5/30/11

वैलेंटाइंस -डे

वैलेंटाइंस -डे




‘वैलेंटाइंस डे’ के ज़बरदस्त धूम धड़ाके से ‘जागृत नारी संस्था’ की सीनियर मेम्बर्स भी अछूती नहीं रह सकीं। शीला जी, संजना, देवयानी, पल्लवी भी ‘वैलेंटाइंस डे’ की बातें कर रही थीं। काश् ! उनके समय में भी प्रेम को इतना ही महत्व दिया जाता। उनके समय में तो प्रेम-विवाह को पाप ही समझा जाता था। सबको अपने अनुभव याद आने लगे।

मेरे घर में तो जब मेरी छोटी बहिन ने शैलेश के साथ अपने विवाह के लिए आज्ञा माँगी तो घर में ऐसा तूफ़ान उठा कि बस। अम्मा ने तो उससे वर्षो बात भी नहीं की। शीला जी मुस्करा रही थीं।

देवयानी को भी याद हो आया, उसके भाई ने जब अपनी मनपसंद लड़की से शादी की बात कही तो उसे घर से निकाले जाने की धमकी दी गई थी।

‘सच ज़माना कितना बदल गया है। आज हमारे बच्चे किस आराम से ब्वाय फ्रेंड की बातें करते हैं। पल्लवी हंस रही थी।

‘क्या बात है संजना, तुम एकदम चुप हो? भई तुम तो भावुक लेखिका ठहरीं। तुम्हारी जिंन्दगी में कोई ‘वैलेंटाइंस डे’ न आया हो, यह हो ही नहीं सकता। ‘संजना की चुप्पी पर देवयानी ने उसे छेड़ा था।

‘सच तो यह है, हमें प्रेम को पहचानने की अक्ल ही नहीं थी।“ खोई-खोई -सी संजना बात कह चुप हो गई।

‘यह कैसी बात कह रही हो संजना? प्रेम तो सर पर चढ़कर बोलता है।“ पल्लवी विस्मित थी।
‘लगता है पल्लवी ने प्रेम का स्वाद पूरी तरह चख़ा है, क्यों पल्लवी ? शीला जी के चेहरे की मुस्कान ने उम्र की लकीरें कम कर दी थीं।

‘प्रेम-रस जिसने नहीं पिया, अभागा रहा, क्यों संजना ठीक कह रही हूँ न ?’ पल्लवी के चेहरे पर शरारती मुस्कान थी।

‘हाँ पल्लवी, प्रेम-रस ही तो जीने का मंत्र देता है....जीवन को उत्साह और उल्लास से आपाद मस्तक भिगो देता है।’ संजना क्षितिज में ताक रही थी।
‘लगता है गहरी चोट खाई है। संजना प्लीज़ अपनी प्रेम-कहानी सुनाओ न।’

‘प्रेम-कहानी, इस उम्र में ?’ संजना सोच में पड़ गई। जिस अतीत को धो-पोंछ जबरन भुला दिया, उसे दोहरा पाना क्या आसान होगा ?

‘संजना अब शुरू भी हो जा, हमसे और इंतजार नहीं होता।‘पल्लवी का बचपन जैसे लौट आया था।

‘मैंने कहा न, अपने मन को न तब समझ पाई न आज जान पाई। उस भूली कहानी को मन के किसी कोने में पड़े रहने देने में ही समझदारी हैं।‘ संजना ने बात टालनी चाही।

‘इसका मतलब चिंगारी आज तक दबी पड़ी है। आज तो कहानी सुनानी ही होगी।‘ देवयानी ज़िद पर उतर आई।

‘संजना, आज वह पुरानी कहानी सुना ही डाल। सच कहें तो ‘वैलेंटाइंस डे’ पर अतीत को सजीव कर पाना ही इस दिन की सार्थकता होगी।’ उम्र में बड़ी होने की वज़ह से शीला जी, संजना पर अपना अधिकार मानती थीं।

‘ठीक है, कोशिश करते हैं, पर बचकानी बातों पर हँसिएगा नहीं प्लीज़।’ संजना संकुचित थी।

‘अरे शुरू तो करो, शायद तुम्हारी कहानी के साथ हम भी उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच जाएँ, जब हमारे सीने में भी ज़वान दिल धड़कता था।’ पल्लवी खुश दिख रही थी।

‘अच्छा कोशिश करती हूँ.....संजना ने कहानी सुनानी शुरू की थी-

"इन्द्रनगर के उस कम्पाउंड में गिनती के सात-आठ घर ही थे। नीलेश और संजना के परिवारों के बीच प्यार का रिश्ता, अब रिश्तेदारी जैसा लगने लगा था। तीज-त्योहार साथ मनाए जाते। पाँच भाई-बहिनों वाले नीलेश के घर में विधाता ने सरस्वती के साथ लक्ष्मी का भंडार भी उदारता से लुटाया था। तीसरे नम्बर का नीलेश संजना से दो-ढाई वर्ष बड़ा रहा होगा। सामान्य चेहरे-मोहरे के साथ अपनी वेशभूषा के प्रति कतई लापरवाह नीलेश, संजना और उसकी बहिनों की नज़र में ख़ासा डल और बोर लड़का था।

बचपन से रोमांटिक कहानियाँ, उपन्यास पढ़ने वाली संजना की कल्पना का रोमानी नायक, वह निहायत मामूली- सा दिखने वाला नीलेश तो हो ही नहीं सकता था। वैसे संजना भी कोई हूर की परी नहीं थी, पर सत्रह-अठारह की होते न होते उसकी सांवली रंगत में ऐसा निखार आया कि वह कुछ ख़ास लगने लगी। सपनों में खोई संजना को अपने प्रिन्स चार्मिंग की प्रतीक्षा रहने लगी थी।

अचानक संजना को महसूस होने लगा, नीलेश की उत्सुक दृष्टि में संजना के लिए चाहत उमड़ती। उसकी आँखे उसका पीछा करतीं। संजना से बात करने के लिए नीलेश बहाने ढूँढ़ता। बहिनें नीलेश को ले, जब संजना को छेड़ती तो वह चिढ़ जाती-

‘हमारे लिए वह बु्द्धू ही रह गया है। ख़बरदार जो किसी ने हमारे साथ उसका नाम जोड़ा।’

द‘हाँ-हाँ, ऊपर से जो भी कह ले, मन में गुदगुदी तो ज़रूर उठती होगी।

‘गुदगुदी, नीलेश के नाम पर- '' संजना विस्मित होती।

‘क्यों नहीं, ऐसा भी कोई गया-गुज़रा नहीं। हर बैच का टॉपर है। यही क्या कम है कि तेरे चाहने वालों में एक नाम तो जुड़ा।’ शैली चिढ़ाती।

उनकी बातों से अनभिज्ञ, नीलेश का यह सतत् प्रयास रहता, उसका अधिक से अधिक समय संजना के साथ बीते। पिकनिक या पार्टीज़ में नीलेश की दृष्टि संजना पर ही रहती। उसकी हर ज़रूरत वह अनज़ाने ही जान जाता, फिर उसे पूरा करना, नीलेश का फर्ज़ बन जाता। हद तो तब होती सब्ज़ी ख़त्म होने के पहले उसकी प्लेट में सब्ज़ी आ जाती। शिवानी नीलेश को छेड़ने से बाज़ नहीं आती।

‘क्या बात है नीलेश, तुम्हे संजी के अलावा कोई और दिखता ही नहीं ? भई हमारी प्लेट भी खाली है। हम पर भी नज़रे इनायत हो जाएँ।’

नीलेश शिवानी की बात हँसकर टाल देता, पर उसकी बड़ी दीदी ने शिवानी को आड़े हाथों लिया था।

‘इस तरह का मज़ाक ठीक नहीं, यह तो सीधे-सीधे संकेत देने की बात हुई। जो बात नीलेश के दिमाग़ में नहीं, वही बात डालने की कोशिश करना अच्छा नहीं है शिवानी। आगे से मेरी बात याद रखना।’

‘वाह दीदी, आपने भी एक ही कही। जो जग-ज़ाहिर है, वही असलियत हमने बयान की है। सब जानते हैं नीलेश संजी के आगे-पीछे लगा रहता है।’ शिवानी हमेशा की मुँहफट थी।

‘एक झूठ को असलियत का ज़ामा पहिनाना तुम्हें ही संभव है शिवानी।’ बड़़ी दीदी नाराज़ हो उठीं।

शिवानी की बात का नीलेश पर कतई कोई असर पड़ा नहीं दिखा, पर बड़ी दीदी नीलेश की गतिविधियों के प्रति विशेष सतर्क हो उठीं। अब अक्सर नीलेश के साथ उसकी बड़ी दीदी भी संजना के घर साथ आतीं और उनकी पूरी कोशिश रहती, नीलेश उनके साथ ही वापस जाए।

इत्तेफ़ाक से यूनीवर्सिटी की बी0ए0 परीक्षा में संजना ने पॉलिटिकल साइंस विषय में टॉप कर डाला। इत्तेफ़ाक कहने की वज़ह यह थी कि टॉप करने लायक पढ़ाई संजना ने नहीं की थी।

चचेरी, ममेरी और अपनी बहिनों के जमघट के बीच पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बन ही नहीं पाता था। रोज़ हज़रतगंज के काफ़ी हाउस में कोल्ड कॉफ़ी, आइसक्रीम के अलावा फ़र्स्ट डे, फ़र्स्ट शो में पिक्चर देखने की उ्में होड़ लगती। मिलकर किसी एक की खिंचाई करने जैसे शौकों में पढ़ाई का नम्बर काफ़ी बाद में आता। इसलिए सबने यह बात मानी कि संजना का दिमाग़ सचमुच तेज़ था। क्लास में सुनी-पढ़ी बात उसके दिमाग़ में कम्प्यूटर की तरह अंकित हो जातीं।

टॉप करने वालों की मेरिट-लिस्ट में उसका नाम भी नीलेश ने ही देखा था। सच तो यह था कि अपने अच्छे अंक देखकर भी संजना ने टॉप करने की कल्पना नहीं की थी। कन्वोकेशन में स्वर्ण पदक पाने की कल्पना संजना को गुदगुदा गई।

पहली बार कन्वोकेशन के लिए संजना ने शिवानी की गुलाबी साड़ी माँगी थी। साड़ी पहिनने की कोशिश में संजना को कितना ज़्यादा वक़्त लग गया, इसका पता तो तब चला जब वे कन्वोकेशन-पंडाल पहुँचे। नीलेश के साथ संजना आगे वाली सीट पर बैठी थी, पीछे शिवानी और शैली थीं। बाकी लोग काफ़ी पहले जा चुके थे।

दूर से ही यूनीवर्सिटी कैम्पस में बना भव्य पंडाल चमक रहा था। पंडाल-गेट पर उन्हें उतार नीलेश कार-पार्क करने चला गया। गेट पर प्रॉक्टर नाथ खड़े थे। पंडाल में कार्यक्रम शुरू हो चुका था। प्रॉक्टर नाथ ने देर से पहुँचने वालों की अन्दर प्रविष्टि पर रोक लगा दी थी।

संजना वग़ैरह को भी अन्दर जाने से रोक दिया गया पीछे से आए नीलेश ने उन्हें बताना चाहा-

‘सर, संजना को स्वर्ण पदक मिलने वाला है, प्लीज इन्हें अन्दर जाने की इजाज़त दे दें।’

‘सो व्हाट, मेडल कल कलेक्ट कर सकती हैं। वक्त की अहमियत न समझने वाले को कोई छूट नहीं दी जा सकती। आप वापिस जा सकती हैं, मिस।’

‘प्लीज सर, सिर्फ आज के लिए माफ़ कर दीजिए।’ विनती करती संजना की आँखे पनीली र्र्हो आईं।

‘नो-नेवर ! बेकार अपना और मेरा टाइम वेस्ट न करें।’

प्रॉक्टर नाथ अपनी कड़ाई के लिए मशहूर थे। उनकी ‘ न’’ को ‘हाँ में बदलवा पाना असंभव था।

संजना स्तब्ध खड़ी थी। हमेशा की वाचाल शिवानी और शैली भी मूक दर्शक बन गई थीं। साड़ी पहिनकर आने की इतनी बड़ी सज़ा ? काश् ! उसने अपना सलवार-सूट पहिना होता।

नीलेश उनके पास से हटकर पास वाली कनात की ओर बढ़ गया। वहाँ खड़े वालंटियर लड़कों को वस्तुस्थिति बताने पर उन्हें संजना पर तरस आ गया। जीवन की इतनी बड़ी उपलब्धि यूँ ही व्यर्थ चली जाए तो किसे दुख नहीं होगा। नीलेश ने संकेत से उन्हें बुलाया। कनात थोड़ी- सी नीचे से ऊपर उठा देने से अन्दर घुस जाने लायक जगह बन पाई थी। उसी जगह से झुककर, वे पंडाल के अन्दर पहुँच सकी थीं। पीछे से नीलेश भी आ गया। अचानक जैसे वह संजना का अभिभावक बन गया था।

अन्दर पंडाल खचाखच भरा था। मेडल पाने वाले विद्यार्थी मंच के ठीक सामने वाली कुर्सियों पर बैठाए गए थे। वहाँ तक पहुँच पाना नीलेश की सहायता से ही संभव हो सकता था। लोगों से रिक्वेस्ट करता चलने की जगह बनाता नीलेश, संजना को उसके बैठने की जगह तक पहुँचा आया। नीलेश संजना के पास खड़ा था कि एक वालंटियर ने टोक दिया-

‘अब आप सरकिए जनाब, यहाँ क्यों खड़े हैं ?’

‘वह....इन्हें मेडल मिल रहे हैं, इसलिए....।’ नीलेश हड़बड़ा आया।

‘तो इन्हें आराम से बैठा रहने दीजिए श्रीमान। यहाँ किडनैपिंग पॉसिबिल नहीं है।’ मुस्करा कर वालंटियर ने व्यंग्य किया।

नीलेश के चेहरे की निराशा ने संजना के मन में हल्का- सा गर्व-भाव जगा दिया। उसे कुछ ख़ास मिल रहा है। जो नीलेश नहीं पा सका। संजना की सीट यूनिवर्सिटी की टॉपर के साथ बैठी थी, वह पुलक से भर उठी।

मुख्य अतिथि के भाषण के बाद पदक- विजेताओं के नाम पुकारे जा रहे थे। अपने नाम पर धड़कते दिल के ऊपर पड़ा गाउन, उस पर साड़ी थी कि बार-बार पाँव में अटक रही थी। कैमरों की क्लिक के बीच पदक ग्रहण करती संजना, मानो एक सपना जी रही थी।

हमेशा की तरह कन्वोकेशन के बाद डेलीगेसी की लड़कियों के लिए पार्टी अरेंज की गई थी। मिसेज़ कुमार गर्वित थीं, उनकी पढ़ाई छात्रा ने विषय में टॉप करके तीन-तीन पदक प्राप्त किए थे। बधाइयों की बौछार और हँसी-खुशी के बीच संजना भूल गई, वापसी के लिए नीलेश उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। काफ़ी देर बाद गेट पर पहुँची संजना ने अपनी भूल महसूस की थी। उसे आता देख नीलेश का चेहरा चमक उठा।

‘सॉरी देर हो गई। बहुत देर इंतज़ार करना पड़ा न । असल में....’

‘आपके लिए तो पूरी जिंदगी इंतज़ार कर सकता हूँ। अब चलें ?

पहली बार नीलेश के उस वाक्य ने संजना को चौंका दिया, पर बात पर विशेष ध्यान न दे संजना कार में जा बैठी। वैसी बात परिहास ही हो सकती है। घर की जग़ह नीलेश ने कार ‘क्वालिटी’ रेस्ट्रा के सामने रोकी थी।

‘कार यहाँ क्यों रोकी, घर नहीं जाना है क्या ?’

‘घर चलते हैं, पर पहले बधाई के साथ मेरी ओर से आइसक्रीम तो हो जाए।’ नीलेश मुस्करा रहा था।

‘ऊँहुक ! अभी-अभी तो हम पार्टी खाकर आए हैं, आइसक्रीम के लिए जग़ह कहाँ बची है ? संजना ने मान दिखाया।

‘एक चम्मच ही सही, प्लीज।’

उस मनुहार को नकार पाना संजना को मुश्किल लगा था। नीलेश की मुग्ध दृष्टि पर संजना संकुचित हो उठी। पहली बार बहिनों से अलग, नीलेश के साथ संजना अकेली थी। नीलेश संजना की पसंद की आइसक्रीम मँगाना चाहता था, पर संजना ने निराश किया था-

‘जब अपनी मर्ज़ी से लाए हैं तो अपनी ही पसंद की आइसक्रीम मँगाइए।’

असमंजस में पड़े नीलेश ने दो टूटी-फ्रूटी का आर्डर दिया था। संजना पूछ बैठी-

‘यह तो हमारी पसंद की आइसक्रीम है, आपको तो पिस्ता-बादाम पसंद है।’

‘आप मेरी पसंद-नापसंद जानती हैं ?’ नीलेश का चेहरा खुशी से जगमगा उठा।

घर पहुँते नीलेश को शिवानी, शैली, अंजू ने आड़े हाथों लिया था-

‘यह क्या नीलेश जी, अकेले संजना को आइसक्रीम खिला लाए ? हमारा हिस्सा कहाँ गया ?’

‘हाँ, यह तो ग़लती हो गई। चलो कल सब चलते हैं।’ नीलेश ने आश्वस्त किया।

‘सोच लो नीलेश, तुम्हारे पापा के बहुत पैसे खर्च हो जाएँगे। डाँट तो नहीं पड़ेगी ? शिवानी ने छेड़ा था।

‘उसकी फ़िक्र न करें। आज ही स्कॉलरशिप के पैसे मिले हैं। वैसे भी अपने खर्चों के लिए पापा से बहुत दिनों से पैसे लेने बंद कर चुका हूँ।’ नीलेश के चेहरे पर हल्का- सा गर्व छलक आया।

‘वाउ ! यू आर ग्रेट नीलेश।’ मुँह गोल करके शिवानी ने हल्के से सीटी बजाई।

सच बात यहीं थी, रहन-सहन के प्रति सर्वथा लापरवाह नीलेश, पढ़ाई में बहुत तेज़ था। एम0एस0सी0 में दूसरी पोजीशन पर रहने के बावजूद लेक्चरर्स का वह विशेष प्रिय था। हर सेमिनार में नीलेश का पेपर होना ज़रूरी होता। एम0एस0सी0 करते ही उसे लेक्चररशिप मिल गई थी।

सउन दिनों गिटार बजाना, फ़ैशन-सिम्बल माना जाता। संजना को भी गिटार सीखने का शौक़ हो आया। उदार माँ-पापा ने बच्चों की हर फ़र्माइश पूरी की। म्यूज़िक स्कूल में शौक़िया गिटार सीखने संजना जाने लगी। वैसे उसके पहले वायलिन, सितार सीखने का शौक भी वह पूरा कर चुकी थी। संजना का हर काम में दख़ल रहता, पर किसी भी चीज़ में दक्षता हासिल करने की उसने कोशिश नहीं की। कुछ ही दिनों में संजना गिटार पर हल्के-फुल्के फ़िल्मी गीत बजाने लगी। घर में किसे इतनी फ़ुर्सत जो संजना का गिटार सुनता, पर गिटार सुनने के बहाने नीलेश को संजना का सानिध्य मिल जाता। घर से बार-बार बुलावे आने के बावजूद नीलेश को अपने घर लौटने की ज़ल्दी नहीं होती।

घर के पास के स्कूल में लीव वैकेंसी पर संजना को बुला लिया गया। उस दिन से नीलेश ने उसे ‘गुरूजी’ कहकर बुलाना शुरू कर दिया। नीलेश की बहिन की शादी में संजना ने रंगोली बनाई। उसकी कलात्मक अभिरूचि के सभी कायल थे। नीलेश पूरे समय उसके आसपास बना रहा। शादी में आए बच्चों को बटोर कर उसका परिचय कराया था।

‘देखो बच्चो, गुरूजी ने कितनी सुन्दर अल्पना बनाई है। तुम लोग इनकी शागिर्दी कर लो, फ़ायदे में रहोगे।’ उस दिन से बच्चे उसे गुरूजी कह कर चिढ़ाते और नीलेश अपने पर मुस्कुराता। शादी वाले दिन नीलेश ने नई शर्ट पहनी थी। शर्ट के पीछे कहीं नम्बर छपा रह गया था। शैली हँसते-हँसते लोटपोट हो गई-

‘संजना तू कुछ भी कर ले, पर नम्बर पड़ी शर्ट पहनने वाले से शादी नहीं करेगी।’

घर में संजना की शादी की चर्चा होने लगी थी। इसी बीच नीलेश को एक मल्टीनेशनल कम्पनी से ख़ासा-अच्छा ज़ॉब-ऑफ़र मिल गया और उसकी पोस्टिंग बम्बई हो गई। तभी संजना को पता चला था नीलेश ने पार्ट टाइम एम0बी0ए0 के कोर्स में भी टॉप किया था।

बम्बई जाने के पहले नीलेश संजना के घर मिलने आया। अचानक पापा से उसने जो कहा उससे पहली बार संजना चौंक गई-

‘ताऊजी आप संजना की शादी मुझसे पूछे बिना मत तय कीजिएगा।’

‘ज़रूर जहाँ भी बात पक्की होगी तुम्हें ज़रूर बताऊँगा, नीलेश।’ सीधे-सादे पापा खुश हो गए।
‘आप इनकी शादी की ज़ल्दी मत कीजिएगा ताऊजी।’ पापा-माँ के पाँव छू, नीलेश चला गया।

पहली छुट्टी मिलते ही नीलेश आया था। घर पर सामान रख नीलेश सीधे संजना के घर आ गया। पीछे-पीछे उसे बुलाने घर से नौकर आया था-

‘भइया जी, माँ जी बुला रही हैं। चाय-पानी तो कर लें।’

‘माँ से कह दो, हमारा इंतज़ार न करें। हम थोड़ी देर में आ जाएँगे।’

नई पोस्टिंग के प्रति नीलेश काफ़ी उत्साहित था। बम्बई के प्रति संजना का भी आकर्षण था-

‘आप तो धरती के स्वर्ग पर पहुंच गए।‘ संजना ने कहा था।

‘आपको बम्बई पसंद है ? थैंक्स गॉड। मुझे तो डर था कहीं आप बम्बई को नापसंद करती हों।’

‘वाह ! बम्बई तो स्वप्न-नगरी है। काश् ! हम भी बम्बई में रहते।’ संजना ने चाहत भरी साँस ली।

‘आप हुक्म तो करें, बम्बई आपके कदमों में होगी।’ नीलेश खुश था।

‘अच्छा वहाँ तो आपको बड़ा- सा घर मिला होगा, जैसा फ़िल्मों में दिखता है।’ संजना ने मज़ाक किया।

‘जो घर आप पसंद करेंगी, वहीं ले लूँगा। और आप क्या चाहती हैं ?’

‘हम चाहते हैं एक लम्बी- सी कार हो, उसमें पीछे की सीट से एक प्यारा- सा सफ़ेद डॉगी, बाहर झाँकता हो।’

‘डन ! बताइए घर के परदे किस रंग के होने चाहिए ?’

‘वह तो घर की दीवारों के रंग पर डिपेंड करेगा, ऐसे थोड़ी बताया जा सकता है ?’

‘तो चलिए, घर की दीवारों से मैच खाते अपनी पसंद के परदे ख़रीद दीजिए।’ दो मुग्ध आँखें संजना को गर्वित कर गईं।

नीलेश का आना-जाना लगा रहा। उसकी संजना के घर आने की उत्सुकता में कोई कमी नहीं आई। संजना के मन में हल्की- सी पुलक जागने लगी, कोई उसे इतना चाहता है उसकी इच्छा-अनिच्छा को इतना मान देता है। नीलेश पर उसकी बड़ी दीदी का पहरा बढ़ता जाता। जब भी वह आता, दीदी उसके साथ आतीं और साथ ही ले जातीं।

पुरानी बातें याद करती संजना को याद आता, बहिनों की लम्बी-चैड़ी ज़मात में कुछ भी व्यक्तिगत नहीं रह जाता था। किसी की किसी के प्रति चाहत या लगाव भी, सामूहिक चर्चा का विषय होता। सर्वसम्मति से लिए गए निर्णय, व्यक्तिगत बन जाते। नीलेश के मामले में भी वही बात रही। बहिनों की सम्मति मे संजना जैसी मेधावी, हाज़िर ज़वाब, स्मार्ट लड़की के लिए नीलेश जैसा गम्भीर, कुछ हद तक बोर किस्म का लड़का, कतई ठीक नहीं था। संजना ने अपना दिमाग़ लगाने की ज़रूरत ही नहीं समझी, वर्ना यह सोचना काफ़ी ठीक होता कि नीलेश के साथ वह सुखी जीवन जी सकती थी।

एक बात संजना आज तक नहीं समझ पाई, नीलेश उसे चाहता था, इसमें शक की संभावना भी नहीं, फिर वह अपने मन की बात स्पष्ट शब्दों में संजना से क्यों नहीं कह सका ? अप्रत्यक्ष रूप से उसने कई-कई बार संकेत दिए, पर सीधे शब्दों में अपने मन की बात कहने का साहस क्यों नहीं कर सका ? नीलेश को लेकर बहिनों के मज़ाक में उसने भी साथ दिया, पर क्या मन के अन्तर में उसके लिए चाहत का अंकुर नहीं फूट आया था ?

अपनी आर्थिक स्थिति के कारण माँ-बाप संजना के साथ नीलेश के विवाह का प्रस्ताव रखने में संकोच करते रहे। आर्थिक दृष्टि से नीलेश का घर उनकी अपेक्षा बहुत सम्पन्न था। हालाँकि नीलेश की माँ संजना की तारीफ़ें करती न थकतीं-

‘संजना तो जिस घर में जाएगी, घर उजाला कर देगी। बड़ी गुणी लड़की है।’

संजना के विवाह की बात एक डॉक्टर से चल रही थी। बात काफ़ी आगे बढ़ चुकी थी, स्वयं संजना भी उस प्रस्ताव में इन्टरेस्टेड थी। नीलेश सुनते ही व्याकुल हो गया-

‘नहीं ताऊजी, जब तक अच्छी तरह खोज़बीन न करे लें, विवाह मत तय कीजिएगा।’

‘ठीक कहते हो नीलेश, ज़माना बड़ा ख़राब है।’ पापा को नीलेश की बात में तथ्य दिखा।

‘आप कुछ दिन के लिए रूक जाइए, थोड़े दिनों बाद सब ठीक हो जाएगा। ताऊजी मैं....’

कुछ कहता नीलेश, अचानक चुप हो गया। शायद उस दिन बात उसके ओंठों तक आ गई थी, पर न जाने किस वज़ह से बाहर न आ सकी।

इस बीच एक अच्छा प्रस्ताव मिल गया। लड़का विदेश से आया था, चट मँगनी पट ब्याह हो गया। निमंत्रण भी फ़ोन द्वारा दिए गए। नीलेश को ख़बर करने की किसे याद रहती ? विदा के दिन,राख से बुझे चेहरे के साथ नीलेश आ पहुँचा। अम्मा चौंक गईं- -

‘नीलेश बेटा तुम ? अच्छे वक़्त पर आगए। क्या करें शादी इस हड़बड़ी में हुई, किसी को बुलाने का भी वक़्त नहीं मिला।

‘शादी के बाद संजना जी को देखने का बहुत मन था, सुनते ही चला आया।’ संजना के प्रसन्न चेहरे पर एक दृष्टि डाल, अम्मा के लाख रोकने पर भी नीलेश नहीं रूका था।

संजना चुप हो गई। सब स्तब्ध थीं।
‘उसके बाद कभी नीलेश से मिलीं संजना ?’ शीला जी ने ख़ामोशी तोड़ी थी।

‘नहीं......।’

‘अब वह कहाँ है ?’ पल्लवी उदास- सी थी।

‘शायद फ्रांस में.....।’

‘एक बात बता, उसने शादी की या नहीं ?’ देवयानी का सबका सवाल था।

‘मेरी शादी के 6-7 वर्षों बाद किसी बड़े आदमी की बेटी से उसकी शादी हो गई। सुना था शादी के लिए माँ और बड़ी दीदी ने भूख हड़ताल की धमकी दी थी।’ हल्की- सी मुस्कान संजना के ओंठों पर तिर आई।

‘उसकी शादी की ख़बर सुनकर कैसा लगा था संजना ?

‘वाह ! शीला जी, क्या सवाल पूछा है। संजना ने कभी नीलेश को चाहा ही नहीं, तो इसे क्यों भला-बुरा लगना, क्यों

संजना ?’ देवयानी ने विश्वासपूर्वक कहा।

‘नहीं देवयानी, सच यह नहीं है। आज सच्चाई स्वीकार करती हूँ, उसके विवाह की ख़बर सुनकर दिल में जो टीस उठी, सह पाना मुश्किल था।’

‘पर क्यों संजना ?’

‘इसलिए कि उस दिन पहली बार महसूस हुआ मैंने वह चीज़ हमेशा के लिए खो दी, जो मेरे जीवन की अमूल्यतम निधि थी। सच तो यह है विवाह के बाद अनज़ाने ही कई बार पति और नीलेश की तुलना कर जाती और तुलना में नीलेश बहुत ऊपर रहता। कोई किसी को चाहने की सीमा तक चाहे और अचानक चाहत का वह एहसास सर्वथा शून्य हो जाए तो ?’ संजना का सवाल अनुत्तरित ही रहा।

‘अगर आज फिर कहीं नीलेश मिल जाए तो तेरा क्या रिऐक्शन होगा संजना ?’

‘नहीं, अब उससे कभी नहीं मिलना चाहूँगी, देवयानी। नीलेश की आँखों में अपने लिए बेपनाह चाहत देखने की आदत बन चुकी थी, चाहत-रहित नीलेश की आँखें, क्या झेल सकूंगी ?’

बात कहती संजना कहीं दूर क्षितिज में ताक रही थी।

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