12/16/09

यादों के नाम

सब औपचारिकताएँ पूर्ण कर कस्टम से बाहर आते लगभग पौन घंटा बीत चुका था। बाहर प्रतीक्षा कर रहे मनीष से मिलने को अमर आतुर था। भारत छोड़ने के पूर्व फोन पर हुई बातचीत में मनीष ने एयरपोर्ट पर रिसीव करने की बात कही थी। न पहुंच सकने की स्थिति में मनीष के घर का पता उसकी डायरी मे नोट था। दूर से ही उसने मनीष को पहचान लिया , ब्लू सूट में वह कुछ अधिक ही खिल रहा था। हाथ हिलाते ही तेजी से आगे बढ़ उसने अमर को गले लगा लिया।


”कहो कैसा रहा अनुभव?  पहली बार इतनी लंबी यात्रा प्लेन से की है न?“

”अरे पता भी नहीं लगा अठारह घंटे कब-कैसे बीत गए। लग रहा है सुबह उड़कर शाम को पहुंच  रहा हूँ।“

”लगता है कोई सुन्दर एयर होस्टेस मिल गई थी, क्यों?“ अपने पुराने अन्दाज में आँखें सिकोड़ मनीष मुस्कराया।

”भाभी कहाँ हैं? मैं तो उन्हें देखने को बेताब हूँ जिन्होंने मेरे भाई को पराया बना डाला है।“

”चलो घर चलते हैं, वहीं बातें करेंगे।“ अचानक मनीष के मुख पर एक छाया-सी तैर गई थी या यह उसका वहम था, अमर समझ नहीं सका।

ग्रे मर्सिडीज में बैठते हुए अमर ने कहा , ”वाह! ठाठ हैं तेरे। कभी सपने में भी सोचा था इस गाड़ी का मालिक बन सकेगा?“

”सपने अगर सच होते तो ज़रूर सोचा होता। वह सामने जो बिल्डिंग्स देख रहा है न, पिछली बार इन्हीं के फोटो भेजे थे। कल उधर चलेंगे।“
सुंदर हरे लॉन, फूलों से लदे पौधों के बीच सेवों से लदा वृक्ष देख अमर मुग्ध रह गया। कार बंद कर चाभी से बंद द्वार खोलते मनीष को देख अमर विस्मित हुआ था।

”क्यों, भाभी क्या घर में नहीं हैं?“

”नहीं, वह वीकेंड पर गई है। पर फिक्र करने की जरूरत नहीं है, तुझे भूखा नहीं रहना पड़ेगा, यार।“ सुंदर सज्जित ड्राइंग रूम में पाँव धरते ही अमर का मन संकुचित हो उठा था। यह कैसा स्वागत? बंद द्वार खोलता मनीष और साथ में वह! क्या उसका यहाँ आना परिवार के अन्य जनों को प्रियकर नहीं था? बच्चे तक घर में नहीं हैं।

”किस सोच में पड़ गया? क्या लेगा ओरेंज जूस के साथ मनीष पास ही सोफ़े पर आकर बैठ गया।"

”कुछ खाएगा या फ्रेश होकर डिनर लेगा?“

”नहीं-नहीं, अभी बिल्कुल भूख नहीं है। पूरे रास्ते खाता ही आया हूँ। यार ये लोग प्लेन में खिलाते जी भर के हैं।“

”इतना पैसा भी तो लेते हैं। हाँ, अब तू सुना कैसी कट रही है, रमा और बच्चे कैसे है? रमा कुछ मोटी हुई या वैसी ही दुबली है?“

”देखोगे तो पहचान नहीं पाओगे, डबल हो गई है। रमा तुम्हें खूब याद करती है। कह रही थी, मैं भी यहाँ नौकरी की जुगाड़ कर लूं। बच्चे भी यू0एस0ए0 के लिए क्रेजी हैं यार। तू सुना, कैसा लगता है यहाँ? अब तो तू यहाँ का स्थायी वाशिंदा बन गया है। शादी के बाद तो घर से नाता ही तोड़ बैठा है। मौसी, भाभी सब कितना याद करते हैं।“

”सच मैं भी घर कितना मिस करता हूँ, तू नहीं समझेगा, अमर।“ शायद एक हल्की-सी आह थी मनीष के स्वर में।

”इस वीकेंड पर तू मेरी वजह से नहीं जा पाया, मनीष। तू चला जाता, मैं एकाध दिन मैनेज कर सकता हूँ भाई।“

”वीकेंड्स  पर रोजी और बच्चे अपने-अपने फ्रेंड्स के साथ जाते हैं।

मैं तो पड़ कर सोता हूँ ; इंडियन ठहरा तो आदत नहीं छूटती।“ स्वर में परिहास था या व्यंग्य, अमर समझ नहीं सका।

”ताज्जुब है, पन्द्रह वर्षो से रोजी भाभी तुझे अमेरिकन नहीं बना सकी, वैसे का वैसा आलसी ही रह गया तू! हम तो सोचते थे तू एकदम वेस्टर्नाइज्ड हो गया होगा और एयरपोर्ट पर.............“

”तेरा, ‘हाय’ कह कर स्वागत करूँगा, क्यों ठीक है न!“

दोनों हॅंस पड़े।

नहाकर जब तक अमर बाहर आया, मनीष मेज पर खाना सजा चुका था। डोंगे के ढक्कन हटाता अमर चमत्कृत था,
”तू तो सचमुच सुधर गया है, मनी। मौसी के चिल्लाने पर भी एक गिलास पानी लेकर नहीं पीता था, भाभी ने इंडियन कुकिंग सीख ली है?“

”जी नहीं, ये सब बंदे ने आपके लिए अपने हाथों से बनाया है। आइए, विराजिए!“ मनीष के नाटकीय अंदाज पर अमर हॅंस पड़ा।

”आज इतने दिनों बाद भारतीय खाना खा रहा हूँ, मजा आ गया वर्ना रोज वही उबला खाना-हेमबर्गर। आइ एम रियेली फ़ेडअप अमर।“

”तो अपने लिए भारतीय भोजन क्यों नहीं बनवा लेते, मनीष?“

”अपनी भारतीयता सिद्ध करने के लिए?“ अजीब स्वर में कहा था मनीष ने, पता नहीं वह प्रश्न था या यूँ ही सरकास्टिक रिमार्क।

खाना खत्म कर प्लेटें उठाते मनीष को देखना एक विचित्र अनुभव था। टेबल साफ कर अमर की ओर देख मनीष मुस्करा दिया।

”मुझे काम करता देख सोच में पड़ गया था न? अरे भाई, यह अमेरिका है, यहाँ मनीष माँ का दुलारा बेटा नहीं, कामकाजी इनसान है। आ तुझे अपना गार्डेन दिखाऊं।“

मनीष के साथ अमर पीछे की ओर किचेन गार्डेन देख चैंक उठा था। उत्साहित मनीष बतला रहा था, ”ये देख भिंडी, तोरई, टमाटर सब फल रहे हैं। हाँ तोरई की शक्ल में फर्क है न?“

”माई गॉड, तूने तो यहाँ भी एक भारत बसा लिया है, उधर सेवों से लदे पेड़, इधर भिंडी और तोरई बहुत अजीब बात है न?“

”हाँ, अमेरिका के बीच एक अकेला भारतीय टापू...........“ वाक्य मनीष ने अधूरा ही छोड़ दिया था।

”यार तू तो खासा भावुक हो रहा है, अरे क्या रखा है हिन्दुस्तान में? मेरा वश चले तो कल यहाँ बोरिया-बिस्तर समेट आ जाऊं।“

”ऐसी गलती मत करना मेरे भाई.......चल अब भीतर चलते हैं। जानता है साढ़े नौ बज चुके हैं। गर्मियों में यहाँ रात 10 बजे तक ऐसा ही उजाला रहता है, कुछ दिन तुझे ‘जेट लैगिंग’ रहेगी। हाँ ट्रेनिंग कब से शुरू है तेरी?“

”इसी सोमवार से। सुबह नौ बजे रिपोर्ट करना होगा। यहाँ से जाने के लिए कोई बस या..........।“

”भाई मेरे, लखनऊ छोड़े तुझे कम-से-कम चार साल तो हो गए होंगे पर तेरा तकल्लुफ़ी स्वभाव नहीं छूटा, वैसे का वैसा ही रहा। अरे भई आफिस जाते हुए तुझे ड्राप कर दूंगा। अभी तो चल कर आराम कर। कल रविवार है मैनहट्टन की ओर चलेंगे, ठीक!“

”ओ के“ अमर भी मुक्त हॅंसी हॅंस दिया।

दूसरे दिन अमर जब तक सोकर उठा, मनीष ब्रेकफास्ट तैयार कर उसके उठने का इंतजार कर रहा था।

”तू तो खूब घोड़े बेचकर सोया। मैं तो सोच रहा था शायद पहले दिन ठीक से सो नहीं पाएगा।“

”इतने आरामदेह बिस्तर पर नींद न आए! वह! चाय भी तैयार है। मनी, मौसी अगर तेरा यह रूप देख लें तो सच मान, धन्य हो जाएँगी।“

”अब बातें बनाना बंद कर, जल्दी से तैयार हो जा। स्टैच्यू आफ लिबर्टी चलना है न?“

”सॉरी! बस दस मिनट में तैयार हुआ।“ अमर बिस्तर से उठ गया।

छुट्टी होने के कारण मानो पूरा न्यूयार्क सागर- तट पर उमड़ आया था। मस्ती में वाद्य बजाते वादकों के पास भीड़ जमा थी। पार्क में बच्चों की किलकारियाँ गूँज रही थीं और वृद्ध पेड़ तले आराम कर रहे थे। ठेलों पर ठंडे पेय और ढेर सारी खाने की चीजें देख अमर ने कहा -
”यार यहाँ तो लगता है किसी भारतीय मेले में आ गए है। बस लोगों की चमड़ी का रंग अलग है।“

”और भी बहुत अलग है, अमर। वहाँ मेलों में अपनापन होता है। यहाँ अपने भी अपने नहीं होते। नहीं समझ पाए न? चलो स्टीमरके लिए ‘क्यू’ में लंग जाएँ वर्ना अपना नंबर ही नहीं आएगा।“

लगभग आधे घंटे लाइन में लगने के बाद  दोनों स्टीमर में बैठे थे। सागर के बीच स्वतंत्रता की प्रतीक ‘स्टेच्यू आफ लिबर्टी’ देख अमर मुग्ध हो गया था। पूरे दिन घूमकर दोनों थक गए थे। मैनहट्टन की गगनचुम्बी इमारतों के मध्य सड़क से कितना सीमित आकाश दिखता है!

”यार मनीष, यहाँ काम करने वालों का दम नहीं घुटता, आकाश देखने को तरस जाए यहाँ इंसान!“

”तभी तो भागते हैं खुले स्थानों पर। हर वीकेंड पर सागर-तट, लेक्स के किनारे भीड़ देखेगा तब समझेगा।“

संध्या घर लौट नहा-धो दोनों लॉन में आकर बैठे ही थे कि लंबी कार ड्राइव करती मनीष की पत्नी रोजी आ पहुंची थी। इकहरे शरीर की रोजी को देख लड़की होने का भ्रम होता था। कार पार्क कर उनकी ओर आती रोजी से मनीष ने अमर का परिचय कराया था, ”अमर कल शाम पहुंचा है यहाँ; अमर, मई वाइ।फ़ रोजी।“

”हलो! एन्जवाय योर ब्रदर्स कम्पनी? मैं अभी कपड़े चेंज करके आती हूँ। मनीष डार्लिंग यू डोंट माइंड मेकिंग मी ए ड्रिंक!“

”ओह श्योर ! एक्सक्यूज मी अमर, अभी आता हूँ।“

रोजी के पीछे मनीष ड्रिंक तैयार करने चला गया। अमर को रोजी कितनी अपरिचित लगी थी। थोड़ी देर बाद रोजी लॉन में आ गई थी, सूती स्कर्ट ब्लाउज में स्वचछ निखरी हुई।

”यू नो रोजी, अमर कजिन से ज्यादा मेरा दोस्त है। हमारा बचपन लड़ते-झगड़ते बीता है। आज दस वर्षो बाद देख रहा हूँ इसे। पिछली बार जब इंडिया गया था, यह ट्रेनिंग पर गया हुआ था।“

”आप एक बार के बाद कभी इंडिया आई ही नहीं। सब आपको याद करते हैं।“ चाह कर भी रोजी के लिए अमर कोई संबोधन नहीं खोज सका था।

”हाँ, उस बार इतना बिटर एक्सपीरिएंस रहा, फिर जाने का मूड ही नहीं बना। और अब बच्चे आई मीन............जॉन और मैरी तो इंडिया के नाम से ही डरते हैं।“ रोजी हॅंस दी थी। ”एक्च्युली मैं भी वहाँ मरते-मरते बची थी न मनीष डार्लिग ! हम वहाँ का खाना डाइजेस्ट नहीं कर सकते!“

”मैंने बताया है रोज, हमारी शादी के कारण भारी खाना बना था। पर माँ ने तो तुम्हारे लिए पानी तक उबाल कर दिया था। दैट वाज जस्ट ए चांस - शायद गर्मी की वजह से तुम..............।“ मनीष का अधूरा वाक्य छोड़ रोजी उठ गई थी,
 ”एक्सक्यूज मी, आई नीड रेस्ट, थक गई हूँ। हाँ, डार्लिंग, मैं क्लाइड के साथ डिनर ले चुकी हूँ। तुम दोनों इंतजार मत करना। हैव नाइस टाइम, गुड नाइट।“

न जाने क्यों अमर को लगा था मनीष के मुख पर एक काली छाया-सी तैर गई थी। कुछ पलों के मौन को एक और कार की आवाज ने तोड़ा था। सामने सड़क पर रूकी कार से एक किशोर और एक लड़की उतरे थे। कार में उसके दो और साथी थे। हाथ हिला कर कार में बैठे साथियों को विदा दे लॉन में बैठे मनीष और अमर को अनदेखा कर जारहे थे कि मनीष ने पुकारा
 ”आनंद, मीरा! यहां आओ!  मीट योर अंकल फ्राम इंडिया।“

दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा मानो कोई सलाह की और संक्षिप्त ‘हेलो’ कह घर की ओर मुड़ गए थे। अमर को याद आया, एक बार घर में आए मेहमानों को ठीक से नमस्ते न करने पर मौसी ने मनीष को कितना मारा था, ‘
यही सीखता है स्कूल में? अरे बड़ों के पाँव छू आशीर्वाद लेने में कल्याण होता है। ऐसे अंग्रेजी स्कूल का क्या फ़ायदा जहाँ बच्चों को तमीज न सिखाई जाए!’
बच्चों के व्यवहार से कुछ खिसियाया-सा मनीष स्पष्टीकरण दे रहा था, ”यू नो अमर, यहाँ बच्चे नए लोगों से जल्दी घुलते-मिलते नहीं। अपने एज ग्रुप में वे स्वतंत्रता महसूस करते हैं। इनकी पार्टीज भी अलग होती हैं। चल हम भी डिनर लें, ये सब तो खाकर आए है।“

घर में सन्नाटा छा गया था। पत्नी, बच्चे अपने-अपने बेडरूम में बंद हो चुके थे। सन्नाटे को तोड़ने की न इच्छा थी न शायद साहस। निःशब्द दोनों ने भोजन की औपचारिकता पूर्ण की थी।

मनीष को अपने बेडरूम में सोने आता देख अमर चौंक उठा,
 ”ये क्या, तू अपने बेडरूम में सो, वर्ना रोजी भाभी नाराज होंगी, मैंने आकर तुम दोनों को अलग कर दिया है।“

”वह तो अब तक गहरी नींद में होगी। दो दिनों का स्ट्रेन था न।“ कहता मनीष पास वाले पलंग पर पसर गया था।

”अब बता लखनऊ में सब कैसे है? सच बहुत मिस करता हूँ वे दिन........क्या बात थी!“

”तभी दस वर्षो से सबको भुला बैठा है, आता क्यों नहीं? मौसी तो हर तीज-त्यौहार पर तुम्हें याद कर लेती हैं।“

”जानता हूँ अमर! माँ के प्रति अपराधी हूँ। वह.......कैसी है?“

”कौन, किसकी बात पूछ रहा है?“

”अनीता............कहाँ है? क्या कर रही है?“

”ओह तो अनीता की याद है अभी जनाब को ! जहे किस्मत।“

”वह बात क्या भूलने की है, अमर?“

”खूब मजे में है. तुझे नहीं पता। शायद किसी ने लिखने की जरूरत नहीं समझी होगी। वह जो अपने साथ रोहित था न, उसने अनीता से शादी की है। अनीता बड़ी किस्मत वाली है। तुझसे शादी होते ही तुझे अमेरिका का चांस मिल गया था और रोहित से शादी होते ही वह आई0ए0एस0 में आ गया। अभी दिल्ली में नियुक्त है। यहाँ आने के समय उसने काफी मदद की मेरी।“

शायद मनीष कुछ देर चुप रह गया था। फिर मानो एक ठंडी साँस लेकर कहा था, ”अच्छा ........ सचमुच वह किस्मत वाली है। एक बात बता, मेरी याद है उसे?“

”तुम्हारी याद न होगी, ऐसा सोच सकते हो, मनी?“

”नहीं, मेरा बतलब...... बहुत नफ़रत करती होगी मेरे नाम से? इतने वर्ष बीत गए...।“

”तुम भूल पाए हो अनीता को?“

”शुरू में शायद ऐसा लगा था अमर, पर अब तो हर नए दिन के साथ पुरानी यादें जीता हूँ। अच्छा बता, अनीता ने इतना आघात कैसे झेला था?“

”सबके सामने हॅंसकर और अकेले में रोकर। गनीमत है उसने हिम्मत हार आत्महत्या या ऐसा कुछ नहीं सोचा, वर्ना................“

”उसके प्रति किए अपराध का ही दंड भोग रहा हूँ।“

”दंड! धरती के स्वर्ग पर मजे लूट रहा है। इसे दंड मानता है, मनी? तूने अनीता की वे रातें नहीं देखीं जिनमें उसके अंतर का हाहाकार, सिर पटक पछाड़ खाता था। दंड तो अनीता ने भुगता था मनीष, बिना अपराध।“ न चाहते भी अमर का स्वर तिक्त हो उठा था। मनीष के मौन पर अमर ने पूछा था, ”तूने ऐसा क्यों किया, मनीष? एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह! अनीता में क्या कमी थी? उसे त्यागते जरा भी दुःख नहीं हुआ था, मनी?“ वर्षो से अंतर में दबा प्रश्न आज उभर आया था।

”कमी अनीता में नहीं, मुझमें थी, अमर। अपने पर नियंत्रण खो यहाँ की धारा में तिनके-सा बह गया था, भाई !“

”अनीता की याद तुम्हें नहीं रोक सकी, मनी? उसके साथ एक वर्ष दुःख में तो नहीं काटा था तुमने !“

”अब वही दिन तो मेरे एकाकी जीवन के साथी हैं, अमर !“

”लगता है भावुकता का सहारा ले तुम सबकी सहानुभूति पाना चाहते हो। शायद मै तुम्हें माफ़ कर दूं, पर परिवार के अन्य जन तुम्हें शायद ही क्षमा कर सकें, मनीष !“

”मेरा दुर्भाग्य है, अमर। पी0एच0डी0 करके जब आया था तब क्या सोचा था, मैं यहाँ स्थायी रूप से बस जा।ऊंगा? अनीता से कहा था, जल्दी ही उसे बुला लूँगा। उसके बिना यहाँ कैसे रह सकूँगा, सोच कर ही मन परेशान था। यहाँ नए परिवेश में अपने को अकेला पाता था। रोजी भी मेरी ही तरह विभाग में टीचर असिस्टेंट थी। हम एक ही कमरे में साथ बैठते थे। बहुत जीवंत, हॅंसमुख, खुले दिल की लड़की थी रोजी। मुझे उदास देख अपनी बातों से गुदगुदा जाती थी। अपने विषय में सब बता चुका था मैं उसे और यहाँ की लड़कियों को तो तुम देखोगे खुली किताब सदृश होती हैं। उन्मुक्त मन से मिलती हैं। वीकेंड में रोजी के साथ कभी पिकनिक, कभी शहर के बाहर टूरिस्ट स्थान देखने जाते थे। एक दिन अनजाने ही सब सीमाएँ हम लाँघ गए थे। बस, उसके बाद तो लगा रोजी के सिवा कुछ नहीं, जीवन निस्सार है। रोजी ने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया था, अमर। उसके बाद की कहानी तो तुम जानते ही हो, यही वजह थी मैंने अनीता को मुक्त कर दिया था।“

”क्या तेरे यूँ मुक्त करने से अनीता मुक्त हो गई? अपमान के साथ नकारा गया उसका अस्तित्व ! .............तू तो सोच भी नहीं सकता मनी, जीवित रह अनीता ने कितनी मौतें झेली थीं ! खैर, इतनी तो इंसानियत बरती तूने उस पर कोई दोष नहीं लगाया। मैं तो रोहित के साहस की सराहना करता हूँ। कितना दब्बू-सा दिखता था वह लड़का, पर उसने जो किया, मैं करने का साहस नहीं कर सकता।“ अचानक अमर चुप हो गया था।

”अच्छा हुआ अनीता ने दूसरा विवाह कर लिया।“ हल्की-सी साँस निकली थी मनीष के मुख से।

”शायद तुम्हारे अहम् को चोट पहुंची होगी उसके विवाह से ! तुम्हें आजीवन देवता सदृश पूजती, विवाह न करती तो अच्छा था?“

”मैंने कब कहा ऐसा? हाँ शायद तब दूसरा रास्ता होता मेरे पास।“ मनीष का स्वर आहत था।

”दूसरा रास्ता?“

”हाँ, वापस भारत जाने का विकल्प।“

”तू वापस भारत जाता? यह वैभव, घर-परिवार त्याग कर?“ कोहनी के बल उठ अमर ने दृष्टि मनीष के मुख पर गड़ा दी थी।

”ये सब तो एक इंडियन बास्टर्ड का है।“ मनीष का स्वर उत्तेजित था।

”क्या बकते हो? दिमाग तो ठीक है?“ मनीष के अचानक आक्रोश पर अमर चौंक उठा।

”क्यों देखा नहीं पत्नी, बच्चे सब अमेरिकन हैं, इस धरती पर जन्मे जेनुइन नागरिक और मैं.......एक अनसिविलाइज्ड कंट्री की देन जो इन धरती वालों का हक छीनता है।“

”तुम आराम करो मनीष, मैं रोजी भाभी को बुलाता हूँ।“

”कौन भाभी? किसकी भाभी? देखा नहीं, वह अभी अपने फ्रेंड्स के साथ वीकेंड मनाकर लौटी है। इस समय नशे में बेसुध सो रही है। मैं उसका पति नहीं, कम्पेनियन हूँ समझे ! यहाँ भावनाएँ नहीं चलतीं, प्रेक्टिकल होना पड़ता है और इतने वर्षो बाद भी प्रेक्टिकल नहीं बन सका। ठेठ भारतीय पति की तरह रोजी से वही अपेक्षा रखता हूँ जो अनीता से रखता था....।“

”तुम्हारे बच्चे तो बहुत प्यारे हैं, मनीष ! इन्हें लेकर भारत क्यों नहीं आते? वहाँ सबका स्नेह, अपनापन पाकर यहाँ का जीवन भूल जाएँगे। यहाँ तो परिवेश ही दूसरा है। वे बेचारे हमारी संस्कृति क्या जानें !“

”उन्हें भारत लाऊं? उसके लिए मैंने बहुत देर कर दी, अमर। जानता हूँ कुछ महीनों पहले ही मैं जान सका मेरी इस घर में कहाँ जगह है। हम एक पार्टी में गए थे। मेरे बच्चों ने अपने फ्रेंड्स से अपनी मम्मी को इंट्रोड्यूस कराया और साथ खड़ा मै अनदेखा कर दिया गया। घर आकर मेरी लाड़ली बेटी मम्मी से झगड़ रही थी कि तुमने एक इंडियन से मैरिज क्यों की, ममा? हमारा स्टेटस डाउन होता है। हम सिर उठाकर नहीं चल सकते। मेरी फ्रेड्स हॅंसती हैं। इससे तो अच्छा होता तुम किसी नेटिव ब्लैक से शादी कर लेतीं। कम से कम उन्हें आज की जेनरेशन तो स्वीकार करती है। आई हेट इंडियंस एंड योर इंडियन हस्बैंड।“

”रोजी भाभी ने कुछ नहीं कहा?“ अमर स्तब्ध था।

”कहा था..........बेटी के आँसू पोंछ समझाया था........‘डोंट वरी माई चाइल्ड, मेरे विवाह से तेरे जीवन पर कोई असर नहीं पडे़गा तू अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने को स्वतंत्र है।’ मुझे भी समझाया था, ‘डोंट माइंड डार्लिंग, शी इज सो अपसेट- पुअर चाइल्ड।’“

”अब समझे, मैं क्या कह रहा हूँ? आई एम ए स्ट्रेंजर फ़ॉर माई फेमिली। मैं अब किसी वीकेंड पार्टी में नहीं जाता। पत्नी या बच्चों के फ्रेंड्स से नहीं मिलता। मैंने अपने को सबसे अलग काट लिया है।“

”पर ऐसे कितने दिन चलेगा, मनी? अपने आप में घुटते रहना ..........तू वापस आ जा मनी, सब ठीक हो जाएगा।“

”क्या ठीक होगा, अमर? पिछले पन्द्रह वर्षो का अतीत धो-पोंछ वापस जाना क्या उतना आसान है जितना अनीता को एक वर्ष बाद अचानक छोड़ देना........... क्या मुंह लेकर जा।ऊंगा वहाँ मैं?“

”फिर भी वहाँ तुझे अपमान तो नहीं झेलना होगाऽपनों के बीच तुझे स्नेह मिलेगा, मनी।"
" अब और प्र्योग करने का जी नहीं चाहता, मेरे यार। अब तो बस इंतजार है रोजी कहे उसे डाइवोर्स चाहिए। जो दंड कभी मैंने किसी को दिया था, अब अपने लिए उसी दंड की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। है न विचित्र बात !“ म्लान हंसी मनीष के मुख पर तैर गई थी।

”तो तुम स्वयं ही क्यों नहीं तलाक की बात करते..................“

”नहीं, अब किसी को त्यागने का नहीं स्वयं त्यागे जाने का अनुभव करना चाहता हूँ, दोस्त। अच्छा ही है, बच्चे भी शापमुक्त हो जाएँगे। शायद नए अमेरिकन पापा पाने की खुशी में इस हिन्दुस्तानी पिता को भी वे आमंत्रित कर लें।“
"रहने दो,न जाने कैसी बातें कर रहे हो,बहुत रात हो गई सो जाओ।"

”कई दिनों से छत ताकते ही रातें काटी हैं अमर, शायद एकाध महीने पहले डाइनिंग टेबिल पर रोजी ने कहा था,
‘डार्लिंग, क्या तुम्हें भी नहीं लगता अब हमें अलग हो जाना चाहिए? मैंने पूरा प्रोग्राम प्लान कर लिया है। अलग होने से पहले हम वाशिंगटन जाएँगे, ठीक है न?’“

”यहां तलाक के समय कोई रोना-पीटना नहीं मचता, कोई उत्तेजना, नाटकीयता नहीं। बड़े सहज एवं स्वाभाविक रूप में एक-दूसरे को शुभ-कामनाएँ दे दम्पति अलग हो जाते हैं। अनीता तो फटी आँखों से मुझे ताकती रह गई थी। शायद एकाध हफ्ते न खाना खाया था, न सोई थी। मुझसे न लड़ी, न उलाहने दिए, पर उसके नयनों ने मुझे अपराधी जरूर ठहराया था। अमर......उसकी वह दृष्टि मैं आज तक बार-बार याद करता हूँ.......।“

”अब उन सब बातों को याद करने से क्या लाभ, मनीष ? अब अनीता का अपना घर है, बच्चे हैं और यहाँ तुम्हारा भी अपना परिवार..............।“

”ठीक कहते हो अमर, घर का मोह त्यागना इतना आसान नहीं है, भाई। पर ये कैसा घर है अमर, जहाँ मैं अपने मन का कुछ नहीं कर सका। जब बेटी का जन्म हुआ उसे मीरा पुकारना चाहा, पर उसे नाम मिला मैरी। बेटे को जय मानना चाहा उसे पुकारा गया ‘जॉन’ नाम से। कभी सोचता हूँ इसमें किसी का क्या अपराध? मेरा दृष्टिकोण समझने वाला है ही कौन?“

”तुझे सुनकर शायद आश्चर्य होगा मनीष अनीता ने अपने बच्चों के नाम मीरा और जय रखे हैं। बस एक बेटा और एक बेटी है अनीता की ....................... क्या कभी तुम दोनों ने नामों के विषय में कोई निर्णय लिया था?.................“ मनीष के मुख को देख अमर डर गया था।
”मैं तुम्हें हर्ट नहीं करना चाहता, मनी ! बस तुम्हारी बात सुनकर मैं कुछ कह गया ............आई एम एक्स्ट्रीमली सॉरी, मनी !“

”तू सच कह रहा है, अमर?“ उत्साहित मनीष उठकर बैठ गया था, ”अनीता ने मीरा और जय नाम रखे? इसका मतलब है उसे मेरी याद है। वह मुझे नहीं भूली, अमर.............ओह माई गॉड, ये क्या किया.............अनीता............“ आवाज रूँध आई थी। दोनों हाथों में मुंह छिपा मनीष सिसक उठा । उसके बहते आँसू देख अमर स्तब्ध बैठा था।

मैं सोच रहा था, हमारे गरीब कहे जाने वाले  देश में  विवाह के पवित्र बंधन तो सुरक्षित हैं, पर वहाँ...........वहाँ........... तो अपार संपन्नता के बावजूद................

No comments:

Post a Comment