7/8/14
आलोचक
सामने पड़े पत्र की चिंदियां उड़ा देने का जी चाह रहा था। पहली कहानी प्रकाशित होने की सारी खुशी इस खत ने मटियामेट कर डाली थी। कितनी खुश थी वह, जब भारत से पत्रिका के संपादक का स्वीकृति-पत्र मिला था पर इस पत्र ने भावना को जैसे जमीन पर ला पटका था।
पत्रिका में प्रकाशित होने की खुशी में यह मत समझ लेना, तुम बड़ी लेखिका बन गई हो। विदेशी डालरस में बहुत शक्ति है। यहाँ कागज के मूल्य आसमान छू रहे हैं, अच्छी-अच्छी पत्रिकाएँ या तो अंतिम साँसे ले रही हैं, या ले चुकीं। स्तरीय पत्रिकाएँ भी समझौता करने के लिए विवश हैं।।
पूरी कहानी में क्या शब्द-जाल बांधा है। उत्ताल-सागर वीथियों का आलोड़न, वहीं छायावादी-रूमानी एटीच्यूड-आज मानव इतनी समस्याओं से जूझ रहा है और तुम सागर-तट पर बैठी रोमांस लिख रही हो? ऐसी रचनाएँ तो रचनाशीलता पर प्रश्न चिन्ह हैं। काश तुम कुछ सार्थक लिख पातीं........
विशाल से इसके अलावा और उम्मीद भी क्या की जा सकती थी? क्लास में उसके लेखन की वह जिस तरह आलोचना करता कि सह पाना कठिन हो जाता।
सर, लेख हो या कहानी, इसे लिखने के लिए भी साधना चाहिए। गायक अपनी कला में निखार लाने के लिए कितना रियाज करता है, यहाँ एक बार जो लिख डाला उस पर दोबारा नजर डालने की भी जरूरत नहीं समझी जाती............।
अगर इस लेख में आपको कोई कमी दिख रही तो उस पर प्रकाश डाल हम सबको भी लाभान्वित करें विशाल जी। प्रोफेसर करन के शब्दों में व्यंग्य का पुट स्पष्ट होता।
कमी की तो बात ही छोड़िए, इस पूरे लेख में भावुकता के सिवा और है ही क्या? इसी भावुकता के सहारे तो लड़कियाँ हमेशा विजय पाती हैं।
विजय की बात ले, किस पर व्यग्य किया गया था, भावना अच्छी तरह समझती थी। यूनीवर्सिटी की कहानी-प्रतियोगिता में भावना को प्रथम पुरस्कार दिया गया था। उसी की कचोट अभी तक विशाल को टीस रही थी। भावना तमतमा उठी थी-
विशाल जी अपनी भाषा पर संयम रखें। लड़कियों के लिए आपका यह रिमार्क बहुत ही आब्जक्शनेबल है। अगर ठीक से सुना होता तो जान पाते- लेख में सिर्फ भावुकता नहीं, पूरे तथ्य दिए गए हैं। मैं चैलेंज करती हुँ अगर आप एक भी छूटा प्वांइट बता दें तो...................।
भावना जी इतनी उत्तेजित न हों, जरा शांति से अपना पूरा लेख पढ जाइए, फिर देखिए, नारी-पात्रो का चरित्र-विश्लेषण करते समय क्या आप न्याय कर सकी हैं? आपकी अतिशय भावुकता क्या आप पर हावी नहीं हो गई है?
विशाल के ओठों पर खेलती हल्की मुस्कान भावना का पारा और ऊॅंचा चढ़ा जाती।
अगर मैं न्याय नहीं कर सकी हुँ तो आप कर दीजिए। भावना क्रोध में उत्तर देती।
मेरी आलोचना आप सह नहीं सकेंगी। सच स्वीकार कर पाने के लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए एभावना जी।
मेरी दिल छोटा है, यह आपने कैसे जाना?
आपके दिल तक भले ही नहीं पहॅुंच सका हुँ, पर नारी-हृदय की विशालता के जो झूठे गीत गाए जाते हैं, उनकी असलियत से अच्छी तरह परिचित हुँ। न जाने क्यों विशाल गम्भीर हो आता। प्रोफेसर करन दोनों की नोक-झोंक का रस लेते, अचानक सजग हो उठते।
एक बात याद रखिए, बातों को कभी व्यक्तिगत नहीं बनाइए। बहस कीजिए और वहीं छोड़ दीजिए। चलिए आपको रीति-काल में ले चलॅूं, जहाँ बस प्रेम है।
पूरा क्लास हॅंस पड़ता और प्रोफेसर करन अपनी मीठी वाणी में पद्मावत के प्रेम-रस में सबको सराबोर कर डालते।
बी0ए0 में भावना को हिन्दी में सर्वोच्च अंक मिले थे। विशाल एक अंक से पिछड़ गया था, शायद इसीलिए एम0ए0 में, भावना उसकी प्रतिद्वंदी बन गई थी।
डिपार्टमेंट की पिकनिक-पार्टीज में भी विशाल उस पर छींटाकशी करने से बाज नहीं आता था। जब तक भावना का मूड खराब न हो जाए, विशाल उसे परेशान करता ही रहता। न जाने किस जन्म की शत्रुता, इस जन्म में उसे निभानी थी।
प्रोफेसर पुरी के साथ एम0ए0 फाइनल के बैच को वाराणसी जाना था। वाराणसी तक बस से जाने की व्यवस्था की गई थी। सभी स्टूडेंट्स बेहद उत्साहित थे। बस में सीट लेने के लिए बच्चों सी होढ़ लग गई थी। लड़कियाँ अपनी जगह सुरक्षित करा रही थीं-
ऐ आभा, मेरी जगह रखना।
नेहा, जल्दी आ वर्ना तेरी जगह नहीं रहेगी।
क्या घोड़े बेच सोई थी भावना? इतनी देर में पहॅुंची है। तेरे लिए हम सब लेट हो रहे हैं। नेहा ने नाराजगी दिखाई थी। भावना सचमुच देर से पहॅुंची थी। लड़कियों के साथ एक भी जगह खाली नहीं थी। सब पर शिकायत भरी दृष्टि डालती, भावना अपने लिए जगह तलाश रही थी।
अगर मेरे पास बैठने से आप पिघल न जाएँ तो यहाँ मेरे पास, आपकी जगह सुरक्षित है। नाटकीय स्वर में विशाल ने आमन्त्रित किया था।
थैंक्स। मैं मोम की गुड़िया नहीं.........। विशाल का चैलेंज स्वीकारती, भावना उसके साथ वाली सीट पर बैठ गई थी।
वाह भाई, यह विशाल तो छुपा रूस्तम निकला। अब पता लगा किसके लिए जगह सुरक्षित रखी थी। अवनीश ने रिमार्क कसा था।
लड़कों के सम्मिलित हास्य ने भावना को खिसिया दिया था। पूरा रास्ता गीतों की अन्ताक्षरी और हॅंसी के फौवारों के बीच, कितनी जल्दी कट गया था। हमेशा का वाचाल विशाल, उस पूरी अवधि मे मौन बैठा रह गया था। विशाल का वह मौन भावना को कितना चुभा था। उसके व्यंगवाण झेलने की भावना को आदत सी पड़ गई थी।
मानस-मन्दिर में प्रविष्ट होते ही, विशाल ने सबको सुनाकर कहा था-
भई तुलसीदास तो जीनियस थे। एक ही वाक्य में पूरा सच कह गए हैं। उनकी इस बात के आगे बार-बार शीश नवाने का जी चाहता है।
कौन सी बात विशाल, जिसके आगे तुम नत हो?
ढोल, गॅंवार, शूद्र, पशु, नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी।
इससे बड़ा सच और क्या होगा? व्यंगपूर्ण मुस्कान उसने भावना की ओर फेंकी थी। लड़कियों के मॅुंह तमतमा आए थे।
भगवान करे इसे ऐसी पत्नी मिले जो इसे ठीक राह पर ला सके। भावना बुदबुदाई थी।
एक स्त्री का बदला ही तो हमसे ले रहा है। नेहा ने धीमे से कहा था।
क्या मतलब? क्या इसका किसी से एफेयर था नेहा? हमें भी बता न प्लीज। आभा उत्सुक हो उठी थी।
तुझे तो हर जगह कोई प्रेम-प्रसंग ही दिखता है। बेचारे की सौतेली माँ है। दो वर्ष का था तभी पिता ने दूसरा विवाह कर लिया था। उसके बाद का इसका जीवन तो निर्वासित का ही रहा है। नेहा ने जानकारी दी थी।
ठीक ही किया। ऐसे दुष्ट को कौन घर रखना चाहेगा। माँ को भी खूब सताता होगा।
ऐसी बात नहीं है भावना। मेरी चाची इसके पड़ोस में रहती थीं, चाची बताती हैं बचपन में विशाल बहुत भोला-प्यारा बच्चा था। सौतेली माँ क्रूरता का शिकार विशाल आज समस्त स्त्री-जाति के प्रति विद्वेष रखता है। न जाने क्यों भावना की अभिन्न सखी होते हुए भी नेहा, विशाल के प्रति बेहद संवेदनशील थी।
सौतेली माँ बहुतों की होती हैं, इसका अर्थ यह तो नहीं कि स्त्री-जाति से ही घृणा की जाए। भावना नेहा के तर्क से कतई सहमत नहीं थी।
भूख से बिलबिलाता बच्चा, अगर पड़ौसिन ताई का दिया, रोटी का एक टुकड़ा खा ले तो क्या उसे खम्भे से बाँध, इतना मारा जाना चाहिए कि उसके बदन पर नील पड़ जाएँ? नेहा ने उत्तेजित स्वर में प्रश्न किया था।
ओ नो। यह तो क्रूरता की सीमा है नेहा। उस कठोर व्यवहार की कल्पना ने आभा को विचलित कर दिया था।
ऐसा बचपन देखा-जाना है, विशाल ने। कुछ बड़ा होने पर घर से निर्वासित दूसरों की दया पर आश्रित रह, यहाँ तक पहॅुंच सका है। दुःख इसी बात का है कि विशाल को पुरूष-वर्ग से दया और सहानुभूति भले ही मिली हो, स्त्रियों ने उसे बोझ कह दुत्कारा ही था।
सच स्त्रियाँ भी इतनी क्रूर हो सकती हैं, हमें पता ही नहीं था बेचारा विशाल। नेहा के साथ आभा भी विशाल के प्रति सदय हो उठी थी।
भावना ने अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी, पर एक छोटे बच्चे की खम्भे से बॅंधी पिटती काया ने, जैसे उसके मॅुंह का स्वाद ही बिगाड़ दिया था। लौटते समय भी वह अनावश्यक रूप से गम्भीर ही बैठी रह गई थी।
क्या बात है भावना जी, आप मुझसे नाराज दीखती हैं। पीछे बैठे विशाल ने उसका मौन तोड़ना चाहा था।
इतना बोलने से आप थक नहीं जाते? कभी मौन रह, सोचना क्या अच्छा नहीं लगताघ्
अगर सोचने के लिए कुछ मीठा हो तब न, सिर्फ कडुवाहट का स्वाद किसे भाता हैं?
कडुवाहट की भी आदत पड़ जाती है, कोशिश कर देखिए, उसी में आनन्द आने लग जाएगा। भावना ने बात शायद कुछ आक्रोश में कही थी।
तो लीजिए, अभी रूष्ट देवी को मनाता हुँ- काहे री नलिनी तू कुम्हलानी, तेरे ही नाल सरोवर पानी................कहिए इसका अर्थ समझ रही हैं, भावना जी।
जी हाँ, बिल्कुल साफ अर्थ है। मेरे साथ आप हैं, कुम्हलाने का बस यही कारण है। भावना की उस बात पर सब जोर से हॅंस पड़े थे।
चलिए आपकी उदासी-प्रसन्नता का कारण मैं बन सकॅंू, इससे अधिक और क्या चाहिए? सहज स्वर में विशाल ने कहा था।
फाइनल-परीक्षा पास आ गई थीं। क्लासेज की नोक-झोंक के स्थान पर सभी ने लाइब्रेरी में अधिक समय बिताना शुरू कर दिया था। उस गम्भीर वातावरण में भी किसी एकान्त कोने में पढ़ रही भावना को, विशाल खोज ही निकालता था। भावना को डिस्टर्ब कर, मानो वह अतिरिक्त ऊर्जा पा लेता था।
कहिए खूब पढ़ाई कर रही हैं, क्या करेंगी टाप करके? अमीर बाप की बेटी हैं, अन्ततः विवाह के बाद कार में ही तो घूमना है। क्यों हमारा चांस छीन रही हैं, भावना जी?
देखिए विशाल, इस समय इन बेकार की बातों के लिए मेरे पास बिल्कुल टाइम नहीं है। वैसे भी अपनी अमीरी के लिए मैं आपकी अपराधी तो नहीं हुँ न? मुझे पढ्ने़ दीजिए प्लीज।
परीक्षा समाप्त होते ही सचमुच भावना का विवाह हो गया था। राकेश अमेरिका में एक साफ्टवेयर कम्पनी का स्वामी था। पहली दृष्टि में ही उसे भावना भा गई थी। धनी परिवार का इकलौता वारिस, राकेश हर दृष्टि से भावना के लिए योग्य पात्र था।
अमेरिका के सुख-वैभव ने भावना को सब कुछ भुला दिया था, बस खाली समय में उसके लिखने का शौक ज़रूर उससे नहीं छूट सका था। जीवन से पूर्णतः संतुष्ट, भावना की कहानियों में उच्च-मध्य-वर्ग अनजाने ही विषय बनता था। भावना के लेखन को उसके पति राकेश ने सदैव प्रोत्साहित किया था-
तुम अपनी कहानियाँ भारत की पत्रिकाओं में छपने क्यों नही भेजतीं भावना?
भला मेरी कहानियाँ छप सकेंगी? उतना अच्छा कहाँ लिख पाती हुँ राकेश?
भेजकर तो देखो। यहाँ के जीवन पर तुम बहुत कुछ लिख सकती हो, मुझे विश्वास है तुम्हारी रचनाएँ बहुत पसन्द की जाएँगी। प्यार से राकेश ने उसकी पीठ थपथपा विश्वास दिलाया था।
पति की बातों से उत्साहित भावना ने दो-तीन प्रेम-कहानियाँ लिख डाली थीं। उन्हीं में से छपी एक कहानी की प्रतिक्रिया में, विशाल ने यह पत्र भेजा था।
इस खत ने भावना के मस्तिष्क में सोई विशाल की स्मृति को झकझोर कर जगा दिया था। एम0ए0 फाइनल की परीक्षा में प्रथम स्थान विशाल को ही मिला था, भावना द्वितीय रही थी। पराजय की टीस, भावना ने कभी महसूस नहीं की। विवाह के साथ उस जीवन को वहीं छोड़ भावना नई दुनिया में रच-बस गई थी। शायद अपनी विजय के बाद भावना का उदास पराजित चेहरा न देख पाने की, विशाल की इच्छा अधूरी ही रह गई थी। कहीं भावना की कहानी प्रकाशित देख, विशाल ने स्वयं को पराजित तो अनुभव नहीं किया और इसीलिए यह पत्र लिख भेजा हो?
नहीं, प्रतिद्वन्दी होते हुए भी विशाल ने कभी अपने स्वार्थोंे की पूर्ति का प्रयास नहीं किया था। कई अवसरों पर तो उदारता पूर्वक भावना की श्रेष्ठता स्वीकार कर, उसे उपकृत भी करना चाहा था।
फाइनल परीक्षा के ठीक पहले उसके स्पेशल पेपर के सारे नोट्स खो गए थे। उस समय अपने नोट्स दे, विशाल ने दिलासा दिया था-
।अरे तुम जीनियस ठहरी भावना, यह दिमाग बड़े कमाल की चीज है, वर्षों पहले की स्मृतियाँ सुरक्षित रखता है। एक नज़र नोट्स पर डाल लो, सब याद आ जाएगा।
बच्ची की तरह भावना को समझाते, विशाल ने पहली और आखिरी बार उसे तुम कह सम्बोधित किया था।
उस समय विशाल के शब्दों और उसके नोट्स ने कितना सहारा दिया था। अगर वह सचमुच भावना से ईष्र्या रखता, तो उसकी सहायता क्यों करता। उन दोनों के बीच वह कैसा रिश्ता था? पर आज उसके इस पत्र ने भावना के हृदय में अगर विशाल के प्रति कहीं कोई कोमल तंतु शेष था, उसे भी निर्ममता से तोड़ डाला था।
तारीफ़ न करता, कम से कम सात समुन्दर पार बसी सहपाठिनी की रचना छपने पर उसे इस तरह अपमानित तो न करता। ठीक है वह भी विशाल को दिखा देगी, वह क्या है।
क्रोध से भावना का मस्तिष्क अवसन्न हुआ जा रहा था। भला यह भी कोई बात हुई, कहानी के विषय भी विशाल के मनोनुकूल होने चाहिएँ। क्या प्रेम, कहानी का विषय नहीं बन सकता? जरूरी तो नहीं सब उसकी तरह रूखे-सूखे हों।
पति के घर पहुँचते ही भावना ने अपनी बात रखी थी-
अगर मैं अपना कहानी संग्रह छपवा लॅूं, तो कैसा रहे?
एक्सलेंट आइडिया। यह हुई न बात। मैं हमेशा कहता था तुम अपना टेलेंट वेस्ट कर रही हो आखिर कभी तुम यूनीवर्सिटी की गोल्ड मेडलिस्ट रही हो।
मीरा का इण्डिया में पब्लिकेशन का व्यवसाय है। उसने पहले भी लिखा था, सोचती हुँ उसे ही पाँडुलिपि भेज दूँ। प्रूफ-रीडिंग भी अच्छी हो जाएगी।
फिर क्या प्राब्लेम है? जल्दी भेज दो। हम भी कहानी-लेखिका के पति कहलाने का गौरव पा लेंगे। राकेश सचमुच प्रसन्न था।
देखो प्रकाशन के लिए अगर कुछ पैसे भेजने पड़ें तो? सुनते हैं आजकल पैसे लेकर ही पब्लिशर्स बुक छाप रहे हैं.............।
उसमंे क्या मुश्किल है। जितने पैसे चाहिएं हाजिर हैं, जानेमन। कितने का चैक भेजना है?
मीरा ने शीघ्र ही संग्रह प्रकाशित कर दिया था। पुस्तक हाथ में थामे, भावना मौन रह गई थी। भावातिरेक में आँखें भर आई थीं।
राकेश गौरव से भर उठा था। मित्र-समाज ने भावना को बधाइयों से लाद दिया था। भावना की इस सफलता के लिए राकेश ने एक बड़ी पार्टी दे डाली थी-
मेरी लेखिका-पत्नी के प्रथम कहानी-संग्रह के प्रकाशन के उपलक्ष्य में लेट्स सेलीब्रेट ...........चीयरर्स.............। खनकते प्यालों में खुशी आ समाई थी।
पुस्तक की समीक्षा की भावना उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही थी। मीरा ने लिखा था स्तरीय पत्रिकाओं में समीक्षा निकलने से पुस्तक की माँग बढ़ेगी। एक समीक्षा विशाल से करा, प्रकाशित करने का भी मीरा ने सुझाव दिया था।
मीरा के सुझाव के उत्तर में भावना ने तुरन्त पत्र लिखा था-
.............तू तो जानती है मीरा, विशाल मेरे लेखन का कितना बड़ा आलोचक है। उसके अनुसार तो कहानी का विषय केवल शोषण होना चाहिए। भूलकर भी यह गलती मत करना........- भावना।
भावना की बात काट पाना मीरा को असम्भव था। विभिन्न पत्रिकाओं में समीक्षा के लिए पुस्तक की प्रतियाँ भेज, मीरा ने भावना को सूचित किया था। साथ ही अपनी नाराजगी भी कुछ शब्दों में व्यक्त कर दी थी-
समीक्षा के लिए अनजाने हाथों में अपने को सौंप देना अक्लमंदी नहीं है। विशाल अन्याय ही करेगा, यह सोचना तेरी गलती है भावना....... खैर। आज के लेखक अपने मित्र-बांधवों से ही समीक्षा करवाते हैं। कुछ लोग समीक्षा के नाम पर मानो बदला लेने लगते हैं। इसी व्यवसाय में हुँ, इसलिए अन्दर-बाहर का सब जानती हुँ..........मीरा।
समीक्षा के स्थान पर विशाल का लम्बा पत्र देख भावना खीज उठी थी। निश्चिय ही उसके संग्रह की विशाल ने धज्जियाँ उड़ा दी होंगी। लिफाफा खोलने का भी उसे साहस नहीं हो रहा था, पर न जाने किस आकर्षण ने पत्र पढने को विवश कर दिया था-
प्रिय भावना,
प्रथम संकलन के प्रकाशन के लिए मेरी हार्दिक बधाई।.......... कल ही................पत्रिका में संकलन की समीक्षा देखी। पढ़कर तुम जरूर आहत होगी, सच कहुँ, मुझे बहुत दुःख हुआ। समीक्षा में कहानियों के पक्ष में कोई भी प्वाइंट नहीं है और एक तरह से समीक्षा फ़तवे के रूप में लिखी गई है तुम इसे अपनी रचनाशीलता पर दिए गए फ़ैसले के रूप में नहीं लेना।
शाँत-चित्त अपनी समीक्षा पढना अगर तुम उससे सहमत नहीं तो इसका अर्थ है समीक्षा अधूरी, इकतरफ़ा है। हाँ समीक्षा में यदि कुछ विचारीय बात मिले तो उसे संकेतक के रूप में ले सकती हो। स्वीकार और अस्वीकार का अधिकार तुम्हारा हैए तुम लिखती रहो।
तुम्हारा संकलन मन की गहराई से छूता है, तुम संवेदनशील लेखिका हो। शीघ्र ही संकलन की समीक्षा लिख, पत्रिकाओं में प्रकाशित कराऊॅंगा ताकि तुम्हारे संकलन को न्याय मिल सके।
याद रखना तुम अकेली नहीं हो, मुझ जैसे कई पाठक तुम्हारे साथ हैं। मुझ पर विश्वास है न?
सस्नेह
तुम्हारा-विशाल
विशाल के पत्र की पक्तियों की सच्चाई भावना के मन को छूती गई थी। विशाल उसके प्रति इतना कंसर्न हो सकता है, यह तो वह कभी सोच भी न सकी थी।
वादे के बावजूद मीरा ने समीक्षा की प्रति, भावना को नहीं भेजी थी। भावना के उत्तर में अपनी सफ़ाई देती मीरा ने लिखा था-
सोचा तुझे दुःख होगा, ऐसी समीक्षा में अर्थहीन मानती हुँ। मेरी राय में जिस पुस्तक की जितनी ही कटु समीक्षा होगी, पाठकों में उसकी उतनी ही अधिक माँग होगी। तुम परेशान न होना।
पत्र के अन्त में मीरा ने सूचित किया था-
आजकल विशाल संकलन की समीक्षाएँ लिख कर पत्रिकाओं को भेज रहा है। कहता है तेरे साथ अन्याय हुआ है। तू उसे पहिचानने में भूल कर गई भावना।
मीरा।
विशाल के प्रति भावना का हृदय कृतज्ञ हो उठा था। उसे पत्र का उत्तर देना सोच ही रही थी कि राकेश ने उसे खुशखबरी सुनाई थी-
चंदा मौसी का पत्र आया है। उनके लाड़ले बेटे मनोज का विवाह है। हमें बहुत आग्रह से बुलाया है।
फिर क्या सोचा है?
मेरा जाना तो पॅासिबिल नहीं होगा, तुम चली जाओ। घर के प्रति दायित्वों का निर्वाह तो करना ही होता है न?
ठीक है, कब जाना है वैसी ही तैयारी करूँ। हाँ इस बार अपने घर, कम से कम पन्द्रह दिन जरूर रहुँगी।
क्यों नहीं, पुराने मित्रों से जो मिलना होगा ठीक कहा न? राकेश ने परिहास किया था।
सोलहो आने सही बात है, बेचारे मेरे गम में सूखकर काँटा जो हो रहे होंगे।
दोनों जोरों से हॅंस पड़े थे।
मौसी के यहाँ शादी निबटते ही भावना, अपने घर जाने को व्याकुल हो गई थी।
ऐसी भी क्या उतावली बहू, चार दिन हमारे साथ और रह लेतीं।
वो तो ठीक है मौसी जी, पर शादी के बाद इतने साल बीत गये, घर जा ही नहीं पाई हुँ इसलिए..........।
ठीक है, मैं समझती हुँ, कल चली जाना। सरोज से कह देती हुँ, तुझे पहॅुंचा आएगी।
घर पहुँचते ही डिपार्टमेंट जाने की भावना बेचैन हो उठी थी। भाभी ने उसे छेड़ा था-
अब वहाँ तेरा चाहने वाला तो कोई बैठा नहीं है, फिर ऐसी बेताबी?
रहने दो भाभी तुम नहीं समझोगी। याद नहीं नेहा डिपार्टमेंट में ही लेक्चरार है और आभा रिसर्च कर रही है। क्या वे मेरी सहेलियाँ नहीं है?
चाह कर भी भावना विशाल का नाम नहीं ले सकी थी, पर उससे मिलने की उत्कंठा मन में सबसे अधिक थी। विशाल के प्रति आभार व्यक्त कैसे कर पाएगी? बहुत सोचकर भी वह शब्द नहीं खोज पा रही थी।
भइया ने उसे कार से यूनीवर्सिटी छोड़ दिया था। डिपार्टमेंट पहॅुंच भावना निराश सी हो उठी थी। यह क्या उसका वही डिपार्टमेंट था? हरी घास के लॅान के स्थान पर, इमारतों के जंगल उग आए थे। तीन वर्षों में ऐसा काया-कल्प? अपरिचित सी खड़ी भावना को नेहा के स्वर ने चैंका दिया था।
अरे भावना तू? अचानक यहाँ?
शओह नेहा! मैं तो यहाँ घबरा ही गई थी सब कुछ कितना बदल गया है। एक नजर में तो पहिचान ही न सकी यह अपना ही डिपार्टमेंट है
हाँ भावना, सचमुच बहुत कुछ बदल गया है। और तू अपनी सुना, कैसी कट रही है अमरीका वाले जीजाजी के साथ?
ठीक हुँ, देखकर नहीं पता लगा? और हाँ तूने अभी तक शादी नही की-कया बात है?
तेरी जैसी भाग्यवान जो नहीं थी कि परीक्षा देते ही कोई अमेरीका उड़ा ले जाता।
चलेगी अमेरिका? सच कहुँ, तेरे लिए तो अमेरिकन लाइन लगा खड़े हो जाएँगे। इस प्यारी साँवली रंगत का बड़ा मोल है वहाँ।
अच्छा-अच्छा अब ये पुराखिनों वाली वातंे छोड़, नहीं जाना है मुझे अमेरिका। अपना देश किससे कम है।
वह तो सच कहा नेहा। कभी घर-परिवार, तुम सबकी इस कदर याद आती है कि बता नहीं सकती।
हाँन-हाँ तभी तो तीन वर्षों बाद हमारी सुध आई है। चल अपने घर चलते हैं, वही चेन से बैठ बातें करेंगे।
और तेरा क्लास.........?
तेरे लिए एक दिन क्लास भी नहीं छोड़ सकती? आ डिपार्टमेंट के पीछे ही क्वार्टर हैं, दो कदम पैदल चल सकेगी न? कार तो यहाँ है नहीं।
अब मज़ाक बन्द कर, तुझसे ज्यादा तेज चल सकती हुँ समझी।
नेहा के कमरे में पहॅुंच भावना उसके पलंग पर जा लेटी थी।
बाप रे, दो कदम कह, एक मील दौड़ा दिया इसलिए तू इतनी स्लिम बनी हुई है। हाँ अब बता यहाँ सब कैसे हैं? हमारे साथ के कौन-कौन लोग हैं यहाँ?
सीधे क्यों नहीं पूछती, विशाल की बात जानना चाहती है न?
सिर्फ़ उसी की क्यों, मैंने तो सबके बारे में पूछा था भावना जैसे सफ़ाई दे रही थी।
विशाल नहीं रहा भावना। एक रात जो सोया, तो सोता ही चला गया..........। नेहा कहीं खो सी गई थी।
क्या..........आ......कैसे..............कब? अभी कुछ दिन पहले ही तो उसका खत मिला था। पलंग पर लेटी भावना चैंककर उठ बैठी थी। पूरा शरीर थरथरा उठा था।
पहले एक कप चाय ले ले। नेहा ने चाय का कप भावना को जबरन पकड़ा दिया था। स्तब्ध ताकती भावना पर दृष्टि डाल नेहा कहती गई थी-
विशाल का लिखा अंतिम पत्र तेरे ही नाम था। बहुत दुःख झेले विशाल ने। लगता है वस दुःख झेलने के लिए ही उसका जन्म हुआ था। नेहा ने उसांस छोड़ी थी।
ऐसा क्या हंअम नेहा? अच्छी-भली यूनिवर्सिटी की लेक्चररशिप थी, शादी भी हो गई थी फिर....?
शादी नहीं, अपनी बर्बादी की थी विशाल ने, काश उसने विवाह न किया होता।
विवाह का उसकी मृत्यु से क्या संबंध है नेहा?
बहुत घना संबंध है भावना। न जाने क्यों स्त्री का केवल कुत्सित-रूप ही विशाल देख पाया। अपनी पत्नी को किसी दूसरे पुरूष के प्रगाढ़ आलिंगन में देखना...... कितना बड़ा आघात झेला होगा, विशाल ने। नेहा जैसे कांप सी उठी थी।
क्या उसने आत्महत्या की है नेहा? गुत्थी का हल ढॅंूढ़ती भावना व्याकुल हो उठी थी।
पुलिस ने तो यही निर्णय दिया है, पर जिन रहस्यमय परिस्थितियों में उसकी मृत्यु हुई है उससे हत्या की संभावना अधिक दृढ़ होती है...........।
डक्या कह रही है नेहा, कौन करेगा उसकी हत्या................?
लोगों को उसकी पत्नी और उसके प्रेमी की साजिश का संदेह है। पति-पत्नी के आपसी संबंध बेहद कटु थे, किसी तरह जीवन घसीट रहे थे।
तो अलग हो जाते। दोनों पढे-लिखे थे। इस तरह जीवन की आहुति देने का अर्थ?
डकभी लगता है वह स्वंय से प्रतिशोध ले रहा था......पत्नी के विश्वासघात के बाद भी आत्महत्या की बात उसने नहीं सोची थी, बेवफ़ा पत्नी के साथ तिल-तिल मरना ही उसका प्रतिशोध होता।
पर प्रतिशोध की धुन में तो उसने स्वयं को ही जला डाला नेहा? कौन सा सुख मिला उसे?
सुख का स्वाद उसने कब लेना चाहा? शायद तूने ही उसे सलाह दी थी-कडुवाहट की आदत डाल लेने से उसमें भी रस आने लग जाता है। नेहा के स्वर में व्यंग घुल आया था।
तुझे यह बात किसने बताई नेहा?
उसकी डायरी से....... वही तो उसकी मनःस्थिति की एकमात्र साक्षी है।
कहाँ है वह डायरी? भावना उत्सुक हो उठी थी।
वह मेरे पास सुरक्षित है, पर उस पर सबसे अधिक जिसका अधिकार बनता है, उसे मैं दे नहीं सकती..........
कैसी पहेलियाँ बुझा रही है नेहा, किसका अधिकार बनता है? कौन है वह?
जिस लड़की को विशाल ने अपने सम्पूर्ण मन से चाहा था, काश वह लड़की उसे मिल पाती तो आज दूसरी ही कहानी होती। अपने नाम को सचमुच सार्थक कर सकता था विशाल, उस जैसे प्रतिभाशाली कितने होंगे भावना?
वह लड़की कहीं तू ही तो नहीं नेहा? हमेशा उसका पक्ष लेती रही.......
काश, वह मैं हो पाती। उसे पा, कोई भी लड़की धन्य हो जाती।
तू उसे इतना चाहती थी नेहा?
शायद तू जितना सोच सकती है उससे भी बहुत ज्यादा..............
फिर विशाल को बताया क्यों नहीं? विवाह कर सकती थी तू उससे, किया क्यों नहीं?
क्योंकि जिस लड़की के प्यार में वह डूबा था उसके बाद और किसी के लिए तिल भर भी जगह बाकी जो नहीं थी।
क्या वह लड़की जानती थी कोई उसे इतना प्यार करता है? कभी एक पल को भी विशाल ने उसे इस बात का आभास होने दिया था? न जाने क्यों भावना अस्थिर सी हो उठी थी।
शायद नहीं, उसके प्रेम का ढंग ही निराला था। जिसे अपने से भी अधिक चाहा, उसका सबसे बड़ा आलोचक बना रहा। कभी उसे संकेत भी न दे सका कि वह उसका पुजारी था।
किसकी बात कर रही है तू? भावना का चेहरा उतर गया था।
सच कह भावना क्या तू कभी न जान सकी, वह तुझे इतना चाहता था? कहते हैं प्रेम छुपाए नहीं छिपता, पर तू तो अन्धी ही बनी रह गई।
मैं विशाल की डायरी देखना चाहती हॅुं नेहा।
क्या करेगी अब एक दुःस्वप्न दोहरा कर?
दुःस्वप्नों में खो नहीं जाऊॅंगी नेहा, मेरा विश्वास कर।
अगर विशाल के प्यार का तुझे पता लग जाता तो क्या उसे स्वीकार कर लेती भावना?
अब इस प्रश्न का क्या कोई अर्थ रह गया है नेहा? भावना का चेहरा जैसे बादलों से ढंक गया था।
फिर डायरी का तेरे लिए क्या अर्थ है भावना?
मैं सिर्फ यह जानना चाहती थी...........। भावना वाक्य पूरा न कर सकी थी।
रहने दे भावना। तेरा वर्तमान, भविष्य सब उज्ज्वल है। विशाल जैसा चाहने वाला, तेरा अतीत भी सुखद बना गया है। क्या इतना सब तेरे लिए काफ़ी नहीं? ढेर सा व्यंग नेहा के स्वर में घुल आया था।
तू तो ऐसे बात कर रही है जैसे विशाल की मृत्यु में मेरा हाथ था। भावना का स्वर बेहद आहत था।
अपराधी न होते हुए भी, तेरे चले जाने के बाद विशाल की भटकन, उसकी तड़प के कारण तुझ पर बहुत गुस्सा आया हैए भावना। तुझे खोकर, कुछ भी पाने की उसकी चाहत ही खत्म हो गई थी, वर्ना जिस माँ ने जिदगी भर उसे सताया उसकी सुझाई लड़की से विवाह कर, अपना जीवन यूँ व्यर्थ करता?
जिसने उसके इकतरफ़े प्यार को जाना ही नहीं, उसे दोष देना क्या ठीक है नेहा? विशाल के प्यार में क्या तू मेरे साथ अन्याय नहीं कर रही है? भावना का स्वर भीग आया था।
आई एम सरी भावना। सच, उसके अन्दर की बात कौन जान सका? बाहर से एकदम सामान्य दिखता रहा और अन्दर उसके सपनों के देवदार धू-धू जलते रहे।
उसकी पत्नी कहाँ है नेहा?
उसे पत्नी मत कह भावना। विशाल की मृत्यु के दिन ही घर छोड़ चली गई थी। हाँ शव का पोस्टमार्टम न हो सके, इसकी पक्की व्यवस्था कर गई थी। सुना है उसका भाई पुलिस का ऊंचा अफ़सर है।
।एक बात बताएगी नेहा, डायरी किस तारीख से लिखी गई है................
वह सब जानकर क्या करेगी भावना? जिसका अस्तित्व ही शेष नहीं, उसको भावनाएँ जानने से फायदा?
अब समझती हॅूं नेहा, विशाल का अस्तित्व हमेशा मुझ पर इस कदर हावी रहा कि उससे बहुत दूर जाने को फड़फड़ाती रही। पहली आपरच्यूनिटी मिलते ही अमेरिका भाग गई..............
जो तू भूल गई, उसे दोबारा याद करना अपराध है भावना। विशाल की डायरी उसकी अंतिम धरोहर है, उसे अपने पास तू चोरी से ही रखेगी न? इस डायरी को मेरे पास ही रहने दे, इसे मैं बहुत सहेजकर रखॅंूगी। विशाल को न पा सकी, उसके अंतिम क्षण मेरे साथ सहज रहेंगे भावना...........प्लीज......।
तू ठीक कह रही है नेहा। जिसे हमेशा शत्रु माना, आज उस पर अधिकार जमाने चली थी। विशाल को सिर्फ तूने पहिचाना था उसकी हर चीज पर सिर्फ़ तेरा अधिकार है नेहा.......... सिर्फ तेरा। काश व तुझे समझ पाता........... मुझे माफ़ कर दे नेहा।
भावना। छलछला आई आँखों के साथ नेहा, भावना के गले से लिपट गई थी।
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Bahot achchhi story hai.
ReplyDeleteTouching story
ReplyDeleteReading one story after another...story..is is getting more intereating
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