12/1/09

न्याय की राह

नेहरू पार्क में बाल-मेला आयोजित किया गया था। लोगों की बढ़ती भीड़ देख लग रहा था मानो पूरा शहर मेले मे उमड़ आया हो। रंग-बिरंगे परिधानों में सजे बच्चों और स्त्रियों के कारण मेला रंगीन हो उठा था। मेले के बाहर बच्चों का आकर्षण बढ़ाने के लिए गुब्बारे वाले, चना जोर गरम और मूँगफली मसाले वालों की भारी संख्या उपस्थित थी। खिलौनों की दुकानें बच्चों को बरबस अपनी ओर खींच रही थी। एक ओर बंदर वाला अपनी बंदरिया को मायके न जाने के लिए मना रहा था तो दूसरी ओर दो बांसो के बीच बंधी रस्सी पर नट अपनी साइकिल चला, सबकी वाहवाही लूट रहा था। जोकर तो सब बच्चों के पास जा, उन्हें खूब हंसा रहा था। तभी माइक पर मेले के उद्घाटन के लिए मुख्य अतिथि के आगमन की घोषणा की गई। मेले के गेट के पास फ़ीता काटने की रस्म अदा की जानी थी।

मर्सडीज़ कार से उतरे मुख्य अतिथि क्षेत्र के सांसद घनश्याम दास जी अपने पुत्र राहुल के साथ मेले का उदघाटन करने पधारे थे । अब तक बाहर सिमटी भीड़ ज्वार की तरह मेले के गेट से अन्दर की ओर उमड़ पड़ी।

तभी राहुल की दृष्टि अपने सहपाठी किशोर पर पड़ी। मेले के एक कोने में बैठा किशोर एक व्यक्ति के जूतों पर पालिश कर, उनके जूते चमका रहा था। राहुल के ओठों पर मुस्कान आ गई।

'वह देखिए डैड, मेरा फ्रेंड शायद फेंसी-ड्रेस के लिए बूट पालिश वाला मेकअप करके आया है। आइए न डैड आपको उससे मिला दूँ।'

पिता के लाड़ले राहुल ने अपने पापा को किशोर के सामने ले जा खड़ा कर दिया।

'हलो बूट पालिश मास्टर। मेरे डैड से मिलो। क्यों किशोर, हमारे डैड के शू-पालिश करेगा? राहुल की आवाज में परिहास की खनक थी।'

'नमस्ते। आप अपना पैर यहाँ रख लीजिए, हम पालिश करके खूब चमका देंगे। आपको जूते उतारने की जरूरत नहीं है, सर।'

'वाह मान गए। तुम तो सचमुच अच्छे अभिनेता हो। भई राहुल, तुम्हारा दोस्त हमें बहुत पसंद आया।'

'जी डैड। क्लास में बस यही हमें हरा देता है, वर्ना हमेशा हम ही फ़स्र्ट आते।'

इतने में पीछे से एक सिपाही किशोर पर आकर बरस पड़ा।

'ऐ छोकरे, तू इधर कैसे घुस आया? तुम जैसे छोकरों के लिए बाहर जगह बनी है। तुझे अन्दर आने की मनाही है। चल निकल यहाँ से।'

'माफ़ कीजिएगा सिपाही जी, हमें पता नहीं था हम बाहर जाते है।'

घनश्याम दास जी की ओर मुड़ सिपाही ने दोनों हाथ जोड़ क्षमा माँगी थी।

'ग़लती से छोकरा इधर आ गया। क्षमा करें सरकार। आपसे पैसे तो नहीं माँग रहा था?'

'तुम ग़लत समझ रहे हो, कांस्टेबल। वह लड़का शायद फेंसी डेªस में आया था। वह मेरे साथ स्कूल में पढ़ता है।'

'नहीं भइया जी, हम भी उसे जानते है। माँ-बाप के मर जाने के बाद, चर्च के फादर ने आश्रय दिया है। उसे एक मिशनरी स्कूल में पढ़ने भेजा है। उसकी पूरी फीस माफ़ है। चर्च में ही रहता है। अपना खर्चा निकालने के लिए पार्ट टाइम जूता. पालिश का काम करता है।'

'नहीं, यह सच नहीं हो सकता।' विस्मय से राहुल स्तब्ध था।

'ओ.के.। बहुत हो गया, नाउ स्टाँप दिस नाँनसेंस। घनश्याम दास जी की भृकुटि तन गई।'

उनकी उस मुखमुद्रा को पूरा परिवार पहचानता था। भय से राहुल मौन साध गया। वह जान गया घर जाकर पिता का क्रोध उस पर जरूर उतरेगा। सच तो यह था कांस्टेबल के मॅुंह से किशोर की कहानी सुन, राहुल का मेले का आनंद ही ख़त्म हो गया। किशोर क्लास के दूसरे लड़कों से बिल्कुल अलग था। जिन बातों पर साथी खिलखिला कर हॅंसते , किशोर के ओठों पर मुस्कराहट की रेखा भी नहीं झलक पाती। किशोर के उस गाम्भीर्य ने ही राहुल को उसके प्रति आकृष्ट किया था। कभी उसके गाम्भीर्य पर राहुल विस्मित रह जाता।

'यार, तू किस मिट्टी का बना है। दुनिया की कोई खुशी और ग़म तुझे छू नहीं पाता।'

'सबसे तिरस्कृत मिट्टी से ही मेरा निर्माण हुआ है, राहुल। मैं तेरी दोस्ती के लायक नहीं मित्र।'

'ठीक है, जा नही बोलता तुझसे।' पर राहुल का संकल्प कब टिक पाता? किशोर के बिना राहुल को सब कुछ अधूरा लगता। किशोर की तीक्ष्ण बुद्धि का लोहा तो उसके अध्यापक भी मानते थे। कठिन से कठिन समस्या का समाधान वह मिनटों में कर देता। किशोर सबका प्रिय था, पर उसके जीवन का सत्य कोई नहीं जान पाया। इतने कष्टों के बीच रहकर भी किशोर उतना सामान्य कैसे रह पाता है। राहुल अपने को किशोर के बहुत निकट पाता था, पर उसके जीवन के उस कड़वे सत्य को वह आज से पहले कब जान पाया? कई बार उसने किशोर को उसके कवच से बाहर निकालने का प्रयास किया, पर वह मौन ही रहा। किशोर के प्रति राहुल का मन सहानुभूति से भर उठा।

घर वापस पहॅुंचा राहुल, डैड की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करता रहा। उन्हें जवाब देने के लिए उसने जवाब भी सोच लिए थे, पर घनश्याम दास न उस पर चीखे न चिल्लाए, बस कार से उतरकर सीधे अपने कमरे में चले गए। जाते-जाते उन्हें डिस्टर्ब न किया जाए की चेतावनी देते गए। राहुल के लिए उनका यह व्यवहार अप्रत्याशित था। सुबह मम्मी से पता चला डैड देर रात तक लोगों से फ़ोन पर न जाने क्या बातें करते रहे। उनका मूड ठीक नहीं लग रहा था।

स्कूल पहॅुंच राहुल ने किशोर की खोज की तो पता लगा उसे प्रिन्सिपल सर ने बुलाया है। राहुल का मन शंका से धड़क उठा, किशोर को प्रिन्सिपल सर ने क्यों बुलाया? अपना बैग डेस्क में रख राहुल प्रिन्सिपल के आँफिस की ओर दौड़ गया। बाहर खड़े किशोर को प्रिन्सिपल चार्ली की धीमी-मृदु आवाज सुनाई दी थी।

'मुझे तुमसे कुछ कहना है एमाई सन'।

'जी सर, मैं सुनने को तैयार हूँ।'

'तुम्हें इस स्कूल से दूसरे स्कूल भेजा जा रहा है।'

'पर क्यों, सर? क्या मैंने कोई ग़लती की है, सर? आप मुझे इस स्कूल से न हटाइए प्लीज।'

'देखो बेटे इस स्कूल की फ़ीस बहुत ज्यादा है इसलिए .....................।'

'सर मैं दिन-रात मेहनत करूँगा, आपकी फफ़स चुकाऊॅंगा, पर मुझे यहाँ पढ़ने दीजिए।'

'आई एम साँरी, माई चाइल्ड। यह मेरे वश की बात नहीं है। तुम ज़हीन लड़के हो जहाँ जाओगे, अच्छा रिज़ल्ट पाओगे। गाँड ब्लेस यू, माई सन।'

उतरे मुख के साथ किशोर बाहर आया था। राहुल की हिम्मत उससे नज़र मिलाने की नहीं हुई। वह पूरी तरह समझ गया किशोर को किस अपराध का दंड मिला था। कल शाम ही तो डैड ने किशोर को लोगों के बूट पालिश करते देखा था, पर क्यो? किशोर के व्यक्तिगत जीवन की कठिनाइयों का क्या उन्होंने समाधान किया है? क्या हक़ है उसके डैड को कि एक ब्रिलिएंट लड़के को स्कूल से सिर्फ़ इसलिए निकलवा दें क्योंकि वह किसी आभिजात्य वर्ग से नहीं बल्कि एक निर्धन निम्न वर्ग से आता है। नहीं राहुल यह अन्याय नहीं होने देगा।

अचानक कमरे में घुस आए राहुल को देख प्रिन्सिपल चैक गए। बिना आज्ञा उनके कमरे में घुस आने का दुस्साहस कोई नहीं करता। गम्भीर स्वर में उन्होंने पूछा था-'यस। कोई ख़ास बात?'

'सर, आप जिस स्कूल में किशोर को भेज रहे हैं, मैं भी उसी स्कूल में पढ़ना चाहता हूँ।'

'व्हाँट नाँन्सेंस। राहुल, तुम जानते हो तुम किसके बेटे हो?'

'जी हाँ, बहुत अच्छी तरह जान गया हूँ।'

'फिर भी तुम उस स्कूल में पढ़ने जाना चाहते हो, जहाँ लेबर-क्लास के बच्चे पढ़ते हैं।'

'यस सर, क्या लेबर-क्लास के बच्चे हमसे अलग होते हैं? नहीं सर, यह वर्ग-भेद मेरे डैड जैसे अमीरों की देन है।'

'कूल डाउन चाइल्ड। इस वक्त तुम गुस्से में हो, थोड़ी देर बाद मेरे पास आना।'

'नहीं सर, मैं ज़रा भी गुस्सा नहीं हूँ, हाँ मैं बहुत दुखी जरूर हूँ। मुझे अपने डैड पर शर्म आ रही है। अच्छे स्कूल में पढ़ना किशोर का अधिकार है। आप उसका यह अधिकार उससे नहीं छीन सकते।'

'मुझे बहुत खुशी है राहुल, तुम इस तरह से सोचते हो। भविष्य में तुम जरूर एक सत्यनिष्ठ न्यायी अधिकारी बनोगे।'

'अगर आपकों न्याय से प्यार है तो मेरे डैड के अन्याय में उनका साथ क्यों दे रहे हैं, सर?'

'तुम्हारी बातें ठीक हैं राहुल, मैं कोशिश करूँगा किशोर को न्याय मिले। मैं उसका केस राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के पास भेज सकता हूँ, पर पहले तुम अपने डैड से बात करके देख लो।'

'जी, मैं कोशिश करूँगा सर।'

राहुल न ेशांतिपूर्ण ढंग से सत्याग्रह करने की ठान ली। मम्मी से साफ़ कह दिया जब तक डैड, किशोर को न्याय नहीं देंगे, वह रूखी रोटी खाएगा, ज़मीन पर सोएगा और अगर डैड नहीं मानते तो जिस स्कूल में किशोर पढ़ेगा, उसी में राहुल भी पढ़ेगा।

दो दिन बाद धनश्याम दास को हथियार डालने पड़ गए। स्कूल के प्रिन्सिपल ने बोर्ड आँफ डाइरेक्टर्स को समझाया किशोर जैसे प्रतिभाशाली लड़के से स्कूल का नाम ऊॅंचा होगा। मिस्टर चड्ढा किशोर की कहानी सुन द्रवित हो गए।

'यही तो हमारे देश का दुर्भाग्य है जहाँ बुद्धि और प्रतिभा को चांदी के चंद सिक्कों से तौला जाता है। हमें तो ऐसे लड़के पर गर्व करना चाहिए जो अपने हाथ की कमाई से अपना खर्च चलाता है, पर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता।'

डाक्टर सुनीता के मन, में किशोर के प्रति ममता जाग उठी।

आज से किशोर का पूरा दायित्व मैं लेती हूँ, उसे बूट पालिश करने की जरूरत नहीं है।

स्वाभिमानी किशोर को जब यह प्रस्ताव सुनाया गया तो उसने किसी की भी सहायता लेने से साफ इंकार कर दिया।

'मेरे पिताजी कहते थे बिना किसी का काम किए सहायता लेना, भीख लेने के बराबर है। अगर डाँक्टर सुनीता मेरे लायक कोई काम दें तो जरूर उनकी सहायता स्वीकार करूँगा।'

प्रिन्सिपल चार्ली का चेहरा खुशी से चमक उठा। किशोर तो सचमुच उनके स्कूल का हीरा था। अन्ततः स्कूल की लाइब्रेरी में दो घंटे सहायता करने का काम किशोर को सौंपा गया। किशोर उसी स्कूल में पढ़ेगा। राहुल की आँखें खुशी से जगमगा उठीं।

किशोर के ओठों पर पहली बार मुस्कान दिखी थी।

'मैं तुम्हारा बहुत आभारी हूँ, राहुल........................'

'नहीं दोस्त, यह कहकर मुझे शर्मिन्दा मत करो। मैं समझ नहीं पा रहा अपने डैड के दुष्कर्म का प्रायश्चित कैसे करूँ। उन्होंने तुम्हे कितना मानसिक कष्ट पहॅुंचाया है। उन्होंने तुझसे तेरा अधिकर छीना था, किशोर।'

'नहीं राहुल तुम्हारे डैड बहुत अच्छे इन्सान है। जानता है दो दिन पहले वह मुझसे माफ़ी मांगने, चर्च आए थे।'

'ओह किशोर, यह बताकर तूने मेरे सीने पर से कितना बड़ा बोझ हटा दिया, तू नहीं जानता।'

घनश्याम दास के कमरे में पहॅंुच राहुल ने डैड के पाँव छू, उन्हें चमत्कृत कर दिया।

'अरे................ यह क्या, राहुल?'

'आप बहुत अच्छे हैं, डैड। मेरी ग़लती माफ़ कर दीजिए।'

'नहीं अच्छा तो मेरा बेटा राहुल है जिसने अपने पिता को अन्याय की राह पर जाने से बचा लिया। मुझे तुम पर गर्व है, मेरे बच्चे।'

राहुल को सीने से लगाए घनश्यामदास का चेहरा पुत्र प्रेम के आलोक से जगमगा उठा।

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