7/17/13
बाहों में आकाष
बाहों में आकाष
‘‘कौन कित्ती? हाय ! कैसी है लन्दन जाकर हमे एकदम भुला ही दिया। एक चिट्टी डालने की भी फुर्सत नहीं मिली?’’ फोन पर कृतिका की आवाज सुन दीपा चहक उठी।
‘‘दीपा...।’’
‘‘हाँ-हाँ, मैं दीपा ही बोल रही हँू, अब चालू भी हो जा यार। इतना लम्बा हनीमून कर डाला कि अपनांे को भूल ही गई।’’
‘‘दीप, तू अच्छी है न’’।
‘‘हाँ भई, क्या मेरी आवाज से पता नहीं चल रहा? एकदम फिट हूँ।’’
‘‘तू लकी है, पर मैं तो एकदम अकेली पड़ गई दीपा।’’
‘‘ओह, कम आॅन। तू कब बड़ी होगी? अरे इसे अकेलापन कहते हैं, हर घड़ी साथ में चाहने वाला पति हो तो दूसरे किसी की क्या जरूर पड़ती है।’’
‘‘नहीं दीपा, सच मैं बहुत अकेली हूँ... बहुत अकेली...’’
‘‘क्यांे तेरे साहब किसी और के साथ इष्क फ़र्मा रहे हैं और तुझे अकेला छोड़ दिया है? वैसे तुझ जैसी सुन्दर बीवी को पा, वह धन्य होंगे।’’
‘‘मैंने ऐसा जीवन कब चाहा था दीपा?’’ कित्ती की आवाज रूंध गई थी।
‘‘ऐ कित्ती, ये क्या माज़रा है, अब ये रोने-धोने की आदत छोड़, बहुत हो गया बचपना।’’
‘‘सच दीपा, ये मेरा बचपना नहीं, सच्चाई है।’’ आखिरी बात कहती कृत्तिका रो पड़ी।
‘‘कित्ती, क्या हुआ ? ठीक-ठीक बता। देख मैं परेषान हो रही हूँ।’’ कृतिका की ओर से कोई जवाब न पा, दीपा सचमुच परेषान हो उठी।
‘‘कित्ती, तू मुझे सुन रही है न? बता न क्या बात है?’’
‘‘कुछ नहीं दीपा तेरी आवाज़ सुन बस यूँ ही रोने का जी हो आया।’’
धत्तेरे की तू और तेरा जी। अरे मैं तो डर ही गई थी। हाँ अब अगर दिमाग ठिकाने आ गया हो तो कुछ अपने सुरेष की बता।’’
‘‘ठीक हैं... ’’
‘‘ क्या मतलब ठीक से ज्य़ादा और कुछ नहीं?
‘‘और क्या हो सकते हैं?
‘‘राजीव के मुकाबले में कैसे हैं?’’
‘‘छिः दीपा, अब उन बातों को क्या दोहराना...वो बातें तो...’’
‘‘स्वप्न हो गई, क्यों ठीक कहा न?...’’
‘‘पहले भी तो वो बातें स्वप्न ही थीं, कभी न सच होने वाला सपना...’’ कित्ती की आवाज़ टूट-सी गई।
‘‘वाह! रोज़ घंटों बातें करना, साथ घूमना, क्या उन बातों को स्वप्न मानती है?’’ दीपा हँस रही थी।
‘‘छोड़ दीप, भूली बातें क्या दोहराना?’’
‘‘सच कह, वो बातें भूल सकी है कित्ती?’’
‘‘षायद सुरेष आ गए...’’ उधर से अचानक ही फोन कट गया।
कृतिका से बातें करने के बाद दीपा परेषान हो उठी। षादी के पाँच महीनों में न उसका कोई खत आया, न खबर। आज फोन पर भी कित्ती उखड़ी-उखड़ी, बल्कि डरी-सी थी वर्ना किसी के आने पर उस तरह फोन क्यों काट देती?
एम. बी. बी. एस. कर रही लड़कियों में कित्ती सबसे अलग थी। सारी लड़कियाँ जब वी. सी. आर. पर कोई फिल्म लगा एन्ज्वाॅय करतीं, कित्ती किसी मार्मिक कहानी में डूबी, नायिका के लिए आँसू बहाती। उसकी भावुकता लड़कियों को परेषान कर जाती। दीपा उसकी रूममेट थी। अचानक रात में कित्ती की सिसकियाँ दीपा को जगा देतीं। दीपा की नाराज़गी पर माफ़ी माँगती कित्ती किस मासूमियत से कहती-
‘‘कहानी का नायक नहीं रहा दीप, अब नायिका कैसे जी सकेगी, इसलिए रोना आ गया।’’
लड़कियों के सामने दीपा षिकायत करती-‘‘इस कित्ती ने नाक में दम कर रखा हैं। पूरे दिन की मेहनत के बाद रात में इसकी कहानी के नायक-नायिका सोने भी नहीं देते।’’
‘‘तू अपना कमरा क्यों नहीं बदल लेती?’’ प्रतिमा सलाह देती।
‘‘न-न-भूलकर भी यह बात कित्ती के सामने मत कहना वर्ना वह पगली रो-रो कर आफ़त कर देगी।’’
‘‘उम्र भले ही बीस के ऊपर हो, पर मन से एकदम भोली बच्ची है।’’ दीपा कित्ती को खूब समझती थी।
‘‘तू ही है जो उसे झेल रही है। उसे तो अपनी अम्मी के आँचल में लिपटकर सोना चाहिए था, बेकार इत्ती दूर होस्टल में रहने आई है।’’ नेहा नाराज़ होती।
‘‘अरे इकलौती संतान ऐसी ही होती है। घर में उनकी हर बात पूरी की जाती है सो दिमाग सातवें आसमान पर रहता है। एकाध भाई-बहन होता तो देखती।’’ अपनी पाँच बहनों की खीझ कल्पना अक्सर इसी तरह निकालती।
‘‘तेरी यह बात तो ठीक नहीं। कित्ती भावुक ज़रूर है, पर उसका दिमाग़ सातवें आसमान पर कभी नहीं रहता।’’ दीपा विरोध करती।
‘‘अरे वह तो हम सबसे ज़्यादा इस ज़मीन से जुड़ी लड़की है। हममंें से किसका यह सपना है गेहूँ धोकर छत पर फैलाएँ।’’
अणिमा की बात सच थी। दीपा के सपने उसी की तरह सबसे अलग थे। सास-ननद, जेठ-जिठानी से भरा-पूरा खुषहाल घर। सबकी दुलारी बहू कित्ती, घर के सामने तुलसी चैरे में लहलहाते हरे तुलसी के बिरवे को लाल बिन्दी और लाल पाड़ वाली साड़ी में माथा टेक, तुलसी का आर्षीवाद पाएगी। पीठ पर धुले बाल फैलाए, गीत गुनगुनाती कित्ती, जाड़ांे की गुनगुनी धूप में गेहूँ फैलाती कित्ती, सास को रामायण सुनाती कित्ती-बस ऐसे होते उसके सपने। लड़कियों के बीच कित्ती के सपनों की खूब मजा़क उड़ाई जाती-
‘‘ऐ कित्ती तूने तो मेडिकल काॅलेज में बेकार एडमीषन ले, एक सीट बर्बाद की। कहीं रामायण का पाठ करती तो ज़्यादा नाम कमा लेती।’’
‘‘तुम तो ऐसे कहती हो जैसे रामायण का पाठ कोई गलत काम है।ं’’ कित्ती तिनकती।
‘‘राम-राम रामायण तो मोक्ष पाने का रास्ता है, वह काम गलत कैसे हो सकता है?’’ लड़कियाँ हँसतीं।
कृतिका के घर धन-सम्पत्ति की कमी नहीं थी, पर उसकी बिरादरी में लड़कियों की पढ़ाई अनोखी बात ज़रूर समझी जाती। बिरादरी के अधिकांष घरों में लड़के भी पढ़ाई की जगह तेल निकालने-बेचने के पुष्तौनी व्यापार में लग जाते। गिनती के पढ़े-लिखे नौकरी वाले लड़को के लिए लाखों की बोलियाँ लगाई जातीं। वैसे माहौल में लड़की होकर भी कृतिका का डाॅक्टरी पढ़ना एक अजूबा ही था। वस्तुतः उसकी माँ बेटी की उच्च षिक्षा के पक्ष में कभी नहीं थीं, पर पापा के नेता मित्र विष्णुदेव ने कित्ती की मेधा पहचानी थी। उसकी षिक्षा के लिए ज़ोरदार वकालत की थी -
‘‘वासुदेव, अब दुनिया बदल रही है। षिक्षित लड़की पूरे घर का अँधेरा दूर कर सकती है। मेरी बात मानो कित्ती की पढ़ाई में बाधा मत बनना। वह बहुत ज़हीन लड़की है, उसे खूब पढ़ाना।’’
कृतिका विष्णु काका की सदैव आभारी रही। हर परीक्षा में उच्च अंक पाती कृतिका को बारहवीं कक्षा में बाॅयलोजी विड्ढय में षत-प्रतिषत अंक मिले थे। मैट्रिक कक्षा से उसे राष्ट्रीय छात्रवृत्ति मिलती आई थी। कृतिका ने दक्षिण के प्रसिद्ध बेलोर मेडिकल काॅलेज में प्रवेष लिया था। इस काॅलेज में केवल प्रतिभाषाली छात्र-छात्राओं का प्रवेष ही सम्भव था।
काॅलेज में दीपा ही कित्ती की सबसे घनिष्ठ सहेली थी। दीपा जैसी प्रैक्टिकल लड़की की कित्ती जैसी भावुक लड़की से मित्रता को लेकर लड़कियों में मज़ाक चलती-
‘‘इसमें ताज्जुब की बात ही क्या है, विपरीत चीजें़ ही एक-दूसरे को आकृष्ट करती हैं।’’ अणिमा निर्णय देती।
‘‘हाँ, अगर नाॅर्थ पोल और साउथ पोल के बीच आकड्र्ढण न होता तो क्या यह धरती स्थिर रह पाती?’’
‘‘धत्तेरे की नेहा, तू हर बात में अपना भौगोलिक ज्ञान ही बघारती है।’’ नेहा की पीठ पर धौल जमाती दीपा हँसती।
‘‘हाँ, इसे तो ज्योग्रैफ़ी में एम.ए. करना था...।’’
‘‘अरे मेरी छोड़ो, पर एक बात निष्चित है, अपनी कित्ती को जरू़र हिन्दी साहित्य में पी.एच.डी. करनी चाहिए थी। विरहणी की कल्पना सार्थक कर देती।’’
‘‘सिर्फ विरहणी की कल्पना ही क्यों, वह तो रसिका नायिका के रूप में जमती।’’ सब खिलखिला कर हँस पड़ी।
‘‘ऐसी कृतिका ने मेडिकल प्रोफेषन में आने की क्यों सोची? बचपन में उसे डाॅक्टर का भय दिखा, जबरन दूध पिलाया जाता। डाक्टर नाम का वो भय, अमृता प्रीतम के उपन्यास डाॅ. देव ने छू-मंतर कर दिया। ऐसे होते हैं डाॅक्टर? इतना टूट कर कोई किसी को चाह सकता है? बस तभी उसने डाॅक्टर बनने का निर्णय ले डाला था। उसके उस निर्णय पर घर वाले भी चैंक गए थे। वो कोमल-सी लड़की मुर्दे काट पाएगी, पर कित्ती में यही खास बात थी जो सोच लिया, कर के रहेगी। पिता की आकांक्षा थी बेटी किसी इंजीनियर से षादी करे ताकि दामाद घर का बिजनेस सम्हाले, पर कृतिका की इच्छा के आगे उन्हें विवष होना पड़ा। उसी साहित्यानुरागी कृतिका ने लगभग सभी मेडिकल प्रवेष परिक्षाओं में सफलता पा, अन्ततः सुदूर दक्षिण के इस मेडिकल काॅलेज को अध्ययन के लिए चुना था।
इन्टरव्यू देेने आने वाली लड़कियों में दीपा भी थी। मद्रास की दीपा और उत्तर से पहुँची कृतिका, एक ही होटल में ठहरी थीं। दोनों का वहीं परिचय हुआ था। बाहर का खाना खा, पहले ही दिन कृतिका का पेट खराब हो गया, साथ में तेज बुखार से उसके पापा तो घबरा ही गए थे। उस वक्त दीपा ने उसकी कितनी मदद की थी। अपनी दूर के रिष्ते की चाची के घर से उसके लिए खिचड़ी लाकर, कृतिका को जबदस्ती खिलाई थी। इलेक्ट्राॅल और दीपा की परिचर्या के कारण कृतिका इन्टरव्यू के समय स्वस्थ हो सकी। तब का परिचय, होस्टल में रहते प्रगाढ़ मैत्री में बदल चुका था। दीपा के सामान्य रूप के सामने कृतिका का मनोहारी रूप और भी अधिक आकड्र्ढक बन जाता। अपने आकड्र्ढक रूप के बावजूद उसका असामान्य व्यवहार उसकी लोकप्रियता में बाधक था। षायद कल्पना के कथन में कुछ हद तक सच्चाई थी। कृतिका की जि़द रहती, उसे जो अच्छा लगे, मिलना ही चाहिए। उसकी इच्छा-पूर्ति ज़रूरी षर्त होती। असफलता कित्ती को बहेद क्षुब्ध कर जाती। कई दिनों तक अपने दुःख में डूबी कित्ती को लड़कियाँ झेल नहीं पातीं।
वही कित्ती अपने साथ के राजीव पर मर-मिटी थी। हर परीक्षा में सर्वोच्च स्थान पाने वाला राजीव, साथ के अन्य लड़कों से बहुत अलग था। पुस्तकों में सिर झुकाए उसे कभी नहीं देखा गया, पर न जाने कब वह पूरी किताबें ऐेसे चाट जाता कि हर सवाल का जवाब उसके पास मिलता। उच्च कुलीन राजीव के चेहरे पर अद्भुत गरिमा रहती। षुरू-षुरू में कृतिका में उसकी रूचि नहीं थी, पर उसे पा लेने की अदम्य आकांक्षा के साथ कृतिका उसकी ओर खिंचती गई थी।
राजीव से कित्ती की पहली भेंट अजीबोगरीब थी। लाइब्रेरी में दोनों एक किताब के लिए लड़ बैठे थे। कित्ती का दावा था, किताब उसने रैक से उठाई और राजीव का कहना था-वो किताब उसने कल ही वहाँ रखी था ताकि आज उसे ले सके...। कित्ती नाराज़ हो उठी।
‘‘वाह ये आपकी अच्छी दलील है। यहाँ हजारों किताबें हैं, आप किसी भी किताब का दावा कर सकते हैं कि आपने ही वह उस जगह रखी थीं।
‘‘जी नहीं, मैं आप जैसा नहीं, जो ऐसी बेसिर-पैर की बात करूँ। आप लाइबे्ररियन से पूछ लें, कल वहाँ किताब मैंने रखी थी ताकि आज उसे अपने नाम इष्यू करा सकूँ?’’
‘‘तो कल ही उसे क्यों नहेीं अपने नाम करा लिया।’’
‘‘क्योंकि कल के मेरे कोटे में किताबें पूरी हो चुकी थीं। वैसे आप जैसी लड़की के साथ बेकार सिर खपाने से अच्छा है, बुक आप ही ले जाइए भले ही पढ़ें या न पढ़ें। आपकी मर्जीं।’’
‘‘क्या मतलब अपका, मैं सिर्फ दिखाने के लिए किताब ले जा रही हूँ?’’ कित्ती का उत्तेजित लाल मुँह बेहद आकड्र्ढण बन पड़ा था।
‘‘जी हाँ, मुझे मालूम है जिद में आप यह किताब ले जा रही हैं। लड़कियों को रात में टी.वी. देखने से फुर्सत मिले तब न पढ़ेंगी?’’
‘‘टू हेल विद योर बुक।’’ पाँव पटकती कित्ती बाहर चली गई थी। परीक्षा परिणाम जब घोड्ढित हुए तो राजीव ने कित्ती को बधाई दी थी-
‘‘मुझे उस दिन सचमुच नहीं पता था, आप ही मेरी प्रतिद्वंद्विनी हैं।’’
‘‘मैं आपकी न मित्र हूँ, न प्रतिद्वंद्वी, मेरा आपसे कोई रिष्ता नहीं।’’
‘‘वाह आपके साथ डर का रिष्ता तो हमेषा बना रहेगा।’’
‘‘नहीं जनाब आपको मुझसे डरने की कतई ज़रूरत नहीं, मैं आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती।’’
‘‘अगर आप चाहें तो मुझे चोटी से नीचे तो ज़रूर धकेल सकती हैं।’’
‘‘व्हाॅट रबिष।’’
‘‘बिल्कुल ठीक कह रहा हूँ, अब देखिए आप मुझसे बस दो नम्बर पीछे हैं, जब चाहेंगी टाॅप से दूसरे नम्बर पर आसानी से धकेल सकती हैं न?’’ राजीव मुस्करा रहा था।
‘‘ओह रियली? आपका मतलब मेरी सेकेंड पोजीषन है?’’
‘‘जी हाँ, मेरी बधाई। उस दिन मैंने आपको गलत जज किया, मैं समझा आप भी ज्यादातर लड़कियों की तरह सिर्फ...’’
‘‘यानी अगर आप उस दिन मुझे वो किताब लेने देते तो टाॅप मैं ही करतीं।’’
दोनों जी खोलकर हँस पडे़ थे। उस दिन के बाद से राजीव अक्सर कित्ती से बातें करने लगा था। राजीव की मेधा, हाजिर जवाबी ने कित्ती को मुग्ध किया। वह राजीव के पीछे पागल-सी हो उठी। राजीव को कित्ती का साथ अच्छा लगता। काॅलेज पिकनिक, पार्टीज में कित्ती के साथ दीपा, राजीव और रोहित रहते। चारों की मित्रता साथियों में मषहूर थी।
राजीव के माता-पिता पुराने विचारों वाले व्यक्ति थे। अपने कुल-गोत्र के प्रति वे बेहद सजग थे। स्वयं राजीव को अपने उच्च कुल-गोत्र पर गर्व था। कई बार बातों-बातों में उसके मुँह से निकल गया था कि वह उच्च कुल गोत्र वाली ब्राह्मण लड़की से ही विवाह करेगा। उसकी वे बातें कित्ती का मुँह मलिन कर जातीं।
‘‘सिर्फ जाति से ही इंसान ऊँचा-नीचा, अच्छा-बुरा नहीं बनता राजीव। उसके अपने गुण अधिक महत्वपूर्ण होते हैं।’’
‘‘उच्च कुलीन लड़की के संस्कार भी अच्छे ही होंगे।’’,
‘‘कभी-कभी ऊँची टुकान के पकवान फीके होते हैं।’’ दीपा कित्ती का साथ देती।
‘‘हो सकता है, पर विवाह के मामले में मैं अपने माँ-बाबा की बात को ही महत्व दूँगा।’’
एकान्त में दीपा कित्ती को समझती वह राजीव का ख्याल छोड़ दे, पर कित्ती पर उसकी बातों का असर नहीं पड़ता। उसे राजीव में अपने स्वप्न साकार होते दिखाई देते। दीपा झुंझलाती।
‘‘ये सब रोमांटिक कहानियों का नतीजा है, जिन्दगी में कोरी भावकुता काम नहींे देती। इंसान को पै्रक्टिकल होना चाहिए। राजीव का ख्याल छोड़ दे वर्ना फिर दिल टूटेगा।’’
‘‘मैं उसके लिए तैयार हूँ, विवाह करूँगी तो बस राजीव से वर्ना षादी ही नहीं करूँगी।’’
‘‘देख लूँगी, तेरी यह बात भी कितनी सच होती है।’’ दीपा चैलेंज करती।
एक रात इमर्जेंसी वाॅर्ड में राजीव के साथ कृतिका को ड्यूटी करनी थी। पिछली दो रातें भी कित्ती ने करीब जागकर बिताई थीं। कित्ती को देख राजीव ने पूछा था-
‘‘रात को जाग सकेंगी, यह इमर्जेंसी वार्ड है?’’
‘‘थैंक्स! अगर आप न बताते तो षायद हम जान भी न पाते यह इमर्जेंसी वार्ड है।’’ राजीव के व्यंग ने कित्ती को तिलमिला दिया। क्या समझता है यह अपने आप को? सच तो यह है कई बार कित्ती के साथ ड्यूटी करता रोहित सो जाता और कित्ती बिना थके पूरी रात जागती रहती।
उस दिन भी कित्ती जम कर बैठ गई, उसे किसी भी हालत में नहीं सोना था। अक्सर अच्छी किस्मत वालों की ड्यूटी में इतने कम मरीज़ आते कि इंटर्नस आराम से सो लेते, पर कित्ती की किस्मत में आराम नहीं था। दीपा जब भी बताती वह रात में कितने आराम से सोई तो कित्ती चिढ़ जाती। काष कभी उसकी नाइट ड्यूटी में भी कम मरीज़ आते, पर षायद सारे मरीज़ इसी इंतजार में रहते कब कित्ती की ड्यूटी लगे और वे एक के बाद एक कर पूरी रात आते रहें।
उस रात भी एक के बाद एक मरीज़ आते जा रहे थे। कित्ती पूरी सावधानी के साथ काम कर रही थी। तभी एक एक्सीडेंट का केस आया था। पति-पत्नी के साथ एक नन्हा षिषु था। ट्रक के साथ स्कूटर की टक्कर में पति-पत्नी दोनों की आॅन दि स्पाॅट मृत्यु हो गई थी, पर वह नन्हा षिषु छिटककर दूर जा गिरा था। अपने दुर्भाग्य से अनजान, वह प्यारा बच्चा कित्ती को देख मुस्करा दिया। कित्ती की आँखों में आँसू आ गए-
‘‘अब इस बच्चे का क्या होगा, राजीव?’’
‘‘कोई रिष्तेदार आकर ले जाएगा नही तो अनाथ-आश्रम भेज दिया जाएगा।’’ सपाट आवाज़ में राजीव ने जवाब दिया था।
‘‘तुम इतने पत्थर-दिल कैसे हो सकते हो?’’
‘‘डाॅक्टर हो तो डाॅक्टर बनकर रहो वर्ना घर वापस चली जाओ और षादी करके बच्चे पालो। हाँ, चाहो तो इस बच्चे को भी एडाॅप्ट कर सकती हो।’’
‘‘हाऊ डेयर यू टाक लाइक दिस? हम क्या करें, क्या न करें, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं।’’
तभी बच्चा रोने लगा। उसे गोद में उठा कित्ती ने चुमकारना षुरू किया, पर बच्चा था कि रोए ही जा रहा था। कित्ती परेषान हो उठी।
‘‘लगता है इसके पेट में दर्द है...क्या करें?’’
‘‘वाह! अच्छी लड़की हो। इसके पेट में दर्द नहीं है, बल्कि इसका पेट खाली है। इसे दूध चाहिए मैडम।’’ राजीव के ओंठों पर मुस्कान थी।
सच! कित्ती क्यों नहीं समझ पाई। अब वह क्या करें? नर्स से दूध के इंतज़ाम की बात कह, वह फिर अपनी जगह आ बैठी। उसके चेहरे पर छाई बेचैनी देख षायद राजीव को तरस आ गया-
‘‘रिलैक्स, माई डियर। यही जिन्दगी है। इस तरह अपसेट होने से इस प्रोफ़ेषन में सरवाइव कैसे कर पाओगी?’’
न जाने राजीव की सहानुभूति का असर था या बच्चे का लगातार चलने वाला रूदन, कित्ती भी रो पड़ी। काष! दीपा वहाँ होती तो कित्ती की कमज़ोरी पर एक ज़ोरदार लेक्चर दे डालती।
बिना कुछ कहे राजीव बाहर चला गया था। कुछ देर बाद हाथ में गर्म काॅफ़ी के मग के साथ राजीव अन्दर आया था।
‘‘काॅफ़ी पी लो, अच्छा महसूस करोगी।’’
‘‘थैंक्स। हमें काॅफ़ी नहीं चाहिए।’’
कम से कम यह तो सोचो इतनी तकलीफ उठाकर कोई तुम्हारे लिए काॅफ़ी लाया है।’’
‘‘हम अच्छी लड़की नहीं हैं, राजीव।’’
‘‘तो आज बन जाओ। नेक काम में देर ठीक नहीं, कम आॅन, बी ए गुड गर्ल।’’ प्यार से राजीव ने कित्ती को मग थमाया था।
नर्स ने आकार बताया- ‘‘बेबी दूध पीकर सो गया। लवली चाइल्ड।’’
पुलिस आ चुकी थी। कानूनी कार्रवाई के लिए पति-पत्नी का पोस्ट मार्टम किया जाना ज़रूरी था। पूरी रात व्यस्तता में बीत गई। सुबह सूजी आँखों के साथ कित्ती होस्टल पहुँची थी। दीपा माॅर्निंग षिफ़्ट में जा चुकी थी। करवटें बदलती कित्ती रात की घटनाएँ-बातें दोहराती रही। न जाने कितनी देर बाद सो सकी थी।
काॅलेज के प्राइज़ एक्ज़ाम्स जैसे कित्ती या राजीव के नाम लिखे रहतें। कभी किसी एक्ज़ाम में राजीव पहले नम्बर पर रहता तो कित्ती मायूस हो जाती। दूसरे प्राइज एक्ज़ाम के लिए वह जी जान से जुट जाती। जब तक वह राजीव को पराजित न कर लेती, उसे चैन नहीं पड़ता। दीपा को दोनों की इस प्रतिद्वन्द्विता से डर लगता।
‘‘सारा काॅलेज जानता है तू बहुत अक्लमंद है, पर राजीव के साथ कम्पटीषन के बिना क्या तुझे चैन नहीं पड़ सकता? आखिर इस प्रतिद्वन्द्विता से क्या मिलने वाला है।ं’’
‘‘राजीव का ख़्याल है लड़कियाँ गुड फ़ाॅर नथिंग होती हैं, उसकी इसी धारणा को ग़लत सिद्ध करना है।’’
‘‘उसके सोच को ग़लत सिद्ध करके तुझे क्या मिलने वाला है कित्ती?’’
‘‘चैन और सुख।’’
‘‘भाड़ में जाए तेरा सुख और चैन। जिस दिन हारेगी रो-रो कर परेषान कर डालेगी।’’ दीपा हार जाती।
काॅलेज की पिकनिक को लेकर ख़ासा उत्साह था। राजीव को चाहने वालों में दिव्या चावला का नाम सबसे ऊपर था। अपनी हर कोषिषों के बावजूद वह राजीव का दिल जीत पाने में असमर्थ रही थी। लड़के जब उसका नाम लेकर राजीव पर छींटाकषी करते तो न जाने क्यों कित्ती को अच्छा न लगता। उस दिन भी बस में दिव्या राजीव के साथ वाली सीट पर बैठी थी। षायद यह लड़कों की पूर्व नियोजित योजना थी कि राजीव के साथ दिव्या ही बैठे। पीछे से गीत षुरू हो गए। ज़यादातर गीत राजीव और दिव्या की जोड़ी को लेकर गाए जा रहे थे। कित्ती का मूड अचानक बेहद खराब हो आया।
पिकनिक स्पाॅट काफ़ी खूबसूरत था। एक ओर हरे जंगल, दूसरी ओर नदी का छल-छल बहता पानी, लड़के-लड़कियाँ गु्रपों में बँट गए। दीप्ति, अणिमा, कल्पना, दीपा और कित्ती नदी के पानी में उतर गईं। सामने लड़कों ने चेतावनी दी थी-
‘‘सम्हाल के मोहतरमा पानी में भँवर है, फँस गईं तो बचाने के लिए हमे पुकारना न भूलें।’’ गौतम ने आवाज़ लगाई थी।
‘‘क्या बात करते हो गौतम, अरे आवाज़ उन्हें दी जाती है जो बचाने की सामथ्र्य रखते हों।’’ दीप्ति नहले पर दहला थी।
खाने के पहले अंताक्षरी का प्रोग्राम बन गया। लड़कियों की टीम की लीडर दीपा थी, लड़कों की टीम का नेतृत्व राजीव कर रहा था। दोनों ओर से गाए जाने वाले गीतों से वनांचल गूँज उठा। लड़कोें की टीम में राॅबिन भारी पड़ रहा था। हर गीत का जवाब उसके पास था। आखिरी गीत पर लड़कियाँ चुप पड़ गईं, किसी को कोई पंक्ति याद ही नहीं आ रही थी कि अचानक कित्ती का मीठा स्वर मुखरित हो उठा। उस स्वर ने सबको विस्मय-विमुग्ध कर दिया। सचमुच कित्ती जैसी लड़की इतने लोगों के सामने गा भी सकती है। यह अचरज की बात थी-
राजीव की ताली ने सबकी तंद्राभंग की थी-
‘‘यानी एलिस गा भी सकती है। हम तो यही जानते थे, वह अपने वंडरलैंड में खोई रहती है।’’ राजीव की मुग्ध दृष्टि और प्रषंसा से कित्ती अपने में सिमट-सी गई।
सच, यह कैसे हो गया? अम्मा के लाख सिर पटकने पर भी कित्ती ने कभी किसी को गाना नहीं सुनाया, पर आज न जाने किस अज्ञात षक्ति ने उसे गीत गाने को विवष कर दिया। षायद टीम के हार जाने का उसे भय था और पराजय ने उसे हमेषा कुछ कर गुजरने को उकसाया है। वस्तुस्थिति का ज्ञान होते ही कित्ती का मुँह लाल हो आया। सहेलियों के विस्मय और षाबाषी को सह पाना कठिन लगा था। सबकी नज़रें बचा कित्ती अकेली जंगल की ओर बढ़ गई। एक पेड़ के नीचे बैठी कित्ती अपने रक्ताभ मुँह के साथ अपूर्व लग रही थी। न जाने कितनी देर कित्ती वहाँ बैठी रह गई कि एकदम पास से आई राजीव की आवाज़ ने उसे चैंका दिया-
‘‘एलिस इन वंडर लैंड, की कहानी षायद तुम जैसी किसी लड़की को देखकर लिखी गई होगी।’’
‘‘हम एलिस नहीं, कृतिका हैं। दूसरी बात हमारा कोई वंडर लैंड नहीं है।’’
‘‘कल्पना-लोक को वंडर लैंड ही कहा जाता है। हाँ तो देव कन्या, इस जंगल में अकेली किसी देव-पुरूड्ढ से मिलने की कामना कर रही थीं?’’
‘‘हम क्या कामना करते हैं, इट्स नन आॅफ़ योर बिजनेस मिस्टर राजीव।’’
‘‘वैसे इस वक्त तो आपके लिए देव-पुरूड्ढ बनकर ही आया हूँ वर्ना षायद कुछ देर बाद आपका हरण ज़रूर हो जाता’’।
‘‘मेरा हरण?’’
‘‘जी हाँ। जानती नहीं, यहाँ से कई लड़कियाँ किडनैप की जा चुकी हैं।’’
‘‘इसलिए पिकनिक के लिए यह जगह ख़ास तौर से चुनी गई है।’’ कित्ती की आवाज़ में व्यंग था।
‘‘जी हाँ, और इसीलिए बार-बार वार्न किया गया था कि कोई भी लड़की अकेली कहीं न जाए, पर आप तो न जाने किस दुनिया में रमी रहती हैं।’’
‘‘आप यहाँ कैसे आ गए?’’
‘‘अचानक तुम्हारी एबसेंस महसूस की, समझ गया तुम ज़रूर कोई करिष्मा दिखाने वाले हो। बस तुम्हें खोजता यहाँ तक चला आया।’’
‘‘थैंक्स फ़ाॅर दिस कंसर्न। वैसे तुम्हारी इस कहानी पर विष्वास कर लूँ, उतनी मूर्ख नहीं हूँ।’’
‘‘सचमुच मैंने ग़लती की, एक बार अपनी नादानी का सबक तुम्हें मिलना ही चाहिए।’’ तेज़ी से मुडकर राजीव चल दिया।
चारों ओर पसरे सन्नाटे पर दृष्टि डालती कित्ती सचमुच डर गई। तेज़ी से उठ, राजीव को पुकारा था-
‘‘राजीव, ठहरो। हम भी आ रहे हैं।’’
राजीव रूका नहीं पर कित्ती उसके पास पहुँच गई थी।
‘‘हमें माफ़ कर दो राजीव। तुमने ठीक कहा था, यह जगह सेफ़ नहीं। आई एम साॅरी।’’
‘‘इट्स ओ. के.।’’ तेज़ कदम बढाता राजीव लड़कों के साथ जा मिला था।
कित्ती को देख लड़कयिाँ चीख पड़ी। दीपा ने पास आ, नाराज़गी जताई थी।
‘‘ऐ कित्ती, तू कहाँ गायब हो गई थी? जानती है हम तेरे लिए कितने परेषान थे।’’
‘‘ज़रूर यह अपनी विरहणी राधा को खोज रही होगी।’’ अणिमा गम्भीरता से बोली थी।
‘‘न, न! राधा नहीं सीता मइया के साथ अपने राम और लक्ष्मण को ढूँढ़ रही थी। ठीक कहा न कित्ती?’’ दीप्ति ओंठ दबाए अपनी हँसी रोक रही थी।
‘‘हमें तो लगता हैं कित्ती किसी नायक के साथ वन-पथ पर गई थी।’’ दिव्या के ईष्र्या युक्त षब्दों में षायद सच्चाई की झलक थी। राजीव के साथ आती कित्ती को उसने ज़रूर देख लिया था।
लौटते समय कित्ती षान्त बनी रही। एक-दो बार राजीव की दृष्टि ज़रूर मिली। दृष्टि मिलते ही कित्ती रोमांचित हो उठती। राजीव भी मौन था। होस्टल पहुँच दीपा ने कित्ती को कुरेदा था-
‘‘सच बता क्या हुआ?’’
‘‘कुछ नहीं दीपा।’’
‘‘तू झूठ नहीं बोल सकती कित्ती। अपनी दीपा को भी नहीं बताएगी?’’
कित्ती से पूरी बात सुन, दीपा सोच में पड़ गई। भोली कित्ती अनजाने ही राजीव को चाहने लगी है, पर राजीव की ओर से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला था।
एक सुबह कित्ती को गाजर घिसते देख दीपा चैंक उठी-
‘‘यह क्या, गाजर क्यों घिस रही है?’’ तू तो कुकिंग में कभी इंटरेस्टेड नहीं थी कित्ती।
‘‘गाजर का हलवा बना रहे हैं।’’ बड़ी मासूमियत से अपनी बड़ी-बड़ी आँखें ऊपर उठा कित्ती ने जवाब दिया था। श्रम से छलक आई पसीने की बूँदों से उसका कमनीय चेहरा और भी दर्षनीय बन पड़ा था। माथे पर झूल आई बालों की लट हटा, दीपा ने प्यार से पूछा था -
‘‘आज यह नया षौक़ क्यों कित्ती। हाॅस्पीटल में क्या कम मेहनत करती है जो आज गाजर का हलवा बनाने का षौक़ चर्राया है?’’
‘‘कल राजीव का बर्थ-डे है, हम उसे सरप्राइज देना चाहते हैं दीपा। पिकनिक में उसने कहा था न, उसे गाजर का हलवा बहुत पसन्द है?’’
‘‘लगता है तेरे पागलपन का इलाज कराना पड़ेगा। राजीव की हर फ़माईष क्यों पूरी करना चाहती है कित्ती? उसके पीछे भागकर कुछ नहीं मिलने वाला है, वह बहुत प्रैक्टिकल लड़का है। तेरे सेंटीमेंट्स षायद ही समझ पाए।’’ दीपा ने गहरी साँस ली थी।
‘‘ठीक है, हम पागल ही सही, पर प्लीज दीप, मेरी मदद कर दे। हमें हलवा ठीक से बनाना नहीं आता।...।’’ कित्ती की मनुहार को नकार देना दीपा के लिए सम्भव नहीं था।
छुट्टी का आधा दिन गाजर का हलवा बनाने में चला गया। हलवा पैक करने के बाद राजीव के पास दीपा को भी जाना पड़ा था।
‘‘हैप्पी बर्थ-डे राजीव।’’ दीपा का बधाई पर राजीव चैंक गया।
‘‘आपको कैसे पता लगा, आज मेरी बर्थ-डे है? एनी हाउ, थैंक्स। आपका षुक्रगुजार हूँ।’’
‘‘न, धन्यवाद की असली पात्री तो मेरी यह सहेली कृतिका हैं। पूरे दिन बैठकर आपके लिए गाजर का हलवा बनाया है। आपको बहुत पसन्द है न?’’
‘‘ओह! आप गाजर का हलवा बनाना जानती हैं मिस एलिस? सच यह तो मेरे लिए एक ख़बर है।’’ राजीव के ओंठों पर षरारती मुस्कान थी।
‘‘देख दीपा यह फिर हमारी हँसी उड़ा रहे हैं। हम जा रहे हैं।’’ कित्ती का चेहरा लाल हो आया था।
‘‘अरे-रे-रे, यह ग़जब न कीजिएगा। हमारा गाजर का हलवा तो देती जाइए। देखिए अगर वह किसी और को देंगी तो उसे हज़म नहीं होगा।’’
‘‘फिर हमे एलिस तो नहीं कहेंगे!’’
‘‘यह एलिस की क्या कहानी है राजीव?’’ दीपा भी उस षब्द का रहस्य जानना चाहती थी।’’
‘‘बचपन में ‘एलिस इन वंडरलैंड’ की कहानी पढ़ी थी। काॅलेज में कृतिका को देखकर वह कहानी याद आ गई। सपनों में खोई एक भोली लड़की...बस यही ‘एलिस’ का रहस्य है।’’ राजीव हँस रहा था।
‘‘ओह तो यह बात है, पर राजीव हमारी कृतिका सिर्फ़ सपनों में ही नहीं जीती, असली जिन्दगी में गाजर का हलवा बनाती है, क्लास में अच्छी पोज़ीषन पाती है।’’
‘‘मीठे-मीठे गीत गाती है, पर अब तक मेरा फ़ेवरिट हलवा तो मिला नहीं।’’ राजीव ने दीपा की अधूरी बात पूरी कर, हलवा माँग लिया था।
‘‘जन्म दिन मंगलमय हो।’’ कहती कित्ती ने गाजर का हलवा राजीव के आगे रख दिया।ं
हलवा मँुह में डालते ही राजीव का चेहरा खिल उठा-
‘‘वाह! आज का यह उपहार हमेषा याद रहेगा। इतना अच्छा हलवा पहले कभी नहीं चखा। इस मीठी भेंट के लिए तहे दिल से षुक्रिया मिस कृतिका।’’
कित्ती का चेहरा खुषी से चमक उठा।
सत्र समाप्त होने के पहले राजीव को चिकेन पाॅक्स हो गई। उसे अस्पताल के छूत-रोग वाले कक्ष में रखा गया था। राजीव ने माँ-बाप को ख़बर नहीं दी थी - ‘‘वे लोग बेकार घबरा जाएँगे। वैसे भी यहाँ आकर क्या करेंगे, मैं बेस्ट डाॅक्टर्स के केयर में हूँ।’’
कित्ती तो घबरा ही गई। दीपा के लाख मना करने के बावजूद वह राजीव के लिए साबूदाना, दलिया बनाकर ले जाती। घंटांे उसके पास बैठी रहती। राजीव के मना करने पर हँस देती-
‘‘घर से दूर अकेले पड़े रहना कितना खराब लगता है, मैं जानती हूँ। अन्ततः मैं डाॅक्टर हूँ, मुझे किसी रोग से डरना नही ंचाहिए न राजीव?’’
‘‘वह तो ठीक है, पर जबदस्ती बीमारी को बुलाना भी तो ठीक नहीं’’
‘‘तुम परेषान मत हो, बचपन में मुझे चिकेन पाॅक्स हो चुकी है, अब नहीं होगी।’’
उस अकेले कमरे के एकान्त में कित्ती का आना, उसके पास बैठ, बातें करना राजीव को बहुत अच्छा लगता। वह उसकी प्रतीक्षा करता और कित्ती के आ जाने से उस कमरे का अकेलापन दूर हो जाता। खुषी की लहर की तरह कित्ती कमरे में आती और एकान्त कमरा, उजाले से भर जाता। कमरे में नीम की पत्तियाँ सजाते देख राजीव हँस पड़ा था।
‘‘मैं पहले ही क्या कम कड़वा था जो नीम की पत्तियाँ सजा रही हो?’’
‘‘लोहे को लोहा ही काटता है, षायद ये नीम की पत्तियाँ तुम्हारी कड़वाहट कम कर दें।’’ दोनों के सम्मिलित हास्य पर अस्पताल का एकान्त कक्ष मुखरित हो जाता।
पूरे पच्चीस दिनों के बाद राजीव होस्टल लौटा था। इसी बीच कित्ती ने उसके मन में घर कर लिया था। क्लास के और मित्र, साथी भी उसे देखने गए, पर उन्हें लौटने की ज़्यादा जल्दी होती। मेडीसिन का विद्यार्थी होने के नाते राजीव ने उनकी जल्दी का बुरा नहीं माना, पर कित्ती का ज़्यादा से ज़्यादा देर उसके पास रूकना उसे बहुत अच्छा लगता।
स्वस्थ होते ही राजीव पढ़ाई में जुट गया था। फ़ाइनल परीक्षा का परिणाम उसके लिए विषेड्ढ महत्व का था। काॅलेज के बेस्ट आउट गोइंग स्टूडेंट का पुरस्कार पाने के लिए उसका टाॅप करना ज़रूरी था। कित्ती से भी पढ़ाई पर ध्यान देने का आग्रह किया था-
‘‘मेरी वजह से तुम्हारा बहुत नुकसान हुआ है, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो।’’
‘‘थैंक्स। वैसे तुम्हें चोटी से नीचे गिराने के लिए मुझे ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। अपनी पोज़ीषन नीचे मत होने देना राजीव।’’
‘‘मैं तुम्हारा बहुत अभारी हूँ कित्ती?’’
‘‘आभार की औपचारिकता गैरों के लिए होती है, मुझे गैर मानते हो?’’
कित्ती ने सीधी दृष्टि से सवाल किया था। राजीव कोई जवाब न दे सका। उसका मन कित्ती को भले ही अपना माने, पर घर में माता-पिता क्या उसे स्वीकार कर सकेंगे? सच तो यह था, पिछले कुछ दिनांे से कित्ती को लेकर उसके मन में द्वन्द्व चल रहा था। वह जान गया था कित्ती एक निहायत भावुक किस्म की लड़की है, उसके कोमल षरीर में एक नन्हा-सा दिल धड़कता है, उसे तोड़ देना बहुत बड़ा अन्याय होगा। अपनी विवषता राजीव अच्छी तरह समझता था, इसलिए अपने प्रति कित्ती के प्यार को जानते-समझते भी नकारता रहा।
दीपा को कित्ती के लिए डर लगता। वह भावुक लड़की दूसरा आघात कैसे सह पाएगी। कित्ती के एकतरफ़ा प्यार पर उसे भरोसा नहीं था-
‘‘तू तो राजीव पर मरती है, पर क्या कभी उसने अपना प्यार जताया है? तू कैसे सोच सकती है तेरी उससे षादी सम्भव है।’’
‘‘हम उसे प्यार करते हैं, इतना काफ़ी नहीं? हमने सुना है प्यार में बहुत ताक़त होती है, इससे असम्भव को सम्भव बनाया जा सकता है।’’
‘‘अगर यह सच होता तो उस अनुराग के साथ तेरा रिष्ता क्यों नहीं बन सका कित्ती? वह भी तो तुझे बहुत पसन्द था न?’’ कित्ती ने ही दीपा को अनुराग के साथ अपनी प्रेम-कहानी सुनाई थी।
कित्ती का मौसेरा भाई आषीड्ढ आर्मी में कैप्टन था। उन दिनों उसी षहर में आषीड्ढ की पोस्ंिटग थी। जब भी छुट्टी मिलती मौसी के घर आ जाता। आषीड्ढ के आ जाने से घर की रौनक आ जाती। उस दिन भी काॅल बेल के बजते ही कित्ती ने दौड़कर दरवाज़ा खोला था। दरवाजे़ पर आषीड्ढ की जगह एक हैंडसम युवक को आर्मी की यूनीफ़ार्म में देख कित्ती चैंक गई थी -
‘‘आप? किसे चाहते हैं?’’
‘‘जी चाहता तो आपको हूँ बषर्ते आपको कोई ऐतराज़ न हो।’’ युवक के ओंठों पर मुस्कान थी।
‘‘बड़े बद्तमीज़ इंसान हैं आप। लड़कियों से ऐसे बात की जाती है?’’
‘‘मेरे ख़्याल में ऐसी बात लड़की से ही की जाती है। एक नौजवान किसी लड़की ही को तो चाह सकता है?’’
‘‘सेना में काम करने वाले फ़ौजी अगर लड़कियांे से इस तरह छेड़खानी करने लगें तो देष तो चल चुका।’’
‘‘क्यों क्या फ़ौजी इंसान का दिल नही रखते, क्या उन्हें प्यार करने का हक़ नहीं होता?’’
‘‘ज़रूर होता है, पर किसी अनजान घर का दरवाजा खटखटा, हर दरवाज़ा खोलने वाली लड़की से प्यार का इज़हार करना क्या षराफ़त है?’’
‘‘अर्जी आप जैसी लड़की देखकर तो अच्छे-अच्छों का ईमान डोल जाए, हम क्या चीज़ हैं।’’ युवक हँस रहा था।
‘‘घबराइए नहीं, हमारे आषीड्ढ भइया कैप्टन हैं। आपका कोर्ट-मार्षल करा देंगे।’’
‘‘अरे वह क्या मेरा कोर्ट-मार्षल करेगा। अगर यहाँ होता तो दिखा देता कैसे सैल्यूट मार कर सलाम करता।’’
‘‘इस मुग़ालते में न रहें जनाब, हमारे आषीड्ढ भइया किसी से दबने वाले नहीं हैं। अब आप जाते हैं या पुलिस को फ़ोन करें?’’ अन्दर से कित्ती कितना डर रही थी। अम्मा-पापा दोनों ही एक रिष्तेदारी में गए हुए थे।
‘‘हे! क्म आॅन बेबी। बच्चों के लिए गुस्सा अच्छा नहीं।’’ खुले दिल से युवक हँस पड़ा था।
‘‘हम बेबी नहीं हैं समझे मिस्टर।’’
‘‘अनुराग! आपके कजि़न आषीड्ढ का पक्का दोसत हूँ। लगता है वह अभी तक नहीं पहुँचा। हमेषा का लेट लतीफ़ है तुम्हारा यह भाई।’’
‘‘किसकी बुराई कर रहा है अनुराग? लगता है मेरी पीठ पीछे मेरी बहन को भड़काया जा रहा है।’’ अचानक पीछे से आकार आषीड्ढ ने कित्ती को चैंका दिया था।
‘‘यह तुम्हारे दोस्त हैं भइया?’’
‘‘क्यों, कोई षक़? कित्ती, अनुराग मेरे बचपन का दोस्त है और अन्नू यह मेरी इकलौती प्यारी बहिन कृतिका। इस साल मैट्रिक का एक़्जाम दे रही है।’’
‘‘छिः भाइया। हम मैट्रिक तो दो साल पहले पास कर चुके, अब दो महीने के बाद बारहवीं पास करेंगे।’ं’
‘‘पास तो हो जाएगी न?’’ आषीड्ढ ने फिर छेड़ा था।
‘‘सिर्फ़ पास ही नहीं होऊँगी भइया, देख लेना बोर्ड में पोज़ीषन लाऊँगी।’’ कुछ गर्व से कित्ती ने कहा था।
‘‘क्या कहा बोर्ड में पोज़ीषन लाएँगी? भई आषीड्ढ, आजकल लड़कियाँ भी बेपर की उड़ाने लगी हैं। काष भगवान इन्हें षक्ल के साथ अक्ल भी दे देता।’’ अनुराग ने कित्ती को चिढ़ाया था।
‘‘आप क्या समझते हैं लड़कियों में अक्ल नहीं होती? जानते हैं मैट्रिक मंे पूरे बोर्ड में हमारी चैथी पोज़ीषन थी, हर सबजेक्ट में डिस्टींक्षन मिला था।’’
‘‘सच! यह तो लड़कों के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात हुई न आषीड्ढ?’’ तालियाँ बजाकर अनुराग ने दाद दी थी।
‘‘वैसे यह बात सच है। बड़ी ज़हीन है हमारी कित्ती।’’ अनुराग के स्वर में कित्ती के लिए प्रषंसा थी।
अम्मा और पापा वापस आ गए थे। अनुराग से मिलकर दोनों बहुत खुष हुए। अनुराग की हाजि़रजवाबी ने पापा का मन जीत लिया। वह हमेषा से फ़ौज वालों की जि़दादिली के कायल थे। अनुराग और आषीड्ढ के कहकहों से घर गूँज उठा। अम्मा ने बार-बार कहा-
‘‘इस घर को अपना ही घर समझना बेटा। तुम्हारे आने से बहुत अच्छा लगा।’’
पापा ने भी आषीड्ढ भइया से कहा था- ‘‘जब भी आओ, अपने इस दोस्त को ज़रूर लाना।’’
पूरे घर पर अपनी छाप छोड़, अनुराग वापस गया था। अम्मा-पापा काफ़ी देर तक उसके बारे में बातें करते रहे।
उस रात किसी भी काम में कित्ती का मन नहीं लगा था। किताबांे के पृष्ठ बिना पढ़े खुले रह गए। नींद कोसों दूर थी। मन में मीठी गुदगुदी उठ रही थी। बार-बार षाम की घटनाएँ दोहराते न जाने कब नींद ने उसे अपने आगोष में ले लिया था।
उस दिन के बाद से दूसरी ही कित्ती थी। उसे अनुराग की प्रतीक्षा रहती। अनुराग के बिना सब कुछ सूना लगता। अनुराग के आते ही उसका जीवन पूर्ण हो उठता। जिन्दगी में जैसे बसन्त आ गया था।
आषीड्ढ के मेस में नए साल का प्रोग्राम था। मौसा-मौसी के साथ कित्ती को इन्वीटेषन मिला था। अनुराग ने कित्ती को ख़ास तौर से कार्यक्रम में आने का अनुरोध किया था। कित्ती समझ नहीं पा रही थी कौन-सी ड्रेस पहने। अम्मा को ऐसे कार्यक्रमों में रूचि नहीं थी, पापा को अचानक बाहर जाना पड़ गया। कित्ती का मन बुझ गया, सपने टूटते-से लगते थे, पर अनुराग ने समस्या का समाधान तुरन्त कर दिया था। ठीक आठ बजे वह कित्ती को पिक-अप कर लेगा। अम्मा से आषीड्ढ ने आसानी से परमीषन ले ली थी। कित्ती को ले जाने और पहुँचाने की जि़म्मेवारी खुद आषीड्ढ ने ली थी इसलिए प्रोग्राम में कित्ती को जाने देने में कोई हिचक नहीं थी।
कई डेªसेज ट्राई करने के बाद अन्ततः कित्ती ने हल्के तरबूज़ी रंग का सलवार-सूट चुना था। सूट पर सुनहरे सितारे टंके थे। चुन्नी पर भी सुनहरा गोटा था। ममेरी बहिन की षादी में यही सूट पहन जब कित्ती बाहर आई थी तो लोग उसे देखकर उस पर से निगाहें हटाना भूल गए थे। जीजाजी का छोटा भाई तो पूरी षादी में उसी के आगे-पीछे घूमता रहा था।
कित्ती को पिक-अप करने आए अनुराग की आँखे उसे देख चमक उठी थीं। होंठ गोल हो गए थे। सीटी बजाकर अनुराग ने अपना अप्रूवल दे दिया था।
‘‘सम्हल कर रहना कित्ती, आज कई लोग होष खा बैठेंगे।’’
‘‘छिः आप तो बस।’’
‘‘दिस कलर सूट्स यू। एकदम परी लग रही हो, पर देखो मेरे अलावा किसी और के साथ डांस का आॅफ़र मत एक्सेप्ट करना वर्ना वह ले उड़ेगा।’’ अनुराग फिर मज़ाक के मूड में आ गया था।
आर्मी-मेस रंगीन रोषनी की झालरों से जगमगा रहा था। हाॅल के बाहर आषीड्ढ उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। आषीड्ढ और अनुराग के बीच चलती कित्ती जैसे सपने में जाग रही थी। हल्का संगीत वातावरण को नषीला बना रहा था। कित्ती को देख नौजवान फ़ौजियों के दिलों की धड़कन ज़रूर बढ़ गई थी। आषीड्ढ ने अपने कर्नल की पत्नी से कित्ती का परिचय कराया था।
‘‘मैम, माई कजि़न कृतिका ...।’’
‘‘स्वीट गर्ल। आओ, यहाँ मेरे पास बैठो।’’ प्यार से कित्ती को अपने पास बैठने की जगह दे उन्होंने आषीड्ढ को मानो अनुगृहीत किया था। म्युजि़क षुरू होते ही जोड़े डांस के लिए फ़्लोर पर उतरने लगे।
काॅलेज की लड़कियों के साथ कित्ती ने भी डांस सीखा ज़रूर था, पर यहाँ तो सब कुछ परी-कथा जैसा लग रहा था। कर्नल की पत्नी अपने पति के साथ फ़्लोर पर नृत्य कर रही थीं। अचानक कित्ती अपने को बेहद अकेला-सा महसूस करने लगी, तभी अनुराग आया था-
‘‘मेरे साथ डांस करोगी कित्ती?’’
‘‘न नहीं, हमें डांस नहीं आता।’’
‘‘कम-आॅन डोंट बी ए बोर। हम सिखा देंगे।’’
‘‘नहीं, हम डांस नहीं करेंगे। आषीड्ढ भइया कहाँ हैं? हम घर जाएँगे।’’ न जाने क्यों उस माहौल में कित्ती को रोना-सा आ गया। घर के वातावरण में ऐसी स्वच्छन्दता कल्पना से परे थी।
‘‘एकदम बच्ची हो तुम, बैटर ग्रो अप।’’ अनुराग दूसरी लड़की के साथ डांस कर रहा था। कित्ती की आँखें छलछला आईं। निष्चय ही उसने अनुराग का मूड खराब कर दिया था, पर यहाँ आने के पहले अगर उसे पता होता यहाँ सिर्फ़ डांस और ड्रिक्ंस होंगी तो क्या वह आती? आषीड्ढ के आते ही कित्ती ने घर वापस जाने की इच्छा व्यक्त की थी।
‘‘थोड़ा और रूक जाओ कित्ती। डिनर सर्व होने ही वाला है।’’ आषीड्ढ ने उसे रोकना चाहा था।
‘‘नहीं भइया, तुम हमें ड्राइवर के साथ भेज दो। हमें खाना नहीं खाना है।’’ कित्ती के स्वर में जि़द थी।
अन्ततः आषीड्ढ को कित्ती की बात माननी ही पड़ी थी। घर पहुँच कित्ती सिर-दर्द के बहाने साथ के कमरे में चली गई थी। जी भर रो चुकने के बाद कित्ती को लगा था, उससे गलती हो गई। आषीड्ढ और अनुराग दोनों को उसने नाराज़ कर दिया। पूरी रात करवटें बदल सुबह-सुबह कित्ती ने आषीड्ढ को फ़ोन लगाया था। फ़ोन पर आषीड्ढ के अर्दली ने बताया था -
‘‘साहब सो रहे हैं, कल रात बहुत देर में सोए इसलिए आज छुट्टी के दिन देर से उठेंगे।’’
कित्ती का सूखा मुँह देख माँ ने कारण जानना चाहा था -
‘‘क्या बात है कित्ती, सुस्त दिख रही है।’’
‘‘कुछ नहीं अम्मा, बस थोड़ा थक गई हूँ।’’
दो दिन बाद आषीड्ढ और अनुराग अपने पुराने मूड में घर आए थे।
‘‘अब तू डांस क्लासेज ज्वाइन कर ले कित्ती, वर्ना आर्मी आॅफि़सर मिलने से रहा।’’ आषीड्ढ भाइया के मज़ाक पर कित्ती लाल हो उठी थी।
‘‘क्यों भाई, कित्ती आॅफि़सर से ही षादी करेगी, यह कैसे जाना? मुझे तो लगता है कित्ती आर्मी-लाइफ़ से डरती है। क्यों कित्ती ठीक कहा न?’’ अनुराग भी हँस रहा था।
‘‘हम किसी से नहीं डरते।’’ मुष्किल से इतना कह, मानो कित्ती ने दिल की बात कह दी थी।
फ़ौजी वर्दी में अनुराग का व्यक्तित्व प्रभावषाली दिखता। बारहवीं में पढ़ रही कित्ती के लिए अनुराग सपनों के राजकुमार से कम नहीं था। किसी रोमानी कहानी के नायक रूप में कित्ती अनुराग पर दिलो-जाँ से फि़दा थी। अनुराग के घर आते ही कित्ती उसके आस-पास ही मँडराती। अनुराग भी कित्ती को जहाँ-जब मौका मिलता, छेड़ने से बाज़ नहीं आता। आषीड्ढ भी अनुराग का नाम ले, कित्ती को छेड़ता रहता-
‘‘देख कित्ती तूने अनुराग के समाने कहा है, बारहवीं में बोर्ड भर में टाॅप करेगी। अगर यह बात सच न हुई तो अनुराग के साथ तेरी षादी का चांस ख़त्म। वह फ़ौजी है, जो कहा है, करके दिखाना होगा समझी।’’
अचानक एक दिन आषीड्ढ ने चैंका दिया-‘‘मौसी, हमारी कित्ती के लिए अनुराग कैसा रहेगा?’’
‘‘क्यों, क्या अनुराग ने कुछ कहा है?’’ माँ षंकित हो उठी।
‘‘कहने की क्या ज़रूरत है, देखती नहीं कित्ती उसे देखते ही खिल जाती है।’’
‘‘खिले चाहे मुरझाए, हमे फ़ौजी को लड़की नहीं देनी है। ले-देकर एक ही बेटी है उसे बेमौत नहीं मारना है।’’
‘‘मौत कभी बेमौत नहीं आती अम्मा। तुम्हें डरने की ज़रूरत नहीं। आषीड्ढ भइया ठीक कहते हैं।’’
इतनी-सी बात कहकर कित्ती ने माँ के सामने अपना दिल खोलकर रख दिया। आष्चर्य में माँ की आँखें फैल गईं। बित्ते भर की छोकरी की हिम्मत तो देखो, कैसे माँ के सामने अपनी षादी की रज़ामंदी जता गई। पढ़ाई-लिखाई का और नतीज़ा क्या होना था? कित्ती के पापा से कितना कहा उसे अधिक न पढ़ाएँ, पर उन्हें तो उनके दोस्त उल्टी पट्टी पढ़ा गए हैं। बेटी को डाॅक्टरनी बनाएँगे। कित्ती की माँ की समझ में नहीं आता, लड़की को उतना पढ़ाने-लिखाने की क्या ज़रूरत है, आखिर तो उसे घर के चूल्हे-बासन में ही जिन्दगी बितानी है।
पत्नी से पूरी बात सुन कित्ती के पापा सोच में पड़ गए। सोच-विचारकर उन्हें अनुराग अच्छा ही लगा। सबसे बड़ी बात वह उन्हीं की जात-बिरादी का था।
‘‘आखिर अनुराग में कमी ही क्या है? अच्छे-भले खानदान का पढ़ा-लिखा लड़का है। हाँ, षादी के लिए उसे बस दो-तीन साल रूकना होगा।’’
‘‘क्यों, जब तुमने उसके साथ कित्ती की षादी की ठान ही ली है तो दो-तीन साल षादी टालने का मतलब क्या है।’’
‘‘अरे अभी हमारी कित्ती है कितनी सी? दो-तीन साल बाद थोड़ी समझ तो आएगी। ग्रेजुएट भी हो जाएगी।’’
‘‘तुमने भली कही। अरे इस उम्र में तो मैं राजू की माँ बन गई थी, सत्रह पार कर गई है। हमारी बिरादरी में बड़ी उमर वाली लड़कियों के लिए लड़का खोजना क्या आसान बात है?’’ माँ झींकती।
‘‘हमारी कित्ती को लड़के वाले खुद खोजते आएँगे, विष्णुदेव ठीक कहते हैं। अपनी बुद्धि और विद्या से कित्ती घर का अँधेरा दूर करेगी।’’
‘‘ठीक है, कल को कुछ ऊँच-नीच हो जाए तो मुझे दोड्ढ मत देना, अपने विष्णु के पास ही जाना।’’ माँ ने मुँह बिचका, स्थिति स्वीकार कर ली।
दूरंदेषी पापा ने आषीड्ढ के द्वारा अनुराग तक अपना संदेषा भिजवाया था। षादी भले ही जल्दी न हो, पर सगाई तो की जा सकती है। किसी बन्धन में बन्ध जाने के बाद दोनों ओर की बाध्यता रहती है। व्यापारी पापा के मन में सर्विस वालों के लिए विषेड्ढ आदर भाव रहता, उस पर अनुराग की फ़ौजी वर्दी और रोबदाब ने पापा को मुग्ध किया था। जीवन-मृत्यु तो विधाता के हाथ है, आदमी का उस पर वष नहीं चलता। पापा के इसी विष्वास ने पुत्र की मृत्यु पर भी उन्हें दृढ़ बनाए रखा था। कृतिका के पहले उसके भाई का जन्म हुआ था। तीन वड्र्ढ की छोटी उम्र में मामूली बुखार में ही वह माँ-बाप को बिलखता छोड़, इस संसार से विदा ले गया। माँ दुःख में पागल-सी हो गई, पर पापा ने अपने को विचलित नहीं होने दिया। ‘प्रभु-इच्छा’ कह उन्होंने माँ को भी साहस दिया था। कित्ती का जन्म इसीलिए ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया था। माँ हर वक्त सीने से चिपकाए रहती। कई वड्र्ढों तक तो उन्हंे यही डर रहता, कहीं बेटे की तरह बेटी भी उन्हंे न छोड़ जाए। बचपन से उसकी हर बात पूरी की जाती रही, षायद यही वजह थी, उसका बचपना, उसकी जि़द, बड़े होने पर भी नहीं छूट सकी। माँ-पापा के प्यार के साए मंे कृतिका ने कभी दुःख की परछाँई भी नहीं जानीं। अनुराग के लिए जब पापा ने उसका संदेषा भेजा तो कित्ती का मन झूम उठा। उसकी हर पूर्ण इच्छा की तरह विवाह के लिए भी मनचाहा साथी मिलने जा रहा था। जीवन का हर क्षण संगीतमय हो उठा था।
संदेषा लेकर जाते आषीड्ढ ने उसे छे़ड़ा था-‘‘देख कित्ती, तेरा दूत बनकर जा रहा हूँ, अच्छी-सी ख़बर लाने पर मनचाहा वरदान देना होगा समझी।’’
‘‘ठीक है, पहले ख़बर तो लाओ।’’
‘‘नहीं पहले लेनदेन की बात तय हो जानी चाहिए, कहीं बाद में धोखा न खाना पड़े।’’
‘‘ओ. के. क्या चाहिए बोलो?’’
‘‘अपने लिए एक प्यारी-सी भाभी खोजकर देनी होगी।’’
‘‘बस! बोलो, कैसी लड़की चाहिए? लाइन लगा दूँगी। मेरे भइया तो हर लड़की की चाहत होंगे।’’
‘‘तब तो ठीक है, इधर तेरे लिए ‘हाँ’ हुई नहीं कि उधर तू मेरे लिए लड़कियांे की लाइन लगा देगी। बात साफ़ है न?’’
‘‘हाँ-हाँ, पर षादी के लिए तो तुम्हें एक ही लड़की चाहिए, बेकार लाइन क्यांे लगवाओगे?’’
‘‘अरे भाई, पुरूड्ढ का ‘ईगो’ भी तो कोई चीज होता है या नहीं? दूसरों के सामने सीना ठोंककर कह सकूँगा, मेरे लिए भी लाइन लगी थी जनाब।’’
कृतिका हँसते-हँसते दोहरी हो गई।
उस दिन का गया आषीड्ढ एक हफ्ते तक गायब रहा। कित्ती परेषान थी-कहीं अनुराग ने मना तो नहीं कर दिया, पर वैसा कैसे सम्भव था। न जाने कितनी बार बातों-बातों में उसने कहा था उसे कृतिका जैसी सुन्दर, मासूम लड़की चाहिए। एक दिन तो हँसकर पूछा भी था-
‘‘अगर मैं कहूँ तो मेरे साथ षादी करोगी कित्ती?’’
उसकी हर बात में कित्ती के लिए प्यार की झलक होती। कित्ती के मुँह से निकली बात पूरी करना, अनुराग का फ़र्ज हो जाता-‘‘भई, हम फ़ौजी जिसे चाहते हैं उसकी हर बात पूरी करते हैं। हम देष को प्यार करते हैं तो उसके लिए अपनी जान भी कुर्बान कर देते हैं।’’
‘‘छिः ऐसे कुबोल नहीं बोलते बेटे। भगवान तुम्हें लम्बी उम्र दें।’’ माँ सहम जातीं।
बारहवीं में पढ़ रही कित्ती के सपनों का षहजादा अनुराग अन्ततः फ़रेबी निकला। काष कित्ती उसकी मीठी बातों पर विष्वास न कर, धोखा न खाती।
आषीड्ढ भइया ने धीमे स्वर में माँ से सच्चाई बताई थी।
‘‘उसे हमारी कित्ती बच्ची लगती है। कहता है, उसमें अभी बहुत बचपना है। उसके साथ षादी सम्भव नहीं।’’
‘झूठ, सफ़ेद झूठ।’ दाँत पीसती बड़बड़ाई थी। एक नहीं हज़ार बार उसने कहा था कित्ती फि़ल्म की हीरोइन बनने लायक है बषर्ते अनुराग हीरो हो।
पाँच फ़ीट चार इंच लम्बी कृतिका अपनी सत्रह वड्र्ढीय आयु से दो-चार साल ज़्यादा ही दिखती थी। उसकी बढ़त देख तो माँ की रातों की नींद उड़ गई थी। बार-बार पापा से कहतीं-‘‘हमारी बिरादरी में इस उम्र की लड़कियाँ षादी कर घर बसा लेती हैं, एक तुम हो कि आँखे मूँदे बैठे हो।’’
पापा कित्ती की जल्दी षादी के पक्ष में नहीं थे, पर अनुराग उन्हें भी भा गया था। इसीलिए उसके साथ कित्ती की सगाई के लिए वह तैयार थे, पर षर्त यही थी कि विवाह दो-तीन वड्र्ढों के बाद किया जाएगा।
अनुराग की ‘न’ ने पूरे घर को चोट पहुँचाई थी। कृतिका तो स्तब्ध रह गई थी। अपने प्यार का वैसा अंजाम कैसे सहे?
आषीड्ढ ने प्यार से उसे तसल्ली देनी चाही थी-‘‘जाने दे कित्ती, अनुराग जैसे हजार लड़के पीछे दीवाने-से घूमेंगे। आर्मी की नौकरी बाहर से ही अच्छी लगती है, बाॅर्डर पर जब इन्हें जाना पड़ता है तो बीबी को सालों अकेले रहना पड़ता है। मौसी ठीक ही कहती है, फ़ौज की नौकरी भी भला कोई नौकरी होती है! हम अपनी कित्ती के लिए अच्छा-सा लड़का खोजेंगे।’’
‘‘नहीं.........ई........मुझे षादी नहीं करनी है।’’
टूटे सपनों को सहेज पाना कित्ती को कठिन लग रहा था। अम्मा से छिपाकर उसने अनुराग को पत्र लिखे। पत्रों में उसने अपने दिल का हाल बेहिचक लिख दिया था। अनुराग उसे स्वीकार नहीं करेगा तो वह अपने जीवन का अन्त कर लेगी।
फ़ोन करने पर अनुराग ने उसे समझाना चाहा था-‘‘सच कहता हूँ कृतिका, मैंने तुम्हें कभी उस नज़र से नहीं देखा। तुम अपना मन पढ़ाई में लगाओ। अभी तुम बच्ची हो, बाद में मेरी बात समझोगी।’’
‘‘नहीं, तुम झूठ बोलते हो। बताओ, तुमने ऐसा क्यों किया.........क्यों? फोन पर कित्ती रो पड़ी थी।
षायद आषीड्ढ से पूरी बात अनुराग ने बताई थी। अनुराग की परेषानी वाजिब थी। यह सच था आषीड्ढ के साथ घर में जाकर उसे अच्छा लगता। आषीड्ढ और अनुराग दोनों मिलकर कित्ती को चिढ़ाते। उसके उस हास-परिहास को कृतिका इस गम्भीरता से लेगी, इस बात की उसने कल्पना भी नहीं की थी। इतने दिनों में वह जान गया था कृतिका कितनी भावुक लड़की थी, उसके साथ कुछ समय बिताया जा सकता था, पर जीवन भर का साथ मुष्किल था। फ़ौजी आदमी को तो एक नितान्त व्यावहारिक पत्नी चाहिए जो हर परिस्थिति में अपने को संयत रख सके। कृतिका उस श्रेणी में कतई फि़ट नहीं बैठती।
आषीड्ढ ने लाख समझाया कित्ती अनुराग को खत न लिखे, फ़ोन न करे, पर प्रेम-दीवानी कित्ती पर कोई असर नहीं होता। उसके प्यार को कोई नकार दे, उसे सह्य नहीं होता। माँ-पापा परेषान थे। पापा ने भी अनुराग की मिन्नतें कीं, पर वह अपने फ़ैसले से नहीं डिगा। अन्ततः बाॅर्डर पर अनुराग की पोस्ंिटग ने, उसे उस दुष्ंिचता से मुक्त कर दिया।
अनुराग के चले जाने पर कृतिका को लगा था, उसकी दुनिया ही उजड़ गई, पर तभी मेडिकल प्रवेष परीक्षा में उसकी सफलता ने उसके मन का अवसाद कुछ-कुछ कम कर दिया। मेडिकल काॅलेज की व्यस्तता ने अनुराग को भुला देने में काफ़ी मदद की थी। दीपा से कित्ती ने अपने मन की कोई बात नहीं छिपाई थी।
दीपा कित्ती के बचपने पर हँस पड़ी थी। ‘‘अच्छा तो कित्ती षुरू से अनारकली थी। हाय रे! षहजादे अनुराग तेरी ही किस्मत खराब थी जो ऐसी नायाब चीज़ मिस कर गया।’’
‘‘देख दीपा तू हँसी मत उड़ा, तू क्या जाने प्यार की चोट कैसी होती है?’’
‘‘वो भी पहले-पहले प्यार की...............ठीक कहा न?’’
‘‘मैं नहीं जानती तू प्यार का मतलब भी समझती है?’’
‘‘अगर नहीं समझती तो समझा दे।’’
‘‘मैं कैसे समझाऊँगी, वक्त आने दे तू अपने आप समझ जाएगी।’’
उसी दीपा को देख आषीड्ढ मुग्ध हुआ था। पोस्ंिटग पर जाने से पहले उसे सात दिनों की छुट्टियाँ मिली थी। छुट्टियों में घर न जा आषीड्ढ कृतिका के पास आ गया था। कृतिका और आषीड्ढ के साथ दीपा का होना ज़रूरी होता। साथ घूमने जाने की बात पर कृतिका नाराज हो उठती।
‘‘देख दीपा , अब ज़्यादा नखरे मत दिखा। आषीड्ढ भइया से बातों में तू ही जीत सकती है, मेरी तो वो बस हँसी ही उड़ाते हैं।’’
‘‘मैं किसी से भी हारना-जीतना नहीं चाहती।’’
‘‘आप डरती हैं..........’’ धीरे से आषीड्ढ ने कहा था।
‘‘क्या...मैं डरती हैं हूँ ? किससे ? क्यों?’’
‘‘अपने आप से डरती हैं आप।’’
‘‘वाह ये बड़ी अच्छी बात कही आपने, भला अपने से भी कोई डरता है?’’
‘‘डरता है-आप डरती हैं कहीं अपना दिल न हार जाएँ।’’
‘‘छिः, भला ये भी कोई बात हुई?’’
दीपा के चेहरे का रंग बदल सा गया।
‘‘तब साथ चलिए।’’
‘‘अच्छा सिर्फ़ यह सिद्ध करने के लिए कि मैं अपना दिल नहीं हारूँगी, मुझे आपके साथ जाना होगा।’’
‘‘जी हाँ, एकदम ठीक समझीं। मेरा चैलेंज है, अगर दो दिन मेरे साथ रहीं तो आप अपना दिल हार बैठेंगी।
‘‘पर मैं तो अपना दिल पहले ही हार चुकी हूँ आषीड्ढ जी।’’
‘‘यानी कि आप मुझे पसन्द करती हैं?’ आषीड्ढ का चेहरा खिल उठा था।
‘‘जी हाँ, आप अच्छे इंसान हैं, पर जिसके लिए मैंने दिल हारा है, वह जेनेटिव इंजीनियरिंग में रिसर्च करने यू.एम.ए. गए हैं। उसके भारत आते ही हमारा विवाह हो जाएगा।’’ दीपा हल्के से मुस्कराई थी।
‘‘ओह! आई एम साॅरी।’’
उसके बाद आषीड्ढ नहंीं रूका, ज़रूर काम का बहाना कर जल्दी वापस चला गया था।
कृतिका ने दीपा को आड़े हाथों लिया था-‘‘ऐ दीपा की बच्ची, एक हम हैं जो अपने दिल की हर बात तुझे बताते हैं और एक तू है, इतना बड़ा राज़ सीने में छिपाए बैठी है। आज से तेरी-मेरी दोस्ती खत्म बस।’’
‘‘पूरी बात जाने बिना दोस्ती खत्म कर देना ठीक है क्या?’’
‘‘और जानने को बाकी ही क्या?’’
‘‘बहुत बाकी है कित्ती।’’ दीपा गम्भीर थी।
‘‘ठीक है तो बता अपनी बात...’’
‘‘लम्बी कहानी है, धैर्य रख पाएगी।’’
‘‘ओफ्फोह तू षुरू तो कर, षुरू ही नहीं करेगी तो धैर्य क्या रखूँगी खाक?’’
‘‘ठीक है तो सुन...’’ दीपा ने अपनी कहानी षुरू की थी।
मद्रास में अप्पा स्टेषन के बुकिंग आॅफि़स में काम करते थे। हमारा पुष्तैनी घर मद्रास से तीस मील दूर था। रोज सुबह अप्पा मद्रास जाते और रात में वापिस आते। घर में अम्मा, बड़ी बहिन सीता और मैं थी। सीता तब दसवीं में पढ़ रही थी, और मैं सातवीं में। अम्मा ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर हमारी पढ़ाई के लिए बहुत कंर्सन्ड थीं। बचपन में पढ़ाई में आने वाली कठिनाइयाँ अम्मा दूर कर देतीं। पर जैसे-जैसे हम बड़ी क्लासेज में गए, अम्मा को हमारी कठिनाइयाँ दूर करने में मुष्किल होने लगी। अप्पा के पास तो समय ही नहीं था। हाफ़ इयरली परीक्षा में सीता मैथ्स में फेल हो गई। अप्पा को स्कूल बुलाकर टीचर ने चेतावनी दी-‘‘अगर सीता के लिए मैथ्स की ट्यूषन नहीं लगाई गई तो उसे परीक्षा नहीं देने दी जाएगी।’’
अप्पा परेषान हो उठे, तभी अम्मा को राघव की याद आई थी। राघव दूर के रिष्ते में अम्मा का भतीजा लगता था। उसका घर में आना-जाना था। अम्मा और अप्पा दोनों ही राघव पर पूरा विष्वास रखते थे। अक्सर षाम को वह हमारे ही घर खाना खाता। अप्पा के पीछे अम्मा उससे घर के कई छोटे-मोटे काम करवा लिया करतीं। राघव उस समय होस्टल में रह बी.एससी. कर रहा था।
अप्पा के प्रस्ताव को राघव ने सहड्र्ढ स्वीकार किया था-‘‘ठीक है आज से सीता को पढ़ाने का जिम्मा मेरा। रोज पाँच घंटे काॅलेज से लोटकर सीता को पढ़ा दिया करूँगा।’’
अप्पा और अम्मा गदगद हो उठे। राघव रोज षाम को सीता को पढ़ाने आने लगा। अम्मा उसे जबदस्ती रात का खाना खिलाकर ही वापस भेजतीं। राघव की आपत्ति पर अम्मा प्यार से समझातीं-‘‘अरे चार लोगों का खाना बनता है ही, उसमें एक आदमी के लिए थोड़ा-सा भात ही तो ज्यादा डालना होगा। तुम मेरे बेटे जैसे हो या नहीं?’’
‘‘बेटे जैसा क्यों, मैं आपका बेटा ही हूँ।’’ राघव के उत्तर पर अम्मा निहाल हो उठतीं।
मामा की लड़की की षादी में अम्मा और अप्पा के साथ दीपा भी कोयम्बटूर गई थी। सीता के फ़ाइनल एक्ज़ाम्स पास थे, उसे घर पर ही छोड़ा गया। रात में राघव घर में आकर सो जाएगा। अपनी ओर से पक्की व्यवस्था कर, अम्मा-अप्पा निष्चित मन षादी में गए थे।
वापिस लौटने पर दीपा को सीता कुछ बदली-बदली सी लगी थी। अपने आप में गुमसुम, कुछ सोचती-सी सीता से दीपा नाराज हो गई थी- ‘‘ऐसी भी क्या पढ़ाई, ये भी नहीं पूछा, षादी में क्या हुआ?’’
‘‘बता क्या हुआ?’’ सीता की धीमी, निरूत्साहित आवाज पर भी दीपा ने पूरे उत्साह से षादी के मज़ेदार किस्से सुना डाले। कई बार मज़े की कोई बात बताती दीपा खिलखिला उठी, पर सीता को जैसे कुछ मज़ा ही नहीं आया।
राघव भी जैसे नज़रें-सी चुरा रहा था। अम्मा ने पूछा था-‘‘क्या हुआ राघव, तबियत तो ठीक है?’’
‘‘पिछले कुछ दिनों से रात में बुखार आ रहा है’’
‘‘डाॅक्टर को दिखाया?’’
‘‘नहीं, सोचता हूँ, एक बार घर हो आऊँ, हवा-पानी बदलने से ठीक हो जाएगा। माँ भी बीमार है।’’
‘‘हाँ, यही ठीक रहेगा।’’
एक सप्ताह में वापस आने की बात कहकर गया राघव, एक महीने तक नहीं लौटा। अम्मा रोज उसे याद करती-
‘‘न जाने लड़का कैसे हो, कोई ख़बर भी नहीं दी।’’
‘‘तुम चिट्ठी क्यों नहीं डाल देतीं अम्मा?’’ दीपा पूछती।
‘‘अरे षहर से कोसों दूर उसका गाँव है, वहाँ क्या चिट्ठी पहुँचेगी?’’
सीता किताबों में मुँह गड़ाए रहती, पर लगता वह पढ़ने की जगह कुछ सोच रही होती।
दो-तीन सुबह सीता को उल्टी करते देख अम्मा घबरा गई। सीता को अलग कमरे में ले जा अम्मा ने न जाने क्या पूछ-ताछ की। सीता को मारती-गालियाँ देतीं, उसे कमरे में बन्द कर, बाहर न आने की हिदायत दे, आँचल ढ़क, अम्मा रोती बैठी रह गई थीं। अप्पा के आने पर न जाने क्या खुसफुस चलती रही, पूरे दिन बाद जब सीता का कमरा खोला गया तो वह निष्प्राण पड़ी थी। कमरे में चूहे मारने की दवा की पूरी ड़ोज ने सीता को हमेषा के लिए खत्म कर दिया था। चेहरे पर पीड़ा के निषान स्पष्ट थे। अम्मा दहाड़ मारकर रों पड़ी। बहुत छिपाते-छिपाते भी बात बाहर फैल ही गई, सीता अनब्याही माँ बनने वाली थी। किसी तरह बात रफ़ा-दफ़ा करवा अप्पा ने कलकत्ता ट्रांसफर करवा लिया।
कलकत्ते में हमारी बिरादरी वालों तक हमारी कहानी पहुँच चुकी थी। हमें देख ताने कसे जाते। अप्पा की हिम्मत की दाद दूँगी, उन्होंने साहस के साथ हमें सहारा दिया, मेरी पढ़ाई ज़ारी रखी। जहाँ हमारे जाति वाले हमसे नफ़रत करते, पास का बंगाली परिवार हमसे प्यार करता। हमारे दुःख-सुख में षामिल होता। हमारी पूरी कहानी जानकर भी उन्हें हमसे हमदर्दी थी।
उस घर की बड़ी बहू मुझे बंगला पढ़ातीं, अम्मा का साथ निभातीं। सच तो ये है, हमलोग उन्हीं की वजह से अपने दुःख का समय काट सके।
उसी घर का छोटा बेटा प्रषान्त मेधावी होने के साथ ही अन्तर्मुखी था। बचपन में बायें पैर में पोलियो होने की वजह से जीवन की भागमभाग में वह भले ही सबके साथ न चल सका, पर अपनी बुद्धि और मेधा के कारण हर परीक्षा में सर्वोच्च अंक पा, सबको चमत्कृत करता रहा।
अपने अकेलेपन से ऊब मैं प्रषान्त के पास गई थी। उस समय मैं बारहवीं में थी और प्रषान्त जेनेटिव इंजीनियरिंग में बी.एससी.कर रहा था-
‘‘आप अकेले कैसे रह लेते हैं, कभी बोर नहीं होेते?’’
‘‘मैं अकेला कहाँ हूँ, देखती नहीं इतनी सारी बुक्स मेरे साथ हैं?’’ सचमुच दीपा ने प्रषान्त को हमेषा किताबों में ही डूबा पाया था।
‘‘बाप रे कैसे पढ़ लेते हैं इत्ती मोटी-मोटी किताबें?’’
‘‘पढ़़कर देखो, तब पता लगेगा ये कितनी अच्छी दोस्त बन सकती हैं।’’
एक किताब उठा, प्रषान्त ने दी थी। ‘‘तुम्हारे इंटररेस्ट की बुक है।’’
‘‘तुम्हें कैसे पता, मैं बाॅयलाजी में इंटरेस्टेड हूँ?’’
‘‘वैसे ही जैसे तुम जान जाती हो मेरा मन-पसन्द खाना क्या है?’’
‘‘मैं जानती हूँ ये बात?’’ दीपा आष्चर्य में थी।
‘‘वर्ना आज इतनी बढि़या चावल की खीर किसके लिए बनाई है? जानती हो, खीर मुझे बहुत पसंद हैं।’’ अन्तर्मुखी प्रषान्त उस दिन षैतानी से मुस्कराया था।
‘‘तुम्हें कैसे पता मैं आज खीर बना रही हूँ?’’
‘‘बाहर ज़्यादा नहीं जा पाता इसलिए घर की सुवास अच्छी तरह पहचानता हूँ।’’
‘‘वाह, सिर्फ खुष्बू से ही क्वालिटी जान जाते हैं?’’
‘‘जिसे भगवान कोई कमी देता है, उसकी और इंद्रियाँ अधिक सजग-सजेत हो जाती हैं न।’’ अचानक ये बात उसके मुँह से निकल गई थी।
‘‘तुममें कोई कमी नहीं है बल्कि...’’
‘‘देखो दीपा, अगर तुम मुझ पर अपनी दया दर्षाना चाहती हो तो कल से मेरे पास मत आना। मैं क्या हूँ, क्या चाहता हूँ, अच्छी तरह जानता हूँ। मुझे किसी की दया स्वीकार नहीं।’’
‘‘मुझे माफ़ करना प्रषान्त, मैंने वैसा नहीं सोचा था...’’
‘‘षायद मैं बहुत कटु हो गया था। मैं जानता हूँ, तुम और लड़कियों से बहुत अलग हो।’’ प्रषान्त की आवाज़ में पछतावा था।
‘‘अच्छा तो जेनेटिव इंजीनियरिंग के साथ जनाब लड़कियांे की किस्मों पर भी षोध कर रहेे हैं?’’ दीपा परिहास पर उतर आई थी।
‘‘वाह काफी अच्छा सेंस आॅफ ह्यूमर है तुम्हारा, मैंने हमेषा तुम्हें एक गम्भीर लड़की ही जाना।’’
‘‘थैंक्स। अभी आप मुझे जानते ही कितना हैं? वैसे एक बात बताऊँ, बहुत हँसी के पीछे रूदन छिपा रहता है, मेरी गम्भीरता के पीछे भी कोई कारण तो ज़रूर होगा न?’’
‘‘अतीत को भूल जाना ही अच्छा होता है दीपा, वर्ना वर्तमान दुखद बन जाता है। जो मिले, उससे संतोड्ढ करके अपनी क्षमताओं को बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए। मैं वही करता हूँ।’’
‘‘तुम महान हो प्रषान्त, काष मैं तुम्हारी जैसी बन पाती।’’ अचानक दीपा तुम कह गई थी।
‘‘तुम जैसी हो, बहुत अच्छी हो। अपनी स्वाभाविकता में कभी कृत्रिमता मत आने देना।’’ प्रषान्त प्यार से मुस्करा रहा था।
उस दिन से दीपा प्रषान्त की ओर ख्ंिाचती गई। ‘‘तभी संकल्प लिया था डाॅक्टर बनूँगी ताकि प्रषान्त की तरह किसी और को विकलांगता का अभिषाप न झेलना पडे़। जानती है कित्ती मेरी ही तरह प्रषान्त को धुन थी जीन्स में सुधार लाने की। हम दोनों अपने-अपने उद्देष्यों की पूर्ति में जुट गए और फल तेरे सामने है। मैं डाॅक्टर बन रही हूँ और प्रषान्त जेनेटिक इंजीनियरिंग पूरी कर, यू.एस.ए. की छात्रवृत्ति पर षोध करने चला गया है।’’
‘‘तेरे अप्पा-अम्मा को तेरी षादी पर आपत्ति नहीं होगी दीपा?’’
‘‘बड़ी बहू ने अम्मा-अप्पा से साफ-साफ बात करके मुझे प्रषान्त के लिए माँगा था। अपनी बिरादरी से अप्पा को घृणा हो गई, प्रषान्त की सज्जनता से वह प्रभावित थे, इसलिए बात तय है।’’
‘‘तू लकी है, पर इतनी बड़ी प्रेम कहानी तू अपने पेट में कैसे पचा सकी दीपा, कभी भनक तक नहीं पड़ने दी।’’
‘‘क्यांेकि मैं तेरी तरह दीवानी नहीं हूँ कित्ती। हम दोनों दुनिया की ह़जार-ह़जार बातें करते, न जाने कितनी समस्याओं पर बहस करते, पर एक दूसरे से प्रेम करते हैं ये बात तो कभी नहीं की।’’
‘‘फिर तूने कैसे जाना प्रषान्त तुझे चाहता था।’’
‘‘प्रेम के लिए सिर्फ़ षब्दों की अभिव्यक्ति ही तो ज़रूरी नहीं। जब एक-दूसरे के बिना दोनों को अधूरापन लगे, साथ रहते लगे जीवन का सब कुछ मिल गया, तब भी क्या ये कहना ज़रूरी है कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ?’’
‘‘तेरी बातंे तू जाने, पर अनुराग के साथ मुझे भी कुछ ऐसा ही एहसास होता था, उसने मुझसे प्यार क्यों नहीं किया?’’
‘‘अनुराग के साथ तेरा एकतरफ़ा प्यार था, बल्कि उसे प्यार न कह कर जुनून कहना ठीक है। सोलह-सत्रह साल की उम्र में किसी के प्रति दीवानगी स्वाभाविक है, इस दीवानगी को प्यार कहना ठीक नहीं। अनुराग ने तुझसे कहा न कि उसने तुझे कभी इस दृष्टि से नहीं देखा था।’’
‘‘जब तूने प्रषान्त को चाहा, तब तू भी तो उसी उम्र में थी।’’
‘‘हाँ, पर हमने प्रतीक्षा की। पाँच वड्र्ढों तक हम मिलते रहे, एक दूसरे को जाना-परखा और तब निर्णय लिया।’’
‘‘तू तो पक्की गुरू निकली, मुझे तेरी षागिर्दी करनी पड़ेगी दीपा।’’
‘‘तेरी और मेरी परिस्थितियों में बहुत अन्तर है कित्ती, मैं जीवन के कटु यथार्थ पर खड़ी होकर, उसकी आग में तपकर बड़ी हुई। तू कोमल फूल की तरह पली, जो जरा-सी हवा के झोंके से कुम्हला जाए।’’
दीपा की कहानी सुन कित्ती सोच में पड़ गई। उसने हमेषा जाना प्यार पहली नज़र में हो जाता है, उसके लिए गम्भीरता से विचार करने जैसी बात नहीं होती। लेकिन दीपा की बातें भी ठीक थीं, किसी को कोई कितना प्यार करता है, उसके बिना उसे अपनी दुनिया अधूरी लगती है, पर राजीव भी क्या उसे उतना ही प्यार करता है? क्या उन दोनों का प्यार भी उतना ही गहरा है, जितना दीपा और प्रषान्त का?
कृतिका गम्भीर हो गई थी। राजीव ने उसका मौन लक्ष्य कर पूछा था-
‘‘आजकल बदली-बदली लगती हो कित्ती, कोई खास बात?’’
‘‘हाँ राजीव, अब मैं अपने भविष्य को गम्भीरता से ले रही हूँ।’’
‘‘वाह, यह तो बड़ी अच्छी बात है। कैसा चाहती हो अपना कल?’’ राजीव हँस रहा था।
‘‘मैं एक ऐसा कल चाहती हूँ राजीव, जिसमें मेरे साथ एक ऐसा जीवन साथी हो जिसके साथ में अपना हर दुःख-सुख सच्चाई से बाँट सकूँ। जिसके बिना मेरा जीवन अधूरा लगे, और जिसका साथ, जीवन का हर पल संगीतमय बना दे’’
‘‘हियर-हियर। यानी कि अब आप कविता भी करने लगी हैं।’’
‘‘नहीं राजीव, यह मेरे जीवन का सच है।’’
‘‘क्या ऐसा साथी पा गई हो कित्ती?’’ कित्ती की आँखों में सीधा देख, राजीव ने पूछा था।
‘‘प्यार दो तरफा होना चाहिए राजीव। सिर्फ़ मेरे चाहने से ही क्या मुझ वो सब मिल सकता है जो मुझे चाहिए?’’
‘‘तुम जो चहोगी ज़रूर पाओगी कित्ती, बस अपने पर विष्वास रखना सीखो।’’
गम्भीरता से अपनी बात कह राजीव चला गया था। दो दिन बाद खुषी से उमगती कित्ती दीपा के गले लिपट गई थी।
‘‘जानती है आज क्या हुआ?’’
‘‘क्या हुआ?...’’
कित्ती षर्मा गई।
‘‘क्या कहा राजीव ने, अब बता भी डाल।’’
‘‘यही कि उसने सोचकर पाया कि वह मुझे बेहद चाहने लगा है’’ कित्ती का चेहरा लाल हो आया।
‘‘सच ये तो बड़ी अच्छी ख़बर है। अब जल्दी से षादी कर डाल। फ़ाइनल एक्ज़ाम के बाद अगर वह घर चला गया तो उसकी माँ डाॅक्टर बेटे का ब्याह रचा देगी और तू टापती रह जाएगी।’’
‘‘इसीलिए वह दो दिन के बाद घर जा रहा है, पैरेंट्स से बात करेगा। वे थोड़े आर्थोडाॅक्स हैं न?’’
‘‘हूँ, वो तो प्राॅब्लेम है ही, तमिल ब्राह्मण जाति के बाहर षायद ही जाएँ।’’
‘‘ऐसा मत कह दीपा। राजीव को विष्वास है वह उन्हें मना लेगा।’’
‘‘बड़ा छिपा रूस्तम निकला राजीव। एकदम षादी की तैयारी कर रहा है?’’
‘‘उसका कहना है जिस दिन उसे ये लगा वह मेरे बिना नहीं रह सकता उसने निर्णय ले लिया कि इंटर्नषिप ख़त्म होते ही हम षादी कर लेंगे।’’
‘‘वाह ऐसी भी क्या जल्दी भई?’’
‘‘उसे अमेरिका में रेसीडेंसी के लिए आॅफ़र मिल गया है, वह मेरे लिए भी सीट एष्योर कराना चाहता है। हम दोनांे षादी के बिना तो साथ जा नहीं सकते न?’’
‘‘पर तेरे उन सपनों का क्या होगा कित्ती, तेरा तुलसी चैरा, धूप में गेहूँ फैलाना, वगैरह-वगैरह?’’ दीपा हँस रही थी।
‘‘वो सपने मैं कभी नहीं भूल सकती दीपा। अमेरिका में भी तो भारतीय बनकर रहा जा सकता है न? मैं अपने घर में तुलसी का बिरवा ज़रूर लगाऊँगी। लाल पाड़ की साड़ी पहन उसके आगे माथा टेकूँगी...’’ कित्ती भावुक हो चली।
‘‘भगवान तेरे सपने सच करे कित्ती।’’ प्यार से दीपा ने कित्ती की पीठ पर हाथ धरा था।
राजीव अपने घर चला गया। जाते समय दीपा से उसने यही कहा-
‘‘हालाँकि माँ-पापा पुराने ख्यालों के हैं, पर मुझे विष्वास है मेरी खुषी के लिए वे मेरी बात मान लेंगे। मैं जानता हूँ कित्ती उनके लिए आदर्ष बहू सिद्ध होगी।’’
राजीव को स्टेषन छोड़ने कृतिका के साथ दीपा भी गई थी। कृतिका को उदास देख राजीव ने विष्वास दिलाया था-‘‘मुझ पर विष्वास रखना कित्ती, मैं अच्छी ख़बर के साथ वापिस आऊँगा। इस बीच किसी और से प्यार मत कर बैठना।’’
‘‘धत्त।’’ कित्ती षर्मा गई।
हाथ हिलाते राजीव को विदा करती कृतिका रो पड़ी थी।
स्टेषन से वापिस लौटी कित्ती होस्टल में माँ-पापा को देख ताज्जुब में पड़ गई थी-
‘‘माँ-पापा आप अचानक कैसे? सब ठीक तो है?’’
‘‘हाँ बेटी, भगवान ने हमारी सुन ली। खुषख़बरी सुनाने हम खुद आए हैं।’’ माँ का चेहरा खुषी से जगमगा रहा था।
‘‘खुषख़बरी कैसी खुषखबरी अम्मा?’’
कित्ती षंकित दिख रही थी।
‘‘तेरी षादी पक्की हो गई। दीपा बेटी तुम यह मिठाई सब लड़कियों में बाँट दो। तुम्हारी सहेली को ईष्वर ने बड़ा अच्छा घर-वर दिया है।’’ माँ खुषी में उमगी पड़ रही थी।
‘‘क्या?’’ दीपा के हाथ, मिठाई का डिब्बा थामने को नहीं बढ़ सके।
‘‘हाँ बेटी, लंदन में रहता है। बाप का बहुत बड़ा व्यापार है। समझ लो कित्ती के भाग्य खुल गए। कित्ती को पापा के चेहरे पर गर्व था।’’
‘‘हम षादी नहीं करेंगे।’’ कित्ती रोने-रोने को हो आई थी।
‘‘क्या बात करती हो बेटी। षादी तो एक न एक दिन सभी को करनी होती है। क्यों दीपा, ठीक कहा न?’’ पापा खुषी से मुस्करा रहे थें।
‘‘हमे तो उतनी दूर षादी करते डर लग रहा था, पर लडके वालों ने विष्वास दिलाया वे कित्ती को हम जब चाहेंगे भेज देंगे।’’ माँ की आवाज़ में विष्वास था।
‘‘लड़के के चाचा-ताऊ सब इंडिया में रहते हैं। हमारे बिरादरी के लोग हैं, धोखाधड़ी का कोई सवाल ही नहीं उठता।’’
‘‘अम्मा, हम षादी नहीं कर सकते’’
‘‘क्या कहती है कित्ती, तेरे पापा ने जुबाँन दे दी है। परसों वे लोग हवाई जहाज़ से सगाई के लिए यहाँ आ रहे हैं। कित्ती भाग्यवान है षादी का प्रस्ताव उन्हीं लोगों ने भेजा है।’’
‘‘नहीं पापा, उन्हें मना कर दीजिए। हम ये षादी नहीं कर सकते।’’ कित्ती का चेहरा पीला पड़ गया था।
‘‘आखिर बात क्या है, साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती?’’ पापा अब षंकित दिख रहे थे।
‘‘पापा हम किसी और से षादी करना चाहते हैं।’’ बड़ी मुष्किल से कित्ती उतनी बात कह सकी थी।
‘‘क्या कौन है वह? एक बार की बेइज्ज़ती काफ़ी नहीं? अनुराग के आगे तेरी वजह से हमे झुकाना पड़ा। अब बिरादरी के सामने षादी तोड़कर क्या हम जी जाएँगे?’’ पापा करीब दहाड़ उठे थे।
‘‘अंकल राजीव बहुत अच्छा...’’ दीपा ने कहना चाहा था।
‘‘सुरेष भी किसी से कम नहीं है, पढ़ा-लिखा सुन्दर, खानदानी लड़का है। लन्दन में उनकी बड़ी साख हैं। उन्होंने कित्ती को पिछले साल एक षादी में देखकर ही तय कर लिया था, उसी से सुरेष की षादी होगी।’’
‘‘नहीं पापा हम राजीव के अलावा........’’
‘‘ख़बरदार जो अब एक भी षब्द मुँह से निकाला तो अच्छा नहीं होगा। बिरादरी के सामने बेइज्ज़त होने की जगह मैं ज़हर खाना पसन्द करूँगा। तू मुझे अच्छी तरह जानती है कित्ती।’’
‘‘दीपा, बेटी तुम्हीं इसे समझाओ। हमने इसकी हर बात रखी है। अपने पापा का सम्मान इसे भी तो रखना चाहिए। हम कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे बेटी।’’ दीपा की माँ ने आँसू आँचल से पोंछ डाले थे।
‘‘नहीं कित्ती की माँ, अगर यह हमारी बात नहीं मानती तो मुझे ज़हर खाना ही होगा। वर्ना परसों क्या मैं उन्हें मुँह दिखा सकूँगा?’’
‘‘पापा मैं अनजान लड़के से षादी नहीं कर सकती।’’ कित्ती की आँखों से आँसू ढुलक रहे थे।
‘‘यह क्या बकवास है, हमारे खान्दान में अनजान लड़कों से ही षादी का रिवाज़ है। जान-पहचान वालों का हश्र देख चुका हूँ। अनुराग से मिली बेइज्ज़ती भूल गई?’’ पापा की कठोर आवाज़ में तीखा व्यंग था।
माँ ने रो-रोकर मनुहार की थी-‘‘अब हमारी इज्ज़त तेरे हाथ है बेटी। तेरे विष्वास पर हमने उन्हें यहाँ बुलाया है। तेरी पढ़ाई में नुकसान न हो इसलिए उन्होंने यहाँ तक आना मंज़ूर किया है। इतने अच्छे लोग बार-बार नहीं मिलते।’’
दीपा ने फिर कहना चाहता था-‘‘राजीव अपने घरवालों से षादी की तारीख़ तय करने गया है। कित्ती और राजीव एक-दूसरे को बहुत प्यार करते हैं। इनकी खुषी मत तोडि़ए अंकल।’’
‘‘हम उत्तर भारत के लोग तो दक्षिण वालों की जुबान भी नहीं समझते। नहीं यह असम्भव है। बिरादरी से बाहर लड़की देने से अच्छा मौत भली, वही करना होगा।’’
दीपा के कंधे पर सिर रख कित्ती फूट-फूट कर रो पड़ी थी। दीपा स्तब्ध थी, सोचने-समझने की षक्ति ही लुप्त हो गई थी। वस्तुस्थिति के सामने विद्रोह कर पाना षायद कित्ती को संभव नहीं था। कित्ती का मूक रूदन उसकी स्वीकृति ही थी। क्या विद्रोह कर वह अपने पिता को मृत्यु के मुख जाने दे सकती थी? उन्होंने स्पष्ट कह दिया था-
‘‘इसी दिन के लिए इतने प्यार से पाल-पोसकर तुझे बड़ा किया था। अगर हमारी इज्ज़त का तुझे ख्याल नहीं तो जाने दे, तू अपना मनचाहा कर, हम दोनों ज़हर खा लेते हैं। तू जानती है मैं धमकी नहीं देता।’’
कृतिका अपने पापा के दृढ़ स्वभाव से परिचित थी। अनुराग के मामले में उन्होंने ज़हर का घूँट समझ, अपमान पी लिया था क्योंकि प्रस्ताव उन्हीं की ओर से गया था। लड़की की ग़लती सही, पर बात बाहर नहीं फैली थी, पर सुरेष के परिवार का अपमान कर, बिरादरी से बाहर होने वाली बात थी।
‘‘ये क्या, तुम्हारे साथ के लड़के लड़कियों के लिए भी इन्वीटेषन भेजा था, उनमें से कोई नहीं आया?’’
निरूत्तर कृतिका की जगह दीपा ने षान्त-सधे स्वर मंे बताया था- ‘‘आज विदेष से आए एक विषेड्ढज्ञ का लेक्चर है, लेक्चर छोड़कर आने की इजाजत किसी को नहीं। मुझे भी मुष्किल से एक घंटे की परमीषन मिली है।’’
‘‘सो सेड।’’
सगाई में पूरे समय कित्ती पत्थर की प्रतिमा बनी मौन बैठी रही। भावी सास ने जब उसके माथे पर आषीर्वाद का टीका लगाया तो दीपा को लगा जैसे कृतिका उसकी सहेली नहीं, दुर्गा बन गई थी। सचमुच उसकी मुखश्री दर्षनीय थी। भारी हीरे का हार, कर्णफूल, अँगूठी पहन, कृतिका भी हीरे जैसी जगमगा उठी। उसके मुख का नैराष्य और उदासीनता, भारी साड़ी और जेवरों की चमक में, सिवा दीपा के और किसी की नजर में नहीं आया।
सगाई के बाद सुरेष ने कृतिका के साथ बाहर जाने की अनुमति चाही तो कृतिका ने सिर हिला मना कर दिया-
‘‘मुझे भी वापिस लेक्चर में जाना है।’’
‘‘हमारे लिए एक दिन का लेक्चर नहीं छोड़ सकतीं?’’ मान भरे स्वर में सुरेष ने पूछा था।
‘‘नहीं ये असम्भव है। चल दीपा।’’
दीपा का हाथ पकड़ कृतिका तेजी से बाहर चल दी थी। सबको असमंजस में छोड़ दोनों बाहर आ गईं।
पीछे से लगभग दौड़ते हुए कृतिका के पापा ने हल्की आवाज में झिड़का था-‘‘पढ़ाई करके यही सीखा है। अतिथियों को ऐसे ही आदर देते हैं?’’
‘‘अनचाहे अतिथियों के लिए और क्या अपेक्षित है पापा। आपके मन की तो हो गई न।’’ पिता को जवाब का अवसर दिए बिना कृतिका बाहर खड़ी टैक्सी में जा बैठी।
पता नहीं उसके माता-पिता ने अतिथियों को क्या स्पष्टीकरण दिया, उन्होंने दुबारा कृतिका से मिलने का प्रयास नहीं किया। अगले दिन लन्दन के लिए एयर-बुकिंग के कारण वहाँ उनका और रूकना सम्भव नहीं था। कृतिका सुरेष के साथ नहीं गई, यह भारतीयोचित लज्जा ही मानी गई।
कृतिका तो बुत बन गई। साथ की लड़कियों की छेड़छाड़ उसे जरा भी नहीं छू पाती। सब परेषान थे। सगाई के फ़ोटोग्राफ़्स पर कृतिका ने एक नज़र भी नहीं डाली। दीपा उसे समझा कर हार गई, पर कृतिका षान्त ही बनी रही। राजीव के साथ उसका प्यार कोई जुनून नहीं, गम्भीर सत्य था।
चार दिन बाद खिले मुख के साथ राजीव वापिस आया था। सबसे पहले उसका सामना दीपा से ही हुआ था। काॅलेज कैम्पस की स्टेषनरी षाॅप से दीपा प्रषान्त के लिए बर्थडे कार्ड खरीदने गई थी। दीपा को देखते ही राजीव चहक उठा-
‘‘हाय दीपा। कैसी हो-आज अकेले आई हो? कित्ती कैसी है।’’ कुछ पल दीपा कोई जवाब न दे पाई।
‘‘क्या बात है दीपा? इतने दिनों बाद आया हूँ पर तुम बात ही नहीं करतीं। अरे ये तो पूछो मैं क्या ख़बर लाया हूँ।’’
‘‘तुम्हारी ख़बर तो तुम्हारे चेहरे पर लिखी है राजीव।’’
‘‘यानी कि तुम जान गई, मैं सफल हुआ। अब बताओ कित्ती कहाँ है, उसे सरप्राइज देना है।’’
‘‘सरप्राइज तो मुझे देनी है राजीव, कृतिका इज इंगेज्ड।’’
‘‘क्या ये क्या कह रही हो दीपा?’’
‘‘हाँ राजीव, ये सच है।’’
‘‘लेकिन कैसे ......... क्यों ....... उसने मेरा इन्तजार क्यों नहीं किया? इतने अचानक ....... कहीं तुम मुझे बुद्धू तो नहीं बना रही, सच कहो दीपा। आई एम गेटिंग वरीड..........।’’
‘‘खुद कृतिका नहीं जानती थी राजीव, वह परिस्थितियों का षिकार बन गई।’’
‘‘वह पढ़ी-लिखी बालिग लड़की है दीपा। उसके साथ जबदस्ती नहीं की जा सकती, उसने मेरे साथ खिलवाड़ क्यों किया?’’ राजीव उत्तेजित था।
‘‘खिलवाड़ तो उसके साथ हुआ है राजीव। तुम उसकी हालत देखोगे तब समझोगे। उसे हमारी हमदर्दी की ज़रूरत है वर्ना वह कुछ कर डालेगी।’’
राजीव को दीपा एक तरह से खींचकर कृतिका के पास ले गई थी। दो-चार दिनों में ही उसका मुँह कुम्हाला गया था। राजीव को देख उसकी आँख सें आँसुओं की धारा बह निकली।
‘‘छिः यूँ नहीं रोते पगली। अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, चलो हम दोनों आज ही मन्दिर में षादी कर लेते हैं।’’ प्यार से कृतिका के आँसू पोंछते राजीव ने दिलासा दिया था।
‘‘नहीं राजीव, अपने प्यार के लिए मैं माँ-पापा को नहीं खो सकती। उनकी इचछा-विरूद्ध अगर तुमसे षादी की तो पापा ज़हर खा लेंगे। मैं उन्हें जानती हूँ राजीव।’’
‘‘यह सब प्यार करने के पहले क्यों नहीं सोचा, मिस कृतिका?’’ राजीव के स्वर के व्यंग ने कृतिका को बेतरह आहत किया था।
‘‘मुझे माफ़ कर दो राजीव। मैं नहीं जानती थी मेरी नियति में बस खोना ही लिखा है।’’
‘‘अभी तुमने कुछ नहीं खोया है, सब कुछ तुम्हारी मुट्ठी में है। जरा-सी हिम्मत करो कित्ती, सब ठीक हो जाएगा।’’
‘‘नहीं राजीव, अब कुछ नहीं हो सकता, कुछ नहीं हो सकता। मुझे भूल जाओ।’’
‘‘तुम मुझे भले ही भुला दो, मैं तुम्हें कभी नहीं भूल सकूँगा। दुःख यही है कि तुम अन्ततः वही डरपोक, मोम की गुडि़या बनी रही, मेरा प्यार तुम्हें फ़ौलादी नहीं बना सका।’’
‘‘तुम्हारा प्यार मेरा सम्बल है राजीव’’
‘‘अब यह कहने का अधिकार तुम खो चुकी हो कृतिका। ओ.के.बाॅय। अलविदा।’’
तेजी से मुड़कर राजीव चला गया था। सिसकियों में डूबी कृतिका पछाड़ खा, गिर पड़ीं
अगले कुछ महीने मातमी खामोषी में बीते थे। कृतिका के घर से उसकी माँ उसके साथ रहने आ गई थीं। उन्हें डर था कहीं वह फिर राजीव के चक्कर में न आ जाए। राजीव ने खुद को काम में डुबो दिया। यू.एस.ए. से उसे रेसीडेंसी की छात्रवृत्ति मिल गई थी। उस अविधि में फिर कभी राजीव ने कृतिका की ओर नज़र नहीं डाली। उसके चेहरे के गाम्भीर्य से डर लगा। दीपा से भी वह कट गया था। सत्र पूरा होते ही कृतिका की माँ उसे साथ ले अपने षहर वापिस चली गईं। जाते समय कृतिका दीपा के गले से लिपट फूट-फूट कर रोई थी।
‘‘अपनी षादी में बुलाना तो नहीं भूलेगी कित्ती?’’ भारी दिल से दीपा ने कहा था।
‘‘षादी नहीं, मेरी बरबादी है। अपनी बरबादी की साक्षी तुम्हें कैसे बनाऊँ दीपा?’’
सचमुच कृतिका ने उसे अपने विवाह में नहीं बुलाया था। उसके षहर के जूनियर्स से कृतिका की षादी की तारीख सुनते ही दीपा अपने को रोक न सकी थी।
दीपा को देख कित्ती की आँखों में आँसू बह निकले थे। गले से लिपट दोनों जी भर रोई थीं।
षादी के पूरे वक्त कित्ती के चेहरे पर वीरानी छाई रही, सुरेष के मित्रों के परिहास उसे छू भी न सके। सुरेष ने हल्के स्वर में दीपा से कहा था-‘‘लगता है, आपकी सहेली बहुत गम्भीर स्वभाव की हैं।’’
‘‘कित्ती बहुत भावुक, संवेदनषील लड़की है, उतनी दूर जाने की सोच, थोड़ी परेषान है। वह घरेलू लड़की है सुरेष जी, अचानक सब छोड़कर जाना, उसे मथ रहा है।’’ ‘‘रबिष। लन्दन जाना किसी भी लड़की का स्वप्न होता है। षी इज लकी, बिना परेषानी लन्दन का चांस मिल गया।’’ सुरेष की आवाज में हल्का-सा गर्व था।
‘‘हो सकता है, पर कित्ती वैसी नहीं है’’
‘‘कैसी है आपकी कित्ती?’’ दीपा को लगा सुरेष की आवाज़ में पैना व्यंग था।
‘‘आप खुद जान जाएँगे सुरेष जी, प्रतीक्षा कीजिए।’’
दीपा को लगा था, सुरेष जैसा व्यावहारिक, कुछ हद तक दम्भी व्यक्ति षायद भोलीभाली कित्ती के लिए उपयुक्त जीवन साथी नहीं था। राजीव और कित्ती ने एक दूसरे को मन की गहराइयों से चाहा था। कित्ती के मन की बात वह कितनी आसानी से जान लेता था। काष कित्ती ने हिम्मत की होती।
विदा के समय दृढ़ता से ओंठ भींच कित्ती ने आँसू रोक लिए थे। अकेले दीपा से लिपटते ही रूके आँसू बाँध तोड़ बह निकले थे।
‘‘यहाँ से रिष्ता तोड़कर जा रही हूँ दीपा, फिर कभी वापिस न आने के लिए।’’
‘‘छिः ऐसी बातें मत कर कित्ती। माता-पिता का अपना सोच होता है, षायद सुरेष ही तेरे लिए ठीक सिद्ध हो।’’
‘‘यही सोचकर जा रही हूँ दीपा, पर न जाने क्यों बार-बार लगता है मैंने अपराध किया है, मैं पापिन हूँ।’’
‘‘ऐसा क्यों कहती है कित्ती?’’
‘‘क्या यह सच नहीं, मैंने राजीव को धोखा दिया, उसका दिल तोड़ा। वह क्या मुझे माफ़ कर सकेगा?’’
‘‘देख कित्ती, हमारे समाज में लड़कियों की नियति यही है। कितनों को अपना मनचाहा मिल पाता है। राजीव यह बात समझ लेगा। अगर उसने तुझे सच्चा प्यार किया है तो वह तुझे अब तक माफ़ भी कर चुका होगा।’’
‘‘सच दीपा। पर मैंने उसकी आँखों में अपने लिए नफ़रत की आग जलती देखी थी। वो आग मुझे षान्त नहीं रहने देती।’’
‘‘अब तक वह आग ज़रूर ठंडी पड़ गई होगी। तू अब नए घर में जा रही है, अपना अतीत यहीं छोड़ जा वर्ना तकलीफ़ पाएगी।’’
‘‘ठीक कहती है दीपा। मैं एक कोरे कागज़ के रूप में जा रही हूँ, उस पर सुरेष के साथ नई इबारत लिखूँगी। अगर कभी राजीव मिले, उसे मेरी मजबूरी समझा देगी न दीपा?’’
‘‘विष्वास कर वह तेरी मजबूरी समझता है। तू सुखी रह, यही कामना है।’’
‘‘बिन बुलाए तू आई दीपा, बहुत आभारी हूँ।’’ कित्ती का स्वर रूँध गया।
प्यार से उसे चिपका दीपा ने मौन आर्षीवाद दे डाले थे।
पता लगा, तब की गई कृतिका भारत वापिस नहीं आई थी। वहाँ की व्यस्त जिन्दगी में रम जाना, षायद इसे ही कहते है। कित्ती सुखी है, सोच दीपा भी निष्ंिचत हो गई थी।
प्रषान्त अपना षोध-कार्य पूरा कर भारत वापस आ गया। आई.आई.टी में उसकी नियुक्ति प्रोफ़ेसर पद पर हो गई थी। एक सादे विवाह-समारोह में दीपा और प्रषान्त विवाह-बन्धन में बँध गए। अपने विवाह में दीपा अपनी प्यारी सखी कृतिका को नहीं भूली। उसके पापा से पता ले, दीपा ने छोटा-सा पत्र डाला था-
मेरी कित्ती,
तूने तो मुझे भुला ही दिया, पर मैं मरते दम तक तुझे याद करती रहूँगी। अगर कभी मुझे जरा-सा भी प्यार किया है तो पत्र पाते ही आ जा। मैं प्रषान्त के साथ विवाह कर रही हूँ, गलत लिख गई, हम दोनों विवाह कर रहे हैं। तेरे आने से हमारी खुषी दुगनी हो आएगी। जाएगी न? प्यार।
तेरी-दीपा
उत्तर में एक बधाई-कार्ड पर चंद संतरें थीं-
‘‘सुखमय विवाहित जीवन की कामना के साथ तुझे याद कर रही हूँ। लाल जोड़े में सजी तू कितनी प्यारी लगेगी, मेरी नज़र न लगे, इसलिए यहीं से अपना प्यार भेज रही हूँ। अपनों की नज़र सचमुच लग जाती है दीपा भगवान तुझे हर बुरी नज़र से बचाएँ। प्रषान्त जी को अपनी कित्ती की याद दिला देना। तुझे भूल पाना क्या सम्भव है? काष सब कुछ भूल पाती’’
कित्ती
उन चंद सतरों के दो लम्बे वड्र्ढों बाद, आज अचानक कृतिका का फ़ोन दीपा को परेषान कर गया। प्रषान्त के आते ही दीपा ने पूरी बात कह सुनाई थी। कुछ सोचकर प्रषान्त ने कहा था-‘‘विदेष में इंसान बहुत अकेला महसूस करता है, पर ताज्जुब इस बात का है कि पति और उसके भरेपूरे परिवार के बीच कृतिका अकेली कैसे छूट गई।’’
‘‘पता नहीं दोनोें में कैसी निभ रही है।’’
‘‘तुमने भी तो उसे छोड़ दिया दीपा।’’
‘‘ठीक कहते हो, वह षुरू से बेहद भावुक, संवेदनषील लड़की है। पता नहीं सुरेष कैसे हैं, उसके कोमल मन को समझ पापा आसान तो नहीं...’’
‘‘विषेड्ढकर तब जब कि सुरेष इंग्लैंड में ही जन्मा और बड़ा हुआ है। मेरे ख्याल से तुम उसे कांटेक्ट करो। जरूरत होने पर उसकी सहायता करना तुम्हारा फ़र्ज है दीपा।’’
‘‘तुम कितने अच्छे हो प्रषान्त। मैं कितनी लकी हूँ।’’
‘‘अच्छा-अच्छा, अब ये प्रषान्त-प्रषंसा छोड़, खाना लगाया जाए?’’ दोनों हँस पड़ैं
दीपा कृतिका से सम्पर्क कर भी नहीं पाई थी कि उसकी लम्बी सी चिट्ठी दीपा के नाम आई थी-
मेरी दीपा,
उस दिन फ़ोन पर जो कहना चाहा, कह नहीं सकी। बचपन में काले-पानी की सज़ा की कहानियाँ सुनी थी। पिछले एक वड्र्ढ से मैं उसी काले-पानी की सज़ा भोग रही हूँ। जानकर ताज्जुब हुआ न, पर सच यही है। 20 स्ट्रेंडली स्ट्रीट पर एक आलीषन घर है, उसके एक कमरे में मैं नज़र-कैद हूँ। कुछ भी करने की मुझे इजाज़त नहीं, मेरी फ़ेान-काॅल्स प्रतिबन्धित हैं। पत्र षायद किसी राहगीर की नजर पड़ जाए और पोस्ट कर दे। यहाँ के लोगों से इतनी ईमानदारी की उम्मीद की जा सकती हैं।
जब यहाँ आ रही थी तो बार-बार संकल्प दोहराया था, आज से मेरा अतीत खत्म हो गया। मेरा आज ही मेरा सच है। सुरेष के साथ जीवन बितना मेरा ध्येय था। अन्ततः मैं किसी की पत्नी, घर की बहू थी। पर हर भारतीय लड़की की तरह मैं भी अपनी नियति स्वीकार कर चुकी थी, मेरी दूसरी नियति यहाँ मेरी प्रतीक्षा कर रही थी।
प्रथम रात्रि की लड़कियों को प्रतीक्षा रहती है, उसके सपने देखती है, पर मेरे साथ वैसा कुछ नहीं था। सच कहूँ तो दिल को लाख समझाने के बावजूद अपराध-बोध साल रहा था। राजीव के साथ मैंने अन्याय तो किया ही था। राजीव ने कभी कहा था-‘‘हम अपना हनीमून चाँद पर न सही, चाँदनी रात में ज़रूर मनाएँगे। जि़न्दगी की षुरूआत अमावस्या से नहीं करेंगे। हमारे जीवन पर हमेषा मीठी चाँदनी की छाया रहेगी कित्ती।’’
इसे महज़ इत्तेफ़ाक कैसे कहूँ दीपा, लन्दन के प्रकाष से जगमगाते कमरे में भी अमावस्या का गाढ़ा अँधेरा छा गया था। दो सेकेंड्स को ही सही बिजली गुल हो गई थी। खिड़की के बाहर अमावस की काली रात से मेरी नई जि़न्दगी षुरू हुई थी। मेरा झीना घूँघट, सुरेष को अजीब तमाषा लगा था-‘‘यह क्या तमाषा बना रखा है? इंडिया की बेवकूफि़यों के लिए यहाँ जगह नहीं हैं। हटाओ यह घूँघट’’
बेदर्दी से मेरा घूँघट हटा, खूँख्वार जानवर की तरह बाहांे में दबोच लिया था। तू तो जानती है दीपा, प्रेम के बारे में मेरी क्या कल्पना थी? एक कोमल अनुभूति जिसमें एक के बाद एक मीठी परतें खुलती जाएँ, सोचा था परागभरी वल्लरी-सी अपने प्रीतम से लिपट, नया जीवन षुरू करूँगी, पर मदिरा से महकते उस आलिंगन में दम घुटने लगा था। मैेंने गुलाब की सुवास चाही थी दीपा, षराब की गन्ध मैंने कब जानी थी? मुझे तो स्पिरिट की गंध से भी उबकाई आती थी। कितनी बार इस बात के लिए तुम सभी की बातें भी सुननी पड़ती थीं।
पार्टियाँ देना यहाँ स्टेटस सिम्बल माना जाता है। लन्दन पहुँचने पर भी स्वागत-समारोह आयोजित किया गया था। नषे में बेसुध सुरेष और अन्य पुरूड्ढ अर्द्ध नग्न थिरकती गोरी नर्तकी के चुम्बन के लिए जिस तरह लालायित थे, उसने मेरे मन में अजीब वितृष्णा भर दी। ताज्जुब यही था उन पुरूड्ढों की पत्नियाँ भी उस दृष्य का आनन्द ले रही थीं।
यह तो जानती थी भारत और लन्दन की जीवन-षैली में अन्तर होगा, पर सुरेष की असलियत यहाँ आकर ही जान सकी। विवाह के पहले सुरेष लन्दन की महफि़लों की जान हुआ करते, लड़कियाँ उनके पीछे दीवानी रहतीं। षायद वह कैराॅल से विवाह करना चाहता था, रंग-रूप देख सुरेष भी मान गया, पर उसे मुझमें वह कुछ नहीं मिल सका जिसकी उसे चाह थी। सुरा और सुन्दरी सुरेष के प्रिय व्यसन हैं, या यूँ कहो इन दोनों के बिना सुरेष जी नहीं सकता।
और अब तो सुरेष के मम्मी-पापा को भी लगता है, वे धोखा खा गए, पत्थर को हीरा समझ लाए। अगर हीरा होती तो क्या उनके बिगड़े बेटे को सुधार न लेती? वैसे भी जिसका पति दुत्कारे उसकी पत्नी क्या सम्मान की अधिकारिणी होती है?
सुरेष के लिए मैं केवल एक भोगा जाने वाला षरीर हूँ। विवाह की पहली रात मेरी आत्मा तक रौंदी गई थी दीपा। सुरेष का भावनाओं से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। विवाह की पहली रात मुझसे अलग होते सुरेष ने कहा था-
‘‘ठंडी औरत...इंडिया का रबिष।’’ मैं सचमुच बर्फ़ बन गई, नई जि़न्दगी की इस षुरूआत पर जी भर रो भी न पाई, आँसू भी जम गए थे।
सुरेष ने ठीक कहा, मैं ठंडी औरत हूँ। पहली रात के भयावह अनुभव के बाद सचमुच मेरी रूचि सेक्स में नहीं रह गई है। याद कर दीपा, क्या मैं पहले भी ऐसी ही थी, राजीव को तो देखने भर से मेरे मन के तार गा उठते थे। सुरेष अगर बाहर की औरतों के साथ सम्बन्ध रखता है तो षायद षिक़ायत का मेरा हक़ नहीं बनता, पर उन्हें घर ला, उनके साथ सोना मुझे सह्य नहीं होता दीपा। जब भी विरोध का स्वर उठाना चाहा, अपने नारीत्व को लेकर ऐसे अपमानजनक षब्द सुनने को मिले जिनकी कल्पना भी असम्भव है।
षायद मैं गल़त जगह आ गई। यहाँ का जीवन मुझे रास नहीं आया। षराब में धुत पुरूड्ढों की कमर में हाथ डाले स्त्रियाँ मेरी वितृष्णा ही बढ़ाती हैं। जी चाहता है, किसी तरह यह बन्धन तोड़, अपनी धरती, अपनों के बीच पहुँच पाती, पर कैसे?
मैंने नेफ्राॅलजी में स्पेषलाइजेषन का सपना देखा था। मेरे अनुरोध पर सुरेष उखड़ गए-‘‘नहीं, यह नहीं हो सकता। मैंने षादी इसलिए नहीं की है मेरी बीवी दिन-रात किताबों में सिर खपाए रहे।’’
‘‘लेकिन तुम तो षादी के वक्त ही जानते थे, मैं डाॅक्टर हूँ। षादी के वक्त तो तुम्हारे पापा जी ने यहाँ तक कहा था मैं अपना क्लीनिक खोल सकती हूँ, पर उसके लिए मुझे इंग्लैंड की मेडिकल डिग्री तो लेनी ही होगी, सुरेष।’’
‘‘रबिष। कह दिया न इट्स इम्पाॅसिबिल।’’
‘‘पर मैं पढ़ना चाहती हूँ सुरेष।’’
‘‘मैं नहीं चाहता तुम पढ़ाई करो, क्या यह बात दिमाग़ में नहीं आ रही है?’’
‘‘मैं अपना समय कैसे काटूँ सुरेष? आफ़्टर आॅल आई एम ए डाॅक्टर।’’ (अन्ततः मैं एक डाॅक्टर हूँ।)
‘‘जानता हूँ, इसी बात का बड़ा घमंड है। पहले एक औरत तो बनकर दिखाओ, फिर डाॅक्टर बनना।’’ आवाज़ का तीखापन अन्दर तक मुझे भेद गया।
दो दिन बाद सुरेष बड़े अच्छे मूड में आया था। कई दिनों बाद प्यार से मेरा नाम लेकर बुलाया था-
‘‘सुनो कित्ती तुम्हारे लिए बड़ी अच्छी ख़बर है।’’
‘‘क्या हुआ? मैं उत्सुक थी।’’
‘‘यहाँ की इंडियन कम्यूनिटी में एक प्राइवेट डाॅक्टर की सख़्त ज़रूरत है। एक ऐसी लेडी डाॅक्टर जो यंगस्टर्स की प्राॅब्लेम साॅल्व कर दे और उनकी सीक्रेट्स भी न खुलें।’’
‘‘सीक्रेट्स से क्या मतलब है तुम्हारा?’’
‘‘अरे डाॅक्टर होकर भी नहीं समझीं?’’ यहाँ इलीगल प्रिगनैन्सीज़ बहुत काॅमन हैं। लड़कियों की इज्ज़त बनी रहे, इसके लिए वे कोई भी कीमत आसानी से दे सकते हैं। तुम यह काम आसानी से कर सकती हो। डाॅ.नैथानी की इन्कम का ख़ास ज़रिया तो यही काम है। उन्होंने खुद कहा है तुम उनके साथ उनके क्लीनिक में काम कर सकती हो।’’
‘‘तुम चाहते हो मैं एक हत्यारे के साथ काम करूँ?’’
‘‘किसे हत्यारा कह रही हो? जानती हो इंडियन कम्यूनिटी में डाॅ. नैथानी की कितनी इज्ज़त है?’’ सुरेष तमतमा आया था।
‘‘जो जीवन देने की जगह, जन्म के पहले जीवन ही समाप्त कर दे, वह हत्यारा ही तो है।’’
‘‘पागल हो गई हो यहाँ यह रोज़ की बात है। इंडिया में क्या डाॅक्टर यह काम नहीं करते? वहाँ भी तो एबार्षन लीगली एक्सेप्टेड है।’’
‘‘होगा, पर मैं यह काम नहीं कर सकती। हमने हाॅस्पीटल में षपथ ली थी एबार्षन सिर्फ़ उसी स्थिति में करेंगे जब बच्चें में कोई डिफ़ाॅर्मिटी होगी। झूठी इज्ज़त बनाए रखने के लिए मैं एक नन्हें षिषु की हत्या नहीं कर सकती।’’
‘‘इंडिया की बात करती हो, दुनिया जानती है, ब्लडी इंडियन्स जानवरों की तरह बच्चे पैदा करते जाते हैं, कोई रोक-टोक नहीं, इसीलिए वहाँ की हालत दिन-व-दिन खराब होती जा रही है। तुम जैसे फ़ुलिष डाॅक्टर्स उनको बच्चा पैदा करने में मदद देेते हैं। हिपोक्रेट्स।’’ सुरेष दाँत पीस रहा था।
‘‘माइंड योर लैंग्वेज सुरेष। याद रखो तुम भी भारतीय माता-पिता की संतान हो।’’
‘‘टु हेल विद योर इंडिया। मैं जानता था इंडियन गर्ल यहाँ की हाई सोसायटी में फि़ट नहीं हो सकती, पर मम्मी-पापा का दिमाग़ खराब हो गया था। कहाँ कैराॅल कहाँ तुम? उन्हीं की जि़द पर तुम जैसी जाहिल लड़की से षादी करनी पड़ी वर्ना आज कैराॅल मेरी पत्नी होती’’
‘‘तुम कैराॅल के पास जाने को स्वतंत्र हो, बस मुझे पढ़ने की इजाज़त चाहिए सुरेष।’’
‘‘मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो तुम्हंे बाहर कदम बढ़ाने दूँगा? पहले ही दिमाग़ सातवें आसमान पर रहता है, पढ़ने की बात भूल जाओ, इसी में सबकी भलाई हंै।
हारकर अम्मा के नाम चिट्ठी लिखी थी। सुरेष की माँ ने चिट्ठी खोलकर पढ़ ली। मुझे क्या पता था लन्दन में रहने वाले, दूसरोें के पत्र न पढ़ने का षिष्टाचार भी नहीं जानते। उस चिट्ठी पर घर में महाभारत मच गया। सबने मिलकर मुझे धिक्कारा, अपषब्द सुनाए। तब से मेरी हर गतिविधि पर कड़ी नज़र रखी जाती है। इतने अपनांे के बीच अकेलेपन की त्रासदी झेल रहा हूँ दीप।
अब तो सुरेष खुल्लमखुल्ला काॅलगल्र्स तक को घर में लाने लगा है। एक दिन तो हद कर दी, अपनी एक गर्लफ्रेंड की प्रिगनैन्सी एबाॅर्ट कराने मेरे पास ले आया। साफ़ षब्दों में निःसंकोच बताया था-
‘‘यह कहती है इसके पेट में मेरा बच्चा है। मैं इस बारे में ष्योर नहीं हूँ, पर इस बात को लेकर बहुत-सी लीगल प्राॅबलेम्स उठ सकती हैं। हज़ारांे पौंड का दावा कर सकती है। तुम सफ़ाई कर दो, बात घर में ही रह जाएगी।’’
उस कुत्सित प्रस्ताव पर मेरा मन विद्रोह कर उठा, इतना नीच आदमी कित्ती का पति नहीं हो सकता। निर्णय लिया था अब उसके साथ नहीं रहूँगी। उस घर में आने वालांे में मिसेज पुरी मुझसे स्नेह रखती थीं। एक दिन अकेले में उन्हें अपनी समस्या बतानी चाही तो वह चैंक उठीं। सुरेष की मम्मी से मेरे बारे में जब उन्होंने बात की तो मम्मी जी ने साफ़ कह दिया-
‘‘किसकी बात कर रही हैं मिसेज पुरी। इस लड़की पर तो षादी के पहले से पागलपन के दौरे पड़ते रहे हैं। कभी-कभी तो इतनी वायलेंट हो जाती है कि सँभालना मुष्किल हो जाता है। हम तो अपनी इज्ज़त बनाए रखने के लिए किसी से कुछ नहीं कहते वर्ना आप ही सोचिए डाॅक्टरी की डिग्री के साथ भला कोई घर में बैठ सकता है?’’
मम्मी जी के तर्क मंे सत्य भले ही न हो, कन्विंसिंग षक्ति जो ज़रूर थी। अब मेरा बाहर निकलना, लोगों से मिलना बन्द करा दिया गया है। तू तो जानती है दीप तेरी कित्ती हमेषा की डरपोक रही है, उसने कभी अपने पंख पसारे ही नहीं, पर इस तरह पंख कतर उसे मरने को छोड़ दिया जाएगा, कब सोचा था?
अब तो पागलपन के साथ चरित्रहीनता का भी आरोप लग गया है। हमारे साथ वाली दिव्या अरोरा की याद ........ राजीव के पीछे दिव्या पागल रहती थी। राजीव ने उसे कभी लिफ़्ट नहीं दी, इसके लिए वह मुझे दोड्ढ देती रही। मेरी बदकिस्मती, दिव्या भी लन्दन आ गई। राजीव के साथ मेरे प्रेम-सम्बन्ध की कहानी उसने खूब नमक-मिर्च लगाकर सुरेष को सुनाई थी। सुरेष का अब यही मानना है कि मैं आज भी राजीव के प्रेम की वजह से सुरेष को पत्नी का सच्चा सुख नहीं दे पाती।
अम्मा-पापा तक मेरी चरित्रहीनता की कहानी के साथ षिकायतों की लम्बी फ़ेहरिस्त भेजी गई है। उन्हें समझा दिया गया है कि अब मेरे भारत न लौटने में ही दोनों परिवारों की इज्ज़त है। भारत पहुँच मैं फिर राजीव से प्रेम की पीगें भरने लगूँगी। अच्छा है, सुरेष को नहीं पता राजीव कहाँ है।
षायद माँ-पापा ने भी सुरेष के घरवालों की बातों पर विष्वास कर लिया है। आज तक माँ-बाप की मुझे कभी कोई चिट्ठी नहीं मिली। वैसे भी अम्मा हमेषा यही समझातीं, पति का घर ही लड़की का असली घर होता है, वहाँ से दुत्कारी को कहीं ठौर नहीं मिलता। अगर किसी तरह वापस गई भी तो फिर इसी नर्क में झोंक दी जाऊँगी। क्या इससे अच्छा यह नहीं कि उनकी इकलौती बेटी तिल-तिल कर ख़त्म हो जाए?
यहाँ की अवसाद भरी बदली में मेरा तुलसी का बिरवा हरा होने के पहले मुरझा गया। मैं तो धूप के एक टुकड़ें के लिए तरस गई हूँ, गेहूँ धोकर कहाँ फैलाती? यहाँ के आसूँ बहाते मौसम में धूप की तलाष बेकार है। मेरे सपने बस सपने ही रह गए। क्या राजीव से प्यार करना मेरा अपराध था? काष उस दिन हिम्मत कर ली होती तो आज.........
जी रही तेरी,
कित्ती
कृतिका का पत्र पढ़, दीपा निःषब्द रोती रही। मासूम कित्ती इतना अत्याचार कैसे सह पा रही होगी? ख़त पढ़कर प्रषान्त मौन रह गया। कुछ देर बाद उसने दीपा से कहा-
‘‘यह समय रोने का नहीं, हमें कुछ करना होगा।’’
‘‘हम यहाँ, इतनी दूर से कर ही क्या कर सकते हैं? उसने तो घुट-घुट कर मरने का इरादा कर ही लिया है, पढ़ा नहीं तुमने कित्ती ने क्या लिखा है?’’
‘‘यह उसकी कोरी भावुकता है। किसी को दंडित करने के लिए खुद को मिटा देना अक्लमंदी नहीं है, दीपा। हमे कित्ती को यह बात समझानी होगी।’’
‘‘एक बात बताओ प्रषान्त क्या औरतों की यही नियति है? इस देष में उन्हें जि़न्दा जलाया जाता है और विदेष में भी इस तरह तड़पा-तड़पाकर मरने को विवष किया जाता है। मैं सोचती थी विदेषों में औरत अपना अधिकार पा चुकी हैं, वहाँ उस पर अत्याचार नहीं किया जा सकता, पर कित्ती’’ दीपा का स्वर आँसूओं में डूब गया।
‘‘अपने को संभालों दीपा। एक तुम ही हो जो कित्ती को समझती हो, उससे फ़ोन पर बात करो, अगर उसे बात नहीं करने दी जाती तो हम इंडियन हाई कमीषन से बात कर सकते हैं। सबसे पहले खुद कित्ती को अन्याय के विरूद्ध आवाज़ उठानी है।’’
‘‘वह ऐसा कभी नहीं करेगी प्रषान्त, मैं उसे जानती हूँ।
‘‘वह ऐसा ज़रूर करेगी, मुझे विष्वास है। हाँ, आज इस लेटर की ज़ीरोक्स प्रति कित्ती के पापा को ज़रूर भेज देना। वह चाहें तो पुलिस की मदद ले सकते हैं।’’
‘‘ऐसा हो सकेगा प्रषान्त?’’ पति के दृढ़ स्वर पर दीपा आषान्वित हो उठी।
‘‘ज़रूर होगा। तुम्हें उसके मन में जीने की चाह जगानी है दीपा और मुझे विष्वास है तुम उसमें पूरी तरह सफल होगी। याद है तुम्हारी सही पे्ररणा से आज मैं यहाँ तक पहुँच सका हूँ।’’ अपने परिहास से प्रषान्त ने वातावरण हल्का करना चाहा था।
दीपा ने फ़ोन उठाया था, उधर से एक भारी पुरूड्ढ-स्वर ने फ़ेान उठाया था।
‘‘जी मुझे कृतिका से बात करनी है, मैं उसकी सहेली हूँ, भारत से काॅल कर रही हूँ।’’
कुछ देर की चुप्पी के बाद जवाब मिला था-‘‘वह अभी ब्यूटी-पार्लर गई हुई है, पता नहीं कब वापस आए।’’
‘‘देखिए उससे बात करना ज़रूरी है, मेरी षादी हो रही है, मैं उससे खुद इन्वाइट करना चाहती हूँ।’’
‘‘ठीक है फिर ट्राई कीजिएगा, आपका मेसेज दे दिया जाएगा।’’ फ़ोन कट गया था।
‘‘यह तो अजीब मुष्किल है, क्या करें।
‘‘कुछ नहीं, कल सुबह-सुबह फ़ोन लगाना उस वक्त बहाना नहीं चलेगा। हाँ यह याद रखना लन्दन का टाइम हमसे साढ़े पाँच घंटे पीछे चलता है।’’
‘‘ठीक है, इतनी जानकारी मुझे भी है जनाब।’’ दोनों हँस पड़े। दूसरे दिन फ़ोन पर कित्ती की आवाज़ सुन दीपा चैंक गई।
‘‘कित्ती तू? मैं तो समझ रही थी तुझसे बात ही नहीं हो पाएगी जब से तेरा खत मिला है बेहद परेषान हूँ।
‘‘तू बेकार परेषान है, मैंने तो इसे अपनी नियति मान, स्वीकार कर लिया है।’’
‘‘ये तेरी ग़लती है कित्ती, अन्याय सहना पाप है। तू पाप कर रही है। अपने अपमान का बदला तुझे लेना है कित्ती?’’
‘‘किसलिए, किस के लिए दीपा?’’
‘‘अपने लिए, हमारे लिए, राजीव के लिए, तू अपमान नहीं सहेगी कित्ती।’’
‘‘मैं क्या कर सकती हूँ दीपा? रूँधी आवाज़ में कित्ती ने पूछा था।’’
‘‘सम्मानपूर्वक जीना तेरा अधिकार है। तू वह घर छोड़ दे। अपनी लड़ाई तुझे खुद लड़नी है कित्ती, याद रख यह लड़ाई तुझे जीतनी है।’’ दीपा उत्तेजित हो उठी थी।
‘‘किससे बातें कर रही थी? फ़ोन किसने दिया?’’ कित्ती के हाथ से फ़ोन छीन लिया गया था। कित्ती का दूर होता आत्र्त स्वर, दीपा को साफ़ सुनाई पड़ रहा था-
‘‘मुझे छोड़ दो, मेरे बाल छोड़ों, दर्द हो रहा है।’’ स्पष्टतः किसी ने आकर कित्ती को पीछे से बालों से पकड़ लिया था। पीड़ा की लहर से दीपा सिहर उठी। कभी ऊँची़ सुन, रो पड़ने वाली कित्ती की आज यह क्या स्थिति है। फ़ोन कट चुका था। हथेली में मुँह ढँक दीपा फफक पड़ी।
नहीं उसे हिम्मत नहीं हारनी है, प्रषान्त ने ठीक कहा, एक वह ही तो है जो कित्ती को समझती है, वही उसे तिल-तिल मरने से बचा सकती है। आँसू पोंछ दीपा नए विष्वास के साथ उठ खड़ी हुई।
काॅलेज के साथियों में रोहित ही राजीव के काफ़ी नज़दीक था। रोहित इस वक्त दिल्ली के हाॅस्पीटल में काम कर रहा है। रोहित से राजीव का टेलीफ़ोन-नम्बर पता कर राजीव को सारी बातें बतानी ज़रूरी थीं।
राजीव का नम्बर ले, दीपिका ने फ़ोन लगाया था। राजीव की परिचित आवाज में ‘हेलो’ सुन दीपा खिल उठी। कित्ती के बारे में पूरी बात थोड़ी-सी देर में बता पाना भले ही सम्भव न था, पर उतनी ही बात पर राजीव स्तब्ध रह गया। कुछ देर चुप्पी के बाद मुष्किल से कह सका-
‘‘ओह नो। दीपा हमे अपनी कित्ती को कैसे भी उस दलदल से बाहर निकलना होगा। मैं उसे यूँ मरने नहीं दे सकता।’’
‘‘इसीलिए तो तुम्हें काॅल किया है। बताओ हमें क्या करना है, कित्ती बहुत मुष्किल में है राजीव।’’
‘‘मैं समझ रहा हूँ, तुम परेषान मत हो, मैं ज़रूर कोई तरीका निकालूँगा। हैव फ़ेथ इन मी दीपा।’’
‘‘थैंक्स। मुझे पूरा विष्वास है। हम उसके मन में जीने की चाहतें पैदा कर सकेंगे राजीव।’’ ‘‘मैं तुम्हारा आभारी हूँ दीपा। हम कित्ती को आत्महत्या नहीं करने देंगे। मुझसे जो बन सके, करूँगा। वह हमारी अपनी कित्ती है दीपा।’’
‘‘ओ.के.राजीव, मैं फिर कित्ती को कांटेक्ट करके तुम्हें फ़ोन करूँगी।’’
दीपा के बार-बार फ़ोन करने पर अन्ततः कित्ती को फ़ोन पर बुलाया गया-दीपा ने सीधे कहा था-
‘‘कित्ती मेरे पास कम समय है, हम सब तेरे साथ हैं। तू अकेली नहीं है कित्ती। जहाँ तू रह रही है उस देष में नारी-षोड्ढण गम्भीर अपराध है, तू बन्धन तोड़ दे। उस कैद से बाहर आ जा कित्ती। बाहर निकल आ कित्ती।’’
‘‘कौन हैं आप? मेरी बीवी को यूँ भड़काने का मतलब समझती हैं?’’
‘‘अच्छी तरह समझती हूँ मिस्टर सुरेष कुमार। आप भी जान लीजिए आपके खिलाफ अपनी पत्नी पर अत्याचार के सबूत मेरे पास मौजूद हैं। अगर कृतिका को टच भी किया तो परिणाम भयंकर होंगे। आपकी भलाई इसी में है कि आप उसे आज़ाद कर दें वर्ना’’
‘‘वर्ना क्या कर लेंगी आप?’’
‘‘आपको कोर्ट में खींच ले जाऊँगी। वहाँ महिला-उत्पीड़न इल्जाम खासा गम्भीर होता है।’’
‘‘तुम जैसी औरतों की धमकी बहुत सुन चुका। जो करना है कर लो। मेरी बीवी को आगे से फ़ोन किया तो ठीक नहीं होगा।’’ खट से फ़ोन काट दिया गया।
राजीव को सारे बातें बताती दीपा रो पड़ी थी-‘‘राजीव वे लोग कित्ती को मारते हैं, मैंने खुद कित्ती की चीखें सुनी हैं।’’
कुछ देर मौन रहने के बाद राजीव का भीगा स्वर आया था। ‘‘मैं उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ दीपा, पर सबसे पहले खुद कित्ती में हिम्मत आनी चाहिए। वह हमेषा ही भीरू रही है।’’
‘‘कित्ती के मन में हिम्मत बस तुम पैदा कर सकते हो राजीव, बस तुम कर सकते हो।’’
‘‘मैं जानता हूँ दीपा, पर यह काम उतना आसान नहीं।’’
‘‘कुछ भी करो राजीव, पर कित्ती को उस नरक से तुम्हें ही निकालना हैं।’’
‘‘मैं सोचता हूँ दीपा। मुझे कुछ वक्त चाहिए।’’
‘‘ठीक है राजीव, पर उतना वक्त मत ले लेना जब कित्ती ही न बचे।’’
राजीव से बातें करने के बाद दीपा का मन हल्का हो आया। समस्या का हल राजीव ज़रूर निकाल लेगा।
दीपा परेषान थी। अब उसके जीवन में नया फूल खिलने वाला था, वह माँ बनने जा रही थी, उस समय कृतिका का दुःख उसे मथ रहा था। उतनी दूर से वह क्या करे। मान लो वह लन्दन हाई कमीषन से सम्पर्क करे भी, सुरेष के डर या दबाव से कृतिका उन्हीं दुष्टों के पक्ष में बयान दे दे तो क्या होगा? कित्ती के माँ-बाप को उसके पत्र की प्रति भेजी, पर उन्होंने किसी तरह की कार्रवाई नहीं की। षायद सुरेष के माता-पिता ने उन्हें उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ा दी, विष्वास दिला दिया था। वैसे भी वे यही मान कर चल रहे थे कि बदनामी के बावजूद कित्ती से विवाह कर, सुरेष ने उन पर एहसान किया था।
प्रषान्त बातों की जगह काम में विष्वास रखते थे। कित्ती के माँ-पापा से मिलने जाने के लिए दीपा को तैयार करना ज्यादा कठिन काम नहीं था, पर कित्ती के पापा को वस्तुस्थिति का विष्वास दिला पाना, आसान काम नहीं था। वे दोनों इसी खुषफहमी में थे कि उनकी बेटी डाॅक्टरी की पढ़ाई कर रही है इसीलिए उसका भारत आना सम्भव नहीं हो पाता। दीपा ने बताया कैसे फ़ोन पर उसने कित्ती की चीखें सुनी थी। दीपा के नाम आई कित्ती की चिट्ठी पढ़, उसकी माँ रो पड़ी। दीपा द्वारा पहले भेजी गई चिट्ठी पर उन्हें विष्वास नहीं हुआ था। लोग ईष्र्यावष भरमा रहे हैं, कह बात टाल दी गई थी। उनकी फूल-सी बेटी कैसी नरक-यातना सह रही है और उन्हें जरा-सा आभास भी नहीं। रोते-रोते उनकी सिसकियाँ बँध गईं। तसल्ली देती दीपा का मन रो रहा था। कित्ती के पापा स्तब्ध थे।
‘‘अब हम क्या करें बेटे? सात समुंदर पार बैठी बेटी को कैसे बचाएँ?’’
‘‘अगर आप ही हिम्मत हार गए तो कित्ती को कौन सम्हालेगा पापा? आपको तो हिम्मत रखनी होगी।’’
‘‘तुम्हीं रास्ता सुझाओं प्रषान्त।’’
‘‘मेरे ख्याल में आप फ़ौरन लन्दन चले जाएँ, वहाँ इंडियन हाई कमीषन की सहायता से कित्ती को मुक्त कराना होगा।’’
‘‘वह में साथ नहीं आएगी प्रषान्त। विवाह के समय ही उसने कह दिया था, हमारा सम्मान बचाने के लिए उसने अपनी बलि दी है। हमसे वह कोई नाता नहीं रखेगी।’’
‘‘हाँ बेटा, हमने उसके साथ जबदस्ती की इसीलिए इतना सहकर भी उसने हमे कुछ नहीं लिखा, कुछ नहीं बताया।’’ माँ ने भी हामी भरी थी।
‘‘विष्वास रखिए माँ ऐसा कुछ नहीं होगा। आप उसके जन्मादाता हैं, आपका प्यार उसके मन में साहस देगा।’’
‘‘षायद आपको समझाने से सुरेष उसके साथ ठीक बर्ताव करने लगे। आखिर उन्हें भी तो बिरादरी में मुँह दिखाना है।’’ बेटी की ससुराल छुड़ाते माँ का मन डर रहा था।
‘‘नहीं माँजी, जानते-बूझते आप बेटी को मरने की राह दिखा रही हैं। आपके सामने हज़ार वादे करने के बाद भी वे कित्ती को ऐसे तरीके से खत्म कर सकते हैं कि उसकी मौत स्वाभाविक मानी जाए।’’ प्रषान्त उत्तेजित थे।
‘‘हाँ माँ जी, अब आपको एक ही राह चुननी है, या तो कित्ती की जि़न्दगी या अपना झूठा मान-सम्मान।’’
‘‘तुम ठीक कहते हो प्रषान्त, एक बार धोखा खाया, आगे नहीं। मैं जल्दी से जल्दी लन्दन जाऊँगा और अपनी बेटी को मुक्त करा लाऊँगा।’’
‘‘हमें आपसे यही उम्मीद थी पापा।’’
घर वापस लौटे प्रषान्त और दीपा काफ़ी आष्वस्त थे। राजीव ने फ़ोन पर बताया था, उसका एक मित्र लन्दन हाई कमीषन में काम करता है, पर मुष्किल यही थी वह कित्ती तक कैसे पहुँचे? सुरेष के विरूद्ध कार्रवाई के लिए ठोस सबूत भी ज़रूरी थे। दीपा खुषी से उछल पड़ी। तुरन्त फ़ोन लगा कित्ती के पापा को राजीव के मित्र का पता दिया था। हाई कमीषन की मदद से कित्ती की मुक्ति की सम्भावना बढ़ गई थी। सबूत के रूप में दीपा के नाम लिखी गई कित्ती की चिट्ठी पर्याप्त थी, फिर भी एक डर था, वह भावुक-भीरू लड़की क्या सिर उठा पाएगी? क्या वह अपने प्रति किए जा रहे अन्याय-अत्याचार के विरूद्ध विद्रोह कर सकेगी? प्रषान्त को पूरा विष्वास था कित्ती अन्याय के विरूद्ध ज़रूर सिर उठाएगी, पर दीपा का मन षंकित था। राजीव से बात कर उसे विष्वास मिलता। राजीव से फ़ोन करने पर उसने इतना ही कहा था-
‘‘मुझे पूरा विष्वास है, सब ठीक होगा। बस हमे धैर्यपूर्वक सही वक्त की प्रतीक्षा करनी होगी।’’
‘‘वो वक्त कब आएगा राजीव?’’ दीपा को एक-एक दिन भारी पड़ रहा था।
‘‘मैंने हमेषा भगवान में विष्वास रखा है दीपा। मेरा विष्वास तब भी नहीं डिगा जब कित्ती मेरे जीवन से चली गई थी। ऐसा नहीं कि मुझे कम दुःख हुआ था, पर इसे अपनी नियति मान, स्वीकार लिया। आज भी मैं उसी से प्रार्थना कर रहा हूँ, कित्ती सुरक्षित रहे।’’ राजीव का स्वर आर्द्र हो आया था।
‘‘जानती हूँ राजीव, कित्ती का जाना तुमने दिल पर पत्थर रखकर सहा था।’’
‘‘अब मेरी एक ही कामना है, मुक्ति के बाद कित्ती का नया जन्म हो। उसी दिषा में प्रयास कर रहा हूँ।’’
‘‘क्या मतलब राजीव, मैं समझी नहीं?’’
‘‘देखो दीपा, कित्ती ने हमेषा अपने को दूसरांे के निर्णय पर छोड़ दिया, परिणाम सामने है। तुम उसकी दोस्त थीं, पर उसमें तुम्हारी दृढ़ता का अंष भी नहीं था। अब मैं चाहता हूँ, पुरानी भीरू कित्ती की जगह दृढ़-प्रतिज्ञ, आत्मविष्वास से पूर्ण एक नई कित्ती का जन्म हो।’’
‘‘पर वह कैसे सम्भव होगा राजीव? वह पहले ही बेहद भावुक थी और अब तो बिल्कुल टूट गई है। ऐसी स्थिति में तुम उसमें ऐसे बदलाव की आषा रखते हो?’’
‘‘अगर उसमें अब बदलाव नहीं आया तो कभी नहीं आ पाएगा। अब तक वह दूसरों की दया पर रही, अब उसे अपने पाँवों पर, अपनी ताक़त पर खड़े होना हैं।’’
‘‘नए देष में वह क्या यह सब कर पाएगी राजीव? यह कैसे सम्भव होगा?’’
‘‘उसी देष में यह सम्भव है दीपा, इसीलिए मैंने उसे मेसेज दिया है, वह भारत नहीं लौटे। उसे अपने को उसी देष में स्थापित करना है जहाँ उसने अपना सम्मान खोया है।’’
‘‘ऐसी बातें तुम्हीं कर सकते हो राजीव। भगवान करे तुम्हारी प्रेरणा कित्ती का सम्बल बन सके।’’ दीपा ने फ़ोन रख दिया था।
प्रषान्त का भी यही सोचना था कि कित्ती को वहीं रहना चाहिए। यहाँ लौटकर वह फिर अपने माता-पिता की छाया में दुबक जाएगी। अब उसे अपने पंख पसारने ही होंगे।
राजीव से बातें करने के बाद दीपा कित्ती की मुक्ति की प्रार्थना करती लन्दन से आने वाली ख़बर का इंतजार कर रही थी।
अचानक एक दिन खुषी में पगी कित्ती की आवाज़ सुनाई दी थी-‘‘मैं आज़ाद हो गई दीपा।’’
‘‘सच! कहाँ से बोल रही है कित्ती?’’
‘‘इंडियन हाई कमीषन आॅफि़स से’’
‘‘यानी तूने हिम्मत कर ही डाली, मुझे तो डर था पहले की तरह तू फिर पंख समेट लेगी।’’
‘‘ठीक कहती है दीप, तेरी कित्ती डरपोक थी। तुझसे बात करने के बाद अचानक एक दिन टी.वी.कार्यक्रम में देखा यहाँ एक भारतीय स्त्री ने अपने पति की हत्या करके स्पष्ट षब्दों में कहा उसका यह कदम पति के अमानवीय अत्याचारों के विरूद्ध उठाया गया है। उसके समर्थन में यू.के.की सारी औरतें सड़कों पर उतर आईं। कोर्ट द्वारा स्त्री को बाइज्ज़त रिहा कर दिया गया। उसी दिन फ़ैसला ले लिया और अत्याचार नहीं सहूँगी।’’
‘‘पर तू बाहर निकली कैसे?’’
‘‘लम्बी कहानी है बस इतना जान ले, अब मैं उनके पंजों से बाहर आ गई हूँ?’’
‘‘तू वापस भारत कब आ रही है?’’
‘‘अभी वापस भारत नहीं आऊँगी दीपा। यहाँ-इसी देष में रहकर मुझे अपना खोया सम्मान पाना है। पापा को भी मैंने समझा दिया है। अब पापा मेरी ओर से निष्चिन्त हैं, वह जान गए हैं अब मैं अत्याचार की षिकार नहीं बन सकती।’’
‘‘वहाँ अनजान देष में तुझे कौन सहारा देगा कित्ती? तू यहाँ आ जा।’’
‘‘मैं अकेली कहाँ हूँ दीपा? मेरे साथ लन्दन का पूरा स्त्री-समाज है। मंै हाॅस्पीटल में जाॅब ले रही हूँ। यहाँ के कई हाॅस्पीटल से मुझे जाॅब के आॅफर मिले हैं। तू मेरी चिन्ता मर कर।’’
‘‘ठीक कह रही है, अब तेरी चिन्ता की ज़रूरत नहीं, पर अपनी मुक्ति की कहानी तो लिख कर भेजेगी न?’’
‘‘ज़रूर। पहला मौका मिलते ही लिख भेजूँगी, वैसा पापा तुझसे मिलेंगे ही। अभी सबसे पहले तो सुरेष और उसके परिवार पर मुकदमा चलाना है। मेरी वकील पहुँचने ही वाली है। ओ. के. बाॅय।’’
फ़ोन रख, दीपा ने निष्ंिचतता की साँस ली। प्रषान्त ठीक कहते थे, कित्ती अपना आत्मविष्वास ज़रूर पा सकेगी। राजीव को तुरन्त फ़ेान लगाया।
‘‘कौन, दीपा?’’
‘‘हाँ मैं हूँ राजीव, तुम क्या समझे कित्ती का फ़ोन है?’’ अचानक खुषी की वजह से दीपा के स्वर में पुरानी षोखी उभर आई थी।
‘‘कित्ती की आवाज़ पहचानने में क्या गलती कर सकता हूँ? दरअसल यहाँ रात के बस दो बजे हैं इसलिए...’’
‘‘ओह! आई. एम. साॅरी, सच मैं तो भूल ही गई, अब हम सब दुनिया के अलग-अलग छोर पर रहते हैं...’’
‘‘ओ. के. अब असली बात तो बताओ जिसके लिए रात के दो बजे जगाया है।’’
‘‘सच मुझसे ग़लती हो गई, असल में ख़बर इतनी अच्छी थी कि मुझसे रहा नहीं गया।’’
‘‘हम भी तो सुनें, क्या ख़बर है?’’
‘‘कित्ती आज़ाद हो गई, यानी वह अपने उस कारगार से बाहर आ गई।’’
‘‘यह तो मैं जानता हूँ दीपा।’’
‘‘क्या, तुम्हें कैसे पता लगा?’’
‘‘क्योंकि लन्दन में भारतीय उच्चयोग से सम्पर्क करके मैंने भी उसकी मुक्ति में सहायता की है। षायद यह बात तुम भूल गईं।’’
‘‘तुम बड़े खराब हो, इतनी बड़ी बात की मुझे ख़बर तक नहीं दी। अगर कित्ती न बताती तो मुझे पता भी नहीं लगता।’’ दीपा नाराज़ हो उठी।
‘‘इस पूरी कहानी में तुमने ही तो अहम् भूमिका निभाई है दीपा। कित्ती कहाँ है, कैसी है, मैं कैसे जान पाता। मैं तुम्हारा बहुत आभारी हूँ।’’
अब आगे क्या योजना है, वह पगली कह रही है लन्दन में रहकर ही काम करेगी’’
दीपा अब भी कित्ती के भविष्य के प्रति षंकित थी।
‘‘वैसा ही तो उसे करना भी चाहिए दीपा। बहुत खुषी है वह दीन-असहाय बनकर मेरा सहारा नहीं लेना चाहती।’’
‘‘पर क्या वह वहाँ रहकर अपने को पा सकेगी राजीव? उसने हमेषा दूसरों पर निर्भर किया, अपने विवाह के समय भी वह मुँह नहीं खोल सकी। मुझे तो बहुत डर लग रहा है।’’
‘‘नहीं दीपा, अब वह जो कह रही है, ज़रूर कर पाएगी। जीवन की कठोर भूमि पर जीकर, उसने जिन्दगी का सच जान लिया है। मैंने कित्ती को अपनी षुभकामनाएँ दी हैं। ज़रूरत के समय मैं हमेषा उसके साथ हूँ।’’
‘‘षायद तुम ठीक कहते हो राजीव।’’
फ़ोन रख दीपा सोच में पड़ गई। वह छुई-मुई सी कित्ती अब जीवन-संग्राम में अकेले उतर रही है। माँ-पापा, घर-परिवार से सहस्त्रों मील दूर, अजनबियों के देष में कित्ती क्या अपने को दृढ़ रख पाएगी? भगवान उसकी मदद करें। काष कित्ती में यह दृढ़ता पहले ही होती।
लन्दन से लौटे कित्ती के पापा सबसे पहले दीपा और प्रषान्त से मिलने आए थे।
‘‘तुम दोनों ने मेरी बेटी वापस दिला दी, वर्ना हम तो उसे खो ही चुके थे।’’ उनका स्वर गदगद था।
‘‘पहले ये तो बताइए आपने कित्ती को मुक्त कैसे कराया? उन लोगों ने काफ़ी रोड़े अटकाए होंगे।’’
‘‘ठीक कहती हो बेटी, कित्ती की मुक्ति आसान नहीं थी। जब वह हमारे सामने आई तो यह विष्वास कर पाना कठिन लगा था कि यह हमारी वही कित्ती है जो दस लड़कियांे में अलग चमकती थी। मुझसे लिपटकर ऐसा रोई कि पत्थर का दिल पिघल जाए।’’
‘‘राजीव के मित्र, डाॅ. सूर्यकांत से आप मिले थे?’’
‘‘हाँ दीपा, डाॅ सूर्यकांत की वजह से इंडियन हाई कमीषन की ओर से बहुत मदद दी गई। यही नहीं वहाँ की महिला संस्थाओं और मीडिया ने कित्ती के पक्ष में न्याय की ज़ोरदार आवाज़ मुखर कर, उसका केस बहुत मज़बूत कर दिया था।’’
‘‘सुरेष की क्या प्रतिक्रिया थी अंकल?’’
‘‘षुरू में वह अपने को निर्दोड्ढ बताता रहा। कित्ती पर तरह-तरह के लाँछन लगाने चाहे। डाॅ. राजीव का नाम लेकर उल्टे-सीधे आरोप लगाने पर कित्ती हुँकार उठी-
‘‘झूठ, सफे़द झूठ। मैंने कोई पाप नहीं किया। सुरेष स्वयं व्यमिचारी है। मेरा इससे कोई रिष्ता नहीं।’’
‘‘झूठ के पाँव नहीं होते। सुरेष के सारे आरोप बेबुनियाद सिद्ध हो गए। घर छोड़ती कित्ती ने उस घर से अपने वस्त्र और आभूड्ढण भी स्वीकार नहीं किए? जिस घर ने उसका सम्मान छीन लिया, उस घर से क्या लेना-देना?’’
‘‘कित्ती ने बिल्कुल ठीक किया अंकल। उस जानवर के साथ न जाने कैसे उसने दिन काटे थे।’’
‘‘यह बात ठीक है बेटी। हमारे देष में पति-पत्नी का परित्याग करे, यह बात सहज स्वीकार है, पर पत्नी पुरूड्ढ का परित्याग करे यह बात पुरूड्ढ प्रधान समाज आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता। पति का अहं हमेषा आड़े आ जाता है। हो सकता है भारत में कित्ती का परित्याग, उसकी पराजय माना जाए, पर वहाँ उसकी जीत की खुषियाँ मनाई गईं। उसे सम्मानित किया गया।’’
‘‘हाँ अंकल, वहाँ नारी अपने हक़ के लिए लड़ना जानती है इसीलिए परित्याग या तलाक को कोई ख़ास अहमियत नहीं दी जाती’’
‘‘जो हो गया उसे मिटाया नहीं जा सकता, पर वहाँ की स्त्रियाँ कित्ती से बराबर मिलती रही, उसे विष्वास दिलाया कि वह अकेली नहीं है, वे सब उसके साथ हैं। हम समझते हैं विदेषों में नारी पर कोई अत्याचार नहीं कर सकता, पर वहाँ की वास्तविकता सुन रोंगटे खड़े हो गए। वहाँ भी कुछ पुरूड्ढ स्त्रियों के साथ बर्बरतापूर्ण बर्ताव करते हैं, बस फ़र्क इतना ही है वहाँ की औरत, अत्याचार सहना अपनी नियति नहीं मानती। अत्याचारी पति से स्वयं बदला लेने की हिम्मत रखती है।’’
‘‘यह अन्तर तो बहुत बड़ा फ़र्क पैदा कर देता है अंकल। यहाँ हम पति को परमेष्वर मान, जिन्दगी भर औरत होने की सज़ा भोगते हैं।’’
‘‘क्यों भई, हमारे बारे में आपका क्या ख़्याल है?’’ बहुत देर से चुप बैठे प्रषान्त ने परिहास किया था।
‘‘रहने दीजिए, अपनी बड़ाई सुनना अच्छा गुण नहीं है जनाब।’’ दीपा हँस रही थी।
‘‘अंकल यह बताइए अब कृतिका कैसी है, वहाँ अकेलापन तो नहीं महसूस करेगी?’’ गम्भीर स्वर में प्रषान्त ने सवाल पूछा था।
‘‘सच कहूँ तो पाँच-सात दिनों के बाद एक दूसरों ही कित्ती थी। पूरे आत्मविष्वास से परिपूर्ण कित्ती को इतने बधाई-पत्र मिले कि गिन पाना आसान नहीं था। कई अस्पतालों से उसे उच्च षिक्षा-ज़ारी रखने के साथ जाॅब के आफ़र्स दिए गए। राजीव ने फ़ोन पर बधाई देकर देर तक बात की थी।’’ अपनी बात ख़त्म करते कित्ती के पापा के चेहरे पर खुषी की चमक आ गई थी।
‘‘प्रषान्त ठीक कहते थे एक दिन कित्ती ज़रूर सर उठाएगी, आत्म सम्मान से जीएगी। यह सब सोचकर कितना अच्छा लग रहा है अंकल।’’ खुषी से दीपा की आँखें छलछला आईं।
‘‘मैं हमेषा ठीक ही कहता हूँ देवीजी, बस समझने की ज़रूरत है।’’ प्रषान्त हँस रहा था।
‘‘मानती हूँ प्रषान्त। कित्ती के मामले में अगर तुमने सलाह न दी होती तो मैं अकेली कुछ न कर पाती।’’ दीपा की आवाज़ में कृतज्ञता थी।
‘‘प्रषान्त के तो हम भी बहुत आभारी हैं। तुम लोगों ने मेरी बेटी वापस दी है वर्ना हम तो कित्ती को खो चुके थे। समझ में नहीं आता तुम्हारा ऋण कैसे चुका पाऊँगा। बस मेरा आर्षीवाद तुम्हारे साथ हमेषा रहेगा।’’
‘‘ये क्या कह रहे हैं अंकल कित्ती क्या हमारी नहीं है?’’
‘‘कित्ती तो तुम्हारी ही देन है बेटी। लन्दन की मीडिया के प्रति भी मैं बहुत आभारी हूँ। समाचार पत्रों ने कित्ती के साथ सहानुभूमि जताते हुए टिप्पणी छापीं, टी.वी. पर चर्चा आयोजित की गई। इन बातों ने कित्ती का खोया आत्मविष्वास लौटाने में मदद की। अब उसे अपना करियर बनाने की धुन है। राजीव ने न जाने कौन-सा मंत्र दिया है, अब कुछ कर दिखाने को कित्ती कटिबद्ध है।’’
‘‘मैं जानती हूँ, राजीव ने कौन-सा जीवन-मंत्र कित्ती को दिया है। बस आप कित्ती की चिन्ता छोड़ दें।’’ दीपा मुस्करा रही थी।
दो माह बाद दीपा के नाम कित्ती का खत आया था।
मेरी दीपा,
आज इतने दिनों बाद अपने को फिर वैसा ही मुक्त पा रहीं हँू, जब आकाष को छू पाने की आकांक्षा रखती थी। मेरा आकाष तब था भी कितना सीमित, पहले अनुराग, फिर राजीव तक सिमटा मेरा आकाष, उसे भी कब पा सकी? सच तो ये है मैंने कभी अपने पंखों की ताकत पहचानी ही नहीं, हमेषा भीरू गौरया बनी, अपने पंख समेटे दूसरों की इच्छा पर उड़ती रही। काष मैंने तभी अपने पंख पसार राजीव को पा लिया होता, जव वह मेरे साथ विवाह के लिए माँ-पिता की ‘हाँ’’ के साथ लौटा था।
मेरी मुक्ति-गाथा में पहले तू, यानी मेरी दीपा फिर राजीव की प्रेरणा है। उस नर्क से अलग भी एक दुनिया है, जहाँ मुझे प्यार और सम्मान मिल सकता है, ये बात मैं भूल ही चुकी थी। राजीव ने भारतीय उच्चायोग के अपने एक परिचित द्वारा मुझे चिट्ठी भेजी थी। एक-एक षब्द ने मुझमें जीने की नई उमंग पैदा की।
मुझे अपनी लड़ाई खुद लड़नी है और ज़रूर लड़नी है, राजीव ने यही समझाया था। अगर वो चिट्ठी न मिली होती तो षायद मैं आज भी उस कारागार में रहती, दम तोड़ देती। राजीव की चिट्ठी ने मुझे सोते से जगा दिया और मैंने विद्रोह का फ़ैसला कर लिया। चिट्ठी लाने वाले मित्र ने जब मेरा निर्णय जानना चाहा तो मैंने तुरन्त अपनी स्वतंत्रता के लिए उनसे मदद मांगी थी। वैसे मैंने माँ-पापा से अपने को काट लिया था। उनसे हमदर्दी की उम्मीद नहीं थी, पर जब पापा ने आकर मुझे बाँहों में समेट लिया, मैं जान गई वो मेरे हैं। उनके प्यार ने नई ताकत दी, वह मुझे वापस भारत ले जाना चाहते थे, पर अभी मुझे अपनी लड़ाई लड़नी हैं। यह मेरा कार्य-क्षेत्र है। सुरेष ने हर तरह का डर दिखाया, पर मैं अपने निर्णय पर अटल रही।
आजकल हाॅस्पीटल के कामों में अपने को व्यस्त कर लिया है। यहाँ सभी का मुझे प्यार और सम्मान मिल रहा है। अपने अतीत की स्मृति से मुक्ति का प्रयास कर रही हूँ। राजीव के फ़ोन आते रहते हैं, वह मेरी नई भूमिका से प्रसन्न है। सुरेष से तलाक हो गया है। मेरी महिला वकील ने बिना फ़ीस लिए मेरा केस लड़ा। यहाँ की स्त्रियों की जागरूकता, एकता देख, लगता है भारत में स्त्रियों का एक जुट हो जाना कितना ज़रूरी है। वहाँ औरत ही औरत की दुष्मन है। हमारी एकता में हमारी षक्ति है, काष हम ये सच स्वीकार कर पाते।
देख दीपा तेरी कित्ती ने क्या कुछ कर दिखाया? अगले महीने राजीव आ रहा है। न-न... अभी ये मत सोच बैठना कि हम दोनों षादी करने जा रहे हैं। फि़लहाल हम बहुत अच्छे मित्र हैं, समय कब कौन-सी करवट लेगा वही जाने। मैं राजीव पर अपने को कभी जबरन नहीं डालना चाहती। उसकी मित्रता मेरे लिए काफ़ी हैं।
हाँ एक खास बात तो लिखना ही भूल गई, यहाँ का मौसम बड़ा मनमौजी है, बारिष के बाद चमकती धूप में घूमते, तेरी बड़ी याद आती हैं। मेरे इस कमरे की खिड़की से धूप का टुकड़ा सीधे मेरे पलंग पर आता है। एक बार फिर तुलसी का पौधा रोपने की इच्छा उमग आई है दीपा। जब तक तू मेरे पास आएगी, मेरे तुलसी का बिरवा लहलहा रहा होगा।
प्रषान्त जी और आने वाले नन्हें मेहमान को मेरा प्यार देना।
तेरी
कित्ती
पत्र रख, आँखें मूँूद दीपा मुस्करा उठी। वक्त कौन-सी करवट लेगा, अब इसमें उसे कोई षंका षेड्ढ नहीं थी।
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Ek Achhi Kahani Ka Prastutikaran Aapke Dwara. Thank You For Sharing.
ReplyDeleteप्यार की स्टोरी हिंदी में