12/1/09

अनछुआ पल


फूल लगा रही हो? तुम्हारी उम्र अब क्या फूल लगाने की है?सिर के निकट पहुंचा हाथ वहीं थम गया। दृष्टि पति के मुख पर स्थिर हो गई। अधखुले होंठों से एक प्रश्न बाहर आने को बेचैन हो उठा-जब उम्र थी तो क्या तुमने कभी लगाया था? लगाना तो दूर, कभी कहा भी था? सुना है जूड़े में लगे फूलों के तुम प्रशंसक थे, पर मेरे मामले में बात शायद दूसरी थी न?अब यूं घूर क्यों रही हो? चलना नहीं है? हर बात उम्र के साथ अच्छी लगती है।
ठीक कह रहे हो, हर बात उम्र के साथ जुड़ी होती है, पर जिसने बिना किसी इच्छा के उम्र की इतनी सीढ़ियाँ पार कर लीं और आज बस इसी पल इच्छा का नन्हा-सा अंकुर उग आया था, वह अगर फूल लगा ले तो? हाथ में पकड़ी नन्ही कली ड्रेसिंग-टेबिल पर रख वह उठ खड़ी हुई। जिन्दगी के अड़तालीस बरस लम्बे सुगन्धहीन बयार-से बीत गए।
घर-भर की आशा के केन्द्र रवि भइया बी एस-सी के मेधावी छात्र थे। परीक्षा के बाद प्रतियोगिताओं में उनकी सफलता अवश्यमभावी थी। हर परीक्षा भइया ने सदैव सर्वोच्च अंक लेकर ही उत्तीर्ण की थी। परिणाम देखते ही पिताजी का सीना गर्व से फूल उठता था। बस रवि की नौकरी लगी नहीं कि परिवार की सारी समस्याएँ दूर हो जाएँगी। अपर्णा यानी घर की पहली पुत्री, पढ़ाई में भइया से कम तो नहीं थी, पर लड़की चाहे सर्वोच्च अंक ले, चाहे जैसे-तैसे परीक्षा पास कर ले, क्या फर्क पड़ता है! भइया के परिणाम पर जब सब गौरव से भर उठते थे तो अपर्णा ईष्र्या से जल उठती, उनके फ़र्स्ट आने पर मिठाई बॅंटेगी और मैं चाहे रिकार्ड भी बनाऊं, किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगेगी।
भइया जरूर उसकी पीठ थपथपा शाबाशी देते थे, पर विद्रूप से अपर्णा बिष-सने वाक्य कहने से चूकती नहीं थी।
मुझे शाबाशी देने की जरूरत नहीं है, भइया! मैंने कोई अनोखा काम थोड़े ही किया है। हाँ, तुम्हारे फ़र्स्ट आने में जरूर सुरखाब के पर लगे हैं। वाक्य समाप्त होते-होते गला भर आता था अपर्णा का।
शांत, सौम्य, भइया मुस्करा उठते,
अरे, पगली, तेरा फ़र्स्ट आना मुझसे हजार गुना ज्यादा महत्वपूर्ण है। तू तो घर के कितने काम करके फ़र्स्ट आती है और मेरा काम तो बस पढ़ाई करना ही है न !
कभी भइया अपने पुरस्कार उसे थमा देते थे,
ले अपर्णा, ये तेरे लिए मेरी ओर से पुरस्कार हैं। बहुत शिकायत करती है न?
अनोखी पुलक से अपर्णा का मुख खिल उठता था, चेहरे पर चमक आ जाती थी। सच भइया कितने अच्छे थे, कितना प्यार करते थे उसे!
छोटी बहन सुपर्णा के साथ विधाता ने क्रूर मजाक किया था। जन्म से ही अजीब बीमारी थी उसे। बदन के किसी हिस्से से अचानक स्वतः रक्त बहना शुरू हो जाता था। प्रतिमाह डाँक्टरी दवा का बिल देख पिताजी झल्ला उठते थे,
खत्म हो जाए तो झंझट मिटे, कहाँ से लाऊं इतने पैसे? भगवान को न जाने क्या शत्रुता थी जो ऐसी लड़की सिर पर डाल दी! बीमार माँ का दयनीय चेहरा और भी निरीह हो उठता था। कमरे में बैठी सुपर्णा अपराध-बोध की लज्जा से सिर भी न उठा पाती थी।
सच ही तो था, एक आँफिस में मामूली बाबू पिताजी का वेतन ही कितना था? बड़े बेटे, अपर्णा की पढ़ाई, उस पर सुपर्णा की कभी न समाप्त होने वाली बीमारी। न जाने रोज अपने लिए इतना सब सुन, रक्त बहाती सुपर्णा जी कैसे रही थी! सुपर्णा के जन्म के बाद से माँ भी प्रायः अस्वस्थ ही रहतीं। बीमार पुत्री की जन्मदात्री होने के अपराध को उन्होंने स्वयं होंठ सीकर आजीवन झेला। पुत्री की बीमारी पर आए खर्चे को देख माँ ने अपनी बीमारी को कभी जाना नहीं था। अपर्णा कभी छोटी बहन के प्रति ममत्व से भर उठती तो कभी अनावश्यक बोझ समझ झुँझला उठती।
पन्द्रह वर्षीय अपर्णा हाई स्कूल की परीक्षा दे चुकी थी। साथ की किसी लड़की ने सब सहेलियों को घर बुलाया था। सहेली के घर के लाँन के चारों ओर खिले फूलों को देख अपर्णा मुग्ध हो उठी थी- इतना सौन्दर्य? काश, इस सौन्दर्य को वह हमेशा के लिए नयनों में समेट पाती! सहेली ने फूलों के प्रति उसका मुग्ध भाव पहचान एक अधखिली कली उसके बालों में अटका दी थी। सभी साथ की सहेलियाँ मुग्ध हो उठीं,
हाय अपर्णा, कितनी प्यारी लग रही है तू! हमेशा फूल लगाया कर। कितनी खिल रही है!
काश, अपर्णा भागकर दर्पण में अपने को निहार पाती! आहृलादित अपर्णा ने पहली बार फूल लगाने का सुख जाना था। काश, उसके घर में भी ढेर सारे फूल होते! वह रोज एक नए रंग का फूल लगाती।
घर पहुंचते ही द्वार से डाँक्टर को वापस जाते देख आशंका से अपर्णा का दिल धड़क उठा था। बैठक में असह्य पेट-दर्द की पीड़ा से चारपाई पर भइया छटपटा रहे थे। अपर्णा को देखते ही पिता बरस उठे थे,
कहाँ गई थी? भाई घर में बीमार पड़ा है, ये वक्त है घर लौटने का?"
तभी उनकी दृष्टि बालों से झाँकती अधखिली कली पर पड़ गई थी, ये क्या फूल लगाए घूमती है, बेशर्म! एक जोरदार चाँटा उसके मुंह पर पड़ गया था।
पीड़ा से छटपटाते भइया कराह उठे थे, न.........हीं..........पिताजी!
माँ ने धीमे से उसे अपनी ओट में कर लिया था। क्रोध, अपमान, आक्रोश से अपर्णा का रोम-रोम जल उठा था। जी चाहा था ढेर सारे फूल ला एक-एक बाल में पिरो, पिताजी को दिखाए। पर क्या उस दिन के बाद कभी वह एक फूल भी लगा सकी?
भइया को डाँक्टर ने अस्पताल में चैक -अप की सलाह दी थी। दूसरे दिन पूरे चैक -अप के बाद अगले दिन डाँक्टर ने गम्भीर स्वर में पिताजी को जो कुछ बताया था, उसका आशय था कि भइया की दोनों किडनी एकदम खराब हो चुकी हैं।
क्या? पिताजी पर मानो पहाड़ टूट पड़ा था। ऐसी अविश्वसनीय बात पर वह कैसे विश्वास करें? इसके पूर्व तो रवि ने कभी किसी तकलीफ की शिकायत नहीं की थी। अपर्णा को तब याद आया, अक्सर भइया के पेट में दर्द उठा करता था, बुखार भी शायद हो जाया करता था। माँ हींग, अजवायन का पानी उन्हें पिलाती थीं। घर की स्थिति भइया से छिपी तो नहीं थी। कितनी बार असह्य पीड़ा भी पेट खराब है' का बहाना बना भइया झेल जाते थे। पिताजी तब यही आदेश देते,
रवि का पेट ठीक नहीं, खाना नहीं खाएगा। कभी दर्दनाशक दवाएँ स्वयं खा भइया पढने में जुट जाते थे।
परिस्थिति की गम्भीरता अपर्णा को कुछ-कुछ समझ में आ गई थी। किडनी खराब होने के परिणाम वह हाईस्कूल में पढ चुकी थी। भइया का निष्प्रभ बुझा चेहरा देख वह रो उठती थी- कहाँ गया वह तेजस्वी चेहरा? भइया ने अपनी इस बीमारी को भी कितनी शान्ति से झेला था! अस्पताल में निःशब्द पड़े भइया छत निहारते रहते थे। भइया की बीमारी से पिताजी असमय बूढे हो गए थे। माँ का चेहरा राख हो गया था। इन सबके बीच में सुपर्णा की बीमारी की सुध ही नहीं रह गई थी। एक दिन अचानक अपर्णा की दृष्टि सुपर्णा पर पड़ गई थी। पाँव से बहते रक्त को कपड़े से पोंछती सुपर्णा के आँसू बह रहे थे। करूणा और ममता से अपर्णा का मन भर आया! इतना रक्त बह रहा है,सपना बताया क्यों नहीं? बचपन से अपर्णा छोटी बहन के नाम का उच्चारण 'सपना' ही करती आई थी।
कई दिनों से अपना दुःख अपने में पीती सुपर्णा, बहन से लिपट रो पड़ी थी,
मैं मर जाऊं दीदी, पर भइया अच्छे हो जाएँ!
ऐसा नहीं कहते पगली, भइया जरूर अच्छे हो जाएँगे। भगवान इतना अन्यायी कभी नहीं हो सकता, सपना! दोनों बहनें लिपटकर रो पड़ी थीं।
माँ भइया की चारपाई के पास से एक पल को भी नहीं उठती थीं। पिताजी अस्पताल के चक्कर लगाते सूख रहे थे। प्रोविडेंट फण्ड से उधार ले, घर गिरवी रख भइया को दिल्ली ले-जाया गया था। डाँक्टरों ने फौरन किडनी ट्रांसप्लांटेशन की राय दी थी। अगर भइया के शरीर ने नई किडनी स्वीकार कर ली तो बचने की संभावना हो सकती थी। माँ का जीर्णकाय शरीर और पिताजी का हाई ब्लड-प्रेशर देख डाँक्टरों की आँपरेशन की हिम्मत नहीं थी। अपर्णा ने पूरे आत्मविश्वास से अपनी किडनी देने का प्रस्ताव रखा था। रक्त-परीक्षण तथा अन्य परीक्षणों से सन्तुष्ट डाँक्टरों ने आँपरेशन की तिथि निश्चित कर दी थी। सब सुन भइया एक पल अपर्णा के चेहरे को देखते गम्भीर हो उठे थे,
नहीं पिताजी, यह ठीक नहीं है। एक की जान बचाने के लिए दूसरे का बलिदान नहीं होना चाहिए।
छिः, क्या कह रहे हो, भइया! मैंने साइंस में पढ़ा है एक किडनी के सहारे मनुष्य बहुत आराम से जी सकता है। देखना हम दोनों ठीक रहेंगे। तुम बिल्कुल मत डरो,  भइया! उस पल अपर्णा भइया की बड़ी बहन बन गई थी।
प्यार से उसके सिर पर हाथ धर भइया ने आशीर्वाद दिया था। स्नेह से भइया की आँखें गीली हो उठी थीं।
माँ पूरे समय रामायण का पाठ करती रहती थीं। पूरे वातावरण में सन्नाटें की गूँज थी।
आँपरेशन का नियत दिन आ गया। दोनों भाई-बहनों को आँपरेशन-थियेटर ले-जाया जाना था। सम्बन्धी भी आ पहुंचे थे। डाँक्टरों ने पिताजी को बहुत आश्वस्त किया था-
घबराने की कोई बात नहीं हैं। दोनों सगे भाई-बहन हैं, रक्त-सम्बन्ध होने पर शरीर किडनी स्वीकार कर लेता है; बाहर के व्यक्ति की किडनी शरीर कम स्वीकार करता है।
आँपरेशन थियेटर में जाने के पूर्व अपर्णा का जी धकधक करने लगा था। कहीं आँपरेशन के बीच वह मर गई तो? कहीं भइया न रहे तो? पर भइया ने क्षीण स्वर में जैसे ही उसे पुकारा,
अपर्णा,  डर तो नहीं लग रहा हैं? तो वह जोर से हॅंस दी थी,
मैं डरपोक नहीं हूँ,  भइया! देखना हम दोनों साथ दौड़ते घर पहुंचेंगे, तुम हार जाओगे।
मैं तो हार चुका पगली, भगवान तुझे सदैव विजय दे।
छिः भइया, फिर वहीं बातें? जाओ मैं नहीं बोलती। और दोनों हॅंस पड़े थे।
होश आने पर अपर्णा को पास बैठी नर्स ही दिखाई दी थी।
माँ कहाँ है? भइया कैसे हैं?
नर्स ने मुंह पर उंगली रख उसे शान्त रहने को कहा था,
डाँक्टर आराम करने को बोला है। माँ-पिताजी से बाद में मिलना।
पर मेरे भैया कैसे हैं? स्वर की व्यग्रता तीव्र हो  उठी थी।
हम नहीं जानता । हर पेशेंट का हिसाब हमारे पास नहीं रहता। थोड़ी देर में डाँक्टर राउंड पर आएगा, पूछ लेना।
कमजोरी के कारण उठने का प्रयास करने पर भी अपर्णा उठ न सकी। न जाने कैसे चक्कर-से आ रहे थे। नींद की गोली खा सुबह बहुत देर से अपर्णा जागी थी। उसके नयन माँ को खोज रहे थे, माँ कहाँ है? क्या भइया सीरियस हैं? पिताजी क्यों नहीं आए? नर्स उत्तर में मौन ही रही। तभी एक डाँक्टर ने कमरे में प्रवेश किया था,
अपर्णा, तुम तो बहादुर लड़की हो। यूँ चिल्लाने से तुम्हारे टाँके टूट सकते हैं, जानती हो न?
मैं कुछ नहीं जानती, मुझे भइया के पास ले चलो। माँ-पिताजी यहाँ क्यों नहीं आते?
ठीक है, अभी तुम्हारी माँ को लाता हूँ। कहकर डाँक्टर जो गए, तो आना ही भूल गए। जबरन नर्स ने गोलियाँ निगलवा दी और वह फिर नींद की गोद में जा सोई थी। शायद तीसरे दिन पिताजी आए थे। एकदम सफेद चेहरे पर सूजी लाल आँखें देख अपर्णा चीख उठी थी। जीवित शव और किसे कहते होंगे? पलॅंग के पास खडे़ पिता रूदन कर उठे थे,
तेरा त्याग भी उसे बचा न सका, बेटी! वह चला गया। हमारा रवि हमें छोड़ गया, बिटिया!
भइया...........! अपर्णा चीखकर रो उठी थी। आवाज सुन डाँक्टर भागे आए थे। पिता को कंधें से पकड़ पास की कुर्सी पर बैठाया था।
    छिः, ये क्या कर रहे हैं विश्वनाथ जी? अब तो अपनी इस बेटी का मुंह देखकर सन्तोष कीजिए। कहीं इसके टाँके टूट गए तो मुश्किल हो जाएगी। संकेत पाते ही नर्स ने अपर्णा के हाथों में इंजेक्शन दे, उसे शान्त कर दिया था।
पूरे पन्द्रह दिन सोते, जागते रोते बिताकर अपर्णा जब घर पहुंची, तो माँ चारपाई पकड़ चुकी थी। बेटे के लिए हाहाकार करती माँ के लिए, अपर्णा माँ बन गई थी। सुपर्णा अपनी बीमारी भुला अनभ्यस्त हाथों से किसी तरह माँ का पथ्य तैयार करती, आँचल से आँसू पोंछती जाती थी। अपर्णा के गले से लिपट जब वह रोई तो उसे सम्भाल पाना कठिन हो गया।
हर सम्भव-यत्न के बाजूद माँ का स्वास्थ्य क्षीणतर होता गया। पिता की झुर्रिया गहराती गईं। सुपर्णा का रक्त न जाने किस मिट्टी से रिसता रहा। एक दिन सोते में दोनों बेटियों को बिलखता छोड़ माँ ने सब दुःखों से विदा ले ली। माँ के बाद सुपर्णा के लिए अपर्णा ही माँ बन गई। पिताजी के बहुत कहने पर भी अपर्णा ने काँलेज ज्वाइन नहीं किया । सुपर्णा को कौन देखेगा? काँलेज की प्राचार्या स्वयं घर चल कर आई थीं- पूरे बोर्ड में द्वितीय स्थान पाने वाली अपर्णा को अपना भविष्य यूं चैपट नहीं करना चाहिए। पिता उसे समझाकर थक गए थे, पर अपर्णा ने जिद ठान ली थी,
मैं प्राइवेट पढ़कर परीक्षा दूँगी।
घर के सब काम निपटा कमरे के कोने में लैंप जलाकर पढती अपर्णा के सामने भइया आकर बैठ जाते थे,
फ़र्स्ट आना तो तेरा महत्व रखता है, अपर्णा! देख न, घर को तू ही तो संभाल रही है।'
वही शान्त, सौम्य मुखड़ा, वही हॅंसती-सी मुस्कान याद कर अपर्णा सिसक उठती,
तुम हमे यूं क्यों छोड़ गए, भइया?
इण्टरमीडिएट की परीक्षा अपर्णा ने प्राइवेट दी थी। प्रथम श्रेणी में जब उसने परीक्षा उत्तीर्ण की तो सब उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते रहे, पर उसे शाबाशी देने के लिए उसके भइया कहाँ थे? रात-भर आँसुओं से तकिया भिगोती अपर्णा प्रातः सामान्य कामकाज में जुट गई थी।
सब-कुछ स्वादहीन, एकरस-सा जीवन चलता रहा। अपर्णा ने बी ए की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। घर पर ही एम ए की पढ़ाई शुरू कर दी थी। भइया उसे डाँक्टर बनाना चाहते थे, वह तो अब सपना था, पर एम ए के बाद थीसिस लिख वह भइया की इच्छा जरूर पूरी करेगी। सुपर्णा ने अपना अस्तित्व दीदी में ही लीन कर दिया था। उसकी बीमारी डाँक्टरों ने लाइलाज घोषित कर दी थी। फिर भी इंजेक्शन और दवाइयाँ चल रही थीं।



आँफिस में पिताजी की तबीयत खराब हो गई। सूचना पाते ही अपर्णा भागकर अस्पताल पहुंची तो पिता के नयनों से आँसू बह रहे थे। हार्ट- .अटैक के साथ ही लकवे की भी असर हो गया था। पुत्री के सिर पर सांत्वना का हाथ धर पाने की भी शक्ति शेष नहीं रह गई थी। अपर्णा की एक माह की अथक सेवा पर पानी फेर, उन्होंने आँखें मूंद ली थीं। इतनी बड़ी धरती पर रूग्ण बहन को सीने से चिपका, अपर्णा स्तब्ध रह गई थी। अकेलेपन के एहसास से वह काँप उठी थी।
पिता के आँफिस से अपर्णा के लिए नौकरी का प्रस्ताव भेजा गया था। रूग्ण बहन को छोड़कर अपर्णा आँफिस कैसे जाए? पड़ोस की एक वृद्धा बहुत अनुनय-विनय के बाद दिन में सुपर्णा के पास रहने को तैयार तो हो गई, पर सुपर्णा को वह बहुत अधिक घृणापूर्ण दृष्टि से देखती थी। एक दिन अपनी समस्या का समाधान सुपर्णा ने स्वयं कर दिया। एक चिट्ठी लिख सुपर्णा ढेर सारी नींद की गोलियाँ खाए चिर निद्रा में लीन हो गई थी-
दीदी,
    मेरे कारण तुम कितनी परेशान रहती हो? मेरे जीवन का क्या कोई अर्थ है? काश! भगवान ने न्याय किया होता तो भइया की जगह मैं जाती। मैं तुम्हारे लिए पैरासाइट होती जा रही हूँ, दीदी! तुम्हें भी जीने का, साँस लेने का अधिकार मिलना चाहिए, दीदी! तुम जल्दी शादी कर लेना। मेरे लिए दुःखी मत होना, मैं सुख की खोज में जा रही हूँ।
तुम्हारी ही
'सपना'
सपना..............!
शान्त, संयमी अपर्णा गला फाड़ आर्तनाद कर उठी। दुःख-सुख की साथिन उसकी सपना भी आज चली गई। इस निस्सीम जगत में सब उसे अकेला छोड़ कहाँ चले गए - भइया, माँ, पिताजी और आज सुपर्णा भी।
घर का मोह घरवालों के साथ जा चुका था। प्राँविडेंट फण्ड का पैसा भइया और पिताजी की बीमारी में खत्म हो चुका था। घर पर एक दृष्टि डाल अपर्णा ने उससे विदा ले ली थी। घर से जुड़ी स्मृतियों ने उसे उद्वेलित किया, पर मुंह फेर आँचल से आँसू पोंछती, नए गंतव्य की ओर चल दी।
वर्किग गर्ल्स होस्टल के कमरे में बैठी अपर्णा घण्टों शून्य में निहारती रह जाती। अपर्णा के आसपास के कमरों की लड़कियाँ उसे सनकी समझती । अपर्णा के पास किसी बात के प्रतिवाद का समय भी तो नहीं था। जो वह झेल चुकी थी, उसके अलावा कुछ और सोच पाने का उसे साहस ही न था।
अपर्णा विवाह योग्य हो चुकी थी, यह सोचने वाला ही कौन था? परिवार के कुछ बंधु-बांधव पिता की मृत्यु पर हमदर्दी जताने के बहाने यही पता लगाते रहे कि घर में क्या-कुछ बच रहा है? वास्तविकता जान सबने चुपचाप विदा हो जाने में ही भलाई समझी थी। जवान लड़की की जिम्मेदारी कौन उठाए?
मशीनी ढंग से सुबह आँफिस जाना और संध्या साढे पाँच या छह बजे वापस होस्टल पहुंचना। खाने के नाम पर अपर्णा कभी चाय के साथ सूखी ब्रेड निगल जाती तो कभी भूखी ही सो जाती। अनजाने, गुपचुप किसी हितैषी-सम्बन्धी ने उसके कानों में यह बात डाल दी कि लाख कोशिशों के बावजूद कोई लड़केवाला उस जैसी मनहूस लड़की को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। सबको खत्म करके पिता का राज्य पाया है। पीड़ा से अपर्णा तिलमिला उठी, पर प्रतिक्रिया किस पर करे? आँफिस में साथ की लड़कियों से भी उसने बात करनी बन्द कर दी थी। कोई उसे घमंडी कहता तो कोई सिरफिरी। इसीलिए जब सहकर्मी इन्द्र ने उसकी ओर सहानुभूति का हाथ बढ़ाना चाहा तो अपर्णा ने रूखाई से झटक दिया। उसे किसी की दया नहीं चाहिए। इन्द्र ने कई बार समझाना चाहा। वह उसकी मनःस्थिति समझता था, उसकी प्रतिभा का आदर करता था और इन सबसे ऊपर उस असाधारण बुद्धि वाली चुपचाप लड़की के प्रति आकृष्ट था। अपर्णा की उदासीनता वह विश्वासपूर्वक झेल रहा था, पर तभी सुदूर दक्षिण के किसी नगर में उसके ट्रांसफर की सूचना आई थी। जाते-जाते उसने स्नेहपूर्ण शब्दों में कहा था,
कभी जरूरत पड़े तो याद करने में हिचकना नहीं अपर्णा, मैं तुम्हारी पुकार पर दौड़ा आऊंगा।
इन्द्र को विदा करते अपर्णा का मन भर आया, कण्ठ अवरूद्ध हो गया। लगा एक बार फिर अकेली छूट गई है। किन्तु हितैषियों की बातें सुन-सुन वह सचमुच अपने को मनहूस मानने लगी थी।
जाने के बाद भी इन्द्र अपर्णा को पत्र लिखता रहा। बार-बार अपने सम्बन्ध में कोई निर्णय लेने को प्रेरित करता रहा। इन्द्र के जीवन में अपनी मनहूस छाया न पड़ने देने के दढ
निश्चय को इन्द्र के पत्र डिगा न सके। शायद अगर इन्द्र उसके पास रहता तो उसकी बातें अपर्णा के हिम-शीत हृदय को पिघला पातीं।
दो वर्ष पूर्व अमेरिका की छात्रवृतित्त पर इन्द्र अमेरिका जा चुका है। उसके अमेरिका जाने की सूचना पर अपर्णा मानो और शून्य हो उठी थी। इन्द्र ने वहीं एक शोध-छात्रा से विवाह कर लिया है, सुनकर अपर्णा पूरी दो रातें न जाने क्यों सो नहीं पाई थी!
जीवन के तीस वर्ष अपर्णा ने बिना किसी सुगन्ध का स्पर्श किए बिता दिए। तीस वर्षीया अपर्णा के सामने जब राकेश ने बिना किसी सैंटीमेंट्स के विवाह का प्रस्ताव रखा तो उसकी व्यावहारिकता की अपर्णा ने सराहना ही की थी। घर में बच्चों को सम्भालने वाला कोई नहीं। पुरानी वृद्धा नौकरानी अब उनके पीछे भाग नहीं पाती। अगर वह उन बच्चों की माँ बनना स्वीकार कर ले तो वह कृतज्ञ रहेगा। अपर्णा की मनहूसियत की शंका के विषय में वह सब जानता है और उन बातों को वह पागलपन ही समझता है। इस उम्र में बच्चों को सीधी-सादी माँ चाहिए, तड़क-भड़क वाली पत्नी नहीं। यूं भी अब अपर्णा को अपने भविष्य के विषय में सोचना चाहिए। बुढ़ापे में कोई दो घूँट पानी देने वाला भी तो चाहिए न?
बिना किसी आडंबर के अपर्णा उन तीन बिन-माँ के बच्चों की माँ बन गई। बड़ी सुप्रिया को देख न जाने क्यों सुपर्णा याद आ गई! दोनों छोटे बेटे मानो उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। सौभाग्य से घर में अधिक नाते-रिश्तेदार नहीं आते थे, अतः सौतेली माँ के विरूद्ध भड़काने वालों का अभाव था। बच्चे शीघ्र ही नई माँ से घुल-मिल गए। बड़ी बेटी सुप्रिया शुरू में थोड़ी सकुचाई, पर बाद में खुल गई। एक काँटा मन में कसकता रहा- बच्चों के पिता ने उसे बस बच्चों की माँ-भर समझा। पत्नी का अधिकार पहली पत्नी को देने के बाद उनके पास कुछ भी शेष नहीं रह गया था। वृद्धा नौकरानी कभी पहली बहू की बातें सुनाती थी,
राकेश बबुआ को फूलों से बहुत प्यार था। बहू के लिए रोज गजरा लाता था। बहू रोज नया गजरा सजाती थी।
फूलों की बातें सुनती अपर्णा का मन तिक्त हो उठता था। इतने बड़े मकान के इतने बड़े बगीचे में ढेर सारे फूल हैं, पर एक भी फूल कभी उसके नाम का नहीं हो सका। इतने रिक्त, भावशून्य व्यक्ति से उसने विवाह क्यों किया? पर उसने तो विवाह के पूर्व ही स्पष्ट कर दिया था कि उसे पत्नी नहीं, बच्चों के लिए माँ चाहिए थी। फिर अब अपर्णा क्या चाहती है? क्यों चाहती है?
पिछले अठारह वर्षो में अपर्णा ने अपने लिए कभी कुछ नहीं माँगा, कुछ नहीं चाहा। कभी कुछ माँगा तो बच्चों के लिए- सुप्रिया की नई ड्रेस बनवानी है, रोहित के जूते फट गए हैं, राहुल को नए मोजे चाहिए। इन्हीं छोटी-छोटी माँगों के साथ जीवन की लम्बी घड़ियाँ बीतती गई। पन्द्रह वर्षीया जिस अपर्णा ने कभी ढेर सारे फूलोंवाले घर की कल्पना की थी, ताकि बालों में रोज एक नया फूल लगा सके, आज अपने घर में इतने फूल होते हुए भी वह इच्छा क्यों मर चुकी थी? इतने वर्षों में कभी उसका जी ही नहीं चाहा कि बालों में फूल सजाए।
गत माह सुप्रिया का विवाह हो चुका। इतने शोरगुल के बाद सुप्रिया की विदा के बाद घर में सन्नाटा छा गया। अपर्णा का मन बहुत उदास था। तभी एक दिन राकेश ने बताया, ।
इन्द्र हमारे आँफिस में मैनेजर के पद पर आ गया है। आज संध्या घर में आयोजित पार्टी में उसने हम दोनों को आमंत्रित किया है।
न जाने किस उल्लास में उमड़ती अपर्णा का इस पल जी चाह आया कि गुलाबी सिल्क की साड़ी के साथ जूड़े में एक ननही कली सजा ले। उम्र के इन अड़तालीस वर्षो में आज दूसरी बार उसे बालों में फूल लगाने की बचकानी इच्छा क्यों हुई थी? पर क्या फूल लगाने की सचमुच कोई उम्र होती है या कोई अनछुआ पल अनजाने ही चेतना पर इस तरह हावी हो जाता है कि उम्र की सीमाएँ अपने-आप टूट जाती है?
इन्द्र का घर पास आता जा रहा था........





3 comments:

  1. marmsparshi

    padhte hue kitni hi baar gala rundh gaya

    abhar

    Naaz

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  2. Hridaya Sparshy Marmik Kahani, Ek Aam Bhartiya Pariwar Ki. Bahut - Bahut Dhanyawad

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  3. बहुत अच्छी और मार्मिक कहानी लिखी है आपने ! बहुत धन्यवाद !
    From-
    aapkisafalta

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