12/16/09

मुन्नी के लिए

छोटा नागपुर का वन- सौंदर्य सदैव अवर्णनीय रहा है। सड़क के दोनों ओर ऊंचे साल और ढाक के वृक्ष हवा में एक अजीब सुगन्ध घोल देते हैं। सदैव गर्व से मस्तक उठाए रहने वाले ये वृक्ष वर्षा और हवा की तीव्रता से झुके जा रहे थे। किसी से इन्हें यूं पराजित होते देखना एक नया अनुभव था। पानी की तेजी के कारण भइया भी कार चलाने में परेशानी का अनुभव कर रहे थे। चाचाजी की चिन्ता आगे बढ़ते जाने को बाध्य कर रही थीं। भाभी निःशब्द बैठी भगवान से सकुशल पहुंचाने की प्रार्थना कर रही थीं - यह मैं स्पष्ट समझ रही थी।


चचा जी के सीरियस एक्सीडेन्ट की सूचना पाते ही भइया ने कार से जाने का निर्णय ले लिया था। भाभी जरा हिचकिचाई थीं- साथ में अन्नू भी है- मौसम का हाल देख ही रहे हो। कहीं रास्ते में कार खराब हो गई तो जानते हो रास्ता खतरनाक है।

पिछले दो दिनों से भयंकर वर्षा हो रही थी - मानो सारा आकाश एक साथ बरसने पर आमादा था। पिछली बार हमारी कार का एक संदेहास्पद गाड़ी ने पीछा किया था - भाग्य से गया के मोड़ पर कुछ और गाड़ियां मिल गई थीं। उस रास्ते पर न जाने कितनी दुर्घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं। सब कुछ जानते भी भइया पितृ तुल्य चाचा की गम्भीर स्थिति के विषय में जान, एक पल भी रूकने को तैयार न थे। भइया को अकेले भेजने का भी हमें साहस न था - अन्ततः हम तीनों कार से चल पड़े थे। निरन्तर वाइपर चलते रहने के बावजूद, स्पष्ट देख पाना असम्भव था। भइया बार-बार कार के विंडस्क्रीन को अपने रूमाल से पोछते जा रहे थे - भाभी ने ही टोका था इतनी हड़बड़ी में चले हो कम से कम एक कप चाय तो पी लेते।

स्पष्टतः भाभी की व्यावहारिक बुद्धि भइया को कुछ खा-पीकर ही वाराणसी पहुंचने के पक्ष में थी। न जाने किस स्थिति का वहां सामना करना पड़े ? सड़क पर भरे पानी ने गढ्ढो को भी पाटकर समान कर दिया था। हम शेरघाटी पार कर चुके थे, कुछ ही देर में औरंगाबाद आने वाला था। यह घाटी पिछले कुछ दिनों से लूट-मार के कारण भय और आतंक का कारण बनी हुई थी। तभी अचानक चलती कार बिना पूर्व सूचना के अचानक बन्द हो गई। बारम्बार स्टार्ट करने की हर चेष्टा के उत्तर में कार ने मानो मौन व्रत धारण कर लिया। भाभी का भय सत्य निकला।

लगता है कार्बोरेटर में पानी भर गया कार से उतरते भइया को भाभी ने इम्पोर्टेड छतरी थमा दी। उस तूफ़ान में भला वह नाइलौन की छतरी क्या टिकती ? जनशून्य सड़क के बीच रूकी कार को भइया ने ठेल कर किनारे किया था। परेशान भाभी भी उतर कर सड़क पर खड़ी हो गई। एकाध जाती कार को हाथ दे, भाभी ने रोकना चाहा तो भइया नाराज़ हो उठे क्या पागलपन है, इस मौसम में कौन रूकेगा ?

फिर क्या करोगे ? भाभी रूआंसी सी हो उठी थीं।

पीछे शेरघाटी से मैकेनिक लाना होगा। भइया के उत्तर में झल्लाहट और परेशानी का मिश्रण था।

किसी ट्रक से टो नहीं करा सकते। भइया को फिर वापिस भेजने की बात सचमुच परेशानी का कारण थी।

इस आंधी-पानी में कौन इतना मेहरबान होगा ? भइया झुंझला उठे।

सामने से आते ट्रेकर को हाथ दे, भइया ने रोक लिया था। आपादमस्तक भीगे भइया के साथ हम दो स्त्रियों को देख, ट्रेकर वाला पसीज गया। हमसे कार में बैठ, प्रतीक्षा करने को कह, भइया मेकेनिक लाने चले गए थे। एक-एक पल युग सदृश्य लम्बा लग रहा था। संध्या का घिरता अन्धकार, उस पर यह भयंकर वर्षा- हम दोनों ही आशंकित किसी अनहोनी की कल्पना करते मौन साधे बैठे थे। दबी जुबां से भाभी फुसफुसायी थीं -
 इसी का डर था, भला ये गाड़ी सफ़र लायक है ? पर इन्हें कौन समझाए - हमेशा से अपने मन की करते आए है।

दो घंटो से ज्यादा समय बीत चुका था,पर भइया का कहीं पता नहीं था। अब तो अन्धेरा घिरता आ रहा था। भाभी धीमे स्वर में हनुमान चालीसा दोहरा रही थीं। मुझसे जब उन्होंने चुन्नी से सिर ढकने को कहा तो उनके असली भय का कारण स्पष्ट हो उठा। रात का गहराता अन्धकार और साथ में युवा ननद - भय निर्मूल तो नहीं था उनका। अब मैं भी भय-ग्रस्त हो उठी- भइया को तो अब तक आ जाना चाहिए था। हर आती गाड़ी में हम उन्हें खोज रहे थे।

करीब ढाई घंटे बाद भइया निराश वापिस आए थे-

इस मौसम में कोई मेकेनिक यहां आने को तैयार नहीं। पानी की वजह से कई गाड़ियां रूकी पड़ी हैं - लाख कहा कोई आने को तैयार नहीं हुआ। कहता है गाड़ी यहां ले आओं फिर नम्बर से देखेंगे।

फिर क्या करोगे ? भाभी का हताश स्वर प्रतिध्वनित हुआ।
 फिर क्या ? वापिस जाकर मेकेनिक को खोजो या इसी शेर के मुंह में रात काटो या टो कराके औरंगाबाद आगे चलो।

हे भगवान नैया पार कर दे भाभी बुदबुदा रही थीं।

तभी एक ट्रक पास आकर रूकी थी। युवा ट्रक ड्राईवर उस मौसम से बेपरवाह उतर आया
की गल्ल है बाद्शाओ ? गाड़ी जाम हो गई ? गहरी भेदक दृष्टि मेरे ऊपर थी, मैं डर से तनिक और दुबक गई।

हां भई, अचानक चलते-चलते रूक गई भइया ने धीमे स्वर में जवाब दिया।

उधर पीछे भी कई गड्डियां रूकी पड़ी है - ये पानी तो बस्स ............ जरा बोनेट तो खोलना फटाफट ...

कुछ आशान्वित भइया के बोनेट खोलते वह युवा चालक इंजिन के तार इधर उधर करता रहा - फिर अपने क्लीनर को धक्का लगाने को आवाज दे, भइया से गाड़ी स्टार्ट करने को कहा था। हर सम्भव प्रयास के बाद भी गाड़ी ने चलने से साफ़ इन्कार कर दिया था।

अब तो बाद्शाओ टो करके चलना होगा। वैसे गड्डी कित्थे जा रही है ?

बनारस जाना है, चाचाजी का एक्सीडेंट हुआ है।

चलना है तो बंदा टो करके ले चलेगा - फटाफट रस्सी निकालो।

ओह गॉड ! चलने की जल्दी में रस्सी रखने की सुध ही किसे थी ? चारों ओर निराश दृष्टि से ताकते ही स्पष्ट हो गया - रस्सी की उस जनशून्य सड़क पर आशा करना ही व्यर्थ था। ट्रक के क्लीनर छोकरे ने एक छोटी सी रस्सी खोज निकाली। उस रस्सी के साथ ट्रक और कार की दूरी बस तीन-चार फीट ही रह जाती थी। कहीं अचानक ट्रक का ब्रेक लगाना पड़े तो ? भइया स्वंय इस व्यवस्था से परेशान थे। ट्रक ड्राईवर ने अपना फ़ैसला सुना दिया था।

एन्ना जनानि नूं ट्रक बिच बिठा द्यो बाद्शाओ - ट्रक का डीजल दा धुंआ जी खराब कर देगा।

नहीं-नहीं हमें कोई तकलीफ़ नहीं है, हम गाड़ी में साथ ही चलेंगे भाभी का भय स्पष्ट था।

जिस तरह त्वाडी मर्जी- मुश्किल में याद रखना हमें देख व्यंग्य से मुस्कराता ट्रक- ड्राईवर कूद कर ट्रक में चढ़ गया था।

चलो साहिब जी- सतसिरी अकाल।

ट्रक के साथ भइया ने स्टीयरिंग सम्हाला था। एक दो किलोमीटर चलते ही उस ट्रक चालक के कथन की सत्यता स्पष्ट हो गई थी। ट्रक के डीजल का धुंआ, कीचड़ के उड़ते छींटे और ऊपर से झमाझम गिरते पानी के साथ सामने के शीशे के पास कुछ भी देख पाना असम्भव होता जा रहा था। एक हाथ से स्टीयरिंग सम्हाले, दूसरा हाथ बाहर निकाल, ग्लास से शीशे पर पानी डाल भइया स्पष्ट देख पाने की चेष्टा कर रहे थे। ट्रक -चालक की सावधानी स्पष्ट थी फिर भी हमारे हृदय आशंका से धड़क रहे थे। थोड़ी दूर जाकर ट्रक रूक गया था। सामने एक ढाबा था। ट्रक चालक ने कार के निकट आ कहा । -

आओ बाद्शाओ गर्मागर्म चाय हो जाए - एत्था दी चा पीके तबियत ताजा हो जान्दी है। परजाई कुछ रोटी-शोटी साथ है ? उसकी मुस्कराती दृष्टि मुझ पर टिकी स्पष्ट थी।

नहीं भइया हम अब तो चाय बनारस पहुंचकर ही पिएंगे - न जाने वहां क्या हाल होगा। निश्चय ही रात के अंधेरे में यूं रूकना भाभी को निरापद नहीं लग रहा था। भाभी के प्रतिवाद की पर्वाह न कर भइया चाय पीने उतर गए थे। सामने खटिया पर बैठा ट्रक चालक हमें घूर रहा था। ढाबे के एक छोकरे को आवाज दे उसने आदेश दिए थे-

ओय मुंड्या साहब दी गड्डी का शीशा फटाफट चमका दे और उधर जनानियों को पानी-शानी दे दे।

वहां से आगे बढ़ने के पहले उसने भइया से कहा था -

आगे की रोड बहुत खराब है। जनानियों के साथ जाने में खतरा हो सकता है। बात कहते उसकी तीक्ष्ण दृष्टि मुझ पर टिकी हुई थी। सिहर कर मैं भाभी से और ज्यादा सट गई थी। हम सब परिस्थिति की गम्भीरता समझ रहे थे। उसने ही आगे सलाह दी थी, गाड़ी आगे औरंगाबाद में उसके मेकेनिक मित्र के पास छोड़ दी जाए। दो दिन बाद भइया आकर स्वंय गाड़ी ले जाएंगे या वह मेकेनिक ही गाड़ी बनारस पहुंचा जाएगा। हम तीनों उसके साथ ट्रक में बैठ मजे में जा सकते हैं कहता वह हंस दिया था।

जिस स्थिति में भइया गाड़ी ला रहे थे उससे और आगे जाने का साहस दुस्साहस ही होता। पानी था कि थमने का नाम नहीं ले रहा था। ट्रक में बैठने की बात पर भाभी ने भइया की ओर संशयपूर्ण दृष्टि से देखा था। भइया ने आंखों से ही आश्वासन दिया था। औरंगाबाद में एक गैरेज के सामने उसी बरसते पानी से वह कूद कर एक गली में गायब हो गया था। शंका और आतंक के साये में स्तब्ध बैठे हम न जाने किस अप्रत्याशित की प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी एक नींद से जागे व्यक्ति के साथ वह भइया के पास आ गया था।

लो साहिब ये अपना यार त्वाडी गड्डी ठीक करके रखेगा। चाहे तुम आप गड्डी ले जाना नहीं तो ये पहुंचा देगा।

क्या अभी गाड़ी ठीक नहीं हो सकती ? भाभी के प्रश्न पर वह हंसा था
ऐ पानी तकदे पयो परजाई जी ? कल भी त्वाडी गड्डी कोई बन्दा नहीं छुएगा। रूकने दी मर्जी है तो बाद्शाओ तुसी होटल खोज लो। भइया से उसने स्पष्ट कह दिया था।

हमें उसकी बातों में स्पष्ट स्वार्थ की गन्ध आ रही थी पर भइया ने तुरन्त सहमति दी थी -

वहां चाचाजी न जाने कैसे होंगे हमें बनारस छोड़ दें तो मेहरबानी होगी पर क्या गाड़ी यहां छोड़ना ठीक है?

कहा न ये अपना यार है - कोई फिकर नहीं अपना पता ठिकाना छोड़ दो। गड्डी घर पहुंच जाएगी। उसके चेहरे पर इच्छा पूर्ति का गर्व दमक आया था। भाभी और मैं उस षड्यन्त्र को विवश देख-समझ रहे थे। ट्रक में बैठने के पहले उसने अपने क्लीनर को आवाज दी थी।

आए मुंड्या ट्रक से प्लास्टिक ला जनानियां नूं दे दे। व्यंगपूर्ण दृष्टि हमें चुनौती दे रही थी। देखा आ गई न मेरे हाथ ? ट्रक की ऊंचाई के कारण भाभी को ऊपर चढ़ने में होती असुविधा देख हंसते हुए बोला था -
पैले कुड़ी नू चढ़या दो फिर जनानी वास्ते मदद करो। क्रोध से मेरा मुख तमतमा आया था। अब तो उसके इंटेन्शन्स एकदम स्पष्ट थे। उसके समीप बैठने की कल्पना मात्र से मेरा रोम-रोम सुलग उठा था। मेरे हाथ को पकड़ जैसे ही खींचने का प्रयास किया, मैं लगभग चीख उठी थी, कहीं मुझे बिठा ट्रक चला दी तो ? बच्चों सी सान्त्वना देता वह हंस दिया था।

अरे गुड्डी डर किस गल दा ? फिर भाभी को लगभग ऊपर ठेल भइया चढ़ आए थे तब एक पल को मैं आश्वस्त हो सकी थी।

हिचकोलों के बीच पानी की धारें ट्रक के शीशे को अस्पष्ट करती जा रही थीं। ट्रक ड्राईवर उससे निर्लिप्त मस्त मुनमुनाता चल रहा था। न जाने कब हम बनारस पहुंच गए थे। गंगा का पुल पार करती भाभी ने उस अदृश्य को नमस्कार किया था - नैया पार लगा दी प्रभु।

ट्रक जब चाचाजी के घर के सामने रूका तो लगा हम किसी हादसे से बच आ गए हैं। पर्स से रूपए निकाल भइया ने जैसे ही चालक को देने चाहे, नकारात्मक सिर हिलाते उसने कहा था -

ना-जी-ना। मुसीबत के मारे थे - साथ में इन जनानियों को देख मदद कर दी। रब्ब का दिया बहुत है अपने पास - रक्खो इसी से किसी गरीब की मदद कर देना।

भइया ने धन्यवाद दे, जबरन उसे रूपए लेने का आग्रह किया था। बच्चों को मिठाई खिलाना सरदार जी - हमारी ओर से।

तब वह युवा चालक ट्रक से उतर एकदम मेरे पास आ खड़ा हुआ था - मेरे सिर पर हाथ धर रूंधे कंठ से कहा था -

एस मुन्नी दे वास्ते चूड़ियां दिला देना - अपनी भी एक छोटी बहिना थी पिछले दंगों में गुम हो गई - सब खत्म हो गया। सब रब्ब दी माया है।

बात खत्म करते-करते वह ट्रक में जा चढ़ा था - हमें विदा का हाथ हिला, पगड़ी से आंसू पोंछता वह चल दिया था।

3 comments:

  1. बहुत ही मार्मिक कहानी !
    सादर
    इला

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  2. आपकी कहानी बहुत ही मर्मस्पर्शी है

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  3. धन्यवाद। कभी ऐसे अनुभव मन में सदा के लिए घर कर लेते हैं। जिन्हें हम भय का कारण मानते हैं ,कठिन समय में वे ही सहारा बन जाते हैं।
    पुष्पा सक्सेना

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