11/17/10

भूल

भूल



एम0ए0 की कक्षा में प्रो0 नाथ ने अटेंडेंस लेनी शुरू की थी। पहली पंक्ति लड़कियों के लिए रिज़र्व मानी जाती थी। पीछे बैठे लड़के छींटाक़शी में कोई क़सर नहीं छोड़ते। डिपार्टमेंट के सामने सफ़ेद होंडा से उतरती मोहिता को देख, एक लड़के ने हल्की- सी सीटी मारी। बाकी लड़कों को हँसने का मौक़ा मिल गया। प्रो0 नाथ की कड़ी दृष्टि से शांति छा गई।

"मैं आ सकती हूँ, सर ?’ मीठी आवाज़ में मोहिता ने क्लास में आने की इज़ाज़त माँगी।
‘अजी, आप ही का तो इंतज़ार था।’ शैलेश की हल्की आवाज़ में कही गई बात से क्लास में फिर ठहाका लग गया।

‘मोहिता, आप फिर लेट आई हैं।’

"सॉरी सर, मेरा ड्राइवर देर से आया था।’

‘अरे तो हमें अपना ड्राइवर बना लेतीं। सलीम ने रिमार्क कसा।

लड़कों के ठहाकों ने प्रो0 नाथ को क्रुद्ध कर दिया-

‘अगर आप लोग इसी तरह बिहेव करेंगे तो मैं हेड से रिपोर्ट कर दूँगा। कम इन मोहिता, कल से वक्त का ख़्याल रखिएगा।

‘थैंक्यू सर।’

शिवानी ने ज़रा- सा खिसक कर मोहिता के लिए जग़ह बना दी। प्रो0 नाथ ने अटेंडेंस लेकर रजिस्टर बंद कर दिया।

भावभीने स्वर में प्रोफ़ेसर ने प्रेम-रस की व्याख्या शुरू कर दी। व्याख्या करते हुए उनकी दृष्टि बार-बार लड़कियों पर चली जाती। लड़के प्रोफ़ेसर की रसिकता से वाकिफ़ थे।

‘देख रहे हो नीरज, पूरा प्रेम-रस लड़कियों पर ही उँड़ेल रहा है।’ कवीन्द्र ने हल्के से कहा।

‘हाँ, यार ! इसीलिए तो इसके पेपर में हमेशा लड़कियाँ ही टॉप करती

.अचानक कागज़ की एक मुड़ी-तुड़ी पुड़िया मोहिता की गोद में आ गिरी। पुड़िया खोलने पर प्रेम भरी दो पंक्तियाँ थीं-

"मेरी जिंदगी हैं आप। हमेशा गुलाब- सी महकती रहें। आपकी खुशबू का दीवाना हूँ।’ मोहनीश।

गुस्से से तमतमाती मोहिता ने मुड़कर देखा, एक खाली सीट के पीछे गंभीर मोहनीश बैठा था।

कागज़ की पुड़िया प्रो0 नाथ को थमाकर मोहिता ने शिक़ायत कर डाली-

‘सर ! यह देखिए, क्लास-लेसन में ध्यान देने की जगह, यहाँ क्या चल रहा है।’

पुरजा पढ़कर प्रो0 नाथ की भृकुटि तन गई-

मोहनीश, खड़े हो जाइए।

अचकचाया मोहनीश खड़ा हो गया। क्लास का दादा महेन्द्र-ज़ोरों से हँस पड़ा।
‘वाह, यार ! बड़े छुपे रूस्तम निकले। हम तो समझे थे, आप सच्चे भारत कुमार हैं।’ पूरा क्लास ठहाकों से गूँज उठा।

प्रो0 नाथ ने सबको चुप करा दिया-

‘शट अप ! यह क्लास है, तमाशाघर नहीं, समझे। हाँ तो मोहनीश जी, बताइए आपकी इस हरक़त के लिए आपको क्या दंड दिया जाए ? प्रो0 नाथ के नाटकीय अंदाज़ में कही गई बात पर फिर ठहाका लगा।

‘जिसने यह अपराध किया, दंड उसे दीजिए। इस तरह की बातों से मेरा कोई लेना-देना नहीं है, सर।’ मोहनीश ने कहा।

‘लेकिन इस पुरजे़ पर आपका ही नाम लिखा हुआ है।’

नाम तो किसी का भी, यहाँ तक कि आपका भी लिखा जा सकता है। इसका यह अर्थ तो नहीं....।’

क्या बकवास कर रहे हो। गेट आउट। क्लास से बाहर जाइए।’ प्रो0 नाथ का चेहरा क्रोध से लाल हो उठा।

"मैंने सच कहा है। अग़र सच्चाई का यही दंड है तो मुझे स्वीकार है।’

चुपचाप पुस्तकें उठा, मोहनीश चला गया। क्लास में सन्नाटा- सा छा गया।कुछ फुसफुसाहटें ज़रूर उभरी, पर प्रोफे़सर नाथ की व्याख्या से शांति छा गई।

क्लास ख़त्म होने के बाद सब बाहर आ गए थे। मोहिता की कार से कुछ दूरी पर एक पेड़ के नीचे मोहनीश खड़ा था। मोहिता जैसे ही कार के पास पहुँची, मोहनीश आगे बढ़ आया।

‘आपकी वज़ह से बेवज़ह दंड पाया है। एक सच बता दूँ, मुझे आपमें ऐसा कुछ भी नहीं दिखा जिसकी वज़ह से दीवाना बन जाऊँ।’ रूखाई से मोहनीश ने कहा।

‘ओह यू0 शटअप। यहाँ से चले जाओ वर्ना सिक्यूरिटी गार्ड को बुलाना पड़ेगा।’ मोहिता ने धमकी दी।

‘मुझे किसका डर दिखा रही हैं ? शायद आप नहीं जानतीं मेरा नाम एक अपराधी खांदान से जुड़ा हुआ है।’ आवाज़ में बेहद कड़वाहट आ गई थी।

‘ठीक है, मुझे आपके परिवार से कोई लेना-देना नहीं है। जो जैसा करता है, सज़ा तो भोगनी ही पड़ती है।’

फटाक से कार का दरवाज़ा बंद कर, मोहिता ने ड्राइवर को गाड़ी चलाने के निर्देश दे दिए। मन में धुकधुकी- सी लगी थी। थकी- सी मोहिता घर में निढ़ाल पड़ गई। बार-बार मोहनीश द्वारा कहे गए अपमानजनक शब्द कानों में गूँज रहे थे। सारी दुनिया जिस पर मरती है उस मोहिता के चेहरे पर उसे कुछ ख़ास नहीं दिखा ? घमंडी, बदजुबान कहीं का।

"क्या हुआ, मोहिता ? बड़ी थकी- सी लग रही है। मैं तो कहती हूँ, अब पढ़ाई का चक्कर छोड़ दे। राहुल तो बस तेरी हाँ के इंतज़ार में रूका है वर्ना उसके लिए लड़कियाँ कतार लगाए खड़ी हैं।’ माँ ने प्यार से मोहिता के माथे पर हाथ रखकर पूछा।

’ठीक कहती हो, माँ। लगता है अब कॉलेज छोड़ना ही पडे़गा। पढ़ाई के नाम पर कॉलेज में गुंडे-बदमाश भर रहे हैं।’ तिक्त स्वर में मोहिता ने हामी भरी।

‘क्यों, क्या हुआ ? अगर कोई ऐसी-वैसी बात हुई तो बता दो। तू तो जानती है, तेरे पापा को पुलिस वाले कितना मानते हैं।’

‘हाँ, मम्मी ! ऐसी कोई ख़ास बात नहीं है। अगर ज़रूरत हुई तो ज़रूर बताऊँगी।’

‘ठीक है, तू थोड़ा आराम कर ले। आज राहुल ने तुझे क्लब में इन्वाइट किया है। उसे विदेश से एक बड़ा कांट्रेक्ट मिला है।’

‘अरे वाह ! यह तो बड़ी अच्छी ख़बर है। अब तो राहुल हाई-फ़ाई हो गया। बड़े ठाठ हो जाएँगे, उसके।

‘ये सारे ठाठ तेरे लिए ही तो हैं, मोहिता।’ माँ के चेहरे पर खुशी थी।

राहुल, मोहिता के पापा सेठ सूर्यनाथ के मित्रा राजेन्द्र कुमार का बेटा था। शुरू से महत्वाकांक्षी, राहुल बहुत व्यावहारिक भी था। शहर के नामी उद्योगपति की इकलौती बेटी मोहिता से विवाह करने में बहुत से फ़ायदे थे। विवाहोपरांत सेठ की सारी सम्पत्ति का अंततः वही तो वारिस होगा। मोहिता के माँ-बाप की दृष्टि में एम0बी0ए0 राहुल, मोहिता के लिए एक सुयोग्य वर ही था। सेठ सूर्य नाथ की फ़ैक्टरी और काम, वह बखूबी सम्हाल लेगा। मोहिता और मोहनीश भी एक-दूसरे को पसंद करते थे।

शाम को अपना मनपसंद फ़ालसेई सलवार-सूट पहन, मोहिता क्लब जाने को तैयार थी ड्राइवर ने गाड़ी लाकर खड़ी कर दी। माँ ने मोहिता को ऊपर से नीचे निहार, मुस्करा कर अपनी पसंद ज़ाहिर कर दी। गले और कानों में फ़ालसेई मोती, मोहिता के गोरे रंग पर खूब अच्छे लग रहे थे।

क्लब में आज एक नया प्रोग्राम था। एक युवा गीतकार अपनी ग़ज़लें पेश करने वाला था। प्रोग्राम सुनते ही राहुल ने मुँह बनाया-

‘ओह, नो ! क्लब में ग़ज़लें सुनाकर ख़ासा बोर करेंगे। यह नया सेक्रेट्री कुछ ज़्यादा ही गीत-ग़ज़ल पसंद करता है।

‘क्या, तुम्हें ग़ज़लें सुनना पसंद नहीं ? मुझे तो ग़ज़ल के कैसेट्स सुनना ही अच्छा लगता है। चलो, आज तुम्हारे कांट्रेक्ट को बढ़िया ढंग से सेलीब्रेट करेंगे।’

‘अरे मैंने तो सोचा था, आज कोई डांस-पार्टी होगी। एनीहाउ, अगर तुम्हें यही पसंद है तो, यही सही। भाई हम तो आपके हुक्म के बंदे हैं।’ नाटकीय अंदाज़ में बात कहकर राहुल हँस पड़ा।

थोड़ी ही देर में युवा ग़ज़ल गायक मोहनीश कुमार स्टेज़ पर आमंत्रित थे। मोहनीश को देखते ही मोहिता चौंक गई। प्रसिद्ध ग़ज़ल-गायक कोई और नहीं, आज क्लास में उस पर कागज़ का पुरजा फेंकने वाला मोहनीश था।

क्लब के सेक्रेट्री ने मोहनीश का परिचय देते हुए बताया, अब तक मोहनीश की कई ग़ज़ल की किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके आडियो कैसेट्स की बाज़ार में बहुत माँग हैं।
मोहिता विस्मित थी, क्या यह वही मोहनीश कुमार है, जिसके कैसेट बाज़ार में आते ही हाथों-हाथ बिक जाते हैं। खुद मोहिता के पास मोहनीश कुमार की ग़ज़लों के कई कैसेट हैं। न जाने क्यों, बहुत माँग होने पर भी मोहनीश कुमार ने वीडियो कैसेट बनाने के लिए स्वीकृति नहीं दी। आजकल बाज़ार में मोहनीश कुमार के नए कैसेट नहीं मिल रहे हैं।

सधी आवाज़ में मोहनीश ने ग़ज़ल शुरू की

‘मुझसे पहली- सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग"

सब मंत्र-मुग्ध सुनते रह गए। मोहनीश एक के बाद दूसरी और तीसरी ग़ज़लें सुनाता रहा। उस बीच राहुल तीन-चार बार ड्रिंक्स लेता रहा। मन ही मन क्लब के सेक्रट्री से बात करने की सोंचता रहा। आगे से ऐसे फ़ालतू प्रोग्राम नहीं होने चाहिए।

अचानक मोहिता की नज़र मोहनीश से मिल गई। शायद हल्की- सी पहचान उसकी आँखों में उभरी थी और फिर दृष्टि हटा ली।

घर लौटी मोहिता, मोहनीश के बारे में सोचती रही। जिसे वह गुंडा समझ रही थी, वह तो मशहूर ग़ज़ल-गायक निकला। उसकी ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमि सच थी या लोगों से हमदर्दी पाने का बहाना ? जो भी हो उसे लड़की से बात करने की तहज़ीब नहीं है। क्या सचमुच उसे मोहिता में कुछ ख़ास नहीं दिखा ? मोहिता सोचती रह गई।

दूसरे दिन कॉलेज जाते वक्त मोहिता को कपड़े चुनने में काफ़ी वक्त लग गया। क्लास में मोहनीश नहीं था। नीरज ने धीमे से मोहिता को बताया-

‘कल महेन्द्र की शरारत के लिए मोहनीश व्यर्थ ही बलि का बकरा बन गया। वो चिट महेन्द्र ने आप पर फेंकी थी। मोहनीश वैसा लड़का नहीं है।’

‘यह बात आप कल क्यों नहीं बता सके ? एक बेगुनाह का अपमान होते देखना क्या अच्छी बात है।’ मोहिता के स्वर में आक्रोश था।

‘सॉरी, पर शायद आप महेन्द्र को नहीं जानतीं। उसका नाम बताने पर क्या वह हमे आसानी से बख़्श देता।’

प्रोफ़ेसर के आते ही क्लास में शांति छा गई। एक चपरासी कोई नोटिस लेकर आया था। प्रो0 देवेंद्र राज़ ने नोटिस पढ़ कर विद्यार्थियों पर नज़र दौड़ाई।

‘मोहनीश कुमार, क्या आज नहीं आए हैं ?

‘नहीं, सर ! आज वह पाग़लखाने गए हैं।’ महेन्द्र ने हंस कर कहा। क्लास में ठहाके गूँज उठे।
"क्या बकवास है। अपने साथी के लिए भी इस तरह के मज़ाक मैं टॉलरेट नहीं करूँगा। आखि़र मर्यादा भी तो कोई चीज़ है। आप सब पढ़े-लिखे अच्छे घरों से है।’

‘आप ठीक कहते हैं, सर, पर मोहनीश सचमुच पाग़लखाने गया है। वह हर महीने की पंद्रह तारीख को अपनी माँ से मिलने पाग़लखाने जाता है।’ महेन्द्र ने बेहद मासूमियत से कहा।

‘यस, सर ! मोहनीश की माँ पाग़ल हैं। महेन्द्र ठीक कह रहा है।’ सलीम ने महेन्द्र की बात की पुष्टि कर दी।

‘स्ट्रेंज। एबनॉरमल माँ का इतना जीनियस बेटा। जानते हैं इस नोटिस में क्या सूचना आई है?"

‘क्या सूचना आई है, सर ? महेन्द्र ने व्यंग्य से पूछा’

‘मोहनीश ने पूरी यूनीवर्सिटी के बी0ए0 एक्ज़ाम्स में टॉप किया है। इंगलिश लिटरेचर में पिछले पाँच वर्षों के सर्वोच्च अंकों का रिकार्ड तोड़ा है।’ नोटिस द्वारा मोहनीश को यूनीवर्सिटी- स्कॉलरशिप के साथ उत्तर प्रदेश की योग्यता-छात्रावृत्ति दी जाने की सूचना भेजी गई थी।

क्लास में सन्नाटा छा गया। शानदार पैंट-कमीज़ की जगह मामूली कुरते-पजामें में आने वाला मोहनीश सचमुच जीनियस था।

मोहिता सोच में पड़ गई, पाग़ल माँ का कलंक ढोता मोहनीश पढ़ाई पर कैसे ध्यान दे पाता होगा। क्या इसी वज़ह से उसकी ग़ज़लों में इतना दर्द है ? अचानक बेहद मामूली- सा मोहनीश सबकी नज़रों में बहुत ऊँचा उठ गया।

दूसरे दिन क्लास में सबकी दृष्टियाँ अपने ऊपर निबद्ध देख, मोहनीश चौंक गया था। नीरज ने पीठ ठोंक, बधाई दी थी-

‘यार, तूने तो कमाल कर दिया। पाँच सालों का रिकार्ड तोड़ डाला और हमे कानों-कान ख़बर तक नहीं कि ये महाशय हमारे ही क्लास में हैं।

‘अब तो मिठाई खिलानी पड़ेगी  स्कॉलरशिप ले रहा है, यार ! सलीम ने चहक कर कहा।

‘ज़रूर ! मेरा सब कुछ आपका ही है।’ मंद स्मित के साथ मोहनीश ने ज़वाब दिया।

‘माँ कैसी हैं, मोहनीश ? नीरज ने हमदर्दी से पूछा।

‘कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ा है। डॉक्टर का कहना है, कोई चमत्कार ही उन्हें सामान्य बना सकेगा।’ उदास मोहनीश ने ज़वाब दिया।

कार के पास खड़ी मोहिता शायद मोहनीश का इंतज़ार कर रही थी।

मोहनीश अकेला ही घर तक की लंबी दूरी पैदल तय करता था। शेष साथी या तो साइकिल या मोटरबाइक अथवा कार वाले थे। मोहनीश के पास आते ही मोहिता आगे बढ़ आई।

‘आइ एम एक्सट्रीमली सॉरी। उस दिन आप पर झूठा आरोप लगाना, मेरी ग़लती थी।’

‘कोई बात नहीं। ज़िंदगी में ऐसे झूठे दोषारोपण सहना, मेरी नियति रही है।’

‘नहीं। प्लीज, मुझे माफ़ कर दीजिए वर्ना मुझे शांति नहीं मिलेगी।’ मोहिता गंभीर थी।

‘मुझ जैसा नकारा आप को माफ़ कर सके यह मेरी किस्मत कहाँ ? उदास मोहनीश बोला।’
‘आप मुझ पर व्यंग्य कर रहे हैं। मैं अपनी ग़लती मान रहीं हूँ, प्लीज़ मेरी ग़लती भूल जाइए।

"मैं तो वो बात कभी का भूल चुका। कहा न, ऐसी बातें सुनने का अभ्यास है, मुझे। हल्की उदास मुस्कान उसके ओंठों पर तैर गई।

‘थैंक्स ! आइए कार से आपको ड्रॉप कर दूँ।’

‘धन्यवाद। मैं अपनी आदतें बिगाड़ना नहीं चाहता।

‘क्या एक दिन में आदत बिगड़ जाएगी ?’

‘एक दिन क्या, एक पल में सब कुछ बदल जाता है, मिस।’ गहरी आवाज़ में मोहनीश ने कहा।

‘शायद किसी घटना ने आपको गहरी चोट पहुँचाई है।’

‘चोट खाना तो चलता ही रहा है। एनीहाउ, थैंक्स। देर हो रही है।’

मोहिता को कुछ कहने का अवसर न दे, मोहनीश तेज़ कदमों से एक संकरी गली की ओर चला गया। विस्मित मोहिता, उसे देखती रह गई।
घर पहुँचने पर राहुल को अपनी प्रतीक्षा करते देख मोहिता आश्चर्य में पड़ गई।

‘राहुल, तुम इस वक्त कैसे ?’

‘क्यों, तुम्हारे पास आने के लिए क्या पहले से अप्वाइंटमेंट लेना होगा ? राहुल ने परिहास किया।’

‘नहीं, इस वक्त तुम ऑफ़िस में रहते हो, इसलिए पूछा।’

‘ज़ल्दी से तैयार हो जाओ। आज पिक्चर के टिकट लिए हैं।’

‘क्या, तुम्हें पिक्चर का शौक़ कब से हो गया, राहुल ? मैं अभी चेंज करके आती हूँ।’ पिक्चर के नाम से मोहिता खुश हो गई।

‘ठीक कहती हो, मुझे पिक्चर का शौक़ नहीं है, पर तुम्हारे शौक़ के साथ समझौता तो करना ही होगा। आखि़र जिंदगी हमें साथ गुज़ारनी हैं।’ मज़ाक के लहज़े में राहुल ने कहा।

‘ओह नो ! तुम्हें मेरे शौक़ के साथ समझौता नहीं करना होगा, राहुल। जिस बात के लिए दिल न माने वो नहीं करनी चाहिए, राहुल। थैंक्स फ़ॉर दि इंवीटेशन। हम पिक्चर नहीं जाएँगे।’ मोहिता गंभीर थी।

"लेकिन जनाब, मेरे टिकट्स बेकार जाएँ यह मुझे मंज़ूर नहीं। तुम्हें तो चलना ही होगा, मोहिता।’ राहुल ने हँस कर कहा।

‘अच्छा तो आपके लिए नहीं पर आपके टिकटों के लिए चलना, मेरी मज़बूरी हैं चलिए ज़नाब, यही सही। वैसे कौन- सी पिक्चर के टिकट लिए हैं ?’

‘बच के रहना रे बाबा’ सुना है, लड़कियों को यह पिक्चर काफ़ी पसंद आ रही है।"

‘नहीं हमें तो ‘परिणीता’ देखनी है।’ शरतचंद्र हमारे फ़ेवरिट राइटर हैं।

‘ओह गॉड। एक बात समझ में आ रही है, शादी के पहले तुम्हारी पसंद-नापसंदगी की लिस्ट ज़रूर ले लूँ।’

‘इस धोखे में मत रहना। हमें जो आज पसंद है, हो सकता है, कल नापंसद हो जाए। हमें समझ पाना इतना आसान नहीं है, राहुल।’ कुछ शोख़ी से मोहिता ने कहा।

‘बस एक मेहरबानी करना। मुझे कल नापसंद मत कर देना।’ दोनों दिल खोलकर, हँस पड़े।
पिक्चर के बाद राहुल मोहिता को डिनर पर ले गया। मोहिता को लगा, उसका चुनाव ग़लत नहीं है। राहुल के साथ जिंदगी आसानी के साथ जी जा सकती है। आज का दिन काफ़ी अच्छा गुज़रा।

दूसरे दिन क्लास में मोहनीश को न देख, मोहिता सोच में पड़ गई। नीरज ने ही बताया-

‘उसकी माँ की हालत बिगड़ गई है। शायद मोहनीश दो-चार दिन न आ सके। समझ में नहीं आता इतना सब झेलकर यह लड़का हमेशा टॉप कैसे करता है।’ घर और हॉस्पिटल का खर्च चलाने के लिए ग़ज़लों के प्रोग्राम देता है, कैसेट बनवाता है। अगर उसकी माँ और घर के हालात ठीक होते तो वह नामी गायक बन जाता। पिता जब तक जीवित रहे, उसके कैसेट खूब बने अब हाल़ात बदल गए, गीत उसकी मज़बूरी बन गए हैं। माँ की बीमारी ने मोहनीश के गायन को ख़त्म कर दिया है। अब कभी-कभी कहीं प्रोग्राम ज़रूरत पूरी करने के लिए दे देता है।

‘लगता है, मोहनीश से आपकी अच्छी मित्रता हो गई है। हाँ कुछ दिन पहले मैंने भी मोहनीश को क्लब में ग़जल सुनाते देखा था। शायद क्लब वालों ने पैसे दिए होंगे। अच्छा है, आप उनके साथ हमदर्दी रखते हैं।

‘सच्चाई यह है, जो भी उनके सम्पर्क में आ जाएगा, उसे प्यार करने लगेगा। ज़िंदगी में उसे काँटे ही मिले हैं।’ गहरी साँस लेकर नीरज ने कहा।

‘क्यों, ऐसी क्या बात है ?’ मोहिता ने विस्मय से पूछा।

‘जानती हैं, उसके पिता पी0डब्लू0 डी0 में एक बेहद ईमानदार इंजीनियर थे। उनकी पोस्टिंग के पहले जो इंजीनियर था उसको पैसे देकर ठेकेदार ने इमारत बनाने में ख़राब माल लगाने के बावजूद, बिल पास करा लिए थे। मोहनीश के पापा ने उनकी बेईमानी की रिपोर्ट करने की ग़लती कर डाली।

‘इसमें ग़लती कहाँ है ? उन्होंने तो ठीक ही किया।’ मोहिता विस्मित थी। ‘जहाँ झूठ का बोलबाला हो, वहाँ सच्चाई कहाँ चलती है ? ठेकेदार और इंजीनियर ने मिलकर मोहनीश के पिता पर बेईमानी का झूठा आरोप लगाकर उन्हें फँसा दिया। उनकी ईमानदारी की उन्हें यही सज़ा दी गई थी।
‘ओह, फिर क्या हुआ ?’ मोहिता ने जानना चाहा।

‘मोहनीश के पिता यह झूठा आरोप सहन न कर सके। फाँसी लगाकर जीवन समाप्त कर लिया।’ नीरज ने बताया।

"यह तो सरासर ग़लत बात है। झूठ का डट कर सामना करने की ज़गह जीवन समाप्त कर लेने से तो उनका अपराध ही सिद्ध हुआ।’

‘ठीक कहती हो, मोहिता। निरपराध पति की मौत के सदमे ने मोहनीश की माँ का मानसिक संतुलन बिगाड़ दिया। अब मोहनीश को एक ही धुन है, पिता को निरपराध सिद्ध करके ही चैन लेगा।

‘लेकिन, मोहनीश के पिता पर लगाया गया आरोप सही भी तो हो सकता है, नीरज।" मोहिता ने शंका व्यक्त की।’

‘यह तुम्हारे क्लास की मानसिकता है, मोहिता। मध्यवर्गीय परिवारों से ईमानदारी की तुम उम्मीद भी कैसे कर सकती हो ?’ कुछ तल्ख़ी से नीरज ने कहा।

‘मेरा वो मतलब नहीं था......एनीहाउ मुझे मोहनीश से हमदर्दी है।’

बात ख़त्म कर, मोहिता कार में जा बैठी। रास्ते में सोचती गई, उसे मोहनीश के घर-परिवार के बारे में उलझने की क्या ज़रूरत है। एक्जाम्स के बाद उसकी शादी होने वाली है। राहुल के साथ स्विटज़रलैंड में हनीमून मनाने की कल्पना ही सुखद है।

घर में मोहिता की चचेरी बहिन श्वेता आई हुई थी। श्वेता और मोहिता समवयस्क थीं। दोनों में खूब पटती थी। श्वेता को देखते ही मोहिता खिल उठी। अभी कुछ ही दिन पहले श्वेता की सगाई हुई थी। श्वेता को साथ ले, मोहिता अपने कमरे में आगई।

‘अब बता, हमारे जीजू कैसे हैं ?" मोहिता ने हँस कर पूछा।

‘बताने से तो बात नहीं बनेगी। खुद देखकर ही समझ पाएगी, वो क्या कमाल की चीज़ हैं।’ श्वेता ने मज़ाक में कहा।

‘सच, तब तो ज़ल्दी मिलने आना होगा। देखना ही पड़ेगा, वह कितने कमाल की चीज़ हैं, जिसने हमारी श्वेता पर अपना जादू चला दिया हैं।’

‘मेरी छोड़ यह तो बता, राहुल के साथ तेरा रोमांस कैसा चल रहा है ?’

‘अरे वो तो पुरानी कहानी हैं। कभी लगता है, रोमांस अचानक होना चाहिए। तभी मज़ा है। यहाँ तो शुरू से ही एक-दूसरे को जानते रहे हैं।’

‘वाह ! लंबे रोमांस का तो मज़ा ही कुछ और है। शादी के बाद तो रोमांस ख़त्म हुआ समझो श्वेता।’ हँस रही थी।

‘अच्छा तब तो तू अपनी मैरिज डिले कर डाल और रोमांस करती रह।’ मोहिता ने सुझाव दिया।

‘तू चाहे तो कुछ दिनों के लिए किसी और को ढूंढ ले। चेंज का भी मज़ा रहेगा।’ श्वेता ने मज़ाक किया।
‘ठीक है, अच्छा सुझाव है। कोशिश करूँगी कुछ दिनों के लिए कोई और मिल जाए।’ मोहिता ने भी मज़ाक का ज़वाब मज़ाक में दिया।
शाम को राहुल श्वेता और मोहिता को डिनर के लिए ले गया। हँसी-मज़ाक के साथ शाम अच्छी बीत गई।
दो दिन रहकर श्वेता वापस चली गई। श्वेता के जाने के बाद से मोहिता को खालीपन काटने लगा। काश् ! उसकी कोई अपनी बहिन होती, जो हमेशा उसके साथ रहती।

क्लास में पढ़ाई ज़ोरों से चल रही थी। एक महीने बाद परीक्षा होने वाली थीं। सब पढ़ाई के लिए सीरियस होने लगे। ऐसे समय में मोहनीश की गै़र हाज़िरी आश्चर्य का विषय थी। मोहिता नीरज से पूछ बैठी-

‘मोहनीश क्या बीमार है ?’

‘नहीं, वह तो ठीक है, पर उसकी माँ ने विक्षिप्तावस्था में अपना दायाँ अंग जला लिया। मोहनीश माँ की ठीक देखरेख के लिए उन्हें घर ले आया है। घर में कोई और तो है नहीं, मोहनीश खुद उनकी सेवा कर रहा है।’

‘अरे, इस तरह से तो वह क्लासेज़ मिस कर रहा है। एक्ज़ाम्स कैसे दे पाएगा ?’

‘मैं उसके लिए क्लास-नोट्स की फ़ोटो कॉपी करा रहा हूँ। आयम श्योर वह जीनियस है, मैनेज कर लेगा।" नीरज ने पूरे विश्वास से कहा।
‘तुम सचमुच मोहनीश के सच्चे दोस्त हो। क्या हम उसकी माँ को देखने चल सकते हैं ?’

‘क्या करोगी देखकर। उनको उस हालत में देख पाना कठिन होगा।‘नहीं, मैं चलना चाहती हूँ। कब ले चलोगे ?’ मोहिता ने ज़िद- सी की।

‘ठीक है, आज शाम उसे नोट्स देने जाना है, तुम साथ चल सकती हो।

 घर के नाम पर मोहनीश के पास एक कोठरीनुमा कमरा था। उसी में एक ओर गैस का चूल्हा रख, किचेन का रूप दे दिया गया था। कमरे के एक ओर खाट पर साफ़ बिस्तर था। एक ओर मेज़ और कुर्सी रखी थी। मेज़ पर कुछ किताबें और कॉपियाँ रखी थीं। खाट के पास रखे स्टूल पर खीर का कटोरा रखा था। खाट पर एक विक्षिप्त- सी स्त्री बैठी थी। चेहरा देखकर लग रहा था, कभी वह सुंदर रही होगी
मोहनीश चम्मच से माँ को खीर खिला रहा था। मोहिता को देखते ही माँ की आँखों में चमक आ गई। मोहनीश का कंधा पकड़ मोहिता को दिखाकर बोली-

‘कुन्नी आ गई.....मेरी कुन्नी आ गई। चेहरा खुशी से उजला हो आया।’

मोहनीश ने मोहिता को बैठने के लिए कुर्सी की ओर इशारा किया। नीरज आराम से खाट के पायताने बैठ गया।

‘कैसी हो, माँ ?’

नीरज के सवाल का जवाब न दे, माँ मोहिता को देखे जा रही थी।

‘कुन्नी, तू इधर आ। यहाँ बैठ।’ अपनी खाट का किनारा दिखाती माँ उत्साहित थी। मोहिता का असमं जस  देख मोहनीश ने माँ को समझाना चाहा-

‘माँ, यह कुन्नी नहीं, मोहिता है।’

‘अरे मुझे बहला रहा है। मैं कुन्नी को क्या नहीं पहचानती। तेरी सगाई ज़ल्दी ही कुन्नी से करूँगी।’ माँ के चेहरे पर खुशी झलक रही थी।

अब मोहिता और मोहनीश दोनों संकोच से सिमट से गए। नीरज ने बात सम्हाल ली-

‘माँ, आज हम जाते हैं। कल कुन्नी फिर आ जाएगी। हम चलते हैं, मोहनीश। ये रहे तेरे नोट्स।’ नीरज ने नोट्स मोहनीश की ओर बढ़ा दिए।

‘थैंक्स, नीरज। अगर तुम न होते तो कौन मेरी मदद करता।’ मोहनीश अभिभूत था।

‘फ़ॉर्मेलिटी रहने दे, यार टॉप करेगा तो मिठाई खा लूँगा।’

‘टॉप करना तो अब सपना है। माँ की हालत देख रहे हो, न ? मोहिता जी, आपका भी आभारी हूँ। आपने यहाँ आने का कष्ट उठाया‘ ।

"यह तो मेरा फर्ज़ था। आई विश, आपकी माँ ज़ल्दी अच्छी हो जाएँ।’

‘थैंक्स।’

रात में मोहनीश की माँ का चेहरा बार-बार मोहिता की आँखों के सामने आता रहा, कौन है यह कुन्नी ? माँ ने उसमें कुन्नी जैसा क्या देखा। उसकी सगाई वह मोहनीश से कराना चाहती है। कहाँ है वो कुन्नी ? मोहनीश माँ से बेहद प्यार करता है। काश् ! वह उसकी कोई मदद कर पाती।

तीसरे दिन नीरज ने मोहिता को बताया। जिस दिन से मोहनीश की माँ ने मोहिता को देखा है, उनकी स्थिति में बहुत सुधार आ गया है। वह मोहनीश को पहचानने लगी हैं और कुन्नी को बराबर याद कर रही हैं। मोहनीश का अनुरोध है,अगर वह कुछ समय निकाल कर मोहनीश की माँ से मिल सके तो उस पर मोहिता का एहसान होगा।
एक अस्वस्थ स्त्री की सहायता करना, मोहिता को कठिन काम नहीं लगा था। हर दूसरे-तीसरे दिन मोहनीश के घर जाकर उसकी माँ की कुन्नी बन, मोहिता घर में खुशी का माहौल बना आती। मोहनीश की माँ अब काफ़ी सामान्य हो रही थीं। मोहनीश के मुकाबले कुन्नी के हाथ से पथ्य लेना, माँ को अच्छा लगता। मोहनीश, और नीरज की बातों में मोहिता का समय पंख लगाकर उड़ जाता। गंभीर मोहनीश इतना परिहास-प्रिय हो सकता है, मोहिता सोच भी न सकी।एक दिन पथ्य लेती माँ अचानक पूछ बैठी-

‘तू मेरे मोहनीश को प्यार करती है न, कुन्नी ? तेरे पापा तेरी सगाई के लिए तैयार तो हो जाएँगे ? पिछली बार की तरह इस बार भी तुझे कमरे में तो बंद नहीं कर देंगे, कुन्नी ?’

‘नहीं, मुझे कोई कमरे में बंद नहीं कर सकता, माँ।’ दृढ़ स्वर में मोहिता ने कहा।

"तब ठीक है। मोहनीश बेटा तूने सुना।’

‘हाँ, माँ। सब सुन और समझ रहा हूँ। अब कुन्नी को घर जाने दो, वर्ना इसके पापा नाराज़ हो जाएँगे।’
‘ठीक है, जा कुन्नी।’ मोहिता के सिर पर प्यार से हाथ फेर माँ ने विदा दी थी। मोहिता को बाहर पहुँचाने आए मोहनीश ने क्षमा- सी माँगी थी-

‘माँ अभी लोगों को ठीक से नहीं पहचानती। उनकी बातों के लिए माफ़ी चाहता हूँ।’

‘इट्स ओ0के0 । मैं समझती हूँ।’ मोहिता ने कहा।

रास्ते में मोहिता नीरज से पूछ बैठी-

‘यह कुन्नी कौन है, नीरज ? मोहनीश से उसका क्या रिश्ता था ?’

‘जिस दिन माँ ने तुम्हें कुन्नी पुकारा, उसी दिन मैंने मोहनीशसे इस नाम का रहस्य जान लिया था, मोहिता।’

‘क्या रहस्य है, नीरज ?’ मोहिता जानने को उत्सुक थी।

‘कुनिका यानी कुन्नी मोहनीश के पापा के मित्र की बेटी है। बचपन से ही दोनों के विवाह की बात तय थी, पर जब मोहनीश के पापा पर रिश्वत का इल्ज़ाम लगाया गया तो कुनिका के पापा ने दोनों की शादी का वादा तोड़ दिया। पति की मौत और उसके बाद कुनिका के साथ सगाई टूट जाने की वज़ह से मोहनीश की माँ का मानसिक संतुलन बिगड़ गया। उनकी हालत तुम देख ही रही हो।’ नीरज ने गहरी साँस ली।’

‘ओह ! काश् ! कुनिका को उनकी इस हालत का पता लग पाता।’

‘उसकी तो शादी भी हो चुकी है, मोहिता। मोहनीश को भी उसका सदमा ज़रूर लगा होगा, पर उसने अपने को सम्हाल लिया। इतना सब झेलकर शायद वह पत्थर बन गया है।

अचानक एक दिन मोहिता से मोहनीश अनुरोध कर बैठा-

‘अगर आप थोडा़- सा वक्त माँ को दे सकें तो शायद उनकी स्थिति में ज़ल्दी सुधार आ जाए। इसके लिए हमेशा आभारी रहूँगा।

‘ठीक है, कोशिश करूँगी।’

उस दिन के बाद से घर लौटती मोहिता, मोहनीश के साथ उसके घर थोड़ी देर को रूक जाती। कभी-कभी नीरज भी उनके साथ हो लेता। मोहनीश की मेधा उसकी बातों में झलकती। हर विषय पर वह बड़े अधिकार से बात करता। नीरज के अनुरोध पर कभी वह गीत या ग़ज़ल भी सुना देता। उस समय माँ का चेहरा चमक उठता। मोहनीश की तेजस्विता असंदिग्ध थी। नीरज के लाए नोट्स के अलावा मोहनीश न जाने कहाँ से नए तथ्य और बातें जान लेता। उसका ज्ञान मोहिता को विस्मित करता। कब और कैसे वह इतना ज्ञान अर्जित कर लेता था। माँ स्थिति में तेज़ी से सुधार आता जा रहा था। एक दिन सबके लिए हलवा बनाकर, माँ ने विस्मित कर दिया।

एक दिन नीरज परिहास कर बैठा-

‘माँ को तो अपनी कुन्नी मिल गई अब मोहनीश को अपनी कुनिका को पाना है।’

उस परिहास से मोहिता के मन में वितृष्णा ही जागी थी। मोहनीश लाख जीनियस हो, पर उसके घर का माहौल माँ की स्थिति, मोहिता को स्वीकार नहीं थी। नीरज का परिहास उसे सह्य नहीं हुआ। सीधे-स्पष्ट शब्दों में कह बैठी-

‘प्लीज, नीरज। इस तरह के मज़ाक मुझे पसंद नहीं। मेरे स्टेटस का तो ख़्याल रखो।’

बात कहती मोहिता को यह भी ध्यान नहीं रहा, साथ खड़े मोहनीश का चेहरा अपमान से काला पड़ गया था। दूसरे दिन मोहिता की प्रतीक्षा किए बिना ही मोहनीश घर चला गया। नीरज ने सूचित किया था-
‘तुम्हें अब मोहनीश के घर जाने की ज़रूरत नहीं है। उसने माँ को फिर हॉस्पिटल में एडमिट करा दिया है।’

‘क्यों ? घर में तो उनकी स्थिति में सुधार आ रहा था ?’

‘मोहनीश को उसका स्टेटस याद दिलाकर तुमने उसकी मदद ही की है। अब उसे धुन है, कुछ बनकर ही दिखाएगा।’ कड़वे स्वर में नीरज ने कहा।

मोहिता को अपनी कही बात याद हो गई, पर अब तो तीर हाथ से निकल चुका था। मोहनीश के घर ताला लटका मिला था। मोहिता पछताती, वह यह कैसी ग़लती कर बैठी। अपनी धन-सम्पत्ति का तो उसे कभी अभिमान नहीं था।
दूसरे दिन क्लास में भी मोहनीश प्रोफे़सर के साथ आया और तुरंत चला गया। दो दिन बाद वह मोहनीश को पा सकी थी-

‘मोहनीश। मुझे मा़फ कर दो। मेरा वैसा कोई मतलब नहीं था।’

‘सच बात के लिए माफ़ी माँगने की ज़रूरत नहीं है। सचमुच मैं अपने को भूल गया था। आपसे वो सब माँग बैठा जिसका मैं पात्र नहीं था। कहाँ मैं, कहाँ आप ? अच्छा हुआ आपने मुझे मेरी जग़ह याद दिला दी। थैंक्स।’
मोहिता को कुछ कहने का अवसर न दे, मोहनीश तेज़ी से चला गया। मोहिता अपराधी बनी खड़ी रह गई।

राहुल चार सप्ताह के लिए विदेश गया था। वापसी में मोहिता के लिए ढेर सारे उपहार लाया था। सच तो यह है, मोहनीश से न मिल पाने पर न जाने क्यों वह बहुत अकेलापन महसूस कर रही थी। मोहनीश के साथ वह अपने को कितना पूर्ण पाती थी। राहुल के मुकाबले मोहनीश का साथ उसे ज़्यादा अच्छा लगता।
राहुल और उसके लाए हुए उपहार देखकर मोहिता खिल उठी। राहुल ने मज़ाक किया-

‘कहिए मोहतरमा, आपका समाज-सेवा का भूत उतर गया ? सुना है किसी पाग़ल स्त्री का इलाज़ कर रही थीं। वैसे सच्चाई यह है कि आप अच्छे-भले इंसान को पाग़ल बना दें। अब देखिए मैं ही आपका दीवाना बन गया हूँ।’
अचानक मोहिता का चेहरा उतर गया। एक्ज़ाम ख़त्म होने के बाद ही मोहनीश न जाने कहाँ ग़ायब हो गया। उसकी माँ हॉस्पिटल में नहीं थी। नीरज भी परेशान था।

उधर घर में मोहिता की परीक्षा ख़त्म होते ही मोहिता की शादी की तैयारियाँ शुरू हो गईं। शादी के बाद राहुल को मोहिता के पापा का बिज़नेस सम्हालना था। राहुल का शुरू से ही घर में आना-जाना था। बिज़नेस में उसकी बराबर की भागीदारी पहले से ही तय थी। श्वेता का होने वाला पति विदेश चला गया था, अतः शादी छह महीनों के लिए टल गई थी। श्वेता के आने से घर में रौनक हो गई। न जाने क्यों मोहिता के मन पर एक अव्यक्त उदासी- सी छाई हुई थी। एक अपराध-बोध उसे कचोटता रहता। जाने-अनज़ाने मोहनीश का उदास-अपमानित चेहरा आँखों के सामने कौंध जाता। खुशी से उमगती मोहिता की जगह अनमनी मोहिता ने, श्वेता को चैंका दिया। पूछ बैठी-

‘क्या बात है, मोहिता ?, कहीं राहुल से कोई अनबन तो नहीं हो गई ? शादी के दो दिन बचे हैं और तू ऐसी खोई-खोई- सी है ?’

‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ।’

‘फिर क्या बात है। अपने मन की बात बताने से मन हल्का हो जाता है।’

मोहिता अनायास ही मोहनीश के बारे में सब बता गई। उसकी तेजस्विता और मेधा से वह अभिभूत थी, फिर भी वह उसका अपमान कर गई। मोहनीश उसे पसंद था। उसे छोटे स्टेटस वाला कहकर उसने भारी अपराध किया है। वैसे ऐसा भी नहीं कि वह किसी छोटे खांदान से संबंधित था। सच तो यह है, अगर उसके पिता जीवित होते तो वह एक सम्मानित परिवार का इकलौता वारिस होता। काश् ! उसके पिता ने अन्याय के विरूद्ध संघर्ष न किया होता। किशोर मोहनीश पर इस तरह अपना दायित्व न छोड़ा होता। हमेशा टॉप करने वाले प्रतिभाशाली गायक मोहनीश को उसके स्टेटस की याद दिलाकर, मोहिता ने अक्षम्य अपराभ किया है। परिस्थितियों ने एक प्रतिभाशाली गायक, मेधावी छात्र को कुचल कर रख दिया है। मोहिता, मोहनीश का अपमानित चेहरा नहीं भुला पा रही है। बार-बार वह चेहरा जे़हन में कौंध जाता है। क्या करे मोहिता ?

मोहिता की बात समाप्त होने पर, उसके उदास चेहरे को एक पल ताक श्वेता पूछ बैठी-

‘सच कह, कहीं तू मोहनीश से प्यार तो नहीं करने लगी है ?’

‘छिः ! यह क्या कर रही है। भला मैं मोहनीश से प्यार कर सकती हूँ ?’

‘तेरी बातों से तो यही लगता है, वर्ना शादी के दो दिन पहले राहुल के बारे में सोचने की जगह मोहनीश को याद न करती। देख, अभी वक्त है, अगर चाहे तो मोहनीश को बुलाकर बात कर लूँ।’

‘कहाँ से बुलाओगी उसे, श्वेता ? एग्ज़ाम्स के बाद वह ऐसा ग़ायब हुआ कि कहीं अता-पता ही नहीं छोड़ा।’ मोहिता का कंठ रुद्ध  हो उठा।

‘हूँ ! इसका मतलब वह तो तुझे ज़रूर चाहने लगा था। तेरी बात का आघात वह सह नहीं सका।’

‘अब हम क्या करें, श्वेता हम मोहनीश के गुनहग़ार हैं।’

‘तू राहुल से प्यार करती है ?’ श्वेता ने मोहिता कीआँखों  में आँखें डालकर सीधा सवाल किया।

‘हाँ.....शायद इस बारे में कभी सोचने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। हम दोनों शुरू से साथ-साथ ही रहे हैं।’ मोहिता जैसे सोच में पड़ गई।

‘अब अगर खुद तुझे पता नहीं तो क्या कहूँ ? बस, जो हो रहा है, होने दे।’ श्वेता ने हथियार डाल दिए, पर दुश्चिंता बनी रही।

रात भर मोहिता करवटें बदलती रही। मोहनीश के साथ हुई जिन बातों पर उसने कभी ध्यान नहीं दिया था, अपने सारगर्भित अर्थो के साथ वो उजागर होती गई। कभी मोहनीश ने हँसते हुए पूछा था-

‘अपने भविष्य के लिए क्या सोचती हैं ? कैसा पति चाहेंगी आप ?’

‘एक बात तो तय है। हम नौकरी नहीं करेंगे। पति महाशय की कमाई इतनी ज़रूर होनी चाहिए कि जब जीलिए लंदन-अमेरिका उड़ जाएँ।’ बड़ी शोख़ी से मोहिता ने ज़वाब दिया था।
‘तब तो अपना कोई चांस नहीं।’ परिहास में कहा गया मोहनीश का वह कथन क्या यूँ ही था ?
कई बार मोहनीश की मुग्ध दृष्टि पर निबद्ध पा, मोहिता संकुचित हो जाती।

एक दिन मोहिता के साथ नदी-किनारे घूमते मोहनीश से मोहिता ने गीत की फ़र्माइश की थी-
मोहिता को मुग्ध दृष्टि से निहारते मोहनीश ने गीत गाया था-

‘ओंठों से छू कर तुम,
मेरा गीत अमर कर दो।’

मोहिता की बधाई पर उसने कहा था- ‘यह गीत आपको नज़र है, मोहिता। उसकी उस दृष्टि में न जाने क्या था कि मोहिता चुप रह गई थी।

ऐसी ही न जाने कितनी छोटी-बड़ी बातें मोहिता के जे़हन में उभरती आ रही थीं। अचानक महसूस हुआ, तकिया आँसुओं से भीग गया था। क्या करे मोहिता ? नहीं, अब कुछ नहीं हो सकता। अपने मन को न पहचान पाना, उसकी ही तो भूल थी। अनज़ाने ही वह मोहनीश को चाहने लगी थी। उसके दिल ने ही उसे धोखा दे डाला, अब किससे शिक़ायत करे, मोहिता ?

दूसरे दिन बारात आनी थीं सुबह से रस्मों का दौर चल रहा था। हल्दी-तेल चढ़ाती भाभियों की ठिठोली पर मोहिता के ओंठों पर हल्की- सी मुस्कान भी नहीं आई। माँ को लगा, शादी के पहले हर लड़की यूँ ही उदास हो जाती है। श्वेता को मोहिता की उदासी का राज़ समझ में आ रहा था। लाड़-प्यार और ऐशो- आराम के बीच पली-बढ़ी मोहिता के सामने मोहनीश का स्टेटस एक प्रश्नचिह्न बनकर खड़ा रहा। उसके आगे वह कुछ सोच ही न सकी। प्रतिभाशाली मोहनीश के साथ अपना भविष्य नहीं देख सकी। राहुल की व्यावहारिकता के सामने मोहनीश की संवेदनशीलता हमेशा विजयी होती, फिर भी वह ग़लती कर गई।

नियत समय पर बारात आ गई। शोरगुल, हास-परिहास के बीच जयमाल, द्वार-पूजा और विवाह-संस्कार संपन्न हो गए। मोहिता ने स्वप्नवत् सारे कार्य किए, जैसे वह सुध खो बैठी थी। विदाई के समय मोहिता को फूट-फूट कर रोते देख, राहुल की माँ ने प्यार से तसल्ली दी थी-

‘अपने घर ही तो जा रही है, मोहिता। जब जी चाहे, मम्मी-पापा के पास आ जाना।’

हनीमून के लिए राहुल ने स्विटज़रलैंड चुना था। उत्साह से एक-एक जगह दिखाता, बताता जाता-
‘यहाँ दिलवाले दुलहनिया ले जाएँगे’ की शूटिंग हुई थी। इस जगह शाहरूख खाँन ने काज़ोल को फूल दिया था।’

‘तुम्हें पिक्चर की इतनी जानकारी किसने दी, राहुल ? तुमने तो पिक्चर देखी नहीं होगी।’ मोहिता विस्मित होती।

‘अरे जब अपनी दुलहनिया ला रहे हैं तो स्विटज़रलैंड में फ़िल्माई पिक्चर देखनी ही पड़ी।’
हँसते हुए राहुल ने कहा।

इसी बीच मोहिता का रिज़ल्ट आ गया था। घर से ख़बर आई उसे फ़र्स्ट डिवीजन मिली टॉपर कोई मोहनीश नाम का लड़का था। मोहिता के विस्मय का कोई कारण नहीं था, नीरज ठीक कहता था-

"मोहनीश जिस मिट्टी का बना है, वह इस दुनिया की नहीं है। वह तो किसी का नायाब तोहफ़ा है। वर्ना इतनी परेशानियों के बावजूद टॉप करना शायद ही किसी को संभव हो पाता।"

स्विटज़रलैंड और पेरिस में हँसी-खुशी एक महीने का समय बिताकर दोनों वापस लौटे थे। उस खुशी के बीच भी कभी-कभी मोहनीश का उदास चेहरा, मोहिता को बेचैन कर जाता। यूरोप की सुंदरता ने मोहिता के मन का अवसाद काफ़ी हद तक दूर कर दिया। राहुल में वो सभी कुछ था, जो एक अच्छे पति में हो सकता है, लेकिन इसके बावजूद कभी-कभी उसकी अति व्यावहारिता मोहिता को खल जाती।
मम्मी-पापा, मोहिता की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। घर पहुँची मोहिता के नाम ढेरों बधाई-कार्ड आए हुए थे। नीरज ने भी एक कलात्मक कार्ड भेजा था। उन्हीं बधाइयों के बीच एक विदेशी लिफ़ाफ़े ने मोहिता का ध्यान आकृष्ट कर लिया। लिफ़ाफ़ा खोलने पर सुंदर लिपि में चंद पंक्तियाँ थीं-

मोहिता जी,
अचानक आप जीवन में आ  गईं। एक दिन कहने की ग़लती कर बैठा था कि आपमें ऐसा कुछ नहीं जो मुझे दीवाना बना दे। आज सच्चे हृदय से अपनी उस भूल के लिए क्षमा माँगता हूँ। आपमें वो सब कुछ है जो किसी को भी दीवानग़ी की हद तक चाहने को मज़बूर कर दे। हाँ, यही सच है, अपने से भी ज़्यादा आपको चाहता हूँ। आपके साथ बिताए पल, मेरे जीवन की अमूल्यतम निधि हैं।

आपने ठीक कहा था, मैं आपके स्टेटस का नहीं था, पर शायद आपकी ही प्रेरणा से आई0एफ0एस0 में टॉप करके फ़र्स्ट पोस्टिंग पर लंदन आया हूँ। शायद अब आपका स्वप्न पूर्ण कर सकूं। विश्व के कई देश तो मेरे साथ देख ही लेंगी। शुरू के कुछ दिनों में शॉपिंग ज़रूर लिमिटेड रहेगी, पर हम जीवन की हर खुशी एक साथ जीएँगे। मेरे गीत नया जीवन पा लेंगे।

माँ अब स्वस्थ हैं। उन्हें अपनी कुन्नी की प्रतीक्षा है। क्या मेरी कुनिका भी मुझे मिल सकेगी ? यकीन कीजिए, आपकी राहों में खुशियों के फूल बिछा दूँगा। सारे काँटे मेरे हिस्से आएँ। क्या आपकी ‘हाँ’ मिलेगी ?

इतने दिन अज्ञात- वास के लिए आपकी क्षमा तो मिलेगी?

आपका ही

मोहनीश
स्तब्ध मोहिता की आँखों से टपटप आँसू बह निकले। आँसुओं से भीगे पत्र को मोहिता ने फाड़ दिया। नहीं अब जो भूल हो गई, उसे सुधारा नहीं जा सकता। अपने वर्तमान में अतीत को वह नहीं ला सकती। काश् ! यह पत्र उसे नहीं मिला होता।















































तत









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ध्वैलेंटाइंस डे





वैलेंटाइंस -डे



‘वैलेंटाइंस डे’ के ज़बरदस्त धूम धड़ाके से ‘जागृत नारी संस्था’ की सीनियर मेम्बर्स भी अछूती नहीं रह सकीं। शीला जी, संजना, देवयानी, पल्लवी भी ‘वैलेंटाइंस डे’ की बातें कर रही थीं। काश् ! उनके समय में भी प्रेम को इतना ही महत्व दिया जाता। उनके समय में तो प्रेम-विवाह को पाप ही समझा जाता था। सबको अपने अनुभव याद आने लगे।



मेरे घर में तो जब मेरी छोटी बहिन ने शैलेश के साथ अपने विवाह के लिए आज्ञा माँगी तो घर में ऐसा तूफ़ान उठा कि बस। अम्मा ने तो उससे वर्षो बात भी नहीं की। शीला जी मुस्करा रही थीं।



देवयानी को भी याद हो आया, उसके भाई ने जब अपनी मनपसंद लड़की से शादी की बात कही तो उसे घर से निकाले जाने की धमकी दी गई थी।



‘सच ज़माना कितना बदल गया है। आज हमारे बच्चे किस आराम से ब्याॅय फ्रेंड की बातें करते हैं।’ पल्लवी हंस रही थी।



‘क्या बात है संजना, तुम एकदम चुप हो ? भई तुम तो भावुक लेखिका ठहरीं। तुम्हारी जिं़दगी मेें कोई ‘वैलेंटाइंस डे’ न आया हो, यह हो ही नहीं सकता। ‘संजना की चुप्पी पर देवयानी ने उसे छेड़ा था।



‘सच तो यह है, हमें प्रेम को पहचानने की अक्ल ही नहीं थी।’ खोई-खोई -सी संजना बात कह चुप हो गई।



‘यह कैसी बात कह रही हो संजना ? प्रेम तो सर पर चढ़कर बोलता है।’ पल्लवी विस्मित थी।



‘लगता है पल्लवी ने प्रेम का स्वाद पूरी तरह चख़ा है, क्यों पल्लवी ? शीला जी के चेहरे की मुस्कान ने उम्र की लकीरें कम कर दी थीं।



‘प्रेम-रस जिसने नहीं पिया, अभागा रहा, क्यों संजना ठीक







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वैलेंटाइंस-डे



कह रही हूँ न ?’ पल्लवी के चेहरे पर शरारती मुस्कान थी।



‘हाँ पल्लवी, प्रेम-रस ही तो जीने का मंत्रा देता है....जीवन को उत्साह और उल्लास से आपाद मस्तक भिगो देता है।’ संजना क्षितिज में ताक रही थी।



‘लगता है गहरी चोट खाई है, संजना प्लीज़ अपनी प्रेम-कहानी सुनाओ न।’



‘प्रेम-कहानी, इस उम्र में ?’ संजना सोच में पड़ गई। जिस अतीत को धो-पोंछ जबरन भुला दिया, उसे दोहरा पाना क्या आसान होगा ?



‘संजना अब शुरू भी हो जा, हमसे और इंतजार नहीं होता।’ पल्लवी का बचपन जैसे लौट आया था।



‘मैंने कहा न, अपने मन को न तब समझ पाई न आज जान पाई। उस भूली कहानी को मन के किसी कोने में पड़े रहने देने में ही समझदारी हैं।’ संजना ने बात टालनी चाही।



‘इसका मतलब चिंगारी आज तक दबी पड़ी है। आज तो कहानी सुनानी ही होगी।’ देवयानी ज़िद पर उतर आई।



‘संजना, आज वह पुरानी कहानी सुना ही डाल। सच कहें तो ‘वैलेंटाइंस डे’ पर अतीत को सजीव कर पाना ही इस दिन की सार्थकता होगी।’ उम्र में बड़ी होने की वज़ह से शीला जी, संजना पर अपना अधिकार मानती थीं।



‘ठीक है, कोशिश करते हैं, पर बचकानी बातों पर हँसिएगा नहीं प्लीज़।’ संजना संकुचित थी।



‘अरे शुरू तो करो, शायद तुम्हारी कहानी के साथ हम भी उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच जाएँ, जब हमारे सीने में भी ज़वान दिल धड़कता था।’ पल्लवी खुश दिख रही थी।



‘अच्छा कोशिश करती हूँ.....संजना ने कहानी सुनानी शुरू की थी-



इन्द्रनगर के उस कम्पाउंड में गिनती के सात-आठ घर ही







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ध्वैलेंटाइंस डे



थे। नीलेश और संजना के परिवारों के बीच प्यार का रिश्ता, अब रिश्तेदारी जैसा लगने लगा था। तीज-त्योहार साथ मनाए जाते। पाँच भाई-बहिनों वाले नीलेश के घर में विधाता ने सरस्वती के साथ लक्ष्मी का भंडार भी उदारता से लुटाया था। तीसरे नम्बर का नीलेश संजना से दो-ढाई वर्ष बड़ा रहा होगा। सामान्य चेहरे-मोहरे के साथ अपनी वेशभूषा के प्रति कतई लापरवाह नीलेश, संजना और उसकी बहिनों की नज़र में ख़ासा डल और बोर लड़का था।



बचपन से रोमांटिक कहानियाँ, उपन्यास पढ़ने वाली संजना की कल्पना का रोमानी नायक, वह निहायत मामूली- सा दिखने वाला नीलेश तो हो ही नहीं सकता था। वैसे संजना भी कोई हूर की परी नहीं थी, पर सत्राह-अठारह की होते न होते उसकी सांवली रंगत में ऐसा निखार आया कि वह कुछ ख़ास लगने लगी। सपनों में खोई संजना को अपने प्रिन्स चार्मिंग की प्रतीक्षा रहने लगी थी।



अचानक संजना को महसूस होने लगा, नीलेश की उत्सुक दृष्टि में संजना के लिए चाहत उमड़ती। उसकी आँखे उसका पीछा करतीं। संजना से बात करने के लिए नीलेश बहाने ढूँढ़ता। बहिनें नीलेश को ले, जब संजना को छेड़ती तो वह चिढ़ जाती-



‘हमारे लिए वह बुद्धु ही रह गया है। ख़बरदार जो किसी ने हमारे साथ उसका नाम जोड़ा।’



‘हाँ-हाँ, ऊपर से जो भी कह ले, मन में गुदगुदी तो ज़रूर उठती होगी।



‘गुदगुदी, नीलेश के नाम पर ? संजना विस्मित होती।



‘क्यों नहीं, ऐसा भी कोई गया-गुज़रा नहीं। हर बैच का टाॅपर है। यही क्या कम है कि तेरे चाहने वालों में एक नाम तो जुड़ा।’ शैली चिढ़ाती।



उनकी बातों से अनभिज्ञ, नीलेश का यह सतत् प्रयास







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रहता, उसका अधिक से अधिक समय संजना के साथ बीते। पिकनिक या पार्टीज़ में नीलेश की दृष्टि संजना पर ही रहती। उसकी हर ज़रूरत वह अनज़ाने ही जान जाता, फिर उसे पूरा करना, नीलेश का फर्ज़ बन जाता। हद तो तब होती सब्ज़ी ख़त्म होने के पहले उसकी प्लेट में सब्ज़ी आ जाती। शिवानी नीलेश को छेड़ने से बाज़ नहीं आती।



‘क्या बात है नीलेश, तुम्हे संजी के अलावा कोई और दिखता ही नहीं ? भई हमारी प्लेट भी खाली है। हम पर भी नज़रे इनायत हो जाएँ।’



नीलेश शिवानी की बात हँसकर टाल देता, पर उसकी बड़ी दीदी ने शिवानी को आड़े हाथों लिया था।



‘इस तरह का मज़ाक ठीक नहीं, यह तो सीधे-सीधे संकेत देने की बात हुई। जो बात नीलेश के दिमाग़ में नहीं, वही बात डालने की कोशिश करना अच्छा नहीं है शिवानी। आगे से मेरी बात याद रखना।’



‘वाह दीदी, आपने भी एक ही कही। जो जग-ज़ाहिर है, वही असलियत हमने बयान की है। सब जानते हैं नीलेश संजी के आगे-पीछे लगा रहता है।’ शिवानी हमेशा की मुँहफट थी।



‘एक झूठ को असलियत का ज़ामा पहिनाना तुम्हें ही संभव है शिवानी।’ बड़़ी दीदी नाराज़ हो उठीं।



शिवानी की बात का नीलेश पर कतई कोई असर पड़ा नहीं दिखा, पर बड़ी दीदी नीलेश की गतिविधियों के प्रति विशेष सतर्क हो उठीं। अब अक्सर नीलेश के साथ उसकी बड़ी दीदी भी संजना के घर साथ आतीं और उनकी पूरी कोशिश रहती, नीलेश उनके साथ ही वापस जाए।



इत्तेफ़ाक से यूनीवर्सिटी की बी0ए0 परीक्षा में संजना ने पाॅलिटिकल साइंस में टाॅप कर डाला। इत्तेफ़ाक कहने की वज़ह यह थी कि टाॅप करने लायक पढ़ाई संजना ने नहीं की थी।







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चचेरी, ममेरी और अपनी बहिनों के जमघट के बीच पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बन ही नहीं पाता था। रोज़ हज़रतगंज के काफ़ी हाउस में कोल्ड काॅफ़ी, आइसक्रीम के अलावा फ़स्र्ट डे, फ़स्र्ट शो में पिक्चर देखने की उनमंे होड़ लगती। मिलकर किसी एक की खिंचाई करने जैसे शौकों में पढ़ाई का नम्बर काफ़ी बाद में आता। इसलिए सबने यह बात मानी कि संजना का दिमाग़ सचमुच तेज़ था। क्लास में सुनी-पढ़ी बात उसके दिमाग़ में कम्प्यूटर की तरह अंकित हो जातीं।



टाॅप करने वालों की मेरिट-लिस्ट में उसका नाम भी नीलेश ने ही देखा था। सच तो यह था कि अपने अच्छे अंक देखकर भी संजना ने टाॅप करने की कल्पना नहीं की थी। कन्वोकेशन में स्वर्ण पदक पाने की कल्पना संजना को गुदगुदा गई।



पहली बार कन्वोकेशन के लिए संजना ने शिवानी की गुलाबी साड़ी माँगी थी। साड़ी पहिनने की कोशिश में संजना को कितना ज़्यादा वक़्त लग गया, इसका पता तो तब चला जब वे कन्वोकेशन-पंडाल पहुँचे। नीलेश के साथ संजना आगे वाली सीट पर बैठी थी, पीछे शिवानी और शैली थीं। बाकी लोग काफ़ी पहले जा चुके थे।



दूर से ही यूनीवर्सिटी कैम्पस में बना भव्य पंडाल चमक रहा था। पंडाल-गेट पर उन्हें उतार नीलेश कार-पार्क करने चला गया। गेट पर प्राॅक्टर नाथ खड़े थे। पंडाल में कार्यक्रम शुरू हो चुका था। प्राॅक्टर नाथ ने देर से पहुँचने वालों की अन्दर प्रविष्टि पर रोक लगा दी थी।



संजना वग़ैरह को भी अन्दर जाने से रोक दिया गया पीछे से आए नीलेश ने उन्हें बताना चाहा-



‘सर, संजना को स्वर्ण पदक मिलने वाला है, प्लीज इन्हें अन्दर जाने की इजाज़त दे दें।’



‘सो व्हाॅट, मेडल कल कलेक्ट कर सकती हैं। वक़्त की







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अहमियत न समझने वाले को कोई छूट नहीं दी जा सकती। आप वापिस जा सकती हैं मिस।’



‘प्लीज सर, सिर्फ आज के लिए माफ़ कर दीजिए।’ विनती करती संजना की आँखे पनीली र्र्हो आइंं।



‘नो-नेवर ! बेकार अपना और मेरा टाइम वेस्ट न करें।’



प्राॅक्टर नाथ अपनी कड़ाई के लिए मशहूर थे। उनकी ‘न’ को ‘हाँ’ में बदलवा पाना असंभव था।



संजना स्तब्ध खड़ी थी। हमेशा की वाचाल शिवानी और शैली भी मूक दर्शक बन गई थीं। साड़ी पहिनकर आने की इतनी बड़ी सज़ा ? काश् ! उसने अपना सलवार-सूट पहिना होता।



नीलेश उनके पास से हटकर पास वाली कनात की ओर बढ़ गया। वहाँ खड़े वालंटियर लड़कों को वस्तुस्थिति बताने पर उन्हें संजना पर तरस आ गया। जीवन की इतनी बड़ी उपलब्धि यूँ ही व्यर्थ चली जाए तो किसे दुख नहीं होगा। नीलेश ने संकेत से उन्हें बुलाया। कनात थोड़ी- सी नीचे से ऊपर उठा देने से अन्दर घुस जाने लायक जगह बन पाई थी। उसी जगह से झुककर, वे पंडाल के अन्दर पहुँच सकी थीं। पीछे से नीलेश भी आ गया। अचानक जैसे वह संजना का अभिभावक बन गया था।



अन्दर पंडाल खचाखच भरा था। मेडल पाने पाले विद्यार्थी मंच के ठीक सामने वाली कुर्सियों पर बैठाए गए थे। वहाँ तक पहुँच पाना नीलेश की सहायता से ही संभव हो सकता था। लोगों से रिक्वेस्ट करता चलने की जगह बनाता नीलेश, संजना को उसके बैठने की जगह तक पहुँचा आया। नीलेश संजना के पास खड़ा था कि एक वालंटियर ने टोक दिया-



‘अब आप सरकिए जनाब, यहाँ क्यों खड़े हैं ?’



‘वह....इन्हें मेडल मिल रहे हंै इसलिए....।’ नीलेश हड़बड़ा आया।



‘तो इन्हें आराम से बैठा रहने दीजिए श्रीमान। यहाँ







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ध्वैलेंटाइंस डे



किडनैपिंग पाॅसिबिल नहीं है।’ मुस्करा कर वालंटियर ने व्यंग किया।



नीलेश के चेहरे की निराशा ने संजना के मन में हल्का- सा गर्व-भाव जगा दिया। उसे कुछ ख़ास मिल रहा है। जो नीलेश नहीं पा सका। संजना की सीट यूनिवर्सिटी टाॅपर के साथ थी, वह पुलक से भर उठी।



मुख्य अतिथि के वाद पदक- विजेताओं के नाम पुकारे जा रहे थे। अपने नाम पर धड़कते दिल के ऊपर पड़ा गाउन, उस पर साड़ी थी कि बार-बार पाँव में अटक रही थी। कैमरों की क्लिक के बीच पदक ग्रहण करती संजना, मानो एक सपना जी रही थी।



हमेशा की तरह कन्वोकेशन के बाद डेलीगेसी की लड़कियों के लिए पार्टी अरेंज की गई थी। मिसेज़ कुमार गर्वित थीं, उनकी पढ़ाई छात्रा ने विषय में टाॅप करके तीन-तीन पदक प्राप्त किए थे। बधाइयों की बौछार और हँसी-खुशी के बीच संजना भूल गई, वापसी के लिए नीलेश उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। काफ़ी देर बाद गेट पर पहुँची संजना ने अपनी भूल महसूस की थी। उसे आता देख नीलेश का चेहरा चमक उठा।



‘साॅरी देर हो गई। बहुत देर इंतज़ार करना पड़ा न । असल में....’



‘आपके लिए तो पूरी जिं़दगी इंतज़ार कर सकता हूँ। अब चलें ?



पहली बार नीलेश के उस वाक्य ने संजना को चैंका दिया, पर बात पर विशेष ध्यान न दे संजना कार में जा बैठी। वैसी बात परिहास ही हो सकती है। घर की जग़ह नीलेश ने कार ‘क्वालिटी’ के सामने रोकी थी।



‘कार यहाँ क्यों रोकी, घर नहीं जाना है क्या ?’



‘घर चलते हैं, पर पहले बधाई के साथ मेरी ओर से







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वैलेंटाइंस-डे



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आइसक्रीम तो हो जाए।’ नीलेश मुस्करा रहा था।



‘ऊँहुक ! अभी-अभी तो हम पार्टी खाकर आए हैं, आइसक्रीम के लिए जग़ह कहाँ बची है ? संजना ने मान दिखाया।



‘एक चम्मच ही सही, प्लीज।’



उस मनुहार को नकार पाना संजना को मुश्किल लगा था। नीलेश की मुग्ध दृष्टि पर संजना संकुचित हो उठी। पहली बार बहिनों से अलग, नीलेश के साथ संजना अकेली थी। नीलेश संजना की पसंद की आइसक्रीम मँगाना चाहता था, पर संजना ने निराश किया था-



‘जब अपनी मर्ज़ी से लाए हैं तो अपनी ही पसंद की आइसक्रीम मँगाइए।’



असमंजस में पड़े नीलेश ने दो टूटी-फ्रूटी का आर्डर दिया था। संजना पूछ बैठी-



‘यह तो हमारी पसंद की आइसक्रीम है, आपको तो पिस्ता-बादाम पसंद है।’



‘आप मेरी पसंद-नापसंद जानती हैं ?’ नीलेश का चेहरा खुशी से जगमगा उठा।



घर पहुँते नीलेश को शिवानी, शैली, अंजू ने आड़े हाथों लिया था-



‘यह क्या नीलेश जी, अकेले संजना को आइसक्रीम खिला लाए ? हमारा हिस्सा कहाँ गया ?’



‘हाँ, यह तो ग़लती हो गई। चलो कल सब चलते हैं।’ नीलेश ने आश्वस्त किया।



‘सोच लो नीलेश, तुम्हारे पापा के बहुत पैसे खर्च हो जाएँगे। डाँट तो नहीं पड़ेगी ? शिवानी ने छेड़ा था।



‘उसकी फ़िक्र न करें। आज ही स्काॅलरशिप के पैसे मिले हंै। वैसे भी अपने खर्चों के लिए पापा से बहुत दिनों से पैसे लेने बंद कर चुका हूँ।’ नीलेश के चेहरे पर हल्का- सा गर्व छलक







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ध्वैलेंटाइंस डे



आया।



‘वाउ ! यू आर ग्रेट नीलेश।’ मुँह गोल करके शिवानी ने हल्के से सीटी बजाई।



सच बात यहीं थी, रहन-सहन के प्रति सर्वथा लापरवाह नीलेश, पढ़ाई में बहुत तेज़ था। एम0एस0सी0 में दूसरी पोजीशन पर रहने के बावजूद लेक्चरर्स का वह विशेष प्रिय था। हर सेमिनार में नीलेश का पेपर होना ज़रूरी होता। एम0एस0सी0 करते ही उसे लेक्चरर्शिप मिल गई थी।



उन दिनों गिटार बजाना, फ़ैशन-सिम्बल माना जाता। संजना को भी गिटार सीखने का शौक़ हो आया। उदार माँ-पापा ने बच्चों की हर फ़र्माइश पूरी की। म्यूज़िक स्कूल में शौक़िया गिटार सीखने संजना जाने लगी। वैसे उसके पहले वायलिन, सितार सीखने का शौक भी वह पूरा कर चुकी थी। संजना का हर काम में दख़ल रहता, पर किसी भी चीज़ में दक्षता हासिल करने की उसने कोशिश नहीं की। कुछ ही दिनों में संजना गिटार पर हल्के-फुल्के फ़िल्मी गीत बजाने लगी। घर में किसे इतनी फ़ुर्सत जो संजना का गिटार सुनता, पर गिटार के बहाने नीलेश को संजना का सानिन्ध्य मिल जाता। घर से बार-बार बुलावे आने के बावजूद नीलेश को अपने घर लौटने की ज़ल्दी नहीं होती।



घर के पास के स्कूल में लीव वैकेंसी पर संजना को बुला लिया गया। उस दिन से नीलेश ने उसे ‘गुरूजी’ कहकर बुलाना शुरू कर दिया। नीलेश की बहिन की शादी में संजना ने रंगोली बनाई। उसकी कलात्मक अभिरूचि के सभी कायल थे। नीलेश पूरे समय उसके आसपास बना रहा। शादी में आए बच्चों को बटोर कर उसका परिचय कराया था।



‘देखो बच्चो, गुरूजी ने कितनी सुन्दर अल्पना बनाई है। तुम लोग इनकी शागिर्दी कर लो, फ़ायदे में रहोगे।’ उस दिन से बच्चे उसे गुरूजी कह कर चिढ़ाते और नीलेश अपने परिहास पर







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वैलेंटाइंस-डे



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मुस्कुराता। शादी वाले दिन नीलेश ने नई शर्ट पहनी थी। शर्ट के पीछे कहीं नम्बर छपा रह गया था। शैली हँसते-हँसते लोटपोट हो गई-



‘संजना तू कुछ भी कर ले, पर नम्बर पड़ी शर्ट पहनने वाले से शादी नहीं करेगी।’



घर में संजना की शादी की चर्चा होने लगी थी। इसी बीच नीलेश को एक मल्टीनेशनल कम्पनी से ख़ासा-अच्छा जाॅब-आॅफ़र मिल गया और उसकी पोस्टिंग बम्बई हो गई। तभी संजना को पता चला था नीलेश ने पार्ट टाइम एम0वी0ए0 के कोर्स में भी टाॅप किया था।



बम्बई जाने के पहले नीलेश संजना के घर मिलने आया। अचानक पापा से उसने जो कहा उससे पहली बार संजना चैंक गई-



‘ताऊजी आप संजना की शादी मुझसे पूछे बिना मत तय कीजिएगा।’



‘ज़रूर जहाँ भी बात पक्की होगी तुम्हें ज़रूर बताऊँगा, नीलेश।’ सीधे-सादे पापा खुश हो गए।



‘आप इनकी शादी की ज़ल्दी मत कीजिएगा ताऊजी।’ पापा-माँ के पाँव छू, नीलेश चला गया।



पहली छुट्टी मिलते ही नीलेश आया था। घर पर सामान रख नीलेश सीधे संजना के घर आ गया। पीछे-पीछे उसे बुलाने घर से नौकर आया था-



‘भइया जी, माँ जी बुला रही हैं। चाय-पानी तो कर लें।’



‘माँ से कह दो, हमारा इंतज़ार न करें। हम थोड़ी देर में आ जाएँगे।’



नई पोस्टिंग के प्रति नीलेश काफ़ी उत्साहित था। बम्बई के प्रति संजना का भी आकर्षण था-



‘आप तो धरती के स्वर्ग पर पहुँच गए।’







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ध्वैलेंटाइंस डे



‘आपको बम्बई पसंद है ? थैंक्स गाॅड। मुझे तो डर था कहीं आप बम्बई को नापसंद करती हों।’



‘वाह ! बम्बई तो स्वप्न-नगरी है। काश् ! हम भी बम्बई में रहते।’ संजना ने चाहत भरी साँस ली।



‘आप हुक्म तो करें, बम्बई आपके कदमों में होगी।’ नीलेश खुश था।



‘अच्छा वहाँ तो आपको बड़ा- सा घर मिला होगा, जैसा फ़िल्मों में दिखता है।’ संजना ने मज़ाक किया।



‘जो घर आप पसंद करेंगी, वहीं ले लूँगा। और आप क्या चाहती हैं ?’



‘हम चाहते हैं एक लम्बी- सी कार हो, उसमें पीछे की सीट से एक प्यारा- सा सफ़ेद डाॅगी, बाहर झाँकता हो।’



‘डन ! बताइए घर के परदे किस रंग के होने चाहिए ?’



‘वह तो घर की दीवारों के रंग पर डिपेंड करेगा, ऐसे थोड़ी बताया जा सकता है ?’



‘तो चलिए, घर की दीवारों से मैच खाते अपनी पसंद के परदे ख़रीद दीजिए।’ दो मुग्ध आँखें संजना को गर्वित कर गईं।



नीलेश का आना-जाना लगा रहा। उसकी संजना के घर आने की उत्सुकता में कोई कमी नहीं आई। संजना के मन में हल्की- सी पुलक जागने लगी, कोई उसे इतना चाहता है उसकी इच्छा-अनिच्छा को इतना मान देता है। नीलेश पर उसकी बड़ी दीदी का पहरा बढ़ता जाता। जब भी वह आता, दीदी उसके साथ आतीं और साथ ही ले जातीं।



पुरानी बातें याद करती संजना को याद आता, बहिनों की लम्बी-चैड़ी ज़मात में कुछ भी व्यक्तिगत नहीं रह जाता था। किसी की किसी के प्रति चाहत या लगाव भी, सामूहिक चर्चा का विषय होता। सर्वसम्मति से लिए गए निर्णय, व्यक्तिगत बन जाते। नीलेश के मामले में भी वही बात रही। बहिनों की सम्मति में







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वैलेंटाइंस-डे



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संजना जैसी मेधावी, हाज़िर ज़वाब, स्मार्ट लड़की के लिए नीलेश जैसा गम्भीर, कुछ हद तक बोर किस्म का लड़का, कतई ठीक नहीं था। संजना ने अपना दिमाग़ लगाने की ज़रूरत ही नहीं समझी, वर्ना यह सोचना काफ़ी ठीक होता कि नीलेश के साथ वह सुखी जीवन जी सकती थी।



एक बात संजना आज तक नहीं समझ पाई, नीलेश उसे चाहता था, इसमें शक की संभावना भी नहीं, फिर वह अपने मन की बात स्पष्ट शब्दों में संजना से क्यों नहीं कह सका ? अप्रत्यक्ष रूप से उसने कई-कई बार संकेत दिए, पर सीधे शब्दों में अपने मन की बात कहने का साहस क्यों नहीं कर सका ? नीलेश को लेकर बहिनों के मज़ाक में उसने भी साथ दिया, पर क्या मन के अन्तर में उसके लिए चाहत का अंकुर नहीं फूट आया था ?



अपनी आर्थिक स्थिति के कारण माँ-बाप संजना के साथ नीलेश के विवाह का प्रस्ताव रखने में संकोच करते रहे। आर्थिक दृष्टि से नीलेश का घर उनकी अपेक्षा बहुत सम्पन्न था। हालाँकि नीलेश की माँ संजना की तारीफ़ें करती न थकतीं-



‘संजना तो जिस घर में जाएगी, घर उजाला कर देगी। बड़ी गुणी लड़की है।’



संजना के विवाह की बात एक डाॅक्टर से चल रही थी। बात काफ़ी आगे बढ़ चुकी थी, स्वयं संजना भी उस प्रस्ताव में इन्टरेस्टेड थी। नीलेश सुनते ही व्याकुल हो गया-



‘नहीं ताऊजी, जब तक अच्छी तरह खोज़बीन न करे लें, विवाह मत तय कीजिएगा।’



‘ठीक कहते हो नीलेश, ज़माना बड़ा ख़राब है।’ पापा को नीलेश की बात में तथ्य दिखा।



‘आप कुछ दिन के लिए रूक जाइए थोड़े दिनों बाद सब ठीक हो जाएगा। ताऊजी मैं....’



कुछ कहता नीलेश, अचानक चुप हो गया। शायद उस







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दिन बात उसके ओंठांे तक आ गई थी, पर न जाने किस वज़ह से बाहर न आ सकी।



इस बीच एक अच्छा प्रस्ताव मिल गया। लड़का विदेश से आया था, चट मँगनी पट ब्याह हो गया। निमंत्राण भी फ़ोन द्वारा दिए गए। नीलेश को ख़बर करने की किसे याद रहती ? विदा के दिन,राख से बुझे चेहरे के साथ नीलेश आ पहुँचा। अम्मा चैंक र्गइं-



‘नीलेश बेटा तुम ? अच्छे वक़्त पर आगए। क्या करें शादी इस हड़बड़ी में हुई, किसी को बुलाने का भी वक़्त नहीं मिला।



‘शादी के बाद संजना जी को देखने का बहुत मन था, सुनते ही चला आया।’ संजना के प्रसन्न चेहरे पर एक दृष्टि डाल, अम्मा के लाख रोकने पर भी नीलेश नहीं रूका था।



संजना चुप हो गई। सब स्तब्ध थीं।



‘उसके बाद कभी नीलेश से मिलीं संजना ?’ शीला जी ने ख़ामोशी तोड़ी थी।



‘नहीं......।’



‘अब वह कहाँ है ?’ पल्लवी उदास- सी थी।



‘शायद फ्रांस में.....।’



‘एक बात बता, उसने शादी की या नहीं ?’ देवयानी का सबका सवाल था।



‘मेरी शादी के 6-7 वर्षों बाद किसी बड़े आदमी की बेटी से उसकी शादी हो गई। सुना था शादी के लिए माँ और बड़ी दीदी ने भूख हड़ताल की धमकी दी थी।’ हल्की- सी मुस्कान संजना के ओंठांे पर तिर आई।



‘उसकी शादी की ख़बर सुनकर कैसा लगा था संजना ?



‘वाह ! शीला जी, क्या सवाल पूछा है। संजना ने कभी नीलेश को चाहा ही नहीं, तो इसे क्यों भला-बुरा लगना, क्यों







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संजना ?’ देवयानी ने विश्वासपूर्वक कहा।



‘नहीं देवयानी, सच यह नहीं है। आज सच्चाई स्वीकार करती हूँ, उसके विवाह की ख़बर सुनकर दिल में जो टीस उठी, सह पाना मुश्किल था।’



‘पर क्यों संजना ?’



‘इसलिए कि उस दिन पहली बार महसूस हुआ मैंने वह चीज़ हमेशा के लिए खो दी, जो मेरे जीवन की अमूल्यतम निधि थी। सच तो यह है विवाह के बाद अनज़ाने ही कई बार पति और नीलेश की तुलना कर जाती और तुलना में नीलेश बहुत ऊपर रहता। कोई किसी को चाहने की सीमा तक चाहे और अचानक चाहत का वह एहसास सर्वथा शून्य हो जाए तो ?’ संजना का सवाल अनुत्तरित ही रहा।



‘अगर आज फिर कहीं नीलेश मिल जाए तो तेरा क्या रिऐक्शन होगा संजना ?’



‘नहीं, अब उससे कभी नहीं मिलना चाहूँगी देवयानी। नीलेश की आँखों में अपने लिए बेपनाह चाहत देखने की आदत बन चुकी थी, चाहत-रहित नीलेश की आँखंे, क्या झेल सकँूगी ?’



संजना कहीं दूर क्षितिज में ताक रही थी।





















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क़सक



प्लेन बादलों से ऊपर उड़ रहा था। नीलू को आशीष बेतरह याद आने लगा। पुराने चित्रा जैसे बादलों में उभरते आ रहे थे।



मेडिकल एंट्रैंस एक्ज़ाम के लिए नीलू को राँची जाना था। पापा ने साफ़ कह दिया उस दिन छुट्टी ले पाना, उनके लिए असंभव था। अकेली लड़की को अनज़ान शहर भेजने को अम्मा तैयार नहीं थीं। समस्या का समाधान आशीष ने कर दिया-



‘मैं तो बेकार इंसान ठहरा। कहें तो नीलू के साथ मैं चला जाऊँ। इसी बहाने शहर भी घूम आऊँगा क्यों ठीक कहा न, ताई ?’ सहज हँसी से आशीष का चेहरा चमक रहा था।



‘सच आशू, तू जा सकता है, पर तेरे काॅलेज का नुकसान होगा, रे ?’



अरे ताई, आजकल काॅलेज में कौन- सी पढ़ाई होती है। वो तो वक़्त काटने को चले जाते हैं।’



अम्मा निश्चिन्त हो गईं। मुहल्ले भर के लिए आशीष सहज प्राप्य था। जब जिसे ज़रूरत हुई, आशीष को याद किया जाता। उसी मुहल्ले में खेलता आशीष बड़ा होकर काॅलेज पहुँचा था। दो वर्ष के बेटे को तेईस वर्षीया पत्नी के सहारे छोड़, आशीष के पिता, ये दुनिया छोड़ गए थे। माँ को पिता के आॅफ़िस में एक छोटी नौकरी मिल गई। उसकी सरल-सुंदर माँ को किन कठिन परिस्थितियों से जूझना पड़ा, इसकी समझ आशीष को बहुत बाद में आई।



नीलू की माँ का आशीष की माँ से बहनापा था। भूखे भेड़ियों से वह माँ के सहारे ही बच सकी थी। कभी-कभी माँ के सामने रो पड़ती-



‘अब नहीं सहा जाता, दीदी। आशू को आप रख लीजिए। हम ज़हर खाकर मर जाएँगे।’



‘छिः, ऐसे जी छोटा नहीं करते, सुधा। हमारे रहते डरने







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की ज़रूरत नहीं है।’ माँ दिलासा देतीं।



‘कहाँ तक सहें, दीदी ? आते-जाते मरदों की निगाहें, समूचा निगल जाने जैसी लगती हैं।’



‘एक बात कहूँ, तू दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेती, सुधा ? आजकल दूसरी शादी उतनी मुश्किल नहीं है। तू कहे तो नीलू के पापा से बात करूँ।’



‘ना दीदी, ऐसा तो सोचना भी पाप है।’ सुधा कानों पर हाथ धर लेती।



‘किस ज़माने में जी रही है, सुधा ? अभी तेरी उमर ही क्या है, पहाड़ जैसी ज़िदगी कैसे काटेगी ?’



‘ये आशू जो है, दीदी। आशू के होते हम दूसरी शादी की बात सोच भी नहीं सकते। दूसरा आदमी क्या इसे सह सकेगा ? नहीं दीदी, हम आशू के साथ अन्याय नहीं करेंगे।



सचमुच सुधा ने आशू का मुँह देख, पूरा जीवन, रोता जी डाला। दृढ़ता से ओंठ भींच अच्छी-बुरी बातें सह जाती। आज आशीष बीस बरस का स्वस्थ, सुंदर युवक था। ज़माने की हवा से अछूता आशीष, आज भी माँ का भोला लाल ही था।



राँची जाने के लिए जब आशीष ने नीलू को अपनी मोटरबाइक पर ले जाने का प्रस्ताव रखा तो अम्मा डर र्गइं-



‘ना रे, मोटरसाइकिल पर लड़की को ले जाएगा कहीं रास्ते में गिर-गिरा गई तो इम्तिहान की छोड़, महीनों के लिए पलंग से लग जाएगी।’



‘अब क्या कहें, ताई। एरोप्लेन तो अपने पास है नहीं वर्ना नीलू को प्लेन में उड़ाकर ले जाता। डरो मत ताई, मंै। काॅलेज का मोटरबाइक चैम्पियन हूँ। राँची तक की दूरी डेढ़ घंटे में तय हो जाएगी।’ उज्ज्वल हँसी से आशीष का गोरा मुँह चमक उठा।



ये सच था, आशीष को काॅलेज की मोटरबाइक-रेस में हमेशा पहला स्थान मिलता रहा है, फिर भी अम्मा शंकित दिख रही थीं।







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पति की मृत्यु के बाद, सुधा, दिवंगत पति की मोटरसाइकिल बेच नहीं सकी। लोगों ने बहुत समझाया, जब आदमी ही नहीं रहा तो मोटरसाइकिल रखने से क्या फ़ायदा, पर सुधा उसे बेच नहीं सकी।



‘उन्हें यह मोटरसाइकिल बहुत प्यारी थी, उनकी आखि़री साँस तक यह उनके साथ थी। अब यही उनकी अंतिम निशानी है।’



पीठ पीछे औरतें बाते करतीं-



‘सुधा तो बावली है, अरे जो मोटरसाइकिल पति की ज़ान लेने का कारण बनी, उसे भला कोई सह सकता है ? इस मनहूस मोटरसाइकिल को तो आग लगा देनी चाहिए।’



मोटरसाइकिल को प्यार से सहलाती सुधा, नीलू को बताती-



‘जब भी आशू के पापा इस पर बैठते, मानांे उनको पंख मिल जाते। स्पीड कम करने को कहती तो हँसते......



‘अरे सुधा, अब तो ये मोटरबाइक मेरे ज़िस्म का हिस्सा बन गई है। जिधर चाहूँ, उड़ जाऊँ।’



सुधा की डर से निकली चीख़ पर समझाते-



‘देखो सुधा, जिस काम में आनंद मिले, उसे पूरी तरह एन्ज्वाॅय करना चाहिए। अगर मोटरबाइक चलाते वक़्त मेरी ज़ान भी चली जाए तो मेरा जीवन सार्थक होगा।’



‘छिः कैसी अशुभ बातें करते हो।’ सुधा डर से सिहर जाती।



पति के मोटरबाइक-प्रेम की कहानी से सुधा परिचित थी। गाँव के प्राइमरी स्कूल के मास्टर के पुत्रा के लिए मोटरसाइकिल का आकर्षण हवाई-जहाज से कम नहीं था। जमींदार का बेटा जब भी अपनी मोटरसाइकिल से गाँव आता तो उसकी आवाज़ पर नन्हा सुरेश घर से बाहर आ, लालायित दृष्टि से मोटरबाइक को ताक़ता रह जाता।



पिता की प्रेरणा और अपनी मेहनत से सुरेश ने बी0ए0 में







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प्रथम स्थान प्राप्त कर, एक अच्छी- सी नौकरी हासिल कर ली। अब उसके जीवन का लक्ष्य एक मोटरसाइकिल ख़रीदना था। जिस दिन सुरेश ने मोटरबाइक ख़रीदी, उसके चेहरे की चमक देखते ही बनती थी। कभी-कभी सुधा को लगता, वो मोटरबाइक सुधा की सौत थी।



मोटरबाइक के लिए वही आकर्षण, आशीष को पिता से विरासत में मिला था। बचपन से माँ के साथ रोज़ उसे चमकाता, प्यार करता। सोलह बरस का होते न होते, आशीष ने मोटरसाइकिल मुहल्ले में चलानी शुरू कर दी। माँ की डाँट के बावजूद उसके शौक़ मंे कतई कमी नहीं आई।



जिस दिन उसे मोटरबाइक चलाने का लाइसेंस मिला, जबरन माँ, ताई, नीलू सबको सड़क पर दूर तक घुमा लाया।



‘अब मैं लाइसेंस-शुदा हूँ। एक बार इसी मोटरसाइकिल पर दुनिया की सैर को जाऊँगा। साथ चलेगी, नीलू ?’



‘नहीं, मुझे अपनी जिं़दगी प्यारी है, आशू।’



‘तेरी जिं़दगी तो मुझे अपनी जिं़दगी से ज़्यादा प्यारी है, नीलू। यकीन रख, कभी तुझे खंरोच भी नहीं लगने दूँगा।’



‘ऊँहुँक, हमें तो हवाई जहाज़ में दुनिया की सैर को जाना है।’ मान से नीलू ने कहा।



‘तेरी ये तमन्ना ज़रूर पूरी करूँगा, नीलू’



‘वाह ! ये मुँह और मसूर की दाल। तू हवाई जहाज़ की सैर कराएगा ?’



हँसते-हँसते नीलू दोहरी हो गई। आशीष का मुँह छोटा पड़ गया।



बेटे को मोटरसाइकिल की चाभी थमाती सुधा ने वादा लिया था-



‘याद रख, आशू। तू कभी गति-सीमा नहीं तोड़ेगा।’



‘अरे माँ, स्पीड में ही तो मज़ा है।’ अचानक माँ का डरा







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चेहरा देख, आशीष सब समझ गया।



तेज़ गति से मोटरबाइक पर जा रहे पिता के सामने अचानक गाय आ गई थी। उसे बचाने की कोशिश में मोटरसाइकिल पेवमेंट से टकराकर, सुरेश का जीवन निस्पंद कर गई थी।



‘ठीक है, माँ। मैं कभी गति-सीमा नहीं तोडँूगा। अपनी जिं़दग़ी यूँ ही गतिहीन नहीं होने दूँगा। ये मेरा वादा है।’



राँची से लौटते वक़्त घने बादल घिर आए थे। सुहाना मौसम नशीला हो उठा। नीलू ने आशीष को उकसाया था-



‘ऐ, आशू, तुम उस बादल के टुकड़े को हरा सकते हो, उससे आगे जा सकते हो ?’



‘जाने को तो मैं सूरज और चाँद के भी आगे जा सकता हूँ, नीलू, पर ताई से तुम्हें सही-सलामत घर पहुँचाने का वादा किया है।’



‘झूठ । तुम बादलों से होड़ ले ही नहीं सकते। तुम्हारी स्पीड तो रिक्शे के बराबर है। तुम डरपोक हो, आशू। नीलू ने चुनौती- सी दी।



आशू ने स्पीड अचानक ही बढ़ा दी। नीलू ने अगर आशू को कंधों से न जकड़ लिया होता तो उसकी हड्डी-पसली ज़रूर एक हो जाती।



‘बस करो, आशू। हमें डर लगता है।’ नीलू चीख़ पड़ी।



‘अब पता लगी, मेरी स्पीड क्या है........।’



आशीष की बात पूरी होते न होते पानी की तेज़ बौछार में मोटरसाइकिल चला पाना कठिन हो गया। सड़क के किनारे एक खाली शेड में शरण लेने में ही भलाई थी। बालों से पानी की बूँदें झाड़ती नीलू ने आशीष को फिर चिढ़ाया-



‘रह गए, न। बादल के उस नन्हें से टुकड़े से हार गए। वो देखो, अपनी जीत पर कैसे हँसता हुआ बढ़ा जा रहा है।’ बचपन से कहानी-उपन्यास पढ़ने की शौक़ीन नीलू की बातों में







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भी अक्सर साहित्य घुल आता।



अचानक ज़ोरदार गर्जना के साथ चमकती बिजली ने नीलू को इस क़दर डरा दिया कि पास खड़े आशीष से लिपट गई। भीगे कपड़ों मंे लिपटी नीलू ने जैसे आशीष को चेतनाशून्य कर दिया। नीलू को कसकर लपेट, आशीष ने उसके ओंठों पर चुंबन जड़ दिया। आशीष की इस अप्रत्याशित हरकत से नीलू तड़पकर अलग हो गई।



‘ये क्या किया, क्यों ?’ आगे आवाज़ रूंध गई, नीलू की आवाज़ पर आशीष जैसे चैतन्य हो आया।



‘माफ़ करना, नीलू। कुछ पलों के लिए अपने को भूल- सा गया। थोड़ी देर को अपने को बादल समझ बैठा। ऐसा लगा चमकती बिजली- सी तुम मेरे पास हो और मैं अनजाने ही बादल बन गया था.....।’



‘हम अम्मा से शिक़ायत करेंगे।’ नीलू के आँसू बह निकले।



‘नहीं-नहीं, नीलू ऐसा मत करना। मेरी ग़लती की जो सज़ा चाहो, दे दो। ताई या माँ तक ये बात नहीं पहुँचनी चाहिए। मेरी वज़ह से उनका रिश्ता नहीं टूटना चाहिए। प्लीज़ नीलू।’ आशीष दयनीय हो आया।



‘अपनी औक़ात भूल गए ? तुम तो हमसे बात करने लायक भी नहीं हो। हमंे तुम्हारे साथ नहीं जाना है। हम किसी बस से राँची चले जाएँगे।’



‘देखो रात होने वाली है। बीच रास्ते में बस का इंतज़ार करना ठीक नहीं है, नीलू। हज़ार-हज़ार बार माफ़ी माँगता हूँ। पानी हल्का हो रहा है, हमंे ज़ल्दी से ज़ल्दी घर पहुँचना चाहिए। यहाँ रूकना ख़तरे से खाली नहीं है।’



कुनमुनाती नीलू आशू के पीछे बैठ गई, पर इस बार दोनों के बीच सिर्फ़ मौन की ही दीवार नहीं थी, जग़ह की दूरी भी बढ़ गई थी।







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ध्वैलेंटाइंस डे



घर के सामने नीलू को उतारते आशीष ने फिर दोहराया था-



‘अनजाने में जो ग़लती कर गया, उसे एक दुःस्वप्न की तरह भुला देना। माँ का ताई के सिवा कोई नहीं है, उन्हें अकेला मत होने देना, नीलू।’



नीलू के ज़वाब का इंतज़ार किए बिना, किक लगा, आशीष हवा- सा उड़ गया। घर में अम्मा ने सवालों की झड़ी- सी लगा दी-



‘तेरा मुँह ऐसा उतरा-उतरा- सा क्यों है री, क्या आशीष से झगड़ आई है, बिना मिले वो क्यों चला गया ?’



‘कुछ नहीं हुआ, अम्मा। पेपर ज़्यादा अच्छा नहीं हुआ। आशीष की बात आशीष जाने।’



अपने कमरे मेें पहुँच निढाल- सी नीलू पलंग पर पड़ गई। पीछे से माँ दूध का गिलास लिए आ गई-



‘ले थोड़ा दूध पीले। थक गई होगी।’



‘हमंे कुछ नहीं चाहिए। बस आराम करने दो, अम्मा।’ सिर तक चादर ढाँप नीलू ने माँ को नाराज़ वापस कर दिया।



आँखे मूँूद नीलू आज की बातें दोहराती गई फ़िल्मों और उपन्यास-कहानियों ने प्रेम से उसका अच्छा परिचय करा दिया था। उसके सपनों में भी एक प्रिंस-चार्मिंग आने लगा था, पर आशीष के लिए वहाँ कोई जग़ह नहीं थी। ये सच था बचपन से आशू और नीलू साथ खेलते-झगड़ते बड़े हुए थे। नीलू की ज़्यादतियों को आशू हँसकर झेल लेता। उसके हर काम पूरे करना, आशू का फर्ज़ था। इसके बावजूद नीलू के लिए आशू, बस उसके काम पूरे करने का ज़रिया भर था। कभी-कभी माँ और सुधा चाची की बातें सुन, आशू के प्रति दया भी उपजी, पर प्रेम के लिए उसके मन में कतई कोई जग़ह नहीं थी। क्या आशू के मन में उसके लिए वैसा कोई भाव था ? शायद नहीं, तभी तो उसने कहा अचानक ही ग़लती कर बैठा। ओंठों पर जड़े चुंबन कोे बार-बार चुन्नी से रगड़ने की वज़ह से दहक बढ़ गई।







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क़सक



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दो दिन तक आशीष का घर न आना, आश्चर्य की बात थी। माँ उसे बार-बार याद करतीं। सुधा चाची आफ़िस के काम से चार दिनों के लिए बाहर गई थीं।



अन्ततः तीन दिन बाद सूखा मुँह लिए आशीष आया था। अम्मा ने स्नेह से झिड़की दे डाली-



‘क्यों रे, राँची से आकर चेहरा भी नहीं दिखाया ? क्या नीलू के साथ लड़ाई हो गई। ये लड़की बिना बात मुझे परेशान करती रहती है।’



माँ की बात पर आशू ने नज़र उठाकर कृतज्ञ दृष्टि से नीलू को देखा था। अचानक उसका चेहरा खिल आया।



‘ऐसी कोई बात नहीं है, ताई। पहली तारीख़ से मेरी टेªनिंग शुरू हो रही है, उसी के लिए इंटरव्यू देने गया था।’



‘कैसी टेªंिनंग, आशू ?’



‘मैं एयरफ़ोर्स में जाना चाहता था, उसी के इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। अब तुम्हें हवाई जहाज़ में घुमाऊँगा ताई।’



‘वाह, तू तो छुपा रूस्तम निकला। कब एयरफ़ोर्स की परीक्षा दे डाली, किसी को पता भी नहीं लगा। क्या सुधा तुझे एयरफ़ोर्स में जाने देने को राज़ी हो गई। अच्छी-भली कोई और नौकरी तुझे मिल सकती है, रे ?’



‘नहीं, ताई मुझे बादलों से होड़ लेनी है। उनसे ऊपर उनका अभिमान तोड़ना है।’ आशीष की गहरी नज़र नीलू पर थी।



‘देख, आशू। तू अपनी माँ का इकलौता सहारा है। तेरे लिए उसने कौन- सा त्याग नहीं किया। मेरी मान, एयरफ़ोर्स की ये नौकरी ज्वाइन मत कर।’



‘माँ ने अपनी सहमति दे दी है, ताई अब आपकी इज़ाज़त चाहिए।’



‘बादलों से ऊपर उड़ने से उनका अभिमान नहीं तोड़ा जा सकता। जिसकी जो जग़ह है, भूलनी नहीं चाहिए। ज़मीन पर







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ध्वैलेंटाइंस डे



रहने वालों को आकाश के तारे तोड़ने की हिमाक़त नहीं करनी चाहिए, ज़नाब।’



नीलू की तीखी बात ने ताई को चैंका दिया, पर शांत स्वर में आशू ने कहा-



‘ठीक कह रही हो नीलू। अपनी औक़ात कभी नहीं भूलनी चाहिए। मैं ग़लती पर था।’



‘नहीं रे, तू बहुत बड़ा आदमी बनेगा इस लड़की के तो ढंग ही निराले हैं। इकलौती बेटी होने का फ़ायदा उठाती है, जो मुँह में आया, बक देती है। जा री दो लड्डू तो ले आ, लड़के का मुँह तो मीठा करा दूँ।’



‘नहीं ताई। आज नहीं, जाने के पहले फिर आऊँगा। अभी जाता हूँ।’



आशीष के चले जाने के बाद अम्मा सोच में पड़ गई। इकलौते बेटे को सुधा ने एयरफ़ोर्स ज़्वाइन करने की इज़ाज़त क्यों दी ?



‘छोड़ो भी अम्मा। तुम बेकार ही परेशान हो रही हो। एयरफ़ोर्स ज़्वाइन करने का मतलब बस मौत ही नहीं होता। जीना-मरना ऊपर वाले के हाथ है।’



अम्मा को तो नीलू ने समझा दिया, पर आशीष के चले जाने के बाद, गहरे अवसाद ने नीलू को घेर लिया। क्या उसे भी आशीष से मोह है, नहीं.....फिर उसे सब कुछ सूना-सूना- सा क्यों लग रहा था- क्यों ?



आशीष की अनुपस्थिति में नीलू के पाँव अनज़ाने ही उसके घर पहुँच जाते। आशीष के टेªनिंग पर जाने के बाद से चाची का ज़्यादा वक़्त पूजा-पाठ में ही बीतता। नीलू को देख उनका मुँह खिल जाता। तस्वीरों में आशीष का व्यक्तित्व इस कद़र निखर आया था कि उसे पहचान पाना कठिन लगता। आशीष की फ़ोटो दिखाती सुधा गर्व से फूल उठती-







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क़सक



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‘देख नीलू, आज ये फ़ोटो आई है। आशीष की वर्दी पर ये जो तमग़ा चमक रहा है, वो आशू के आॅफ़िसर ने अपने हाथों से खुद लगाया है। तेरा आशू अपनी ड्यूटी में पहले नम्बर पर है।’



‘वाह चाची, आशू को इनाम मिला और हमंे मिठाई भी नहीं ?’



‘ऐसा कभी हो सकता है ? तेरे लिए ख़ास गाजर का हलवा बनाया है। हाँ, आशू तुझे बहुत याद करता है। हर ख़त मंे तेरे बारे में पूछता है।’



‘अच्छा इसीलिए हमें एक ख़त भी नहीं डाल सकता। आशू कब आएगा, चाची ?’



‘टेªेनिंग पूरी करके ही आएगा। अब तो उसी दिन का इंतज़ार है।’ सुधा ने गहरी साँस ली।



टेªनिंग पूरी कर लौटे आशीष ने सबको चैंका दिया। अम्मा तो पहचान भी न सकीं-



‘तेरी तो कायापलट गई, आशू। एकदम साहब बन गया है, रे।’



‘नहीं, ताई। मैं तुम्हारा वही आशू हूँ। भला धूल भी आकाश छू सकती है ? मैं और साहब ?’ ताई के पाँव छूते आशीष ने दृष्टि भर नीलू को देखा था।



आशीष की उस बात ने नीलू को अपनी कही तीख़ी बात याद दिला दी।



एक हफ़्ता हँसी-खुशी में गुज़ार आशीष पोस्टिंग पर चला गया। जाते वक़्त सहास्य नीलू से कहा था-



‘अगर कभी वापस न लौट सका तो समझ लेना, ज़मीन पर रहने वाले आशू ने आकाश के तारे तोड़ने का दुस्साहस किया था और अपनी इस ग़लती की उसे सज़ा मिल गई।’



स्तब्ध नीलू आशू के हँसते चेहरे को ताकती रह गई। ‘हे भगवान, ऐसा कभी मत करना’ नीलू ने मन ही मन प्रार्थना कर







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ध्वैलेंटाइंस डे



डाली।



पर भगवान ने वैसा ही किया। कारग़िल की लड़ाई से आशीष वापस नहीं आ सका। सुधा चाची को समझा पाना सिर्फ़ नीलू को ही संभव हो सका। पूरे आठ दिनों तक नीलू चाची को बच्चों- सा चिपकाए रही। बीच-बीच में सुधा का चीत्कार पूरे मुहल्ले को रूला जाता।



मरणोपरान्त परमवीर चक्र लेने गई, सुधा आशीष का नाम पुकारे जाते ही बेहोश हो गई। साथ गई नीलू को ही पदक ग्रहण करना पड़ा। आँखों से बहते आँसुओं की वज़ह से पदक पर लिखी इबारत धुँधला गई। मुट्ठी में बंद पदक जैसे नीलू को चिढ़ा रहा था ‘देख लो, मंैने अपने दुस्साहस की सज़ा पाली, पर खुशी यही है मैं बादलों से ऊपर उड़ सका।’



आशीष तो सचमुच बादलों से ऊपर उड़ सका, पर नीलू का डाॅक्टर बनने का सपना, सपना ही रह गया। एंटैªस एक्ज़ाम की असफलता ने उसे बी0एस0सी0 करने को मज़बूर कर दिया। ज़मीन पर तो नीलू रह गई।



सुधा चाची को अम्मा ने अपने आश्रय में ले लिया। नीलू, सुधा की हर ज़रूरत बिना कहे ही जान जाती। सुधा आशीष देते न थकती-



‘तू पूर्व जन्म में ज़रूर मेरी बेटी थी, नीलू वर्ना क्या कोई ग़ैर लड़की मेरी यूँ परवाह करती ?’



‘अच्छा तो इस जनम में मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ, चाची।’ मान भरे स्वर में नीलू कहती।



तभी अमरीका से आए इंजीनियर ने नीलू को पसंद कर, चटपट शादी का संदेशा भिजवा दिया। घर में खुशी छा गई, पर नीलू के मन में बार-बार आशीष का चेहरा झाँकता रहता। सच्चाई साफ़ थी अनज़ाने ही वह आशीष को चाहने लगी थी। काश् ! यह सच वह पहले जान पाती।







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क़सक



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नीलू की हर ‘ना’ के बावजूद रिश्ता तय हो गया। इतना अच्छा घर-वर भाग्य से ही मिलता है।



शादी में अपने एकमात्रा कंगन पहनाती सुधा चाची रो पड़ीं-



‘कभी सोचा था, तुझे अपनी बहू बना, ये कंगन पहनाऊँगी। बहुत चाहता था आशू तुझे, पर हमेशा यही कहता रहा किसी लायक बनकर ही नीलू को पाना है।’



चाची के कंधे पर सिर धर, नीलू रो पड़ी। आशीष क्यों याद आ रहा है। क्यों इस नीलू की छोटी- सी बात को काँटे की तरह दिल से ऐसे लगा दिया कि आज वह जिस ऊँचाई पर पहुँच गया, वहाँ से नीचे देख पाना भी संभव नहीं है।



नीलू के आँसुओं को पोंछ संजीव ने दिलासा दिया-



‘माँ की याद आ रही है, नीलू ? यकीन रखो तुम्हारी नई दुनिया सब कुछ भुला देगी। कुछ दिनों बाद सब ठीक हो जाएगा।



शायद सब ठीक हो जाए, पर नीलम क्या कभी अपने को माफ़ कर सकेगी ? शायद नहीं.....कभी नहीं.......। उसके दिल में हमेशा क़सक बनी रहेगी, उसने वो सब आशू से क्यों कहा, क्यों कहा ?







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ध्वैलेंटाइंस डे





सौग़ात



बीजी को उनके बेटे रविन्दर ने अमरीका बुलाया है। आग की तरह ख़बर पूरे गाँव में फैल गई। अन्ततः पोते के जन्म ने बीजी की रविन्दर के पास न जाने की क़सम तोड़ ही दी।



‘वाह परजाई जी, पुत्तर हो तो ऐसा। माँ को अमरीका की सैर कराने को मना ही लिया।’ मुँह बोले देवर ने परिहास किया।



‘हाय सतवंत, हवाई- जहाज पर उड़ते डर नहीं लगेगा ? झूले की ऊँची पेंग पर तो तेरी चीखें निकल जाती थीं। हवाई-जहाज़ के न तो नीचे धरती न पानी, आकाश में कैसे उड़ेगी ?’



बसंती की बात पर सब हँस पड़े। सच तो यह था कि सतवंत उर्फ़, बीजी, हवाई-उड़ान की कल्पना से खुद डर रही थीं, पर पोते का मुँह देखने की लालसा ने, डर पर विजय पा ली थी। बीजी के बिछोह की सोच सब दुखी थे। बीजी किसी की चाची - ताई, किसी की परजाई और बच्चों की प्यारी दादी थीं। गाँव उनका भरा-पुरा संसार था। हर एक के सुख-दुख में बीजी शामिल रहतीं। बच्चे उनकी कहानियाँ सुनते कभी न थकते। आज बीजी की आँखों के सामने उनका अपना अतीत उभर रहा था।



एक दिन इसी गाँव में वह बहू बनकर आई थीं। रात भर ढोलक पर गीत गाकर औरतों ने नई बहू का स्वागत किया था। लाल जोड़े में सिमटी सतवंत का घूँघट उठा, पति मुग्ध ताकता रह गया। छलछल करती नदी सतवंत को, गम्भीर सागर सदृश्य मास्टर जी में, अपना प्राप्य मिल गया। सतवंत के मन में प्यार का दरिया हरहराता, जो हर किसी को अपने स्नेह से सराबोर कर देता। घर में सास और पति के छोटे से परिवार का प्यार पा, सतवंत खिल उठी। बहू को अशीषती सास ने अचानक ही इस संसार से विदा ले ली। घर की ज़िम्मेदारियों ने अल्हड़ सतवंत को गम्भीर गृहिणी बना दिया। हमज़ोलियाँ ठिठोली करतीं।



‘ऐ सतवंत, तू तो एकदम बदल गई, री। अरे यही तो







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सौग़ात



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मौज़-मस्ती की उम्र है और तू है कि घर का पल्ला ही नहीं छोड़ती।’ कित्ती उकसाती।



‘हाँ, चल आज मेला चलते हैं। तेरी मनपसंद चूड़ियाँ मिलेगी।’ बसंती उमगती।



‘नहीं, बसंती। आज मास्टर जी घर ज़ल्दी लौटेगें। उन्हें खाना कौन परोसेगा ?’



‘धत्त तेरे की। अरे तेरे मास्टर जी एक दिन खुद परोसकर खा लेगें तो पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा। मेला रोज़-रोज़ नहीं लगता।’



‘मास्टर जी कहते हैं, यह दुनिया ही सबसे बड़ा मेला है। इस मेले में जो आनंद मिलता है, वो शोरगुल वाले मेले में नहीं मिलता।’



‘ठीक है, तू ज्ञानी इस दुनिया का मेला देख हम जाते हैं। तू तो जैसे पुरखिन बन गई है।’



घर लौटे मास्टर जी अपनी भोली घरवाली की बात सुन, मुस्कुरा उठे।



‘कभी-कभी दूसरों का मन भी रख लेना चाहिए सतवंत। चलो कल हम दोनों मेला देखने चलेगें। तुझे लाल चूड़ियों का लच्छा दिलवाऊँगा।’



‘सच। तब तो बड़ा मजा आएगा, पर बुधिया काकी बीमार हैं, उन्हें छोड़कर कैसे जाएँ ?’ सतवंत सोच में पड़ गई।



‘तू सबका कितना ख़्याल रखती है, सतवंत। मोहन से कह दूँगा, कल वह काकी को देख लेगा।’



मेले में बिखरे रंगों और खुशी ने सतवंत का बचपन लौटा दिया। उस दिन गम्भीर मास्टर जी भी सतवंत के साथ अपना गाम्भीर्य भूल गए। झूले पर चढ़ी सतवंत खुशी से किलक उठी। कलाई भर लाल चूड़ियाँ पहन, बार-बार अपना हाथ निहारती रही। चाट खाती सतवंत को सी-सी करते देख, मास्टर जी ने टोका था।







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ध्वैलेंटाइंस डे



‘इतनी मिर्ची डलवाने की क्या ज़रूरत थी ? चल उधर जामुन खाकर मुँह मीठा कर ले।’



‘नहीं जी, मिर्ची में ही तो चाट का असली मज़ा है।’ दुपट्टे से आँखे पोंछती सतवंत मुस्करा उठी।’



‘सुनते हैं, ज़्यादा मिर्ची खाने से जुबान कड़वी हो जाती है, पर तेरी जुबान से तो फूल झड़ते हैं। गाँव वाले तुझे सराहते नहीं थकते।’



‘और तुम ?’ बड़ी-बड़ी आँखें मास्टर जी पर निबद्ध थी।’ मैं तो दुनिया का सबसे ज़्यादा भाग्यवान इंसान हूँ, जो मुझे तू मिली, पर तुझ में एक ही कमी है।’



‘क्यों जी, हममें कौन- सी कमी है ? क्या कहीं हमसे चूक हुई है ?’



‘अरे चाँद में भी तो दाग़ है, तू पढ़ना शुरू कर दे तो तेरी ये कमी भी दूर हो जाएगी।’



‘ठीक है, तुम हमें पढ़ाना शुरू कर दो, हम अपनी यह कमी भी मिटा देंगे।’



‘यह हुई न बात। चल इसी बात पर एक बार फिर झूला चढ़ेगी ?’ मास्टर जी मुस्करा रहे थे।



‘नहीं-नहीं, बहुत देर हो गई। सत्तो परजाई के पाँव में मोच आई है, उनके लेप लगाना है। बुधिया काकी की भी ख़बर लेनी है। जाने मोहन ने ठीक वक़्त पर दवा दी या खेल में भूल गया।’



दूसरे दिन सतवंत ने कागज़-कलम उठाई थी। टेढ़े-मेढ़े अक्षर बनाती, वह मुग्ध हो जाती। काश् ! उसके बापू जिं़दा रहते तो वह भी स्कूल जाती। पिता के बाद चाचा ने उसे आश्रय ज़रूर दिया, पर उसकी स्थिति एक मुफ़्त की नौकरानी जैसी ही रही। पढ़ने-पढ़ाने की कौन सोचता। दिन भर काम में पिसती सतवंत, पर चाची को तरस नहीं आता। हर वक़्त उसे कोसती-ताने देती







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सौग़ात



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रहती। वो तो ऊपर वाले की मेहरबानी थी, शादी में ढोलक पर गीत गाती सतवंत को देख, मास्टर जी की माँ ने अपने गम्भीर बेटे के लिए उसका हाथ माँग लिया।



शादी के बाद सतवंत के दिन फिर गए। सास की सेवा में उसे अपार आनंद मिलता। घर के पालतू पशुओं पर भी उसका प्यार छलकता। भूरी गाय तो उसके हाथ से ही चारा लेती। सफ़ेद बिल्ली उसके आगे-पीछे दौड़ती। उन सबके बीच, हम-उम्र सहेलियों के साथ त्यौहार मनाती सतवंत, अपने दुखद अतीत को भूल चुकी थी। सास के रूप में उसे माँ मिल गई थी। सास की मृत्यु ने उसे बहुत दुखी किया, पर अपने को समेट उसने उनके दायित्व निभाने शुरू कर दिये।



सतवंत की पढ़ाई शुरू होते ही उनके बीच रविन्दर आ गया। नन्हें से रविन्दर में सतवंत को एक जीता-जागता खिलौना मिल गया। अब उसकी सारी दुनिया रविन्दर के इर्द-गिर्द ही घूमती। कागज़-कलम का मोह छूट गया, और सतवंत अपनी कमी दूर करने की बात भूल गई।



सतवंत के सुख को न जाने किसकी नज़र लग गई। मास्टर जी के आकस्मिक निधन ने सतवंत को स्तब्ध कर दिया। दो वर्ष के रविन्दर को सीने से चिपटाए वह टुकुर-टुकुर ताकती रह गई। मास्टर जी की मृत्यु ने सब कुछ बदल दिया। गाय-भैंस के चारे के लिए भी पैसे चाहिए। मास्टर जी की कोई अर्जित सम्पत्ति तो थी नहीं। सतवंत के सामने भविष्य मुँह बाए खड़ा था। उस वक़्त इन्हीं गाँव वालों ने उसे सम्हाला था। भूरी गाय को विदा करती सतवंत के आँसू नहीं थम रहे थे- शाह जी ने समझाया।



‘गाय हम ले ज़रूर जा रहे हैं, पर जब तक रविन्दर बड़ा नहीं हो जाता, उसके हिस्से का दूध पहुँचता रहेगा।’



‘हाथ में चार पैसे आने से बच्चे को सहारा मिलेगा। जब







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ध्वैलेंटाइंस डे



जी चाहे अपनी गाय से मिलने आ जाना। हमारा घर भी तो तेरा घर है, सतवंत।’ शाहनी ने दिलासा दिया।



शाह और शहनी ने अपना वादा पूरा किया। रविन्दर को दूध-दही मिलता रहा। इस एहसान के एवज़, सतवंत ने शाहनी के घर के काम और उनका खाना बनाना शुरू कर दिया। इस तरह उसका वक़्त भी कट जाता और घर की ज़रूरतों के लिए पैसे भी मिलने लगे।



दिन, महीने और साल बीतते गए। अभावों के बीच बड़ा होता रविन्दर, माँ का किया त्याग महसूस करता। अक्सर सतवंत कहती।



‘आज, मास्टर जी जिंदा होते तो तुझे हर खुशी देते, पुत्तर।’



‘तुमने मुझे हर खुशी दी है, बीजी। आशीर्वाद दो बड़ा होकर तुम्हारा कर्ज़ चुका सकूँ।



एम0एस0सी0 में अव्वल आए रविन्दर ने सतवंत के पाँव छू लिए।



‘जुग-जुग जिए मेरा पुत्तर बस रब्ब से इसी दिन की मन्नत माँगी थी। अगर आज मास्टर जी होते तो तुझ पर कितना गर्व करते।’ सतवंत ने दुपट्टे के छोर से आँखें पोंछ डालीं।



‘बीजी अब अपने रब्ब से दुआ माँग, मुझे अमरीका जाने के लिए स्काॅलरशिप मिल जाए।’



‘क्या तू सात समंदर पार अमरीका जाएगा। यहाँ क्या कमी है, पुत्तर ?’



यहाँ क्या रखा है, बीजी ? एक बार अमरीका पहुँच जाऊँ तो तुझे सोने के झूले में झुलाऊँगा। रविन्दर की आँखों में सपने चमक रहे थे।



ऊपर वाले ने रविन्दर की सुन ली। पी0एच0डी0 करने के लिए रविन्दर को अमरीका से बुलावा आ गया। रविन्दर को







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सौग़ात



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विदा करती बीजी का दिल बैठा जा रहा था। उस वक़्त भी उन्हें गाँव वालों ने ही सहारा दिया। रविन्दर का जाना, उसके बचपन की साथिन चन्नी को भी बहुत खला था। उसकी आँखों ने तो बस रविन्दर के ही सपने देखे थे। सूनी आँखों से वह बीजी के आस-पास डोलती रहती। रविन्दर के भेजे पैसों से बीजी ने गाँव भर में मिठाई बाँटी थी। निहाल सिंह ने सलाह दी थी।’ इन पैसों से अपना घर पक्का करा लो परजाई जी। रविन्दर की शादी होते वक़्त पक्का घर होना ही चाहिए।’



‘क्यों, कच्चे घर मंे अपनी चन्नी बेटी हमें नहीं दोगे, भइया ?’



‘चन्नी तो आपकी ही है परजाई जी । जब जी चाहे ले जाओ।’



निहाल सिंह की स्वीकृति पाते ही बीजी ने रविन्दर को अपने दिल की बात लिख भेजी थी। ज़वाब में रविन्दर ने बीजी के फ़ैसले से साफ़ इंकार कर दिया था। उसे एक पढ़ी-लिखी पत्नी चाहिए। चन्नी जैसी लड़की के लिए गाँव का इंसान ठीक रहेगा। बुझे मन से बीजी ने निहाल सिंह से चन्नी का रिश्ता कहीं और कर देने की बात कही थी। चन्नी तो जैसे एकदम मुरझा गई। चन्नी को कलेज़े से चिपटा, बीजी फूट पड़ीं।



‘तू उसकी किस्मत में नहीं थी, चन्नी ? बड़ा अभागा है मेरा पुत्तर।’



सतवंत का मुँह हथेली से ढ़ाँप, चन्नी रो दी। उस दिन के बाद से बीजी जैसे रविन्दर से नाराज़- सी थीं। उसके भेजे पैसों को हाथ नहीं लगाया। उससे भी बड़ी चोट तब लगी, जब रविन्दर ने लिखा, उसने अमरीका में साथ काम करने वाली लड़की से शादी का फ़ैसला कर लिया है। अमरीका में पली-बढ़ी मोनिका की माँ को हिन्दुस्तानी लड़के और हिन्दुस्तान से कोई लगाव नहीं था। मोनिका की ज़िद की वज़ह से उसकी शादी रविन्दर से ज़रूर कर दी गई शर्त यही थी कि रविन्दर को अमरीका में ही







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ध्वैलेंटाइंस डे



शादी करनी होगी। बीजी ने शादी में शामिल होने से साफ़ इंकार कर दिया था।



अब जब रविन्दर ने अपने बेटे के जन्म पर माँ को आग्रहपूर्वक बुलाया तो बीजी से रूका नहीं गया। सूरज उगते ही पोते की लम्बी उम्र के लिए गुरूद्वारे में मत्था टेक आईं। नन्हें बच्चे के लिए बड़े चाव से झबले-कुरते सिल डाले। ज़ल्दी ही उनके जाने का दिन आ पहुँचा।



बीजी को विदा करने पूरा गाँव इकट्ठा था। दुख-सुख की हमउम्र साथिनों के आँसू नहीं थम रहे थे। कित्ती, बसंती, सत्तो, शाहनी के साथ न जाने कितनी यादें जुड़ी थीं। बसंती बार-बार कहती-



‘देख सतवंत बेटे-पोते को पा, हमें भूल मत जाना। वापस ज़रूर आना। ’ हाँ, हम हर पल तेरा इंतज़ार करेंगे।’



अपनी परवाह रखना। कोई ज़रूरत होने पर हमें याद करना।’ शाहनी ने भरे गले से कहा।



चन्नी ने जब से बीजी के जाने की बात सुनी, उसके गले से निवाला ही नीचे नहीं उतर पा रहा था। निहाल सिंह ने रूँधे स्वर में बीजी से कहा था-



‘चन्नी तुम्हारे घर जाती, ये हमारी किस्मत में नहीं था। अगले बैसाख में चन्नी की शादी है, तब तक ज़रूर लौट आना, परजाई जी।



बीजी को दिल्ली एयरपोर्ट तक पहुँचाने निहाल सिंह आए थे। हवाई-यात्रा के नाम पर बीजी का दिल बैठा जा रहा था। निहाल ने तसल्ली दी।



‘घबराओ नहीं परजाई जी, हवाई जहाज़ में एकदम घर जैसा महसूस करोगी आज कल अमरीका जाना मामूली बात है।’



आँसू भरी आँखों से बीजी ने निहाल सिंह को विदा दी। एयरपोर्ट पर नज़र घुमाने पर देखा सचमुच उन जैसी कई औरतें







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सौग़ात



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थीं, पर उनके चेहरों पर डर नही था एक औरत के पास बैठ, बीजी पूछ बैठीं।



‘आप भी अमरीका जा रही हैं?’



‘हाँ जी, बहू के बेबी होने वाला है। हम तो चैथी बार जा रहे हैं। आपका वहाँ कौन है ?’



‘मेरा बेटा है, जी बड़ा लायक बेटा है, पहली बार जा रही हूँ सो मन थोड़ा परेशान है।’



‘अरे आज कल हमारे हिन्दुस्तान के बच्चे अमरीका में बड़ा नाम कमा रहे हैं यहाँ जितने बुजुर्ग देख रही हैं, उनमें से ज़्यादातर अपने बच्चों के पास जा रहे हैं।’



बीजी खुश हो गईं। वह अब अकेली नहीं थीं। हवाई-जहाज़ के अन्दर पहुँची, बीजी कहाँ बैठें ? तभी एयरहोस्टेस ने उन्हें उनकी सीट दिखा दी। पेटी बाँधने की दिक्कत भी उसी लड़की ने दूर कर दी। मन ही मन बीजी ने उसे आशीष दे डाली।



हवाई जहाज़ आकाश में उड़ रहा था। बीजी का मन हवाई-जहाज़ से भी ऊँची उड़ान भर रहा था। काश् ! बसंती देख पाती, सतवंत ज़रा नहीं डरी।



खाने की टेª में प्लास्टिक के चम्मच देख बीजी को एक बहुत पुरानी घटना याद हो आई.....



शाह जी के घर उनके बेटे के दोस्त शहर से आए थे। उनके साथ ढेर सारे प्लास्टिक के चम्मच और प्लेटें देख बीजी ताज़्जुब में पड़ गईं। शाहनी ने हँसते हुए बताया था।



‘शहर में ऐसे चम्मच-प्लेट, खाने के बाद फेंक दिए जाते हैं। ये सब यहाँ पिकनिक मनाने आए हैं, इसलिए ये सारा सामान साथ लाए हैं।



‘क्या ? इतने अच्छे चम्मच-प्लेटें फेंक दी जाती हंै।’ हाँ पिकनिक में बर्तन धोने का झंझट कौन करेगा।’



‘शाहनी, क्या दो चम्मच मैं रविन्दर के लिए ले जा सकती







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ध्वैलेंटाइंस डे



हूँ।’ बड़े संकोच से बीजी पूछ सकी थीं।



‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं। ये ले, दो-चार चम्मच ले जाने से कौन- सी कमी आएगी।’



चम्मच पाकर रविन्दर निहाल हो उठा। बचपन में माँ के हाथ से निवाला खाकर, अब वह अपने हाथ से खाने लगा था। चम्मच से दाल-चावल खाना एक अनुभव था। कई दिनों तक रविन्दर दोस्तों को चम्मच दिखाता रहा।



निहाल सिंह की बेटी चन्नी, रविन्दर से दो बरस छोटी थी। रविन्दर चन्नी, का आदर्श था। रविन्दर की हर बात चन्नी को मान्य होती। अपने प्रति चन्नी की इसी भक्ति का रविन्दर पूरा फ़ायदा उठाता। चन्नी की हर नई चीज़ पर रविन्दर का पहला हक होता। उसी चन्नी को एक चम्मच थमा, रविन्दर ने उसका मन जीत लिया। खाना ख़त्म कर बीजी ने लापरवाही से चम्मच छोड़ दिए। मन में पुलक- सी उठी, एक दिन ऐसे ही चम्मच कितने अनमोल थे। शायद आज तक उसी मोह की वज़ह से वह उन चम्मचों को फेंक नहीं सकी थीं। आज उनके बेटे को किस बात की कमी है ? वह तो चाँदी-सोने के चम्मच से खा सकता है।



बीजी को याद आया कैसे दिन-मौसम बदलते रहे। रविन्दर और चन्नी का बचपन चिड़िया- सा उड़ गया। अब रविन्दर को देखती चन्नी की आँखों में सपने जागने लगे थे। चन्नी के मन की बात सतवंत समझती थी, पर वह उस दिन के इंतज़ार में थी जब रविन्दर पढ़ाई पूरी कर, अच्छी- सी नौकरी पा ले। उनकी इसी देर ने सब कुछ बदल डाला। सिर झटक बीजी ने पुरानी यादों से बाहर आना चाहा अब तो रविन्दर एक बेटे का बाप बन चुका है।



अमरीका पहुँची बीजी हक्की-बक्की रह गई। हवाई जहाज़ की लम्बी उड़ान की थकान, बेटे का वैभव देख, छूमंतर हो गई। उन्हें लगता वह जागती हुई सपना देख रही थीं। क्या वह कभी







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सौग़ात



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सपने में भी सोच सकी थीं, उनका पुत्तर राजा बन जाएगा ?



छोटे से पलंग (क्रिब) पर राजकुमार- सा नन्हा पोता सो रहा था। भला इतना छोटा बच्चा अकेले सो सकता है ? रविन्दर तो रात में डर कर बीजी से चिपट जाता था। बड़े प्यार और अरमान से पोते को उठा मुँह चूम लिया। बहू की ओर मुड़कर अधिकार से बोलीं।



‘आज से मुन्ना मेरे पास सोएगा। दादी के रहते वह अकेला क्यों सोए ?’ मुँह पर गर्व भरी खुशी झलक उठी।



‘ओह नो। बच्चे के डेवलपमेंट के लिए अलग क्रिब में लिटाना ही ठीक होता है। एक बात और प्लीज़ बच्चे के मुँह पर कभी किस मत कीजिएगा, जम्र्स जा सकते हैं, यह अमरीका है, यहाँ गाँव के नियम नहीं चलते।’



विस्मित बीजी को याद आया नन्हें से रविन्दर के गाल चूमती, वह अपने को भूल जाती थीं। रविन्दर को तो कोई जम्र्स नहीं लगे।



पोते के शानदार कपड़े देख बीजी अपने लाए मामूली झबले-कुरते देती--- संकुचित थीं। पीले साटन के झबले पर चन्नी ने बड़ी मेहनत से सुनहरा गोटा टाँका था। कपड़े देखती मोनिका हँस पड़ी।



‘ये देहाती कपड़े यहाँ नहीं चलते। यहाँ के बच्चे आॅल ओवर पहनते हैं।’



बीजी का मुँह फक पड़ गया। कितने अरमान से वह पोते को खिलाने आई थीं, पर उनका देहातीपन मोनिका को नहीं भाया। रविन्दर और मोनिका के काम पर जाने के बाद अमरीकी बेबी-सिटर आ जाती। बच्चे के रोने की आवाज़ से बेपरवाह, वह टी0वी0 देखती रहती। बीजी का कलेज़ा उमड़ आता। उनकी गोद में जाते ही बच्चे का रोना थम जाता। बेबी-सिटर उनसे बच्चे को छीन, क्रिब में लिटा न जाने क्या-क्या कहती। बीजी







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ध्वैलेंटाइंस डे



का मन तड़प उठता।



कुछ ही दिनों में उन्हें अपना गाँव याद आने लगा। वहाँ सारे दिन कोई न कोई आता रहता। यहाँ तो पूरे दिन मुँह सिए बीजी का जी घबरा जाता। काम से लौटे रविन्दर की ओर वह उम्मींद से ताकतीं, पर रविन्दर की व्यस्तता उन्हें अपने से दूर रखती। जब कभी रविन्दर बीजी के कमरे में आता, वह निहाल हो उठतीं, पर मोनिका को रविन्दर का उनके पास आना खल जाता। वह किसी न किसी बहाने रविन्दर को अपने पास बुला लेती। रविन्दर से जी भर बात करने को वह तरस र्गइं।



शायद बेबी-सिटर ने मोनिका से उनकी शिक़ायत की थी, वह बाबा को गोद में ले, उसकी आदत बिगाड़ रही थीं।



‘मोनिका बीजी पर उबल पड़ी’



‘अगर आपको यहाँ रहना है तो चुपचाप कमरे में बैठिए, टी0वी0 देखिए, पर मेरे बेटे की आदतें मत बिगाड़िए। यहाँ बच्चों को गोद में नहीं लिया जाता।’



‘वह रोता है, बहू। तुम्हारी बेबी-सिटर उसे ठीक से नहीं देखती........’ ‘आप अपना काम देखिए। हाँ खाने में ज़्यादा तेल-घी मत डाला करिए। रविन्दर को हज़म नहीं होता।’



पैर पटकती मोनिका चली गई। गाँव में दिन बीतते देर नहीं लगती थीं, पर यहाँ दिन काटना कितना कठिन लगता। वक़्त काटने के लिए खाना बनाना आसान काम था। रविन्दर की मनपसंद डिशेज़ उन्हें याद थीं। जिन डिशेज़ को खाकर रविन्दर बड़ा हुआ, अब वो सब वर्जित थीं। गोभी, मूली के पराठों पर मक्खन की टिक्की, वह कितने चाव से खाता था, पर अब पराठों पर मोनिका रोक लगा देती। अपना बेटा ही उन्हें अज़नबी लगने लगा था।



दो दिनों से टी0वी0 पर बार-बार एक औरत और नन्हे से शिशु को दिखाया जा रहा था। बीजी समझ नहीं सकीं, बार-बार







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सौग़ात



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एक ही बच्चे की तस्वीर टी0वी0 पर क्यों दिखा रहे हैं। अमरीका आकर अपने अनपढ़ होने का दर्द, उन्हें सताने लगा था। मास्टर जी ने ठीक कहा था, उसकी यह कमी उसका कलंक थी। बड़े संकोच से रविन्दर से अपना सवाल पूछ बैठीं। जवाब में रविन्दर ने जो बताया उससे उनके रोंगटे खड़े हो गए। टी0वी0 पर दिखाए जा रहे नन्हे से बच्चे को उसकी बेबी-सिटर ने क्रोधावेश में दीवार पर पटक खत्म कर डाला। उस नन्हीं ज़ान की यही ग़लती थी कि वह रो रहा था। न जाने उसे क्या तकलीफ़ रही हो। देर रात तक बीजी उस निर्मम घटना के बारे में ही सोचती रहीं। रविन्दर ने बताया था, बेबी सिटर्स की निर्ममता की ऐसी बहुत- सी घटनाएँ घट चुकीं हैं। अचानक बीजी को लगा शायद बेबी सिटर पर निगाह रखने के लिए ही उन्हें बुलाया गया था, वर्ना क्या उन्हें पोते को गोद में ले, जी भर दुलार करने का भी अधिकार न था ?



जिस उमंग और उत्साह के साथ बीजी अमरीका आई थीं अब निराशा में बदल चुकी थी। अन्ततः अपने मन की बात रविन्दर से कह ही बैठी।



‘अब मुझे वापस भेज दे, पुत्तर। यहाँ आए बहुत दिन हो गए।’



‘वहाँ किसके लिए जाना है, बीजी ?’



‘मेरा सब कुछ तो वो गाँव ही है, बेटा। मेरे जाने का दिन ज़ल्दी तय कर दे।’



‘क्या कह रही हो, बीजी ? जानती हो तुम्हें यहाँ बुलाने के लिए पचास हजार ख़र्च किए हैं। तुम्हारे चले जाने से मोनिका को बहुत परेशानी होगी।’



‘कैसी परेशानी, पुत्तर ? मेरे ख़्याल से तो शायद मैं ही उसकी परेशानी की वज़ह हूँ।’



‘तुम्हारे चले जाने के बाद मोनिका को खाना जो बनाना







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ध्वैलेंटाइंस डे



पड़ेगा। उसे कुकिंग से नफ़रत है।’



‘क्यों, तुम लोग तो उबला टिन का खाना ज़्यादा पसंद करते हो, मेरा तला-भुना खाना तुम्हें हज़म कहाँ होता है ?’ न चाहते हुए भी बीजी के स्वर में व्यंग्य खनक उठा।



‘ओह बीजी, अभी बहस करने के लिए मेरे पास वक़्त नहीं है।’



‘हाँ...पुत्तर। तेरे पास माँ के लिए वक़्त की कहाँ है ? तेरे पचास हज़ार के लिए मुझे रूकना ही पड़ेगा।’



‘बीजी को लगता उन्हें बंदी बना लिया गया था। बात उनकी समझ में आ रही थी। मोनिका को उनके तौर-तरीक़े पसंद नहीं आते, पर बच्चे की बेबी-सिटर पर उनकी निगाह तो रहती थी। बीजी सिहर उठीं। ये कैसा देश है, जहाँ किसी के पास किसी के लिए वक़्त ही नहीं है। अपना बेटा भी अब पराया हो चुका था।



गाँव से निहाल सिंह की भेजी ख़बर ने बीजी को उबार लिया। उनके घर के सामने कोई कारखाना खुल रहा था। आस-पास के घरों को तोड़ा जाना ज़रूरी था। घर के बदले अच्छा मुआवज़ा दिया जाएगा। इस मामले मेें सतवंत परजाई की उपस्थिति ज़रूरी थी। इस ख़बर से रविन्दर को बीजी को वापस भेजना ही पड़ेगा।



बीजी ने उत्साहपूर्वक वापसी की तैयारी शुरू कर दी। सामान सहेजना ही क्या था ? जी चाहता रविन्दर से कह दें, गाँव वालों के लिए छोटी-छोटी सौग़ात भेज दे। आखि़र उन्हीं के सहारे वह यहाँ तक पहुँच सका है, पर स्वाभिमान ने मुँह नहीं खोलने दिया। उनके अमरीका आते वक़्त सबने बच्चे के लिए कुछ न कुछ भेजा ही था, भले ही मोनिका ने उन सौग़ातों पर हाथ भी नहीं धरा। अचानक उनके मन में एक ख़्याल कौंध उठा, हाँ, यही ठीक होगा।







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सौग़ात



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अन्ततः बीजी के वापस जाने का दिन आ पहुँचा। बीजी अपना बक्सा ठीक कर ही रही थीं कि अचानक मोनिका के साथ आए रविन्दर ने उन्हें चैंका दिया। मोनिका के चेहरे पर आक्रोश साफ़ झलक रहा था।



‘आप अपने बक्से में क्या छिपाकर ले जा रही हैं ?’



‘क्या कह रही हो, बहू ?’ विस्मित बीजी ने रविन्दर की ओर निग़ाह उठाई, पर चेहरे के संशय ने उन्हंे स्तब्ध कर दिया।’



‘बेबी-सिटर ने बताया है, आपने अलमारी से कुछ निकाल कर बक्से में रखा है। बताइए मेरी कौन- सी चीज़ उठाकर ले जा रही हैं ?



बीजी की स्तब्धता देख, मोनिका का आवेश और बढ़ गया। झटके से बीजी का बक्सा खोल, बक्सा उलट डाला। एक साथ पच्चीस-तीस प्लास्टिक के चम्मच गिर पड़े। शर्म से बीजी का चेहरा उतर गया। मोनिका विस्मित थी। बड़ी मुश्किल से बीजी कह सकीं।



‘जो चम्मच तुम लोग फेंक देते, उन्हें मैं धो-धोकर रखती रही। गाँव के बच्चे चम्मच पाकर खुश हो जाते। इससे बड़ी सौग़ात क्या ले जाती।’ बात खत्म करती बीजी की आँखे छलछर्ला आइं।



रविन्दर स्तब्ध था। बचपन के उन दो प्लास्टिक चम्मचों का मूल्य वह कैसे भूल गया, जिन्हें बीजी शाहनी से माँगकर लाई थीं। आँसुओं का सैलाब बह चला। लाखों कमाने वाले बेटे की माँ का यह अपमान ? क्या इसी सौग़ात के लिए वह हज़ारों मील उड़कर आई थी। आज जिस माँ के सहारे वह उस ऊँचाई तक पहुँच सका, उस माँ को उसने क्या दिया ?



बीजी के पाँवों पर गिर रविन्दर बिलख उठा।



‘मुझे माफ़ कर दो। मैंने तुम्हें सोने के झूले में झुलाने का वादा किया था, अब मैं अपना वादा पूरा करूँगा बीजी।’







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ध्वैलेंटाइंस डे



‘नहीं पुत्तर। मुझे मेरा पोता देकर तूने मुझे सोने के झूले में झुला दिया। अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए।’



‘हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई, बीजी। हम आपको नहीं जाने देंगे।’ आँसू भरी आँखों से मोनिका ने क्षमा माँगी।



‘नहीं बेटी, मुझे किसी से कोई शिक़ायत नहीं। रब्ब तुम्हें ढेर सारी खुशियाँ दे। मुझे अब वापस जाना ही होगा।’



‘अपने पोते को छोड़कर कैसे जाएँगी, बीजी। ये लीजिए, आज से यह आपके साथ सोएगा।’ क्रिब में सो रहे बेटे को उठा, मोनिका ने बीजी की गोद में डाल दिया।



प्यार से पोते का माथ सहला, बीजी ने अपने गले में पहनी सोने की जंजीर पोते को पहना दी।



‘चलो, पुत्तर देर हो रही है।’ नहीं बीजी। हम आपको इस तरह वापस नहीं जाने देंगे। अगर आप ऐसे चली गई तो हम अपने को कभी माफ़ नही कर सकेंगे।



‘मोनिका की आवाज़ में सच्चा पश्चाताप था।



‘नहीं, बहू। मेरा घर मेरा इंतज़ार कर रहा है। मुझे जाना ही होगा।’ यह घर भी तो तुम्हारा ही है, बीजी ने भरे गले से रविन्दर से कहा।’ नहीं, पुत्तर। यह घर तुम्हारा और मोनिका का है। मेरी वापसी का वक़्त आ गया। मुझे मत रोको।



‘ठीक है, बीजी, पर मेरी एक शर्त है।’ मोनिका ज़िद पर आ गई।



‘कैसी शर्त, पुत्तर।



‘हम अपने गाँव के परिवार वालों को कुछ सौग़ातें भेजेंगे और आपके पोते का पहला जन्म-दिन आपके घर में मनाया जाएगा। कहिए मंजूर है या नहीं।’ मोनिका मुस्करा रही थी।



‘अगर मंजूर न करूँ तो ?’



‘तो आपको ताउम्र यहाँ अमरीका में हमारे साथ ही रहना होगा। मोनिका हँस दी।’







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सौग़ात



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‘वाह, ये तो अच्छी शर्त है, पुत्तर।ऽ



‘एक शर्त मेरी भी है, बीजी।’



अब तेरी कौन- सी शर्त है, रविन्दर ?



तुम गाँव का काम निबटाकर फिर वापस आओगी। इस बार तुम्हारे लिए मेरे पास वक़्त ही वक़्त होगा, तुम्हें अब कभी शिक़ायत का कोई मौक़ा नहीं दूँगा, बीजी।’



‘खुश रह, पुत्तर। ये बात कहकर तूने मुझे निहाल कर दिया। रब्ब ने मुझे मेरा बेटा वापस कर, मेरी झोली बेशक़ीमती सौग़ात से भर दी। अब और कोई अरमान बाकी नहीं रहा।



‘बीजी की वापसी के वक़्त सभी की आँखे नम थीं, पर उस नमी में सुनहरे भविष्य का अथाह सागर लहरा रहा था।’

































तत









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ध्वैलेंटाइंस डे







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