कैलीफोर्निया हॉल में दोनों की भेंट अचानक हुई थी। दोनों लेखिकाओं का परिचय कराती पुनीता नंदी ने इसे प्रतिभागियों का सौभाग्य माना था कि एक साथ भारत की दो जानी-मानी लेखिकाएं सम्मेलन की चर्चा में भाग लेने उपस्थित थीं। नंदिता रे, अपने समय की बंगला की लोकप्रिय कहानीकार थीं। पिछले चार-पांच वर्षो से कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में वे विज़िटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में कार्य कर रहीं थीं। सुप्रिया जादवानी हिन्दी की उभरती कहानीकार थीं, उनकी कहानियां नारी-केन्द्रित होती थीं। सम्मेलन में प्रवासी-भारतीय महिलाओं के अलावा अमेरिकी, अफ्रीकी तथा अन्य एशिआई देशों की महिलाएं सम्मिलित थीं। सम्मेलन में महिलाओं की स्थिति बेहतर बनाने पर चर्चा चल रही थी।
अमेरिकी पत्रकार लिंडा जॉन ने नंदिता से साफ शब्दों में प्रश्न किया क्या ये सच है कि भारत में लड़कियों को भ्रूण में ही मार दिया जाता है ?
ठीक कहती हैं, भारत में महिलाओं की स्थिति बहुत दयनीय है। बचपन से बुढ़ापे तक वे बस तिरस्कार और लांछना का जीवन जीती हैं .............. गम्भीर वाणी में नंदिता रे ने अपनी बात कही थी।
एक लेखिका के रूप में आप इसके लिए क्या कर रही हैं ? एक प्रवासी भारतीय महिला के स्वर में दर्द था।
मेरी अधिकांश कहानियों में स्त्रियों की पीड़ा है। उनकी समस्याएं हैं। मूलतः मेरी कहानियां वीमेन-ओरिएंटेड हैं।
कहानी में उनकी पीड़ा-दर्शा आप क्या सजीव करेंगी ? लिंडा के प्रश्न पर नंदिता रे अचकचा उठीं।
नारी की पीड़ा जानकर ही तो उसका परिष्कार संभव है।
भारत में नारी-पीड़ा पर पोथियां लिखी जा चुकी हैं, पर महिलाओं की स्थिति आज भी वैसी ही है। पुनीता के स्वर में आक्रोश झलक रहा था।
यहां क्या नारी वो सब पा चुकी है, जो उसका प्राप्य है ? बेहद शांत स्वर में सुप्रिया ने पूछा था।
क्यों नहीं, यहां स्त्रियों को पुरूषों का सम्मान मिला है। घर के कामकाज में पुरूष-स्त्री का पूरी तरह हाथ बंटाता है। पुनीता के स्वर में गर्व था।
फिर भी पुरूष का अहं, इस देश में भी आड़े आता है, क्यों ठीक कहा न, लिंडा ?
हां ... आं .... आपके कथन में कुछ सच्चाई तो जरूर है। अमेरिकी स्त्रियां भी पुरूष-शोषण का शिकार बनती हैं, पर उनकी स्थिति उतनी खराब नहीं।
लेकिन मैं ऐसा नहीं मानती, कम से कम यहां रह रहे भारतीय पति तो पत्नी को बहुत सम्मान देते हैं। नीरजा ने विरोध प्रकट किया था।
क्योंकि वह पति के बराबर पैसा जो कमाकर लाती हैं। शांता बेन के चेहरे पर मुस्कान थी।
पर भारत में तो कामकाजी महिलाओं की भी वही स्थिति है, कुछ साल पहले एक आइ0ए0एस0 लड़की की हत्या उसके पति ने की थी, इट्स हॉरिबिल, अपनी बात कहती नीरजा सिहर उठी थी।
कभी-कभी फ़ायदा उठाने के लिए आत्महत्या को भी हत्या की संज्ञा दी जा सकती है, नीरजा। सुप्रिया ने विषय को दूसरा तर्क देना चाहा।
स्त्री को आत्महत्या के लिए विवश करना, क्या हत्या से कम अपराध है ?
पता नहीं किसका क्या सच है, पर मुझे तो कभी ऐसा लगता है, यू0एस0 में कानून का भय दिखा, पत्नियां पतियों का शोषण कर रही हैं। शांता बेन गम्भीर थीं।
शांता बेन, आपने तो समस्या को एक नया ही मोड़ दे दिया। पुनीता हंस पड़ी।
ठीक कहती हूँ पुनीता, कहने को तो मेरे तीन-तीन बेटे हैं, पर उनकी शादी करके लगता है, मैंने बेटे नहीं बेटियां ब्याही हैं। उनकी पत्नियां जिस तरह अपनी स्थिति का फ़ायदा उठाती हैं, मेरे तो गले से नहीं उतरता। हर बात में 911 का डर दिखा, हर चाहा-अनचाहा काम करने को विवश करती हैं। भला ये कोई अच्छी बात है ?
चलिए ये तो अच्छा है, कहीं स्त्रियों को कुछ एडवांटेजस पोज़ीशन मिली है। सुप्रिया हंस पड़ी।
आप हंस रही हैं, पर मेरा दिल तो रोता है। बहू ने बेटे को जनम दिया, पूरा घर उस पर सौ जान न्योछावर है, पर ये क्या अच्छी बात है, रात में जब भी बच्चा रोए निखिल को ही उठकर चुप कराना है, डाइपर बदलना है, फ़ार्मूला बनाकर फ़ीड कराना है, यानी पूरी रात का जागरण, मेरे निखिल को ही झेलना है।
तो इसमें गलती क्या है शांता बेन, आफ्टर ऑल वह बेबी का फ़ादर है, ये काम उसी की ड्यूटी है। लिंडा विस्मित थी।
गलती कैसे नहीं है ? बेचारा निखिल पूरे दिन आफिस में सिर खपाकर लौटे और रात भर बीबी-बच्चें की सेवा करे। बहू तो दिन में आराम से सोती है, फिर भी रात में बच्चा नहीं देखती। क्या भारत में कोई मां ऐसा कर सकती है? मुझे तो निखिल का मुंह देखकर रोना आता है।
तो आप क्यों नहीं बहू-पोते की सेवा करतीं ,शांता बेन ? किसी महिला ने परिहास किया था।
मुझे हाथ लगाने दे, तब न ? कहती है पिता के साथ इंटरेक्शन से ही बच्चा पिता को प्यार करेगा, वर्ना वह किसी और को पिता का अधिकार दे सकता है। भला ऐसी बातें कभी सुनी थीं ? सबकी सम्मिलित हंसी पर शांता बेन खिसिया गई।
शायद आपकी बहू ठीक कहती है शांता बेन, भारत में बच्चों का पिता के साथ भावनात्मक संबंध कम ही होता है, शायद उसकी एक वजह ये हो। नंदिता रे ने अपनी राय दी थी।
नहीं आपके इस तर्क से मैं सहमत नहीं, मैं तो अपनी मम्मी की जगह पापा से ही ज्यादा अटैच्ड हूँ। पुनीता के स्वर में गर्व था।
मुझे लगता है इंडिया में बच्चे के जन्म के समय उसके पिता की उपस्थिति निषिद्ध होती है, शायद इसीलिए बच्चे को पिता से कम लगाव होता है, यहां तो जन्म के पहले से जन्म के बाद तक, पिता को हर बात की जानकारी दी जाती है। बच्चे के जन्म के समय पिता की उपस्थिति अनिवार्य होती है ताकि उसे बच्चे से ज्यादा अटैचमेंट हो। एक विदेशी महिला ने अपनी राय दी थी।
जी हां, ये ठीक बात हैं, भारत में स्त्रियों को भोग की वस्तु माना गया है। वह सिर्फ़ एक शरीर है इसलिए उसके सुदंरतम रूप से पुरूष को रिझाया जाता है। बच्चे के जन्म की प्रक्रिया वितृष्णा उत्पन्न करती है, इसीलिए पुरूष को उस क्षेत्र से वर्जित रखा गया है। मुझे लगता है भारत में भी बच्चे के जन्म के समय पिता की उपस्थिति अनिवार्य कर दी जानी चाहिए। नंदिता रे का स्वर उत्तेजित था।
हमने तो सुना है, भारत में आध्यात्मिकता पर बल दिया जाता है, पर आपकी बातों से लगता है वहां स्त्री भोगी जाती है, वह देवी नहीं मानी जाती। विदेशी महिलाओं का कौतूहल बढ़ता जा रहा था।
एक बात बताइये, भारतीय स्त्री एक पति के साथ अपना पूरा जीवन कैसे बिता लेती है ? क्या उन्हें चेंज की जरूरत नहीं लगती? लिंडा ने नंदिता रे से सीधा सवाल किया था।
चेंज की ज़रूरत स्वीकार करने के लिए हिम्मत चाहिए। बचपन से पति परमेश्वर का पाठ घुट्टी में पीती आई लड़की तिल-तिल कर मर भले ही जाय, पर पति बदलने की बात सोचने का साहस कोई ही कर पाए। अपनी बात कहती नंदिता रे मुस्करा पड़ी थीं।
शायद आप इन्हें भारतीय संस्कृति की जानकारी ठीक नहीं दे रही हैं, भारतीय समाज आज भी भारतीय नारी की सहिष्णुता, उसके त्याग पर स्थिर है वर्ना वहां भी रोज तलाक होते रहें। नंदिता रे की बात सुप्रिया ने हिन्दी में बोलकर काटी थी।
क्या हर्ज है तलाक होने में ? आप जैसी लेखिका भी तलाक के विरूद्ध बात करें, क्या ये शोभा देता है ? क्या फ़र्क है आपमें और एक अशिक्षित स्त्री में ? नंदिता रे बेहद उत्तेजित थीं।
मैं तलाक की विरोधी नहीं हूँ, पर फैशन के नाम पर तलाक देने का समर्थन भी नहीं करती। अगर परिस्थितियां सचमुच ऐसी हो जब विवाह को खींच पाना असंभव लगे तो नारकीय जीवन जीने की जगह तलाक ही ठीक है।
आप क्या समझती हैं, मैंने फैशन के नाम पर पति से तलाक लिया है ? नंदिता रे के नथुने फूल उठे।
क्या, आप ये क्या कह रही हैं, क्षमा करें, मुझे आपके व्यक्तिगत जीवन के विषय में कुछ भी पता नहीं है। आई डू नॉट मीन इट। आई एम रियली सॉरी सुप्रिया स्तब्ध रह गई। बात कहां से कहां जा पहुँची।
अपने ही देश की दो महिलाएं आपस में इस तरह उलझ पड़े, क्या ये अशोभनीय नहीं था ?
दोनों के बीच हो रही जोरदार बहस का मतलब लिंडा को किसी भारतीय महिला ने समझा दिया था। सहानुभूति के साथ वह नंदिता रे के पास खिसक आई।
आप डाइवोर्सी हैं ? ये बताइए डाइवोर्स की पहल किसने की थी। हमने तो सुना है भारतीय स्त्रियां तलाक का नाम लेते भी डरती हैं।
पर मैं उन भीरू लड़कियों में से नहीं हूँ। जिस दिन लगा पति के साथ मेरी नहीं पट सकती, अदालत में तलाक की दरख्वास्त दे डाली थी।
हे, यू आर ग्रेट नंदिता जी। आपके अपने घरवालों ने आपको तलाक देने से नहीं रोका ? नीरजा चहक उठी थी।
घरवालों की सुनती तो आज उसी दरबे में कैद, भात पका रही होती। खुद सुबोध को भी पत्नी कम, दासी की ज्यादा जरूरत थी। तलाक की सुनते ही उसका मुँह फक पड़ गया था, माफी तक मांगी थी।
नंदिता रे की बात पर सबने जोरों की तालियां बजाई थीं।
क्या भात पकाने के साथ और कुछ नहीं किया जा सकता ? शांता बेन का प्रश्न तीखा था।
आप भी शांता बेन बस बेसुरा ही आलापती हैं। कुछ कर पाने के लिए स्वतंत्रता भी तो चाहिए न, वर्ना आपकी प्रतिभा क्या यूं कुंठित रह जाती ? पुनीता का स्वर रूष्ट था।
सुप्रिया जी, आप भी एक लोकप्रिय कहानीकार हैं, बताइए अपने लेखन और घर में आप कैसे तालमेल बिठाती हैं ? नीरजा के प्रश्न पर सुप्रिया मुस्करा उठी।
मेरी रचनाएं तो घर की नोक-झोंक में ही जन्म लेती हैं। जीवन में अगर चुनौतियां न हों तो जीवन एकरस न हो जाएगा ?
आप लकी हैं, सुप्रिया जी वर्ना भारत के अधिकांश घरों में लड़कियों की प्रतिभा दबा दी जाती है। शांता बेन उदास थीं। अपने शास्त्रीय संगीत का अभ्यास न कर पाने के लिए उनका मन हमेशा कचोटता। पति और सास को उनका गायन शत्रु लगता।
कुछ गलती तो उस लड़की की भी होती है, शांता बेन। आप इतने वर्षो से ऐसे देश में रह रही हैं जहां की नारी स्वतंत्रता का पूर्ण उपभोग करती है फिर भी आप अपना संगीत जीवित न रख सकीं। अगर आप विरोध का स्वर मुखर करतीं तो शायद आपको यूं पराजित न होना पड़ता। पुनीता ने शांता बेन की दुखती रग पर हाथ धरा था।
मेरी बात छोड़ो ......... हमारा ज़माना दूसरा था, तब हम 911 का भय दिखाकर अपने मन की नहीं कर सकते थे, पर हां तुम्हारी बात में कुछ सच्चाई तो ज़रूर है। अब तो निखिल के पापा भी महसूस करते हैं, मेरे संगीत पर उन्हें रोक नहीं लगानी चाहिए थी ...... अब जो बीत गई सो बीत गई। शांता बेन ने निःश्वास छोड़ी थी।
इतने बंधनों के बावजूद भारत में ऐसा क्या है जो आपको वहां से जोडे़ रखता है, सुप्रिया जी ? आप भी नंदिता जी की तरह यू0एस0 क्यों नहीं आ जाती ? लिंडा के सवाल में आग्रह था।
सधी मीठी आवाज में सुप्रिया कहती गईः
सच कहूं तो कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों के बावजूद भारत के रिश्तों में गहरी आत्मीयता है। मुहल्ले की चाची-मौसी से सगों जैसा प्यार मिलता है। शादी-ब्याह, तीज-त्योहार पर सबका जुड़ाव, क्या यहां संभव है ? यहां तो तीज-त्योहार भी बीकेंड के लिए छोड़ दिए जाते हैं। मेरे ख्याल में वर्षो यहां रहकर भी अपने देश की गलियां-पनघट सबको याद आते होंगे। वहां आज भी सब प्यार के इन्द्रधनुषी धागों में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, उस धागे को तोड़ पाना आसान नहीं, कभी भारत आओगी तो इस सच को समझ सकोगी लिंडा।
सुप्रिया की बातें सुनती अधिकांश भारतीय स्त्रियां आत्मविस्मृत थीं, पर न जाने क्यों नंदिता रे चिड़चिड़ा उठीं, शायद वह सुप्रिया का महत्व स्वीकार नहीं कर पा रही थीं।
सुप्रिया तुमने भारत की बड़ी रंगीन तस्वीर खींची है, काश् इन काल्पनिक रंगों की जगह यथार्थ के रंग भरतीं तो इन्हें भारत की नारी की पीड़ा का आभास तो हो पाता। एक सच्ची लेखिका से सच की अपेक्षा की जाती है, फेंटेसी की नहीं।
मैंने जो कहा सच ही तो कहा है। उत्तर-प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना नंदिता रे चर्चा बीच में अधूरी ही छोड़ वापस चली गई थीं।
दूसरी सुबह फोन पर सुप्रिया की आवाज सुन, नंदिता चौंक गई।
कहिए कैसे याद किया, कुछ और सुनाना बाकी है क्या ? स्वर का व्यंग्य स्पष्ट था।
कल की मेरी बातों से अगर तुम्हें चोट पहुँची है तो माफ़ी चाहती हूँ। मैने जानकर ऐसा नहीं चाहा था।
मुझे क्यों चोट पहुंचने लगी ? अपना महत्व जताने के लिए कोई झूठ का सहारा ले, उससे मुझे क्या लेना-देना ? तुमने ऐसा सोचा भी क्यों ?
तुम अचानक बीच में उठकर चली जो गई थीं।
अगर सच जानना चाहती हो तो सुन लो, मैं स्पष्टवादी हूँ, झूठ का सहारा ले, लोगों को भरमाना मेरा काम नहीं है, एक लेखिका से वैसा अपेक्षित भी नहीं है।
सच क्या मुझसे ज्यादा कोई जान सकता है, नंदिता ?
तो क्या तुम्हारा सच यही नहीं है कि भारत-भूमि स्वर्ग से महान है, वहां नारी की पूजा की जाती है।
नहीं, सच ये हैं कि खुद मेरी छोटी बहिन को उसके दहेज-लोभी श्वसुर-गृह में जलाकर खत्म कर दिया गया सुप्रिया की आवाज रूंध गई।
ओह ! आई एम सॉरी, पर इस सच के बावजूद तुम उस देश की वकालत कर रही थीं ?
हां इस सच के बावजूद मैं उन सबके सामने देश के इस दुखद सत्य को उजागर नहीं करना चाहती ....... अन्ततः मैं लेखिका हूं। न्याय-अन्याय की निष्पक्ष समीक्षा मुझसे अपेक्षित है न ?
क्यों सुप्रिया क्या अपनी बहिन की मृत्यु के लिए दोषी देश के साथ तुमने न्याय किया ?
हां ! अगर मेरी बहिन अग्नि की लपटों को समर्पित कर दी गई, उसमें दोष हमारे देश का नहीं, हमारा, हम सबका है। वह ससुराल न भेजे जाने के लिए रोती रही, गिड़गिड़ाती रही, पर उसकी नियति जानते हुए भी परिवार-जनों द्वारा उसे बार-बार उसी नर्क में ढकेला जाता रहा। अंत अपेक्षित था। मुठ्ठी भर अतृप्त स्वप्नों की राख बन, उसने परिवार का सम्मान बचा ही लिया न।
ओह ! ये तो नृशंसता की सीमा है, इसीलिए तो मैं कहती हूँ, इस देश में औरत पर ऐसे अत्याचार नहीं हो सकते।
नहीं नंदिता यहां भी औरत पर क्रूर, नृशंस अत्याचार होते हैं, पर यहां का मीडिया उन घटनाओं को आम जनता तक पहुँचा, अन्यायी-अत्याचारी को दंड दिलाता है।
ठीक है यही सही, पर क्या हमारे यहां टी0वी0 पर इस तरह की घटनाएं दिखाई जा सकती हैं, नहीं न ?
हां, अब यह संभव है नंदिता। स्त्री-अत्याचार के विरूद्ध मीडिया सजग है। जन-मानस की नारी के प्रति विचारधारा में परिवर्तन के लिए हमारा टी0वी0 सचेत है। अब हमारा-तुम्हारा और हम जैसी और लेखिकाओं का ये कर्तव्य बनता है कि हम अपनी कहानियों द्वारा समाज के नारी संबंधी सोच में परिवर्तन लाएं। हमसे यही अपेक्षित है न, नंदिता ? एक नई सुबह लाने में हमारी महती भूमिका है।
ठीक कह रही हो सुप्रिया, लेखिका का दायित्व हमें पूरा करना है। सच कहूँ तो कभी सुबोध के लिए भी मन उदास हो जाता है। अपने लेखकीय दंभ में मैंने उसके साथ अन्याय किया है, काश् मैंने उसे माफ़ कर दिया होता।
अब क्या माफ़ नहीं कर सकतीं, नंदिता ?
नहीं सुप्रिया बहुत देर हो चुकी, अब वह नई दुनिया बसा चुके हैं।
शायद हम सब कहीं न कहीं कोई ग़लती कर जाते हैं और बाद में पछताते हैं। तुमसे बातें करके बहुत अच्छा लगा, नंदिता। भारत से हजारों मील दूर, यहां मिलकर क्या हम दोनों और नज़दीक नहीं आ गए हैं ?
ठीक कह रही हो सुप्रिया, तुमसे बातें करके मेरा सोच भी शायद नई दिशा लेगा।
तो फ़ोन रखती हूँ, बाय नंदिता !
फ़ोन रख सुप्रिया ने छलछला आई आंखें पोंछ डाली थीं।
No comments:
Post a Comment