12/2/12

प्रश्नचिह्न


क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूं?”

पीछे से आई आवाज़ पर शालू ने मुड़ कर देखा। सिटी लाइब्रेरी में ऊपर के शेल्फ़ से एक किताब निकालने के उसके असफल प्रयास को देख कर उस युवक ने मदद करनी चाही थीं।

ओह, श्योर। वह किताब ऊपर रक्खी है, आज यहां का स्टूल भी नहीं है।

कोई बात नहीं। मैं आपकी किताब तक आसानी से पहुंच जाऊंगा। कभी मेरी हाइट भी काम दे जाती हैं।युवक ने परिहास किया।

थैंक्स। आज इस बुक से ज़रूरी नोटस लेने हैं।

आप हिंदी की कहानियां पढती हैं। मैंने एकाध बार पढने की कोशिश की, पर झेल नहीं पाया।शालू को किताब देते युवक ने किताब के टाइटिल पर दृष्टि डाली थी।

 जी हां, मैं हिंदी कहानियां सिर्फ़ पढती ही नहीं खुद भी लिखती हूं। आपने शायद किसी अच्छे लेखक की किताब नहीं पढी होगी अन्यथा हिंदी-साहित्य बहुत समृद्ध है।शायद आवाज़ में थोड़ा सा गर्व छलक आया।

वाह! यह तो बड़ी अच्छी बात है। वैसे आप किस नाम से लिखती हैं?’

नाम तो मेरा शालिनी है, पर सब शालू पुकारते थे, बस उसी नाम से लिखती हूं।

क्या आपकी किताबें इस लाइब्रेरी में भी हैं? लगता है, आप कहीं पढाती हैं?

अभी तो हिंदी में रिसर्च- वर्क कर रही हूं। रिसर्च पूरी हो जाने के बाद कहीं लेक्चररशिप ट्राई करूंगी। वैसे इस लाइब्रेरी में भी मेरी चार-पांच किताबें ज़रूर हैं।

 “इस लाइब्रेरी में आपकी ज़रूरत की सब रेफ़रेंस बुक्स मिल जाती हैं?”

वैसे तो हमारे विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में भी बहुत पुस्तकें हैं, पर कभी-कभी यहां कुछ खास रेफ़रेंस बुक्स के लिए आना पड़ता है।

“शायद इसीलिए आपको पहले नहीं देखा।

जी हां। आज काफ़ी दिनो बाद आई हूं। क्या आप यहां रोज़ आते हैं?”

दिन भर ऑफ़िस के बाद शाम को यहां आ कर कुछ समय बिता लेता हूं। आपका बहुत समय बातों में वेस्ट हो गया। आज बहुत दिनो बाद इतनी देर किसी से बातें की हैं।शालू के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना वह अपने स्थान पर जा कर पुस्तक के पृष्ठों में खो सा गया।

घर लौटने पर शालू को ध्यान आया आज जिस से इतनी देर तक बातें कीं उसका नाम या परिचय भी उसने नहीं लिया। वह कह रहा था वह रोज़ शाम को उस पुस्तकालय में आता है, अगली बर मिलने पर वह उसका नाम ज़रूर पूछ लेगी। व्यस्तता के कारण शालू करीब दो सप्ताह तक सिटी लाइब्रेरी नहीं जा सकी। ज़रूरत पड़ने पर उस दिन वह सिटी लाइब्रेरी गई थी। उसके अपने स्थान पर बैठते ही वह युवक तेज़ी से अकर उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। शालू के सामने उसकी लिखी दो किताबें ज़ोर से पटक कर बोला-

बकवास, दुनिया को गुमराह करने के लिए लिखती हैं आप । नारी देवी है, गुणों की खान है, इससे बड़ा झूठ और क्या होगा। सारी कहानियां इसी झूठ को उजागर करती हैं। काश, किसी कहानी में आपने स्त्री का असली रूप भी दिखाया होता तो कहानियां पाठकों को वास्तविक जीवन की तस्वीर प्रतीत होतीं। माफ़ कीजिएगा, आपकी कहानियों ने बहुत निराश किया है।

मुझे आप जैसे लोगों की राय से कुछ लेना-देना नहीं है। स्त्री के बारे में आपके जो भी अनुभव हों, उन्हें आप सब स्त्रियों पर लागू नहीं कर सकते। आपके अनुसार मैं बकवास लिखूं या सार्थक आपकी इस बात से मुझे कोई फ़र्क नही पड़ने वाला है समझे मिस्टर- -- -” उत्तेजना से शालू का चेहरा लाल हो गया।

‘’एक बात समझ लीजिए अपने को लेखिका कहने का भ्रम मन से दूर कर लीजिए। यह बस आपका दंभ है।

थैंक्स फ़ॉर योर एड्वाइस। मैं क्या हूं क्या नहीं, आपसे जानने की ज़रूरत नहीं है। प्लीज़ लीव मी अलोन।

बात खत्म करती शालू अपने कागज़ समेट उठ गई। नहीं, उस बकवास को सुनने के बाद कोई गंभीर काम कर पाना असंभव ही था। उसे लाइब्रेरी से बाहर जाते देख युवक ने आगे बढ कर कुछ कहना चाहा, पर शालू तेज़ कदम बढाती चली गई। उस वक्त शालू को कहीं खुली हवा की सख्त ज़रूरत थी। घर के रास्ते में पड़ने वाले पार्क की बेंच पर बैठी शालू को उस युवक की बातें मथ रही थीं। यह तो स्पष्ट था उसके जीवन में कुछ ऐसा घटा है, जिसने उसे नारी-जाति से इतनी नफ़रत करने को मज़बूर कर दिया है। जो भी हो उसे इस बात का कतई हक़ नहीं था कि उसके लेखन को बकवास कह कर उसे अपमानित करे। अपने लेखन के लिए शालू कितनी ही बार पुरस्कृत हुई है। उसकी कहानियां चाव से पढी जाती हैं, उसके नाम प्रशंसा के पत्र आते हैं। शालू के सोच में एक स्त्री के बेंच पर आ कर बैठने से बाधा पड़ गई। प्रैम में एक नन्हें से बच्चे के साथ लेकर वह स्त्री आई थी। शालू की नज़र जैसे ही उस बच्चे पर पड़ी, वह शालू को देख कर हंस दिया। शिशु की भोली सूरत और मीठी मुस्कान ने एक पल को शालू का आक्रोश भुला दिया। प्यार से चुमकारती शालू पूछ बैठी -

कहिए मास्टर, क्या नाम है आपका? हमारे पास आएंगे?”

शालू की फैली बाहों में आने के लिए शिशु मचल उठा। शायद वह प्रैम से बंधी अपनी बेल्ट से मुक्त होना चाहता था।

उसे गोद में उठा शालू ने अपना सवाल फिर दोहराया- -

अब अपना नाम भी बता दीजिए। बड़ा प्यारा बच्चा है। क्या नाम है इसका?” शालू ने आया से पूछा।

कोई नाम नहीं है। हम इसे मुन्ना राजा पुकारते हैं।

क्या इसके माँ-बाप ने अभी तक इसका कोई नाम नहीं रखा है?”शालू विस्मित थी।

बड़ा अभागा है, दीदी जी। माँ इस दुनिया से चली गई और कहने को तो इसका बाप है, पर वो इसकी ओर देखता तक नहीं। ये बाप की ओर टुकुर-टुकुर ताकता है, पर उस पर कोई असर नहीं होता। ना जाने इस नन्हें बच्चे से उसकी क्या दुश्मनी है।

इसके पापा ने क्या दूसरी शादी कर ली है?’

नहीं दीदी जी। घर में तो कोई औरत नहीं है। इस बच्चे की पूरी ज़िम्मेदारी हम पर है। जब कुछ चाहिए वह पैसे दे देते हैं, पर कभी एक खिलौना तक लाकर नहीं दिया। हमने इसे जनम तो नहीं दिया, पर इसका बड़ा मोह है।

इस बच्चे को अपना प्यार दे कर, तुम बहुत अच्छा काम कर रही हो। भगवान तुम्हें इस अच्छाई का फल ज़रूर देंगे। क्या तुमने इसे इसके जन्म से पाला है?’

नहीं, पहले इसकी कोई दूसरी आया थी, पर वह काम छोड़ गई। पिछले पांच महीनों से हम इसको देखते हैं।

बच्चा अब शालू की गोद से उतरने के लिए मचल रहा था। उसे प्यार कर के शालू ने बच्चे को आया को दे दिया।

मुन्ना राजा को भूख लगी है, अब दूध की बॉटल चाहिए।बोतल मुंह से लगते ही शिशु दूध पीने लगा। उस पर प्यार-भरी दृष्टि डाल शालू ने घर की राह ली। अब तक उसका आक्रोश काफ़ी हद तक दूर होगया था।

रात में बिस्तर पर लेटी शालू की आँखों से नींद कोसो दूर थी। उस युवक की अपमानजनक बातें भुला पाना आसान नहीं था। वह अपने को बार-बार समझाती, एक लेखक को अपने लेखन की कटु आलोचना सहने को तैयार रहना चाहिए। हर इंसान की अपनी अलग पसंद हो सकती है। पाठक को अपनी प्रतिक्रिया देने का पूर्ण अधिकार हो सकता है। जो भी हो आलोचना सभ्य तरीके से भी तो की जा सकती है। अगली बार अगर वह मिला और कुछ उल्टा-सीधा कहा तो वह उसे मुंह- तोड़ जवाब ज़रूर देगी। अगली बार उससे मिलने का अवसर करीब बीस दिनो बाद आया थ।

शालू को एक पुरानी पांडुलिपि से कुछ सामग्री लेनी थी। पांडुलिपि सिर्फ़ सिटी लाइब्रेरी में ही उपलब्ध थी। अपने स्थान पर जैसे ही शालू पहुंची, वह युवक तेज़ी से उसके पास पहुंच गया।

“थैंक्स गॉड, आप आज मिल गईं। उस दिन के बाद से रोज़ आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूं।“

“क्यों, क्या आज फिर कोई नई सलाह देनी है।?”रूखी आवाज़ में शालू बोली।

“नहीं, आपसे माफ़ी मांगनी है। उस दिन पता नहीं क्या बकवास कर गया। अपने बर्ताव पर मैं बहुत शर्मिंदा हूं। मेरी ग़लती माफ़ी लायक तो नहीं, पर प्लीज़ आपका बहुत बड़ा दिल है, मुझे माफ़ करेंगी न?’ दो उत्सुक नयन उस के चेहरे पर निबद्ध थे।

‘”ओह तो आप मेरे दिल के बारे में जानते हैं, पर आपको बता दूं, मेरे पास दिल नाम की कोई चीज़ है ही नहीं। मुझे काम करने दीजिए। पहले ही आप मेरा काफ़ी समय बर्बाद कर चुके हैं।` मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी है, समझे मिस्टर-----‘”

“अमन, जी हां मेरा नाम अमन है। यहां एक मल्टी नेशनल कम्पनी में चार्टर्ड अकाउंटेंट हूं।“

“मुझे आपके नाम या प्रोफ़ेशन से कुछ भी मतलब नहीं है। मुझे काम करने दीजिए वर्ना- -“

‘’पर मुझे आपकी मदद चाहिए, शालू जी।‘

“मदद वह भी एक दंभी और भी बकवास लेखिका से? यह बात तो सपने में भी नहीं सोची जा सकती।“

“सपने में नही जागती आँखों के साथ आपसे रिक्वेस्ट कर रहा हूं। फ़ायदा आपका ही होगा।“

“कृपया मेरे फ़ायदे की बात भूल जाइए। किसी अनजान से फ़ायदा उठाना तो दूर, बात भी करना मुझे स्वीकार नहीं है।“

‘अगर आप लिखती हैं तो नारी के एक दूसरे रूप से साक्षात्कार करने की हिम्मत भी होनी चाहिए, वर्ना आप स्त्री के उस दूसरे रूप के सत्य से अपरिचित रह कर, कल्पना के संसार में ही विचरण करती रह जाएंगी। बोलिए साहस है, मेरा सत्य सुनने का या आप झूठ का ही आश्रय लेती रर्हेंगी?’

“अगर आपका झूठ मेरे लिए सत्य हो, उस स्थिति को क्या कहेंगे?”

“यही कि आप सत्य को देखने का साहस नहीं रखतीं। आप डरती हैं।“

“अगर आपकी यह चुनौती है तो मैं आपका सत्य सुनने को तैयार हूं।“

“शुक्रिया, पर इसके लिए आपको समय देना होगा। कल इंडिया कैफ़े में सुबह ग्यारह बजे मिलते हैं। आएंगी वहां?”

“ मैं समय पर पहुंच जाऊंगी, उम्मीद है आप भी समय पर पहुंचेंगे। मुझे इंतज़ार अच्छा नहीं लगता।“

इंडिया कैफ़े में प्रवेश करती शालू को देख, अमन अपनी जगह से उठ कर, उसके स्वागत के लिए जा पहुंचा।

“आप आ गईं, मुझे डर था कहीं आप ना आईं तो मेरी प्रतीक्षा व्यर्थ ही जाएगी। थैंक्स फ़ॉर कमिंग। आइए हम उधर बैठते हैं।“ कैफ़े के एक एकांत कोने की ओर अमन के साथ जाकर शालू अपनी चेयर पर बैठ गई।

“हां, अब आपको जो कहना है, जल्दी कह डालिए, मेरे पास बहुत कम वक्त हैं।“

‘जिस बात ने महीनों से मेरी नींदें उड़ा दी हैं, उसके लिए थोड़ा सा समय तो देंगी, शालू जी? कोशिश करूंगा आपका कीमती समय नष्ट ना करूं।‘एक लंबी सांस ले कर अमन ने कहना शुरू किया- -

“उसे मैंने अपने मित्र की शादी में देखा था। उसकी सुंदरता और शोख अदाओं पर मैं मर-मिटा था। मित्र के कान में अपनी पसंद बता कर, रेखा के साथ अपनी शादी के लिए मित्र से मदद करने का अनुरोध किया था। मुझे अपनी बढिया नौकरी और शानदार पर्सनैलिटी पर विश्वास था। कोई भी लड़की मुझे नापसंद करेगी, यह सोच भी नहीं सकता था। मेरा विश्वास गलत भी नहीं था। एक महीने बाद रेखा मेरी पत्नी बन कर आगई। मेरा स्वप्न साकार हो गया था। पहली रात रेखा से पूछा था- -

“सच कहना, तुम्हे मेरी कौन सी बात सबसे अच्छी लगी, जिसकी वजह से तुम शादी के लिए तैयार हो गईं।“

“तुम्हारी ऊंची नौकरी ने फ़ैसला करने में देर नहीं होने दी।“रेखा शैतानी से हंस दी।

“और र्मेरे बारे में क्या ख्याल है जनाब का? लड़कियां हम पर मरती थीं।“ कुछ गर्व से मैंने कहा था।

“सच, कौन थीं वो बुद्धू लड़कियां?”उसी शोखी से उसने कहा, जिस पर मैं फ़िदा था।

“एक बुद्धू तो मेरे सामने बैठी है, बाकी अपनी किस्मत को रो रही होंगी।“मैने भी शैतानी से जवाब दिया।

“बस यही प्रेम-कहानी सुनाने के लिए बुलाया था?’” शालू ने चिढ कर कहा।

“”कहानी तो तब शुरू हुई जब हमारी ज़िंदगी में संजय आया। रेखा उसे देख कर खिल गई थी। बताया था, वह रेखा   का दूर का कोई रिश्तेदार था। संजय बेहद बातूनी और हंसमुख युवक था। उसकी पी डब्लू डी में नई नौकरी लगी थी। रेखा के आग्रह पर वह शाम का खाना हमारे साथ ही खाता। मेरी बंद कार के मुकाबले में रेखा को संजय की खुली जीप में जाना ज्यादा अच्छा लगता। अब ऑफ़िस से देर में घर पहुंचने पर रेखा की शिकायत नहीं सुननी पड़ती। ऑफ़िस के काम से मुझे अक्सर शहर से बाहर जाना होता था। मेरे बाहर जाने की बात पर रेखा को परेशान देख कर संजय समझाता—

”परेशान क्यों होती हो, मैं तुम्हारे घर पहरा दूंगा। मज़ाल है कोई मच्छर भी बिना इजाज़त घर के अंदर आ जाए।“

उसकी ऐसी बातें रेखा का भय और गुस्सा मिनटों में दूर कर देतीं। मुझे भी संजय की कम्पनी अच्छी लगती। हम तीनों खुश थे। संजय और रेखा दोनो बचपन से साथ खेल कर बड़े हुए थे, उनके पास बातें करने को ढेर सी बातें होतीं। रेखा के व्यवहार से मुझे कोई शिकायत नहीं थी, उस पर संदेह का तो सवाल ही नहीं था। अपने प्यार पर पूरा विश्वास जो था। इस बीच हमारे घर एक नन्हें बच्चे ने आकर हमारी खुशियों में चार चांद लगा दिए। नन्हें बाबा की देख-रेख के लिए एक आया रखने का सुझाव संजय ने दिया था। रेखा पर काम का भार ना बढे इसलिए मैंने भी उसकी बात मान ली। संजय बच्चे को बहुत प्यार करता था। उसके लिए खिलौने लाना जैसे उसका फ़र्ज़ बन गया था। उसे गोद में उठा कर कहता-

“रेखा, इस बच्चे को मैं ले जाऊंगा। देख, यह मेरे जैसा है। हंसने पर इसके गालों पर मेरी तरह ही डिंपल पड़ते हैं।“

एक बार मैंने कहा था- -

“रेखा इसे बच्चों से इतना प्यार है, तुम कोई लड़की ढूंढ कर इसकी शादी जल्दी करा दो। अपना बच्चा हो जाने पर दूसरों का बच्चा तो नहीं ले जाएगा। क्यों संजय तुम्हारे लिए लड़की खोजी जाए?” मैने मज़ाक किया, पर मेरे मज़ाक पर संजय और रेखा दोनो ही मौन रह गए।

“उस बार ऑफ़िस से  लंबे समय के लिए शहर से बाहर जाना पड़ा था। रेखा और बेबी को छोड़ते मन उदास था, पर संजय के होने से चिंता कम थी। शहर से बाहर ही फ़ोन से वह स्तब्ध कर देने वाली ख़बर मिली थी। रेखा और संजय की सड़क-दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। मुझे नहीं पता कैसे घर वापस पहुंचा था।

पुलिस इंस्पेक्टर ने जो बताया उसकी कल्पना भी नही कर सकता था। दोनो नशे में चूर, शहर से दूर किसी रिसोर्ट से वापस लौट रहे थे। सामने से आ रही ट्रक से सीधी टक्कर ने दोनो की जीवन लीला उसी पल समाप्त कर दी। रेखा को कभी नशा करते नहीं देखा था। संजय और मैं कभी मज़ाक में उससे आग्रह भी करते तो वह नाराज़ हो जाती। मेरी स्थिति पागलों जैसी हो गई थी। उस पर आया ने जो जानकारी दी, उसने मुझे जीते जी मार दिया।“अमन चुप हो गया, चेहरे का रंग बदल गया था।

“आया ने क्या जानकारी दी, अमन जी?’ शालू ने जानना चाहा।

‘उसने बताया, जब भी मैं शहर से बाहर जाता था रेखा बच्चे को आया को सौंप, दोनो मेरे बेड-रूम में मेरा बिस्तर शेयर करते थे। एक बार बच्चे के रोने पर आया रेखा को जगाने गई तो उन्हें आपत्तिजनक स्थिति में देख कर वापस लौट गई। मुझे कुछ भी ना बताने के लिए संजय ने उसे धमकाया था, उसे पैसे दिए थे। दोनो की मौत के बाद वह काम छोड़ गई।

पागलों जैसी स्थिति में मैंने रेखा का क्रिया-कर्म किया था। संजय के घर का पता जानने के लिए मुझे उसके घर जाना पड़ा था। उसके बेड-रूम में पहले कभी नहीं गया था। कमरे में रेखा की तस्वीरें थीं। कुछ तस्वीरों में वे दोनो विभिन्न पोज़ों में साथ मुस्कराते जैसे मुझे मुंह चिढा रहे थे। कमरे की टेबल पर उसकी माँ के दो-तीन ख़त रखे थे। एक खुले ख़त पर निगाह अटक गई। उसकी माँ ने लिखा था- -

संजू बेटे, अपनी बीमार माँ पर दया कर। क्यों उस मतलबी रेखा के पीछे अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहा है। अरे उसे तुझसे नहीं, पैसों से प्यार था। अमन की भारी तनखा के लालच में उससे शादी बना ली। अब वह तुझे बेवकूफ़ बना रही है।

मेरा कहना मान एक अच्छी लड़की से शादी करके, अपनी ज़िंदगी संवार ले। तू जानता है मैं कुछ ही दिनो की मेहमान हूं, तेरा घर बसा देख कर चैन से मर सकूंगी। जो रेखा अपने पति से बेवफ़ाई कर रही है, तुझे क्या देगी। अपनी माँ का कहना मान ले, बेटा। मेरा रोम-रोम उस धोखेबाज़ रेखा को कोसता है। कैसे तुझे उसके माया जाल से छुड़ा सकूंगी। भगवान का ही आसरा है, तुझे सद्बुद्धि दे।

अभागिन माँ

“इसमें नया क्या है? क्या आपने पति-पत्नी और तीसरे के बारे में कभी नहीं सुना? जो होना था वो हो गया। आपके सामने भविष्य है, नई ज़िंदगी के लिए अपने को तैयार कीजिए। मुझे अब जाना होगा।“शालू बोल पड़ी।

‘बात यहीं खत्म नहीं होती, शालू जी। रेखा अपने पीछे एक ऐसा प्रश्न-चिह्न छोड़ गई है, जिसकी वजह से मेरा चैन चला गया है। हर समय वह प्रश्नचिह्न मुझे कोंचता रहता है।“

“कैसा प्रश्न-चिह्न, अमन जी? शालू विस्मित थी।

“वो बच्चा, मेरे लिए एक प्रश्न-चिह्न बन गया है। किसका है वो बच्चा संजय का या मेरा? उसके गालों के डिंपल जो कभी मुझे बेहद प्यारे थे, अब संजय की याद दिला जाते हैं। उसके गालों पर भी डिंपल पड़ते थे।“

“आप इतने पढे-लिखे हैं, बड़ी आसान सी बात है, डी एन ए टेस्ट क्यों नहीं करा लेते? सच्चाई पता लग जाएगी।“

“मैने भी यही सोचा था, पर अगर वह मेरा बच्चा नहीं निकला तो वह आघात मैं सह नहीं सकूंगा। ज़िंदगी भर के लिए संजय मेरी आँखों के सामने जीता रहेगा। कभी मैंने उस बच्चे को जान से भी ज़्यादा प्यार किया था, अब उसकी सूरत भी देखना गवारा नहीं है।“

“रुकिए, शायद मैं उस मासूम से मिल चुकी हूं। एक दिन पार्क में एक आया ने यही बात बताई थी कि उस मासूम का बाप उसकी ओर निगाह भी नहीं डालता। अगर वो बच्चा आपका था तो मुझे आपसे और कोई बात नहीं करनी है।‘अपनी बात खत्म करती शालू ने उठने का उपक्रम किया ही था कि अमन का मोबाइल बज उठा।

“क्या हुआ। कैसे गिर गया? तुम उसे पास के अस्पताल में ले जाओ। मैं अभी बिज़ी हूं,।“ फ़ोन पर किसी ने जो खबर दी थी, उसके जवाब में अमन ने रुखाई से सलाह दे डाली।

“क्या हुआ, कौन गिर गया?” शालू का पूछना स्वाभाविक था।

“आया कह रही है बच्चा पलंग से गिर गया। सिर से खून बह रहा है। मुझे बुला रही थी।“

“कमाल है, आप को कतई पर्वाह ही नहीं है। सिर की चोट खतरनाक हो सकती है। बिना किसी आधार के कोई किसी मासूम से कैसे इतनी नफ़रत कर सकता है। चलिए मैं आपके साथ चलती हूं।‘

“आप मेरी मनःस्थिति नहीं समझ पा रही हैं।“

“मुझे कुछ नहीं समझना है। इस वक्त उस बच्चे को आपकी ज़रूरत है। आया क्या समझ पाएगी। जल्दी कीजिए।“

अमन के साथ कार में बैठी शालू की आँखों के सामने पार्क में देखे हुए बच्चे की छवि उभर रही थी। क्या यह वही बच्चा है, जिसके बारे में अमन बात कर रहा था। हॉस्पिटल पहुंचने पर जैसा शालू ने सोचा था, वह सच निकला। पार्क वाले बच्चे को गोद में लिए आया अपने बुलाए जाने की बारी की प्रतीक्षा कर रही थी। बच्चे के सिर पर एक मैला सा कपड़ा बंधा हुआ था। बच्चे को आया की गोद से ले कर, शालू सीधे डॉक्टर के केबिन में घुस गई।

“एक्स्क्यूज़ मी, डॉक्टर। इस बच्चे के सिर में चोट लगी है। बहुत खून बह गया है। अभी एक्ज़ामिन ना करने पर इसकी हालत सीरियस हो सकती है। प्लीज़ इसे देख लीजिए।“शालू की आवाज़ में भय था।

डॉक्टर ने बच्चे को एक्ज़ामिन करने के बाद नर्स को उसकी मरहम- पट्टी के निर्देश दे कर कहा-

“घबराने की कोई बात नहीं है। एक इंजेक्शन दे दिया है। कुछ दवाइयां लिख दी हैं। ठीक समय पर देती रहिएगा।“

थैंक्यू, डॉक्टर। मैं अपनी बारी के बिना आपके पास चली गई थी, माफ़ कीजिएगा।“

“कोई बात नहीं आप माँ हैं, बच्चे की चोट देख कर घबरा जाना स्वाभाविक ही है।“

“नहीं मैं इसकी माँ नहीं हूं, डॉक्टर। यह तो मेरा फ़र्ज़ था।“

“लगता है आप कोई समाज-सेविका हैं। अच्छी बात है, कीप इट अप।“ कह कर डॉक्टर चले गए।

हॉस्पिटल से बाहर आकर अमन ने कार की पिछली सीट पर आया और बच्चे को बैठने का संकेत दे कर शालू के लिए आगे की डोर खोल कर कहा-

“आइए, आपको आपके घर छोड़ दूं, पहले ही आपका काफ़ी समय ले चुका था, उस पर इस बच्चे ने और वक्त बर्बाद कर दिया। ना ये इस दुनिया में आता ना कोई दुख होता।“

“एक्स्क्यूज़ मी, आप ऐसी बात कैसे कह सकते हैं, क्या आपके पास दिल नाम की कोई चीज़ नहीं है? इतने प्यारे बच्चे से कोई कैसे नफ़रत कर सकता है। अगर इससे इतनी ही नफ़रत है तो इसे किसी अनाथालय में क्यों नहीं दे देते। वैसे भी तो यह अनाथ की तरह ही जी रहा है।“

“अगर आप मेरी जगह होतीं, तब आप मेरी तकलीफ़ समझ पातीं। सोचिए अगर आपने किसी को अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार किया, पर उसने आपके साथ ऐसा ही विश्वासघात किया होता तो? मेरा मतलब अगर आपको पता चलता उस इंसान का किसी और स्त्री से कोई नाज़ायज़ बच्चा है तो भी क्या आप इतनी ही सामान्य रह पातीं? नहीं शालू जी, नहीं। बात करना बहुत आसान होता है, पर - -

“पर क्या अमन जी? आप इस दुनिया में कोई अनोखे इंसान नहीं हैं, इससे भी बड़ी ट्रैजेडीज़ झेल कर भी लोग सामान्य जीवन जी लेते हैं। आपको क्या पता मैंने क्या झेला है - -अचानक अपनी बात कहती शालू रुक गई।

“क्या झेला है आपने, क्या हुआ आप बात कहती-कहती क्यों रुक गईं?” अमन विस्मित था।

“कुछ नहीं, मैं अपने वर्तमान में अतीत का ज़हर नहीं घोलना चाहती। मुझे देर हो रही है, मै जाती हूं।“

“रुकिए, मैं आपको कार से पहुंचा दूंगा।‘

“जी नहीं। इस समय इस नन्हे मुन्ने का जल्दी घर पहुंचना ज़रूरी है। एक रिक्वेस्ट है, प्लीज़ इस का ध्यान रखिएगा। आपकी हृदयहीनता से मुझे दुख हुआ है।“अमन की प्रतिक्रिया नकार, शालू तेज़ कदमों से चली गई। अवाक अमन कार स्टार्ट कर, शालू को जाता देखता रह गया।

अगले पांच-सात दिनो तक शालू उस पार्क में इस उम्मीद से जाती रही कि शायद वह आया बच्चे को ले कर पार्क आएगी। वह सोचती बिन माँ का बच्चा पिता की नफ़रत के साथ कैसे जिएगा। ना जाने उसका क्या हाल हो। कहीं चोट की तकलीफ़ बढ ना गई हो। अंततः उसने सिटी लाइब्रेरी जाने का निर्णय ले लिया। लाइब्रेरी मे पहुंची शालू का जैसे अमन इंतज़ार ही कर रहा था। शालू के सामने वाली कुर्सी पर बैठ कर कहा- -

“इस हृदयहीन का भी दिल है, यह बात अब जान गया हूं। आपने क्या झेला, जानने के लिए यह दिल बेचैन है।“

“अगर आपके पास दिल है तो उस नन्हे बच्चे को अपना लीजिए। कभी आपने जिस रेखा को इतना प्यार किया था, यह बच्चा उसी की अमानत है। आपके मन में उस मासूम को ले कर जो सवाल हैं उन्हें भुला दीजिए। किसी अपने से त्यागे जाने की तकलीफ़ आप नहीं समझ सकते हैं। यह दुख मैने और मेरी माँ ने झेला है।‘शालू गंभीर थी।

“देखिए शालू, अपने मन की बात किसी के साथ शेयर कर लेने से तकलीफ़ कम हो जाती है। आपसे अपना सच बताने के बाद उस रात पहली बार चैन से सो सका था। प्लीज़ बताइए ना?”

“जब मैं पंच वर्ष की थी, मुझे और मेरी माँ को छोड़ कर मेरे पिता किसी और स्त्री के साथ विदेश जा बसे। कभी भूल कर भी हमारी याद नहीं की। पिता की धुंधली यादें आज भी मुझे बेचैन कर जाती हैं। माँ ने बहुत कष्ट उठाकर मुझे बड़ा किया है। युवा माँ पर लोगों की लोलुप नज़रें, समाज की अवहेलना हमने सही है। अब माँ कैंसर से लड़ रही हैं। मैं उनकी आशा की केंद्र- बिंदु हूं।“ बात खत्म करती शालू की आँखें भर आईं।

“तुम ठीक कहती हो, शालू। जीवन में आई दुखद स्थितियों का हिम्मत से सामना करने वाला इंसान ही असली इंसान है। तुम्हारी दुखद कहानी ने मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया है। मैं कोशिश करूंगा उस बच्चे को प्रश्न-चिह्न ना मान, अपना प्रतीक मानने का प्रयास करूंगा।“

“सच? अगर ऐसा है तो हम उसका नाम प्रतीक क्यों ना रख लें?’ शालू उत्साहित हो उठी।

हां, यह तो बहुत सुंदर नाम है, शालू। आज से वह हमारा प्रतीक ही है।

थैंक्स, अमन जी। मैं बहुत खुश हूं, जो मैं ने खो दिया उस क्षति की पूर्ति प्रतीक के माध्यम से कर सकी।

क्या मैं आपकी माँ से मिल सकता हूं, शालू?’

माँ आपसे मिलकर खुश होंगी, पर उनकी ये खुशी तब दुगनी हो जाएगी जब आप प्रतीक के साथ आएंगे।

उस स्थिति में आपको मेरी सहायता करनी होगी, मै प्रतीक को ज़रूर लाऊंगा, पर उसे सम्हालना आपको होगा। मैं उसका रोना सुन कर ही घबरा जाता हूं।

आप निश्चिंत रहें, मुझे कोई परेशानी नहीं होगी।शालू ने मुस्करा कर कहा।

दूसरे ही दिन अमन प्रतीक के साथ शालू के घर पहुंच गया था। नए कपड़ों में प्रतीक बहुत प्यारा लग रहा था। माँ  के चरण स्पर्श कर के अमन ने कहा-

मुझे अपना बेटा ही समझिए, मेरी माँ नहीं हैं अगर आपका प्यार पा सका तो मेरे जीवन का बहुत बड़ा अभाव पूरा हो सकेगा।

ज़रूर, मुझे खुशी होगी। तुम्हारे साथ इस नन्हे बच्चे के आने से घर का सूनापन मिट जाएगा।माँ की गोद में जाते ही प्रतीक हंस पड़ा।

बड़ा स्मार्ट है, जानता है, माँ के पास इसके लिए खूब समय है। क्यों माँ, इसे देख कर तुम्हारी आधी बीमारी तो भाग ही जाएगी?’ शालू ने परिहास किया।

आधी क्यों, हम दोनो मिलकर माँ को पूरी तरह से ठीक कर लेंगे। ठीक कहा न प्रतीक?” अमन ने प्रतीक को देख कर प्यार से कहा।

वो दिन बहुत अच्छा बीता।  अमन के जाने के बाद माँ ने लंबी सांस ले कर कहा-

आज तेरे पिता होते तो तेरी भी शादी हो गाई होती। तेरी गोद में भी ऐसा ही बच्चा होता, शालू।

माँ, तुम फिर वही बातें दोहराने लगीं। मुझे शादी नहीं करनी है। मैं तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी।

उस दिन के बाद से अमन प्रतीक के साथ अक्सर शालू के घर आने लगा। माँ को अस्पताल ले जाने के लिए वह ज़िद कर के उन्हें अपनी कार से ले जाता। माँ कहती, वह उनकी आदत बिगाड़ रहा है, पर अमन कहता, अगर वह उसे अपना बेटा मानती हैं तो उसे अपना फ़र्ज़ पूरा करने दें। शालू को अपनी थीसिस सबमिट करनी थी, अमन ने माँ के पूरे दायित्व अपने ऊपर ले कर शालू को अपना काम पूरा करने की सलाह दी थी।

जिस दिन शालू ने अपनी थीसिस जमा की, अमन उसे रेस्ट्रॉ ले गया था। प्रतीक अपनी आया के साथ माँ के पास था। रेस्ट्रॉ के एकान्त केबिन में अमन ने कहा-

याद है, एक दिन तुमने कहा था हम बच्चे का नाम प्रतीक क्यों ना रख लें।””

हां, वो क्या भूलने की बात है? इस बात को याद दिला कर आप क्या कहना चाहते हैं?”

उस दिन तुमने अपने को प्रतीक के साथ जोड़ा था, शालू। क्या हम दोनों एक नहीं हो सकते?”

नहीं, मैं इस बारे में सोच भी नहीं सकती। मुझे जो ठीक लगा था वही कहा था। अगर मैं जानती कि आप मेरी मित्रता को इस रूप में ले रहे हैं तो मैं आपसे कभी न मिलती। अच्छा हो अब भविष्य में हम कभी ना मिलें।   

शालू खाना छोड़ कर उठ गई। अमन उसे पुकारता ही रह गया, पर वह तेज़ कदमों से रेस्ट्रॉ के बाहर चली गई।

अगले कुछ दिनों तक अमन घर नहीं आया। माँ उसकी जब भी याद करतीं, शालू झुंझला उठती।

यह मत भूलो, वह तुम्हारा बेटा नहीं है, माँ। उसे भी कुछ ज़रूरी काम हो सकते हैं।

सच तो यह था अमन और प्रतीक के ना आने से घर में सन्नाटा पसर गया था। उन दोनो के आने से वर्षों से मौन पड़ा घर चहक उठा था। प्रतीक तो जैसे एक सजीव खिलौना बन गया था। माँ और शालू की गोद वह खूब पहचानने लगा था। माँ की गोद से उतारने पर वह रो पड़ता था। खुद शालू का मन उदास था, पर वह यह बात मानने को तैयार नहीं थी कि अमन और प्रतीक उसकी कमजोरी बन चुके हैं। चाह कर भी अमन के रेस्ट्रॉ में कहे गए शब्द भुला नहीं पाती। अचानक एक दिन प्रतीक की आया मार्केट में मिल गई। शालू को जैसे कोई अपना मिल गया।

प्रतीक बाबा कैसा है? चाह कर भी शालू अमन का नाम नहीं ले सकी।

प्रतीक बाबा अस्पताल में हैं। साहब ने छुट्टी ले रखी है। घर में और कोई देखने वाला भी तो नहीं है। हम बाबा के लिए फल खरीदने आए हैं।

प्रतीक किस अस्पताल में है?’शालू बेचैन हो उठी।

उसी अस्पताल में जहां आप गई थीं।

शालू ने और कुछ जानने की प्रतीक्षा नहीं की, तुरंत अस्पताल जा पहुंची। अस्पताल की बेड पर नन्हा प्रतीक मुरझाया सा पड़ा था। शालू को देखते ही उसका पीला पड़ा चेहरा चमक उठा। प्यार से उसे गोद में उठाती शालू की आँखें भर आईं। कितना निरीह सा लग रहा था प्रतीक। हाथ मे दवाइयां लाता अमन प्रतीक को शालू की गोद में देख चौंक गया।

आप यहां?” इससे ज़्यादा अमन कुछ और नहीं पूछ सका।

प्रतीक इतना बीमार था और आपने हमे खबर करने की भी ज़रूरत नहीं समझी? आपको न सही इस मासूम को तो हमारी ज़रूरत है। माँ को पता लगेगा तो आपको कभी माफ़ नहीं करेंगी।शालू का कंठ अवरुद्ध हो गया।

किसने कहा मुझे आपकी ज़रूरत महसूस नहीं हुई? जिस दिन से प्रतीक हॉस्पिटेलाइज़ हुआ बस आपको याद करता रहा, पर आपने कभी ना मिलने की शर्त लगा कर पांव रोक दिए।

“”गुस्से में कही बात को क्या बच्चे के नाम पर भी नहीं भुलाया जा सकता? आप सचमुच हृदयहीन हैं।

मानता हूं, गलती हो गई। अब इस नाचीज़ को माफ़ी मिल सकेगी?”अमन के परेशान चेहरे पर मुस्कान आ गई।

उसके बाद तो प्रतीक शालू का दायित्व बन गया। अमन को ऑफ़िस जाने को कह, शालू प्रतीक के पास रहती। माँ भी दिन में एक बार आकर देख जातीं। शालू के साथ प्रतीक का मुरझाया चेहरा खिल उठा। जल्दी ही उसे हॉस्पिटल से छुट्टी मिल गई। वापस लौटा प्रतीक शालू की गोद से उतरने को तैयार नहीं था। अमन के गोद लेने के प्रयास पर वह शालू से चिपट ज़ोर से रो पड़ा।

अब इसे तुम्हीं सम्हालो, शालू। मुझे भले ही ना अपनाओ।, पर प्लीज़ इस मासूम की माँ बन जाओ, शालू।

वाह यह तो उंगली पकड़ कर पहुंचा पकड़ने वाली बात हो गई। क्या मुझे मूर्ख समझा है।

शायद तुम नहीं जानतीं, माँ तुम्हारे लिए मुझे स्वीकार कर चुकी हैं। उन्हें अपनी ज़िद्दी लड़की के लिए मुझ जैसा सीधा-सादा वर ही चाहिए था।अमन के चेहरे पर शरारती मुस्कान थी।

अच्छा तो यह तुम्हारी और माँ की मिली-भगत है। याद रखो अगर मैं तुम्हें स्वीकार करूंगी तो सिर्फ़ इस प्रतीक के लिए क्योंकि मुझे तुम पर भरोसा नहीं है। ना जाने कब फिर इसे प्रतीक से प्रश्न-चिह्न बना दो।प्यार से प्रतीक के गाल चूमती शालू को अमन मुग्ध निहारता रह गया।

 

उसका फ़ैसला

शांति-हवन समाप्त हो चुका था, पंडित जी दान की सामग्री के साथ जा चुके थे। एक-एक कर के हवन में शामिल होने वाले भी दीपा को तसल्ली दे कर चले गए। उस सन्नाटे में दीपा का साथ देने बस सुधीर और सुशान्त ही रह गए थे। आज अतुल को गए तीसरा दिन था। कमरे के कोने में अतुल द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला वॉकर और व्हीलचेयर रखी थी। यह सत्य जानने के बावजूद कि अतुल उनका इस्तेमाल शायद कभी ना कर पाएं, दीपा के मन के किसी कोने में क्षीण सी आशा थी, शायद चमत्कार हो जाए और अतुल वॉकर पर न सही, व्हील-चेयर के सहारे चल सकें। एक दृष्टि उन उपकरणों पर डाल, दीपा ने सुशान्त से कहा-

अब इनकी ज़रूरत नहीं है, सुशान्त्। अगर हॉस्पिटल में आने वाले ज़रूरतमंद इंसान के काम आ सकें तो अच्छा है। इन्हें हॉस्पिटल भिजवा दूंगी।

यह अच्छा विचार है, दीपा। अब मैं चलता हूं। तुम हिम्मत रखो, भगवान ने हमे अतुल का साथ इतने ही दिनो के लिए दिया था। अतुल का अंश सुधीर तुम्हारे साथ है। मुझे विश्वास है, सुधीर तुम्हारा बहुत ख्याल रखेगा।

जी अंकल, मैंने डिसाइड कर लिया है, अब मां के साथ रह कर उनके काम में साथ दूंगा।शांति से सुधीर ने अपना निर्णय सुना दिया।

सुशान्त के जाने के उपक्रम पर दीपा रो पड़ी, रुद्ध कंठ से बोली- -

तुम तो हमारा साथ नहीं छोड़ोगे, सुशान्त? सुधीर को तुम्हारी गाइडेंस की ज़रूरत होगी।

ऐसा तुम सोच भी कैसे सकती हो, दीपा? अतुल मेरा सिर्फ़ दोस्त ही नहीं भाई जैसा था। उसे खोने का मुझे भी कम दुख नहीं है। मैं हर ज़रूरत में तुम्हारे और सुधीर के साथ हूं।

सुधीर के कहने पर दीपा आराम करने अपने बेड-रूम में आगई, जहां उसने अतुल के साथ सत्ताइस वर्ष कितनी खुशी से बिताए थे। पलंग पर लेटी दीपा के ठीक सामने अतुल के साथ उसका चित्र लगा था। तस्वीर देखती दीपा की आँखों के सामने अतीत की यादों की परतें खुलने लगीं।

उस दिन बैडमिंटन खेलने गए अतुल को फिर जल्दी घर वापस आते देख उसे विस्मय हुआ था। पिछले कुछ दिनों से अतुल महसूस कर रहे थे वह बैड्मिंटन ठीक से नहीं खेल पा रहे थे। शायद उनका पार्ट्नर खेलने नहीं आ रहा था। घर में प्रविष्ट हो रहे अतुल से वह पूछ बैठी थी।

अरे, आज भी जल्दी वापस आ गए। क्या तुम्हारा पार्टनर आज भी नहीं आया था?” दरवाज़ा खोल कर अंदर आते अतुल को देख कर दीपा ने सवाल किया। पिछले कुछ दिनो से अतुल खेल छोड़ कर जल्दी लौट रहा था।

बैड्मिंटन-रैकेट कोने की मेज़ पर रख अतुल पास के सोफ़े पर निढाल सा बैठ गया।

नहीं वह तो आया था, पर न जाने क्या बात है, मैं न शाट दे पाता हूं न ले पाता हूं, रिटर्न भी ठीक से नहीं कर पाता। ऐसा लगता है, हाथ में ताकत ही नहीं रह गई है। जब ठीक से खेल ही नहीं पा रहा हूं तो अपने पार्टनर के खेल का मज़ा क्यों बिगाड़ूं?

पूरे दिन कम्प्यूटर पर काम करते रहते हो, शायद हाथ थक जाता हो। मैं गरम तेल की मालिश कर दूंगी, ठीक हो जाएगा। दो-चार दिन काम से छुट्टी ले लो। आखिर इंसान का शरीर भी तो आराम चाहता है।चाय का कप थमाती दीपा ने समझाया।

कप थामते अतुल के हाथों से कप छूट गया। फ़र्श पर चाय फैल गई।

सॉरी, दीपा। मैं ठीक से कप थाम नहीं सका।अतुल ने अपराधी भाव से कहा।

इसमें सॉरी कहने की क्या बात है? क्या मेरे हाथों से अक्सर शीशे के ग्लास और कप नहीं टूट जाते हैं।

असल में मैने तुम्हें बताया नहीं, आजकल कभी-कभी पेन भी ठीक से नहीं पकड़ पाता। ना जाने क्या प्रॉबलेम है।

कोई प्रॉब्लेम नहीं है। तुम्हें वीकनेस हो गई है और आराम चाहिए। बस कल से पंद्रह दिन की छुट्टी की ऐप्लीकेशन भेज दो। मुझे कोई बहाना नहीं सुनना है।दीपा ने ज़ोरदार शब्दों में फ़ैसला सुना दिया।

जैसी आज्ञा मेरी सरकार्। आपका हुक्म तो मानना ही पड़ेगा। कल से बंदा आपके रहमो-करम पर रहेगा वर्ना ना जाने क्या नया गुल खिला दें।मुस्कराते अतुल ने जवाब दिया।

अच्छा जी, आप हमसे इतना डरते हैं, ऐसा क्या किया है हमने?”हल्की नाराज़गी जताती दीपा ने पूछा।

आपसे पहले दिन की मुलाकात और आपकी नाराज़गी का अंदाज़ क्या भुलाई जाने वाली बात है? बाप रे, क्या धमाकेदार एंट्री थी। इंटरव्यू-बोर्ड के मेम्बर भी थर्रा गए थे। क्या ज़ोरदार भाषण दिया था।पुरानी याद से अतुल के चेहरे पर मुस्कान आ गई।

तो और क्या करती मैं। इंटरव्यू के लिए दस बजे का टाइम दिया गया था। मैं साढे नौ बजे पहुंच गई थी। बारह बजे तक भी इंटरव्यू शुरू नहीं किया गया था। इतनी बड़ी कम्पनी में टाइम- मैनेजमेंट की शायद किसी को जानकारी ही नहीं थी। जैसे हमारे समय की कोई कीमत ही नहीं थी।

आपकी तरह इंटरव्यू के लिए आए और उम्मीदवार भी तो शांति से प्रतीक्षा कर रहे थे।

हो सकता है उन्हें अपने पर विश्वास ना रहा हो और वे मैनेजमेंट को मन में कोसते हुए भी अपने नाम के पुकारे जाने की प्रतीक्षा कर रहे हों। मुझे अपनी क्वालीफ़िकेशन पर पूरा विश्वास था। जानती थी इस कम्पनी में ना सही, किसी दूसरी कम्पनी में तो चुनी ही जाऊंगी। वैसे भी अन्याय सहना मुझे स्वीकार नहीं।

तुम्हारी ये बात तो मानता हूं। वाह, क्या देवी दुर्गा की तेजस्विता के साथ अंदर आने की इजाज़त लिए बिना इंटरव्यू- रूम का दरवाज़ा खोल अवतरित हुई थीं। अपना भाषण आज भी याद है या भूल गईं? अतुल ने परिहास किया।

वो कोई भाषण थोड़ी था, सच ही तो कहा था कि अगर आपका समय कीमती है तो, दूसरों के समय का भी महत्व समझना चाहिए। हम सुबह से इंटरव्यू शुरू होने की प्रतीक्षा में बैठे हैं, पर इतना समय बीत जाने के बाद भी इंटरव्यू शुरू नहीं हुआ है। हो सकता है किसी के घर में कोई अस्वस्थ हो या कोई ज़रूरी काम रहा हो। अपने काम छोड़ कर उम्मीदवार यहां आए हैं।

सॉरी, मिज़्। असल में हमारे एक्सपर्ट की फ़्लाइट विलम्ब से आई है। बस थोड़ी देर में वह पहुंच जाएंगे और इंटरव्यू शुरू हो जाएगा। तब तक आप सबके लिए लंच अरेंज करवाता हूं।बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में बीच की कुर्सी पर बैठे अतुल ने उसे शांत करना चाहा था।

एक मेम्बर ने दीपा के शब्दों के विरोध में कुछ कहना चाहा, पर अतुल ने उन्हें हाथ के इशारे से रोक दिया था।

थैंक्स। मुझे आपके लंच की कोई ज़रूरत नहीं है। अगर इंटरव्यू शुरू होने का कारण बाहर बैठे लोगों तक पहुंचवा दें तो मेहरबानी होगी। एक सुझाव देना चाहूंगी, भविष्य में अपने एक्सपर्ट को एक दिन पहले बुलाने की व्यवस्था करने से ऐसी समस्या से बचा जा सकता है।

ओह माई गॉड! क्य तेवर थे, जानती हैं, एक मेम्बर तो नाराज़ हो गए थे। कहने लगे, इस उम्मीद्वार का तो नाम ही काट दो। अगर यह हमारी कम्पनी में आ गई तो न्याय-अन्याय का झंडा ले कर कर्मिकों को भड़काती रहेगी। देखा नहीं, उसके तेवर बिल्कुल एक विद्रोहिणी के थे।

सच तो यह है, बाहर आ कर मैंने भी अपने सेलेक्शन की आशा नहीं रखी थी। ऑफ़िस के पियून ने बताया था, जब से बड़े साहब नहीं रहे, उनके बेटे अतुल जी ने सब सम्हाला है। तुम्हारी तारीफ़ों के पुल बांध दिए थे। वैसे विरोध के बावजूद मुझे कैसे चुना गया?”

अजी आपकी उस तेजस्वी अदा ने ही तो हमे आपका दीवाना बना दिया था। सबको समझाया था, ऐसे ही अधिकारी अंतर में कुछ कर-गुजरने की आग रखते हैं। कुछ ही दिनो के काम द्वारा तुमने सचमुच ऑफ़िस की काया ही पलट दी। उसी दिन तुम्हें अपनी जीवन-संगिनी बनाने का निश्चय कर लिया था। ऑफ़िस में आज भी लोग तुम्हें याद करते हैं। जब तुमने ऑफ़िस छोड़ा सबको दुख हुआ था।“

तुम्हारी पत्नी के रूप में तुम्हारे ऑफ़िस में काम करना उचित नहीं लगा था। अब मैं समाज-सेवा के जो कार्य कर रही हूं, उनमें मुझे बहुत शांति और संतोष मिलता है। सुधीर की अच्छी देख्र -रेख की वजह से ही आज वह एक पॉपुलर प्रोफ़ेसर बन सका है।

सच समय कितनी जल्दी बीत जाता है, दीपा। अब तो हमे अपने बेटे सुधीर के विवाह के लिए एक अच्छी लड़की ढूंढनी है, लड़की बिल्कुल तुम्हारी तरह होनी चाहिए।

आज कितने दिनो बाद पुरानी बातें याद करके अच्छा लगा। ऐसा लगता है कल की ही बात है। तुम्हारे द्वारा जब मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव आया तो घरवाले विस्मित रह गए थे। इतने बड़े उद्योगपति के साथ विवाह असंभव कल्पना थी। इसीलिए मैने कहा था पहले तुमसे बात करूंगी। जानना चाहती थी मुझमें ऐसा क्या देखा जो विवाह करना चाहते हैं।“दीपा के चेहरे पर मुस्कान थी।

“मेरा जवाब याद है? अतुल की सवालिया दृष्टि दीपा के मुख पर गड़ गई।

“तुम्हारे जवाब की वजह से ही तो तुम्हारे साथ विवाह के लिए सहमति दी थी। सच कहो, तुम जैसी पत्नी चाहते थे तुम्हें मिली या नहीं?”दीपा ने सवाल किया।

“मैंने यही तो चाहा था, मेरी जीवन-संगिनी सिर्फ़ बुद्धिमान और शिक्षित ही ना हो, उसमें सही और गलत का निर्णय करने की क्षमता हो। अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने की हिम्मत हो, जीवन के उतार- चढाव का सामना करने का साहस हो। तुम मेरी सच्चे अर्थों में अर्धांगिनी हो, दीपा।“ अतुल ने दीपा को मुग्ध दृष्टि से देखा था।

विवाह के लंबे सत्ताईस वर्ष बीत जाने के बाद भी दीपा की ऊर्जा और उत्साह में कोई कमी नहीं आई थी। अतुल से विवाह के बाद अतुल के ऑफ़िस में नौकरी करना उसे उचित नहीं लगा था। उसके साथी उसे बॉस की पत्नी की तरह से सम्मान दें, यह उसे कतई स्वीकार नहीं होता। समाज-सेवा का कार्य उसे रुचिकर लगा था। घर में पैसों की कोई समस्या नहीं थी, अपने पैसों का सदुपयोग अनाथ बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए व्यय करने में उसे संतोष मिलता। बच्चे उसकी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते। लड़कियों को उनके घरों की चारवारी से बाहर लाकर उनकी शिक्षा के लिए किए गए उसके प्रयत्न सराहे जाते। एकमात्र पुत्र सुधीर को उसने दुनिया की कठिनाइयों और जीवन के कटु यथार्थ से परिचित कराया था। अपार धन-सम्पत्ति का वारिस होने के बावजूद सुधीर ने धन को कभी महत्व नहीं दिया। हर परीक्षा में सर्वोच्च अंक  पाने पर लोगों ने उसे प्रशासनिक सेवा में जाने को कहा, पर उसने प्रोफ़ेसर बनने का निर्णय लिया था। बचपन से दीपा उसे समझाती आई थी, एक अच्छा शिक्षक ही भावी पीढी को सही दिशा दे सकता है। शिक्षक सदैव पूज्यनीय हैं।

“अच्छा अब दीपा-पुराण बंद करो, मैं तेल गरम करके लाती हूं। मालिश से आराम मिलेगा।अतुल के सोच को दीपा ने तोड़ा था।

दीपा ने जब हाथ पर तेल से मालिश शुरू की तो अतुल को आश्चर्य हुआ उसे ऐसा नहीं लगा जैसे उसके हाथ पर मालिश की जा रही है। सा महसूस हुआ जैसे किसी बेजान जगह को छुआ जा रहा हो। शायद दीपा ठीक कहती है, उसे आराम करना भी ज़रूरी है। ऑफ़िस में एक पल को भी तो अवकाश नहीं मिलता।

आश्चर्य इस बात का था कि रोज़ की नियमित मालिश से भी हाथ की कमज़ोरी बढती ही जा रही थी। अब तो कभी-कभी पांव भी झनझनाते से लगते । तेज़ चलना तो संभव ही नहीं था। पहले तो दीपा से कुछ कहना ठीक नहीं लगा, वह बेकार में परेशान होगी। अंततः अपने बचपन के डॉक्टर मित्र सुशान्त के पास जाने का निर्णय लेकर अतुल ने फ़ोन पर समय मांगा था। सुनते ही डॉक्टर सुशान्त नाराज़ हो उठे।

“कमाल करता है, यार। तुझे मुझसे अप्वाइंट्मेंट लेने की ज़रूरत है। अभी आ जा, तेरे लिए मेरे पास हमेशा समय है। इतने दिनो से तकलीफ़ उठा रहा है, आज मेरी याद आई है?”

अतुल से पूरा हाल सुन कर सुशान्त हंस पड़े।

“लगता है दीपा तेरे खाने पर ध्यान नहीं दे रही है। अक्सर वीकनेस की वजह से ऐसा हो जाता है। विटामिन लेता है या नहीं? अगर नहीं लेता तो मैं लिख रहा हूं ठीक हो जाएगा।“

“पता नहीं क्यों मुझे लगता है, यह कोई सीरियस प्राबलेम ना हो।“

“पहली बार तुझे चिंतित देख रहा हूं। डर मत, अगर कुछ सीरियस प्राबलेम भी हुई तो हम यहां किस लिए बैठे हैं?

सुशान्त से मिलकर आने के बाद अतुल ने काफ़ी राहत महसूस की। ठीक ही तो कहता है, मैं अपने प्रति लापरवाह तो ज़रूर हूं। दीपा इसी बात को ले कर अक्सर नाराज़ हो जाती है। अब विटामिन याद करके ले लूंगा। सुशान्त ने दर्द की भी दवा दी है, दर्द होने पर खा लेना ही ठीक है।

नियमित मालिश और विटामिन लेने के बावजूद हाथ-पांव की कमज़ोरी बढती ही जा रही थी। ऑफ़िस में लड़खड़ाते हुए चलते देख सहकर्मी निशान्त ने कहा था

“अतुल जी, अगर आपके पैर में तकलीफ़ है तो छड़ी लेकर चलिए। इस उम्र में गिरने से अक्सर फ़्रैक्चर होने का खतरा होता है।“

छड़ी के साथ आए अतुल को देख कर सुशान्त चौंक गए।

अतुल से पूरी बात सुन कर सुशांत का चेहरा गंभीर हो गया।

“क्या हुआ, सुशान्त, क्या कोई सीरियस प्राब्लेम है?”

“अभी कुछ नहीं कह सकता, भगवान ना करे मुझे जो शक है, वह सच निकले। तेरे ब्लड टेस्ट के साथ और कुछ टेस्ट कराने होंगे।“

“तुझे क्या शक है, सुशान्त?’

“जब तक टेस्ट के रिज़ल्ट नहीं आ जाते कुछ कहना ठीक नहीं होगा। हो सकता है, कोई मामूली तकलीफ़ हो और अपना संदेह बता कर तेरी नींद उड़ा दूं।“

“मेरी नींद तो उड़ ही गई, सुशान्त्। मैं जानता हूं, तेरा डायगनोसिस शायद ही कभी ग़लत निकला हो। ऐसे ही तो तू शहर का नामी डॉक्टर नहीं बन गया है। प्लीज़ बता दे, मुझे क्या हो सकता है?”

“कैंसर तो नहीं है, क्या इतना ही काफ़ी नहीं है।“ अपनी बात कहते सुशान्त हंस पड़े।

सुशान्त द्वारा मंगाई गई कॉफ़ी अतुल के गले से नीचे नहीं उतर रही थी। उसका उतरा चेहरा देख कर सुशान्त ने तसल्ली दी थी।

“रिलैक्स, यार्। ये शरीर है, इसमें कुछ ना कुछ टूट-फूट तो लगी ही रहती है। घर जा कर दीपा को परेशान मत कर डालना। टेस्ट की रिपोर्ट आ जाने दे।“

घर पहुंचे अतुल का उतरा चेहरा दीपा की नज़र से छिपा नहीं रह सका।

“क्या बात है, कुछ परेशान दिख रहे हो। कहां गए थे?’

“बहुत दिनो से सुशान्त से नहीं मिला था, उससे मिलने चला गया था।“

“कैसे हैं सुशान्त भाई, बहुत दिनो से आए नहीं हैं। हां तुमने अपनी तकलीफ़ उनको बताई या नहीं? हो सकता है, वह कोई दवा या एक्सरसाइज़ बताते।“

“वह इतना बिज़ी रहता है, उसके पास मिलने-मिलाने के लिए वक्त ही कहां रहता है।‘ अपने बारे में उसने सुशान्त से बात की है, यह बात अतुल छिपा गया।

“ठीक है तुमने बात नहीं की मैं ही फ़ोन पर बताऊंगी। इतने दिनो की मालिश से तुम्हारी तकलीफ़ में कोई फ़र्क ही नहीं आया है। अब तुम कहते हो पैरों में भी कमज़ोरी लगती है। मुझे तो चिंता हो रही है।“

“तुम बेकार में ही चिंता कर रही हो। मैं खुद ही सुशान्त से टाइम ले कर मिल आऊंगा।“पहली बार अतुल ने दीपा को सच नहीं बताया था। जिस बात का डर उस पर हावी है, उसे बता कर दीपा की चिंता बढाना ठीक नहीं लगा।

सुशान्त ने फ़ोन कर के अतुल को बुलाया था। नियत समय पर अतुल सुशान्त के पास पहुंच गया। हमेशा की तरह सुशान्त ने अतुल का गर्मजोशी के साथ स्वागत नहीं किया। उसके गंभीर चेहरे को देख कर अतुल को परिस्थिति की गंभीरता का सहज ही अनुमान हो रहा था।

“क्या बात है सुशान्त, तू परेशान दिख रहा है। लगता है तेरा यह दोस्त किसी सीरियस बीमारी के चक्कर में पड़ गया है।“ अतुल ने मुंह पर जबरन मुस्कान ला कर कहा।

“तू ठीक समझ रहा है, पर अभी मैंने तेरी रिपोर्ट्स एक्सपर्ट के पास भेजी हैं। उनका ओपीनिअन आने के बाद ही कनफ़र्म कर सकूंगा।“सुशान्त अब सचमुच चिंतित दिख रहा था।

“ऐसी क्या बात है, तुझे जो संदेह है, वह तो बता ही सकता है।‘

“सच तो यह है अपने संदेह पर मैं खुद विश्वास नहीं करना चाह रहा हूं। इतना कह सकता हूं, मुझे जो लग रहा है अगर वही सच है तो तुझे हिम्मत से काम लेना होगा।‘

“मैं बच्चा नहीं हूं, सुशान्त, ज़िंदगी में बहुत उतार-चढाव देखे हैं। माँ-बाप को खो कर, सब कुछ अकेले सहा है’ साफ़-साफ़ बता दे मुझे क्या तकलीफ़ है।“

“तू मस्कुलर- डिस्ट्राफ़ी की चपेट में आ गया लगता है। आजकल इसको जल्दी ना बढने देने के लिए के लिए बहुत से उपाय हैं। परेशान मत हो, हम एक्सपर्ट की रिपोर्ट और सलाह की प्रतीक्षा करेंगे।“

“नहीं, यह कैसे हो सकता है? यह रोग तो मेरी सक्रिय ज़िंदगी ही खत्म कर देगा, सुशान्त्।“अतुल स्तब्ध था।

साहस और प्रयासों से बड़ी से बड़ी तकलीफ़ पर विजय पाई जा सकती है। तेरे साथ दीपा जैसी पत्नी है, वह तेरी पत्नी ही नहीं तेरी सच्ची साथी हैं। मुझे विश्वास है उसके साथ तू हर मुश्किल को आसानी से सह सकेगा।

एक्सपर्ट की रिपोर्ट की प्रतीक्षा में अतुल की रातों की नींद उड़ गई थी, उसे करवटें बदलते देख दीपा पूछती-

क्या बात है, क्या मन मे कोई परेशानी है? ऑफ़िस में तो सब ठीक है न?

हां, ऑफ़िस में तो सब ठीक है, पर आजकल न जाने क्यों सोचता हूं, अगर मुझे कोई गंभीर बीमारी हो जाए तो तुम क्या करोगी?’

कमाल है, जो बात हुई नहीं, उसे ले कर परेशान होते हो। ऐसी बेकार की बातें दिमाग में क्यों लाते हो?’

अतुल उसे बता नहीं सका उसके दिमाग में ऐसी बातें क्यों आती हैं। सच तो यह था कि उसने इंटरनेट पर मस्कुलर डिस्ट्राफ़ी के बारे में पढ कर काफ़ी हद तक अपने को तैयार कर लिया था, फिर भी आशा की एक किरण बाकी थी, शायद रिपोर्ट नेगेटिव आए।

अचानक एक दिन डॉक्टर सुशान्त के फ़ोन ने दीपा को चौंका दिया।

दीपा, क्या तुम मेरे क्लिनिक में अभी आ सकती हो? हां इस बारे में अतुल से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है।

क्या बात है, सुशान्त, कहीं फिर किसी बात को लेकर अतुल से बहस तो नहीं हो गई? अक्सर अतुल और सुशान्त के छोटे-मोटे झगड़ों के लिए दीपा को ही बीच-बचाव करना होता था।

तुम आ जाओ, तुम्हारे आने पर ही बात करूंगा।

दीपा के क्लिनिक पहुंचने पर सुशान्त हमेशा की तरह न उत्साहित हुआ ना ही चेहरे पर खुशी थी।  कुर्सी पर बैठती दीपा ने सुशान्त के गंभीर चेहरे को देख, मुस्करा कर कहा-

मालूम होता है, आज फिर दोनो दोस्तों में ठन गई है। कहने को तो दोनो की उम्र बढ रही है, पर बचपना नहीं गया है। बताओ क्या प्रॉबलेम है।

आज सचमुच सीरियस प्रॉबलेम है। अपने को तैयार कर लो। तुम्हें हिम्मत रखने की सख्त ज़रूरत है, दीपा।

सुशान्त के गंभीर चेहरे और स्वर ने दीपा को डरा दिया।

जल्दी बताओ, सुशान्त्। तुम जानते हो, मैं बहुत हिम्मत वाली हूं।

अच्छी तरह से जानता हूं। कई बार तुम्हारी हिम्मत की दाद दी है, पर आज शायद तुम सह न पाओ।

मैं सह लूंगी, अब और भूमिका मत बांधो। प्लीज़ जल्दी बताओ।

अतुल के हाथ-पांव की जिस वीकनेस को मामूली बात समझा जा रहा था, वो असल में एक लाइलाज बीमारी मस्कुलर डिस्ट्राफ़ी की शुरुआत है, दीपा।

नही, ये नहीं हो सकता, सुशान्त। ज़रूर कोई गलती हुई है।

कोई गलती नहीं हुई है, दीपा। मुझे भी यह सत्य स्वीकार करना संभव नहीं था। अपने संदेह पर एक्सपर्ट की कन्फ़र्म-रिपोर्ट मिलने के बाद ही तुम्हें यह सच बताने को बुलाया है।

अतुल इस बात को कैसे सह सकेंगे, सुशान्त? मैने मस्कुलर डिस्ट्राफ़ी के दो रोगियों को तिल-तिल कर के मौत के मुंह मे जाते देखा है।हथेलियों में चेहरा ढाप दीपा रो पड़ी।

शायद अतुल अब तक समझ चुका होगा।आपना संदेह मैने उस पर प्रकट कर दिया था और वह मेरे डायगनोसिस पर भरोसा रखता है।सुशान्त गंभीर था।

इसका मतलब वह तुमसे मिलता रहा है। अतुल ने यह बात मुझसे क्यों छिपाई? शायद इसीलिए वह कहता था, अगर उसे कोई सीरियस बीमारी हो जाए तो मेरा क्या होगा।

तुम्हें अतुल की हिम्मत बनना है। तुम तो जानती होगी, इस बीमारी में मानव-शरीर की मांसपेशियां और टिशूज़ वीक होते जाते हैं। हाथ-पांव की ही नहीं शरीर के प्रत्येक अंग की मांसपेशियां समाप्त होती जाती है। ये रोग लाइलाज तो ज़रूर है, पर इसे बढने से रोका जा सकता है। अमरीका में इसके लिए कुछ आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं।

मैं अतुल को अमरीका ले जाऊंगी। प्लीज़ सुशान्त, अतुल को उनकी बीमारी की खबर तुम ही दे दो। मैं नहीं बता सकूंगी।दीपा का कंठ भर आया।

“नहीं , दीपा यह काम तुम्हे ही करना होगा और वह भी इतने सहज होकर उसे बताओगी जैसे ये  कोई खास बीमारी नहीं है। मुझे विश्वास है ये बस तुम्हें ही संभव होगा।‘

शाम को अतुल को चाय का कप थमाती दीपा बहुत सहज दिख रही थी। पूरे दिन रो चुकने के बाद अपने मन के अंधड़ को उसने किस मुश्किल से बांध रखा था, बस वही जानती थी। सुशान्त ने ठीक कहा है, उसे अपनी हिम्मत से अतुल को सत्य सह्ने की शक्ति देनी है।

“तुम सुशान्त के पास जाते रहे और मुझे बताया भी नहीं। क्या तुम्हें डर था, मस्कुलर डिस्ट्राफ़ी का नाम सुन कर मैं डर जाऊंगी? जबरन चेहरे पर हल्की मुस्कान ला कर दीपा ने कहा।

“क्या - - तुमने सुशान्त से बात की है, क्या कहा उसने? अतुल चौंक गया।

“हां, उसने तो तुम्हें बताया ही था, उसका डायगनोसिस ठीक ही निकला।“

“इसका मतलब मुझे मस्कुलर डिस्ट्राफ़ी है, यह बात कन्फ़र्म हो गई है? अतुल का चेहरा पीला पड़ गया।

“इसमें डरने या परेशान होने की क्या बात है। इस शरीर में कब क्या हो। कौन जानता है।“दीपा ने स्वर को भरसक सामान्य बनाने की कोशिश की।

“ओह नो, शायद तुम इसकी भयंकरता का अनुमान नहीं लगा सकतीं। आई एम फ़िनिश्ड्।“

“सब जानती हूं जनाब, अब हम इसी बहाने अमरीका की सैर करेंगे। सुशान्त वहां के एक स्पेशलिस्ट को जानता है। सुशान्त के रेफ़रेंस से तुम्हारे इलाज की पूरी व्यवस्था हो जाएगी।“

“नहीं एक बात अच्छी तरह से समझ लो मैं अपना देश, अपना ये घर छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाला हूं। परदेश में  अजनबी लोगों के बीच मै अपनी मौत से पहले मर जाऊंगा। अगर तुम मेरी खुशी चाहती हो तो फिर दिल्ली छोड़ कर जाने की बात कभी मत करना।“ अतुल ने दृढ शब्दों में अपनी बात स्पष्ट कर दी।

सुशान्त, सुधीर और दीपा के लाख समझाने पर भी अतुल अपनी बात पर अड़ा रहा। दीपा से कहा था-

“कल से तुम मेरे साथ ऑफ़िस चलोगी। तुम्हारी क्वालीफ़िकेशन और आत्मविश्वास पर मुझे पूरा भरोसा है। तुम सब काम अच्छी तरह से संभाल लोगी।“

“यह क्या कह रहे हो? मैं ऑफ़िस जा कर क्या करूंगी।“

“अब सब कुछ तुम्हें ही सम्हालना होगा, दीपा। सच्चाई स्वीकार करनी ही है।“

अतुल की ज़िद पर दीपा ने ऑफ़िस जाना शुरू कर दिया था। अतुल ने आपने विश्वस्त सहकर्मी विनोद वर्मा और रमाकान्त के सामने स्थिति स्पष्ट करके दीपा की सहायता करने का वादा ले लिया था।

सुशान्त खुद अतुल को साथ ले कर स्पेशलिस्ट के पास गए थे। उनकी बताई दवाइयां और थेरेपी शुरू की गई थीं। दीपा को याद आया उसके बाद के तीन यातनापूर्ण वर्ष कैसे कटे थे। न जाने कितनी दवाइयों और, फ़िज़िकल थेरेपी के बावजूद अतुल की हालत बिगड़ती ही गई। दिल की तसल्ली के लिए होमयोपथिक और प्राकृतिक चिकित्सा तक ट्राई की गई, पर सारे प्रयत्न व्यर्थ गए।

 छड़ी की जगह वॉकर से चलने के प्रयास में अतुल के चेहरे की उदासी दीपा से छिपी नहीं रही थी। पहले वॉकर फिर व्हील-चेयर के बाद तो अतुल निराश हो चले थे। दीपा अतुल के साथ सामान्य रहने का अभिनय करती और अतुल भी वैसा ही व्यवहार करते। अचानक सांस लेने में तकलीफ़ होने की वजह से अतुल को हॉस्पिटेलाइज़ करना पड़ा था। ऑक्सीजन के बिना सांस ले पाना कठिन था। उस दिन के बाद अतुल की हालत दिन-बदिन बिगड़ती गई। छह त्रासदीपूर्ण महीनों की याद करने से भी दीपा का सर्वांग कांप उठता था। जिस दिन गले में छेद करके ट्यूब डाला गया दीपा दूसरे कमरे में जाकर रो पड़ी। बोलने में कष्ट, सांस लेना दूभर, ट्यूब नली से खाना देते देखना दीपा को सहन नहीं हो पाता था। पिता की गंभीर स्थिति की सूचना पाकर सुधीर भी आ पहुंचा था। बोल पाने में असमर्थ अतुल के चेहरे पर सुधीर को देख कर खुशी आ गई। सुधीर उनके साथ साए की तरह लगा रहा। ऑफ़िस वाले दिन-रात अतुल के लिए प्रार्थना कर रहे थे। रिश्तेदारों के नाम पर एक विधवा चाची ही थीं। उनका भी रो-रो कर बुरा हाल था।

“इस घर पर ना जाने किसका श्राप लगा है, कोई आदमी लंबी उम्र नहीं जी पाता।“

“ऐसा ना कहें चाची जी, अतुल ठीक हो जाएं, यही आशीर्वाद दीजिए।“ सच्चाई जानते हुए भी दीपा अतुल की मृत्यु की बात स्वीकार नहीं कर पा रही थी।

जैसा कि संभावित था एक सुबह सुशान्त का फ़ोन आया  था। अतुल संसार से विदा ले गए थे। अतुल के साथ दीपा हर रात हॉस्पिटल में रहती थी, उस दिन सुशान्त ने सुधीर के साथ उसे जबरन घर भेज दिया था।

“तुम बहुत थक गई हो, दीपा। आज रात मैं अतुल के साथ रहूंगा। चिंता मत करना।“

दीपा अपने को कर्स कर रही थी क्यों वह सुशान्त की बात मान गई। अंतिम सांस लेते अतुल उसे ना देख कितने व्याकुल हुए होंगे। जीवन भर साथ देने का वादा करके अतुल को अंतिम समय अकेला छोड़ देना उसका  क्षम्य अपराध बन गया। क्या अतुल उसे कषमा कर सकेंगे?

आज सुशान्त ने उसे अतुल का अंतिम पत्र दिया । पत्र देते सुशान्त ने कहा था-

“यह पत्र अतुल की अमानत की तरह पिछले एक वर्ष से मेरे पास था। उसने वादा ले लिया था उसकी मृत्यु के बाद ही तुम्हें दूं।“

कांपते हाथों से दीपा ने पत्र खोला था। टेढे-मेढे शब्द देख कर स्पष्ट था अतुल ने वो खत बहुत मुश्किल से लिखा था। अतुल की सुंदर लिखाई की दीपा हमेशा से प्रशंसक रही थी। अशक्त हो चुके हाथों से लिखे पत्र को दीपा ने पढना शुरू किया था- -

मेरी दीपा, 

यह पत्र जब तुम तक पहुंचेगा, मैं तुमसे बहुत दूर जा चुका होऊंगा। तुम्हारे साहस और आत्मविश्वास से अच्छी तरह से परिचित हूं, फिर भी मैंने जो फ़ैसला लिया है, उसे तुमसे छिपाया है। जीवन मे कभी तुमसे कोई बात नही छिपाई, पर इस जाती बेला में तुमसे अपना फ़ैसला बताने का साहस नहीं कर पा रहा हूं। जिस दिन एक्सपर्ट ने कहा अगले सात-आठ महीनों में शायद मेरा ब्रेन भी निष्क्रिय हो सकता है, बस उसी दिन अपनी लिविंग- विल साइन करके सुशान्त को दे दी। सुशान्त व्यावहारिक डॉक्टर है, उससे वादा ले लिया अपनी इच्छा- मृत्यु के फ़ैसले को तुम्हें ना बताए। उससे कह दिया जिस दिन मेरा जीवन व्यर्थ हो जाए, मस्तिष्क काम न कर सके, उस दिन मुझे मृत्यु देते बिल्कुल मत हिचकना। मेरी मृत्यु में ही मेरा जीवन होगा।

मैं जानता हूं तुम मेरी निष्क्रियता भी झेल लेतीं, पर दीपा मेरे लिए वो स्थिति मौत से भी बद्तर होगी। तुम मेरी पत्नी ही नहीं अभिन्न मित्र भी रही हो, आज अपना इतना बड़ा फ़ैसला तुम्हें बिना बताए ले रहा हूं, इस दृष्टि से तुम्हारा अपराधी हूं। अपने इस अपराध के लिए क्षमा चाहूंगा। इस मृत्यु पथ के राही को माफ़ करोगी न, दीपा। सच तो यह है, एक वेजीटेबल के रूप में पड़ा रहने की जगह, मृत्यु ही मेरे लिए वरदान होगी।

तुमसे दूर जाने की बात भी नहीं सोच पाता था और आज स्वेच्छा से अपनी मृत्यु के दस्तावेज़ पर साइन किया है। नहीं दीपा, मैं निष्क्रिय वेजीटेबल बन कर अपने को पलंग पर पड़ा देखने की कल्पना भी नहीं कर सकता। यह सिर्फ़ मेरी ही नहीं, तुम्हारी भी सज़ा होगी, दीपा।

तुम्हारे साथ जीवन बिताने का वादा किया था और बीच में ही छोड़ कर जा रहा हूं, इस अपराध के लिए माफ़ करोगी न, दीपा। तुम्हारे साथ बिताया एक-एक पल मैंने पूरी तरह से जिया है। तुम्हें अपने से भी ज़्यादा प्यार किया है। तुमने हर कदम मेरा साथ दिया, पर अब साथ देने वाले मेरे कदम बेजान हैं। तुम मेरी शक्ति और प्रेरणा रही हो। मेरी  मृत्यु के दिन अगर तुम मेरे सामने रहीं तो शायद मेरा फ़ैसला् कमज़ोर पड़ जाए, इसीलिए सुशान्त से कहा है, उस दिन तुम मेरे सामने ना रहो।

अब और नहीं लिखा जाता, अनजाने मे अगर कभी तुम्हारा दिल दुखाया हो तो मफ़ कर देना।

बहुत- बहुत प्यार

बस तुम्हारा

अतुल

अतुल के अंतिम पत्र को सीने से लगा दीपा बिलख उठी—

‘नहीं अतुल तुमने यह सत्य मुझसे क्यों छिपाया। तुम अपनी दीपा को नहीं पहचान पाए। तुम्हारी हर बात स्वीकार की थी, अगर तुम कहते तो दिल पर पत्थर रख कर भी मैं तुम्हारे फ़ैसले को मान देती। कम से कम तुम्हारा सिर अपनी गोद में रख कर तो तुम्हें विदा देती। तुमने जीवन की हर खुशी दी, पर मुझसे दूर जाने का फ़ैसला अकेले ले लिया। बस मेरी शक्ति और हिम्मत पर तुम्हे इतना ही विश्वास था, अतुल?”

रोती हुई माँ को अपने से चिपटा, सुधीर की आँखों से भी आँसू बह निकले।