12/6/09

अभिशप्त

फ़ार्म-हाउस के पोर्टिको में एक सफेद कार आ रूकी थी। फ़ार्म-हाउस के कर्मचारी प्रतीक्षा में पोर्टिको के दोनों ओर पंक्तिबद्ध खड़े थे। तत्परता से उतर, वर्दीधारी ड्राईवर ने मालकिन के लिए कार का द्वार खोला था। पीछे की सीट से शाल ओढे मालकिन उतरी थीं।


रामसिंह भइया को व्हील चेयर पर सावधानी से बिठाना है,  जरा भी झटका नहीं लगना चाहिए।

आप निश्चिन्त रहें माँजी,  रामसिंह भइया जी को सिर-आँखों पर रखेगा। रामसिंह निर्देश-पालन के लिए तत्पर था।

कार की पीछे वाली सीट से व्हील-चेयर सटा, रामसिंह ने पीछे बैठे युवक को लगभग गोद में उठा, व्हील-चेयर पर बैठा दिया। व्हील-चेयर के साथ चलती मालकिन, सामने के लॉन में पड़ी कुर्सी पर बैठ गईं।

अब कुछ दिन भइया के साथ इधर ही रहेंगी न मालकिनी? व्हील-चेयर माँजी की कुर्सी के निकट रोक विनम्र स्वर में रामसिंह ने पूछा।

हाँ रामसिंह, डाक्टर ने हवा-पानी बदलने की सलाह दी है। सोचा फ़ार्म-हाउस की खुली हवा से शायद कुछ आराम आए।

आप बिसवास रखें मालकिन, हम सुबह-सांझ भइया को फारम में घुमाएंगे। देख लीजिएगा कुछ ही दिनों में यहाँ का हवा-पानी भइया का पीला रंग लाल कर देगा।

भगवान तुम्हारी बात सच करे रामसिंह। तुम्हारे शैलेन्द्र भइया तो यहाँ आने को तैयार ही नहीं थे, कितनी मुश्किल से मनाकर लाई हूं। कितनी उजली धूप है यहाँ। अच्छा लग रहा है न, शैलू? मांजी ने पुत्र के पीले मुख पर दृष्टि डाल पूछा था।

चाय मॅंगवाऊं, मांजी? रामसिंह निर्देश की प्रतीक्षा में था।

तुम क्या लोगे शैलू? एक कप गर्म दूध मंगवाऊं?

अभी मुझे नहीं चाहिए माँ........तुम्हें जो लेना है ले लो। अन्यमनस्क शैलेन्द्र ने अनिच्छा प्रकट की थी।

रामसिंह मेरे लिए तो चाय ही मॅंगवा दो। बहुत थक गई हूं। ट्रैफ़िक-जाम के कारण तीन की जगह पाँच घंटे लग गए। घूप की ऊष्मा महसूस करती मांजी ने शाल कंधे से उतार पास की कुर्सी पर रख दी।

बिरजनिया ने चाय की ट्रे लाकर मालकिन के सामने रखी तो वे चौंक उठी थीं................

ये कौन है, रामसिंह?

अपने भीखू की बिटिया है, मांजी।  अरे बिटिया मांजी के चरण नहीं छूए? हमारी अन्नदाता हैं मालकिनी।

बिरजनिया को आशीर्वाद दे, माँजी ने भीखू से पूछा था-

तुम्हारे घर में तो पत्नी नहीं है भीखू, बेटी को किसने बड़ा किया? सलीके वाली दिखती है तुम्हारी बिटिया।

अपने मामा के घर पली-बढी है। यहाँ चार दिन को आई रही। अब तो इसका बियाह कर छुट्टी पानी है मालकिनी...........। अभागिन ने बहुत दुख झेले हैं,  दस बरिस की रही,  माँ छोड़कर चली गई- आप तो सब जाने हैं, मांजी। आप ही का आसरा है, मालकिनी। भीखू का स्वर दयनीय हो आया था।

अरे मालकिनी के रहते काहे की चिन्ता, भीखू? बिटिया के हाथ पीले कर राम का भजन करना है न? रामसिंह के परिहास पर भीखू और बिरजनिया भी हॅंस पड़े थे।

बिरजनिया ने चाय का प्याला छोटे बाबू की ओर भी बढ़ाया था। अचानक जैसे करेंट-सा लगा हो- शैलेन्द्र का मुंह न जाने कैसा सा तो हो आया था-

माँ थक गया ऊं। थोड़ा सोना चाहूंगा।

बेटे के थके मुख को निहार माँ एकदम व्यस्त हो उठीं। चाय का प्याला टेबिल पर धर रामसिंह से कहा था-

भइया को उनके कमरे में ले चलना है, कमरा तो तैयार है?

भइया का कमरा तो भिनसारे ही सजा दिया था, मालकिनी। बिरजनिया ने खूब सफा झाड़ू-पोंछा किया है।

ड्रांइग रूम के बगल वाला कमरा शैलेन्द्र का हुआ करता था। ड्राइंगरूम में घुसते ही शैलेन्द्र की दृष्टि सामने दीवार पर लगे नरभक्षी बाध की खूंख्वार आँखों से जा टकराई। उस बाघ को देख वो लड़की कितना डर गई थी........... रोते हुए अपनी हथेलियों से आँखें ढांप ली थी। रामसिंह पकड़ कर अन्दर ला सका था।

दुग्ध-धवन शैया पर शैलेन्द्र को लिटाने के पूर्व मांजी ने हाथ से न होते हुए भी सलवटें हटाई थीं। बिस्तर पर लेटते ही क्लान्त भाव से शैलेन्द्र ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। उस रात दूसरे पलंग पर हरीश सोया था- जीवन की अंतिम रात उसने यहीं, इसी कमरे में काटी थी। शैलेन्द्र ने नयन मूंद लिए।

कुछ चाहिए, बेटा?

नहीं माँ, बस मुझे सोने दो। तुम पूजा-स्नान कर लो, माँ।

अगर कुछ चाहिए तो ये घंटी बजा देना भीखू और रामसिंह यहीं रहेंगे।

ठीक है। संक्षिप्त उत्तर दे शैलेन्द्र ने अपना हाथ माथे पर धर लिया था। एक वर्ष पूर्व की वह घटना फिर सजीव हो उठी थी।

बड़े चाचा का बेटा हरीश, शैलेन्द्र के भाई की अपेक्षा मित्र अधिक था। चाचा की मृत्यु के बाद शैलेन्द्र के घर ही वह बड़ा हुआ था। विदेशी मैगजीनों के उत्तेजक नारी चित्रों से शैलेन्द्र का परिचय कराने वाला हरीश ही था। शैलेन्द्र के शर्मीले स्वभाव की हरीश कितनी हॅंसी उड़ाया करता था।

यार शैलू, तूझे तो लड़की होना चाहिए था। अरे हम जमीदारों के खानदान में पुरूष जन्म लेते हैं।  तू कहाँ से आ गया?

यौवन की रंगरेलियों का आनन्द हरीश जी भर के उठाता था और शैलेन्द्र को उसका साथ देना पड़ता था। धीमे-धीमे उसकी हिचक भी छूट गई थी। वही हरीश दिल्ली से आने वाला था। राँची में ट्रेन की प्रतीक्षा में पाँच-सात घंटे व्यर्थ करने की जगह शैलेन्द्र कार ले हरीश को रिसीव करने पतरातू पहुंच गया था। पतरातू में ट्रेन रूकते ही शैलेन्द्र ने हरीश को आवाज दे चौंका दिया था।

अरे शैलू तू यहाँ? हरीश विस्मित था।

अभी राँची पहुंचने में तुझे कम से कम पाँच-सात घंटे लगते,  मुझे टाइम पास करना कठिन था। पापा की गाड़ी उड़ाकर लाया हूं। बस एक सूटकेस ही है न?

हरीश का सूटकेस शैलेन्द्र गाड़ी तक लाया था। कार का द्वार खोल सूटकेस पीछे वाली सीट पर डाल शैलेन्द्र ने हाथ फैला हरीश को गले से लिपटा लिया।

क्या बात है, कुछ दुबला दीख रहा है! कहीं किसी के प्रेम में तो नहीं फंस गया मेरा यार? हरीश ने परिहास किया।

तू आ गया है, मेरा तो चांस ही खत्म। सारी खूबसूरत लड़कियाँ तुझ पर ही मरती है। ये ले कार तू ड्राइव कर, मैं तो बस आराम से तेरी बातें सुनूँगा। शैलेन्द्र ने कार की चाभी हरीश की ओर बढ़ा दी।

ओ0के0 ऐज यू विश। वैसे मेरे जाने के बाद फ़ार्म-हाउस में कोई नया गुल तो नहीं खिलाया?

ना बाबा, वो तो तेरी ही हिम्मत पर मैं गलती कर जाता हूं,  वर्ना मैं बहुत शरीफ़ इन्सान हूं। बर्बाद हो गया हूं तेरे साथ...............।

अरे ज़िन्दगी के मज़े उड़ा ले, न जाने अगली ज़िन्दगी किस रूप में नसीब हो? हरीश ने सीटी पर कोई गीत गुनगुनाना शुरू कर दिया था।

संध्या की लालिमा से आकाश रंग गया था। छोटा नागपुर की पहाड़ियों से शाल और महुआ के वृक्षों का सौरभ बिखर रहा था।

यार, ये कमबख्त रांची है बड़ी खूबसूरत। दिल्ली में तो इमारतों की भीड़ बढ़ती जा रही है।।

लगता है कोई फंसी नही.........। शैलेन्द्र ने चुटकी ली थी।

अचानक हरीश को जैसे आगे कहीं कुछ दिख गया था। सामने दृष्टि गड़ाए हरीश ने शैलेन्द्र से कहा-

जो मैं देख रहा हूं,  तू भी देख पा रहा है, शैलू?

क्या  कोई खास चीज है। मुझे तो बस एक लड़की उधर सड़क के किनारे खड़ी दिख रही है।

लड़की देख रहा है और कह रहा है कोई खास चीज नहीं है?

अरे ऐसी लड़कियाँ तो तुझे यहाँ हर कदम पर मिल जाएँगी, यार.......।

इन आदिवासी लड़कियों में जो बात है वो और लड़कियों में क्यों नहीं मिलती, शैलू?

मैं तेरा जैसा अनुभवी कहाँ? इस मामले में तो तू ही एक्सपर्ट है। मेरे यार।

लड़की के पास पहुंच हरीश ने कार रोक दी। लाल पाड़ की धोती में आवृत्त तेरह-चैदह वर्षीया वह किशोरी, कार को सामने रूकते देख हड़बड़ा गई। हरीश ने कार में बैठे-बैठे पूछा था-

क्या शहर जाना है? लड़की ने हाँ में सिर हिलाया था।

हम भी शहर जा रहे हैं, तुझे पहुंचा देंगे। मोटर गाड़ी से जलदी पहुंच जाएगी। हरीश ने पीछे वाली सीट का द्वार हाथ पीछे कर खोल दिया।

ना......हम तो बस में जाएंगे......। लड़की घबरा रही थी।

तुझे पता नहीं आज सारी गाडियाँ बन्द है? रात भर खड़ी रहेगी फिर भी कोई बस या ट्रक नहीं मिलेगी। हम अच्छे आदमी हैं, डरने की कोई बात नहीं है, ठीक जगह पहुंच जाएगी। हरीश ने बड़े प्यार से उस लड़की को विश्वास दिलाया।

अविश्वास से लड़की ने एक बार दोनों को देखा था।

क्या सच्ची गाड़ियाँ बन्द है?

देखती नहीं एक भी गाड़ी आई है अब तक? जल्दी कर वर्ना हम भी चले जाएँगे, हमें देर हो रही हैं। हरीश ने धमकाया था।

एक पल की दुविधा के बाद डरते-डरते लड़की कार की पिछली सीट पर आ गई थी। उसके कपड़ो से कार गन्दी न हो जाए, अपने को बहुत समेट-सहेज कर बैठी थी। हरीश ने द्वार बन्द कर,  लॉक कर दिया।

क्या नाम है तेरा?

फुलवा...........।

बड़ा प्यारा नाम है, एकदम फूल सी प्यारी है फुलवा............ठीक कहा न, शैलू?

तेरी हर बात ठीक ही रहती है हरीश । शैलेन्द्र हल्के से मुस्करा दिया।

इस बेला शहर क्यों जा रही है, फुलवा?

चार दिन से माई बहुत बीमार है, दवा लानी है न...........।

घर में कोई और दवा लाने वाला नहीं है, फुलवा?

और कौन हैं साहिब? दो बरिस पहले बापू ने दूसरी औरत रख ली है। माँ शहर आकर दोना-पत्ता बेचकर हमारा पेट भरती है........चार दिन से एक पैसा नहीं मिला है.................। फुलवा का स्वर भर आया था।

तुम हमारा काम करोगी तो हम तुम्हें ढेर सारे पैसे देंगे........।

क्या काम करना होगा बाबूजी? हम झाड़ू पोंछा सब कर सकते हैं।  कितनी पगार देंगे? फुलवा का स्वर उत्साहित हो उठा ।

मनमानी पगार मिलेगी, पर हम जो कहें करना होगा?

आप जो कहेंगे सब करूँगी............।

हरीश ने कार की गति बढ़ा दी थी। लड़की जैसे डर गई थी।

हमको शहर जाना है, बाबूजी..............।

अरे शहर जाकर क्या करेगी फुलवा, हमारे साथ चल, राज करेगी।

हमका नहीं जाना है, हम माई पास जाएँगे........गाड़ी रोक दो..............।

हरीश ने गाड़ी फ़ार्म-हाउस पर ही लाकर रोकी थी। शहर से दूर, एकान्त में स्थित ये फ़ार्म-हाउस उनके पुरखों के पाप कर्मों का भी साक्षी रहा है। पापा जब भी फ़ार्म-हाउस में दो-तीन दिन बिताकर लौटते,  माँ का चेहरा कई दिनों तक मलिन रहा करता था।

गाड़ी रूकते ही हरीश ने तत्परता से उतर फुलवा की ओर का द्वार खोला था।

डरो नहीं, फुलवा थोड़ी देर यहाँ रूक कर हम तुझे शहर छोड़ देंगे।

नहीं, हम........... इहाँ नहीं रहेंगे। हमे छोड़ दें, बाबू साहिब। फुलवा का आतंकित स्वर भीग आया था।

रामसिंह ने आते ही दोनों को अदब से प्रणाम किया था। वस्तुस्थिति भाँपते ही फुलवा को बहलाया था।

अरे बिटिया बाहर आओ, तनिक खाना खाकर आराम कर लो। हम सब तुमको अच्छे से रक्खेंगे।

फुलवा का हाथ पकड़ रामसिंह जैसे ही ड्राइंगरूम तक पहुंचा, सामने लगे नरभक्षी बाघ को देख फुलवा चीख उटी थी.................

मइया रे बाघ.................। दोनों हाथों से मुंह ढाँप फुलवा रो पड़ी थी। हरीश और शैलेन्द्र जोरों से हॅंस पड़े थे।

अरी पगली ये सच्ची का बाघ थोड़ी है, इसके मुंह में हाथ भी डाल दें तो कुछ नहीं होता- ये देख .......। रामसिंह ने बांघ के मुंह में सीधा हाथ डाल दिया था तब जाकर फुलवा कमरे में आई थी।

भई रामसिंह अब कुछ खाने-पीने का इन्तजाम हो जाए, भूख लगी है। हरीश ने कंधे पर पड़ा कोट लापरवाही से सोफे की पीठ पर डाल दिया था।

डरी-सहमी अलग खड़ी फुलवा का हाथ पकड़ हरीश ने उसे अपने से सटा कर बैठा लिया था।

तंदूरी चिकन, काजू की प्लेटों के साथ व्हिसकी की बोतल, रामसिंह ने करीने से उनके सामने सजा दी थी।

ये हुई न बात, रामसिंह तुम आदमी काम के हो। देखो ये हमारी मेहमान फुलवा हैं, इनका खूब ध्यान रखना। शहर से दवा लाकर इसकी माँ को पहुँचानी है। आँख से इशारा कर हरीश ने सौ रूपये का नोट निकाल रामसिंह को थमा दिया था।

किरपा हुजूर की अभी दवा पहुंचा आता हुँ। सिर झुका रामसिंह बाहर चला गया था।

नशे की बढ़ती मात्रा के साथ हरीश फुलवा को लाल आंखों से निगलता जा रहा था। उन भूखी आँखों से बेखबर फुलवा खाने पर टूट पड़ी थी। अपने शरीर पर बढ़ते दबाव को जब तक वह समझ पाती, हरीश ने उसे पूरी तरह अपने पंजे में जकड़ लिया था। मछली-सी छटपटाती फुलवा की सहायता के लिए कोई नहीं था। उसका चीत्कार फ़ार्म-हाउस की दीवारों को भेद कर बाहर नहीं जा सका था। शैलेन्द्र भी तो उस कुकर्म में उसका साथ बना था। अचानक शैलेन्द्र की झुरझुरी सी आ गई।

क्या हुआ, शैलू? क्या जाड़ा लग रहा है? माँ के स्वर पर शैलेन्द्र चैंक गया था।

कुछ नहीं माँ...........।

पुत्र के माथे पर आए पसीने को पोंछ माँ घबरा गई थीं।

इतनी ठंडक में पसीना..... तबियत तो ठीक है, शैलू? कोई खराब सपना देखा है, बेटे?

शायद ..........।

दूध मंगा दूँ?

अभी इच्छा नहीं है, बस सोना चाहता हूं। बत्ती बुझा दो माँ।

अंधेरा होते ही सब कुछ कितना स्पष्ट दिखाई दे रहा था-

फुलवा के रक्त से सने निश्चेष्ट शरीर पर परितृप्त दृष्टि डाल, हरीश ने रामसिंह को आवाज दी थी-

रामसिंह इसे ऊपर वाले कमरे मे पहुँचा दो, देखो अभी ये हमारा माल है। दो-चार दिनों में हम फिर वापिस आते हैं, समझ गये न?

भरोसा रखें मालिक, आज तक कभी शिकायत का मौका दिया है सेवक ने? रामसिंह ने खीसें निपोर दी थीं।

फुलवा के निश्चेष्ट शरीर को उठाता रामसिंह बोला था-

थोड़ी जियादती कर गए, हुजूर। बच्ची है न।

जेब से दो सौ-सौ के नोट निकाल हरीश ने समझाया था-

दो दिन तर माल खिला देना, ठीक हो जाएगी। ये लड़कियाँ बड़े जीवट की होती हैं।

सच कहिन हुजूर.......... रामसिंह चला गया था।

यार हरीश कहीं लौंडिया मर-मरा गई तो? शैलेन्द्र रामसिंह की बात से डर सा गया था।

मर गई तो तर गई.........अरे इतने बड़े फ़ार्म हाउस के किसी कोने में सुला देंगे,   भाग्य सराहेगी अपना, कीमती ज़मीन है यहाँ की.......। हरीश ठठा कर हॅंस पड़ा था।

अगर किसी को पता लग गया तो? शैलेन्द्र डर गया था।

यार शैलू ,तू सचमुच डरपोक है। अरे जहाँ उसे सुलाएँगे वहाँ एक अशोक का पौधा रोप देंगे।

अशोक का पौधा-इसके विषय में कुछ पढ़ा था लिटरेचर क्लास में-तुझे याद है, हरीश? शैलेन्द्र को कुछ याद आ रहा था।

यही न कि सुन्दरियों के पदाघात से ये पुष्पित होता है। जरा सोच शैलू जिस अशोक-वृक्ष के नीचे स्वयं सुन्दरी सोये,  उसकी डालियाँ तो फूलों का भार वहन नहीं कर सकेंगी- ठीक कहा न?

दोनों हॅंस पड़े थे।

सूरज निकलने के पहले रामसिंह ने उनकी नींद में खलल डालने की जुर्रत की थी-

साहिब उठें.............गजब होइगवा...........ऊ छोकरी...............

क्या हुआ छोकरी को? अब तक तो तरो-ताजा हो गई होगी, यहाँ ले आ। सर्दी लग रही है..... आँखें मूं-मूंदे ही हरीश ने कहा था।

साहिब ऊ छोकरी.....वो तो खलास हो गई...........।

क्या भाग गई, कमरे में ताला नहीं लगाया था क्या? शैलेन्द्र उठ गया था।

भला रामसिंह ऐसी गलती कर सके है, सरकार। उस कमरे से छोकरी क्या परिंदे भी नहीं उड़ सकते थे, पर वो ऐसी बेढब निकलेगी, सोचा भी नहीं था............। राम सिंह डर सा गया। 
पूरी बात जल्दी बताओ, रामसिंह-क्या हुआ?

सरकार छोकरी बाथरूम की खिड़की से कूद गई..... बाहर उसकी लाश पड़ी है। चार मंजिल ऊपर से कूदने की हिम्मत करेगी-ये तो सोचा भी नहीं था हुजूर...........।

क्या...........आ.........? शैलेन्द्र उछल कर बैठ गया था सर्दी में भी पसीना आ गया था। हरीश ने तत्परता दिखाई थी। कोट की पाकेट से नोटों की गड्डी निकाल रामसिंह को थमाते कहा था-

रामसिंह किसी को पता लगे उसके पहले फ़ार्म के कोने में लाश दफना दो। उस जगह कोई पौधा रोप देना। हाँ लाश गहरी गाड़ना..........हम तुरन्त जा रहे हैं। बाकी सम्हाल लोगे न?

बरसों आपका नमक खाया है हुजूर, पत्ती भी नहीं खड़केगी। बस आप यहाँ से तुरन्त निकल जाएँ, सरकार................।

लगभग भागकर दोनों कार में जा बैठे थे। भोर की हल्की उजास में शैलेन्द्र ने उस ओर दृष्टि डाली थीं, जहाँ फुलवा का निस्पंद शरीर ठंडक में उघड़ा पड़ा था। भय से शैलेन्द्र का पूरा शरीर सिहर उठा था। एक्सलेरटर दबा शैलेन्द्र ने कार दौड़ा दी थी। रूमाल से मुंह पोंछते हरीश ने कहा था-

वो देहाती छोकरी इतनी खतरनाक सिद्ध होगी, सोचा भी नहीं था.......।

कहीं उसके घर वालों को पता लग गया तो? शैलेन्द्र के स्वर में घबराहट थी।

पता कैसे लगेगा? उस सड़क पर तो दूर तक आदमी का नामोनिशां नहीं था। किसने देखा होगा? हाँ ये रामसिंह कहीं गड़बड़ तो नहीं करेगा?

उम्मीद तो नहीं, वर्षों से हमारी सेवा में है।। शैलेन्द्र बहुत आश्वस्त नहीं था।

अगले महीने की दस तारीख,  तेरी शादी की डेट तय हुई है न ,शैलू? हरीश बात टालना चाहता था।

अम्मा के पण्डितजी ने तो वही तारीख तय की है, ...सोच रहा हूं वो लड़की बहुत गरीब थी......माँ बीमार हैं, कहीं वो भी न मर गई हो .......... शैलेन्द्र के स्वर में पश्चाताप झलक आया था।

ओह शैलेन्द्र, भगवान के लिए व्यर्थ की बकवास मत कर, मैं पहले ही टेन्शन में हूं। अरे ये पीछे से क्या पुलिस की जीप आ रही है?

सामने लगे शीशे से पीछे आती गाड़ी को देख, शैलेन्द्र ने कार की गति और तेज कर दी थी। हरीश कार की गति से घबरा गया था-

रिलैक्स यार......ये क्या कर रहा है। इससे तो शक बढे़गा............

तेजी से दाहिनी ओर कार मोड़ते ही सामने से चले आ रहे भीमकाय ट्रक से गाड़ी जा टकराई थी। उसके बाद शैलेन्द्र संज्ञा खो बैठा था। होश आने पर जिस सत्य का सामना करना पड़ा,  वो कल्पनातीत था। हरीश की दुर्घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई। वह तो मुक्ति पा गया, पर शैलेन्द्र के कमर के नीचे का हिस्सा इस बुरी तरह कुचल गया कि दोनों पाँव घुटनों के काफी ऊपर से काटने पड़े थे। अभी कृत्रिम पाँव लगाने लायक शक्ति उसकी जाँघों में नहीं आ सकी है। काश हरीश के साथ वह भी खत्म हो सकता..............।

अनजाने ही शैलेन्द्र कराह उठा था। उसे आँखें खोलते देख रामसिंह ने पूछा-

कैसा जी है, भइया? सिर दुखता है क्या? शायद शैलेन्द्र को सिर पर हाथ बाँधे देख रामसिंह ने अनुमान लगाया था।

एक कप चाय मिलेगी, रामसिंह? क्लान्त स्वर में शैलेन्द्र ने कहा।

अभी लें सरकार, पाँच मिनट में हाजिर हुआ।

शैलेन्द्र का स्वर सुन माँ भी कमरे में आ गई थीं।

कितनी सुहानी सुबह है, शैलू। तू तैयार हो जाये तो एक चक्कर फ़ार्म का लगा आएँ। रात में नींद तो ठीक आई न?

हाँ माँ, थके स्वर में शैलेन्द्र ने उत्तर दिया था।

भीखू की सहायता से शैलेन्द्र व्हील चेयर में बैठ सका था। लान में टेबिल पर चाय सजाए रामसिंह प्रतीक्षा कर रहा था।

रामसिंह अभी बाजार से मछली लेते आना ताजी मिलेगी। शैलू को पसंद हैं। ये चिट्ठी डाल देना, साहब परेशान होंगे।

रामसिंह के जाने के बाद माँ ने भीखू को निर्देश दिए थे-

भइया को पूरा फ़ार्म दिखाना है। पहले फलों वाले हिस्से को देखना है, देखें इस बार फ़सल कैसी हो रही है।

जी मालकिनी, देखकर खुश हो जाएँगी। व्हील-चेयर चलाता भीखू जानकारी देता जा रहा था-

इस बार लीची की फसल बहुत अच्छी रहेगी, मालकिनी। पिछली बार हमारे फ़ार्म के पपीतों ने मार्केट में धूम मचा दी थी।

फलों से लदे वृक्षों के समाप्त होने पर फार्म के उस निर्जन कोने पर हरसिंगार के छोटे से पेड़ ने धरती पर लाल सफ़ेद चादर सी बिछा रखी थी। हवा के साथ हरसिंगार की मादक सुगन्ध बह कर उन तक पहुंची थी।

अरे वाह भीखू, इस कोने में हरसिंगार लगा कर तुमने फ़ार्म की शोभा बढ़ा दी है। कितने सुन्दर फूल हैं। देखो रोज सुबह फूल चुनकर भइया के कमरे में रख दिया करो। कमरा सुगन्धित हो जाएगा। ठीक कहा न शैलू?

माँजी इसमें हमारी कौनू बड़ाई नहीं है। रामसिंह बताइन रहीं, ये गाछ तो भइया जी शहर से लाये रहे, मुला रामसिंह लगाए रहें।

शैलू, तुम लाये थे ये पौधा? हमें पता भी नहीं हमारे बेटे को बागवानी का इतना शौक है। परिहास करती माँ ने पुत्र पर जैसे ही दृष्टि डाली, उसके सफ़ेद पड़े मुख को देख, वे घबरा गई थीं। कैसी फटी-फटी दृष्टि से वह उस पेड़ को ताक रहा था।

क्या हुआ, शैलू? भीखू, भइया को जल्दी कमरे में ले चलो................।

कमरे में पहुंच शैलेन्द्र पलंग पर निढाल पड़ गया था। वो वृक्ष किस सुन्दरी का स्पर्श पाकर इतना उल्लसित है, समझना शेष नहीं रह गया था। जिसके आँचल को हरीश ने बेरहमी से उघाड़ फेंका था, उस पर प्रकृति ने हरसिंगारी आंचल बिछा दिया था। ।क्या उस आंचल तले वो लड़की शांत निरद्वंद सो रही होगी? काश माँ की बात न मान, वह यहाँ न आता, पर अब ज़िद करने की शक्ति ही चुक गई लगती है। कहाँ गया उसका पुरूषत्व का दम्भ, जिसने पाप कर्मों की ओर ढ़केल दिया था। आज धरती पर बोझ बने नपुंसक,  अपंग के रूप में, अपना शव वह स्वयं ढो रहा है। बंद कोरों से एक आँसू ढ़लक आया था।

माँ की ज़िद पर जबरन एक कप दूध पीना ही पड़ा था। पुत्र को सामान्य होते देख माँ ने आश्वस्ति की श्वास ली थी। प्यार से बेटे का माथा सहलाती माँ, धीमे स्वर में हनुमान चालीसा का पाठ कर रही थीं।

माँजी ये लीजिए हम ई फूल बटोर लाए। इनको कहाँ रख दें? शैलेन्द्र के पलंग के निकट अंजुरी में हरसिंगार लिए भीखू खड़ा था।

यहाँ भइया के पास टेबिल पर धर दो, भीखू।

कुछ फूल हाथ में उठा माँजी ने शैलेन्द्र की ओर बढ़ाए थे-

देख तो शैलू प्रकृति में रंगों का कितना सुन्दर समायोजन है लाल और सफेद कितना मनभावन है न?

शैलेन्द्र के नयनों के समक्ष लाल पाड़ की सफेद साड़ी अचानक बिजली सी कौंध गई थी। माँ के हाथों को पकड़ शैलेन्द्र चिल्ला उठा था-

फेंक दो-फेंक दो इन्हें.....खून टपक रहा है, माँ ये चादर.... खून से रंग जायेगी- हटाओ-हटाओ।

शैलेन्द्र के विस्फरित नयनों में छाए आतंक को देख माँ घबरा उठी थीं-

रामदीन-भीखू,  जल्दी डाक्टर को बुलाओ-भइया को न जाने क्या हो गया है-

शैलू-बेटा शैलू.... बदहवास माँजी शैलू को झकझोरती रो पड़ी थीं।

1 comment:

  1. मार्मिक कहानी ... प्रकृति ऐसे कुकर्मों की खुद ही सजा देती है ...पाप पुण्य सबका फल मिलता है ...

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