1/16/11

अपरिचिता


अपरिचिता

शैलेश राज की फ़ोटो के साथ डी0एम0 के रूम में शहर में उनकी पोस्टिंग की ख़बर हर अखवार में छपी थी। अनुपमा की नज़र फ़ोटो पर अटक कर रह गई। शैलेश का व्यक्तित्व कितना प्रभावशाली लग रहा था। नीरज के ऑफ़िस जाने के बाद शैलेश को रिंग किया था। वह इसी शहर में है जानकर शैलू को कितनी खुशी होगी। वह तो सोचता होगा हम अभी अमेरिका में ही हैं। अनुपमा के ओठों पर मीठी- सी मुस्कान तिरआई उसे चौंका देने की कल्पना अनुपमा को बड़ी अच्छी लगी थी।  

नम्बर डा।यल कर उधर से आने वाली आवाज़ की उसे उत्सुकता से प्रतीक्षा थी-  

‘‘डी0एम0 साहब की कोठी से बोल रहे हैं।’’  

‘‘शैलेश- मेरा मतलब डी0एम0 साहब घर में हैं ?’’  

‘‘जी नहीं, साहब बाहर गए हैं ?’’  

‘‘कब तक लौटेंगे ’’  

‘‘कह नहीं सकते, कोई मैसेज़ मैडम ?’’  

‘‘हाँ- उनसे कहना अनु.....अनुपमा भारद्वाज ने फ़ोन किया था। हमारा फ़ोन नम्बर नोट कर लीजिए।’’  

‘‘जी, बताइए।’’  

अपना फ़ोन नम्बर नोट कराने के बाद से अनुपमा धड़कते दिल से शैलेश के फ़ोन का इंतजार करने लगी। बेमन से खाना गले से नीचे उतार, आँखे मूंद अनुपमा पलंग पर पड़ गई। रोज़ के फ़ेवरिट सीरियल्स अनदेखे ही रह गए। अनुपमा का टी0वी0 प्रेम नीरज को पसन्द नहीं आता।  

‘‘क्या बच्चों की तरह टी0वी0 से चिपकी रहती हो। कितनी बार कहा कम्प्यूटर में ट्रेनिंग ले लो, मेरे काम में हेल्प कर सकती हो।’’  

‘‘काम-काम-काम। इसके अलावा तुम्हें और कोई शब्द भी आता है ? किसके लिए करते हो इतना काम ? मेरे लिए वक़्त  
 
है तुम्हारे पास ? आखि़र मुझे भी तो समय काटना होता है....’’  

उत्तेजित अनुपमा से ज़्यादा बात करना बर्र के छत्ते में हाथ डालना होता। अक्सर नीरज चुप हो जाता। तनाव में रहना नीरज की आदत नहीं थी, पर अब कभी-कभी तनाव हो ही जाता।  

शादी के बाद के कुछ दिन खुशी में बीते, पर धीमे-धीमे अनुपमा को छोटी-छोटी बातों से असन्तोष होने लगा। जो मिल गया, उससे संतुष्ट न हो पाना, शायद अनुपमा का जन्मजात स्वभाव था। वैसे सुखी जीवन जीने के लिए जो कुछ भी चाहिए, अनुपमा के पास वो सब कुछ था। अनुपमा के मुँह से निकली हर बात पूरी करने की सामर्थ्य नीरज के पास थी, फिर भी न जाने क्यों अनुपमा को लगता जिंदगी में कहीं कोई कमी थी...।  

इकलौती बेटी होने के कारण घर मे। उसकी ज़ा-बेज़ा फ़र्माइशें तुरन्त पूरी की जातीं। पापा ईमानदार अधिकारी थे। घर में पैसों का बाहुल्य कभी नहीं रहा, पर अनुपमा के खर्चो में कटौती कभी नहीं की गई। मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी अनुपमा आकाश छू लेने के सपने देखती। सुन्दर चेहरे-मोहरे के साथ अनुपमा ने बड़ा मीठा गला पाया था। उसके गीत सुन कोई भी मुग्ध हो जाता। माँ को उससे एक ही शिक़ायत रहती, उसमें संतोष की कमी है। कुछ भी मिल जाने पर अनुपमा और पाने को बेचैन हो उठती।  

पापा के शिमला ट्रांसफ़र पर अनुपमा को खुशी हुई थी। शिमला का प्राकृतिक सौंदर्य उसे अभिनव लगा था। जब तक घर की व्यवस्था नहीं हुई, उनके रहने का इंतज़ाम गेस्ट हाउस में किया गया था।  

‘‘गुड मार्निंग, सर। लंच के लिए आपका ऑर्डर लेने आया हूँ।’’  

सधी आवाज़ पर अख़वार से निगाह हटा, पापा ने उस लड़के की ओर देखा था। जगमगाती सफ़ेद कमीज़ के ऊपर पहिने नीले स्वेटर में उसका गोरा रंग और भी उजला लग रहा  

था। चेहरे पर बुद्धि का प्रकाश झिलमिला रहा था। साधारण कपड़ों में वह असाधारण दिख रहा था। अनुपमा के मन में अचानक आया किसी कपड़ा धोने के साबुन के विज्ञापन के लिए वह लड़का परफ़ेक्ट मॉ डेल था। मुस्कराती अनुपमा के हाथ में पापा ने मेनू कार्ड थमा दिया था।  

जब से अनुपमा अपनी पसंद-नापसंद ज़ाहिर करने लायक हुई, घर में उसी की पसंद चलती।  

अनुपमा का बताया मेनू नोट करते युवक ने एक पल को दृष्टि उठाई थी। अनुपमा से दृष्टि मिलते ही नज़र झुका ली थी। अनुपमा को लगा उस लड़के में कुछ ख़ास ज़रूर था।  

‘‘यहाँ घूमने जाने के लिए कौन-कौन- सी ख़ास जगहें हैं ?’’ माँ अचानक उससे पूछ बैठी थीं।  

‘‘आप तो टूरिस्ट सीज़न में आई हैं, लोग रोज़ साइट सीइंग टूर पर जाते हैं। यही नीचे से बसें और टैक्सियाँ चलती हैं। अगर आप कहें आपकी सीट बुक करा दें।’’ युवक उत्साहित था।  

‘‘नहीं-नहीं, अब तो हमें यहाँ दो-तीन साल तो रहना ही है। आराम से सारी जगहें देख लेंगे। हाँ आसपास जहाँ पैदल जा सकें, वैसी कोई जगह बताओ।’’  

‘‘घूमने-बैठने के लिए तो लोग रिज जाते हैं। एक माल रोड है, दिन भर घूमते रहिए, मन नहीं भरेगा। इस वक़्त तो माल रोड पर टूरिस्टों का मेला लगा होगा।’’  

‘‘देखो लंच ज़रा जल्दी चाहिए, मुझे आफ़िस जाना है।’’ पापा को माँ की हरएक से बात करने की आदत से चिढ़ थी।  

‘‘यस सर ! तुरन्त भेजता हूँ।’’ लड़का फुर्ती से चला गया।  

‘‘बड़ा तौर-तरीके वाला लड़का है। किसी अच्छे घर का लगता है।’’ मम्मी की आँखों में प्रशंसा थी।  

‘‘हाँ, इस प्रोफ़ेशन के लिए अच्छे मैनर्स सबसे बड़ी क्वालीफिकेशन होती है’’  

‘‘पापा आप आज भी ऑफ़िस जाएँगे ? आज ही तो हम यहाँ आए हैं।’’ अनुपमा के स्वर में शिक़ायत थी।  

‘‘हाँ बेटी, ड्यूटी तो आज ही ज़्वाइन करनी होगी। तुम दोनों भी आज आराम करो, थक गई होगी।’’  

‘‘उंहुक, इतने अच्छे मौसम में भला आराम किया जाता है, हम तो माल रोड जाएँगे।’’ अनु के स्वर में बच्चों वाला उत्साह छलक रहा था।  

लंच लाने वाला लड़का कोई दूसरा था। खाना खाकर पापा ऑफ़िस चले गये और अनु मम्मी को जबरन ‘रिज‘ खींच ले गई। चारों ओर फैले कोलाहल के बीच अचानक अनुपमा को अकेलेपन ने घेर लिया। पीछे छूट गई सहेलियाँ याद आने लगीं। अब सब कुछ नए सिरे से शुरू करना होगा। मंजरी तो उसके शिमला आते समय कितना रोई थी, पर यही तो जिंदगी है। पापा ने समझाया था शिमला यूनीवर्सिटी में पढ़ने का चाँस किस्मतवालों को ही मिलता है। यहाँ न आई होती तो उसे किसी शहर के होस्टेल में रहना पड़ता। कल उसे यूनीवर्सिटी में एडमीशन के लिए जाना था।  

शिमला यूनीवर्सिटी का कैम्पस देखकर अनु का मन खुश हो गया। प्रकृति के बीच शिक्षा केंद्रो की स्थापना वैदिक ऋषियों ने व्यर्थ ही नहीं की थी। अनु को आसानी से यूनीवर्सिटी में एडमीशन मिल गया। शिक्षा-विभाग में होने के कारण पापा ने अनु की पढ़ाई पर पूरा ध्यान रखा था। अनु का जी चाहता, वह सहेलियों के साथ पिकनिक पर जाए, फ़िल्में देखे, पर पापा ने पढ़ाई से उसकी पकड़ ढीली नहीं पड़ने दी। परीक्षाओं में अनु हमेशा अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण होती रही। इतिहास उसका फ़ेवरिट विषय था, इसीलिए एम0ए0 प्र्रीवियस में उसने इतिहास विषय चुना था।  

यूनीवर्सिटी में पहले दिन अनुपमा थोड़ी नर्वस थी, पर सुजाता ने आगे बढ़कर दोस्ती के लिए हाथ बढ़ाया था। अनुपमा  का परिचय क्लास की दूसरी लड़कियों से भी सुजाता ने ही कराया था। दो-एक दिन में सब कुछ सहज-सामान्य लगने लगा था। घर वापस लौटी अनुपमा मम्मी-पापा को रोज़ की बातें सविस्तार सुनाती।  

तभी एक दिन अनु की भेंट शैलेश से हो गई थी। यूनीवर्सिटी में शोध-छात्र के रूप में शैलेश को देखकर अनु चौंक गई-  

‘‘तुम....आप.....यहाँ ?’’  

‘‘जी हाँ, आप ही के डिपार्टमेंट में रिसर्च कर रहा हूँ।’’ शैलेश के ओठों पर हल्की मुस्कान थी।  

‘‘पर....उस दिन तो.....’’बात पूरी न कर अनु अचकचा गई थी।’’  

‘‘हाँ अब भी वहाँ पार्ट-टाइम काम करता हूँ। टूरिस्ट सीज़न में होटलों और गेस्ट हाउसेज़ में कॉ लेज-स्टूडेंट्स का काम करना कोई नई बात नहीं है। अक्सर लड़के इस सीज़न में काफ़ी पैसे कमा लेते हैं।  

‘‘फिर पढ़ाई के लिए वक़्त कैसे निकाल पाते हैं आप ?’’  

‘‘जहाँ चाह, वहाँ राह। लोग पिक्चर देखने जाते हैं , पिकनिक पर जाते हैं पर क्या इन कामों के बीच पढ़ाई नहीं करते ? वैसे मेरे इस काम को आप मेरी ज़रूरत कह सकती हैं।  

‘‘हमें तो पढ़ाई के साथ कुछ और कर पाने का वक़्त ही नहीं मिल पाता। यहाँ तक कि घर में मम्मी को भी हेल्प नहीं कर पाते।’’ बड़ी सच्चाई और मासूमियत के साथ अनु ने अपनी बात कही थी।  

‘‘अच्छी लड़कियाँ माँ की मदद ज़रूर करती हैं।’’ शैलेश शैतानी से मुस्कराया था।  

‘‘तो क्या हम अच्छी लड़की नहीं हैं ?’’ अनु के स्वर में मान था।  

‘‘नहीं-नहीं, आप तो बहुत अच्छी हैं।’’  

‘‘थैंक्स।’’ अनु मुस्काई थी।  

‘‘वैसे आपको शिमला कैसा लग रहा है ?’’  

‘‘बहुत अच्छा लग रहा है, पर अभी सब जगह कहाँ देख पाए हैं ?’’  

‘‘हाँ, शिमला सचमुच अच्छा शहर है।’’  

‘‘हमें तो यहाँ के लोग भी बहुत अच्छे लगे हैं।’’  

‘‘यहाँ के लोगों में मैं भी शामिल हूँ न ?’’  

‘‘हम आपको जानते ही कितना हैं ?’’  

‘‘जान जाएँ तो ज़रूर बताइएगा। वैसे अगर कभी कोई ज़रूरत हो तो बेहिचक बताइएगा।’’  

‘ज़रूर, थैंक्स फ़ॉर दिस कंसर्न।’’  

शैलेश के चले जाने के बाद सुजाता दौड़ी आई थी। अनुपमा का हाथ पकड़, उत्सुकता से पूछा था-  

‘‘तू उसे जानती है अनु ?’’  

‘‘किसकी बात कर रही है सुजाता ?’’  

‘‘अरे वही जीनियस ऑफ दि डिपार्टमेंट मेरा मतलब शैलेश राज़ से है। अभी तुझसे वह बात कर रहा था न ?’’  

‘‘वह जीनियस है ?’’ अनु की आवाज़ में ढ़ेर- सा विस्मय था।  

‘‘हर बैच का टॉ पर है। जानती है अपनी मेहनत से पढ़ाई कर रहा है।’’  

‘‘ऐसा क्यों सुजाता ?’’  

‘‘उसके पिता नहीं हैं। माँ अक्सर बीमार रहती है। घर में छोटी बहिनें हैं। सबका भार शैलेश पर ही है। पार्ट-टाइम काम करता है और हर साल टॉ प करता है।’’ सुजाता की आँखों में शैलेश के लिए प्रशंसा की चमक थी।  

‘‘ताज़्जुब है, इतना काम करने के बावजूद, कोई पढ़ाई में भी सबसे ऊपर रहे।’’  

उस दिन से शैलेश के प्रति अनुपमा की दृष्टि बदल गई थी। घर आकर पापा-मम्मी को जब उसके बारे में बताया तो  पापा ने गम्भीरता से कहा था-  

‘‘ऐसे लड़के कुछ असाधारण कर दिखाते हैं। वह ज़रूर एक दिन कामयाबी पाएगा।’’  

यूनीवर्सिटी में शैलेश से अनुपमा की अक्सर बातचीत हो जाती। अनुपमा को जब कोई कठिनाई आती वह डिपार्टमेंट की लाइब्रेरी चली जाती। शैलेश उसकी हर कठिनाई इस आसानी से सुलझा देता कि अनुपमा ताज़्जुब में पड़ जाती। एक दिन हँसते हुए शैलेश से कहा था-  

‘‘लड़कियाँ आपको चलता-फिरता इन्साइक्लोपीडिया ठीक ही कहती हैं। हर प्रश्न का जबाव है आपके पास। कैसी इत्ती ढे़र सारी घटनाएँ, उनकी तारीखें यहाँ तक कि समय भी याद रख पाते हैं।’’  

‘‘लड़कियों की छोड़िए, आपका मेरे बारे में क्या ख़्याल है ?’’ शैलेश की उस मुग्ध दृष्टि का अनु जबाव नहीं दे सकी थी। सचमुच शैलेश का विषय-ज्ञान कई प्रोफ़ेसरों से ज़्यादा था।  

एक दिन शैलेश अनुपमा को अपने घर भी ले गया था। छोटे-छोटे दो कमरों के घर को बहिनों ने सुरूचिपूर्ण, पर सादग़ी से सजा रखा था। घर के अभाव छिपे नहीं थे, पर उनके चेहरों पर कोई शिक़ायत नहीं थी। वे ज़िंदगी और विशेषकर अपने भाई से पूरी तरह संतुष्ट थीं। आपसी प्यार की चमक से उनके चेहरे जगमगा रहे थे। उन सबसे मिलकर अनु को बहुत अच्छा लगा। जिस प्यार और अपनेपन से उन्होंने अनु का स्वागत किया, उसने अनु को अभिभूत किया था। मम्मी ठीक ही कहती हैं- ‘‘जिनके पास पैसा नहीं होता उनके पास प्यार की दौलत होती है। यह दौलत वे जी खोलकर लुटाते हैं।’’ शैलेश के घर यह बात पूरी तरह ठीक उतरती थी।  

पिछले कुछ दिनों से इतिहास विभाग में ख़ासी चहल-पहल का माहौल था। विभाग के सभी छात्र-छात्राएँ बेहद उत्साहित थे। पहली बार इतिहास विभाग में एक अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय  सेमिनार आयोजित किया जा रहा था। सबको अलग-अलग ड्यूटी दी गई थी। अनुपमा और सुजाता को सबके स्वागत का दायित्व दिया गया था।  

नियत दिन विशिष्ट व्यक्तियों की उपस्थिति में दीप जलाकर, राज्यपाल द्वारा सेमिनार का उद्घाटन किया गया। अनुपमा ने अपनी मीठी आवाज़ में स्वागत-गीत प्रस्तुत कर, सबको मुग्ध कर दिया। अनु को माँ का मीठा स्वर, विरा्सत में मिला था।  

सेमिनार में भारत और विदेशों से आए विद्वान इतिहासविद्, मेधावी शोध-कर्ताओं की उपस्थिति में शैलेश ने अपना पेपर प्रस्तुत कर अपनी नई खोज़ों से सबको चमत्कृत कर दिया। शैलेश के पेपर में मध्य युग के कुछ ऐसे ऐतिहासिक तथ्य दिए गए थे जिनकी चर्चा उस दृष्टिकोण से पहले नहीं की गई थी। शैलेश का पेपर सबके बीच चर्चा का विषय बन गया। अमेरिका से आए प्रोफ़ेसर ।ज़ॉन ने तो उसे अमेरिका आने का निमंत्रण भी दिया था। गम्भीर मुस्कान के साथ शैलेश ने सबकी बधाइयाँ स्वीकार की थीं। अनुपमा सचमुच अभिभूत थी-  

‘‘काश् ! हमारे पास आपकी बुद्धि का चैथाई अंश भी आ पाता।’’  

‘‘मेरी बुद्धि ही क्यों, सशरीर हाज़िर हूँ, स्वीकार कीजिए। यह बुद्धि भी आपकी गुलामी करेगी।’’ अनु को गहरी दृष्टि से देखकर शैलेश ने परिहास किया था।  

‘‘सच कह रहे हैं, आपकी बुद्धि क्या किसी की गुलामी कर सकती है ?’’ अपनी बड़ी-बड़ी आँखे शैलेश पर गड़ा, अनु ने परिहास का जवाब दिया था।  

‘‘हुक्म कीजिए, मेरा सब कुछ आपका है। आपकी मीठी आवाज़ का जादू तो किसी को भी अपने वश में कर सकता है।’’  

‘‘आपको भी ?’’ अचानक फ़िसल गए प्रश्न पर अनु ने जीभ दाँतो तले दबा ली थी।  

‘‘मैं तो कब का आपके जादू के जाल में फँस चुका हूँ, हाँ  आप बताइए मेरे बारे में क्या सोचती हैं आप ?’’  

शैलेश को बधाई देने आई सुजाता ने अनु को जवाब देने का मौक़ा नहीं दिया था-  

‘‘बधाई शैलेश जी। आज आपकी वज़ह से हमारे डिपार्टमेंट का पूरी दुनिया में नाम हो गया।’’  

‘‘थैंक्स।’’  

‘‘शैलेश जी, डॉक्टरेट मिल जाने के बाद आपकी क्या योजना है ?’’  

‘‘पी0एच0डी0 पूरी करके यूनीवर्सिटी में पढ़ाना ही मेरा सपना है सुजाता जी।’’  

‘‘हाँ वही ठीक होगा। आप जैसे मेधावी प्रोफ़ेसर से पढ़ने वाले स्टूडेंट्स का तो जीवन ही संवर जाएगा। उनमें भी आपकी तरह कुछ नया खोज़ निकालने की ललक रहेगी। इतिहास के लिए खोज़ निकालने की ललक चाहिए। इतिहास के लिए ऐसे ही शोधार्थी चाहिए।’’ सुजाता के हर शब्द से उत्साह छलक रहा था।  

‘‘नहीं, आप जैसे ब्रिलिएंट स्टूडेंट को तो आई0ए0एस0 बनना चाहिए। प्रशासनिक सेवा में आप ही की ज़रूरत है।’’  

‘‘आप चाहती हैं मैं टीचिंग प्रोफ़ेशन में न जाकर एडमिनिस्ट्रेटर बनूँ ? आई0ए0एस0 एक्ज़ाम की बात तो मैंने सोची ही नहीं।’’ अनु की बात पर शैलेश सोच में पड़ गया था।  

‘‘सिर्फ़ हम ही क्यों, कोई भी अक्लमंद आदमी आपको यही सलाह देगा। प्रोफ़ेसरशिप में रखा ही क्या है ? आई0ए0एस0 तो तीन जादुई शब्द हैं, कितना ग्लैमर है।’’ दूर के रिश्ते के कलक्टर मामा के वैभव ने अनु को हमेशा मुग्ध किया था।  

‘‘धत्तेरे की तेरे जादुई शब्दों और ग्लैमर की। शैलेश जी आप इसकी बातों पर मत जाइए, हमें विश्वास है आप कुछ ऐसा नया खोज़ निकालेंगे कि दुनिया भर में आपका नाम होगा।’’ सुजाता ने अनु की सलाह पर अपनी राय जताई थी।  

 ‘‘हौसला आफ़जाई के लिए शुक्रिया। वैसे आप दोनों सहेलियों  की पसंद बिल्कुल अलग है।’’ शैलेश हँस दिया था।  

घर आकर अनुपमा सोच में पड़ गई। पिछले कुछ दिनों से शैलेश ऐसे संकेत दे रहा था जिनमें अनुपमा के लिए गहरी चाहत साफ़ झलकती। खुद अनु को शैलेश पसंद था, उसकी बुद्धि, तेजस्विता उसे आकृष्ट करती। आई0ए0एस0 परीक्षा में क्वालीफ़ाई कर लेना उसके लिए कोई कठिन बात नहीं थी। अगर वह आई0ए0एस0 हो जाए तो बचपन से कुछ ‘ख़ास’ बन सकने की अनु की इच्छा ज़रूर पूरी हो सकती है।  

कलक्टर एक तरह से पूरे ज़िले का राजा ही तो होता है। स्कूल-कॉलेज में कलक्टर की पत्नी को पुरस्कार बाँटते देख, अनुपमा को उसके भाग्य से ईर्ष्या होती। क्या कोई दिन ऐसा आएगा जब वह पुरस्कार बाँट सकती ?  

शैलेश की बीमारी की बात सुन, अनुपमा उसे देखने, उसके घर गई थी। उसे देखते ही शैलेश खिल उठा-  

‘‘ज़हे नसीब, आप यर्हाँ आईं।’’  

‘‘ऐसे क्यों कहते हो, हम कोई ख़ास मेहमान तो नहीं हैं। अनु सकुचा आई थी।  

‘‘मेरे लिए तो आप बहुत ख़ास हैं, न जाने किस खु़शनसीब की क़िस्मत में आप हैं।’’ शैलेश गम्भीर था।  

‘‘छिः, ऐसे क्यों कहते हो।’’  

‘‘आई0ए0एस0 बने बिना क्या आप स्वीकार करेंगी ?’’  

‘‘प्लीज़, ऐसी बातें मत करो.....।’’अनु संकोच से भर उठी थी।  

‘‘अगर सच यही है तो आपका सपना पूरा करने का वादा रहा।’’ शैलेश हल्के से मुस्करा दिया।  

‘‘आप ज़ल्दी से अच्छे हो जाइए, हम बस यही कहने आए थे।’’  

धड़कते दिल से अनुपमा शैलेश की बातें दोहराती रही। शैलेश ने स्पष्ट शब्दों में अपने मन की बात बता दी थी। अनुपमा  भी शैलेश को चाहती थी, पर क्या उसके घर के अभाव, बहिनों के प्रति दायित्वों को अनदेखा किया जा सकता था ? शैलेश के लिए तो अनुपमा की हर बात पूरी करना, उसका सबसे बड़ा काम होता। अनुपमा परीक्षा में टाप करे, इसके लिए उसने अपने सारे नोट्स अनुपमा को दिए थे। उसे हमेशा उत्साहित करता।  

इसी बीच प्रोफ़ेसर देव के अमेरिका चले जाने पर शैलेश की उनके रिक्त स्थान पर लेक्चरर रूप में नियुक्ति हो गई थी। सुजाता ने शैलेश को सच्चे मन से बधाई दी थी।  

‘‘आप जैसे प्रतिभाशाली की मानसिक-क्षुधा केवल शिक्षण द्वारा ही पूर्ण हो सकती है। हमें खुशी है आप अपनी नई जिदगी शुरू कर रहे हैं।’’  

अकेले में शैलेश ने पूछा था-  

‘‘मेरी नियुक्ति से तुम खुश नहीं हो अनु ?’’  

‘‘हमने कब ऐसा कहा ?’’  

‘‘बधाई जो नहीं दी।’’  

‘‘बधाई शैलेश’’  

‘‘ऊँहुक, यह दिल से दी गई बधाई नहीं है। देखो अनु मेरी थीसिस एक साल में ज़रूर सबमिट हो जाएगी, उसके बाद ही कुछ और सोच सकता हूँ। मेरा इंतज़ार करोगी न अनु ?’’  

‘‘पता नहीं शैलेश, शादी का निर्णय सिर्फ़ मेरा ही तो नहीं होगा।’’ मम्मी-पापा के लिए एक हम ही तो हैं। आजकल वे दोनों बस हमारी शादी की ही बातें करते रहते हैं.....’’अनु ने अपने को बचाना चाहा था।  

‘‘तुम उन्हें हमारे में नहीं बता सकतीं अनु ? अगर कहो तो मैं तुम्हारे पापा से बात करने आ सकता हूँ ?’’  

‘‘नहीं....नहीं इतनी ज़ल्दबाज़ी ठीक नहीं, पापा से यह सब बता पाना उतना आसान नहीं है। पापा को टीचिंग लाइन पसंद नहीं.....। उनके सपने बहुत ऊँचे हैं।’’  

‘‘यानी यूनीवर्सिटी लेक्चरर उनकी निगाह में नकारा है।  ताज़्जुब है खुद शिक्षा-विभाग में होते हुए उनके ऐसे विचार हैं।’’ शैलेश कुछ उत्तेजित था।
‘‘तुम समझ नहीं पाओगे शैलेश, पर मम्मी के आई0ए0एस0 भाई को लेकर उनके मन में हमेशा से कुंठा रही है। मामा जी ही नहीं, मम्मी के मन में भी पापा की नौकरी के लिए कोई सम्मान नहीं रहा है। कई बार पापा ने अपमान के घूँट पिए हैं।’’
‘‘एक बात बताओ अनु, क्या तुम्हारी जिंदगी में व्यक्ति से ज़्यादा उसके पद का महत्व है ? क्या तुम आदमी की पोज़ीशन से विवाह करोगी ?’’

‘‘ऐसी बात नहीं है शैलेश, हम सचमुच तुम्हें बहुत चाहते हैं......।’’ शैलेश के उस सीधे सवाल ने अनु को असमंजस में डाल दिया था।

‘‘फिर इसमें अगर-मगर क्यों अनु ?’’

‘‘अच्छा-अच्छा, अभी तो हम शादी नहीं करने जा रहे हैं न ? हमें भी तो अपना एम0ए0 पूरा करना है। वक़्त आने पर देखा जाएगा।’’ अनु ने बात टाल दी।

चचेरी बहिन की शादी में पापा-मम्मी के साथ अनु भी दिल्ली गई थी। उसी शादी में नीरज ने अनु को देखा था। अमेरिका से कम्प्यूटर इंजीनियरिंग डिग्री के साथ, नीरज अमेरिका में ही एक ऊँची नौकरी कर रहा था। एक उपयुक्त भारतीय लड़की की तलाश में वह भारत आया था। शादी में अनुपमा के भोले सौंदर्य और उसके गले से निकले मीठे गीतों ने, नीरज का दिल जीत लिया।

नीरज के घर से अनुपमा के लिए विवाह का प्रस्ताव मिलना, आकाश के तारे झोली में आ जाने जैसी बात थी। मम्मी-पापा की खुशी का ठिकाना न था। नीरज का अपार वैभव उनकी बेटी का हो सकता है, इस बात पर विश्वास कर पाना सहज नहीं था। अनु कुछ सोच पाने की स्थिति में नहीं थी। शादी में जमा सारे रिश्तेदारों ने उस पर बधाइयों की इस तरह बौछार की कि ‘न’  कह सकने का सवाल ही नहीं उठ पाया।

नीरज के घरवालों ने तुरन्त सगाई के साथ ही शादी की पेशकश की थी। भगवान की कृपा से उनके यहाँ किसी चीज़ की कमी नहीं थी, चार दिन बाद नीरज को अमेरिका वापस लौटना था सो शादी करके ही जाए। बार-बार आना-जाना संभव नहीं हो पाता। अनु के चाचा ने भाई को समझाया था-  

‘‘ऐसा संबंध मिलना अनु का भाग्य है भाई साहब। दिल्ली में तो एक दिन में शादी का सारा इंतज़ाम हो जाता है। आप सारी ज़िम्मेवारी मुझ पर छोड़ दें।’’  

‘‘पर इतनी ज़ल्दी निर्णय ले लेना क्या ठीक होगा, सुरेन्द्र। अमेरिका में नीरज कैसे रह रहा है....हम कुछ भी तो नहीं जानते।’’  

‘‘अमेरिका में भी नीरज, कीचड़ में खिले कमल जैसा है भाई साहब। मेरे दोस्त का बेटा नीरज के साथ ही काम करता है, आप उस तरफ़ से निश्चिन्त रहें। अमेरिका से आने वाले लड़कों की शादियाँ ऐसे ही होती हैं। उनके पास समय ही कहाँ होता है ?’’  

हीरों के जे़वरात का वज़न सबके मन की दुविधा मिटा गया। अनु ने भी और क्या चाहा था ? अमेरिका से भारत इस तरह आना-जाना मानों दिल्ली से शिमला जा रही हो। जीवन भर आटो, बस में सफ़र करने वाली अनु के लिए मर्सडीज़, लेक्सस कारें थी। अनु की एम0ए0 की पढ़ाई की समस्या भी नीरज ने दूर कर दी थी। अनु प्राइवेट उम्मीदवार की तरह जब चाहें परीक्षा दे सकती है। पर इससे ज़्यादा अच्छा होगा वह अमेरिका में टीचिंग या जर्नलिज्म का कोर्स कर ले।  

सब कुछ सपने जैसा लगा था। यूरोप में हनीमून मना दोनों का अमेरिका जाना तय हुआ था। बस चार दिनों में ही चाचा के घर से अनु की शादी हो गई थी। शिमला लौट पाने का अवसर भी नहीं था। शादी की रस्में स्वप्नवत् निबटा जब यूरोप जाने के लिए अनुपमा प्लेन में बैठी तो अचानक उसे लगा, वह  बेहद थक गई थी।

 नीरज ने उसका सूखा चेहरा देख पूछा था-  

‘‘आर यू ओ0के0 अनु ?’’  

‘‘जी...ई ! बहुत थक गए हैं।’’ आँखों से अनजाने ही आँसुओं की धारा बह निकली थी।  

‘‘कम ऑ न ! हर लड़की को एक न एक दिन अपने माँ-बाप का घर छोड़ना ही पड़ता है। कुछ पीलो, ठीक हो जाओगी।’’  

‘‘नहीं, हम बस सोना चाहते हैं, कितने दिनों से सो नहीं पाए।’’  

‘‘ठीक है अभी जितना सोना है सो लो, यूरोप में तो सोने का वक़्त नहीं मिलेगा।’’ हल्की मुस्कान के साथ नीरज ने कहा था। आँखे मूँदते ही शैलेश का चेहरा उभर आया था, उसने अनु से पूछा था-  

‘‘सच बताओ अनु, तुम व्यक्ति से प्यार करती हो या उसकी पोज़ीशन से ?’’  

डरकर अनु ने आँखें खोल दीं थीं। उसके जीवन में अचानक यह कैसा मोड़ आ गया था। शैलेश उसके विवाह की ख़बर को कैसे लेगा ? लेकिन अनु ने क्या उससे ऐसा कोई वादा किया था ?  

लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट के बाहर नीरज के लिए कार प्रतीक्षा कर रही थी। एयरपोर्ट से होटल जाते रास्ते में प्रिन्सेस डायना का महल पड़ा था। महल के बाहर जैसे उदासी पसरी हुई थी। अनु का मन उदास हो आया। डायना के आकाश छूते सपनों, महत्वाकांक्षाओं का अचानक इतना दुखद अंत ?  

नीरज एक अच्छा पति था, पर उसके काम की व्यस्तता ने उसे नितान्त अव्यावहारिक बना दिया था। उसकी जिं।दगी में सेंटीमेंट्स के लिए स्थान नहीं था। अनु के जिस गुण ने उसे आकृष्ट किया, उसे याद नहीं रहा कि अनु एक अच्छी गायिका है। उसकी आवाज़ में कोयल की मिठास है। अनु उसकी पत्नी  थी, उस पर उसका पूरा अधिकार है, बस यह बात उसे अच्छी तरह याद रहती। पत्नी का फ़र्ज़ है वह पति की हर ज़रूरत पूरी करे, उसकी सुख-सुविधा का ध्यान रखे। बदले में अनु के लिए धन-सम्पत्ति की कमी नहीं थी। कहीं भी आने-जाने के लिए कार थी, पहनने को बढ़िया से बढ़िया कपड़े और जे़वर थे। औरतों को और चाहिए भी क्या ? जब जी चाहे किटी पार्टी दे डालो, डी वी डी पर पिक्चर लगाकर मन बहला लो। पढ़ाई की ओर अनु ने भी ध्यान नहीं दिया। अकेली अनु को शिमला का अपना डिपार्टमेंट याद आता। शैलेश की याद जैसे खाली पलों को जीवन्त बना जाती। कई बार जी चाहता उसे पत्र लिखे, पर कभी हिम्मत न बटोर पाती। अब तक तो सुजाता की एम0ए0 फ़ाइनल की परीक्षा भी समाप्त हो गई होगी।  

एक साल अमेरिका में बिताने के बाद नीरज ने भारत में अपना कम्प्यूटर-बिज़नेस शुरू करने का निर्णय लिया था। पापा ने अपना ट्राँसफ़र रामगढ़ करा लिया था। शिमला जाने के सारे रास्ते बंद थे। नया काम ज़माने की व्यस्तता ने नीरज को घर से और भी दूर कर दिया। अनु बोर हो जाती। पुरानी किताबें झाड़-पोंछकर निकाली और एम0ए0 की परीक्षा की तैयारी में अनु ने भी अपने को व्यस्त कर लिया। करेसपांडेस कोर्स के पाठों के उत्तर देती अनु की कल्पना में शैलेश का तेजस्वी चेहरा चमकता दीखता। अब तक तो उसकी पी-एच0डी0 पूरी हो गई होगी। कहाँ होगा शैलेश ?  

तीन सालों का लम्बा वक़्त बीत गया। आज अख़बार खोलते ही शैलेश की फ़ोटो ने उसका अतीत फिर सजीव कर दिया। अन्ततः शैलेश ने पी-एच0डी0 पूरी कर ही ली। उसके बायोडाटा में दिया गया है उसके शोध-कार्य पर उसे पुरस्कृत किया गया है।  

पूरा एक दिन बीत गया, शैलेश का फ़ोन नहीं आया। शायद अनु ने जिस व्यक्ति को मैसेज दिया, वह शैलेश को  

मैसेज देना ही भूल गया हो ?  

अनु ने फिर शैलेश का नम्बर डायल किया था।  

‘‘यस ! शैलेश राज़ स्पीकिंग।’’ दूसरी ओर से शैलेश की सधी, गम्भीर आवाज़ सुन, अनु रोमांचित हो उठी।  

‘‘हलो शैलेश, हम अनुपमा बोल रहे हैं।’’ अनु की आवाज़ में उत्साह छलक आया था। कुछ देर मौन के बाद शैलेश की आवाज़ सुनाई दी थी-  

‘‘बताइए अनुपमा जी, मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ ?’’ आवाज़ में व्यवसायिकता के पुट ने अनु को चौंका दिया।  

‘‘शायद तुमने.....आपने हमें पहचाना नहीं, हम शिमला में आपके....।’’  

‘‘ठीक कहती हैं, मैंने आपको सममुच नहीं पहचाना।’’  

‘‘आप हमसे नाराज़ हैं ?’’ अपमानित अनु का गला रूँध गया था।  

‘‘नाराज़गी अपनों से होती है। आप एक अपरिचिता हैं। अच्छा हो आप अपना काम ज़ल्दी बता दें, मुझे देर हो रही है।’’  

ज़वाब में अनुपमा की सुबकियाँ सुनाई दे रही थीं।  

‘‘देखिए मैडम, इस तरह का व्यवहार आपको शोभा नहीं देता। आप एक समझदार महिला हैं और मैं एक ज़िम्मेवार ऑफ़िसर हूँ....।’’  

‘‘हमें माफ़ कर दो शैलेश वर्ना हम मर जाएँगे। तुम्हारा ऐसा बर्ताव हम नहीं सह पाएँगे।’’  

‘‘किस बात की माफ़ी माँग रही हैं आप ?  आपने मुझे स्पष्ट बता दिया था आप एक ऊँचे ओहदे वाले व्यक्ति की पत्नी बनना चाहती थीं। आपने व्यक्ति से नहीं, उसकी पोज़ीशन से प्यार किया। अब आपको आपका मनचाहा मिल गया फ़िर यह रोना-धोना क्यों ?’’ आवाज़ में पता नहीं व्यंग्य था या परिहास ?  

‘‘तुमने तो यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर बनना चाहा था फिर भी प्रशासनिक सेवा को अपना प्रोफ़ेशन बनाया, क्यों शैलेश ?’’  

‘‘ किसी ने जिदगी की कड़वी सच्चाई बताई, अनु। एक शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति ही सबके आदर का पात्र बन सकता है, उसे चाहा जा सकता है, बस मुझे ज़िद आ गई वही बन गया, पर सब लड़कियाँ तुम्हारी तरह व्यावहारिक और महत्वाकांक्षी नहीं होतीं, अनु। इसी सच्चाई ने मुझे जीने का मंत्र दिया है।’’  

‘‘कौन है वह लड़की जिसने तुम्हें जीने का मंत्र दिया है शैलेश ?’’ अनजाने ही अनु की आवाज़ में ईर्ष्या  छलक आई।

‘‘सुजाता ! उसने मुझे चाहा। मुझे पाकर उसे जिंदगी की सारी खुशियाँ मिल गई.....। जब मैं लेक्चरर था तभी हमने विवाह किया।’’  

‘‘तो यह क्या सुजाता की इच्छा थी तुम यूनीवर्सिटी लेक्चररशिप छोड़कर डी0एम बनों।’’  

‘‘नहीं, उसने तो यूनीवर्सिटी न छोड़ने की ज़िद की थी..... यह तो मेरी ज़िद या बचपना था....।’’ बात पूरी न कर, शैलेश रूक गया था।  

‘‘अभी सुजाता कहाँ है ?’’  

‘‘नीचे, मेरा इंतज़ार कर रही है। हम दोनों बिना पैसे लिए एक कोचिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाते हैं।’’  

‘‘क्यों शैलेश, अब तुम्हें इसकी क्या ज़रूरत है ?’’  

‘‘यह बात तुम नहीं समझ सकतीं, पर सुजाता जानती है, पढ़ाना मेरा पहला प्यार है, इस प्रोफ़ेशन में आना मेरी वादा-आदायगी थी। वह चाहती है मैं विद्यार्थियों का मार्ग-दर्शन कर, उन्हें कुछ नया करने के लिए प्रेरित करूँ।’’  

‘‘वादा-आदायगी, कहीं तुम मुझसे किए वादे की बात तो नहीं कर रहे हो शैलेश ?’’ अनु का रोम-रोम कान बन गया था।  

जी नहीं ! एक बात कहना चाहूँगा, मेहरबानी करके आज  के बाद दोबारा कभी फ़ोन मत कीजिएगा। हम अपने ‘आज’ से बेहद खुश हैं, उसमें अतीत का ज़हर नहीं घोलना चाहूँगा। थैंक्स फ़ॉर कॉ लिंग। गुड बाय।’’  

उधर से फ़ोन काट दिया गया था। हथेलियों में मुँह छिपा, अनु फूट-फूट कर रो पड़ी।  
  

अस्मिता के नाम


अस्मिता के नाम

हाथ में विकलांगों वाली लकड़ी, चेहरे पर अनगिनत झुर्रियों वाली, उस वृद्धा को नीता ने पहली बार दिल्ली-हाट में देखा था। पेंटिंग वाले स्टॉल पर वह एक-एक चित्र को बारीकी से देख रही थीं। नीता उसके चयन की कायल हो गई।  

‘‘लगता है, आप भी चित्रकला में खासा दख़ल रखती हैं, आंटी।''  

‘‘तुमने कैसे जाना ?’’ हल्की- सी मुस्कान होंठों पर फैलकर, सिमट आई।  

‘‘आपने जितने भी चित्र चुने, सब मेरे फ़ेवरिट चित्र हैं।’’  

‘‘इसका मतलब तुम्हें भी पेंटिंग में रूचि है। चित्र।कारी करती भी हो या बस शौक़ रखती हो ?’’  

‘‘बस शौकिया कभी-कभी ब्रश चला लेती हूँ। ये चित्र मेरी सहेली ने बनाए हैं।’’ हँसती नीता ने बताया।  

‘‘क्या नाम है, तुम्हारा ? कहीं पढ़ती हो ? तुमसे मिलकर अच्छा लगा, बेटी।’’  

‘‘मैं नीता हूँ और मैं पढ़ती नहीं, पढ़ाती हूँ। आंटी, क्या मैं टीचर नहीं दिखती ?’’ नीता मायूस- सी दिखी।  

‘‘टीचर तो सचमुच नहीं दिखती। वैसे उम्र से कम दिखना अच्छी बात है, वर्ना मेरी तरह अपनी उम्र से दस-पंद्रह साल ज़्यादा दिखना अच्छा नहीं होता, न ?’’ उदास- सी मुस्कराहट होंठो पर तिर आई।  

‘‘आप क्या करती हैं, आंटी ?’’  

‘‘मैं ? कभी प्रोफ़ेसर हुआ करती थी, नीता। अब तो अकेली बैठी, पुराने दिन याद किया करती हूँ।’’ चित्रों का पेमेंट करतीं, वह हल्के से हँस दीं।  

छड़ी के सहारे धीमे-धीमें क़दम बढ़ातीं, वह चली गईं। नीता की दृष्टि ने कुछ देर उनका पीछा किया फिर अपने काम में जुट गई।  
   
करीब एक महीने बाद नीता फिर दिल्ली-हाट आई थी। यह एक ऐसी जगह है, वहाँ आकर इंसान मेले का- सा आनंद उठा लेता है। आज रीतेश ने यहीं मिलने की बात कही थी। स्नैक-स्टाल से कॉफ़ी लाकर, नीता एक खाली टेबल पर बैठ गई। काम में लगे रीतेश को वक़्त का ज़रा भी ख्याल नहीं रहता। नीता को उसके इंतज़ार में हमेशा काफ़ी देर तक बैठना पड़ता है।  

अचानक पीछे से किसी ने प्यार से पूछा-  

‘‘तुम्हारे साथ बैठ सकती हूँ नीता ?’’  

निगाह उठाते ही नीता ने देखा, चेहरे पर खिली मुस्कान के साथ वह खड़ी थीं।  

‘‘अरे आप। आइए, आंटी।’’  

‘‘थैंक्स ! किसी का इंतजार कर रही हो ?’’  

‘‘जी, पर आपने कैसे जाना ?’’  

‘‘कभी मैं भी तुम्हारी उम्र से गुज़री हूँ, नीता।’’ अपनी बात कह, वह हल्के से मुस्करा दीं।  

‘‘यानी कि आप भी किसी का इंतज़ार किया करती थीं, ठीक कहा न, आंटी ? कौन थे, वह ?’’ नीता शैतानी से चहक उठी।  

‘‘वो सब तो अब एक दुःस्वप्न बनकर रह गया, नीता। वैसे सपने याद करने से क्या फ़ायदा ?’’ उदास आवाज़ में उन्होंने बात खत्म कर दी।  

‘‘नहीं, आंटी। प्लीज बताइए न , वो कौन थे ?’’  

‘‘तुम जिसका इंतज़ार कर रही हो, वह आने वाला ही होगा। मैं बस एक कप कॉफ़ी के लिए आई हूँ।’’ बात उन्होंने टाल दी। उनके उठने के उपक्रम पर नीता तत्परता से खड़ी हो गई।  

‘‘आप बैठिए, आंटी। मैं आपके लिए कॉफ़ी लाती हूँ।’’  

‘‘ओ0के0 पर पैसे तो लिए जाओ।’’ उनकी बात अनसुनी  कर, नीता एक मग कॉफ़ी ले आई।  

‘‘थैंक्स ! तुम्हें देखकर लगता है, काश् ! मेरी भी तुम्हारी जैसी एक बेटी होती।’’  

‘‘आपके घर में कौन-कौन है, आंटी ?’’  

‘‘मैं और मेरे घर की दीवारें।’’ उदासी आँखों में तैर आई।  

‘‘क्या आपने शादी नहीं की ? घर में भाई-बहिन, कोई और रिश्तेदार तो होंगे ?’’  

‘‘हाँ, नीता ! जैसे दिल्ली-हाट की भीड़ में इतने लोगों के बीच भी अकेली हूँ, वैसे ही सबके होते हुए भी, अकेली छोड़ दी गई हूँ।’’  

‘‘क्यों आंटी, ऐसा क्यों हुआ ?’’  

‘‘मेरी किस्मत ! किसे दोष दूँ, बेटी ! मेरी ज़िंदगी तो एक अफ़साना भर बनकर रह गई है।’’  

‘‘अपनी कहानी मुझे नहीं सुनाएँगी, आंटी ?’’  

‘‘कभी घर आ जाओ ! जो मैं शब्दों में न कह पाऊँ, घर की दीवारें कह जाएँगी।’’  

‘‘आपका घर कहाँ है, आंटी ?’’ कॉफ़ी का मग टेबल पर रख, पर्स से एक कार्ड निकाल, नीता को थमा दिया।  

‘‘ओ माई ग़ॉड ! आप इतनी दूर से यहाँ आती हैं ? कैसे आंटी ?’’  

‘‘पहले कार से आया करती थी। जब से कार ड्राइव करने की शक्ति छिन गई, तब से ये बस ही मेरा सहारा बन गई है।’’  

‘‘क्या ? आप बस से इतनी लम्बी दूरी तय करती हैं ? आपके घर से तो यहाँ के लिए कोई डाइरेक्ट बस भी नहीं है, आंटी।’’  

‘‘हाँ, शिवाजी स्टेडियम से बस बदलती हूँ। पहले सब कुछ कठिन लगा, पर अभ्यास से सब कुछ सहज हो गया है।’’  

‘‘यू आर ग्रेट, आंटी।’’  

तभी पीछे से आए रीतेश ने ‘हलो’ कह, नीता को चौंका  दिया।  

‘‘अच्छा, जनाब के अब चार बजे है। पता है , एक घंटे से वेट कर रही हूँ। तुम्हारा तो घड़ी पहनना बेकार है, रीतेश।’’ नीता ने गुस्सा दिखाया।  

‘‘साॅरी ! अब लड़ाई करके और ज़्यादा वक़्त मत करो।’’ रीतेश ने हँसकर नीता को मनाना चाहा।  

‘‘हाँ-हाँ,वक़्त की वैल्यू तो तुम्हीं जानते हो। आपने देखा, आंटी....।’’  

अचानक नीता को उनकी याद हो आई। दोनों की नोकझोंक देख, वह मुस्करा रही थीं। अपनी छड़ी उठा, खड़े होने के उनके प्रयास पर नीता को परिचय कराने की सुध आई।  

‘‘रीतेश, यह आंटी है। यूनीवर्सटी में प्रोफ़ेसर थीं। जानते हो, आंटी बहुत अच्छी आर्टिस्ट हैं। आंटी इसे तो आप पहचान ही गई होंगी, यही है लेट-लतीफ़ रीतेश.....।’’  

‘‘नमस्ते, आंटी ! वैसे इसने जितनी तारीफ़ की है, उतना बुरा नहीं हूँ। सच्चाई ये है कि यह खुद टीचर है, इसलिए एक-एक मिनट का हिसाब रखती है।’’  

‘‘पंक्चुएलिटी तो अच्छी बात है, बेटा, वर्ना वक़्त निकल जाता है और इंसान के पास पछतावे के सिवा कुछ नहीं रह जाता।’’  

‘‘बिल्कुल ठीक कहती हैं, आंटी ! बैठिए न !’’ आंटी को खड़ा होता देख, रीतेश ने झूठा निमंत्रण दिया।  

‘‘अब तुम दोनों एनज्वाय करो। दो के बीच तीसरे का क्या काम।’’  

‘‘आंटी, आपकी कहानी सुनने आपके घर ज़रूर आऊँगी। यह मेरा वादा रहा।’’  

‘‘तुम्हारे आने का इंतज़ार रहेगा, नीता ! छड़ी ठकठकाती वह चली गईं’’  

‘‘इस बूढ़ी से तेरी दोस्ती कैसे को गई, यार ?’’  

‘‘बूढ़ी की जगह आंटी नहीं कह सकते ? बड़ों की इज़्ज़त करना सीखो, रीतेश।’’  

‘‘सारी ! वैसे उम्र का फ़र्क भले ही हो, पर नेचर तेरा भी बूढ़ियों वाला है। ठीक कहा न ?’’  

‘‘रीतेश, आई विल किल यू।’’ शैतानी से हँसते रीतेश की ओर नीता ने मुट्ठी तानी।  

‘‘ओह ग़ॉड ! सीन मन क्रिएट कर। चल उधर खाली कोने में चलते हैं।’’ नीता का हाथ पकड़ रीतेश चला गया।  

नव वर्ष पर टीचर्स-पिकनिक सुभाष पार्क में मनाई जाने की घोषणा ने, नीता को आंटी की याद दिला दी। पार्क के पास ही तो आंटी का घर है। उनके घर जाने का नीता ने वादा किया था। इससे अच्छा मौका फिर कब मिलेगा ? पूरे दिन का वक़्त है, कुछ देर को आंटी के पास जाने में किसी को आपत्ति नहीं होगी। छह-सात मटर की कचैड़ियाँ पैककर, पर्स में डाल लीं।  

उनका घर ढूँढ़ने में कोई दिक्कत नहीं हुई। खोमचा लगाने वाले भी ‘‘दादी’ का घर जानते थे। कॉ ल-बेल बजाकर नीता को कुछ देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। दरवाज़ा खोलती आंटी के चेहरे पर खुशी खिल आई।  

‘‘अरे, नीता बेटी ! आओ-आओ, अंदर आ जाओ।’’  

आंटी के पीछे कमरे में प्रविष्ट होती नीता की निगाहें, चारों ओर का जायज़ा ले रही थीं। ज़रूरत से ज़्यादा सामान ने ड्राइंग रूम छोटा कर दिया था। देश-विदेश के कीमती डेकोरेशन पीसेज़ पर धूल की परत थी। अनूठे नक्काशीदार सोफ़े का भी वही हाल था। ड्राइंग-रूम से खुलते डाइनिंग रूम में भी क्राकरी की भरमार थी। एक बात ज़रूर थी, दीवारों पर लटकी पेंटिंग्स साफ़ चमक रही थीं। पेंटिग्स के अलावा बाकी घर ख़ासा उपेक्षित था। हर पेंटिंग के नीचे एक छोटा- सा नाम ‘फरीदा’ ज़रूर अंकित था।  

‘‘घर की बदहाली देख रही हो, बेटी ?’’  

‘‘नहीं, आंटी ! इस घर में छिपे कलाकार को खोज़ रही  हूँ। ये पेंटिंग्स आपने ही बनाई हैं, न ?’’  

‘‘हाँ, ये उस वक़्त की पेंटिंग्स हैं, जब यह बूढ़ी, एक जिं़दादिल लड़की फ़रीदा हुआ करती थी।’’ आंटी ने लम्बी साँस ली।  

‘‘आपकी ज़िदंगी में ज़रूर कोई ट्रेजेडी घटी है, आंटी ! कौन थे वो ?’’  

‘‘ठीक कहती हो, बेटी ! मैने उसे अपना सब कुछ समझने की भूल की थी।’’ वह उदास थीं।  

‘‘मुझे बताइए, आंटी ! क्या हुआ ? अपना दर्द बाँटने से तकलीफ़ कम हो जाती है।’’  

‘‘हम दोनों की मुलाकात लाइब्रेरी में हुई थी। एम0एस0सी0 में टॉप करने की वजह से मेरा उत्साह बढ़ गया था। घर में सात भाई-बहिनों की ज़मात में, मैं पाँचवे नम्बर पर थी। अब्बू ने न कभी हमारी पढ़ाई-लिखाई में रूचि ली, न कोई बाधा डाली। रिसर्च-वर्क के बाद लेक्चररशिप ही मेरा सपना था। हेड ऑफ दि डिपार्टमेंट, इंटरनेशनल फ़ेम के इंसान थे। उनके साथ रिसर्च करने के चांस पर मैं बेहद खुश थी, पर उनका ज़्यादा वक़्त विदेश-यात्राओं में ही बीतता। गाइडेंस के बिना मैं काम नहीं कर पा रही थी। जावेद उस वक़्त डी0यस0सी0 कर रहे थे। बदकिस्मती से एम0एस0सी0 में उन्हें सेकेंड डिव़ीजन मिल गई थी। यूनिवर्सिटी-लेक्चररशिप के लिए  फ़र्स्ट डिवीज़न कैंडिडेट्स के सामने उन्हें चाँस नहीं मिल सका।  

मेरी परेशानी में जावेद ने सहारा दिया। किताबों की लिस्ट और काम शुरू करने में पूरी मदद दी। पहला चैप्टर देखकर जावेद ने करेक्शन्स भी कर दिए। एक दिन मज़ाक में कह बैठी-  

‘‘अब तो आप ही हमारे गाइड बन गए हैं। क्यों न अपने मशहूर गाइड की जगह आपका नाम दे दूँ।’’  

‘‘तौबा-तौबा, ऐसी गुस्ताख़ी न कीजिएगा। आप जैसी हसीना, उससे दामन छुड़ा लें। उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं होगा। सारा  गुस्सा इस ग़रीब पर ही उतरेगा।’’ नाटकीय अंदाज में जावेद ने कान पकड़ लिए।  

फ़रीदा हँस पड़ी ! बेहद मामूली से रूप-रंग वाली फ़रीदा किसी भी हालत में हसीन नहीं कही जा सकतीं। अपने लिए ‘हसीना’ का खि़ताब उसे अच्छा लगा। उस दिन के बाद से फ़रीदा अपने पर नज़र रखने लगी। कपड़ों के प्रति बेहद लापरवाह फ़रीदा, अब अपने कपड़ों के प्रति सतर्क हो र्गइं। यू0जी0सी0 की स्कॉलरशिप मिलने पर फ़रीदा के चेहरे पर आत्मविश्वास झलकने लगा। पहली राशि मिलते ही फ़रीदा ने जावेद के लिए कीमती शर्ट और टाई खरीद डाली।  

‘‘ये क्या, भेंट तो मुझे देनी चाहिए। उल्टे तुम मेरे लिए पैसे खर्च कर्र आईं।’’ जावेद क्षुब्ध दीख रहा था।  

‘‘उसमें क्या फ़र्क पड़ता है, जब तुम्हें जॉब मिल जाए, मेरे लिए भेंट खरीद लेना ! मैं खुशी से ले लूँगी।’’ फ़रीदा ने मज़ाक किया।  

‘‘पता नहीं वो दिन कब आएगा। काश् ! हम तुम्हारी तरह टॉपर होते।’’ मायूस जावेद ने कहा।  

‘‘परेशान क्यों होते हैं, डॉक्टर ऑफ़ साइंस  की डिग्री मिलने के बाद ज़रूर अच्छा जॉब मिल जाएगा। लेक्चररशिप के अलावा कोई दूसरा काम भी तो ढूंढ सकते हो।’’  

‘‘नहीं, फ़रीदा ! टीचिंग प्रोफे़शन के लिए ही मैने पी0एच0डी0 और डी0एस0सी0 की है। मैं इसके अलावा दूसरा कोई जॉब नहीं ले सकता।’’  

‘‘हम एक तरीका बताएँ, तुम शादी कर लो। कहते हैं, मर्द की किस्मत उसकी बीबी की किस्मत से खुलती है।’’ हँसते हुए फ़रीदा ने कहा।  

‘‘बात सिर्फ़ शादी करने की ही तो नहीं हैं शादी के बाद बीवी के नाज़-नख़रे कहाँ से उठाऊँगा। डिपार्टमेंट से जो फ़ेलोशिप मिलती है, उससे दो लोगो का पेट भले ही भर जाए, बीवी के  अरमान तो पूरे नहीं कर सकता।’’ मायूसी से जावेद ने कहा।  

‘‘क्यों, डिपार्टमेंट की सारी लड़कियों के नाज़-नख़रे उठाने का तो तुम्हें अच्छा एक्सपीरिएंस है।’’ फ़रीदा हँस रही थी।  

‘‘क्या बात करती हो, फ़रीदा ! मेरी तो आदत सबकी हेल्प करने की है। सच कहूँ, तुम्हारे सिवा मैं किसी को अपना नहीं मानता।’’ संजीदग़ी से जावेद ने कहा।  

‘‘मैं तो मज़ाक कर रही थी। हो सकता है, कोई ऐसी लड़की हो, जो बस तुम्हारा साथ चाहे। उसके कोई नख़रे या फ़र्माइशें न हो।’’  

‘‘क्या, तुम किसी ऐसी लड़की को जानती हो, फ़रीदा ?’’ ताज़्जुब से जावेद ने पूछा।  

‘‘हाँ, पर क्या तुम उसे सचमुच नहीं जानते, जावेद ?’’ फ़रीदा शरारत से मुस्करा रही थी।  

‘‘माफ़ करना, कहीं तुम्हारा इशारा अपनी ओर तो नहीं’’ डरते-डरते जावेद ने कहा।  

‘‘ठीक समझे, जनाब ! क्या ख़्याल है, आपका, मैं शायद नख़रीली लड़की तो नहीं हूँ, न ?’’ फ़रीदा की आँखें चमक रही थीं।  

‘‘ओह फ़रीदा ! मैं तो आँखें रहते, अंधा ही रहा। मुझसे शादी करोगी, मेरा मतलब, अगर मुझे अपने लायक समझती हो तो क्या मुझसे शादी करके, मेरी इज़्ज़त बढ़ाओगी।’’  

‘‘हाँ, जावेद ! मैं तुम्हें बहुत चाहती हूँ। कब से इसी इंतज़ार में थी।’’ खुशी से फ़रीदा का चेहरा चमक उठा।  

अपनी कहानी सुनाती फ़रीदा आंटी अचानक चुप हो र्गइं।’ नीता को व्यवधान सहन नहीं हुआ। इतनी अच्छी रोमांटिक कहानी का अंत क्या हुआ।  

‘‘फिर क्या हुआ, आंटी ?’’  

‘‘फिर हम दोनों की शादी हो गई।’’  

‘‘आपके घरवालों ने विरोध नहीं किया ?’’  

‘‘पापा को दो हार्ट अटैक पड़ चुके थे। उन्हें बेटियों की शादी निबटाने की ज़ल्दी थी। वैसे भी जावेद में कोई बुराई भी तो नहीं नज़र आई। जानती है, नीता हमारी शादी के दो महीने बाद अब्बू चल बसे। सबको यही संतोष था, उनकी नज़रों के सामने लड़कियाँ अपने-अपने घर की हो चुकी थीं।’’  

‘‘मेरा कहा, सच हुआ। जावेद को कनाडा में जॉब मिल गया। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। जी चाहता था, सब छोड़छाड़, जावेद के साथ कनाडा उड़ जाऊँ। जावेद ने समझाया, अपनी थीसिस पूरी कर लूँ तब तक जावेद भी कनाडा में सेटल हो जाएँगे। भारी मन से जावेद को बिदा कर, काम में जुट गई।  

सात-आठ महीने, दिन-रात मेहनत की। थीसिस जमा करने के बाद, कनाडा की राह ली थी। मुझे लेने जावेद एयरपोर्ट आए थे, पर जिस गर्मजोशी की उम्मीद थी, वह नदारद थी। चेहरे पर परेशानी और थकान देख, मज़ाक कर बैठी-  

‘‘लगता है, हमारे आने से खुशी नहीं हुई। कहीं हमारी जगह, किसी और ने तो नहीं भर दी ?’’  

‘‘बेकार की बातें मत करो। यहाँ काम का इतना प्रेशर रहता है कि साँस लेना भी मुश्किल लगता है।’’ जावेद की झुंझलाहट अज़ीब- सी थी।  

सुव्यवस्थित घर ने फ़रीदा को फिर चौंका दिया।  

‘‘वाह, लगता है, यहाँ की ट्रेनिंग पक्की है। इंडिया में तो हर जगह तुम्हारा सामान बिखरा रहता था।’’  

‘‘हूँ ! देखो फ्रिज़ में खाना है। कुछ और चाहिए तो पैंट्री से ले लेना। उधर बाथरूम और वो सामने बेडरूम है.....।’’  

‘‘अरे, तुम तो इतनी जल्दी में हो, जैसे किसी तरह पीछा छूटे। भई बीवी हूँ तुम्हारी। आठ महीने बाद आई हूँ।’’ हँसकर फ़रीदा ने कहा।  

‘‘हाँ-हाँ, जानता हूँ पर अभी मेरा लेक्चर है, मुझे तो जाना ही होगा। ओ0के0 बाय। टेक केयर।’’  

फ़रीदा को कुछ कहने का मौक़ा दिए बिना, जावेद चले गए। फ़रीदा का मन बुझ गया। क्या इसी स्वागत की उम्मीद में वह दौड़ी आई थी ? कनाडा अचानक पहुँच, जावेद को चैंका देने की नीयत से उसने जावेद को ख़बर भी नहीं दी थी। दो दिन पहले जावेद ने हेड आफ़ दि डिपार्टमेंट के पास किसी ज़रूरी काम से फ़ोन किया था, उन्होंने फ़रीदा के कनाडा पहुँचने की इत्तला दे, सारा ससपेंस ही खत्म कर दिया। कहीं इसी वज़ह से तो जावेद नाराज़ नहीं ? कुछ देर बाद अपने को सहेज़ फ़रीदा, बाथरूम में शावर लेने गई। कोने में तौलिया पड़ी देख, फ़रीदा के ओंठों पर मुस्कान आगई। जावेद की आदत थी, नहाने के बाद तौलिया से बदन पोंछ, तौलिया एक कोने में डाल देता। उसका कहना था-  

‘‘एक बार जिससे बदन पोंछ लिया बिना धोए, उसका इस्तेमाल करना ग़लत बात है।’’  

बरसात में तौलिए सुखाना कठिन होता, पर जावेद आदत से बाज़ नहीं आता। तौलिया धोना यहाँ तो आसान है। वाशिंग मशीन में डाल दो, काम हो गया। अपने उतारे कपड़ों के साथ जावेद की तौलिया उठाती फ़रीदा जड़ बन गई। तौलिए के नीचे स्त्रियों के आंतरिक वस्त्र, उतरे पड़े थे। सच्चाई समझते देर नहीं लगी थी। बेड-रूम में परफ़्यूम की सुगंध ड्रेसर की दराज़ में हेयर-पिन्स,ड्रेसिंग टेबल पर लेड़ीज़ ब्रश और कंघी में सुनहरे बालों का गुच्छा, एक ही कहानी बता रहा था कि सुव्यवस्था में जावेद का नहीं, किसी स्त्री के हाथों का स्पर्श था। निश्चय ही जावेद अकेला नहीं, किसी के साथ रह रहा था।  

बिना कुछ खाए-पिए फ़रीदा, पत्थर की मूर्ति- सी निश्चल बैठी रही। शाम को आया जावेद, अपेक्षाकृत अच्छे मूड में था।
‘‘कहो, अपना घर कैसा लगा ? सॉरी तुम्हारे आने पर ठीक से तुम्हारा स्वागत नहीं कर सका। कोई बात नहीं, रात में अच्छी तरह कम्पेनसेट कर दूँगा।’’ शरारत से जावेद मुस्कराया।  
 ‘‘वह कौन है, जावेद ?’’ गम्भीर फ़रीदा ने इतना ही पूछा।  

‘‘किसकी बात कर रही हो, डार्लिंग।’’  

‘‘वहीं जो यहाँ, मेरी जगह, तुम्हारे साथ रहती थी।’’  

‘‘क्या बात कर रही हो, यहाँ कौन रहता है ?’’ जावेद की हँसी खोखली थी।  

‘‘देखो जावेद, झूठ बोलने से कोई फ़ायदा नहीं। मैं सच्चाई जान चुकी हूँ। कुछ देर पहले तुम दोनों के नाम यह निमंत्राण-पत्र आया है’’  

‘‘मुझे माफ़ करना फ़रीदा ! तुम्हारे बिना यहाँ अपने को इतना अकेला महसूस किया कि किसी सहारे के बिना जी पाना, मुश्किल लगा।’’  

‘‘इसलिए जो जगह सिर्फ़ मेरी थी, तुमने उसे दे डाली ?’’ बेहद आहत स्वर में फ़रीदा ने सवाल किया।  

‘‘देखो, फ़रीदा, यहाँ जिंद़गी का तरीका बिल्कुल अलग है। किसी के साथ रहना एक मामूली बात है।’’  

‘‘तुम तो कनेडियन नहीं हो, जावेद ? तुम यह भी भूल गए, इंडिया में तुम्हारी बीवी, तुमसे मिलने के लिए एक-एक दिन, किस बेचैनी से काट रही है ?’’  

‘ज़रा- सी बात पर क्यों इतना शोर मचा रही हो। आगई हो तो, अपनी जगह रहो। उसने घर छोड़ तो दिया है, न ?’’  

‘‘वाह, क्या बात है क्या तुम वही जावेद हो, जो मेरे आगे-पीछे घूमते थे। ठीक है, उसने घर छोड़ दिया, पर क्या तुम उसे छोड़ सकोगे, जावेद ?’’  

‘‘देखो, फ़रीदा ! तुम एक हिन्दुस्तानी बीवी हो। शौहर के सौ खून भी माफ़ होते हैं। अकेलापन बाँटने के लिए किसी के साथ रह लिया तो कौन- सा तूफ़ान आ गया। आते दिन ही, मूड ख़राब कर दिया।  

‘‘हाँ, जावेद ! तुम्हारे नाज़ायज़ रिश्ते पर मुझे ऐतराज है। मुझे तलाक देकर, तुम उसके साथ शादी कर लो। अपने नाज़ायज़  रिश्ते को एक नाम दे दो।’’  

‘‘दिमाग़ तो ठीक है ? अपने पैरों पर क्या कोई कुल्हाड़ी मारता है ? अच्छी तरह जानती हो, हमारे मज़हब में चार शादियाँ तक जायज़ हैं।’’ जावेद तैश में आ गया।  

‘‘तुम ग़लत समझ रहे हो, जावेद ! यह तुम्हारा मुल्क नहीं है। मैं जानती हूँ, नारी-उत्पीड़न के खिलाफ़ यहाँ के कानून सख़्त हैं। किसी भी हालत में मैं तुम्हारा अन्याय नहीं सहूँगी।’’ शांति से फ़रीदा ने कहा।  

‘‘किस अन्याय की बात कर रही हो ? कभी शीशे में अपनी शक्ल देखी है ? तुम्हारे साथ शादी करके तुम पर एहशान किया है।’’ जावेद आपा खो बैठा।  

‘‘तो तलाक दे दो, मैं तुम्हारी दया पर नहीं जीना चाहती, जावेद।’’  

‘‘अगर तलाक नहीं देता तो क्या कर लोगी ? निकाह के वक़्त क्यों नहीं खुला का प्राविजन रखा था ?’’ व्यंग्य से जावेद का मुँह विकृत- सा हो गया।  

‘‘तब मैं तुम्हारे प्यार में दीवानी थी, जावेद ! तुम्हारे इस रूप से अनज़ान जो थी। मैं यहाँ कानून का सहारा लूँगी, तुम्हारे साथ रहना अब पॉसिबिल नहीं है। अपने किए पर शर्मिदगी की जगह तुम मुझे ज़लील कर रहे हो। यह हिमाक़त है।’’ फ़रीदा का मुँह लाल हो गया।  

 ‘‘अभी मेरी हिमाक़त देखी कहाँ है ? यहाँ तुम पूरी तरह मुझ पर डिपेंडेंट हो। जैसा कहूँ, वैसा करना होगा, समझीं।’’  

‘‘इस भुलावे में मत रहना, जावेद ! मैं अनपढ़, असहाय नहीं, पढ़ी-लिखी औरत हूँ। तुम्हें वो सबक सिखाऊँगी कि आठ-आठ आँसू रोओगे। जान लो, अपना हक, मैं लेकर रहूँगी।’’  

‘‘तेरी इतनी ज़ुर्रत, अपने शौहर को सबक सिखाएगी। आठ-आठ आँसू रूलाएगी ?’’ जावेद ने अंधाधुंध मुक्कों के प्रहार से फ़रीदा को हत्प्रभ कर दिया।  

फटाक से अपार्टमेंट का दरवाज़ा बंद कर, जावेद घर से बाहर चला गया। फ़रीदा का सिर चकरा गया। अपमान से आँखें जल उठीं। इस देश में उसका अपना कौन था ? माना उसके मज़हब में मर्द को एक से ज़्यादा शादी करने की छूट है, पर किसी के साथ चोरी से नाज़ायज़ रिश्ता बनाए रखना तो सीधा गुनाह है। वैसे भी फ़रीदा ने हमेशा यही सोचा, उसका शौहर, बस उसका होकर रहेगा। उसे इतना प्यार देगी कि उसे कोई कमी महसूस न हो। फ़रीदा को ढेर सारी बातें याद आने लगीं-  

जावेद ने फ़रीदा के साथ उस वक़्त शादी की, जब उसके पास कोई नौकरी नहीं थी। फ़रीदा की स्कॉ लरशिप ने जावेद की बहुत- सी ज़रूरतें ही नहीं, शौक़ भी पूरे किए। शौक़ीन मिज़ाज़ जावेद कितने तरीके से फ़रीदा के सामने पसंदीदा चीज़ों का जिक्र कर, उन्हें न खरीद पाने की मायूसी ज़ाहिर करता। फ़रीदा उसकी मनपसंद चीज़े, ख़रीद कितनी खुश होती। डिपार्टमेंट की लड़कियों से घिरा जावेद फ़रीदा से उनकी शिकायत करता-  

‘‘मेरी हेल्पिंग नेचर की वजह से ये लड़कियाँ मुझसे फ़ायदा उठाती हैं। समझ में नहीं आता, इनसे कैसे पीछा छुड़ाऊँ।’’  

‘‘सुषमा तो कहती है, तुम डिपार्टमेंट के कैसानोवा हो। मैं बेकार ही तुम्हारे चक्कर में पड़ी हूँ।’’ फ़रीदा छेड़ती।  

‘‘इसका मतलब, वो सुषमा तुमसे जलती है, फ़रीदा ! सच कहता हूँ, तुम्हारे सिवा मैंने किसी की ओर नज़र उठाकर भी नहीं देखा है।  

काश् ! फ़रीदा, जावेद के झूठे प्यार में अंधी न बन गई होती। शाहिदा तो जावेद की दीवानी थी। फ़रीदा ने कभी क्यों नहीं सोचा, आखिर शाहिदा जैसी खूबसूरत लड़की को छोड़ जावेद ने फ़रीदा को क्यों चुना ? शायद इसकी वज़ह यही थी, फ़रीदा पैसा कमा सकने वाली लड़की थी और शाहिदा की तमन्ना शौहर के कमाए पैसों पर ऐश करने की थी। हाँ, जिस दिन, जावेद को कनाडा से जॉब का ऑफ़र मिला, उस दिन से उसके तेवर  बदल गए। फ़रीदा को आर्डर देते, उसे ज़रा भी हिचक न होती। फ़रीदा के कामों में ग़लतियाँ निकाल, झुँझलाता। जावेद का यह व्यवहार फ़रीदा को अज़नबी लगता, पर सोचती शायद नई जगह अकेले जाने का टेंशन हो।  

आज असलियत सामने आ गई। वह अकेला नहीं था। अपने लिए उसने इंतज़ाम कर लिया। नहीं, ऐसे इंसान का फ़रीदा अपना शौहर, अपना सरताज़ मानकर नही जी सकती। फ़ोन उठा, हेल्प के लिए नम्बर घुमा दिया। हिन्दुस्तान से इतनी जानकारी तो वह लेकर आई थी, मुसीबत के वक़्त यहाँ की पुलिस और वीमेन एसोसिएशन्स दोनों ही साथ देते हैं।  

फ़रीदा द्वारा तलाक़ लेने के कारण को जान, कनेडियन औरतों को आश्चर्य ज़रूर हुआ, पर साथ ही उसके निर्णय को उन्होंने सम्मान दिया। जावेद ने फ़रीदा से माँफ़ी माँग, उसे समझाना चाहा, पर फ़रीदा अपने फ़ैसले पर अटल रही उसके वक़ील ने जावेद से मुआवज़ा दिलाना चाहा, पर फ़रीदा ने साफ़ इंकार कर दिया-  

‘‘जिस इंसान के पास चरित्रि नहीं वह तो दुनिया का सबसे ग़रीब इंसान है। ऐसे ओछे व्यक्ति की भीख स्वीकार नहीं।’’  

कनाडा में फ़रीदा को जॉब के ऑफर थे, पर फ़रीदा का मन उचाट हो गया। जिस देश में उसके सपने टूट गए, वहाँ क्या रहना।  

इंडिया वापस लौटी फ़रीदा को परेशानियों का सामना करना पड़ा। शौहर को खुद तलाक़ देने वाली औरत को इज़्ज़त कौन देता ? घर में भाभियों और उनके तानों के बीच रह पाना, आसान नहीं था। उनके ख़्याल में सारी ग़लती फ़रीदा की थी। खुशकिस्मती से दिल्ली यूनीवर्सिटी में उसे अपनी योग्यता के बल पर नौकरी मिल गई। बस तब से ठीक-ठाक जिंदगी चल रही है। उन्होंने एक उसाँस ली।  

‘‘फिर शादी करने का ख़्याल नहीं आया, आंटी ?’’  

‘‘सच कहूँ तो मर्द-ज़ात से यकीन ही उठ गया। जो भी पास आने की कोशिश करता, लगता, मेरे पैसे उसे खींच रहे हैं। गैरों की तो छोड़ो, मेरे अपने रिश्तेदार भी सिर्फ़ इसीलिए पूछते हैं कि अपना यह घर और पैसे उनके नाम कर दूँ। ये दुनिया बड़ी बेरहम है, बेटी।’’  

‘‘आपके पैर को क्या हुआ आंटी ?’’  

‘‘कहते हैं, वक्त की लाठी अकेले ही नहीं पड़ती। सड़क पार करते हुए एक ऑटो ने टक्कर मार दी और पीछे से आता स्कूटर पैर कुचल गया। सात महीने पलंग पर पड़ी रही। डॉक्टर हिम्मत हार जाते, उन्हें लगता मैं अब चल नहीं सकूँगी, पर मैं दीवार का सहारा ले, चलती रही। आज अपना काम खुद करने लायक हो गई हूँ।’’  

‘‘सच आंटी, आप बड़े जीवट वाली हैं। आपकी जगह कोई और होता तो शायद हिम्मत हार जाता।’’  

‘‘एक बात तू और नहीं जानती, पिछले एक साल से मुझे लंग-कैंसर हैं’’ हँसती हुई फ़रीदा आंटी का चेहरा उम्र से दस साल कम लग रहा था।  

‘‘क्या--आ--? और आप हँस रही हैं, आंटी ?’’  

‘‘हाँ नीता। डॉक्टर कहते हैं, तुरन्त ऑपरेशन करा लूँ, पर मैं तैयार नहीं हूँ।’’  

‘‘क्यों, आंटी ! डॉक्टर की एडवाइज़ मानने में ही तो समझदारी है।  

‘‘ठीक कहती है, पर ऑपरेशन के बाद तीन-चार महीने कम्प्लीट बेडरेस्ट चाहिए। मेरा बोझ कौन उठाएगा। इसलिए सोच लिया जब मौत आती है, आजाए। वैसे भी जिस कैंसर ने शरीर में शरण पाली, उसे वहीं पलने देने में क्या हर्ज़ है। शरणागत को बेघर क्यों करूँ। क्यों ठीक कहा न ?’’ वह ठठाकर हँस दीं।  

‘‘नहीं, आई कांट बिलीव दिस।’’ स्तब्ध नीता इतना ही कह सकी।  

‘‘अरे बातों में इतना वक़्त बीत गया, शाही सिंवई बनाई है। अभी लाती हूँ।  

‘‘नहीं, आंटी, इस वक़्त कुछ नहीं खा सकूँगी। एक बात बताइए, जावेद का क्या हुआ ?’’  

‘‘ओह, बेचारा सख्त बीमार है। लम्बा-चैड़ा माफ़ीनामा भेजा है।  

‘‘उसका तो यही हश्र होना था। आप उसे बेचारा क्यों कह रही हैं ?’’  

‘‘अब मरे को क्या मारना, नीता। दो-दो बेटियाँ शादी के लिए बैठी हैं। जावेद नौकरी करने की हालत में नहीं हैं। मैंने पैसे भेजे हैं।  

‘‘आप भी कमाल करती हैं, आंटी। जिसने आपकी जिंदगी नर्क बना दी, उसके साथ हमदर्दी क्यों ?’’  

‘‘अलग होकर उसने भी तो सुख भोगा। चार बच्चों को छोड़, उसकी कनेडियन बीवी, किसी और के साथ चली गई। वैसे भी मेरी कमाई भोगने वाला तो यहाँ कोई है,नहीं। सोचा, पैसे किसी ज़रूरतमंद के काम तो आ जाएँगे। सच कहूँ, जिंदग़ी से मुझे कोई शिकायत नहीं है, नीता।’’  

‘‘आप तो अपने आप में एक मिसाल हैं, आंटी।’’  

‘‘नहीं, पगली ! तेरी आंटी बस एक मामूली औरत हैं। ले, सिंवई खाकर बता, कैसी बनी है ?’’  

अवाक् नीता को सिं वई की प्लेट थमाती, फ़रीदा मीठी हँसी हँस दी।