12/16/09

अपरिचय एक सेतु-बंध

कई बार पढ़ चुकने के बाद भी रजत का खत छोड़ पाना मुश्किल लग रहा था। इस उम्र में भी पत्र की पंक्तियां ऐसी आकुलता जगा सकती हैं, विश्वास कर पाना कठिन भले ही लगे, पर सच वही था। एक बार फिर पूरे खत को दोहराती पूर्णिमा के अधर मुस्कान में फैल गए। रजत की पंक्तियां अन्दर तक गुदगुदा गई थीं।


     "आज सुबह न जाने किस भाग्यवान का मुंह देखकर जागा, जो चाहा, वो मिलता गया। डाकिए ने जैसे ही चिठ्ठियां पकड़ाई, मेरे मन ने चाहा उसमें आपका खत हो और जानती हैं, पहला खत आपका ही था। काश आपके खत की जगह, आपको ही मांग लेता ...........। नाराज़ बरदस्ती क्या करूं, ये मन बड़ी खराब चीज है। इस पर लाख अंकुश लगाओ ...... मानता ही नहीं। अब तो एक ही आकांक्षा है, कैसे आप तक पहुंच सकूं। फिर देखिएगा कैसे आपका पूरा समय मेरा हो जाएगा। ढेर सारी बातों के लिए ढेर सा समय भी तो चाहिए। अपना समय मुझे देंगी न ?"
                                                                                                                                     रजत

रजत का पहला खत कब आया, याद नहीं पड़ता। उसकी किसी कहानी को पढ़कर उसने लम्बा सा खत लिखा था। आदत के अनुरूप पूर्णिमा ने जवाब लिख भेजा था। तब से ये सिलसिला आज तक चला आ रहा है। उसकी हर कहानी पर रजत का पत्र आना ज़रूरी हो गया था। उसकी कहानियों के पात्रों के अन्तर में पैठ, रजत उनकी ऐसी समीक्षा कर भेजता कि पूर्णिमा  चौंक उठती। कभी यही लगता शायद उसके पात्र रजत ने ही गढ़े हैं, उन्हें वह इतना कहां जानती थी ? एक बार रजत ने लिखा था आप अपने पात्रों के प्रति बेहद संवेदनशील हैं, बहुत सहानुभूति रखती हैं उनके साथ। जिनसे नफ़रत की जानी चाहिए, उन्हें भी सहानुभूति दे जाती हैं ? क्या वास्तविक जीवन में भी ऐसी ही हैं आप ? बहुत जी चाहता है आपसे मिलूं, देखूं कैसे कोई सबको बस प्यार ही बांट सकता है।

रजत के ऐसे पत्रों की पूर्णिमा को प्रतीक्षा रहने लगी थी। एक भरे- पूरे घर की स्वामिनी पूर्णिमा के जीवन में कहीं कोई कमी हो सकती है, सोचना भी गलत था। एक मेधावी पुत्र और एक प्रतिभाशाली बेटी की मां बन, उसका मातृत्व सार्थक था। दोनों बच्चे उसकी लेखनी को सराहते नहीं थकते, अपनी व्यस्तता के कारण पति ने उसकी रचनाओं को पढा-समझा भले ही न हो, पर उसके लेखन में कभी बाधा नहीं डाली थी। पहली बार पत्रिका में छपी कहानी दिखाने, वह भागती हुई उनके पास गई थी।

देखो मेरी कहानी ...........। वाक्य पूरा करने के पहले ही उसने पत्रिका का खुला पृष्ठ उन्हें थमाया था।

वाह ! वेरी गुड। कीप इट अप ! एक मिनट पत्रिका उलट-पुलट, बच्चों की तरह उसे दिलासा दे, उन्होंने पत्रिका वापिस थमा दी थी।

जानते हो, इस पत्रिका में छपना कितने गौरव की बात है, मुझे तो विश्वास ही नहीं था, कभी मैं इसमें छप सकूंगी। पूर्णिमा का उत्साह तब भी छलक पड़ रहा था।

अरे भई ! आखिर पत्नी किसकी हो सारा श्रेय अपने नाम कर, उन्होंने मुक्ति पा ली थी। बुझे मन के साथ पूर्णिमा लौट आई थी। कहानी छपने के एक सप्ताह बाद से उसकी फ़ैन- मेल आने लगी थी। दोनों बच्चे खिल उठते।

मम्मी तुम्हारी फैन-मेल ! प्रशान्त उन चिठ्ठियों को उत्साहित खोलता जाता था। भाई के साथ मम्मी के प्रशंसकों की चिठ्ठियां पढ़ने  को कनिका भी आतुर रहती। शुरू-शुरू में पति ने भी प्रसन्नता जताई थी ?
लो बच्चो, अब तो तुम्हारी मम्मी बड़ी भारी राइटर हो गई हैं। नोबेल पुरस्कार ले आएंगी। बाद में वो सब रूटीन सा बन गया था। जब कोई कहानी छपती पाठकों के कई पत्र आ जाते, पर उन पत्रों में रजत के पत्रों ने अपनी विशिष्ट पहिचान बना ली थी। हल्के नीले रंग के लिफाफे पर लाल स्याही से उसका नाम सिर्फ रजत ही लिखा रहता था।

पूर्णिमा का पहला कहानी-संग्रह प्रकाशित होना उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि थी। न जाने कब आएगी उसकी पुस्तक। अचानक एक दिन अपने नाम आए पार्सल को खोलती वह चौंक गई थी।

पहला कहानी-संकलन मुबारक हो। आपके प्रकाशक से कह रखा था जब भी पुस्तक तैयार हो, उसकी पांच प्रतियां दुगने मूल्य पर मुझे भेज दें। मेरी इस घृष्टता के लिए माफ़ करेंगी न ? दरअसल आपका संकलन आपको ही भेज चौंकाना चाहता था - चौंक गई न ? लीजिए गलती के लिए दोनों कान पकड़ माफी मांगता हूँ अब तो हंस दीजिए .............

सचमुच पूर्णिमा हंस पड़ी थी। कोई उसके लिए इतना सोचता है, ये अहसास उसे पुलकित कर गया था। आज भी उसने कुछ वैसा ही लिखा है। उसके खत की रजत ने कामना की थी। पूर्णिमा सोच में पड़ गई थी - कामना सभी करते हैं, पर कितनों की चाहत पूरी होती है, शायद इसीलिए कभी कोई छोटी सी बात भी पूरी हो जाए तो हम कितने खुश हो जाते हैं। रजत का पत्र अलमारी में रख, पूर्णिमा उठ खड़ी हुई । कनिका स्कूल से आ रही होगी, सुबह स्कूल जाते समय ही फ़र्माइश कर गई थी कि आज शाम उसे फ़िश-कटलेट चाहिए। प्रशान्त अब दसवीं का विद्यार्थी है, वह अब फ़र्माइशें नहीं करता, पर पूर्णिमा उसकी पसंद-नापसंद से अच्छी तरह परिचित है। घर-गृहस्थी के साथ स्कूल की नौकरी के दायित्व अच्छी तरह निभाती पूर्णिमा की लेखिका, अन्दर से कई बार उद्वेलित होती रही है। कितनी बार कहानी की क्लाइमेक्स, अन्त या शीर्षक से वह असंतुष्ट हो उठती। कभी-कभी उसने बच्चों की भी मदद ली, पर पति से उन बातों के लिए सहायता पा सकना, दुराशा मात्र थी। पति से उसे कोई शिकायत नहीं, पर ऐसे कामों मे उनका सहयोग नहीं मिल पाता था। जब से रजत के साथ पत्र-व्यवहार शुरू हुआ, पूर्णिमा की समस्या का आसानी से समाधान हो जाता। जब-तब उसकी राय मांग, पूर्णिमा अपनी समस्या सुलझा लेती।

उसकी किसी कहानी पर जब कुछेक पाठकों की कटु आलोचना छपी तो पूर्णिमा उदास हो उठी थी। पति को वे प्रतिक्रियाएं दिखाने का साहस भी नहीं कर सकी थी, तभी रजत का खत आया था।

........... इन प्रतिक्रियाओं पर मत जाइएगा, इन्सान सब एक से तो नहीं होते, सबकी पसंद-नापसंद अलग-अलग होती है। हमेशा याद रखें, आपके पास हम जैसे प्रशंसक हैं, जो आपकी कहानी का एक-एक शब्द, घूंट-घूंट इस तरह पीते हैं ताकि वो जल्दी खत्म न हो जाए। अब समझ गयीं न कि आपका लिखना कितना जरूरी है। कभी हिम्मत न हारिएगा, बस लिखती रहें।

उस निराशा में रजत का वो पत्र मिलना बहुत अच्छा लगा था। अन्धेरे में ढेर सी रोशनी बिखर गई थी। उसी रात उत्साह में उसने एक नई कहानी लिख डाली थी।

पिछले कुछ दिनों से रजत के खतों में पूर्णिमा से मिलने की उत्कट आकांक्षा स्पष्ट दिखाई दे रही थी। दोनों के पत्र-व्यवहार में उनके व्यक्तिगत जीवन के विषय में कभी एक पंक्ति भी नहीं होती। रजत ने भले ही साफ़ शब्दों में उसके व्यक्तिगत जीवन के विषय में कुछ नहीं पूछा, पर उसके विषय में जानने की आकांक्षा जरूर रहती। कभी लिखता -

अपने खुद को कभी अकेला पाया है आपने ? शायद ये सौभाग्य मेरा ही है, आपको चाहने वालों की भला कमी होगी?

इस वक्त भी पूर्णिमा स्पष्ट नहीं समझ पाती, उसने रजत को कभी साफ़-साफ़ क्यों नहीं लिखा कि वह केवल एक पत्नी ही नही, दो बड़े हो रहे बच्चों की मां भी है। कभी-कभी तो अपना परिचय देने से वह खुद को साफ बचा गई। क्यों ? शायद इसीलिए कि रजत की कल्पना में बसी रोमानी कहानियों की नायिका पूर्णिमा की मनोहारी छवि, उसके मातृत्व की सच्चाई से बिगड़ न जाए। रजत ने जब उसके चित्र की फर्माइश की तो उसने अपना पुराना युवा चित्र भेजा था। हमेशा उसे डर लगा रहता कहीं रजत अचानक उसे मिला तो क्या होगा? शायद अपने-अपने सच से वे दोनों ही डरते थे, कहीं उनका सच किसी विस्फोट का कारण न बन जाए। पूर्णिमा ने तो रजत से उसका चित्र भी नहीं मांगा था। कल्पना के रजत से अगर वास्तविक रजत का साम्य न बैठा तो ?

रजत के पत्रों की भाषा अधीर-उत्साही युवक की हुआ करती। अब पत्रों में पूर्णिमा उसकी आराध्या का रूप लेती जा रही थी। पहले रजत के पत्र उसके घर के पते पर आया करते। पूर्णिमा उत्साह से वो पत्र सबको पढ़कर सुनाती। बाद में पत्रों पर उसके स्कूल का पता लिखा आने लगा था। दो-तीन बार पढ़कर अक्सर पूर्णिमा उन पत्रों को अपनी ड्राअर में रखकर, घर ले जाना भूल जाती। उसका ये 'भूलना' उसकी आदत मे शामिल नहीं था,पर पूर्णिमा ने उसे हमेशा अपनी भूलने की आदत स्वीकारा था।

दो महीने पहले रजत ने लिखा था, वह किसी कान्फ्रेंस में उसके शहर पहुँच रहा है। कान्फ्रेंस तो वहां जाने का बहाना भर थी, उसे तो पूर्णिमा से मिलना था। उस खत को पढ़कर पूर्णिमा घबरा गई थी। उसे देखकर रजत क्या सोचेगा ? वह तो उसकी कल्पना की पूर्णिमा की पांव की धोवन भी नहीं। ये तो उसका सौभाग्य ही था कि पति ने कभी उसके मामूली नाक-नक्श और गहरे सांवले रंग पर ताने नहीं दिए, वर्ना शादी के पहले अम्मा उसका सांवला रंग देख अपने दुर्भाग्य को कोसती रहतीं।

उतने गहरे रंग पर पूर्णिमा नाम का विरोधाभास, बचपन से उसकी खिल्ली उड़ाता आया है। बचपन में साथ खेलने वालों का उपहास झेलती पूर्णिमा ने कालेज में भी कितनों के व्यंग्य- वाण झेले थे। शायद उसी अपमान का आक्रोश उसकी कहानियों को धारदार बना जाता था। उसकी मर्मस्पर्शी कहानियों में लड़की की वेदना साकार होती। विवाह के बाद पूर्णिमा ने अपने रंग की कुंठा से मुक्ति पा, चैन की सांस ली थी, पर अब रजत फिर उसकी कुंठा जगा रहा था। ताज्जुब इसी बात का होता, क्या कभी किसी की इतनी चाहत हीन भावना जगा सकती है ? कान्फ्रेंस में रजत के न आ पाने पर पूर्णिमा कितनी खुश हुई थी।

रजत के बारे में पूर्णिमा ने कई बार सोचा। उसकी कल्पना में रजत जीवन से भरपूर, स्वस्थ-आनंदी युवक का प्रतिरूप था। क्या वह रजत को लेकर अपने अधूरे सपने पूरे नहीं कर रही थी ? कोई उसे चाहने की हद तक चाहे का अरमान लिए वह कोरी ही रह गई। रजत के पत्रों ने उसकी गागर को लबालब भर दिया था। कोई उसकी वैसी कामना कर सकता है, अब और चाहने को शेष क्या था ?

सच्चाई की जगह सपनों के इन्द्रजाल हमेशा मोहक होते हैं, हो सकता है रजत में वो सब कुछ हो, जिसकी कामना की जा सकती है, पर अगर वह वैसा नहीं हुआ या पूर्णिमा को देख अगर उसके चेहरे पर निराशा आ गई, तो क्या वह उस आघात को झेल सकेगी ? बचपन से युवा-अवस्था तक न जाने कितने आघात झेल चुकी है, अब और नहीं ...... अपने बचपने पर पूर्णिमा को नाराज़गी हो आई, वह क्यों रजत की पसंद बनी रहना चाहती है ? उसे अपने मोहजाल से क्यों नहीं मुक्त होने देना चाहती .... शायद सब कुछ पाकर भी उसके अन्तर में वही नन्हीं पूर्णिमा कैद है, जिसे घर में सब काली नाम से ही जानते थे। अपनी नायिकाओं की तरह वह सुन्दर न सही, संवेदनशील तो जरूर है। रजत के सपने तोड़ने का उसे क्या अधिकार है, क्या रजत उसकी कहानी का पात्र नहीं ? रजत ही तो कहता है, वह अपने पात्रों के प्रति बेहद सहानुभूति रखती हैं, फिर ? बहुत देर सोचने के बाद पूर्णिमा ने रजत को चंद पंक्तियां लिखी थीं।

........ पत्र मिला। मानसिक रूप में हम दोनों एक दूसरे के पूरक बन सके, यह हमारा सौभाग्य रहा। एक-दूसरे को बहुत जाना-समझा, फिर भी और जानने की चाहत बनी ही रही। अपरिचय का ये औत्सुक्य ही हमारी मित्रता का सेतु-बंध है, रजत। एक-दूसरे के प्रति ये औत्सुक्य हमें सदैव बांधे रहेगा। मैं टूट कर अलग नहीं होना चाहती। अपनी कहानी की नायिकाओं सी साहसी नहीं, बहुत डरपोक हूँ मैं। व्यक्तिगत जीवन में हम कभी नहीं मिलेंगे, पर बहुत दूर रहकर भी हम बहुत पास हैं, रजत। मेरी बात समझ सको यही कामना है।

लक्खी



प्रायश्चित करने का उसका अनोखा ही ढंग था। कभी घर के कोने बाथरूम या किसी गुप्त स्थान में वह छिप जाती, कभी जिस बात के लिए उसे डांटा जाता, उसे बिना खाए-पिए पूरा करके ही दम लेती। उसकी इन बातों का मनोरमा उसका प्रायश्चित मानती जबकि सास की दृष्टि में वह छोटी लड़की निहायत बद- दिमाग और बदतमीज थी। पड़ोस में काम करने वाली दाई रामावती से बार-बार कहने पर वह अपने गांव से दूर के रिश्ते की भतीजी को ले आई थी। लक्ष्मी की जगह उसे लक्खी पुकारना ज्यादा आसान था, इसलिए उसका नाम लक्खी ही हो गया।

उम्र शायद दस-ग्यारह के बीच की रही होगी। धूल और मैल ने उजला रंग, धूमिल कर दिया था। देख-रेख के अभाव में सुनहरे बालों की लटें बन गई थीं। अपने से बहुत बड़ी साइज की फ्राक में वह छिप सी गई थी। लाल-काली धारियों वाली सूती शाल में अपने को भरसक लपेटे वह शीत में सिकुड़ी जा रही थी। शक्ल और रंग-ढंग देखते ही मनोरमा के मन में खीज उपजी थी -

”इस लड़की से क्या काम बनेगा? कपड़े पहिनने की तो तमीज नहीं, काम क्या खाक करेगी?“

बेटी की फ्राक और उसका पुराना पूरी बांहों का स्वेटर थमाती मनोरमा ने उसे हाथ-मुंह धोने बाहर वाले नल पर जाने को कहा था।

शाल के भीतर, पेट से चिपकाई पोटली, निःशब्द मनोरमा की ओर बढ़ा दी थी। उस गंदी पोटली को देख मनोरमा को वितृष्णा हो आई थी -

”इसका मैं क्या करूं?“

”नानी ने देने को कहा था -“

”किसे देना है?“

”आपको -“

”मुझे ! क्या है इसमें, दिखा तो मनोरमा उत्सुक हो उठी थी?“

बड़ी तत्परता से पोटली खोल, प्रतिक्रिया के लिए मनोरमा की ओर मुँह उठा लक्खी ने देखा था।

पोटली में लाल-सफेद, डेढ़-दो किलो शकरकंदियाँ थीं।

”वाह ! ये तो बड़ी अच्छी शकरकंदी है, तेरे खेत की हैं -?“

”हां - नानी ने लगाई थी।“ उसका चेहरा गर्व से दप-दप कर उठा था।

”घर में कौन-कौन हैं लक्खी?“

”नानी-नाना और हम, बस।“

”तेरे मां-बाप कहां हैं ,लक्खी ?“

”नहीं हैं।“ लक्खी उदास थी।

”क्या, तेरे मां-बाप नहीं हैं?“

”नहीं ......। बाबू ने दारू पीकर मां को मार डाला, पुलिस बाबू को थाने ले गई।"

मनोरमा स्तब्ध रह गई। रामावती ने किस जन्म का बदला लिया, खूनी-हत्यारे बाप की बेटी उनके सिर मढ़ दी। उस समय पति ने ही समझाया था -

”बाप के अपराध में इस बच्ची का क्या दोष? शहर में वो बात कोई नहीं जानता इसीलिए नाना-नानी ने दिल पर पत्थर रखकर भेजा होगा। उमर ही क्या है बेचारी की? पुअर चाइल्ड, हैव पिटी ऑन हर।"

नहा-धोकर प्रियंका की फ्राक स्वेटर पहिने लक्खी पहिचान में नहीं आ रही थी। प्रियंका पर यह फ्राक कैसी बदरंग, पुरानी सी लगती थी, पर वही फ्राक लक्खी पर कैसी खिल आई थी। एक क्षण को मनोरमा के मन में उसके रूप के प्रति ईर्षा हो आई थी - काश प्रियंका उसके जैसा उजला रंग पाती।

”चल अब घर झाड़-पोंछ डाल। झाडू लगाना जानती है?“

”हां - पहले जहां काम करती थी, वहां सब काम करती थी।“

”किसके यहां काम करती थी?“ इत्ती सी छोकरी और दस घर काम भी करती थी।“

”सच्ची, मां जी। सिपाही जी बाबू को पकड़ कर ले जा रहे थे, हम पीछे-पीछे रोते जा रहे थे तो हमें दरोगा जी ने अपने घर काम को रख लिया था, कहा था - हम अच्छा काम करेगें तो वो बापू को छोड़ देगे।“

”दरोगा जी के यहां पैसा मिलता था?“

”नहीं - वो दरोगा थे न। वहां तो सब हमें मारते भी थे -“

”क्यों “

”दरोगा जी को जब गुस्सा आता बीबी जी को मारते। वो हमें मारतीं - कभी खाना भी नहीं देती थीं - बहुत भूख लगती थी-बात कहती लक्खी उदास हो गई।“

”वहां क्यों रहती थी?“

”नहीं रहती तो बाबू को मार जो देते?“

”अब तेरा बाबू कहां है लक्खी?“

”उन्होंने बाबू को फांसी दे दी। नाना-नानी को भी धोखा दिया-“ उसकी आंखें भर आई थीं।

”जाने दे उसने तेरी मां को मारा था न, खराब काम के लिए सजा मिलती ही है न ? फिर तू दरोगा के घर से कैसे आई लक्खी ?“ उस छोटी लड़की के लिए मनोरमा के मन में ममता उमड़ आई थी।

”नानी ने सरपंच जी से विनती की। उनके सामने बहुत रोई, हाथ जोड़े तब जाके वो वापिस लाए थे, मां जी।“

”नानी के पास से आते अच्छा नहीं लगा होगा ,लक्खी?“

”नानी ने कहा, आपके पास रहना अच्छा है। गांव में तो भर पेट खाना भी नहीं मिलता न? हम आपका काम अच्छा करेगें तो आप हमें भरपेट खाना देगीं न, मां जी?“

”हां-हां तु अच्छा काम करेगी तो भरपेट खाना भी मिलेगा और तुझे कोई डांटे-मादेगा भी नहीं।“

”तो हम खूब अच्छा काम करेगें, मां जी।“ उत्साह और खुशी से उसका चेहरा जगमगा उठा था।

पूरे घर की झाडू-बुहारी कर लक्खी ने कपड़े धो डाले थे। छोट-छोटे हाथों से जिस सुघड़ता से उसने कपड़े फैलाए कि मनोरमा का मन खुश हो गया। लड़की छोटी भले ही थी, पर काम की ट्रेनिंग अच्छी मिली है।

ऊपर-नीचे के घर में जहां पूरा परिवार ऊपर की मंजिल पर सोता, लक्खी के लिए नीचे की कोठरी में रहने-सोने की जगी दी गई थी। अकेली बच्ची को डर भी लग सकता है, इस बात को सोचा भी नहीं गया। वह घर की नौकरानी थी और इसीलिए नौकर वाली कोठरी में रहना उसकी नियति थी। दूसरी सुबह लक्खी के सुस्त चेहरे और लाल आंखें देख मनोरमा ने पूछा था -

 ”क्या हुआ? तेरी तबियत तो ठीक है?“

”जी - ई - वो - रात में -“

”मनोरमा शंकित हो उठी थी।“

”ऊपर से भूत की आवाज आ रही थी, मां जी। कभी वो पंलग खींचता, कभी धम-धम चलता, हमें रात में बहुत डर लग रहा था, मां जी।“

”अरी पगली, हम लोग ऊपर रहते हैं, ऊपर चलने, काम करने पर नीचे के कमरे में ऐसी ही आवाजें आती हैं। ऐसा कर आज से तू प्रियंका दीदी के कमरे में सो जाया कर।“

”हां, ये अच्छा है।“ खुशी में उसी वक्त अपना बिछौना ले वह प्रियंका के कमरे में दौड़ गई थी।

प्रियंका नाराज हो उठी थी।

”मम्मी तुम्हें ये क्या सूझा, ये मेरे रूम में साएगी। ना मम्मी-आई कांट टॉलरेट हर। तुम इसे अपने ही कमरे में सुलाना।“

”छिः बेटी ऐसे नहीं कहते। बच्ची है तेरे कमरे के कार्पेट पर पड़ी रहगी, आखिर तेरी प्यारी डॉगी भी तो तेरे कमरे में सोती है कि नही?“

”वाह ! कहां मेरी डॉगी, कहां ये गंदी लड़की-।“

”देख प्रियंका तू मेरी प्यारी बेटी है न। दो-चार दिन बाद इसका कहीं और सोने का अरेंजमेंट कर दूंगी, अभी गांव से आई है इसीलिए डरती है।“

दूसरे दिन सुबह नीचे किचेन में जाती मनोरमा ठिठक कर रह गई थी। नंगी जमीन पर सूती शॉल ओढ़े लक्खी सिमटी पड़ी थी। करूणा से मनोरमा का मन भर आया था। इतनी ठंड में नंगी जमीन पर पड़ी ये छोटी सी लड़की कहीं अपनी बेटी होती तो? स्टोर से लाकर पुरानी रजाई लक्खी पर जैसे ही डाली, उसकी गर्मी से आराम पा, आंखे हल्की सी खोल वह मुस्ककरा दी थी। पैर आराम से फैला, उसने करवट बदल ली थी। उसकी वह कृतज्ञ मुस्कान मनोरमा के अन्दर तक बैठ गई थी।

निश्चय ही प्रियंका ने अपने कमरे का दरवाजा लक्खी के लिए अन्दर से बंद कर लिया था। उस बंद दरवाजे को खुलवाने का दुस्साहस लक्खी कैसे कर सकती थी। वह प्रियंका की डॉगी थोड़ी थी जो बंद दरवाजे पर अपना मुंह रगड़, कूं-कूं कर प्रियंका की गलती पर सारे घर को जगा देती। बचपन से भूख-मार सहती लक्खी, उस ठंड में भी नंगी धरती पर इसीलिए तो सो सकी क्योंकि अन्याय सहना उसकी नियति थी। ये बात वह छोटी लड़की अच्छी तरह समझ चुकी थी वर्ना प्रियंका की तरह वह भी मान-मनुहार कराने के लिए ठुनकती?

मनोरमा के मन में लक्खी के लिए ढेर सारी सहानुभूति उमड़ आई थी। जिस उम्र में उसे खेलना चाहिए, वह दूसरों की सेवा में जुटी थी। मनोरंजन उसका भी अधिकार है। रात में काम खत्म करने के बाद मनोरमा के साथ टी0वी0 सीरियल देखना, लक्खी का सबसे प्रिय काम होता, नौ बजे के पहले वह सारे काम निबटा टी0वी0 के पास बैठती। अपनी मीठी आवाज में लक्खी सीरियल के बारे में जब कोई सवाल करती तो प्रियंका नाराज़ हो उठती -

”मम्मी तुम इसे बिगाड़ रही हो, क्या गांव में यह टी0वी0 देखती थी। तुम तो हद ही कर देती हो।“

सास का भी यही ख्याल था मनोरमा उसे शह दे, सिर पर चढ़ाए ले रही है। उनके ख्याल में नौकर को नौकर की तरह रखो तभी वह ठीक रहते हैं वर्ना सिर चढ़कर बोलते हैं। सीरियल की कहानी में डूबी लक्खी दादी की डांट पर चौंक उठती ................।

”जरा इस बित्ते भर की छोकरी के रंग तो देखो, कैसे दीदे फाड़-फाड़ कर सिनेमा देख रही है। एक दिन अपना रंग दिखाएगी, तब सब कहेगें कि मैं ठीक कहती थी।“

मनोरमा दुविधा में पड़ जाती, तो बित्ते भर की छोकरी घर के सारे काम करने लायक समझी जाती है, पर उसे आध-एक घंटा टी0वी0 देखने का अधिकारी नही समझा जाता क्यों? सुबह सबको बेड टी देने के बाद से लक्खी की कड़ी ड्यूटी रहती। पूरे घर की झाडू-बुहारी, कपड़े धोकर उन पर प्रेस करना, किचेन में मनोरमा के साथ रसोई के काम निबटाना और फिर जूठे बर्तनों के ढेर को चमका-चमका के सजाकर रखना। घर के हर प्राणी, यहां तक की प्रियंका की डॉगी के कामों को पूरा करने के लिए पूरे दिन लक्खी दौड़ती ही रहती। इतना सब करने के बावजूद वह उन सबके साथ बैठ टी0वी0 के माध्यम से वह कुछ देर सपनों में भी नहीं जी सकती। टी0वी0 देखती लक्खी के चेहरे की चमक मनोरमा को मुग्ध कर देती। जगमगाती आंखों में खुशी के सपने झिलमिलाते कभी सीरियल के गरीबों की दयनीयता से द्रवित लक्खी अचानक पूछ बैठती -

”ये लोग अमीर हो जाएंगें न मां जी ?“

”हां।“

मनोरमा का उत्तर सुन वह खुश हो जाती। उसके सवाल मूलतः दो बातों पर केन्द्रित होते कैसे गरीबी से छुटकारा और अन्याय के विरूद्ध न्याय मिलेगा? लक्खी की आवाज में शहद की पूरी मिठास घुली होती। उसकी वाणी का सहज उतार-चढ़ाव मन मोह लेता। मनोरमा से वह खुले मन से बातें करती, सवाल पूंछती, पर दादी या प्रियंका से उसे जरा भी उत्साह न मिलता। अपनी गरीबी के दिनों को याद करती लक्खी मनोरमा के सामने दृश्य सा खींच देती।

”हमलोग बिहुत गरीब थे ,मां जी। मां चावल का माड़ बनाती थी। बापू दारू पीकर आता और लात मार हांडी गिरा देता। भूख से बिलबिलाते हम भाई-बहिन मिट्टी सनी माड़ी को जीभ से चाटते रोते जाते थे, मां जी। बाद में तो बाबू पागल हो गया था। एक दिन मां को मार ही डाला।“

”तेरे और भाई-बहिन भी थे लक्खी? वो कहां गए?“

”नानी कहती है वो भूख और बीमारी से मर गए, बस हम अकेले रह गए।“ लक्खी की आंखें भर आई थीं।

”अरे ! अरे ! रोती क्यों है, तू तो लक्ष्मी है बेटी - मनोरमा ने उसे पुचकारा था।“

बड़ी बेटी के जन्म पर मां ने बडे़ प्यार से उसका नाम लक्ष्मी रखा था, पर लक्ष्मी से उसका दूर-दूर का वास्ता नहीं था। गरीबी के अभिशाप ने लक्ष्मी को धूमिल कर दिया था। पता नहीं पागलपन के दौरे में या दारू के नशे में बाप ने मां के गले पर दरांती से वार कर उसे खत्म कर दिया। नाना-नानी न होते तो शायद लक्खी बेच दी जाती।

मनोरमा के लक्खी के प्रति स्नेह ने घर में दो ग्रुप बना दिए। बेटी और सास विपक्ष में और पति, दोनों के बीच समझ नहीं पाते किसका पक्ष लें, पर अक्सर बेटी और माँ का ही पक्ष भारी पड़ता। उस दिन भी वही हुआ था।

सुबह से लक्खी को दस्त और उल्टियाँ आ रही थीं, पर उसने ये बात किसी से नहीं बताई। मनोरमा पूजा के लिए मंदिर गई हुई थी। अन्ततः काम करती लक्खी दस्त और उल्टियों से निढ़ाल अपनी कोठरी में पड़ गई थी। लक्खी की खोज मच गई थीं कोठरी में लक्खी को सोता देख, सास जी का पारा चढ़ गया था। बेटे को सुनाती, वह चीखती जा रही थीं।

”देखो तो इस मरी को, हम आवाजें दे रहे हैं और ये कान में तेल डाले आराम से सो रही है।“

मां की बात ने पुत्र की क्रोधाग्नि में घी डाल दिया। लक्खी का हाथ पकड़ जैसे ही उठाया उल्टी से कोठरी में दुर्गन्ध फैल गई।

नाक पर कपड़ा रख सास उसे गालियाँ देती बाहर चली गई।

”चुरा-चुरा के तर माल खाती है। अब बाहर उलट रही है, निगोड़ी।“

पूरी बात सुन मनोरमा स्तब्ध रह गई। बड़े प्यार से सास ने दो दिन की बासी सब्जी लक्खी को दे डाली थी। मनोरमा के प्रतिवाद पर उसे भी झिड़क दिया था
”रहने दो, इनकी ये सब खाने की आदत होती है। गाँव में सड़ा-गला ही तो खाती थी।“

दादी की प्यार से दी गई सब्जी के लिए लक्खी ने आभार माना था। वह उसे कैसे फेंकती? इतने दिनों में उसने अपने हाथ से उठा तिनका भी नहीं चखा था। यहाँ तक कि पेड़ से गिरे अमरूदं भी सास की निगाहों में रहते। आम-अमरूद चुनकर लक्खी उनके सामने रखती, पर उन्हें हमेशा यह संदेह रहता वह चोरी करके खाती है। बीमारी में भी काम करती लक्खी के प्रति किसी के मन में दया-सहानुभूति नहीं थी। निश्चय ही बीमार होने का उसे कोई अधिकार नहीं था।

जबसे अपने खाली समय में मनोरमा ने लक्खी को पढ़ाना शुरू किया, सास का लक्खी पर क्रोध बढ़ता गया।

”हमें क्या, पर इतना कहे देते हैं इसे पढ़ाकर अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रही हो, बहू। देख लेना इसकी यही पढ़ाई गुल खिलाएगी।“

उनकी बातें सुनती मनोरमा मनोयोग पूर्वक लक्खी को पढ़ाती रही। अब तो लक्खी दो-चार शब्द लिखने-पढ़ने लगी थी। मनोरमा सोचती अगर वह पढ़ जाए तो कम-से-कम अपने नाना-नानी को तो दो शब्द लिख सकेगी। उनकी इकलौती वारिस न जाने किस हाल में होगी, क्या ये सोच उनका मन नहीं छटपटाता होगा?

लक्खी की अच्छाइयों के साथ उसकी एक कमजोरी थी, अगर उसे अकारण ही डांट दिया जाय तो उस अन्याय को सहन कर पाना उसे सहज नहीं होता। अगर उसने भूल की तो निःशब्द डांट सुन लेती, पर बिना गलती डांट पड़ने पर वह कहीं छिप कर अपना रोष जरूर प्रकट करती। मनोरमा को लगता उसके स्वाभिमान का अंश, उसे ऐसा करने को बाध्य करता है, क्योंकि उस समय वह अपने आपे में नहीं रहती थी। उस समय उसे लाख आवाजें दो, पर आवाज़ें दरवाजे से टकरा कर वापिस आ जाती। मजे की बात ये कि एक दो घंटे बाद वह पूर्ववत खुशी-खुशी काम में जुट जाती। उसको समझाना चाहा कि उसे वैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, पर फिर वैसी ही घटना होने पर वह वही व्यवहार करती।

लक्खी की इस कमजोरी के लिए मनोरमा को सास की हजार बातें सुननी पड़तीं। लक्खी के लिए सास की कड़वी बातें मनोरमा को बहुत खलतीं, पर उनसे कुछ कहना बेकार बेकार था। वह लक्खी को ही समझाती।

”दादी बूढ़ी हैं न, इसीलिए तुझ पर नाराज होती हैं, तू उनकी बातों का बुरा मत माना कर।“

”सास के साथ प्रियंका का भी सहयोग रहता इसीलिए वह दबंग हो बोलती थीं। कभी-कभी वह लक्खी पर इस तरह चिल्लातीं कि मनोरमा को वो बातें सहन करना कठिन हो जाता, इन बातों के बावजूद लक्खी दादी पर जान छिड़कती।“

”दादी बूढ़ी है, इसीलिए वो चिल्लाती हैं न मां जी? हमारी दादी भी ऐसी ही थीं।“

सास के हर आदेश को पूरा करने में लक्खी को अपार आनंद मिलता। प्रियंका की उपेक्षा के बावजूद वह उसके पीछे-पीछे ही घूमती। प्रियंका के लिए अगर वह कुछ कर पाती तो खुशी से भर जाती।

पिछले सप्ताह दो दिनों के लिए मां के घर गई मनोरमा, जब घर वापिस आई तो आते ही सास ने लक्खी के खिलाफ शिकायतों का पिटारा खोल दिया।

”तुम्हारे लाड़-प्यार का ही ये नतीजा है जो हमें तो कुछ समझती ही नहीं। मुझे बूढ़ी कहती है। मैं कमरे में बैठूं तो इस जाड़े में भी पंखा चला दे। ये तो चाहती है, मैं मर जाऊं और इसे छुट्टी मिले।“ सास ने आँखों पर आंचल लगा, रोने का उपक्रम किया था। सफर की थकान के बाद, इस स्वागत ने मनोरमा का दिमाग खराब कर दिया।

”क्यों री तू दादी को तंग करती है। लक्खी के गाल पर तमाचा लगा, वह बड़बड़ाने लगी थी।“

”इसी दिन के लिए तुझे यहां इतने प्यार से रखती हूँ। दूसरे घरों में मार खाकर ही ठीक थी।“

तमाचे से स्तब्ध लक्खी मनोरमा को ताकती रह गई थी।

”अब मेरा मुंह क्या ताक रही है। कहीं जाकर मर क्यों नहीं जाती। रोज-रोज की मुश्किल से तो पीछा छूटे।“

थोड़ी देर बाद लक्खी घर से गायब थी। हमेशा की तरह कहीं छिपी बैठी होगी। अपने आप आ जाएगी-सोच, मनोरमा नहाने चली गई थी। नहाकर आते ही उत्साहित सास ने चाय का प्याला थमा दिया था।

”आज तुमने उसे मारा है, अब राह पर आ जाएगी। हमारी तो सुनती ही नहीं थी।“

मनोरमा में मंुह की चाय कड़वी हो आई। घूंट निगलना कठिन लगने लगा। प्याला टेबिल पर रख,

मनोरमा ने फ्रिज से पानी निकाला था।

”क्यों, चाय ठीक नहीं बनी क्या?“

”ठीक है, अभी मन नहीं कर रहा है।“

मनोरमा की आँखें लक्खी को खोज रही थीं। कम-से-कम दो घंटे बीत चुके होंगे। तभी किसी ने डोर-बेल बजाई थी। दरवाजा खोलते ही पड़ोस का पान वाला रामेश्वर खड़ा था। साथ में बुत बनी लक्खी, खड़ी थी।

”बीबी जी, आज आपकी ये लड़की बच गई। रेल की पटरी के ठीक बीच में बैठी थी, सामने से रेल आ रही थी। मैं न पहुंचता तो न जाने क्या हो जाता? उठने को तैयार नहीं थी।“

”क्या ?“ मनोरमा स्तब्ध रह गई।

”मैं तो इसे यही समझाता आया कि घर में डांट-मार तो चलती ही रहती है, ऐसा करने से कैसे बनेगा? कल को कुछ हो जाता तो पुलिस ऐसी की तैसी कर देती। अच्छा चलूं, बीबी जी।“

”जरा ठहरना, रामेश्वर।“ घर के अन्दर से पचास रूपए का नोट ला मनोरमा ने रामेश्वर को इनाम देना चाहा था।

”ये लो भइया, आज तुमने बचा लिया, वर्ना लड़की कहीं का न छोड़ती। कल ही इसे वापिस घर भेज दूँगी।“

”नहीं, बीबीजी, ये नहीं चाहिए। बस किरपा बनाए रखें।“ लाख अनुरोध पर भी वह रूका नहीं था।

मनोरमा के पीछे लक्खी अन्दर आ गई थी।

”मां जी, हमें घर नहीं भेजना। हम घर नहीं जाएंगे।“

”नहीं, अब बहुत हुआ। और नहीं सह सकती।“

”हम पानी से पोंछा लगा रहे थे, इसीलिए पंखा चलाया था जिससे फ़र्श जल्दी सूख जाए। दादी से

कहा था, हट जाएं, वह नहीं हटी और आपसे शिकायत कर दी।“

”चुप रह, बड़ो के मुंह लगती है।“

”हम नहीं जाएंगे ..................... दादी झूठमूठ शिकायत करती हैं।“

उस रात लक्खी ने खाना नहीं खाया था। पति ने सख्त हिदायत दे दी थी, उसकी मनुहार नहीं करनी है। पूरी रात मनोरमा की आँखो के सामने लक्खी का उदास चेहरा आत रहा। अगर प्रियंका भूखी सोती तो क्या वह सह पाती?

दो-चार दिन शांति के बीत गए, लक्खी मन लगाकर काम करती रही। रात में दादी के पांव देर तक दबा, लक्खी अपनी गलती का प्रायश्चित करती रही।

कल फिर लक्खी ने अपराध कर डाला। पति के बार-बार मना करने के बावजूद लक्खी ने बगीचे के सारे फूल-पौधों में पानी दे डाला। अपने सब कामों में से बगीचे के पौधों को पानी देना उसका विशेष प्रिय काम था। जब रंग-बिरंगे फूल खिलते तो उसकी खुशी देखते ही बनती। सारे घर को खबर हो जाती, आज किस रंग का फूल, कहां खिला है। पिछले कुछ दिनों से पानी की सप्लाई कम थी, इसीलिए लक्खी को बगीचे में रोज पानी देने को मना किया गया। लक्खी की एक कमजोरी या शक्ति ये भी थी कि वह जो ठान लेती, पूरा करके ही छोड़ती, भले ही उसके लिए उसे दंडित होना पड़े। मनोरमा ने महसूस किया था वह जिस बात को ठीक समझती, उसी को पूरा करने की उसे जिद रहती। पानी न देने से पेड़ सूख जाते हैं, इसीलिए उसने मना करने के बावजूद पानी दे, डांट खाई थी।

पिछली बार भी जब पीछे के सर्वेन्टस क्वार्टर में दो दिनों तक पानी की सप्लाई बंद रही तो जहां और घरों से उन्हें पानी नहीं दिया गया, लक्खी ने बड़ी उदारता से उन्हें अपने घर से पानी ले जाने की इजा।ज़त दे दी थी। घर के बाहर वाले नल से वे पानी ले गए, इसकी खबर घरवालों को तब हुई, जब अपने ही घर में पूरा पानी खत्म हो गया। उस समय दादी की मार उसने निःशब्द सह ली थी। पास वाले हैंड- पम्प से बालटियों से पानी ढोकर, उसने अपनी गलती का प्रायश्चित कर लिया था। उसकी समझ से ये बात परे थी कि घर में इतना पानी रहते, घर में काम करने वाले प्यासे रहें?

कल भी बगीचे में पूरा पानी देने की वजह से घर मे पानी खत्म हो गया। पतिदेव का क्रोध चरम सीमा पर पहुंच गया।

”अब यह लड़की हमें डोमिनेट करेगी? लाख बार मना किया, कहना नहीं मानती। अब इसकी और मनमानी बर्दाश्त नहीं की जा सकती। आज ही इसे वापिस न किया तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा, समझीं।“

”अरे इस लड़की ने तो बहू पर जादू कर दिया है, वर्ना ऐसी बदतमीज, बददिमाग छोकरी को कोई दो दिन के लिए भी न सहेगा।“

पिछले कुछ दिनों से घर के दो ग्रुपों में लक्खी को लेकर जैसे शीत-युद्ध चल रहा था। एक ओर पूरा घर और दूसरी ओर लक्खी के साथ मनोरमा अकेली कर दी गई थी। पति और सास की बातें सुनती मनोरमा अपना आप खो बैठी थी।

”और कितना सुनवाएगी, चुड़ैल? निकल जा घर से, खबरदार जो दुबारा वापिस लौटी।“

लक्खी अवाक् मनोरमा की मार सहती रही थी। प्रतिरोध का तो सवाल ही नहीं, आंख से एक बूंद आँसू भी नहीं ढलका था। प्रियंका ने मनोरमा को पकड़ा था।

”पागल हो गई हो, मम्मी ? छोड़ो इसे।“

गुस्से से कांपती मनोरमा कमरे में पहुँची ही थी कि पीछे से शांत लक्खी ने ठंडे पानी का ग्लास उसकी ओर बढ़ाया था।

”पानी पी लीजिए, मां जी। अब हम कभी ऐसा नहीं करेंगे, साहब की सब बात मानेंगे।“

मनोरमा की आँखों से झर-झर आँसू बह निकले। सामने खड़ी लक्खी को जैसे ही सीने से चिपटाया, वह फूट-फूट कर रो पड़ी।

1 comment: