12/1/09

विकल्प नहीं कोई


    बम्बई से गोआ जाने वाले शिप का अन्तिम साइरन बज चुका था। लंगर उठा। शिप के चलते ही हर्ष-ध्वनि के साथ टाटा.........बाँय.............बेस्ट आँफ लक..........हैप्पी जर्नी गूँज उठे नीचे डेक पर दरी-चादर बिछाए लोग अपेक्षाकृत प्रकृतिस्थ-से दीख रहे थे। केबिन में मनीष सामान सहेजने, उसे व्यवस्थित करने में व्यस्त थे। नन्हा राहुल उनका सहयोगी बना सहायता कर रहा था।
    रेलिंग पर टिकी सौम्या दूर तक फैले निस्सीम सागर को देखती कहीं खो चुकी थी। शिप से टकराती लहरें मानो उसके सीने पर सिर पटक-पटक हाहाकार कर रही थीं। समानान्तर पश्चिमी घाट की पहाड़ियों से जुड़े अरब सागर के साथ दस वर्षों पूर्व की सागर-यात्रा सजीव हो उठी थी............
    सुनो, तुम्हारा वो छोटा ब्रीफ़केस कहाँ है? मनीष की आवाज पर चौंक कर सिर उठाती सौम्या की खोई-सी दृष्टि देख मनीष खीज उठे थे।
क्या बात है? आर यू ओ के ? आई हेट दि राइटर इन यू। न जाने कहाँ खो जाती हो! शायद कहानी का कोई प्लाँट मिल गया है! स्वर में व्यंग्य घुल गया था।
केबिन में प्रवेश करते ही कोने में रखे ब्रीफ़केस पर सौम्या की दृष्टि पड़ गई थी। ब्रीफकेस सहेज मनीष ने आश्वस्ति की साँस ली । राहुल के सिर पर हाथ धर, पीठ थपथपाते मनीष ने अपने नन्हे सहयोगी के प्रति कृतज्ञता भी व्यक्त कर दी।
चलो चाय पीकर आते हैं। इस यात्रा ने तो शुरू में ही बोर कर दिया। पूरे दो घण्टे लेट हो गए। अच्छा होता बाई रोड चले जाते, पर राहुल मास्टर को तो पानी के जहाज़ में आने की जिद थी न? मनीष मुस्करा दिए ।
चारों ओर बिखरी खुशी और उमंग में मनीष का परिचित चेहरा भी उस भीड़ का अंग बन, सौम्या को नितान्त अपरिचित लग रहा था।
नहीं-नहीं, मेरा तो जी मितला रहा है। आई थिंक आई एम गेटिंग सी-सिक। तुम तो जानते ही हो......
हाँ-हाँ, सब जानता हूँ। चलो राहुल, हम चलें। तुम्हारी माँ एन्ज्वाँय करना जानती ही कहाँ है। मनीष का स्वर नाराज़ था।
उमड़ रहे आँसुओं को जबरन रोक केबिन के पलॅंग पर सौम्या कटे पेड़-सी गिर गई थी। क्या मनीष सचमुच भूल गए थे? इसी शिप पर तो कभी सौम्या ने अपना सर्वस्व खो दिया था। उन दस वर्षों का अन्तराल क्यों बस पन्द्रह दिनों का लग रहा था? इतने वर्षों से अन्तर् में बन्दी वो दस वर्ष पूर्व की घटना क्यों इस शिप पर उस पर हावी हो उठी थी? तब की सौम्या किस उमंग से लन्दन जाने को आतुर थी! .......
आशू को गोद में लिये जैसे ही जहाज़ पर चढ़ने लगी थी, अचानक पीछे से आशू को खींच, खिलखिलाते रोहित ने उसे कितना चौका दिया था-
ये तुम्हारा काम नहीं है, सौम्या! अजी अपनी बेटी लादने को तो ये खच्चर ही ठीक है। हाँ, जरा अपनी साड़ी का पल्ला सम्हाल के रखना, कहीं लोगों की नजर न लग जाए!
ओह, रोहित! सौम्या लजा उठी थी। साड़ी पर दृष्टि डालके देखा था। लाल कांजीवरम की साड़ी सासजी ने जबरदस्ती पहना दी थी। उनकी लाड़ली इकलौती पुत्रवधू विेदेश जो जा रही थी। सच उस साड़ी को नन्ही आशू के साथ सम्हाल पाना कितना कठिन था! पर माँ की जिद के आगे रोहित को भी चुप रहना पड़ा, वर्ना उन्हें तो बस सौम्या की सूती पाड़वाली साड़ियाँ ही प्रिय थीं
रोहित आशू को गोद में लिये कितने उल्लसित और गर्वित थे! मात्र आठ मास की आशू को लन्दन ले-जाने का साहस सौम्या में कहाँ था! पर रोहित ही थे कि अड़ गए कि बेटी साथ ही जाएगी, ।
तीन साल बाहर रहूँगा तो आकर पापा से बेटी का नया परिचय कराना होगा। वैसे भी 'मैडम मम्मी' आप अकेले क्या करेंगी? मैं व्यस्त रहूँगा अपनी पढ़ाई में, ये गुड़िया ही आपका मन बहलाएगी न? रोहित जोर से हॅंस दिए थे।
सच रोहित आशू के प्यार में दीवाने बने रहते थे। सोते में करवट बदलते हुए कुनमुनाती आशू की तुरन्त उठ नब्ज देखने लगते थे। सौम्या उनकी इस उतावली पर मुस्करा देती थी- डाँक्टर हो न, घर में भी पेशेन्ट ही खोजते हो।
छह फ़ीट के रोहित के हृदय में छह वर्ष के कोमल शिशु का हृदय था। बात-बात में उन्मुक्त निश्छल हास्य से गम्भीर बात भी कभी रोहित हॅंसी में उड़ा देते थे। कई बार रोहित की इस बात पर सौम्या नाराज भी हो उठती थी-
भगवान के लिए कभी तो सीरियस हो जाया करें! हर बात मजाक में ही ले लेते हैं।
सासजी को सौम्या माँ ही कहती थी। वही कहती थीं-
रोहित तो बचपन से ही ऐसा रहा है, बहू! तेरे ससुर जी के न रहने पर इसने मुझे एक दिन भी रोने नहीं दिया था। पुत्र-स्नेह से माँ का मुख चमक उठता था।
घर में अपार धन-सम्पत्ति के एकमात्र स्वामी रोहित ने कभी किसी से ऊॅंचे स्वर में बात नहीं की थी। पिता की अन्तिम इच्छा रोहित को डाँक्टर बना कर हार्ट-सर्जन रूप में देखने की थी। रोहित पिता की इच्छा उनके जीते जी पूर्ण न कर सके, इसका रोहित को दुःख रह गया था। रोहित के साथ सौम्या इन्द्राणी-सी सजती थी। रंगीन कल्पना के सपने देखती सौम्या को रोहित अचानक जैसे नींद से जगा देते थे। सौम्या की खीज पर तुरन्त कोई बहाना उन्हें मिल जाता था-
सौम्या! मैं सोच रहा था अपनी आशू को डाँक्टर नहीं बनाएँगे, बस वह तुम्हारी जैसी बनेगी।
बस इतनी-सी बात कहने के लिए मुझे डिस्टर्ब किया था? जानते नहीं इतना अच्छा कहानी का प्लाँट मिला था।
वाह, अपनी बिटिया के भविष्य-निर्माण से भी अच्छा क्या कोई काम हो सकता है, देवी जी?
भविष्य-निर्माण क्या इसी पल करना है? और फिर ये डाँक्टर क्यों नहीं बनेगी? सौम्या कौतूहल में पूछ बैठती।
सोचता हूँ ये डाँक्टर नहीं, डाँक्टर की पत्नी बन अपनी मन्द-मन्द मुस्कान से उसका इलाज करेगी....... यानी अपनी मम्मी की प्रतिछाया बनकर रहे, वही ठीक रहेगा न? शैतान मुस्कान रोहित के अधरों पर तैर आती थी।
हार्ट-सर्जरी में विशेषज्ञ रोहित को जब तीन वर्ष के लिए लन्दन के एक अस्पताल से आमन्त्रित किया गया तो रोहित पुलक उठे थे। माँ के मुख पर अचानक छा गया विषाद देख उन्हें अपना निर्णय बदलते देर नहीं लगी थी।
नहीं माँ, मैं विदेश नहीं आऊॅंगा। पापा का स्वप्न यहीं इसी शहर में साकार करूँगा।। रोहित ने प्यार से माँ का कंधा पकड़ उन्हें सांत्वना देनी चाही थी।
छिः, पागल हो गया है क्या? ऐसे अवसर भला क्या बार-बार मिलते हैं? तू बड़ा सर्जन बनकर आएगा तो कितनी खुशी होगी उनकी आत्मा को? अपने विषाद को माँ ने एक पल में पोंछ डाला था।
फिर माँ ने ही जिद की थी सौम्या को साथ भेजने की। सौम्या और आशू को साथ ले-जाते रोहित माँ को अकेला छोड़ते अपराधी-सा महसूस कर रहे थे। रोहित का संकोच देख माँ ने ही मीठी झिड़की दी थी-
ना बाबा, तुम्हारे पीछे मैं इन दोनों का बन्धन कहाँ पालूँगी? अकेली जान ठहरी, जहाँ जी चाहा चली जाऊॅंगी। अपनी गृहस्थी अब तू ही देख।
कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से रोहित माँ को ताकते रह गए थे। अकले में सौम्या से कहा था-

देखा सौम्या, ये मेरी माँ हैं, मेरे मन को किस आसानी से पढ लेती हैं! पिताजी के न रहने पर मैं ही उनका सहारा हूँ! आज किस आसानी से उन्होंने मुझे मोह-मुक्त कर दिया न?
पानी के जहाज से यात्रा का प्रस्ताव रोहित का था- पूरे एक महीने का समय है, लहरों पर पन्द्रह दिन तारों की छाँव में......एक अनुभव होगा, सौम्या!
रोहित ने सचमुच सौम्या के स्वप्न साकार कर दिए थे। डेक पर खड़े दोनों लहरें गिनने का कम्पीटीशन करते अचानक जोर से हॅंस पड़ते थे। अचानक हॅंसी से आसपास के लोग किस कदर चौंक उठते थे, पर उन दोनो के संसार मे किसी और के लिए स्थान ही कहाँ था? रात में तारों की छाँव में भविष्य के सपने बुनना, आशू का नन्हा मुख चूम उसे सोते से जगा देना रोहित को कितना अच्छा लगता था।
सौमी! लगता है अब मैं भी कहानीकार बनता जा रहा हूँ। जी चाहता है इस यात्रा का कभी अन्त न हो। इन तारों की छाँव में अनन्त निद्रा में सो जाने का मन करता है न?
क्यों नहीं............ आशू के साथ पूरे दिन रहना पड़े तो पता लगेगा जनाब! मेरी कहानी तो बस यही बन गई है। जब रोना शुरू करती है तो चुपने का नाम ही नहीं लेती है।
तुम इस मामले में अनाड़ी हो, सौम्या! देखा नहीं मेरी गोद में आते ही चुप हो जाती है मेरी बेटी। वह भी जानती है उसे कौन ज्यादा प्यार करता है। क्यों, ठीक कहा न, बिटिया? आशू का लाड़ करने रोहित उसे चिढ़ाते जाते थे।
शिप के स्वेज नहर में प्रवेश करते ही रोहित उत्साहित हो उठे थे-
कुछ ही घण्टों में हम भूमध्यसागर में होगे सौम्या, ग्रीस-इटली सबको छूते चलेंगे। लौटते समय कम-से-कम चार दिन रोम में रूकेंगे।
रोम में क्यों, पेरिस में क्यों नहीं? सौम्या को पेरिस के रात्रि-जीवन में अधिक आकर्षण था।
क्यों भई, क्या इरादे हैं कहीं माँडेलिंग का इरादा तो नहीं है? वहाँ इण्डियन माँडेल्स बहुत डिमांड में है। आप पर तो हजारों फ्रेंच मर मिटेंगे, जनाब!। रोहित सौम्या को चिढ़ाने के मूड में आ गए थे।
ऐनी आँब्जेक्शन? सौम्या ने तिरछी दृष्टि से रोहित को उत्तर दिया था।
क्यों नहीं, आप पर कोई नजर डाले...........भला सह सकूँगा मैं? हाथ लगाने की बात कोई सोचकर तो देखे, कच्चा खा जाऊॅंगा उसे। रोहित प्यार से मुस्करा दिए थे।
माँ को लिख दूँगी, यूरोप की धरती पर पाँव धरने के पहले ही उनका शाकाहारी बेटा नर-भक्षी बनने की तैयारी कर रहा हैं।
वो अपने बेटे को जानती हैं, सौम्या! माँ के प्रति अनन्य विश्वास रोहित का गौरव था।
उस पल डेक से हटकर सौम्या केबिन में आई थी। आशू को फ़ीडिंग बोतल दे सौम्या अधलेटी किसी पत्रिका के पृष्ठ पलटने लगी थी। थोड़ी दूर पर रोहित ईजी-चेयर में बैठे कोई मैप ध्यान से देख रहे थे। अचानक रोहित की आवाज पर सौम्या चैंक उठी थी-
सौ............मी............ई................काल दि डाँक्टर! सौम्या सिर नीचा किए मुस्कराती रही थी। यह रोहित का प्रिय परिहास था- सौम्या का हाथ सीने पर रख रोहित हमेशा कहा करते-
लुक, आई एम डाइंग, अपने प्यार की दवा देके इस मरीज को बचा लो, सौमी!
कुछ ही क्षणों बाद अजीब-सा अस्फुट क्रंदन सुन सौम्या ने रोहित की ओर दृष्टि डाली थी। मुस्कान अधर पर जम गई। क्या वो एक्टिंग थी? मृत्यु की पीड़ा से मुख काला पड़ा जा रहा था। सौम्या ने झटके से उठ रोहित को थामना चाहा था, पर रोहित अस्फुट स्वर में बुदबुदा-भर सके थे- डाँक्..........टर.......... स्वर में मानो प्राण बिंधे आ रहे थे।
और फिर रोहित के प्राणों से प्रिय हाथों को झटके से छुड़ा सौम्या पागल-सी केबिन के बाहर भागी थी। किसी केबिन के खुले द्वार में प्रवेश कर रो पड़ी थी-
मेरे हस्बेंड को कुछ हो रहा है......ही इज वेरी सिक....... प्लीज काँल दि डाँक्टर............! एक व्यक्ति को तत्परता से उठता देख सौम्या वहीं गिर मूर्छित हो गई थी।
आँख खोलते ही सब-कुछ भयावह सपना-सा लगा था। अपरिचित केबिन में पूर्ण स्तब्धता थी। नर्स के प्रवेश करते ही वह यथार्थ में लौट आई थी-
कैसे हैं मेरे पति, सिस्टर? स्वर की व्यग्रता पर नर्स ने उदास दृष्टि से सौम्या को ताक कुछ नहीं कहा था। सौम्या व्याकुल हो उठी थी-
सिस्टर, प्लीज सच बताइए, कैसे हैं रोहित? उन्हें आप अकेला क्यों छोड़ आई हैं? और मेरी बेबी?
शान्त सधे स्वर में नर्स ने कहा था, मिसेज रोहित, हमें दुःख है डाँक्टर रोहित अब नहीं हैं। उन्हें बहुत मैसिव आर्ट अटैक हुआ था। डाँक्टर के पहूँचने के पूर्व ही...........।
नहीं..........नहीं.........ये सच नहीं है! वह मुझे अकेला छोड़कर नहीं जा सकते! कहाँ हैं रोहित? मैं जाऊॅंगी उनके पास.............।
उनकी बाँडी केबिन में सील कर दी गई है, मैडम!
शान्त, निर्वाक् सौम्या नर्स को फटी-फटी आँखों से ताकती रह गई थी। इतने बड़े भूमध्यसागर के वक्ष पर रोहित उसे कितना असहाय छोड़ गए थे।
कैप्टन, डाँक्टर और कुछेक भारतीय उसके पास संवेदना के लिए आ खड़े हुए थे। नर्स तब तक नन्हीं आशू को स्तब्ध बैठी सौम्या की गोद में डाल गई थी। रोहित के आकस्मिक निधन पर शोक प्रकट करते कैप्टन ने अत्यन्त शालीनता के साथ रोहित के शरीर को जल-समाधि देने की सौम्या से अनुमति माँगी थी। शिप में मृतक शरीर रखने के स्थान पर जल-समाधि देना उन्हें अधिक उपयुक्त लगा था। कैप्टन की बात ने सौम्या को चैतन्य कर दिया था-
नहीं-नहीं ..........जितना भी पैसा चाहिए ले लीजिए, मैं उनका संस्कार विधिवत् कराऊॅंगी।
पर.......... ये शिप तो अभी रोम रूकेगा.............. वहाँ की व्यवस्था................
कैप्टन की बात काट सौम्या ने कहा था- रोम के भारतीय राजदूत से सम्पर्क कीजिए, वे हमारे परिचित हैं। मैं रोहित को यूँ नहीं छोड़ सकती।। सौम्या के नयनों से टप-टप आँसू झर रहे थे।
अपने केबिन को सील लगा देख सौम्या की प्रश्नवाचक दृष्टि के उत्तर में कैप्टन ने ही बताया था कि उसका सामान दूसरे केबिन में शिफ्ट कर दिया गया था। एक ब्लैंक चेक पर साइन कर सौम्या ने कैप्टन को थमाना चाहा तो वह पीछे हट गया था-
हम रोम के एम्बेसेडर से सम्पर्क करेंगे, आप परेशान न हों, मैडम! वी विल डू अवर बेस्ट! हमें इस घटना का हार्दिक दुःख है।
बहुत चाहकर भी सौम्या केबिन में रोहित के निश्चल शरीर को देखने न जा सकी थी। उस जीवन्त रोहित के स्थान पर उसके शान्त स्वरूप की कल्पना भी असंभव थी। कितनी दूर चले गए थे रोहित! आवाज देकर सौम्या उसे बुला नहीं सकती थी। कितनी बार सौम्या रोहित की तेज चाल पर झुँझला उठती थी- ।
ये क्या दौड़ लगाते हैं आप? आगे से कभी साथ आई तो सौम्या नाम नहीं मेरा।
सौम्या के मुख पर आई लालिमा और पसीने की नन्हीं बूँदो को मुग्ध ताकते रोहित हॅंस पड़ते थे।
ठीक है, आप कार में आया करें, ये बन्दा कार के पीछे दौड़ा करेगा।
उस दिन रोहित को पुकार सौम्या पूछ भी नहीं सकी थी,
मुझे यूँ अकेला छोड़ तुम इतनी दूर क्यों चलें गए, रोहित? तुमने तो हमेशा साथ देने का वादा किया था न?
कभी-कभी एक आकुल शंका सौम्या को आज भी सहमा देती थी- कहीं उससे मिलने को रोहित कुछेक क्षणों को उस अकेले केबिन में वापस तो नहीं आए थे?
झर-झर झरते आँसू और जलती चिता की साक्षी बनी सौम्या रोम में खड़ी थी, जहाँ वापसी के समय रोहित कम-से-कम चार दिन रूकना चाहते थे। चार दिन सचमुच रोम में रूकना पड़ा था- औपचारिकताएँ जो पूर्ण करनी थीं। राजदूत ने उसे बेटी-सा स्नेह दे सांत्वना दी थी।
रोहित को रोम में अन्तिम यात्रा की विदाई दे, छोटे-से डिब्बे में उनके अवशेषों के साथ सौम्या प्लेन में बैठी थी। आशू के रोते ही रोहित याद आ गए थे-
छोड़िए मैडम............मेरी बेटी मैं ही रखूंगा अपने कन्धे पर......। क्या नन्ही आशू को भी पिता की सबल भुजाएँ याद आ रही थीं? सौम्या के नयन भर आए थे- कहाँ गए रोहित? हर पल अपनी बिटिया छीन लेते थे, क्या उसका रूदन सुन तुम्हारे भस्मावशेष व्याकुल नहीं हो उठेंगे?
भारत की धरती पर लैंड करते ही सौम्या का हृदय धड़क उठा था। कैसे सामना कर सकेगी रोहित की ममतामयी माँ का? एयरपोर्ट पर माँ उसे लेने आई थीं। श्वेत परिधान माँ की करूणा उजागर कर रहा था। आँखें न जाने कब से सोई नहीं थीं। माँ के सीने से लग सौम्या जोर से रो पड़ी थी। सांत्वना का हाथ सौम्या की पीठ पर धरती माँ फूट पड़ी थीं-
छह फीट के बेटे के साथ गई थी सौमी, उसे छह इंच डिब्बे में वापस लाई है, बहू?
गीली आँखों के साथ सौम्या उस सूने घर में पहूँची थी जहाँ जीवन का कोई अंश बस आशू के रूदन में ही बचा था। जिस घर के आँगन में रोहित कभी घुटने चले थे वहाँ आशू का पालना पड़ गया था। माँ ने साहस से काम लिया था। अपने को सहेज माँ आशू पर अपने प्यार का सागर उॅंडेलती थीं। आशू को दुलारते माँ हमेशा यही कहतीं-
एकदम अपने पापा पर गई है। वो भी बचपन में ऐसे ही मेरे सीने में सिर छिपा सोता था। अपने स्नेह-विगलित स्वर को माँ झूठी मुस्कान का आवरण चढ़ा सौम्या को नहीं, अपने को झुठलाती थीं। सौम्या का अकेलापन माँ की चिन्ता का विषय था। जिद करके उन्होंने सौम्या को पी-एच डी के लिए राजी किया था-
तेरे श्वसुर जी की हार्दिक इच्छा थी उनकी बहू उच्च शिक्षिता हो। तूने एम ए में फर्स्ट डिवीजन पाई हैं, सौमी! उसे यूँ ही व्यर्थ न कर, बेटी! रोहित के न रहने के बाद से माँ उसे बेटी ही कह सम्बोधित करती थीं।
घर में सम्पत्ति का अभाव न था। जो अभाव था वह कभी पूरा हो नहीं सकता था। उस विशाल भवन के कण-कण में रोहित का अस्तित्व था। यूनीवर्सिटी पहॅुंचाने माँ स्वयं साथ गई थीं। कार से उतरती सौम्या के सिर पर हाथ धर धीमे से कहा था-
आज से तू एक नए जीवन में पदार्पण कर रही है बेटी! भगवान तेरा भविष्य उज्ज्वल करे!
उसके बाद सब-कुछ कितनी जल्दी घटित हो गया था! एक ही पुस्तक को खोजते वह मनीष से टकरा गई थी। मनीष सौम्या के विषय के प्राध्यापक थे। समाज-शास्त्र विभाग में उनकी विद्वता की धाक थी।
आपको इसके पहले कभी नहीं देखा, आप यहाँ नई आई हैं, मिस................।
जी मैंने बनारस यूनीवर्सिटी से एम ए किया था। यहाँ पी-एच डी ज्वाइन की है।
ज़ाहिर है आपके गाइड डाँ रजत राँय हैं।
आपने कैसे जाना? सौम्या के स्वर में विस्मय था।
अजी आप जैसी ज़हीन लड़कियों को डाँ राँय भला कभी हम जैसों के लिए छोड़ेंगे!
मैं ज़हीन हूँ........यह तो सच नहीं। सौम्या के गम्भीर मुख पर मन्द स्मित तैर आया था।
हो जाए शर्त.पर हारने पर क्या देंगी?


यह किताब जिसे हम दोनों खोज रहे हैं, मिल जाने पर आपके लिए छोड़ दूँगी।
सौम्या के उत्तर पर मनीष ठठाकर हॅंस दिया था-
जितना सोचा था आप तो उससे भी ज्यादा इंटेलिजैंट निकली......हाँ, क्या नाम बताया था आपने अपना?
सौम्या..........मिसेज सौम्या कुमार। सौम्या फिर गम्भीर हो उठी थी।
आह, आई एम साँरी........असल में आपका चेहरा धोखा दे गया। देखकर शायद ही कोई आपको मैरिड समझे। मनीष जैसे कहीं निरूत्साहित सा हो उठा था।
इसमें आप अपने को अपराधी न समझें।............अच्छा तो चलूँ? सौम्या की शान्त दृष्टि उठी थी।
आपसे मिलना मेरा सौभाग्य रहा, मिसेज कुमार! मिस्टर कुमार कहाँ काम करते हैं?" चलते-चलते मनीष अनजाने ही सौम्या का मन दुखा गया था।
ही इज़ नो मोर............। सौम्या का कण्ठ अवरूद्ध हो उठा था।
ओह माई गाँड! समथिंग रांग विद मी! ऐसा लगता है आपका मन दुखाने के लिए ही आज आपसे मिला था। मुझे क्षमा कर सकेंगी, सौम्या जी? मैं सचमुच दुःखी हूँ।
जिसने कोई गलती ही नहीं की उसे किस बात की क्षमा करूँ, मिस्टर........।
मनीष सहाय................आपके विभाग में ही हूँ। कभी किसी काम आ सकॅूं, अपना सौभाग्य मानूँगा।
धन्यवाद, संक्षिप्त उत्तर दे सौम्या चल दी थी।
सौम्या का मौन मनीष को छू गया था। विभाग या लाइब्रेरी में अक्सर ही मनीष मिल जाते थे। सौम्या उनकी सहृदयता से प्रभावित थी। सौम्या को गम्भीरता के कवच से बाहर मनीष खींच ही लाते थे।
सौम्या जी, ये जो गम्भीरता का मुखौटा आपने ओढ रखा है, इसे डाँ राय के लिए छोड़ दें। यहाँ तो बस हम दो ही हैं। आप हॅंसती हुई ही अच्छी लगती हैं।
डाँ राय को गम्भीर अच्छी लगती हूँ? अनजाने ही सौम्या पूछ बैठी थी।
अरे आप तो हर तरह से अच्छी लगती हैं, पर हॅंसते समय आपके ये डिम्पल्स बहुत प्यारे लगते हैं।
चाह कर भी सौम्या मनीष को उस तरह की बात न करने को नहीं कह सकी थी। कभी-कभी मनीष के साथ रोहित इस कदर उभर आते थे कि सौम्या डरकर ओंठ सी लेती थी- कहीं मनीष को वह रोहित न पुकार बैठे! एक दिन मनीष बातें करते अचानक भावुक हो उठे थे-
सौम्या जी! रोहित का स्थान तो नहीं ले सकता, पर क्या आजीवन आपका अकेलापन काटने के लिए आपका साथ नहीं दे सकता?
सौम्या का विवर्ण मुख देखते ही मनीष फिर बोले थे-
आशू को एक पिता के संरक्षण की आवश्यकता है सौम्या, मेरे प्रस्ताव पर शान्ति से विचार कर देखना। मैं प्रतीक्षा करूँगा।
उस रात सौम्या सो नहीं सकी थी। रोहित और मनीष ने पूरी रात उसे जगाए रखा था। सुबह उसके उदास मुख और सूजी आँखों पर माँ की दृष्टि गई थी।
क्या बात है सौमी, रात ठीक से नींद नहीं आई बेटी? माँ के स्नेहसिक्त स्वर पर सौम्या फूट पड़ी थी। रोते-रोते सौम्या सब बता गई थी। माँ का स्नेहपूर्ण हाथ उसकी पीठ पर सांत्वना दे रहा था। सब कह चुकने के बाद सौम्या ने माँ के मुख पर दृष्टि डाली थी। हमेशा की तरह माँ का मुख शान्तिपूर्ण था! अपने अन्तर् की आँधी को मुख पर उन्होंने आने ही कब दिया था, सचमुच वो रोहित की माँ थीं। धीमे से माँ ने कहा था-
मनीष ठीक ही तो कहता है बेटी! जीवन-यात्रा के किस पल तेरा साथ छोड़ जाऊॅंगी यही भय मुझे सोने नहीं देता। तुझे अकेले छोड़ मैं सुख से इस संसार से विदा भी न ले सकूँगी?
समय सब सहन करने की शक्ति दे देता है, बेटी!
उसके बाद माँ ने सौम्या से कुछ नहीं पूछा था। घर में ही कुछ निकट आत्मीयों के समक्ष माँ ने सौम्या का स्वयं कन्यादान किया था। विदा के समय माँ के कन्धे पर सिर रखकर रोती सौम्या को यही लग रहा था, अपने मायके से ही विदा ले रही है। अपने रोहित की प्रिया को मनीष को सौंपते कैसा लगा होगा माँ को?
मनीष ने एक सप्ताह का अवकाश ले ऊटी जाने का प्रोग्राम बनाया था। आशू माँ के पास रही थी।
मनीष के साथ अनके नए घर में जाते समय अपने सामान के साथ जब सौम्या आशू का सामान भी सहेजने लगी तो माँ अस्थिर हो उठी थीं,
सौमी, क्या आशू को साथ ले जाएगी?
हाँ माँ, पर बीच-बीच में यह आपके पास भी आती रहेगी। मैं स्वयं छोड़ जाया करूँगी।
नहीं सौमी, इसे न ले जा, मेरे रोहित की यही तो अन्तिम निशानी है, मेरा संबल है। माँ असहज हो उठी थीं।
मनीष ने समझाना चाहा था-
ठीक ही तो है सौम्या, आशू को यहाँ माँ के पास ही रहने दो न! तुम्हारा जब मन चाहे उसे आकर देख जाना।
सौम्या के मुख के भावों केा पढ़ते ही माँ उसके अन्तर् की बात जान गई थीं। अन्दर से आशू की उॅंगली पकड़ माँ उसे बाहर ले आई थीं।
जा गुड़िया, अपनी मम्मी-पापा का कहा मानना। दादी का ढेर-सा आशीर्वाद!
आशू का माथा चूम, माँ तुरन्त अन्दर चली गई थीं। माँ के नम नयन देखकर भी, मातृत्व से पराजित सौम्या माँ की वेदना नकार गई थी। आशू को गोद में लिये सौम्या जब बाहर आई तो मन में कहीं गड़ने लगा था- मनीष ने आशू को गोद में लेने का तनिक भी आग्रह नहीं किया; रोहित के साथ तो वह आशू को गोद में लेने को भी तरस जाती थी।
नए घर में आशू एडजस्ट नहीं कर पा रही थी। दादी की स्नेहिल छाया में पली आशू मुरझाने लगी थी। बात-बात में खीजती, रोती आशू कभी-कभी समस्या उत्पन्न कर देती थी। मनीष ने दो-एक बार दबी जबान से सौम्या को समझाना चाहा था- ।
आशू को माँ के पास छोड़ना ही ठीक होगा, सौम्या! माँ कितनी अकेली पड़ गई है!
सौम्या को मनीष का यह प्रस्ताव असहज प्रतीत होता। कभी-कभी रात में आशू के लगातार रोने पर मनीष खीज उठते थे। अपना तकिया उठा ड्राइंगरूम के सोफ़े पर जा सोते थे। कभी सौम्या को महसूस होता अपने दोनों के बीच मनीष को आशू की उपस्थिति अनधिकार चेष्टा-सी लगती थी। कभी तो सचमुच मनीष आशू की जिद पर बुरी तरह झुँझला उठते थे। उस समय कल्पना में रोहित का उदास मुख सौम्या को आहत कर जाता था। नन्ही आशूए मनीष के झॅंझलाने पर सौम्या से चिपक सहम जाती थी।
राहुल के जन्म के बाद मनीष आशू को भूल ही गए थे। राहुल केा गोद में उठाए मनीष को टुकुर-टुकुर ताकती आशू को देख सौम्या का रोने को जी चाहता था।
सुनो, इसे भी कभी-कभी गोद ले लिया करो- साथ बैठकर प्यार कर लिया करो!
मैंने कभी झिड़का तो गाँठ बाँध लेती है, कभी उसकी आँखों में देखों तो पता लगे कितनी नफरत है उसे मुझसे।
छिः, कैसी बातें करते हो? बच्ची है, भला वो...............
छोड़ो सौम्या, उसे प्यार करने को तुम अकेली ही काफ़ी हो। कभी तो लगता है उसके कारण राहुल पर भी तुम उतना ध्यान नहीं दे पाती।
सौम्या के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मनीष चले गए थे। उस दिन के बाद सौम्या आशू को प्यार करते सतर्क-सी रहती थी, कहीं मनीष कुछ फिर न कह दें। डबडबाई आँखों से जब कभी आशू मनीष द्वारा किए अन्याय की शिकायत लेकर आई तो सौम्या क्या प्रतिकार कर सकी थी? सिसकती आशू को सीने से लगाने का साहस भी मनीष के सामने सौम्या खो चुकी थी। आशू के प्रति प्यार में मनीष की कृपणता के आगे रोहित के प्यार का सागर सौम्या की खिल्ली उड़ाने लगता था।
अन्ततः सीने पर पत्थर रख आशू को उसकी दादी के पास छोड़ने गई थी-
माँ, सम्हालो अपनी थाती, मैं हार गई।
छिः, इस तरह मन छोटा नहीं करते, सौमी! जीवन की थकी साँस में किस बन्धन में डाल रही है मुझे- कैसे सम्हाल सकूँगी इसे? माँ का स्वर थका हुआ था।
माँ, मैंने सोचा था मनीष से आशू को पिता-सा प्यार मिलेगा पर..............।
यहीं तो तू गलती कर गई, सौमी! 'पिता का प्यार' कहती तो बात समझ में आती। 'पिता-सा प्यार' भला इस शब्द का क्या अर्थ? यह तो अर्थहीन हुआ न?
माँ...........? सौम्या समझ नहीं सकी थी।
कोई किसी का विकल्प बनकर स्वीकारा जाए तो उससे विकल्प की ही आशा रखनी चाहिए न, सौमी!
मैंने किसे विकल्प-रूप में स्वीकारा, माँ?
क्यों, मनीष को तूने आशू के लिए पिता के विकल्प-रूप में नहीं स्वीकारा क्या? हमेशा यही तुलना करती रही अगर रोहित होता तो आशू को यूँ प्यार करता, यूँ दुलराता........ तूने मनीष को विकल्प समझा; पर याद रख, सौमी, कोई किसी का विकल्प नहीं होता। आशू को गोद में उठा माँ अन्दर चली गई थी।
आज आशू सौम्या से कितनी दूर अपनी स्नेही दादी के पास बैठी अपने पापा के बचपन की कहानियाँ सुन रही होगी। सौम्या को लगता उसने आशू को माता-पिता दोनों के प्यार से वंचित कर दिया था। छोटे-से मुख को कोहनी पे टिकाए आशू दूर क्षितिज में जब देखती, तो सौम्या को लगता आशू अपने पापा को खोज रही है।
क्या देख रही है, आशू?
पापा उस बादल के पीछे छिपे हैं न, मम्मी? जब बादल हटेंगे तो पापा सामने आ जाएँगे?
माँ ने आशू को सत्य से परिचित कराना ही ठीक समझा था। सौम्या के विरोध पर शान्त-सधे स्वर में माँ ने कहा था-
बड़ी होकर जब यह सत्य जानेगी तो शायद स्वीकार कर पाना कठिन होगा, सौम्या! इसे विकल्प स्वीकार करने का साहस मिलना ही चाहिए।
गोआ जाने की बात सुन आशू पुलक उठी थी- मैं भी गोआ चलूँगी मम्मी!
पर तुम्हारी छुट्टियाँ नहीं है- पढ़ाई मिस करोगी तो रिजल्ट अच्छा नहीं आएगा। मनीष ने सौम्या की जगह उत्तर दिया था।
मैं तुम्हारे लिए ढेर-सी सीपियाँ लाऊॅंगा दीदी- इत्ती-इत्ती बड़ी लाऊॅंगा। नन्हे राहुल ने दीदी को सांत्वना दी थी।
चलते समय आशू की आँखों से ढुलकी सीपियाँ सौम्या अपने आँचल में समेट लाई थी। मनीष का एक सेमिनार गोआ में आयोजित किया गया था- सौम्या और राहुल भी मनीष के साथ गोआ जा रहे थे, पर आशू......?
मम्मी, देखो बाहर कितना तूफ़ान आ रहा है- कहीं लहरें हमारे शिप को उलट न दें...........
सौम्या की आँखों में आँसू देख राहुल डर गया था-
मम्मी, डरो नहीं, शिप को कुछ नहीं होगा।
सौम्या ने कितना चाहा था गोआ शिप से न जाएँ, पर मनीष से यह कह सकने का वह साहस न सहेज सकी थी। एक बार उसकी अन्य-मनस्कता पर मनीष ने कहा था-
जो चला गया उसके नाम को लेकर जी रही हो, जो जीवित है उसका शायद अस्तित्व न के बराबर है न?
उस बात को सुनने के बाद भला जीवन में फिर सौम्या वही सत्य दोहरा सकती थी? तूफान के आसार बढ़ते जा रहे थे। केबिन का द्वार खोलते मनीष अन्दर आ गए थे-
लगता है इस बार मानसून जल्दी आ रहे हैं। कहीं मौसम खराब हो गया तो गोआ जाना बेकार हो जाएगा। मनीष के मुख पर आए खीज के भाव देख सौम्या सोचने लगी- क्या मनीष उस तूफान को बिल्कुल भूल गए जो सौम्या झेल चुकी थी? लेकिन वह स्वयं भी उस तूफान को क्यों दोहरा रही है? चलते समय आशीर्वाद देती माँ ने यही तो कहा था-
'यह दोहरा जीवन कब तक जिएगी, सौम्या? रोहित तेरा अतीत था जो बीत गया, मनीष तेरा आज है और वही सत्य है। मनीष किसी का विकल्प नहीं, बेटी................!'
बाहर क्षितिज से उठती घनी मेघमालाओं से आशू का उदास चेहरा झाँकता लग रहा था। नन्हें-नन्हें उमड़ते मेघ, मानों बाहें फैलाए आशू, सौम्या की ओर दौड़ी आ रही थी। टपटप पलकों से गिरते हरसिंगारों से रोहित को अर्ध्य देती सौम्या केबिन में आ गई थी। कानों को कसकर बन्द करने पर भी लहरों का कोलाहल......नहीं, रोहित का अट्टहास सुनाई दे रहा था।
मुझे शक्ति दे भगवान्, मैं आज में जी सकूँ!
दृढता से आँसू पोंछ, सौम्या ने मॅुंह उठा बाहर देखा तूफ़ान से जूझता शिप आगे बढ़ता जा रहा था।

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