12/19/09

वह साँवली लड़की

 एक


सूटकेस में कपड़े रखती अंजू को देख पूनम पास आ खड़ी हुई थी।
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”कहीं बाहर जा रही है, अंजू?“

”ऑल इंडिया काँन्फ्रेंस के लिए मुझे नॉमिनेट किया है, भाभी।“

”कहाँ जाना है, सो तो बताया ही नहीं?“

”त्रिवेन्द्रम.....।“

”त्रिवेन्द्रम........शायद वहीं तो विनीत...............“

बात अधूरी छोड़, पूनम सब कुछ कह गई थी।

निरूत्तरित अंजू कपड़े रखने-सहेजने में व्यस्त बनी रही।

”सुना है त्रिवेन्द्रम का कोवलम ‘सी-बीच’ बड़ी रोमांटिक जगह है, कहीं खो न जाना।“ पूनम के चेहरे पर शरारती मुस्कराहट थी।

”मेरी इतनी ही चिन्ता है तो साथ चली चलो भाभी,मां भी निश्चिंत रहेगी।
तो चिंता  करने वाला खोज क्यों नहीं लेती अंजू? कब तक उसके नाम की माला जपती रहेगी।“

”भाभी, प्लीज। तुम जानती हो, मुझे इन बातों से सख्त नफ़रत है।“

”जिससे नफ़रत करनी चाहिए, उससे तो कर नहीं पाती............ भगवान तुझे सदबुद्धि दे। ला मैं कपड़े रखती हूँ, तू जाकर चाय पी ले, कैसा तो मुँह सूख रहा है।“

”थैंक्स भाभी। सच, तुमने मेरी आदत खराब कर दी है, तुम्हारी पैकिंग भी तो कितनी अच्छी होती है, कोशिश करके भी मैं तुम्हारी जैसी पैकिंग नहीं कर पाती।“

”अच्छा-अच्छा, अब ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं, पर देख, अम्मा जी को मत बताना कि तू त्रिवेन्द्रम जा रही है, वर्ना वह बेकार शोर मचाएँगी।“

”पर झूठ बोलना तो सम्भव नहीं है, भाभी।“

”अच्छा तू जा, वो सब मैं सम्हाल लूँगी।“ अंजू को जबरन उठा, पूनम उसके सूटकेस में कपड़े सजाने लगी।

अपनी इस छोटी ननद के प्रति पूनम के मन में बहुत प्यार था। दोनों बड़ी ननदें जब भी घर आती, पूनम असहज हो उठती। घर के काम निबटाती, ननदों की फर्माइशों पर दौड़ती पूनम, पागल हो उठती थी।

रेवा दीदी मायके आते ही बीमार हो जातीं और माला दीदी अपनी ससुराल की थकान उतारने ही मायके आतीं।

”वहां तो सुबह पाँच बजे से रात के बारह बजे तक एक पाँव पर खड़े, सबके हुक्म बजाने पड़ते हैं। एक पल का आराम नहीं आता, इसीलिए यहाँ काम में मदद नहीं दे पाती।“ माला दीदी भोला-सा मुँह बना, विवशता जतातीं।

”अरे चार दिन को मायके आई है, कम-से-कम चार दिन तो आराम कर ले। अरे बहू, आज रात जरा माला के सिर में तेल डाल देना, न जाने कब से तेल नहीं डाल पाई है बेचारी।“

बेटी का दुलार करती अम्मा भूल जातीं कि दिन-रात मशीन की तरह काम में जुटी पूनम को भी दो घड़ी आराम की जरूरत पड़ सकती है।

ऐसे समय पूनम का हाथ बॅंटाती अंजू अम्मा को समझाती- ”माला दीदी के सिर में तेल मैं डाल दूँगी। पूनम भाभी पर तो पहले ही काम का इतना बोझ है।“

”हाँ-हाँ, हम लोग तो बोझ हैं, बड़ी आई भाभी की हिमायत करने वाली। हमसे जैसे इसका कोई नाता ही नहीं है।“

दोनों बहिनें रूआँसी हो आतीं। अंजू की ओर से क्षमा माँगती पूनम उनसे मनुहार करती-
”अंजू अभी छोटी है दीदी, बात समझ नहीं पाती। आप भला बोझ है? आप तो हमारे सिर-आँखों रहें दीदी। इसे क्षमा कर दें।“

पूनम से अंजू का अतिशय स्नेह दोनों बहिनों को नहीं सुहाता था।

”अम्मा ने इसे सिर चढ़ा रखा है, हम पर ही सारे अंकुश लगाते थे। जो जी में आया बक देती है।“

इसी अंजू से जब विनीत ने दो वर्षो की लगी सगाई तोड़ दी तो पूनम ने ही उसे सम्हाला था।

भावनात्मक स्तर पर अंजू विनीत के साथ किस गहराई से जुड़ चुकी थी, यह तो सगाई टूटने के बाद ही पूनम जान सकी। विनीत पर पूनम को बहुत गुस्सा आया था, जब जनाब को अपने दिलो-दिमाग पर भरोसा नहीं था तो निर्णय ही क्यों लिया? अंजू से बार-बार मिलने या पाँच-पाँच पेज लमबे प्रेम-पत्र लिखने की क्या जरूरत थी? उतनी आसानी से सगाई तोड़, मुँह छिपाने सिंगापुर भाग जाना क्या ठीक था? विनीत त्रिवेन्द्रम में है, क्या वहाँ अंजू सहज रह पाएगी? विनीत के साथ बिताए सारे पल जीवित हो उठेंगे, कैसे झेल पाएगी अंजू?

अंजू को एयरपोर्ट छोड़ने पति के साथ पूनम भी गई थी। काश, अंजू के इस व्यक्तित्व को विनीत देख पाता। अंजू-सी सलोनी पत्नी क्या वह पा सका होगा? कम्पनी की मुख्य वित्त अधिकारी अंजू किससे कम है! चार्टर्ड अकाउंटैंसी कितनी लड़कियों को कर पाना सम्भव होता है। अपने पाँवों पर झुकती अंजू को पूनम ने सीने से लगा लिया था। धीमे से फुसफसाती पूनम ने कहा था- ”देख अंजू, यह दुनिया जितनी ही बड़ी है, उतनी ही छोटी भी- अगर वहाँ कहीं विनीत मिल गया तो झेल सकेगी?“

”तुम निश्चिन्त रहो भाभी, अब तुम्हारी अंजू बदल चुकी है।“

”हाँ, पहले से ज्यादा निखर आई है हमारी अंजू, नजर न लग जाए।“

कहने को पूनम हॅंस पड़ी थी, पर मन पाँच वर्ष पूर्व की बेहद टूटी उदास अंजू की तस्वीर याद कर रहा था। विनीत के पापा का संक्षिप्त पत्र अचानक मिला था.......... ”विवाह सम्भव नहीं, क्षमा करें,“ यद्यपि पत्र में उन्होंने कोई कारण नहीं लिखा था, पर बाद में खबर मिली थी, सिंगापुर में बसे रबर-व्यापारी ने विनीत को खरीद लिया था। अन्ततः उसकी मध्य-वर्गीय मानसिकता ही जीत गई थी। अचानक बहुत अमीर बन जाने का मोह विनीत छोड़ नहीं सका था।

किसी ने तसल्ली देते कहा था- ”चलो अच्छा हुआ, पहले ही सब खत्म हो गया, शादी के बाद अगर यह सब होता तो?“

अंजू तो जैसे अपने होश ही खो बैठी थीं दो दिन-दो रात, पलंग पर लेटी छत को ताकती रही थी। नींद का इंजेक्शन देकर डाक्टर ने सुलाया था। होश आने पर पूनम के कंधे पर सिर धर कितना रोई थी अंजू। कितना मुश्किल था उसे समझा पाना। उस समय पूनम ही थी, जिसने उसे सम्हाला था।

”यह क्या बचपना है! लोग दुनिया छोड़ चले जाते हैं, तब बर्दाश्त करना होता है या नहीं? समझ ले वह तेरे लिए मर गया है अंजू.............।“

”नहीं.......ऐसा मत कहो भाभी।“ अंजू ने पूनम के होंठों पर अपनी हथेली धर दी थी।

”वाह, कया किस्मत पाई है विनीत ने, हम उसे कुछ कह भी नहीं सकते।“

धीमे-धीमे अंजू चैतन्य हो आई थी। चार्टर्ड अकाउंटैंसी का कठिन कोर्स दुख भुलाने का बहाना बन गया था। उसकी मेहनत रंग लाई थी। परीक्षा में प्रथम स्थान पा अंजू गौरव से भर उठी थी। तब से आज तक उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा है।

”चलूँ ,भाभी?“ अंजू की आवाज ने पूनम की विचार-तन्द्रा तोड़ी थी।

”जाते ही फ़ोन करना। दस-पन्द्रह दिन बाहर रहेगी, पत्र लिखती रहना, वर्ना हम परेशान रहेंगे।“ छिपे शब्दों में पूनम ने अपनी शंका प्रकट कर ही दी थी।

”ओके, बाय भइया, बाय भाभी।“ कंधे पर बैग टाँग अंजू चल दी।

प्लेन में कुछ ही पलों में त्रिवेन्द्रम पहुँचने की घोषणा की जा रही थी। नीचे दृष्टि डालती अंजू मुग्ध हो उठी । इतना गहरा हरा रंग.......... मानो हरा सागर मौन पड़ा सुस्ता रहा हो ,इसी हरियाली में सुख-एश्वर्य के बीच अपनी पत्नी के साथ कहीं विनीत भी होगा। हमेशा चाहे-अनचाहे विनीत उसके ख्यालों में क्यों आ जाता है? सिर झटक कर अंजू ने विनीत को जैसे अपनी सोच से बाहर निकालने की कोशिश की थी।

‘मिस अंजलि मेहरोत्रा’ के नाम का प्लेकार्ड लिए व्यक्ति ने बाहर आती अंजू को देखते ही पहचान लिया था। ”मिस मेहरोत्रा?“

”जी...........“

”आपके लिए कार आई है, आइए।“

पूरे रास्ते नारियल से लदे वृक्षो का मनोहारी दृश्य निहारती अंजू, विनीत और घर को भूल-सी गई थी। अक्टूबर के महीने में भी कजरारे बादल घिर आए थे। आलीशान होटल के सामने कार जा रूकी थी। साथ आए व्यक्ति ने शालीनतापूर्वक अंजू के लिए कार का द्वार खोला था-
 ”कल सुबह साढ़े आठ बजे कार आपके लिए पहुँच जाएगी। आज शाम कहीं जाना चाहेंगी?“

”नहीं, आज तो बस रेस्ट चाहूँगी।“

”वैसे यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर, एक अच्छा ‘सी-बीच’ है, आप चाहें तो......।“ साथ आए व्यक्ति ने सूचना देनी चाही थी।

”मैं देख लूँगी, थैक्स।“

होटल के उस कमरे में पहुँचते ही अंजू को जैसे अकेलेपन ने डरा दिया दिया था। पोर्टर को टिप थमा, अंजू पलंग पर पड़ गई थी। आँखें मूँदते ही विनीत का चेहरा सामने आ गया था। इसी शहर में विनीत है, उसके यहाँ रहते भी अकेलेपन का सन्नाटा उसे डस रहा था। अगर उसकी शादी विनीत से हो गई होती तो?

पहली मुलाकात में ही विनीत उसे भा गया था। पापा के रिटायरमेंट पर उनके सहकर्मी मिस्टर मेहता ने पापा को सपरिवार डिनर के लिए आमंत्रित किया था। उस दिन अम्मा को अंजू पर बड़ा लाड़ हो आया था।

‘अंजू, आज मेरी गुलाबी साड़ी पहन ले, तुझ पर खूब खिलेगी।’

इसी गुलाबी साड़ी को जब उसने कालेज की फेयरवेल पार्टी में पहनना चाहा था तो अम्मा ने कितनी जोर से डाँट लगाई थी- ‘साड़ी पहनने की तमीज़ नहीं, इतनी कीमती साड़ी बर्बाद करनी है!’

अन्ततः पूनम भाभी की फीरोजी साड़ी बेमन से पहननी पड़ी थी, इसीलिए अम्मा के उस दुलार पर अंजू चौंक गई थी।

‘हमें नहीं पहननी आपकी साड़ी, हम सलवार-सूट ही पहनेंगे।’

‘जिद नहीं करते बेटी...। तुम्हीं इसे सम्हालो बहू। मेरी तो बात ही नहीं मानती, जो कहो उसका ठीक उल्टा करेगी।’ अम्मा झुझला उठी थीं।

पूनम भाभी ने प्यार से उसे समझाया
 ‘देखो अंजू रानी, वहाँ बहुत सारे लोग आएँगे। सलवार-सूट में भला कोई मानेगा कि यह नन्ही-सी लड़की चार्टर्ड अकाउंटैंसी जैसे कठिन विषय की स्टूडेंट हैं? लोग तो यही कहेंगे हाईस्कूल में पढ़ने वाली लड़की है।’

‘लोग क्या कहेंगे इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।’

‘पर एक कोई क्या कहेगा, उससे तो फ़र्क पड़ेगा ,अंजू रानी?’

‘मुझ पर किसी के कुछ कहने का फर्क नहीं पड़ने वाला है, भाभी- जान। मैं साड़ी नहीं पहनूंगी, नहीं पहनूंगी, बस..........।’

‘ओ.के. बाद में जब पछताओ तो मेरे पास रोने मत आना।’ कभी हार न मानने वाली पूनम भाभी ने हथियार डाल दिए थे।

सचमुच विनीत से परिचय कराती पूनम भाभी ने जब अंजू की तारीफों के पुल बाँधने शुरू कर दिए  तो अपनी जिद पर अंजू को कितना पछतावा हुआ था-‘काश, बह अम्माँ की गुलाबी सितारों वाली साड़ी पहन आती..........’

‘क्या यह चार्टर्ड अकाउंटैंसी कर रही है? स्ट्रेंज! लड़कियाँ आज कहाँ पहुँच गई हैं, पर इन्हें देखकर तो लगता है अभी डिग्री वन की स्टूडेंट हैं।’ विनीत उसे देखता मुस्करा रहा था। शर्म से अंजू की साँवली रंगत और भी सलोनी हो उठी थी।

अपनी सम्पूर्ण आभा के साथ अंजू में साँवले रंग का आकर्षण साकार था। गहरी काली बड़ी-बड़ी आँखें, तीखी नाक के साथ प्रखर बुद्धि के प्रकाश से आलोकित चेहरा, अनायास ही सबको आकृष्ट कर लेता था। इस सबके बावजूद अम्मा हमेशा परेशान ही रहतीं-
‘न जाने इस लड़की का बेड़ा कैसे पार लगेगा? आजकल तो लड़के गोरी मेम चाहते हैं। सब कुछ देकर भगवान ने रंग में कंजूसी कर डाली।’

‘रंग ही सब कुछ नहीं होता कमला, हमारी बेटी जैसा दिमाग कितनों ने पाया होगा? तुम्हें इसके विवाह की चिन्ता नहीं करनी है, इसके लिए घर बैठे लड़का मिलेगा।’

पापा ने अंजू को सदैव सबसे ऊपर रखा था। पापा न होते तो अम्मा की बातें उसे न जाने किस कुंठा में जकड़ लेतीं।

बी.एस.सी. में जब अंजू के मैथ्स में सर्वोच्च अंक आए तो पापा का सीना गर्व से फूल उठा था, ‘मेरी अंजू ही मेरा सपना पूरा करेगी। इसे मैं चार्टर्ड अकाउंटैंसी करने के लिए भेजूंगा।’

‘हाँ-हाँ, अब यही कमी रह गई है, लड़की की कमाई पर घर चलेगा।’

‘तुम्हें समझा पाना कठिन है, कमला। अंजू हमारी साधारण लड़की नहीं है।’

कभी-कभी अम्मा की बातों पर पापा उदास हो उठते थे। अतुल भइया पढ़ाई में साधारण ही रहे। पापा की तीक्ष्ण बुद्धि का अंश अंजू ने ही पाया था। वित्त विभाग में अकाउंटैंट पापा के लिए चार्टर्ड अकाउंटैंट आदर्श व्यक्ति था। उनकी दृष्टि में सी.ए. से अधिक अच्छा कोई प्रोफेशन नहीं था। साधारण बुद्धि वाली अम्माँ पापा की सोच तक शायद ही कभी पहुँच पाई थीं। फिर भी पापा ने अम्माँ के साथ जीवन खुशी से बिता लिया था।

सोच में डूबी अंजू अचानक द्वार की दस्तक से जग गई-”कम इन...............।“

हाथ में ट्रे लिए वेटर कमरे में प्रविष्ट हुआ। करीने से चाय की ट्रे साइड- टेबिल पर रख, केटली से चाय ढालते वेटर ने पूछा-

”शुगर मेम?“

”वन स्पून।“

कप थामती अंजू से वेटर ने पूछा, ”मैडम, ऑफिस- वर्क से आया है.....?“

”हूँ।“

”इसीलिए अकेला है।“

वेटर का प्रश्न अंजू को जैसे चिढ़ा-सा गया। क्या उसकी नौकरी एक विवशता है? विनीत क्या उसे नौकरी करने देता? ऊंह! फिर विनीत....... अंजू अपने पर झुंझला उठी थी।

डिनर की उस शाम कॉफी थमाते विनीत ने कहा था- ‘जानती हैं आपकी कम्पनी कॉफ़ी-सी ताज़गी देती है। बेहद नमकीन हैं, आप।’

‘थैंक्स........’

छिः, भला यह भी कोई बात हुई, कॉफ़ी के साथ नमकीन चीज, जैसे लड़की न हुई, कोई परोसी जाने वाली डिश थी अंजू। फिर भी वह उपमा अच्छी लगी थी उसे।

वापिस घर पहुंची अंजू का मन उमगा पड़ रहा था। एक अजीब उत्तेजना उसे अवश बनाए दे रही थी। विनीत का आकर्षक व्यक्तित्व, उसकी बातें अंजू के मन-मस्तिष्क पर छा गई थीं।

आई.आई.टी. से इंजीनियरिंग करने के बाद विनीत ने अहमदाबाद से एम0बी0ए0 की डिग्री ली थी। आकाश की ऊंचाइयाँ छूने को व्याकुल विनीत की आँखों में ढेर सारे सपने थे। उन सपनों की चमक अंजू के अन्दर तक उतर आई थी।

पूनम भाभी खोद-खोद कर पूछे जा रही थीं- ‘क्या बातें हो रही थीं अंजू रानी, बड़ी छन रही थी दोनों में, हमें नहीं बताओगी?’

‘तुम्हारी यही बातें हमें अच्छी नहीं लगती भाभी, हमेशा बेपर की उड़ाती हो। हम नहीं बोलते तुमसे।’

‘हाँ-हाँ, अब हमसे बोलने की क्या जरूरत है, अब बातें करने वाला जो मिल गया है।’ पूनम ने छेड़ा था।

‘ओह भाभी, तुम भी कमाल करती हो, बातें जानने की ऐसी ही बेचैनी थी तो हमारे साथ क्यों नहीं बैठी थीं?’ उस समय तो भइया से चिपकी बैठी थीं और अब बातें बना रही हो।’

‘हाय राम, हम इनके साथ कब थे, हम तो किचन में पूड़ियाँ छान रहे थे।’ पूनम भाभी मुख रक्ताभ हो आया था। दो वर्षो की परिणीता पूनम भाभी भइया के नाम पर यूँ ही लजा जाती थीं।

दो दिन बाद पापा ने मेहता परिवार को अपने घर चाय पर आमंत्रित किया था। सुबह से घर में तैयारियाँ चल रही थी। पापा और अतुल भइया बाहर की तैयारी में व्यस्त थे। माला दीदी की ससुराल पास में ही थी, भइया की उन्हें बुलाने की बात पर, अम्मा चिहुँक उठी थीं-
‘क्या बात करता है अतुल, अरे माला के सामने तो अंजू काली दिखेगी - धूप-सा उजला रंग है माला का। उसे इस समय बुलाना ठीक नहीं।’

‘तुम भी कभी-कभी हद कर देती हो, क्या कमी है हमारी अंजू में? देख-सुनकर ही विनीत ‘हाँ’ कहेगा।’ पापा का स्वर विश्वासपूर्ण था।

अम्माँ की गुलाबी साड़ी पहन अंजू ने जब कमरे में प्रवेश किया था तो सबकी निगाहें उस पर जमी रह गई थीं।

‘मेहरोत्रा साहब, आज से आपकी बेटी हमारी हुई।’

पापा ने मेहता साहब को गले लगा लिया था।

‘ऑफिस में हम दोनों मित्र थे, आज से सम्बन्धी हो गए।’ पापा गदगद थे।

विनीत की माँ का चेहरा पढ़ पाना जरूर मुश्किल लगा था।

‘अंजू बेटी, रात में चेहरे पर मलाई लगा लिया करो, मलाई से रंग निखरता है।’

उनकी बात सुन अंजू का मन कसैला हो आया था। अम्मा ने बात सम्हाली थी-
 ‘अरे बहिन जी, शादी-ब्याह के बाद लड़कियों का रंग-रूप अपने-आप निखर आता है। अभी तो पढ़ाई का बोझ ही मारे डालता है।’

‘हमारे विनीत का रंग तो देखा ही है आपने। उसे गोरे रंग की वीकनेस थी पर आपकी बेटी पर न जाने कैसे रीझ गया..........’

‘जरूर पूर्वजन्म के संस्कार हैं बहिन जी, तभी तो कहा जाता है शादी-ब्याह पहले से तय होते है।’ अम्मा दयनीय हो आई थीं।

उस बात पर कोई तीखा उत्तर देने को अंजू बेचैन हो उठी थी, पर पास बैठी पूनम भाभी ने हाथ दबा चुप रहने को विवश कर दिया था।

हॅंसी-खुशी मेहता परिवार की विदा के बाद, अम्माँ ने लम्बी साँस ली थीः

‘हे भगवान, लड़की की नैया पार कर दे! विनीत की माँ ने जब अंजू के रंग की बात उठाई तो मेरा तो कलेजा धड़क उठा था।’

‘पागल हो तुम कमला। मिसेज मेहता तो जाहि्ल औरत हैं। अंजू नहीं, उन्हें हीरा मिल रहा है। बाद में यह बात समझेंगी, देख लेना।’ पापा नाराज हो उठे थे।

कभी विनीत ने कहा था-‘देखना अंजू, मैं बहुत जल्दी अपना बिजनेस शुरू करूँगा और तुम मेरी फाइनैंस कंट्रोलर होगी। इसीलिए तो तुम्हें लाइफ-पार्टनर चुना है।’

‘अच्छा, बस इसीलिए तुम्हें मेरी जरूरत है विनीत?’ अंजू की कजरारी आँखें और कजरारी हो उठतीं।

‘अरे नहीं यार, तुम्हें तो दिलो-जान से चाहा है ,मेरी जान! ऐसी नमकीन चीज भला कोई छोड़ सकता है?’

‘ऐ विनीत, तुम हमें यह नमकीन-समकीन मत कहा करो, ऐसा लगता है जैसे कोई खाने की चीज हूँ।’ अंजू ने रोष दिखाया था।

‘सच, पूरी की पूरी निगल जाने को जी चाहता है।’ विनीत ने शरारत की थी।

‘धत्त ..........हम नहीं बोलते तुमसे।’

फोन की घंटी पूरी कर्कशता के साथ बज उठी।

”हलो.............?“

”मेम, डिनर इज रेडी, वुड यू लाइक टू कम डाउन टु अवर रेस्ट्राँ ऑर शुड वी सर्व दि डिनर इन योर रूम प्लीज?“

”आज डिनर नहीं चाहिए। सेंड मी ए कप ऑफ कॉफ़ी ओनली।“

विनीत ने कहा था- ‘तुम्हारा कॉफ़ी- कलर ही तुम्हारी सबसे बड़ी ब्यूटी है। इस शाइनिंग काफी कलर पर तो अमेरिकन्स भी मर मिटेंगे अंजू।’

‘ऊह’ फिर वही विनीत ...... भाभी कहती हैं, ‘इतने वर्षो के बाद भी अंजू विनीत-फोबिया से मुक्त नहीं हो सकी है।’

बाथरूम में ठंडे पानी के छींटे मुँह पर डाल अंजू बाहर आ गई। सागर की ओर से आ रही ठंडी हवा का स्पर्श, बाल्कनी में खड़ी अंजू को बड़ा भला लगा था। वहीं कुर्सी पर बैठ काफी पीती अंजू बहुत देर तक जागती रही।

अंतिम पड़ाव

                Like The Sun Rising In The East And Setting In The West - So Do We ...
”जीवन-यात्रा के इस अंतिम पड़ाव तक आपको विदा देने आई हूँ बाबूजी! आपने अपनी इहलोक की यात्रा अपूर्व आत्मविश्वास और साहस के साथ पूर्ण की है। विश्वास है परलोक की यात्रा आपकी निरापद होगी।“ हाथ जोड़, बाबूजी को अंतिम प्रणाम कर मिन्नी चिता से दूर हट आई थी।

चिता के बाहर से बाबूजी के दो पांव भर दिख रहे थे, उनका पूरा शरीर मोटी-मोटी लकड़ियों से ढक दिया गया था। अचानक पानी की बौछार पड़ने लगी।

”हे भगवान, ये क्या? बाबूजी के अंतिम कार्य में ये कैसा विघ्न?“ बाबूजी के किसी शुभचिंतक ने कहा।

”ये तो विधाता का बाबूजी के लिए आशीर्वाद है। निश्चिंचत रहिए, बाबूजी का अंतिम कार्य निर्विघ्न संपन्न होगा।“ अनुभवी पंडितजी ने सांत्वना दी।

सचमुच दो मिनट के बाद, खुले आकाश को देख मिन्नी चौंक गई। हमेशा की तरह आज भी विधाता का वरद हस्त बाबूजी को आशीर्वाद दे रहा था।

अम्मा की हर बात का उत्तर था बाबूजी के पास। चार लड़कियाँ देख जहाँ अम्मा अपने भाग्य और भगवान को दोष देतीं वहीं बाबूजी सहास्य कहा करते,
 ”मेरी ये चारों बेटियाँ नहीं लक्ष्मियाँ हैं। अपना भाग्य लेकर आई हैं। सच कहो तो इनके भाग्य से ही हमारी दाल-रोटी चल रही है।“

”पर इन लक्ष्मियों की विदा के लिए तो लक्ष्मी की कृपा आप पर नहीं है न?“ अम्मा खीज उठतीं।

”अरे मेरी बेटियों को लोग माँग कर ले जाएँगे, तुम व्यर्थ ही चिंता करती हो।“

”चिंता कैसे न करूँ, आजकल की हालत तो देख रहे हैं न?“

”मेरा खजांची तो भगवान है, जब जरूरत होगी वहीं देगा।“ निश्चित बाबूजी अम्मा को समझाने की चेष्टा करते।

सचमुच बाबूजी का कोई भी काम कहाँ रूका? जब जरूरत पड़ी, कहीं-न-कहीं से कोई-न-कोई देने वाला आ पहुँचता, उस क्षण बाबूजी की बात पर अम्मा को भी विश्वास करना पड़ता था। अपने सीमित प्राप्य में बाबूजी जितना प्रसन्न और संतोषी व्यक्ति, मिन्नी ने कभी नहीं जाना। चार वर्ष की अल्प आयु तक पहुंचते-पहुंचते बाबूजी के माता-पिता दोनों को भगवान ने उनसे छीन लिया था। स्नेहमयी दादी और ताऊ के संरक्षण में बाबूजी का बचपन बीता था। बचपन में उनकी शैतानियों से खीज कर, ताऊजी ने उन्हें गुरूकुल भेज दिया।

गुरूकुल बचपन में छूट भले ही गया, पर वहाँ के संस्कारों से बाबूजी आजीवन मुक्त न हो सके। लोभ-मोह से बाबूजी को वितृष्णा थी, परोपकार उनके जीवन का मंत्र था। अंग्रेजी, हिदीं और संस्कृत तीनों भाषाओं पर बाबूजी का समान अधिकार था। ताऊ-बाबा की इच्छा थी, बाबूजी वहीं के स्थानीय कालेज में पढ़ कर उनके साथ काम में लग जाएँ, पर बाबूजी की कल्पना उन्हें कहीं दूर ले जाने को आकुल थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कानून की परीक्षा के समय तक बाबूजी की वाक् प्रतिभा ने उन्हें छात्र-नेता बना दिया था। नेतागिरी के चक्कर में हाजिरी कम हो गई और बाबूजी को नोटिस मिल गया कि वह परीक्षा में सम्मिलित नहीं हो सकते।

उसी रात बाबूजी द्वारा एक कवि-सम्मेलन किए जाने की घोषणा की गई थी। कवि-सम्मेलन में समस्या-पूर्ति के रूप में विषय दिया गया था, कलंक कालिका का है। लाउउस्पीकर लगाकर इस विषय पर कविता लिखने का अनुरोध बार-बार दोहराया जा रहा था। वाइसचांसलर डॉ कालिकाप्रसाद को कवि-सम्मेलन में विशेष रूप से निमंत्रित करने जब बाबूजी पहुँचे तो विषय देखते ही उन्होंने पूछा था-

”कवि-सम्मेलन में कौन-कौन से कवि पधार रहे हैं?“

”अभी तो स्थानीय कवियों की संख्या ही काफ़ी है, जरूरत पड़ने पर बाहर के कवि भी आने को तैयार बैठे हैं।“

”हूँ......अगर तुम्हें परीक्षा में बैठने की अनुमति दे दी जाए?“

”तो कवि-सम्मेलन आगामी सूचना तक के लिए स्थगित किया जा सकता है।“

”ठीक है, तुम्हें परीक्षा देने की अनुमति दी जाती है, पर ऐसी खुराफातों से दूर रहना होगा।“

कवि-सम्मेलन स्थगित हो गया और बाबूजी परीक्षा में सम्मिलित ही नहीं हुए, योग्यता श्रेणी में विधि की परीक्षा उत्तीर्ण कर वकील बन गए। वकालत के बीज मानो उनके रक्त में थे। राजनीति में भी वह सदैव विरोधी पक्ष का ही साथ देते रहे। उनकी लेखनी से प्रभावित उनके शुभचिंतकों ने उन्हें सलाह देने की कोशिश की थी,
”आपकी लेखनी में इतनी शक्ति है तो इसका लाभ क्यों नहीं उठाते? विरोधी पक्ष की जगह आप सत्तारूढ़ व्यक्तियों के विषय में भी तो लिख सकते हैं, उससे लाभ ही होगा।“

”जिस बात को मेरी आत्मा गवाही न दे, वो मैं कर ही नहीं सकता।“ अपने उच्च पदस्थ मित्रों-परिचितों से भी तो उन्होंने कभी लाभ नहीं उठाया था।

अम्मा के सब भाई सरकारी नौकरी में उच्च पदस्थ अधिकारी थे, उनके ठाठ देख अम्मा, बाबूजी को भी सरकारी नौकरी करने की सलाह देती तो बाबूजी अम्मा को नकारात्मक उत्तर देते, उन्हें किसी सीमा तक आहत कर जाते,
 ”तुम्हारे सब भाइयों ने गुलामी की है, इसीलिए मुझे भी गुलाम बनाना चाहती हो ! मुझसे किसी की जी हूजूरी नहीं होगी।“ अम्मा बाबूजी की इस बात पर उदास हो जाती थीं।

वकालत पास करने के बाद बाबूजी के इलाहाबाद आने के प्रस्ताव को ताऊ-बाबा ने स्वीकृति नहीं दी थी। बचपन से युवावस्था तक उन्हें प्यार करने वाले ताऊ के हृदय में निराशा घर कर गई थी, उनके अपने बेटे किसी योग्य नहीं बन सके थे। ताऊ के असहयोग ने बाबूजी को स्थायी रूप में इलाहाबाद जा बसने की प्रेरणा दी थी। जेब में मात्र पच्चीस रूपयों के साथ उन्होंने जन्मस्थली से सदैव के लिए विदा ले ली थी। उन पच्चीस रूपयों के साथ बाबूजी ने कैसे पैर जमाए, यह उनकी अपनी कहानी है। शहर के बुद्धिजीवी वकीलों ने उनकी मेधा को पहचाना और उन्हें अपने साथ काम के लिए नियुक्त कर लिया था। यद्यपि बाबूजी के पास न पैतृक संपत्ति थी, न अपना पुस्तकालय, पर जल्दी ही उन्होंने अपना स्वतंत्र कार्य शुरू कर दिया था। उनका मस्तिष्क ही पुस्तकालय था, अपनी स्मृति के सहारे बाबूजी ने न जाने कितने वर्ष बिना पर्याप्त पुस्तकों के बिता दिए थे। उनका मस्तिष्क मानो कंप्यूटर था जिसमें सारे मुकदमों का विवरण अंकित रहता।

वकालत में बाबूजी की उदारता उनके पास आने वाले धन की शत्रु बनी रही। हद तो उस समय हो जाती थी जब कभी-कभी जाते समय अपनी गरीबी का रोना रो, मुवक्किल बाबूजी से रेल का किराया तक ले जाते थे। उस स्थिति में अममा का झुंझलाना कितना ठीक लगता था! मुकदमों के सिलसिले में बाबूजी को बाहर भी जाना होता था। भइया हमेशा कहते,
”आप फ़र्स्ट कलास में सफ़र क्यों नहीं करते, आराम मिलेगा।“

बाबूजी कहते, ”अरे गरीब आदमी है, क्यों उसका पैसा व्यर्थ खर्च कराऊं !“

अपने मुवक्किलों की सच्ची या बनावटी गरीबी के कारण गर्मी में भी बाबूजी रेल की निम्न श्रेणी में सफर करते रहे। कभी मुकदमा जीत जाने पर, वायदे के अनुसार शेष फ़ीस के स्थान पर, मुवक्किल दस-बीस रूपयों की मिठाई के साथ, बच्चे की बीमारी का बहाना बना, फ़ीस नकार जाते थे। बाबूजी उनके बहानों पर सहज विश्वास कर लेते, पर परिवार वालों को उनकी ये उदारता रूष्ट कर जाती।

”अरे मिन्नी, तू मेरी रानी बेटी है, तेरा हृदय इतना संकुचित कैसे हो सकता है? ज्यादा क्रोध करेगी तो काली पड़ जाएगी।“ बाबूजी ने किसी के प्रति द्वेष रखना तो जाना ही नहीं था।

अम्मा की इच्छा के विरूद्व बाबूजी सबको हर वर्ष पहाड़ ले जाते रहे। अगर जेब में पचास रूपए हुए तो बाबूजी पाँच सौ खर्च करने का साहस रखते थे। कहते, ”मैं चाहता हूँ हमेशा सबको देता रहूँ, किसी के सामने कभी हाथ न फेलाऊं।“

पंडितजी शांति मंत्र का पाठ कर उपदेश-वचन कह रहे थे, ”हम सब इस जीवन-यात्रा की रेल में सवार हैं, जब जिसका स्टेशन आता है, उतर जाता हैं। बाबूजी की जीवन-यात्रा आज पूर्ण हो गई है, वह अपनी मंजिल पर पहुँच गए हैं।“

”बाबूजी का स्टेशन पिच्चासी वर्षो बाद आया। बहुत लंबी यात्रा की आपने बाबूजी। इस यात्रा की थकान कहीं, कभी भी तो परिलक्षित नहीं हुई। परसों तो आप कोर्ट जाने को तैयार थे बाबूजी!“ मिन्नी हल्के से सुबक उठी थी।

बाबूजी को प्रसन्न करना कितना आसान था ! मिन्नी याद करने लगी। जब उसकी पहली कहानी किसी स्तरीय पत्रिका में प्रकाशित हुई तो बाबूजी गदगद हो उठे थे,
”तूने मेरी इच्छा पूरी की मिन्नी, तू एक प्रसिद्ध लेखिका बनेगी।“ बाबूजी अपने बच्चों को सदैव प्रोत्साहित करते रहे। धीरा दीदी की बातें सुन बाबूजी उन्हें राजनीति में जाने की सलाह देते थे, ”धीरा, तुझे तो राजनीति में जाना चाहिए। विपक्ष को मुंहतोड़ जवाब तू ही दे सकती है। तेरी बु़द्धि और हाजिरजवाबी, राजनीतिज्ञों का गुण है।“

घर में परिवार के सदस्य की तरह रहने वाले मुंशी ने अम्मा के सारे जेवर, रूपए और साड़ियों की जब चोरी कर ली तो दुख में अम्मा महीनों बीमार रहीं, पर बाबूजी इस बड़ी चोरी से सर्वथा अप्रभावित रहे। हॅंस कर अम्मा को समझाते रहे,
 ”अरे तुम्हारे पास इतने जेवर, रूपया था, हमें पता भी नहीं था। भई ये सब कुछ तो उस चोर के भाग्य का था, हमारे भाग्य का होता तो हमारे पास रहता।“

चोरी के बाद मिन्नी भी खूब रोई थी, अम्मा का तितलियों वाला हार कितना अच्छा था! घर में चोरी के बाद अपने सूटकेस में पाँच रूपए का नोट देख बाबूजी खिल उठे थे,
”भई चोर बड़ा हमदर्द था, आज की सब्जी-भाजी की खरीद के लिए पाँच रूपए छोड़ गया है।“ बाद में कहीं उस मुंशी को देख बाबूजी ने उससे कोई शिकायत तक नहीं की थी।

बड़ी होती लड़कियों और उस पर वो चोरी, अम्मा तो टूट गई थीं, पर बाबूजी पर उसका रंच-मात्र भी प्रभाव नहीं दिखा। अम्मा को सांत्वना ही देते रहे, ”भगवान पर विश्वास रखो, वही हमारी मदद करेगा।“

अम्मा सच्चे अर्थो में बाबूजी की अर्धांगिनी थीं। बाबूजी के साथ अम्मा ने जीवन के बासठ वर्ष व्यतीत किए थे। अम्मा ने अपने को बाबूजी के अनुसार ढाल लिया था। बाबूजी का संतोष, अम्मा में भी कम नहीं था, उन्होंने बाबूजी से कभी अपने लिए कोई माँग नहीं रखी। बाबूजी के भगवान के प्रति अगाध विश्वास ने, अम्मा को भी सम्मोहित किया था। भगवान ने भी बाबूजी की लाज रखी थी, बेटियों के विवाह में बाबूजी का आत्मसम्मान जीवित रहा था। पुत्रियों के विवाह के विषय में बाबूजी अन्य बेटियों के पिताओं से कितने भिन्न थे-जहाँ किसी लड़के वाले ने पूछा, ”शादी में दान-दहेज कैसा देंगे?“ तुरंत बाबूजी का निर्भीक उत्तर रहता,
”देखिए साहिब, मुझे भिखारियों में तो अपनी लड़की देनी नहीं है, आपके यहाँ मेरी बेटी सुखी नहीं रह सकती, इसलिए आगे बात बढ़ाना व्यर्थ है।“ अम्मा और मामा डर जाते - ”ऐसी बातें करके भला कहीं बेटियों के हाथ पीले होते हैं?“ पर बाबूजी पर किसी के कहने का असर ही कब पड़ता था!

”मेरी बेटियाँ प्यार में पली हैं, इनके विवाह ऐसी जगह करूँगा, जहाँ इन्हें प्यार मिले। हम लोग बिना रोक-टोक उनके घर आ-जा सकें। मुझसे अपनी बेटियों का बिछोह नहीं सहा जाएगा।“

सचमुच भगवान ने बाबूजी की बात रख ली, बेटियों के विवाह अच्छे परिवारों में ही हुए। अपने विवाह के समय की बात मिन्नी को आज भी खूब अच्छी तरह याद है।

पंडित जी ने कहा था, ”बाबूजी, अब कन्यादान कीजिए।“ बाबूजी रूष्ट हो उठे थे,
”मेरी कन्या कोई गाय-बैल नहीं कि उसका दान करूँ। मैं उसे उसके जीवन-साथी को सौंप रहा हूँ, ताकि दोनों एक-दूसरे के दुख-सुख के सहभागी बन सकें।“

बाबूजी की इस बात पर पंडित जी स्तब्ध रह गए थे, मिन्नी के श्वसुर मुस्करा उठे थे, ”ठीक ही तो कह रहे हैं बाबूजी, अरे हमारे भाग्य जो ऐसी लक्ष्मी कन्या हमारे घर आ रही है, ये दान की पात्री नहीं आदरपात्री है। पंडितजी आगे के मंत्र पढ़िए।“

मिन्नी के पति कभी-कभी उसकी हॅंसी भी उड़ाते, ”तुम मेरी विवाहिता कम, आदरपात्री अधिक हो।“

मिन्नी ने पी-एच0डी0 की डिग्री पाई तो बाबूजी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा, ”मेरी हार्दिक इच्छा थी मेरे सब बच्चे डाक्टरेट की डिग्री पाएँ। तुमने मेरे विश्वास को सही सिद्ध किया है, मिन्नी!“

उसके बाद मिन्नी यू0एस0ए0 चली गई थी। बाबूजी के भगवान ने उनकी विदेश-यात्रा की इच्छा पूर्ण नहीं की थी। अपने बच्चों की विदेश यात्राओं में ही बाबूजी ने अपने स्वप्न पूर्ण किए थे। धीरा दीदी के पेंटिंग के शौक को देख बाबूजी ने कहा था,
”धीरा को पेंटिंग सीखने इटली भेजूँगा।“ पास बैठे मामाजी हॅंस पड़े थे,
”जीजाजी, ये शेखचिल्लियों वाली बातें कर आप बच्चों को कब तक बहलाते रहेंगे?“ मामाजी के स्वर में व्यंग्य छलक आया था। पूर्ण आत्मविश्वास के साथ बाबूजी ने कहा था,
 ”देख लेना, मेरी धीरा इटली जरूर जाएगी। ये मेरी बात है।“

धीरा दीदी जब सचमुच इटली गई तो बाबूजी कितने उत्साहित थे,
”नंदन आज होता तो देखता, जो मैंने कहा पूरा हुआ।“ उसके बाद भइया और मिन्नी सभी तो विदेश यात्रा कर आए, नहीं जा पाए तो बाबूजी। प्रति वर्ष वह उत्साह से कहते, ”जरा स्वास्थ्य साथ दे तो अगले वर्ष अमेरिका घूम आऊं।“ बाबूजी को पूरी तरह न जानने वाले लोग मन-ही-मन भले ही मुस्कराते रहे हों, पर मिन्नी को बाबूजी की बात पर पूरा विश्वास था।

पिछली बार होली पर मिन्नी ने बाबूजी में बहुत परिवर्तन पाया था। उनका अधिकांश समय दफ्तर में कुछ पढ़ते हुए बीतता था। बुलाने पर घर के भीतर आए, चाय पीकर या खाना खाकर फिर बाहर चले गए। जो घर बाबूजी की जीवंत बातों और कहकहों से गूँजता था, बाबूजी के मौन से बड़ा सूना-सा लगता था। धूप में आँखें बंद किए लेटे बाबूजी बड़े उदास-से लगते। मिन्नी सोचती, बाबूजी कहाँ खो गए हैं? ऐसा लगता था अपने ही घर में बाबूजी अपने को अजनबी पाते थे।

अम्मा ने ही बताया था- बाबूजी के एक दूर के रिश्ते के भांजे वकालत पास कर ट्रेनिंग लेने बाबूजी के पास आए थे। बाबूजी उन्हें पुत्रवत् स्नेह देते थे। कुछ ही दिनों में घाघ भांजे की समझ में आ गया, बाबूजी तो हैं भोले बाबा, मुवक्किल उनके भोलेपन का लाभ उठाते हैं। बस बाबूजी की जानकारी के बिना, बाबूजी के मुवक्किलांे से दुगनी फीस उन्होंने वसूलनी शुरू कर दी। यही नहीं, कुछेक परिचितों के पास पत्र भेजने शुरू कर दिए, ”बाबूजी को अब वृद्धावस्था के कारण कानों से ठीक सुनाई नहीं देता, उनका काम मैं कर रहा हूँ। अतः आप सीधे मेरे दफ्तर में संपर्क करें। बाबूजी के कई पुराने मुवक्किल उसके बहकावे में आ गए थे। बाबूजी के बल पर भांजे महोदय ने पास ही अपना नया दफ्तर भी खोल लिया, जिसके बारे में बाबूजी को जब उनके भांजे के कारनामों की सूचना दी तो बाबूजी स्तब्ध रह गए। भांजे पर आक्रोश उतारा जरूर पर अंदर तक वे बुरी तरह टूट गए थे। जिसे बेटे के समान प्यार दिया, उसी ने उनकी जड़ें काटनी चाहीं।“

बाबूजी ने परिस्थितियों से हार मानना नहीं जाना था। वृद्धावस्था के कारण स्वास्थ्य भले ही साथ न देता हो, बाबूजी के उत्साह में कमी नहीं आई थी। नए सिरे से काम करने के उद्धेश्य से वह यात्राओं पर निकल जाते। अम्मा और भइया समझाते,
”अब यह उम्र अकेले सफर करने की नहीं रही।“ पर बाबूजी ने कब किसकी सुनी! बिस्तर बाँधा और आज अलीगढ़ तो कल बरेली, बदायूँ के लिए निकल पड़ते। पिछली बार मिन्नी से कहा था,
”इस बार अमेरिका से एक स्लीपिंग बैग लेती आना मिन्नी, अब बिस्तर बाँधने में कठिनाई होती है।“

मिन्नी के नयन भर आए - कहाँ ला पाई थी वह स्लीपिंग बैग! आज उनकी अंतिम यात्रा तो बस बाँस की शय्या पर रस्सियों से बाँध कर पूर्ण की गई है।

पिछली बार की गंभीर बीमारी के बाद बाबूजी ने अपने को सबसे काट लिया था। जीवन में सदैव दबंग रहने वाले बाबूजी मौन कुछ सोचते रहते थे। हर जगह, हर परिस्थिति में निर्भय रहने वाले बाबूजी बीमारी में डाक्टरी दवा का विरोध कर कहते थे-

”तुम लोग मुझे जहर दे रहे हो। मुझे ये दवाइयाँ सूट नहीं करती। इन्हें खाकर मैं मर जाऊंगा।“

अमित ने हॅंस कर कहा था, ”बाबूजी, मरना तो सबको एक दिन है ही, तो मृत्यु से भय क्यों?“ मिन्नी का विश्वास है, बाबूजी के मन में मृत्यु के प्रति शायद भय तो कतई नहीं था, हाँ काम करते रहने के लिए उन्हें जीने की चाह जरूर थी। अस्सी वर्ष पूर्ण करने के बाद बाबूजी हॅंस कर कहते,
”जानती है मिन्नी, मेरे साथी वकील कहते हैं मेरी उम्र साठ वर्ष से अधिक नहीं लगती।“

”सच ही तो कहते हैं, हमने तो जब से आपको देखा है आप वैसे ही लगते हैं।“ मिन्नी की बात पर बाबूजी प्रसन्न हो जाते। पर मिन्नी भी झूठ तो नहीं कहती थी। जीवन के अंतिम क्षण तक कार्य करते रहने की अदम्य चाह ही उन्हें पिच्चासी वर्षो तक जीवित रख सकी अन्यथा संसार के छल-कपट देख उनकी आत्मा पहले ही मुक्ति ले लेती। पिछली बार की गंभीर बीमारी के बाद स्वस्थ होने पर उनके आत्मीयों ने बाबूजी के दोष गिनाने शुरू कर दिए थे।

जीवनपर्यत बाबूजी ने जिन सिद्धांतों के सहारे अपनी जीवन-यात्रा पूर्ण की थी, उनके उन्हीं सिद्धांतों पर निकट संबंधी कुठाराघात कर रहे थे। मुवक्किलों से पूरी फीस न वसूल पाना उनकी सबसे बड़ी कमी बताई गई थी। जूनियर वकील भइया से शिकायत करते,
”बाबूजी की सिधाई से मुवक्किल फायदा उठाते हैं, अगर हम फ़ीस वसूल लें तो बाबूजी हम पर नाराज होते हैं। बाबूजी कुछ न कहें तो हम दुगनी फ़ीस दिला सकते हैं।“

भइया बाबूजी को समझाना चाहते, ”अगर आप पूरी फीस नहीं ले सकते तो न लें पर दूसरों को क्यों रोकते हैं?“

बाबूजी का कहना था, ”ये बेईमानी है, वो लोग गरीबों को लूटना चाहते हैं। मेरे अपने सिद्धांत हैं। मुझे इसी में शांति है, मैंने किसी का दिल नहीं दुखाया है।“

भइया का समझाना गलत नहीं था, एकाध जूनियर इसी कारण बाबूजी के पास से चले गए थे, पर बाबूजी को समझा पाना कठिन था। बाबूजी ने अपने ढंग से जीवन जिया था, पैसे को उन्होंने कभी विशेष महत्व नहीं दिया था, पर उसी पैसे के कारण बाबूजी को निरीह भाव से सबके आक्षेप स्वीकार करने पड़ते थे,
”पैसा तो आपने काफी कमाया पर उसे फिजूलखर्ची में बहा दिया, कम-से-कम भाभीजी के लिए एक घर तो बनवा लिया होता।“

गंभीर बीमारी ने बाबूजी के सोच की दिशा शायद प्रभावित की थी। भइया के शौक की फ़िजूलखर्चियों के लिए जो बाबूजी खुशी-खुशी अपनी जेब खाली कर दिया करते थे, अपने अंतिम दिनों में अम्मा को रूपए देते भी हिचक जाते थे। घर से चलते समय मिन्नी को याद है, बाबूजी अपनी पाकेट में जो भी होता थमा देते थे। मना करने पर हमेशा कहते,
”ये तो तुम्हारे भाग्य का था-अगर और ज्यादा होता तो तुम्हें मिलता।“ बाबूजी कोशिश करने लगे रूपए अपने पास सॅंभाल कर रख सकें। आजीवन रूपए न सम्हालने की आदत घर में काम करने वालों के लिए वरदान सिद्ध हुई। बाबूजी अक्सर परेशान दीखते, उनके कोट की जेब या संदूक में कल के रखे रूपए गायब मिलते। अम्मा और भइया झींकते,
”ये बाबूजी को अपने पास रूपए रखने का नया शौक चर्राया है, जिंदगी-भर सब खुला छोड़ा, भला अब तालेबंदी कर पाएँगे!“

बाबूजी का अंत समय निकट था, कोई नहीं जान पाया। इस बार मृत्यु ने बाबूजी को भी धोखा दे दिया वर्ना बाबूजी अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से उसे वापस कर देते। दो दिन पहले नया मुकदमा दाखिल कर अम्मा से उत्साहित हो कह रहे थे,
”पिछली बार बीमारी में सबको डरा दिया था न? मिन्नी को अमेरिका से आना पड़ा, बेचारी मायूस गई, मैंने मृत्यु को टरका दिया था न?“ अपनी बात पर बाबूजी हॅंस पड़े थे। अम्मा रूष्ट हो गई थीं, ”छिः, ऐसा भी भला मजाक किया जाता है! न जाने कब जाएगा आपका ये बचपना!“

”सोचता हूँ, इस बार हम दोनों अमेरिका घूम ही आएँ। मिन्नी के पास चैक-अप भी करा लूंगा।“

”अच्छा, इसीलिए रूपए जोड़ रहे हैं?“ अम्मा मुस्करा उठ्तीं।

”न, उसके लिए रूपए जोड़ने की क्या जरूरत है? जिस दिन जाना तय कर लूंगा, मेरा ऊपर वाला खजांची पैसे भेज देगा।“

”बाबूजी की अमेरिका जाने की साध पूरी नहीं हुई, मिन्नी!“ अम्मा आँसू पोंछ रही थीं।

बस दो दिन मामूली बुखार ही तो आया था। बहू ज्योति के हाथ से दवा ले, हल्की-सी मुस्कान के साथ सबको उदार हृदय से क्षमा कर बाबूजी ने नयन मूंद लिए थे। काश! मिन्नी एक सप्ताह पहले आ जाती और बाबूजी से कह पाती-

”बाबूजी, आपने जो जीवन जिया और हमें दिया वो तो सिर्फ भाग्यशालियों को ही मिलता है। आपने जीवन का एक-एक पल पूरी तरह जिया था, बाबूजी! आप जीवन रूपी रंगमंच के सफलतम अभिनेता थे बाबूजी!“

बाबूजी चले गए...............सन्नाटे के स्थान पर सब कुछ सुवासित भीगा-भीगा-सा लग रहा है। शायद वीतरागी कर्मयोगियों की मृत्यु ऐसी ही होती है। पास खड़ा व्यक्ति सुबक उठा, ”अब गरीबों को न्याय कौन दिलवाएगा, बाबूजी!“ ऊपर उठते धुएँ को निहारती मिन्नी के नयन भर आए थे।