12/1/09

ईमानदारी


महानगर में झुग्गी-झोपड़ी में काकी के साथ मोहन, चंदर, बेला, शीलो, रमेश नाम के अनाथ बच्चे रहते थे। आँख खोलते ही उन्होंने अपने को काकी के साथ पाया। काकी उनकी माँ ही नहीं, उनकी सब कुछ थी। काकी फुटपाथ पर छोटी सी चाय की दुकान चलाती थी। बेला और शीलो काकी की मदद करती और पास की बगिया से फूल लाकर सुंदर गजरे भी बनातीं। गजरों को बेचकर जो पैसे मिलते काकी को दे देती। बेला का जन्म जेल में हुआ था। माँ पर हत्या का झूठा इलज़ाम था। अपना फ़ैसला सुनने के पहले ही वह परलोक सिधार गई। हत्यारिन माँ की बेटी को कोई रिश्तेदार रखने को तैयार नहीं हुआ, अन्ततः काकी ने ही उसे अपनाया था।

मोहन, चंदर और रमेश कचरा बीनते। कचरे में प्लास्टिक या काम लायक चीजें कबाड़ी के हाथ बेचकर पैसे काकी को लाकर देते। काकी भी बच्चों को माँ जैसा प्यार देती। रात में वह बच्चों को पढ़ाती और अच्छा इंसान बनने का पाठ पढ़ाती।

दुखों में भी बच्चे खुशी की वजह पा लेते। वे सब आपस में भाई-बहिन थे। मोहन बेला की चोटी पकड़कर खींचता-

"चल मेरी घोड़ी टिक-टिक-टिक"

बेला मोहन की शिकायत काकी से करती। कभी चंदर शीलो के गजरे छीन कर चिढ़ाता-

"ये मॅुंह और मसूर की दाल"

पहनने को अच्छे कपड़े, नहीं, ये गजरा सिर पर लगाएगी। शीलो नहले पर दहला थी पलटकर जवाब देती-

"कभी शीशे में मॅुंह देखा है, बंदर लगता है।"

इसी तरह हॅंसते-खेलते दिन बीत रहे थे। एक दिन कचरा बीनते मोहन को एक पर्स मिला। पर्स खोलने पर उसमें सौ-सौ के कई नोट थे। मोहन के हाथ में रूपये देखकर रमेश उछल पड़ा।

"वाह यार! आज तो अपनी किस्मत खुल गई। अब इन रूपयों से खूब मजे उड़ाएंगे।"

"हाँ, मोहन, संगम में बड़ी अच्छी पिक्चर लगी है। चल आज पहले पिक्चर देखें फिर जी भर के चाट-मिठाई खाएंगे।"

"नहीं, यह ग़लत बात है। इन पैसों पर हमारा हक नहीं है। ये पैसे हम काकी को देंगे, वह इन पैसों को उसके मालिक के पास पहॅुंचा देगी।"

"एक बार फिर सोच ले, मोहन। इन पैसों से हम नए कपड़े भी खरीद सकते हैं। रमेश ने फिर कहा।"

"याद नहीं, काकी कहती है, दूसरों की चीज लेना चोरी है। ये पैसे हमारे नहीं हैं। इन्हें रखना चोरी है।"

"हाँ, मोहन, तू ठीक कहता है। चल हम काकी के पास चलते है। काकी ही ठीक राह दिखाएंगी।"

पूरी बात सुन कर काकी की आँखों में आँसू आ गए। मोहन को सीने से चिपटा काकी ने कहा।

"आज तूने मेरा जीवन सार्थक कर दिया। ईमानदारी से बड़ी न्यामत नहीं।"

"सच कहूँ, काकी तो मेरा और रमेश का मन तो ललचा गया था, पर मोहन ने हमें ठीक बात समझाई।" चंदर ने अपनी गलती मान ली।

"तू तो हमेशा का लालची है।" शीलो ने चंदर को चिढ़ाया।

"चुप बंदरिया, बड़ी आई हमें लालची कहने वाली।"

"चलो बच्चों, हम थाने चलते हैं।"

"थाने क्यों, काकी?" बेला को पुलिस के नाम से अपनी माँ याद आ जाती थी।

"डर नहीं, बेला। हम थाने में यह पर्स लौटाने जा रहे हैं। अच्छे बच्चों को पुलिस से नहीं डरना चाहिए।"

बच्चों के साथ काकी थाने पहॅुंची। थानेदार और एस.पी. काकी की इज्ज़त करते थे। वे जानते थे काकी अनाथ बच्चों को पाल कर नेक काम कर रही है। वह खुद भूखी रही, पर बच्चों का पेट भरती रही।

थानेदार और एस.पी. को पर्स देकर काकी ने पूरी बात बताकर कहा-

"हम चाहते हैं, यह पर्स जिसका है, उसे लौटा दिया जाए।"

पर्स में शहर के नामी सेठ रामचंद्र का कार्ड था। एस.पी. साहब ने सेठ जी को फोन पर बताया कि उनका खोया हुआ पर्स एक बच्चे को मिला है। सेठ जी ने कहा वह मोहन जैसे ईमानदार लड़के से मिलना चाहते हैं।

थोड़ी ही देर में सेठ जी थाने आ पहॅुंचे। मोहन की पीठ थपथपा कर उन्होंने शाबाशी दी।

पर्स से सौ-सौ के कई नोट निकाल कर मोहन की ओर बढ़ाकर कहा-

'यह लो बेटे, यह तुम्हारा इनाम है।'

"नहीं, सेठ जी। यह तो हमारा फर्ज था। हम आपसे पैसे नहीं ले सकते।"

"वाह! तुम तो कमाल के बच्चे हो। अच्छा बताओ बेटा मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ?"

"हम सब खूब पढ़ना चाहते हैं। क्या आप हमारी मदद कर सकते हैं?" मोहन ने पूछा।

"जरूर ! मेरा एक स्कूल है। मैं तुम जैसे ईमानदार बच्चों को अपने स्कूल में पढ़ाऊॅंगा। तुम्हें फ़ीस भी नहीं देनी होगी।"

"नहीं, सेठजी। हम स्कूल में कुछ काम करेंगे। हम मुफ्त में नहीं पढ़ना चाहते" दृढ़ स्वर में मोहन ने कहा।

"हम लड़कियों को गजरा बनाना सिखाएँगे।" उत्साह से बेला ने कहा।

"शाबाश बच्चों। तुम काकी का नाम ज़रूर रोशन करोगे।" सेठ ने काकी को भी बधाई दी।

"अच्छा मोहन, तुम क्या बनना चाहते हो?" थानेदार ने प्यार से मोहन से पूछा।

"हम आप जैसे पुलिस वाले बनना चाहते हैं।"

"तुम जरूर पुलिस-अफ़सर बनोगे। तुम्हारे जैसे ईमानदार पुलिस आफ़िसर की देश को ज़रूरत है।"

"अच्छा तो हम चलते हैं। प्रणाम" काकी ने लौटने की इजाजत माँगी।

"ऐसे कैसे जा सकती हो, काकी। कम से कम मिठाई तो खाती जाओ।" थानेदार ने प्यार से कहा।

"मैं काकी के लिए भी स्कूल में कोई अच्छा काम दिलाऊॅंगा। काकी तो सच्ची अध्यापिका है। ये बच्चे काकी की ईमानदारी और सच्चाई के सबूत हैं। सेठ जी ने काकी की प्रशंसा में कहा।"

सेठ जी ने ढे़र सारी मिठाई और टाफियाँ मॅंगाकर बच्चों को बाँटी साथ ही कहा-

"अब कल से तुम कचरा नहीं बीनोगे, कल से तुम सब स्कूल जाओगे। हाँ, जैसा तुमने कहा है, तुम्हें स्कूल में कुछ काम करने होंगे। बोलो तैयार हो?" मुस्करा कर सेठजी ने पूछा।

"हम तैयार हैं" बच्चों ने एक स्वर में कहा। मिठाई खाते बच्चों के चेहरे भविष्य की कल्पना से जगमगा रहे थे।

No comments:

Post a Comment