होती, पापा ताऊजी और ताईजी की बातें बताते भावविह्वल हो जाते। माँ जिस घर की बेटी थीं वहाँ ऐसी बातों के लिए जगह नहीं थी। पापा से ही सुमन ने ताऊ और ताई के बारे में बहुत सुना-समझा था। कभी-कभी सुमन को लगता ताऊजी के विराट व्यक्तित्व ने बरगद की तरह अपनी साया में रहने वालों को पनपने का मौका ही नहीं दिया।
ये सच था ताऊजी ने अपने घर-परिवार के लिए अपनी महत्वाकांक्षाओं का गला घोट दिया, पर इसके बदले में उन्हें सबका इतना मान-सम्मान तो मिला जिससे उनके अहं की तुष्टि हो सकी, पर सावित्री ताई सबको सब कुछ देकर भी बस एक साधारण पत्नी भर बन कर ही क्यों रह गई ? क्या उनके त्याग-तपस्या के बिना ताऊजी वो सब कर पाते जिसके लिए उन्हें देवत्व की संज्ञा दी गयी ? ताऊजी अपने बच्चों को हमेशा अपने से तुलना कर उन्हें धिक्कारते रहते। बच्चे उनके नाम से भी डरते। बच्चों ने उनके सपने पूरे नहीं किए इसका आक्रोश भी सावित्री ताई पर ही उतरता। अपने बच्चों के प्रति कठोर वही ताऊजी मुहल्ले-पड़ोस के सामान्य बुद्धि वाले बच्चों को अलग टाइम निकाल पढ़ाते-समझाते, उनकी प्रशंसा करते न थकते। न जाने क्यों सुमन को हमेशा लगता मायादत्त को छोड़ने की विवशता और आइ.सी.एस. न बन पाने की कसक आजीवन ताऊजी को कचोटती रही। अन्ततः दूसरों की अपने लिए प्रशंसा सुनते रहना उनकी आदत बन गई थी।
छोटे चाचा धर्मदेव सावित्री ताई के लाड़ले देवर थे। पढ़ाई में धर्मदेव मन्द-बुद्धि भले ही न थे। पर जीवन में कुछ बनने का सपना उनकी आँखों ने नही देखा था। घर में पैसे की तंगी देखते धर्मदेव के मन में पैसे का महत्व गहरी जड़ें जमा चुका था। बी.ए. में थर्ड डिवीजन के बाद धर्मदेव ने पढ़ाई को अलविदा कह दी थी। ताऊजी के क्रोध के आगे धर्मदेव सावित्री ताई के आंचल का सहारा लेते। सावित्री ताई अपने देवर के पक्ष में अगर कुछ कहतीं तो ताऊजी नाराज होते।
धर्मदेव की थर्ड डिवीजन के लिए वह पत्नी के लाड़-प्यार को जिम्मेवार मानते। फिर भी पता नहीं ये ताऊजी के पुण्यों का फल था या धर्मदेव की किस्मत कि वह इनकम टैक्स इंसपेक्टर की परीक्षा में उत्तीण हो गए। सावित्री ताई ने मंदिर जा, प्रसाद चढ़ाया था। देवर की नौकरी लगते ही सावित्री ताई, अपनी मनपसंद देवरानी खोज लाई थीं। दुर्गा उनकी दूर के रिश्ते से बहिन लगती थी। दुर्गा के हाथों धर्मदेव को सौंप, सावित्री ताई ने चैन की सांस ली थी।
सावित्री ताई और दुर्गा चाची में खूब पटती थी। बड़े भाई की आर्थिक स्थिति धर्मदेव से छिपी नहीं थी। सीमित आय में चार बच्चे, पत्नी और माँ का खर्च बड़े भइया किस मुश्किल से चलाते हैं, धर्मदेव अच्छी तरह जानते थे। ऐसा नहीं कि वह अपनी आय नहीं बढ़ा सकते थे। स्कूल में पढ़ रहे अमीरों के मंद बुद्धि बच्चों को परीक्षा में सहायता देकर पास करा देना या उनकी ट्यूशन के नाम पर हर महीने लम्बी रकम लेने जैसे हथकंडे अपना, उनके साथ के कई अध्यापक आराम की जिंदगी बिता रहे थे, पर ताऊजी ने ऐसे काम न करने का संकल्प ले रखा था। यहां तक कि एक अभिभावक जब अपने बच्चे के पास होने की मिठाई ले उनके घर आए तो ताऊजी ने मिठाई अस्वीकार कर दी थी। ईमानदारी की नमक-रोटी खा, वह संतुष्ट थे। स्कूल बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसा देता है, अध्यापक का धर्म है वह ईमानदारी से उन्हें पढ़ाए।
सोचने पर लगता है, ताऊजी के जीवन के मानदंड बच्चों के बड़े होने के साथ दोहरे होते गए। पत्नी के संतोष ने उन्हें कभी परेशान नहीं किया, पर बच्चों के आकाश छूते सपने, उन्हें दुविधा में डाल देते। थर्ड डिवीजन पास धर्मदेव के यहां रूपया बरस रहा था। दोनों चाचाओं के घरों का ऊंचा जीवन स्तर, बच्चों के रहन-सहन का ढंग, उनके जीवन-स्तर से इतना ऊंचा था कि उनके अपने बच्चे छटपटा कर रह जाते। उनकी छटपटाहट ताऊजी अवश, महसूस करते मौन रहे। उनके अपने जायों की आकांक्षाएं, उनके छोटे चाचा ही पूरी करते।
छोटे चाचा धर्मदेव के आने की प्रतीक्षा, सारा घर उत्सुकता से करता। चाचा-चाची का जाना, जैसे घर में खुशियों का आना हुआ करता था। उनके आने से उनकी सारी अतृप्त इच्छाएं पूर्ण हो जातीं। नई-नई पिक्चरें देखना, रेस्ट्रांज़ में ढेर सारी मिठाइयाँ, आइसक्रीम खाना, सपनों में जीने जैसी बातें लगतीं। जेठ-जिठानी और बच्चों के लिए दुर्गा कई जोड़े कपड़े लेकर आती। सावित्री की अच्छी साड़ियां, दुर्गा की ही लाई होती थीं। छोटे चाचा ने बड़े भाई-भाभी को देवी-देवता का दर्जा दिया था। दुर्गा चाची ने चाचा की बातों को अक्षरशः स्वीकार किया था। बड़े ताऊ-ताई को बच्चे भी बेहद सम्मान देते थे, पर सुमन को हमेशा यह लगा, उनके सम्मान में स्वार्थ-भाव अधिक प्रबल रहता। कभी ताऊजी के छोटे बेटे ने कहा भी था। चाचा का क्या, बहती गंगा में कोई भी हाथ धोले। हमें थोड़ा बहुत देने से उनकी कमाई में क्या फर्क पड़ने वाला है ?
छोटे चाचा तक ये बातें शायद कभी नहीं पहुंची। ताऊजी के बच्चों के लिए बढ़िया से बढ़िया कपड़े, सूट, घड़ियां देने में चाचा को खुशी महसूस होती। बड़े भाई-भाभी के ऋण से वह कभी उऋण नही हो सके। ताऊजी की दोनों बेटियों की शादी का लगभग पूरा खर्चा चाचा ने ही उठाया। उनके दहेज में दिए गए सामान की ससुराल वाले प्रशंसा करते न थकते। ताज्जुब यही कि दुर्गा चाची ने भी उन्हें कभी नहीं रोका कि उनका अपना भी एक परिवार है, उसके भविष्य के लिए भी उन्हें सोचना चाहिए।
बेटियों का विवाह निबटा ताऊजी ने चैन की सांस ली थी। सावित्री ताई देवर को आशीषते नहीं थकतीं, जिसके कारण बेटियों को अच्छा घर-वर मिल सका। पति की कमाई में क्या वैसा घर-वर संभव था ?
अन्ततः ताऊजी के पुण्यों के प्रताप से उनका तीसरा पुत्र जितेन सरकारी नौकरी के लिए चुन लिया गया था। सरकारी नौकरी के लिए ताऊजी के मन में बहुत आस्था थी। रिटायरमेंट के बाद पेंशन ले, आदमी आराम से जी तो सकता है। नौकरी पर जाने के पहले सावित्री ताई ने घर में पूजा करवाई थी। धर्मदेव और दुर्गा दो दिन पहले ही आ गए थे। भतीजे की सफलता पर धर्मदेव फूले नहीं समा रहे थे।
नौकरी पर जाते जितेन ने जैसे ही पिता के पांव छूने चाहे, वह पीछे हट गए थे।
जितेन पहले अपने चाचा के पांव छू, आज इन्हीं की बदौलत तू कुछ बन सका है।
चाचा के पांव छू जितेन ने पिता की चरण धूलि ली थी। बड़े भाई ने उन्हें जितना प्यार दिया, भतीजे ने दुगना सम्मान दिया था। गर्व से धर्मदेव की आँखे छलछला आई थीं।
जितेन के कंधे पर हाथ धर ताऊजी ने अपना गुरू-मंत्र दिया था -
मेरी एक बात गांठ से बाँध लेना जीतेन, जीवन में कितनी भी मुश्किले आएं अपनी ईमानदारी से मत डिगना बेटे। बेईमानी का पैसा छूना भी पाप है। मेरी इस बात को याद रखेगा तो जीवन में सुखी रहेगा। बेईमान को कहीं ठौर नहीं है जीतू- भावविह्वल ताऊजी आगे नहीं बोल सके थे।
आँखों में छलछला आए आँसू से धुधंलाई आँखे छोटे भाई का विवर्ण मुख नहीं देख पाई थीं। बड़े भइया ईमानदार हैं, इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता, पर छोटे भाई की उतनी छोटी नौकरी में इतना पैसा कहां से बरस रहा था कि वह अपने घर के साथ बड़े भाई के परिवार की ज़रूरतें ही नहीं, आराम के सुख-साधन भी जुटाता रहा ? क्या ये बात ताऊजी से छिपी हुई थी ? इनकम टैक्स की नौकरी में ऊपर से नीचे तक सबके हिस्से बंधे रहते हैं, धर्मदेव भी उसी हिस्सेदारी का एक अंश बन चुके थे, बात कम से कम ताऊजी से तो नहीं छिपी थी।
बेटे और भाई के बीच ऐसा विरोधाभास क्यों ? ताऊजी हमेशा यही दावा करते रहे, उन्होंने अपने भाइयों को बेटों से ज्यादा प्यार-मान दिया है, लेकिन क्या ये सच था ? धर्मदेव ने अपनी कार बाद में खरीदी, पहले बड़े भइया को दी थी। भला ये अच्छा लगेगा छोटा कार में घूमे और बड़ा भाई रिक्शे में जाए ? ताऊजी ने जीवन में दोहरे मानदंड क्यों रखे- क्यों ?
जितेने की पहली कमाई का अंश भी छोटे चाचा के भाग्य में नहीं था। बड़े भाई के घर से लौटने के पन्द्रह दिनों बाद उन्हें जानलेवा हार्ट अटैक पड़ा था। सावित्री ताई से लिपट रोते-रोते दुर्गा चाची कहती जा रही थीं -
न जाने कौन सी बात लग गई थी, हर समय मुंह बंद किए सोचते रहते - कभी कहते मैं पापी हूँ - कौन सा पाप किया था उन्होंने जीजी, वे तो देवता थे।
सावित्री ताई स्तब्ध शून्य में ताकती रह गई थीं। क्या वो धर्मदेव के मन की बात समझ नहीं गई थीं ? अपने परिवार के लिए छोटे चाचा जमा पूँजी नहीं छोड़ गए थे। खुले हाथ खर्च करते चाचा ने ये कब सोचा था, वो इतनी जल्दी चले जाएंगे ?
सुमन समझ नहीं पाती क्या ताऊजी की ईमानदारी का मानदंड इतना सीमित था जिसमें दूसरे की नाजायज़ कमाई स्वीकार करते उनके हाथ कभी मैले नहीं हुए ? बेटों के लिए निर्धारित ईमानदारी का मानदंड, भाई के लिए दूसरा क्यों था ?
ताऊजी ने ऐसा क्यों किया ? क्या उनकी अतृप्त इच्छाएं, उनके अवचेतन पर इस कदर हावी रहीं कि उनकी पूर्ति के लिए, छोटे भाई का गलत ढंग से कमाया गया अंश, चाहकर भी वह अस्वीकार न कर सके ? अगर यही सच था तो क्यों नहीं वह सबके सामने स्वीकार कर सके ? कम से कम इस जगह तो उन्हें ईमानदारी बरतनी थी कि उनसे ज्यादा ईमानदार उनका वह छोटा भाई था जिसने अपने भाई के सपने पूरे करने के लिए अपना धर्म गंवा दिया और भाई का देवत्व अक्षुण्ण रखा। ताऊजी ने कभी स्वीकार क्यों नहीं किया कि अनके जिस त्याग और महानता के चर्चे होते रहे, उसके मूल में उनकी पत्नी सावित्री का महती योगदान था। ताऊजी क्या उनका देय उन्हें दे सके ?
ताऊजी के ओंठ के खिंचे कोने पर सुमन की दृष्टि फिर जम गई थी-नहीं-ये सच नहीं कि वह संतोष कि चिरनिद्रा में लीन थे। आज उनका अवचेतन मन, उनके चेतन पर मन जरूर हावी था-जरूर हावी था। इसीलिए तो उनका ये ओंठ विद्रूप में खिंच गया है।
No comments:
Post a Comment