सती
मंदिर की बाहरी दीवार पर छोटी-छोटी हथेलियों को पत्थर पर उभारा गया था। भक्त-जन उन हाथों का स्पर्श कर, अपने हाथ श्रद्धापूर्वक मस्तक से छुआ रहे थे। कौतुक के साथ जया वह दृश्य देख रही थी। छोटी होने के कारण उन हथेलियों का स्पर्श कर पाना संभव नहीं था।
‘ये किसके हाथ है, माँ सा ?’’
‘सती देवी, राज कुंवर के है, बिटिया।’
‘राज कुंवर कौन है, माँ सा ?
‘अरी धीमें बोल, राजपूत घर में जनम लिया है, सती मइया को नहीं जाने है। इतनी बड़ी हो गई, माँ ने सती देवी का परताप भी नहीं समझाया ?’ ताई ने जया के साथ उसकी माँ को भी घुड़की दे डाली।
साथ चल रही जया की तयेरी बहिन कुंती भी उसकी अनभिज्ञता पर हँस पड़ी।
‘तुम राजकुंवर को जानती हो, कुंती जीजी ?’ भोली आँखों में ढेर से विस्मय के साथ जया फिर पूछ बैठी।
‘हाँ जया, माँ ने हमे पूरी कहानी सुनाई है। राजकुंवर अपने पति के मरने के बाद,उनके साथ चिता पर जा बैठीं। उनके प्रताप से चिता में आग लग गई और राजकुंवर सती हो गईं’।
‘आग से उन्हें डर नहीं लगा, जीजी ?- जया सिहर उठी।
‘वह तेरी तरह डरपोक थोड़ी थीं, ज़रा- सी उँगली जल जाने पर चार दिन तक रोती रहतीं। कुछ दिन पहले जया की उँगली जल गई थी। उँगली पर पड़े छाले को देख, जया रोती रहती। उसी घटना को ले, कुंती ने उपहास किया था।
उस वक्त तो कुंती की बात ठीक से नहीं समझ सकी, जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई ‘सती’ का अर्थ स्पष्ट होता गया। एक जीवित, हाड़-माँस वाली स्त्री की चिता में जलने की बात, जया को डरा देती। नहीं, वह कभी शादी नहीं करेगी। कहीं
उसका पति पहले मर गया तो उसे भी जीवित चिता में जलने को विवश किया जा सकता है। ‘सती’ शब्द जहाँ हर जगह श्रद्धा का पर्याय होता, जया के मन में आतंक और वितृष्णा जगा जाता।
सत्राह वर्षीय जया के लिए वर की तलाश शुरू हो चुकी थी। विवाह की बात जया को कुंठित करती-
‘हम शादी नहीं करेंगे, माँ सा। आप बा सा से कह दीजिए, हमे अभी पढ़ाई पूरी करनी है।’
‘ज़रा छोरी की बात तो सुनो, हमारे कुल में भला कभी कोई लड़की अनब्याही रही है।’ माँ हँस पड़ती।
‘यह सब इसकी पढ़ाई का नतीज़ा है, छोटी। सुने हैं स्कूल की मास्टरनी लड़कियों को उल्टी-सीधी पट्टी पढ़ाए हैं। मैं तो कहूं इसका स्कूल जाना बंद करा दो।’ देवरानी को ताई हमेशा डराती ही रहतीं।
‘ठीक कहती हो, जिज्जी, आखि़र तो घरबार ही सम्हालना है। बारहवीं तक तो पढ़ ली। करें क्या छोटी रो-रो कर घर भर देती है। हमने तो मैट्रिक बाद ही शादी की कही थी।’ जया की माँ विवशता जताती।
‘अब हमारी कुंती को देख लो। एक बच्चे की माँ बन गई है। घर भी अच्छे से सम्हाले है। जया को तो इसके बा-सा ने सिर चढ़ा रखा है।’ ताई का आक्रोश फूट पड़ता।
राजपूतों के उस रूढ़िवादी परिवार में जया के मन की बात समझने वाला कोई नहीं था। कम उम्र में लड़कियों के विवाह सामान्य बात थी। भला हो ज्योतिषी जी का, जिन्होंने बा सा से कह दिया था अठारह वर्ष के पहले विवाह करने से लड़की के पति पर संकट की आशंका है। उस संकट ने जया को तार दिया। घर बैठने से अच्छा कुछ पढ़ी-लिख ही ले। आजकल लड़के भी पढ़ी-लिखी लड़की ही चाहते हैं।
पहले कभी उसी घर में लड़की का जन्म होते ही उसे नमक चटाकर ख़त्म कर दिया जाता था। तीन भाइयों के बाद जया का जन्म बुरा नहीं लगा था। जया का गोरा चिट्ठा रंग, नन्हां सुन्दर मुखड़ा देख दादी को भी ममता हो आई-
‘तीन-तीन भाई हैं, राखी बाँधने को छोरी आ गई।’ माँ का मुँह खुशी से चमक उठा।
घर भर की लाड़ली बेटी है जया ! उस परिवार में लड़कियों को अपनी बात कहने, ज़िद करने का अधिकार नहीं दिया जाता, पर अपनी बात निःसंकोच बा सा के सामने रख देती। ताई की भंवे सिकुड़ जातीं-
‘छोरी को इतना सिर न चढ़ाओ, लाला जी, पराए घर जाना है।’
ताई की दो बेटियाँ जच्चगी में ही ख़त्म हो गईं थीं, कुंती की किस्मत अच्छी थी। दाई ने दादी को समझाया था-
‘छोरी को रहने दो। क्या पता इसी की किस्मत से भाई आ जाए’।
दाई की बात सचमुच सच निकली। कुंती के जन्म के एक बरस बाद उसके भाई का जन्म हुआ था। चार-चार भाइयों के बीच कुंती और जया दो ही बहिनें थीं। हर पर्व-त्यौहार पर दोनों लड़कियों से पूजा कराई जाती, उन्हें परम्परा-पालन का महत्व समझाया जाता। कुंती पूरे मनोयोग से सब सुनती, पूजा करती। सती मइया के मेले में दोनों बहिनें जातीं कुंती, माँ और चाची के साथ श्रद्धापूर्वक मंदिर में शीश नवाती, पर जया की दृष्टि में चढ़ाया जाने वाला चढ़ावा ढ़ेर सारे सवाल पैदा कर देता, वह सोचती जिस घर से कोई सती हो गई, उस परिवार का सम्मान बिरादरी में क्यों बढ़ जाता है। शायद सती के नाम पर आया चढ़ावा, पूरे घर की आमदनी से भी अधिक होता है। जया का मन आक्रोश से भर उठता- एक जीवन की आहुति देकर ये लोग उसके नाम से व्यापार करते हैं। जया ने जब भी आवाज़ उठानी चाही, माँ या ताई ने वहीं डाँट-फटकार कर बात ख़त्म कर दी। अपने मन की भड़ास जया स्कूल में निकालती। उसकी टीचर जया की बातें ध्यान से सुन, ठीक बात का समर्थन करतीं।
इतना होने के बावजूद जया को अपने मन की बात निर्भय हो, कहने का साहस नहीं होता। अन्ततः उसे बचपन से बताया गया था, वह एक लड़की है, उसे लड़की की तरह ही रहना चाहिए, इसी में उसके परिवार का सम्मान है। परिवार की मर्यादा की रक्षा करना, हर लड़की का कर्तव्य ही नहीं धर्म होता है, भले ही इसके लिए जान भी देनी पड़े।
जया का सबसे बड़ा भाई राजसिंह शहर से बी0ए0 की पढ़ाई कर रहा था। उस बार उसके साथ उसका मित्र भी छुट्टियों में राजस्थान घूमने आया था। बेहद हँसमुख, शालीन समीर ने बड़ी ज़ल्दी उस घर में अपने लिए जगह बना ली। शुरू-शुरू में उसके सामने जाती जया, संकुचित होती, पर समीर के खुले व्यवहार ने उसका संकोच दूर कर दिया। कहीं बाहर जाते वक़्त वह जया को भी साथ ले लेता-
‘राज तुम्हारी यह बहन क्या घर से कभी बाहर गई है। लगता है बाहर निकलते ही इसे कोई खा जाएगा।’
‘क्यों, क्या हम स्कूल नहीं जाते ?’ जया नाराज़ हो उठती।
‘वाह ! क्या बात कही है, घोड़ा गाड़ी में दरबान के साथ जाती हो, कभी खुला आसमान अकेले देखा है ?’
जया सोच में पड़ जाती, आँगन से आसमान का जो टुकड़ा दिखता, वह कितना छोटा था। ताई और अम्मा के साथ इधर-उधर ताकते ही, झिड़की खानी पड़ती। उसने ज़िद कर डाली-
‘माँ सा, हम भी राज भइया के साथ जोधपुर जाएँगे, जैसलमेर घूमेंगे।’
‘बाबली हुई है, लड़कों से बराबरी करे है।’ ताई आँखे तरेरती।
पता नहीं समीर ने ताई और माँ को कौन- सा मंत्र दे दिया कि जया को भी उनके साथ जाने की इज़ाज़त मिल जाती।
किले की दीवारों पर उभरे सतियों के हाथ देख, समीर गम्भीर हो उठा-
‘क्या यहाँ आज भी सती-प्रथा चल रही है, राज ?’
‘यह सती का अपना निर्णय होता है, समीर।’
‘नहीं, मैं नहीं मान सकता। ज़िंदगी को खुद खुशी से मौत के हवाले कौन कर सकता है। जया आप क्या सोचती हैं ?’
‘जी.....ई......पता नहीं।’ अचानक पूछे गए अप्रत्याशित प्रश्न ने जया को हड़बड़ा दिया।
‘अगर आपसे सती होने को कहा जाए तो क्या आप सती हो सकती हैं ?’ दो सवालिया आँखे जया पर निबद्ध थीं।
‘व्हाट नानसेंस ? समीर तुम्हें जया से ऐसा सवाल नहीं करना चाहिए। जानते हो न, पति की मृत्यु के बाद स्त्री सती होती है।’
‘ओह आई एम सारी ! सचमुच मुझसे ग़लती हो गई। मुझे माफ़ करें, जया।’
उस सवाल के बाद समीर जैसे कहीं खो सा गया। चाहकर भी जया भाई के सामने अपने मन की सच्चाई नहीं खोल सकी। नहीं.....सती होने की कल्पना भी असह्य है। सती-परम्परा में न उसकी श्रद्धा है न विश्वास। उसका जवाब सुनकर क्या भाई का खून नहीं खौल उठेगा। जिस जगह सती की पूजा होती है, उसी जगह जन्मी लड़की, उसके विरूद्ध मुँह कैसे खोल सकती है।
सबका जैसलमेर जाना तय हुआ तो जया खिल उठी। जैसलमेर से मौसी की कई चिट्ठियाँ बुलावे की आ चुकी थीं। मौसा की तबादले वाली नौकरी ठहरी, न जाने कब किसी और शहर जाना पड़ जाए। उनके सामने जैसलमेर के रेत के टीले तो देखे जाएँ। जया माँ के पीछे पड़ गई, वे भी जैसलमेर जाएँगी।
‘चलो न माँ सा, जो कहोगी करेंगे।’
‘हम कहेंगे तो ब्याह करेगी, ‘ना’ तो नहीं करेगी ?’ हल्के स्वर में माँ ने परिहास किया।
‘हाँ-हाँ, करेंगे चलो न ?’
सब कार से जैसलमेर के लिए रवाना हो गए। रास्ते भर मज़ाकिया कहानियाँ सुना, समीर सबको हँसाता रहा। कहीं कार रूकवा ठंडा कोक ले आता। कहीं भुट्टे भुनते देख, अपने को रोक न पाता-
‘अम्मा जी, भुट्टे मेरी वीकनेस हैं। जया, आपको भी अच्छे लगते हैं न ? अभी लाया, ज़रा गाड़ी रोकना भाई।’
राज नाराज़ हो जाता-
‘तेरी फ़र्माइशें चलती रहीं तो दिन भर में भी जैसलमेर नहीं पहुँच पाएँगे।’
जया को लगता, काश् ! यह सफ़र कभी ख़त्म न हो। यह जीवन उसने कब जाना था ?
मौसी ने जी खोल, उनका स्वागत किया। मौसी जी ने दूसरे दिन ‘सम नेशनल पार्क’ में रात में रूकने की व्यवस्था भी कर रखी थी। दिन भर की थकान उतारने माँ और जया घर पर ही रहीं, पर राज और समीर मौसा जी के साथ जैसलमेर देखने चले गए।
रात में जया की माँ को तेज़ बुखार चढ़ आया। जया का मुँह उतर गया। अब भला क्या उसका जाना हो पाएगा। सम के सैंड-डॅयून्स बस कहानियों और किताबों में ही पढ़े हैं। आज जब देखने का मौक़ा आया तो......समाधान मौसी ने कर दिया-
‘परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं जिज्जी के पास रहूँगी। तुम सब अपना प्रोग्राम मत बिगाड़ो।’
‘पर जया इन लड़कों के साथ अकेली कैसे जाएगी, कुछ तो सोच, माला।’ माँ ने धीमी आवाज़ में बहिन से मन की शंका व्यक्त कर दी।
‘आप परेशान न हों जिज्जी ! इनके मित्र की बेटी रूपा, जया के साथ रहेगी। अब आप दवाई खाइए और आराम कीजिए।’
मौसी के प्रति कृतज्ञता से जया का मुँह चमक उठा वर्ना कुँए के पास पहुँचकर भी उसे प्यासा ही लौटना पड़ता।
माँ ने उसके चलते वक़्त समझाने के अंदाज़ में कहा था-
‘देख जया, सम्भल के रहना। साथ में पराया लड़का है। बा सा के नाम की मर्यादा रखना।’
‘माँ की बात पर जया के कान तक लाल हो उठे। छिः, माँ क्या सोचती है, पर माँ की शंका व्यर्थ ही नहीं थी। ‘सम नेशनल पार्क’ में अपने ठहरने के स्थान पर पहुँचने पर पता लगा, रूपा अपने मामा के गाँव गई है। अगर माँ को यह बात पता लग जाती तो क्या वह यहाँ आ पाती ?
राजसिंह और मौसा जी, मित्र के साथ बैठकर बातें कर रहे थे। जया को रेत के टीले आमंत्रित करते लग रहे थे-
‘भइया, हम उधर हो आएँ ?’
‘ठीक है, समीर तू भी जया के साथ चला जा। हम लोग भी पहुँचते हैं।’
रेत में चलती जया के पाँव धँस-धँस जाते। मन जैसे रेत की नदी में नहा गया। मुट्ठी में रेत भर, बार-बार महसूस करती जया, बच्ची बन गई थी। रेत का ऐसा अनन्त सागर ?
‘लगता है रेत से बेहद प्यार है आपको ?’ समीर की बात पर जया चैंक उठी। मुट्ठी में पकड़ी रेत अचानक छूट गई। दृष्टि उठाते ही समीर की नज़रों से उसकी नज़र मिल गई।
‘जी.....ई......।
‘जी के अलावा भी कुछ बोल पाती हैं ? सुना है मैट्रिक में फ़र्स्ट डिवीज़न मिली है और बारहवीं में भी डिवीज़न मेंटेन करेंगी। क्यों ठीक कहा, न ?’ समीर मुस्करा रहा था।
‘जी !’ फिर जी सुन, समीर ठठाकर हँस पड़ा। जया संकुचित हो उठी।
‘आप शहर की लड़कियों से कितनी अलग हैं, जया।’
‘क्यों क्या हम गाँव के हैं ?’ जया सचमुच नाराज़ थी।
‘माफ़ करें असल में मेरा मतलब दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों से था। वे लड़कों से डरती नहीं, बराबरी से मुकाबला करती हैं।’
‘हम आपसे क्या डरते हैं ?’ भोली आँखे उठा, जया बस इतना भर कह सकी।
‘अगर डरती नहीं तो माँ सा के सामने हमसे बात क्यों नहीं करतीं जया ?’
‘वह तो हमारे घर का क़ायदा है, बाहर के लड़कों से लड़कियाँ बात नहीं करतीं।’
‘क्यों, लड़कियों और लड़कों के लिए अलग नियम हैं, जया ? कभी सोचा है ?’
‘नहीं !, जया ने सिर हिला दिया।
‘आप बहुत अच्छी हैं, जया, पर अगर लड़कियाँ अपने बारे में नहीं सोचेंगी तो वे ऐसे ही घुट-घुट कर जलती-मरती रहेंगी।’ समीर की आवाज़ में कडुवाहट घुल आई।
‘अरे उधर देखिए, सूरज डूब रहा है। कितना सुन्दर लग रहा है न ? अचानक ये रोशनी कहाँ से आ गई।’ उत्तर पाने के लिए समीर पर दृष्टि डाली तो उसकी मुग्ध दृष्टि अपने पर जड़ी पा, जया संकुचित हो उठी। उस दृष्टि का अर्थ कितना स्पष्ट था।
‘मुझे तो यहाँ उदित होता सूर्य दिख रहा है, जया सच सब कुछ अपूर्व है।’ जया को देखता समीर, अस्त होते सूर्य को देखना ही भूल गया। जया के चेहरे पर सूर्य अपनी समस्त लालिमा के साथ प्रतिबिम्बित था।
‘भइया कह रहे थे, आज चाँदनी रात है। रात में रेत एकदम चाँदी जैसी लगती है।
‘चाँद तो निकल आया है, जया पर रेत तो सोना बन गई है।’ रहस्यपूर्ण मुद्रा में समीर मुस्करा रहा था।
‘कहाँ ?’ उस अबूझ पहेली का जवाब जया, समीर की दृष्टि में पा गई।
राजसिंह ऊँटों के साथ आ गया था। ऊँट पर बैठकर रेत के टीले पार करना एक अनुभव था। ऊँट जब ऊँचाई से नीचे उतरता तो जया का जी बैठ जाता। एक-दो बार तो उसकी चीख़ भी निकल गई। समीर ने उसके ढेर सारे चित्र अपने कैमरे में क़ैद कर लिए।
रात में ‘सम’ ने सममुच चाँदी की चादर ओढ़ ली। रेत के रजत सागर में जया का मन पूरी तरह नहा गया।
‘जानता है समीर, हमारी जया कहानी लिखती है।, क्यों जया यहाँ भी कोई कहानी बन रही है ?’ प्यार से जया के सिर पर हाथ धर, राजसिंह ने पूछा-
‘अच्छा यह कहानीकार हैं ? एक कहानी हम पर भी लिख डालिए, बशर्ते हम आपकी नायिका के लिए उपयुक्त पात्र हैं।’’ समीर शैतानी से मुस्कराया।
‘जवाब दे जया, इस नामुराद पर कहानी लिखी जा सकती है ? बिना डरे जवाब देना। हाँ तेरे मुँह पर ताला क्यों लग गया है ?‘
‘रहने दे राज ! अक्सर न बोलकर भी सब कुछ कह दिया जाता है। मैं इनकी कहानी का नायक नहीं बन सकता। ठीक कहा न, जया ?’ समीर ने गहरी दृष्टि डाली थी।
‘अब बन मत। जानती है क्या, समीर कवि है। पढ़ाई में भी नम्बर वन है। इसे तो घर बैठे नौकरी के आफ़र्र्स हैं, पर ज़नाब को पुलिस की नौकरी करनी है।’
‘अरे छोड़ हम इस लायक नहीं कि हम पर चर्चा की जाए, राज।
‘वाह ! पूरे कॉलेज का हीरो है। लड़कियाँ इसकी दीवानी हैं, जया ! तेरी ही तरह हमारी जया भी पढ़ाई की शौक़ीन है, समीर।’
‘तब तो इन्हें खूब पढ़ना चाहिए। पढ़ेंगी न जया ?’
‘पता नहीं, बा सा जो कहेंगे।’ जया कुछ उदास हो गई।
‘क्यों, आपका अपना मन कोई मायने नहीं रखता ? राज, तू तो इनको सपोर्ट करेगा न ?’ समीर बेचैन दिख रहा था।
‘हमा्री ऑरथोडाक्स फै़मिली है, समीर। पहली बार जया इस तरह अकेली बाहर आई है, वर्ना लड़कियों के लिए हज़ार-हज़ार बंधन हैं।’
‘तू पढ़ा-लिखा समझदार है। घर का बड़ा बेटा है, फिर भी कुछ नहीं कर सकता, स्ट्रेंज।’
‘शायद अपने लिए भी कुछ न कर पाऊँ।’ राजसिंह सोच में डूब गया।
‘अगर सच यही है तो क्यों बेकार में कंचन को प्यार के झूठे सपने दिखा रहा है। अन्ततः उसका दिल ही तो टूटेगा न ?’ समीर की आवाज़ में आक्रोश था।
‘अगर सच यही है तो क्यों बेकार में कंचन को प्यार के झूठे सपने दिखा रहा है। अन्ततः उसका दिल ही तो टूटेगा न ?’ समीर की आवाज़ में आक्रोश था।
‘कंचन कौन है, राज भइया ?’ जया उत्सुक हो उठी।
‘कोई नहीं, यह यहाँ के माहौल का असर है इसे हर बात में प्रेम ही नज़र आता है।’
‘राज भइया, महेन्द्र इसी जगह से होकर मूमल के पास जाता था न ?’
‘कौन मूमल, किसकी बात कर रही हैं, जया ?’
‘तू नहीं जानता समीर, महेन्द्र और मूमल की प्रेम-कहानी का, यहाँ का एक-एक रेत-कण साक्षी है। हर रात मीलों दूर से ऊँट की पीठ पर बैठ, मूमल का प्रेम-दीवाना महेन्द्र, अपनी प्रेमिका से मिलने आया करता था। उस दर्द भरी प्रेम-गाथा को गीतों में गूँथ लिया गया है। जया तू मूमल का विरह्-गीत सुना दे। पूरी कहानी सजीव हो उठेगी।
‘क्या यह गा सकती है, इन्हें तो ठीक से बोलना भी नहीं आता।’ समीर ने जया को चिढ़ाया।
‘तूने हमारी जया को जाना ही कहाँ है। बड़ी गुणवन्ती है मेरी बहिन। देखना, घर पहुँचते ही इन रेत के टीलों, यहाँ के वातावरण को, कैनवस पर साकार कर लेगी। चल अब गीत शुरू करके समीर को झुठला दे जया।’ गर्व से राजसिंह ने समीर को देखा था।
शायद समीर के परिहास में जया को चुनौती दिखी या फिर वातावरण के प्रभाव से मूमल उसके अंदर में जाग उठी। पूरे मन से मूमल की विरह् व्यथा, जया के स्वर में मुखरित हो उठी। हवा जैसे थम गई। समीर मुग्ध विस्मय से जया को ताकता रह गया। गीत ख़त्म होने पर ताली बजा, बधाई देने की भी सुध नहीं रही। कुछ पलों को जैसे समीर, महेन्द्र और जया मूमल बन गई थी।
देर रात तक चाँदी की चादर पर बैठे, वे बातों में डूबे रहे। जया के लिए वह सब एक सपना था। काश् ! वह सपना कभी न टूटे। कहानियों में पढ़े, सपनों में देखे नायक की तरह, समीर उसके सामने था। जया का रोम-रोम उस रात को कै़द करने को आतुर था।
रेत में नहाए मन के साथ वापस लौटता समीर, सोच में डूबा था। उस रेतीली धरती पर जया जैसा कमल खिलता है। अपार सम्पत्ति का इकलौता वारिस होने के बावजूद वह उच्च कुलीन राजपूत परिवार के लिए सर्वथा त्याज्य था। जया उदास थी। ये दो दिन, जीवन की अमूल्य निधि की तरह उसके अंतर में सदैव अक्षुण्ण रहेंगे।
जैसलमेर से लौटने के बाद समीर फिर नहीं रूका। राजसिंह रोकता रहा-
‘अभी तो छुट्टियों के पन्द्रह दिन बाकी हैं, चार-पाँच दिन और रूक जा।’
‘नहीं घर में भी माँ-पिताजी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। और रूकना संभव नहीं।’
जाने के पहले एकान्त में जया से कहा-
‘आप कहानीकार हैं। अगर कोई किसी को चाहने की हद तक चाहे, यह जानते हुए भी कि उसकी चाहत उसे कभी नहीं मिल सकती, उस अभागे की कहानी लिख सकती हो, जया ?’
जया ने कहना चाहा था......‘पहले से हार मान, हथियार डाल देने वाला ज़रूर अभागा है, पर प्रयास करने वाला, शायद अपना दुर्भाग्य, सौभाग्य में बदल सके। काश ! अपनी चाहत के लिए तुम लड़ते। पृथ्वीराज की तरह घोड़े की पीठ पर बिठा, उसे ले जाते। कहानी तो तब बनती न समीर ?’
समीर के चले जाने के बाद जया जैसे बदल गई थी। यह कोई दूसरी ही जया थी। सोच में डूबी, अनमनी जया का मन, हर काम में उचाट हो गया लगता। चित्र बनाने बैठती तो मानस में सम की चाँदनी रात बेचैन कर जाती। पढ़ते वक़्त किताबों में समीर का हँसता चेहरा उभर आता। अनुभवी ताई ने बा सा को सलाह दी थी-
‘छोरी दो महीने बाद अठारह की हो जाएगी। पहले ही देर हो चुकी है। अब ब्याह में देर करना ठीक नहीं, लाला जी। आगे तुम खुद समझदार हो, अगर कोई ऊँच-नीच हो जाए तो हमे दोष मत देना। हमारा काम समझाना है, आगे तुम्हारी मर्ज़ी।’
जया जैसी रूपवती, गुणवती लड़की के लिए वर की क्या कमी थी। पण्डित जी ने जया के लिए नगेन्द्र के रूप में राजकुंवर खोज़ निकाला। उच्च कुलीन राजपूत परिवार का नगेन्द्र सिंह, इकलौता वारिस था। पिता की मृत्यु के बाद वही घर-परिवार का मुखिया था। जया बेटी राज्य करेगी। जया ने शादी का विरोध करना चाहा, पर ताई की फटकार में उसका विरोध दब गया।
‘देखो बिटिया, हमारा मुँह न खुलवाओ। हमारे कुल में परेम-वरेम नहीं चलता। डूब मरने वाली बात है। माँ-बाप की इज़्ज़त घोल पीनी हो तो जाओ किसी कुएँ-बावड़ी में डूब मरो।’
धूमधाम से जया की डोली नगेन्द्र सिंह की आलीशान कोठी में पहुँच गई। नाते-रिश्तेदारों की भीड़ में भी जया के कानों में दबी-छिपी फुसफुसाहटें पड़ ही गईं-
‘चाँद जैसी बहू है। शायद इसके मोह में कोठों पर जाना छोड़ दे।’
‘इतना रूप पाकर खोटा भाग्य मिला है, बेचारी को। शराबी-ऐयाश के साथ राज जाने कैसे जी सकेगी।’
‘सुनते हैं हीरा बाई की बेटी चंपा को रखैल बनाकर रख लिया है।’
‘सुनना क्या, सच्ची बात है काकी। ज़रा भी शरम नहीं है, दोनों घोड़ा-गाड़ी में घूमते-फिरते हैं।’
वे बातें अनायास ही नहीं कही गई थीं। निश्चय ही उनका उद्देश्य सच्चाई से जया को पहले ही अगाह कर देना था। जया मन ही मन काँप उठी। जमींदार ठाकुरों के घरों के लिए ऐसी बातें भले ही सामान्य मानी जाएँ, जया के परिवार में इन बातों को नीची दृष्टि से देखा जाता। घर में शराब-कबाव का शौक़ किसी ने नहीं पाला। बा सा ने, बेटों की छोड़ो, बेटी की पढ़ाई के लिए किसी की न सुनी, पर वह पंण्डित जी के कहने में आ, धोखा खा गए। पण्डित जी ने कहा था-
‘लड़की के ग्रह भारी हैं। नगेन्द्र के साथ कुंडली ऐसी मिली है कि सब कल्याण ही होगा।’
बा सा की कमज़ोरी पण्डित जी थे। उनकी कुछ बातें उनके जीवन में सत्य उतरी थीं इसलिए बा सा का पण्डित जी में पूरा विश्वास था।
प्रथम रात्रि में ही स्थिति स्पष्ट हो गई। शराब के नशे में धुत्त नगेन्द्र ने जया को जानवरों- सा रौंद डाला। जया का रोम-रोम घृणा से कंटकित हो उठा। पति नाम के जीव से उसे नफ़रत हो गई। इकलौते बेटे की माँ, पुत्र की हर ज़ा-बेज़ा ज़िद पूरी करती। बेज़ा लाड़-प्यार ने नगेन्द्र में वे सारे गुण दे दिए, जो एक ऐयाश में हो सकते थे। अपनी मनचाही बात पूरी कराने के लिए नगेन्द्र के हाथ में कोड़ा रहता। उसका कोड़ा जिस-तिस पर बरसता।
कुछ ही दिनों में नगेन्द्र का जया से मन भर गया। उसमें चम्पा वाली मनमोहक अदाएँ कहाँ, जो आदमी को बाँध लें। माँ को खांदान के लिए उत्तराधिकारी चाहिए। उसका वारिस चम्पा से नहीं मिल सकता, इसलिए जया को घर में लाना पड़ा था। नगेन्द्र और जया का बस इतना ही रिश्ता था। नगेन्द्र की ज़्यादतियों का जया ने विरोध करना चाहा तो नगेन्द्र ने उसे उसकी औक़ात बता दीं-
‘अपनी औक़ात मत भूल। औरत हमारे पैर की जूती है, जब चाहो बदल लो। सिर पर चढ़ने की कोशिश की तो यह कोड़ा देखती है, चमड़ी उधेड़कर रख दूँगा।’ ज़मीन पर कोड़ा फटकार, नगेन्द्र चला गया।
अपमान से जया का मुँह काला पड़ गया। घर में कभी किसी ने उससे ऊँची आवाज़ में बात नहीं की। उस दिन के बाद से जया ने मुँह सी लिया। माँ के घर आने पर भी उसकी वो चुप्पी नहीं टूटी। कुंती पूछ-पूछ कर हार गई, पर जया ने मुँह
नहीं खोला। माँ ने अपने प्यार की दुहाई दी, ताई ने प्यार से पुचकारा, पर पत्थर बनी रही। अन्ततः ताई ने सबको समझाया-
‘हमारी जया अब सयानी हो गई है। अपने ससुराल की बातें भला हमें क्यों बताने लगी।’
‘भगवान करे यही सच हो।’ माँ सा आश्वस्त नहीं हो पा रही थीं। बेटी अब ससुराल वाली है, पराई अमानत पर क्या हक़ ?’
तभी जया की ससुराल से ख़बर आई कार एक्सीडेंट में नगेन्द्र की मृत्यु हो गई। ख़बर लाने वाले ने छिपे शब्दों में बताया, कार चलाते वक़्त कुंवर जी शराब पिए हुए थे। घर में रोना-पीटना मच गया। जया स्तब्ध थी। उसकी आँखों में आँसू न देख ताई ने कहा-
‘छोरी के दिल पर भारी सदमा पहुँचा है। उसे किसी तरह रूलाओ छोटी।’
‘हम किसके लिए रोएँ ताई ?’ उस सवाल से माँ चीत्कार कर उठी-
‘अरी अभागिन तेरा सुहाग उजड़ गया....।’
जया फिर भी चुप रही। जया को तुरन्त बुलाया गया था। ताई ने राजसिंह को अकेले में बुला समझाया-
‘तेरा ज़वान खून है। जैसा जया के ससुराल वाले कहें, वैसा ही करना होगा बेटा। ज़वानी के ज़ोश मे कुछ उल्टा-सीधा न कर बैठना, जिससे हमारे कुल की मर्यादा नष्ट हो जाए। मेरी बात समझ गया न, राज ?’
‘जी ताई।’
जया का दरवाज़ा खटखटाया जा रहा था-
‘दरवाज़ा खोल, जया बेटी।’
शांत भाव से दरवाज़ा खोल, जया बाहर आ गई। माँ सीने से लिपटा रो पड़ी। राजसिंह के साथ जया ससुराल के लिए रवाना हो गई। अचानक जया कह बैठी-
‘हम सती नहीं होएंगे, भइया।’
‘छि कैसी बात करती है, चुप रह। राजसिंह ने झिड़की दी।
‘हम जानते है भइया, सास जी हमें पसंद नहीं करतीं। तुम हमारा साथ दोगे न भइया ?’ राजसिंह चुप रह गया।
नगेन्द्र सिंह की हवेली में रोना-पीटना मचा हुआ था। सफ़ेद चादर से ढ़के नगेन्द्र के शरीर पर गुलाब के फूल थे। भाई के साथ आती जया को देख लोग स्तब्ध रह गए। नगेन्द्र के चाचा ने आगे बढ़, राजसिंह के कंधे पर हाथ धरकर कहा-
‘जाते-जाते नगेन्द्र जया का नाम रटता गया। जया उसकी आत्मा है। जया के बिना नगेन्द्र की आत्मा को शांति नहीं मिल सकती। आहः कैसी सीता-राम की जोड़ी थी।’ चाचा का स्वर विह्नल था।
जया को देख, सास ने छाती पीट डाली-
‘हाय बहू की शक्ल देखने को तरसता चला गया, मेरा लाल। आत्मा भटकती रहेगी मेरे बेटे की....।’
‘नहीं भाभी, हमारी बहू बड़ी पतिव्रता है। पति की आत्मा की शांति के लिए वह सती होगी। बोलिए सती देवी की जय।’
चारों ओर से सती की जय-जयकार होने लगी। औरतों ने जया को घेर लिया। उसका श्रृंगार किया जाना था। वातावरण एक अज़ीब हिंसक उत्तेजना से भर गया। राजसिंह स्तब्ध बहिन की ओर देखता रह गया। चाचा उसका असमंजस भाँप गए। प्यार से उसके कंधे पर हाथ धरकर कहा-
‘जया के सती होने से दोनों कुलों का सम्मान बढ़ेगा, राजसिंह। सबसे बड़ी बात अंतिम समय में नगेन्द्र ने जया का साथ माँगा है।’
‘इसमें सोच-विचार कैसा यजमान ? मृतक की अंतिम इच्छा तो पूरी करनी ही होगी। आत्मा की मुक्ति में ही दोनों कुलों का कल्याण हैं यह सौभाग्य क्या सबको मिल पाता है ?’ पण्डित जी ने दृढ़ स्वर में चाचा की बात की पुष्टि कर दी।
आगे बढ़कर औरतों ने जया को वश में करने की कोशिश की। भाई पर आग्नेय दृष्टि डाल, जया सिंह्नी- सी चीख उठी-
‘नहीं....ई....। हमे फिर सती नहीं होना है। ख़बरदार जो कोई हमारे पास आया।’ जया की आँखों में आग जल उठी। पास आती औरतें ठिठक गई।
‘फिर सती नहीं होगी, ये क्या कह रही हो बहू ? होश में आओ। हम जानते हैं, यह दुख सहना आसान नहीं।’ चाचा ने बात सम्हाली।
‘हम पूरे होश में हैं। विवाह के बाद रात-दिन चिता की आग में सुलगे हैं, भाई सा। अंगारों पर सोकर, हम जीते जी सती हो चुके, अब फिर क्यों ?’
‘लगता है। बहू का दिमाग़ चल गया है। तैयारी करो, बहू सती होगी।’
राज सिंहचोंक गया। दृष्टि उठा कर बहिन को देखा। ये था जया का सच, उन्होंने आज ही जाना। इस बहिन को राज सिंह ने गोदी में खिलाया है। वह चिता की आग में जलती रही, क्यों ?
चाचा और पण्डित को राज सिंह का मौन नहीं भाया।
‘किस सोच में पड़े हो, राजसिंह। याद रखो, जया इस घर की बहू है। उस पर हमारा अधिकार है। सती होकर, जया दोनों कुलों का सम्मान बढ़ाएगी।’
‘हमें जिंदा चिता में झोंक देने का अधिकार किसी को नहीं है। हम थाने में रिपोर्ट करेंगे।’ जया दहाड़ उठी।
‘पंण्डित जी, पूजा शुरू करें। बोलो जया बहू की जय। सती मइया की जय।’ चाचा ने आगे बढ़ कर जय-जयकार शुरू कर दी। औरतें फिर जया के चारों ओर घेरा बनाने लगीं।
‘नहीं फिर नहीं.....।’ गूँजती जय-जयकार के बीच औरतों का घेरा चीर, घर की ड्योढ़ी लाँघ, जया पाग़लों- सी सड़क पर दौड़ पड़ी।
दौड़ती जया के पीछे क़दम बढ़ाते राजसिंह और जय-जयकार करते हुजूम के बीच किर्र के साथ ब्रेक लगाती पुलिस-जीप आ रूकी। एस0पी0 समीर, जीप से उतर, जया के सामने आ खड़ा हुआ। अपने पूरे होश गंवा, जया समीर की बाँहों में झूल गई।
बहुत अच्छी कहानी ...आज भी राजस्थान में यह प्रथा जिंदा है ...अफ़सोस होता है यह सब जान कर ..
ReplyDeleteमार्मिक कहानी
ReplyDeleteGreat story
ReplyDeleteThanks mam for great stories....