12/16/09

“फिर नहीं ..........”

माँ मैंने हमेशा तुम्हारी बात मानी है, तुम मेरी एक छोटी सी बात नहीं मान सकतीं। बात खत्म करती रंजिता की आँखें डबडबा आई थीं।


कौन सी बात मान लूं ? सुधीर से ही शादी करेगी, यही न ? दमयन्ती का स्वर उत्तेजित था।

तुम उससे मिलकर तो देखो। अगर उससे मिलकर तुम मना कर दोगी तो मंजूर है, पर बिना देखे - बिना मिले ही .....।

देखना ही क्या है ? साहबजादे कोई काम तो करते नहीं। तुम्हारी कमाई पर ऐश करने के सपने देख रहे है। बाद में बहुत पछताओगी, कहे देती हूँ। ये बातें कल्पना में ही अच्छी लगती है, असली जिंदगी में आदर्श काम नहीं आते।

उसमें क्या कमी है, जो मेरा सहारा चाहेगा ?

है ही क्या उसमें ?

हमेशा का टॉपर रहा है, किसी भी यूनिवर्सिटी में लेक्चरार बन सकता है। तुम नहीं जानतीं वह कितना मत्वाकांक्षी है इसलिए .............

सारी महत्वाकांक्षाएँ धरी रह जाती हैं। हिन्दी में पी0एच0डी0 वालों को कौन पूछता है। तुम डॉक्टर हो और वह क्या है?

उसकां पेपर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रस्तुत किया जा रहा है। अगले महीने ही वह अमेरिका जा रहा है। मेरा कौन सा पेपर कहीं पढ़ा गया है, माँ ?

ऐसे ही तीस मारखाँ थे तो किसी और काम में न लग जाते ? बेकार कलम न घिस रहे होते। कम्पटीशन में हिन्दी वालों को कौन पूछता है ? दमयन्ती के स्वर में व्यंग्य बज रहा था।

ओह माँ ! तुमसे बहस करना बेकार है, पर एक बात अच्छी तरह सुन लो, मैं सिर्फ सुधीर से ही शादी करूँगी और किसी के लिए तुम्हारी कोशिश बेकार है। तेजी से अपनी बात कह, रंजिता कमरे से बाहर चली गई थी।

बेटी की पीठ देखती दमयन्ती जल गई थी। इतने प्यार से पाल-पोस कर बड़ा किया और आज वही लड़की तमाचा सा मार चली गई। जब से रंजू ने सुधीर के साथ अपने विवाह की घोषणा की है, माँ-बेटी के बीच शीत-युद्ध चल रहा है। पति से रंजिता का निर्णय बताने का मतलब घोर अशांति को बुलावा देना था। क्रोध में शशांक उल्टा-सीधा न जाने क्या कर बैठे। रंजिता को लाड़- प्यार करते देख, वह कितना नाराज रहे हैं। रंजिता तो जैसे उसी की बेटी है।

मेडिकल कालेज की मेधावी छात्रा रंजिता से सबको क्या-क्या अपेक्षाएँ थीं। हर अपेक्षा में वह खरी भी उतरी। एम0बी0बी0एस0 परीक्षा में सर्वोच्च अंक तीन-तीन स्वर्ण पदक पा उसने सबका मस्तक ऊंचा कर दिया था। सब उसे सराहते न थकते।

वर्मा जी की तो एक ही बेटी हजार बेटों के बराबर है। बड़े भाग्यवान माँ-बाप हैं।

उन बातों को सुनती दमयन्ती गर्व से फूल उठती। स्वंय पढ़ाई में तेज होने के बावजूद, दमयन्ती को पढ़ाई अधूरी ही छोड़नी पड़ी थी। कितना मन था वह डॉक्टर बनती, पर उस जमाने में माँ-बाप की इच्छा ही सर्वोपरि होती थी।

रंजिता के जन्म के समय भी उसे कम अपमान नहीं झेलना पड़ा था। लड़की जन्मी है, सुनते ही सास मिठाई के डिब्बे सहित, पोती का मुंह देखे बिना ही वापस लौट गई थीं। दमयन्ती ने बेटी को सीने से लगा तभी संकल्प ले लिया था, अपनी बेटी को वह इस लायक जरूर बनाएगी, जिससे उसका कुल-खानदान गौरव पा सके।

जैसे-जैसे रंजिता बड़ी होती गई, दमयन्ती को शक्ति मिलती गई। हर परीक्षा में सर्वोच्च अंक ले, वह माँ का गौरव बढ़ाती गई। पति ने बेटी की शिक्षा के प्रति कभी उत्साह नहीं दिखाया। अन्ततः लड़की को तो घर की चाकरी ही करनी पड़ती है, बेटा होता तो बात और थी। पति की इस मानसिकता को बदल पाना संभव नहीं था, फिर भी बेटी की पढ़ाई में पति ने ज्यादा दखलअंदाजी नहीं की थी, दमयन्ती उतने से ही संतुष्ट थी। सास जब तक जीवित रहीं ठंडी सांस भरती, एक ही बात दोहराती रहीं ”एक बेटा हो जाता तो शशांक को वंश का दीपक मिल जाता।“

रंजिता दादी की बात से चिढ़ जाती ”आपकी सेवा-तीमारदारी पोते से ज्यादा अच्छी तरह करूँगी दादी। मुझसे पापा का वंश क्यों नहीं चलेगा बताइए तो ? रंजिता पर क्रुद्ध-दृष्टि डालती सास पोते की आस लिए ही, स्वर्ग चली गई।“

रंजिता को जब मेडिकल कालेज में प्रवेश मिला तो दमयन्ती आह्लादित हो उठी थी। शशांक ने उसकी प्रसन्नता पर चेतावनी दे डाली थी।

अभी तो बेटी को डॉक्टर बनाने की खुशी में मगन हो, पर जब इसके लायक अच्छा लड़का नहीं मिलेगा, तब इसी पढ़ाई पर पछताओगी।

क्यों क्या कमी है हमारी बेटी में ? इसके लिए हीरे सा दामाद लाऊंगी।

अपनी जात में पढ़े-लिखे लड़के कितने होते हैं ? तुम तो भाग्यवान थीं, जो मैं मिल गया, वर्ना किसी गुड़ के व्यापारी के पल्ले बंध जातीं।

शशांक की उस बात में सच्चाई जरूर थी। दुनिया इतने आगे बढ़ गई है, पर उनकी बिरादरी वालों में आज भी रूपया कमाना ही मुख्य बात समझी जाती थी। पढ़ाई-लिखाई की जगह बड़े होते लड़के, पिता के साथ गद्दी सम्हालने में जुट जाते। शशांक की व्यवसायिक बुद्धि में उसके खांदानी व्यवसाय का बहुत बड़ा योगदान था।

रंजिता ने दमयन्ती को कभी निराश नहीं किया। जैसे-तैसे वह उम्र और पढ़ाई की सीढ़ियाँ चढ़ती गई, दमयन्ती के सपने बडे़ होते गए। इतनी योग्य बेटी के लिए दामाद उससे ज्यादा शिक्षित और बुद्धिमान होना चाहिए। सुपात्रों की लिस्ट काटती-छांटती दमयन्ती नाराज हो उठती। योग्य लड़कों का सचमुच अकाल ही पड़ गया था। वैसे भी रंजिता ने साफ-साफ कह दिया था, पढ़ाई पूरी किए बिना उसे शादी नहीं करनी है।

बहुत खोजने पर भी दमयन्ती बेटी के लिए मनचाहा वर नहीं पा सकी थीं। बहुमुखी प्रतिभा वाली बेटी के लिए भगवान ने सर्वगुण सम्पन्न वर शायद बनाया ही नहीं था। मन-ही-मन दमयन्ती भगवान पर नाराज होती, उलाहना देती पर मनचाहा दामाद नहीं मिल सका।

एम0बी0बी0एस0 के बाद रंजिता ने एम0डी0 भी कर लिया। अब वह सुपर स्पेशलाइजेशन के लिए अमेरिका जा रही थी। बेटी की सफलता पर जहाँ लोग बधाई देते, वहीं दमयन्ती का मन रो उठता। अठाइस साल की बिन ब्याही बेटी को अकेले विदेश भेजते उनका मन कचोट रहा था। शशांक ने रंजिता से बात करनी छोड़ रखी थी, पर रंजिता अमेरिका जाने की जिद ठाने बैठी थी। दमयन्ती बार-बार पछताती, काश बेटी की शादी ठीक समय पर कर देती। वर्षो के संस्कारों को समूल उखाड़ फेंकना क्या संभव होता है ? शुरू में अच्छे-अच्छे लड़के उनकी नजर नहीं चढ़ते थे और अब लड़कों की उम्र रंजिता से कम निकलने लगी थी।

पिछले दिनों रंजिता किसी सेमिनार में दिल्ली गई थी। दूर के रिश्तेदार के घर पन्द्रह-बीस दिनों के प्रवास में ही उसकी मुलाकात सुधीर से हुई थीं सुधीर दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में शोध-कार्य कर रहा था। दूर के जिन रिश्तेदार के यहाँ रंजिता ठहरी थी, उन्हीं का वह परिचित था। न जाने उन दोनों के बीच क्या पला-पनपा कि रंजिता ने घर आते ही सुधीर के साथ अपनी शादी का फेसला दमयन्ती को सुना दिया था। दमयन्ती तो आकाश से नीचे आ गिरी थी। कुछ देर तो उसके मुंह से आवाज ही नहीं निकली थी। क्या सपने देखे थे, क्या मिला ? लड़की का दिमाग जरूर फिर गया है, वर्ना स्वंय डॉक्टर होते हुए एक हिन्दी पढ़ने वाले से शादी करेगी ?

बचपन से दमयन्ती ने सुना था, सरकारी नौकरियों के लिए हिन्दी बेकार का विषय है। उसके बाबूजी सरकारी नौकरी में थे इसलिए घर में प्राइवेट नौकरी करने वालों, शिक्षकों आदि को हिकारत की नजर से देखा जाता था। दमयन्ती के बाबूजी का बस चलता तो रंजिता की शादी किसी आई0ए0एस0 अधिकारी से कर देते, पर रंजिता अड़ गई थी। दमयन्ती से साफ-साफ कह दिया था।

अगर शादी ही मुख्य बात थी तो डॉक्टर क्यों बनाया? बी0ए0, एम0ए0 के बाद शादी कर देतीं। मैं अपना कैरियर नहीं बिगाड़ सकती।

रंजिता की जिद के आगे उसे हमेशा हथियार डालने पड़े थे।

आज दमयन्ती उस घड़ी को कोस रही थी, जब रंजिता दिल्ली गई थी।

बिना खाना खाए रंजिता ने अपना कमरा बन्द कर लिया था, दमयन्ती के लाख अनुरोध के उत्तर में सिर-दर्द का बहाना किए पड़ी रंजिता, बाहर नहीं आई थी।

बेटी की जिद पर दमयन्ती को चाहें कितना भी गुस्सा आया हो, पर भूखी पड़ी रंजिता के लिए उसका मातृत्व हाहाकार कर रहा था। सोने का बहाना किए पड़ी दमयन्ती के आगे उसका पूरा अतीत उमड़-घुमड़ रहा था। उस रूप में तीस वर्ष पूर्व की दमयन्ती अपने को साफ देख पा रही थी - काश वह भी रंजिता-सी साहसी होती।

इकलौती दुलारी बेटी दमयन्ती के लिए राजा नल जैसा वर खोज लाने के लिए अम्मा-बाबूजी कृत-संकल्प थे। उतनी सुन्दर, गुणवन्ती बेटी के लिए वर की क्या कमी थी? बाबूजी स्वंय सरकारी नौकरी में थे। बड़े भइया एम0ए0 के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे।

उन्हीं दिनों दमयन्ती की सहेली नीरा का बड़ा भाई बम्बई से आर्ट की कोई बड़ी डिग्री लेकर, घर वापिस आया था। अनिल का व्यंक्तिव ही उसके कलाकार का परिचायक था। लम्बा कद, बड़े-बड़े घुंघराले बाल, सपनीली आँखो के साथ उसका गौर-वर्ण किसी ग्रीक देवता का भ्रम देते थे।

बड़े उत्साह से नीरा ने दमयन्ती का परिचय अपने भाई से कराया था -

भइया ! ये दमयन्ती हैं, बहुत बड़ी कवयित्री हैं।

रियली ! उसके कहने के ढंग से पता नहीं अविश्वास था या प्रशंसा, नीरा नाराज हो उठी थी।

तुम्हें विश्वास नहीं, ठहरो अभी दिखाती हूँ। अपनी बात सिद्ध करने के लिए नीरा वह पत्रिका खोजने चली गई थी, जिसमें पिछले माह दमयन्ती की कविता छपी थी। नीरा के जाते ही, अनिल ने हल्के स्वर में कहा था -

आप तो स्वंय कविता हैं, आप पर तो कविताएँ लिखी जानी चाहिए। उसकी उस बात पर दमयन्ती लाल हो उठी थी।

थोड़ी देर बाद नीरा हाथ में पत्रिका थामें, वापिस आई थी।

ये देखो, तुम नहीं मान रहे थे न। पढ़ो, ये इसी की कविता है। इतनी स्तरीय पत्रिका में यूँ ही कविता नहीं छप जाती।

मैंने कब नहीं माना, ये तो ऊपर से नीचे तक कवितामयी हैं।

भइया, तुम फिर मजाक कर रहे हो।

नहीं बिल्कुल सच कह रहा हूं। आगे कुछ न कह, उसने पत्रिका में आँखें गड़ा दी थीं।

उस रात दमयन्ती सो नहीं सकी थी। अनिल के शब्द बार-बार उसे गुदगुदा जाते। उस दिन के बाद से दमयन्ती और नीरा की बैठकों में अनिल हमेशा शामिल होता। उसकी बातें इतनी रोचक होतीं कि दमयन्ती को घर लौटने में हमेशा देर हो जाती। घर तक पहुँचाने अनिल ही आया करता। घर पहुँचकर भी दमयन्ती अनिल के पास लौटने को व्याकुल रहने लगी थी। माँ ने दो दिनों के लिए मौसी के घर जाने का प्रोग्राम बना रखा था। मौसी के घर जाना दमयन्ती को हमेशा बहुत अच्छा लगता, पर उस दिन वहाँ जाना खल रहा था।

तीन दिन बाद उतावली सी दमयन्ती नीरा के घर पहुंची थी। पहुँचते ही नीरा ने उसके हाथ में एक चित्र थमा दिया था।

पहिचान, ये किसकी तस्वीर है?

गौर से देखने के बाद भी दमयन्ती उस युवती को पहिचान नहीं सकी थी।

ऊहूंक, मैं इसे नहीं पहिचानती।

न्हीं पहिचान पाई ? अरे ये तेरी उसी कविता की विरहणी है।

मेरी कविता ?

वही जो भइया को दिखाई थी ?

ओह ! मैं समझी किसी परिचित की है इसीलिए

वाह ! इससे ज्यादा तेरा परिचित और कौन होगा ? ये तो मेरी अपनी सृष्टि है।

सच बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति है। इसके चेहरे की पीड़ा में मेरी कविता साकार है। दमयन्ती उस चित्र पर मुग्ध थी।

तेरी कविता की बड़ी तारी।फ़ कर रहे थे भइया, कह रहे थे वे तेरी कविता की पुस्तक छपवाएंगे। एक पृष्ठ पर कविता को साकार करता उनका चित्र रहेगा और दूसरे पृष्ठ पर तेरी कविता, जोड़ी खूब जमेगी न।

धत् ! शैतानी से कही गई नीरा की बात पर दमयन्ती रोमांचित हो उठी थी।

भइया इन्टरव्यू देने दिल्ली गए हैं। जाते-जाते कह गए हैं, तेरी कविताएँ इकठ्ठी कर रखूँ। सारी कविताएँ खोज कर निकाल दे दम्मो वर्ना उनकी डॉंट खाऊंगी।

मेरी कविताएँ इस लायक नहीं कि किताब छंपवाऊं। उन्हें मेरा धन्यवाद दे देना।

ये सब खुद ही कह देना, दो दिन बाद ही तो आ रहे हैं।

वो दो दिन दमयन्ती ने बेहद बेचैनी में काटे थे। तीसरे दिन ही नीरा के घर पहुँच गई थी। दरवाज़ा अनिल ने ही खोला था।

आइए, आपही का इंतजार था।

जी-ई-मेरा ?

हाँ ! आपको खुशखबरी जो देनी थी।

कौन सी खुशखबरी ?

यही कि मेरा सेलेक्शन हो गया है। अब तो मिठाई मिलेगी न ?

वाह, सेलेक्शन आपका हुआ मिठाई मैं खिलाऊं ?

अपनों की सफलता पर मिठाई नहीं खिलाई जाती, दमयन्ती ? गहरी दृष्टि से उसे देखता अनिल हल्के-हल्के मुस्करा रहा था।

ठीक है, परसों मेरा जन्मदिन है, आप आइएगा, जी भर मिठाई खिलाऊंगी।

उसके लिए तो मेरी शुभकामनाएँ ही मिलेंगी। परसों ही मुझे ज्वाइन करना है। आपकी मिठाई उधार रही। पर आज मेरी ओर से खाइए।

वह दिन हंसी-मजाक में बहुत अच्छा गुजर गया था। दमयन्ती का घर वापिस लौटने का मन ही नहीं कर रहा था, पर माँ ने आते-आते जल्दी लौटने की ताकीद कर दी थी। वापिस लौटती दमयन्ती ने उसे छेड़ा था -

मेरी मिठाई उधार रही, वैसे आपकी प्रेजेन्ट भी उधार है न ?

आप जिस चीज की चाह करें हमेशा पाती रहें। कहकर तो देखिए, क्या चाहिए ? उन शब्दों में अनिल बहुत कुछ कह गया था।

वह जो चाहेगी ......... मिलेगा ? इतने दिनों में दमयन्ती इतना तो जरूर समझ गई थी, अनिल का साथ उसे बहुत अच्छा लगता है। अगर वह कामना करे जीवन भर उसे अनिल का साथ मिले, तो क्या ये कामना भी पूरी होगी ? अपनी कामना पर लजा, दमयन्ती ने अपनी हथेलियों में मुँह छिपा लिया।

दमयन्ती के जन्मदिन पर नीरा ने उसका फुल साइज़ चित्र उपहार में दिया था। चित्र इतना सजीव था, मानों दमयन्ती को सामने बैठा चित्रकार ने चित्र बनाया हो। चित्र देखते बाबूजी के माथे पर सलबटें उभर आई थीं, बडे भइया चुप रह गए थे और दमयन्ती अभिभूत थी। कब-कैसे अनिल ने उसका वह चित्र बनाया था। मन में गुदगुदी सी उठी थी।

रात में बाबूजी ने गम्भीर स्वर में पूछा था -

अपनी तस्वीर बनाने के लिए किसकी अनुमति ली थी ? कितनी सिटिंग्स दी थीं ?

मैंने किसी को सिटिंग नहीं दी थी बाबूजी। मुझे खुद नहीं पता कैसे .........?

झूठ बोलते शर्म नहीं आती ? अगर खुद सामने बैठकर तस्वीर नहीं बनवाई तो अपनी फ़ोटो दी होगी।

मैंने किसी को कोई फ़ोटो नहीं दी। दमयन्ती रोने-रोने को हो आई थी।

मैं नहीं मानता। सुशीला, कल से ये लड़की कहीं बाहर नहीं जाएगी। इसकी जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है। कहीं कोईं ऊंच-नीच हो गई तो पूरे खानदान की नाक कट जाएगी। इसे समझा दो उस निकम्मे आर्टिस्ट से हमें कोई रिश्ता नहीं करना है, वर्ना .............।

दमयन्ती लाख रोई मिन्नतें की, पर उसे घर की चाहरदिवारी से बाहर निकलने की इजाज़त नहीं मिली। नीरा मिलने आई थी। दमयन्ती उससे लिपट कर खूब रोई थी। पूरी बात सुन नीरा गम्भीर हो आई थी।

भइया से शादी करेगी दम्मों ? अभी भले ही वह कुछ नहीं हैं पर एक दिन वह नामी कलाकार बनेंगे, तुझे बहुत पसंद करते हैं वह।

नहीं-नहीं- ये कभी संभव नहीं, नीरू। बाबूजी को तू नहीं जानती, वो कभी तैयार नहीं होंगे।

तेरी अपनी मर्जी कुछ नहीं है दम्मो ? सोच कर देख। भइया के साथ बहुत अच्छी जिंदगी जिएगी। वह तुझे वो सारी खुशियाँ दे सकते हैं, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

जिंदगी जीने के लिए बचूंगी, तब न ?

कोशिश तो कर देख, भइया तेरे लिए बहुत परेशान हैं। तेरी तस्वीर दे, वह तुझे सरप्राइज़ देना चाहते थे। वह नहीं जानते थे उनका यह सरप्राइज़ तेरे इतने बड़े दुख का कारण बन जाएगा। अपने को बेहद अपराधी मान रहे हैं वह।

इसमें उनकी क्या गलती है, नीरू ? मेरा चित्र बना, उन्होंने तो मुझे मान दिया है। जीवन भर इस उपहार को याद रखॅंूगी। उनसे कहना वे मेरे लिए परेशान न हों, बस यही विनती है उनसे। नीरा के कंधे पर सिर रख दमयन्ती रो पड़ी थी।

जल्दी ही बाबूजी ने दमयन्ती की शादी तय कर दी थी। पढ़ाई छुड़ाई जाने के विरोध में दमयन्ती ने रो-रा कर घर भर दिया था, पर उसकी एक न चली। अमीर व्यापारी परिवार में जन्में शशांक का चयन पुलिस अधिकारी के रूप में हो चुका था। पुलिस के दबदबे से बाबूजी हमेशा प्रभावित रहे।

विवाह के समय दमयन्ती फूट-फूट कर रोई थी। डॉक्टर बनने के उसके स्वप्न छिन्न-भिन्न हो गए थे। ससुराल में धन की कमी नहीं थी। व्यापारी श्वसुर ने वैध-अवैध, सभी तरह से धन अर्जित किया था। पुलिस को पैसा खिलाते, अपने पुत्र को पुलिस की नौकरी में भेजने की प्रेरणा उन्हें इसी बात से मिली थी। शशांक ने उनका सपना पूरा कर, पिता का ऋण चुकाया था।

शशांक ने भी अपने पिता की व्यावहारिक बुद्धि पाई थी, उसके लिए धन ही सब सुखों का मूल था। भावुकता के लिए उसके मन में कोई जगह नहीं थी। कभी अन्तरंग क्षणों में भी उसकी व्यावसायिक बुद्धि दमयन्ती को तिलमिला देती। तब उस समय अनिल की भावप्रवण हॅंसती आँखें, जिनमें दमयन्ती के लिए ढेर सारी चाहत, ढेर सी प्रशंसा होती, बहुत-बहुत याद आतीं। सब कुछ पाकर भी क्या वह अपने जीवन से संतुष्ट है ?

अगर ये सच होता तो अनिल की चर्चा पत्र-पत्रिकाओं में देखती-पढ़ती वह व्याकुल क्यों हो उठती है ? पिछले वर्ष राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित अनिल का समाचार-पत्र में प्रकाशित चित्र उसने आज तक सुरक्षित क्यों रख रखा है ? अनिल आज देश के नामी कलाकारों में से है। बम्बई में उसकी चित्र-प्रदर्शनी ने धूम मचा दी थी। हर अखबार में उसकी चर्चा रहती है। न जाने कितनी बार दमयन्ती सोचती रही क्या वह उसे अभी भी याद होगी ? उसका बनाया वह चित्र इस घर में कभी न आ सका। बाबूजी का वश चलता तो उस चित्र को उसी दिन जला डालते, पर बड़े भइया ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया था।

इतने सुन्दर चित्र को नष्ट करने से क्या लाभ ? हमारी दमयन्ती इस चित्र में हमारे पास हमेशा रहेगी।

भइया की उस बात के लिए दमयन्ती उनकी कितनी आभारी है। वह जब भी घर गई, उस चित्र को निहारती रह गई। क्या अनिल के मानस में उसकी इतनी स्पष्ट छवि अंकित थी। शशांक ने एक पति की भूमिका ठीक नहीं निभाई, ऐसा वह नहीं कह सकती, पर मन का कोई कोना हमेशा अतृप्त कोरा ही रहा।

ससुराल के उतने बड़े कुनबे में घर परिवार के दायित्व निभाती बड़ी बहू दमयन्ती की कविता, उसकी कवियत्री ना जाने कब कहाँ मर-खप गई। उस घर में जहाँ साहित्यिक पत्रिकाओं की खरीद, बेकार का खर्च माना जाता, वहाँ कविता लिखने-पढ़ने की बात भी दिमागी-फितूर भर होता। शुरू-शुरू में दमयन्ती का कवि हृदय रो उठता, पर धीमे-धीमे उसने अपने को उसी परिवेश में ढाल लिया था।

बेटी का जन्म, उसकी नई सम्पूर्ण कविता थी। बड़े प्यार-जतन से उसकी देखभाल करती दमयन्ती अपना अतीत भूल गई थी। उसके बड़े होने का एक-एक पल दमयन्ती ने जिया था ............।

उसी बेटी ने कहीं संदूक की तह में नीचे दबी उसकी वो कविता खोज निकाली थी, जिस पर अनिल ने कविता की विरहणी का चित्र बनाया था। रंजिता का मुँह खुशी से चमक रहा था

माँ ये तुम्हारी कविता है ? सच माँ ये तुमने लिखी थी ?

हां हां, पर तुझे ये कहाँ मिली ?

ओह माँ तुम ग्रेट हो। इतनी अच्छी कविता तुमने लिखी थी माँ ? अब तुम क्यों नहीं लिखतीं ?

छोड़ ऐसी क्या अच्छी है। अब समय कहाँ मिल जाता है ? दमयन्ती संकुचित हो उठी थी। नहीं माँ, ये कविता तो बहुत ही अच्छी है, विश्वास नहीं होता। बचपन से बस तुम्हें घर-गृहस्थी के कार्यो में उलझा देखा। तुम लेखिका हो, कांट बिलीव इट।

अच्छा-अच्छा अब बहुतं हो गया, आज कॉलेज नहीं जाना है ?

नहीं जाना है, पहले प्रॉमिस करो आज अपनी सारी कविताएँ खोजोगी और फिर लिखना शुरू करोगी, तभी कॉलेज जाऊंगी।

क्या करेगी उन कविताओं का ?

थ्कताब छपवाऊंगी। भारत के महान कलाकार अनिल जी से रिक्वेस्ट करूँगी, तुम्हारी कविताओं के लिए चित्र बनाएँ। देखना उनके चित्रों के साथ ये कविताएँ सुपर हिट हो जाएँगी।

दमयन्ती का चेहरा फक पड़ गया था, एक शब्द भी मुँह से नहीं मिकला था। रंजिता ने किस अपूर्ण सपने को जगा दिया था। उसे चुप देख रंजिता डर गई थी।

क्या हुआ, माँ ?

कुछ नहीं, अब चल जल्दी कर वर्ना कॉलेज को देर हो जाएगी।

ओ के पर मेरा प्रॉमिस पूरा करना होगा।

शाम को रंजिता ने बड़े लाड़ से अपने पिता को सूचित किया था।

यू नो पापा, हमारी माँ एक ग्रेट पोएट्स हैं।

होगी, पता नहीं। पिता से जरा भी उत्साह न पा रंजिता खीज उठी थी।

सच पापा, आप तो पुलिस की नौकरी मे रहकर बस हत्या-चोरी-डकैती को ही सोच सकते हैं।

ऐसा ही होता है, शादी के बाद तू भी अपनी माँ जैसी ही हो जाएगी।

नेवर ! मैं अपने को हमेशा जीवित रखूँगी पापा, किसी के लिए अपने को खत्म नहीं करूँगी। सचमुच डॉक्टर रंजिता के हृदय में एक सुकुमार, संवेदनशील लड़की हमेशा मुखर रही है।

तब तेरी निभ चुकी।

खूब निभेगी। मैं तो उसी से शादी करूँगी, जो मेरे मन को समझ सके।

दमयन्ती इस लड़की को तुम बिगाड़ रही हो। इसे किससे, क्या बात करनी है, नहीं जानती ? लाख पढ़-लिख ले, पर है तो लड़की ही। बाप के सामने अपनी शादी के बारे में बात करने की हिम्मत कैसे हुई ? सम्हालो इसे वर्ना ........। आक्रोश में वह आगे कुछ न कह सके थे।

दमयन्ती डर गई थी। पहले दिन से ही उस पुरूष का शुष्क स्वभाव वह जान गई थी। पति के अधिकारों का प्रयोग करते, उसने दमयन्ती की भावनाओं की परवाह कभी नहीं की थी। उस नीरस व्यक्ति के साथ दमयन्ती ने जीवन भले ही काट लिया पर उसका मन पुलकित शायद ही कभी हुआ हो। वैसे दुनियां वालों की निगाह में दमयन्ती भाग्यशाली थी। पुत्र की कमी पति को हमेशा खटकती रही, पर लाख पूजा-पाठ के बाद भी रंजिता के बाद उनकी कोई सन्तान न हो सकी। अब तो बेटी ब्याहने लायक थी, उसकी शादी के बाद नाती का मुंह देख लें तो जीवन सार्थक हो जाए। सच तो यह था, उस परिवेश में जीती दमयन्ती ने जाने-अनजाने अपने को उन्हीं तौर-तरीकों में ढाल लिया था। उसके मन की कविता-सरिता सूख गई, पर उसके लिए भी उसने किसी को दोष नहीं दिया था। शायद लड़कियों की नियति यही होती है।

रंजिता की बातों से क्षुब्ध दमयन्ती को नींद नहीं आ रही थी। अतीत दोहराती दमयन्ती अचानक चौंक उठी थी। माँ-बाप ही बेटी के लिए सुपात्र खोज सकते हैं क्या ये बात सच है ? अगर अनिल से उसका विवाह हुआ होता तो क्या मन से वह यूँ रोती रह जाती ? शशांक ने उसका शरीर जरूर पाया, पर उसके मन में झांकने की क्या कभी जरूरत समझी थी ? क्या उसके माता-पिता का फेसला ठीक था ? अपने लिए अनिल की आँखों में ढेर सारी चाहत, प्यार और प्रशंसा की मिली जुली चमक, तो उसे जीवन में बस एक बार मिली थी। उस पूँजी को उसने अपने दिल की गहराइयों में दबा, उसके अस्तित्व को भुलाने की लाख कोशिश की, पर जब-तब वो चाहत भरी आँखें उन गहराइयों से उभर, दमयन्ती को मोहाविष्ट करती रहीं हैं। पत्नी-माँ बनकर भी दमयन्ती, अनिल को भुला नहीं सकी। न जाने कितनी बार, कितनी जगह अनजाने ही वह सोचती रही - अगर शशांक की जगह अनिल होता तो ......?

दमयन्ती पूरी तरह जाग चुकी थी। अपने माता-पिता की जिद को उसने हमेशा गलत ठहराया, आज माँ के रूप में वह खुद भी वैसी ही जिद ठाने बैठी है। उसके अपने मन का जो कोना खाली रह गया, भगवान न करे रंजिता के मन का कोई भी कोना रीता रहे। अगर रंजिता का मन पति के प्यार-मान की चाहत से लहलहा न सका, तो क्या वो सह सकेगी ? रंजिता कितनी भावुक है, उसे तो संवेदनशील पति ही समझ सकता है। हो सकता है, सुधीर में उसने वो सब देख-पा लिया हो, जो कभी दमयन्ती ने अनिल में पाया था। दमयन्ती को बेटी का साथ देना ही होगा। पति के विरोध को वह ढाल बन झेल लेगी, पर रंजिता के निर्णय पर खरोंच भी न आने देगी। रंजिता को किसी के लिए जबरन समर्पित नहीं किया जा सकता। अपनी जिंदगी अपनी तरह जीने का अधिकार उसे मिलना ही चाहिए।

पास सो रहे पति की ओर से करवट बदल, दमयन्ती ने सुबह की प्रतक्षा में आँखें मूद लीं थीं।

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