12/16/09

तुम्हारे लिए तनु सरकार

इतने दिनों बाद एम0ए0 फाइनल की कक्षा में प्रवेश करते ही तनु को लगा मानो सारी दृष्टियाँ उस पर गड़ गई है। क्या सब उसकी पराई आँखों की ओर नहीं देख रहे थे? अनजानी लज्जा से तनु मानो अपने में सिमट-सी गई। तनु की अभिन्न सखी श्वेता ने तनु का हाथ थाम उसकी आँखों में आँखें डाल परिहास किया था-
”ऐ तनु, इन आँखों से हम पहले जैसे दिखते हैं या कोई फ़र्क लगता है?“


”और क्या........अंकिक ग्रेजी तो पहले ही बढ़िया बोलती थी, अब तो अंग्रेजी आँखों से देखेगी भी.....।“ आनंदिता ने सहास्य कहा था।

”सच कह तनु, क्या सपने में भी वह अपनी आँखें माँगने नहीं आई?“ चंचला शर्मा ने गम्भीर बन पूछा।

प्रोफेसर नाथ के आते ही सब शान्त हो गए थे। तनु ने आश्वस्ति की साँस ली। घर-बाहर सब वही क्यों जानना-सुनना चाहते हैं, जिसे वह हमेशा के लिए भुला देना चाहती थी। अटेंडेंस लेने प्रोफेसर नाथ ने जब उसके नाम पर ‘यस सर’ सुना तो दृष्टि उठा तनु से पूछा-

”आर यू परफ़ेक्टली ओ के मिस सरकार? कोई तकलीफ़ तो नहीं है न?“

”जी..........!“ क्या करे तनु सरकार? कब मिलेगी उन प्रश्नों से मुक्ति? तनु का मन कसैला हो उठा।

क्लासेज खत्म होते ही श्वेता तनु को सबसे अलग खींच एकान्त में ले गई थी। तनु के हाथ स्नेह से पकड़ श्वेता ने बहुत दुलार से पूछा था- ”
कैसे इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई तनु..... कुछ याद है तुझे? एक शब्द भी नहीं निकला था तेरे मुंह से।“

”उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की याद मत दिला श्वेता......उसे दुहरा पाना एक यातनापूर्ण यात्रा-सा है।“

”जब तक उसे दोहराएगी नहीं, अंधेरे- गर्त में डूबती रहेगी तनु! मौसी कह रही थीं, तू एकदम अन्तर्मुखी हो गई है, रातों में चीख उठती है। सामान्य होने के लिए तुझे उस घटना को भुलाना होगा
”उस घटना को भूल पाना क्या आसान है श्वेता?“

”कार में तू उनके साथ शायद ताज जा रही थी न?“

”हाँ ............याद है प्रोफेसर प्रसाद ने एक दिन क्लास के बाद मुझे बुलाया था....तू हॅंसी उड़ा रही थी........।“

”हम सब यही कह रहे थे तू प्रोफेसर प्रसाद  की फ़ेवरिट छात्रा है, शायद अपना कोई पेपर तुझसे उन्हें लिखवाना हो...............।“

”लंदन से भारत के दर्शनीय ऐतिहासिक स्थलों को देखने लिजा ओर एलिस आई थीं...!“

”उनसे मिलाने बुलाया था तुझे?“

”आगरा के सभी दर्शनीय स्थान दिखाने का दायित्व मुझे सौंपा था प्रोफेसर प्रसाद ने।“

”यूँ कह गाइड बन साथ जा रही थी हमारी तनु।“ श्वेता ने तनु की गम्भीरता अपने परिहास से तोड़नी चाही थी।

”सच, उन आनंदी युवतियों का गाइड बनना किसी का भी सौभाग्य होता श्वेता। हॅंसती-खिलखिलाती, जीवन से भरपूर, दोनों ने क्या स्वप्न में भी सोचा होगा, कुछ ही पलों बाद प्रलय आने वाली थी......! हमारी कार जैसे ही वायीं ओर मुड़ी, सामने से आता भीमकाय ट्रक बस दिखा-भर था...... उसके बाद तो सब कुछ शून्य-अंधेरा भर था......।“ तनु का शरीर सिहर उठा था।

”क्या हुआ तनु........ शायद वे युवतियाँ बच नहीं सकी थीं न?“ श्वेता का मुख भी पीला पड़ गया था।

”होश आने पर भी तो कुछ देख नहीं सकी थी श्वेता ! आँखों पर पट्टी जो बॅंधी थी...उसी पीड़ा में माँ को पुकारा था।“

”भगवान का लाख-लाख धन्यवाद, तू बच गई तनु बेटी।“ माँ का स्नेहिल स्वर कान में पड़ते ही तनु मानो जी गई थी।

”उनका क्या हुआ माँ....... दोनों ठीक तो हैं न?“ तनु का स्वर व्यग्र था।

”बेटी, भगवान की इच्छा के आगे किसका वश चला है! विधाता ने लिजा की मृत्यु उसी तरह लिखी थी। भारत-दर्शन को आते समय क्या उसने सोचा था, यहाँ से वापिस ही न जा सकेगी?“ माँ ने निःश्वास छोड़ी थी।

”...............और एलिस........वह कहाँ है माँ? मेरी आँखों पर ये पट्टी क्यों बॅंधी है?“ तनु का स्वर व्याकुल हो उठा था।

”एलिस के दोनों पाँवों में कॉम्प्लेक्स फ्रैक्चर भर हुए हैं तनु, दो-तीन माह में एकदम ठीक हो जाएगी। ये ले डाक्टर साहिब तुझे देखने आ रहे है।“ माँ चुप हो गई थी।

”ये क्या मिसेज सरकार, लगता है बिटिया को आराम नहीं करने दिया। अगर आप अपने पर नियंत्रण न रख सकीं तो मुझे देखने आ रहे हैं।“ डाक्टर का स्वर गम्भीर था।

”नहीं........डाक्टर, मैं बिल्कुल बात नही करूँगी, पर माँ को यहाँ रहने दीजिए, प्लीज डाक्टर!“ तनु ने अनुनय की थी।

”ठीक है, तुम्हारी बात तो माननी ही पड़ेगी तनु। भगवान ने भी तुम पर खास कृपा की है, वर्ना उस एक्सीडेंट से बच पाना चमत्कार ही तो था।“ डाक्टर के स्वर में परिहास झलक आया था।

”सच कहिए डाक्टर अंकल, क्या मैं अन्धी हो गई हूँ?“ उत्तर के लिए तनु का रोम-रोम नयन बन गया था।

”तुम्हारी आँखों का आपरेशन हो चुका है, जाते-जाते तुम्हारी मित्र तुम्हारे नयनों के लिए अपनी ज्योति दे गई है।“ डाक्टर गम्भीर थे।

”ओह नो........क्या यह भी पॉसिबिल है डाक्टर-मेरा आपरेशन सक्सेसफुल न हो......क्या करूँगी मैं? अंधी जिन्दगी की अपेक्षा मुझे मृत्यु स्वीकार है डाक्टर!“ तनु फूट पड़ी थी।

”रिलैक्स मिस सरकार। लिजा की दुर्घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई थी। जीवित बची उसकी बहिन एलिस ने बहुत उदारतापूर्वक तुम्हें लिजा की आँखें देने की अनुमति दी थी। काँच के नुकीले टुकड़ों ने बेरहमी से तुम्हारी आँखों की ज्योति हमेशा के लिए खत्म कर देनी चाही थी तनु! एलिस के प्रति अपना आभार व्यक्त करने जरूर जाना तनु!“ डाक्टर ने अपना स्नेहपूर्ण हाथ तनु के माथे पर धर विश्वास दिलाया था।

”जरूर जाOऊंगी डाक्टर अंकल, कोशिश करूँगी एलिस के लिए मैं लिजा बन सकूँ।“ तनु का कंठ भर आया था।

आँखों की पट्टी खुलवाती तनु का हृदय आशंका से धड़क रहा था। अगर आपरेशन असफल रहा तो किस तरह काटेगी अंधेरी जिंदगी? परीक्षा-परिणाम के लिए तनु कभी व्यग्र नहीं हुई, पर उस पल के परिणाम के लिए तनु अधीर थी। पट्टी खोलने संबंधी आवश्यक निर्देश देने के बाद डाक्टर ने सहास्य तनु से पूछा था- ”आँख से पट्टी हटते सबसे पहले किसे देखना चाहोगी तनु? कोई विशेष मित्र हो तो उसे बुलवा दिया जाए?“

”सबसे पहले तो आपको देखना चाहूँगी डाक्टर, ये दृष्टि तो आपकी दी होगी न?“ तनु के शुभ्र मुख पर हल्का-सा गुलाल छिटक आया था।

”अरे मुझे देख बहुत निराश होगी, एकदम भूत दिखता हूँ।“ डाक्टर जोर से हॅंस दिए थे। कुशल हाथों ने तनु की आँखों से पट्टी उतार दी थी। अपनी हथेली से तनु की आँखें कुछ पलों को बंद कर डाक्टर ने धीमे-धीमे हथेली हटा ली थी। उजाले की किरण देखते ही उल्लसित तनु शायद चीख पड़ी थी- ”मेरी आँखें ठीक हैं माँ, मैं सब देख पा रही हूँ।“ तनु का उल्लास सबके चेहरों पर प्रतिबिम्बित था। डाक्टर के सफलता से दमकते मुख पर दृष्टि डाल तनु ने श्रद्धापूर्वक उनके पाँव छू लिए थे। स्नेह से आशीष दे डाक्टर ने पिता से कहा था-
”भगवान ने बिटिया की सुन्दर आँखों की रक्षा की है मिस्टर सरकार! एक दिन लिजा के नाम से गरीबों को दान करवा दीजिएगा। न जाने कितने अतृप्त सपनों के साथ विदा ली बेचारी ने! मुझे खुशी है तनु उसकी आँखों से देख सकेगी।“ तनु की पीठ थपथपा डाक्टर चले गए थे।

”सच तनु, अगर तुझे लिजा की आँखें नहीं मिलतीं तो इस संसार के रंग तू नहीं देख पाती।“ पिता का कृतज्ञ स्वर उस अपरिचित लिजा के प्रति स्नेह-विगलित था।

अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में भर्ती एलिस को देखने तनु फूलों के साथ गई थी। द्वार खोलती तनु को देख एलिस के अधरों पर हल्की-सी मुस्कान तिर आई थी। फूल थामती एलिस की दृष्टि से टकरा गई थी। अपराधी भाव से तनु संकुचित हो उठी।

”मुझे बहुत खुशी है मेरी बहिन के नयन तुम्हारे साथ जीवित रहेंगे। वापिस जाकर मम्मी को बता सकूँगी तुम्हारे पास किसी रूप में लिजा जीवित है। तुम्हारी आँखों से वह भारत देख सकेगी।“ सच्चे हृदय से तनु को बधाई देती एलिस का गला भर आया था।

”क्या मैं तुम्हारी लिजा नहीं बन सकती एलिस?“ तनु ने बहुत प्यार से एलिस का हाथ अपने हाथों में थाम लिया था।

प्रत्युत्तर में एलिस ने तनु के हाथ पर अपना स्नेह-चुम्बन अंकित कर स्वीकृति जता दी।

उस दुर्घटना ने तनु को अन्तर्मुखी बना दिया था। उसके मौन से माता-पिता चिन्तित हो उठते थे। कभी-कभी माँ से तनु बचकाने प्रश्न पूछ बैठती थी- ”सच कहना माँ, मेरे पास अपनी आँखें देख लिजा को दुःख होता होगा न?“

”छिः पगली, जो इस संसार से जाता है, वह अपना माया-मोह त्याग कर जाता है। जा कुछ दिन अपनी बुआ के पास रह आ, तेरा सारा वहम, भ्रम दूर हो जाएगा।“

तनु की डॉक्टर बुआ उसे अपने पास छुट्टियाँ बिताने को कब से बुला रही थीं। अस्पताल में एलिस के पास बैठी तनु न जाने अपने को क्यों बहुत सुरक्षित पाती थी। एलिस की स्नेहपूर्ण बातों में समय मानो पंख लगा उड़ जाया करता था। एलिस के पास प्रति संध्या जाना तनु का अनिवार्य काम था। बुआ के पास जाने का मोह भी उसे आकृष्ट नहीं कर सका था।

एक संध्या सफेद रजनीगंधा के फूलों के साथ तनु जब हॉस्पिटल पहुंची, एलिस के पलंग के पास बैठे आकर्षक विदेशी युवक को देख वह ठिठक गई थी। बहुत दुलार-भले स्वर में तनु को पुकार एलिस ने उस युवक से उसका परिचय कराया था-

”हेनरी, तुम्हारी लिजा को मैं सुरक्षित न रख सकी, पर तनु में उसकी जीवन्त आँखें मैंने सुरक्षित रख ली हैं। पहिचानते हो न?“

तनु की आँखों पर अपनी गहरी दृष्टि निबद्ध कर हेनरी मानो दृष्टि उठाना ही भूल गया था। तनु के आरक्त मुख को एलिस ने उबार लिया था-
”तनु, हेनरी और लिजा शीघ्र ही परिणय-सूत्र में बॅंधने वाले थे। लिजा के हृदय में भारत के प्रति आकर्षण हेनरी ने ही जगाया था। हेनरी के पितामह कई वर्ष भारत रहे थे।“

”हेनरी, ये तनुश्री सरकार एम0ए0 इतिहास की मेधावी छात्रा है..........उस दिन हम सब साथ ही थे...........।“

जैसे सपने से जाग हेनरी ने तनु से हाथ मिलाने को अभ्यासवश हाथ बढ़ाया था- ”आपसे मिलकर खुशी हुई, पर दुःख है........“ तनु के अभिवादन में जुड़े हाथों को एलिस ने स्नेहपूर्वक अपने हाथों में ले लिया था।

”सिली गर्ल......जानते हो हेनरी, लिखा के प्रति ये लड़की अपने को न जाने क्यों अपराधी मानती है। शायद यहाँ के लोग ज्यादा भावुक होते हैं। हम हर घटना को व्यावहारिक रूप में लेते हैं न?“

”सच तो यह है मिस सरकार, हम आपके प्रति कृतज्ञ हैं। लिजा कहीं किसी रूप में है, ये बात हमें शांति देती है। आप व्यर्थ का अपराध-बोध न रखें।“ शांत-सहज स्वर में हेनरी ने मानो दिलासा देना चाहा।

पूरे समय तनु को लगता रहा उस युवक की आँखें उसके मुख पर गड़ी रही थीं। घर वापिस आने की आज्ञा माँगते ही तनु के साथ हेनरी भी उठ खड़ा हुआ था- ”चलिए, आपको नीचे तक छोड़ आऊं।“

”नहीं-नहीं............ मैं रोज आती हूँ, चली जा।ऊंगी। आप एलिस के साथ रहें।“

प्रत्युत्तर में मुस्कान के साथ हेनरी तनु के साथ चल दिया था। नीचे पहुंच तनु से हेनरी ने अचानक पूछा था-

”कल मेरे साथ ताज चल सकेंगी मिस सरकार? हम दोनों साथ ही ताज देखना चाहते थे, पर लिजा के साथ आ नहीं सका था...............।“

तनु चैंक उठी थी.......... हेनरी के शब्दों में प्रार्थना थी या अधिकार, समझ पाना कठिन था। ताज के प्रति हेनरी का आकर्षण एक इंजीनियर का उस भव्य स्मारक के प्रति था या लिजा के प्रेमी रूप में, वह लिजा की आँखों के साथ उसे देखना चाहता था? तनु का हृदय तेजी से धड़क उठा था।

”मैं कल सुबह पहुंच जाऊंगा, तैयार रहिएगा।“ हेनरी के इस कथन में निश्चय ही अधिकार-भाव प्रबल था।

अगले दिन टैक्सी पर हेनरी स्वयं तनु के घर आ गया था। उसके सुन्दर व्यक्तित्व, शिष्ट व्यवहार से सब प्रभावित हुए थे। माँ का मन उदास हो आया था-
”लोग कहते हैं पश्चिम में आत्मिक प्यार नहीं तलाक प्रचलित है, पर देखो न बेचारा हजारों मील दूर से अपनी प्रेयसी की बहिन को देखने आया है।“

ताज के रास्ते में टैक्सी जब दुर्घटना के मोड़ पर पहुंची तो तनु सिहर उठी थी। अस्फुट शब्दों में जब उसने हेनरी को उस विषय में बताना चाहा तो एक क्षण बाहर देख तनु के काँपते हाथों पर अपना सबल हाथ धर सांत्वना देनी चाही थी। हेनरी का गम्भीर मौन तनु को व्याकुल कर गया, निश्चय ही उस दुर्घटना के लिए हेनरी उससे रूष्ट था। आकुल कंठ से तनु पूछ बैठी थी-
 ”बहुत नाराज़ हैं न आप मुझसे?“

विस्मयान्वित हेनरी तनु को निहारता रह गया था-
”आपसे नाराज अकारण ही क्यों होऊंगा? क्या जानकर कोई अपनी आँखें खो सकता है? अपने मन में ऐसे व्यर्थ के काम्प्लेक्सेज़ डेवलप कर क्या आप नॉर्मल रह सकेंगी, मिस सरकार?“

”लेकिन लिजा की वस्तु पर अधिकार करना क्या मेरी अनधिकार चेष्टा नहीं है?“

”व्यर्थ ही दिल पर बोझ डाल रही हैं आप, लिजा का मैं प्रिय था क्या आपसे मित्रता की आशा नहीं रख सकता, तनु?“

हेनरी के शब्दों में न जाने क्या था कि तनु संयम तोड़ रो पड़ी थी। इतने दिनों का संचित गाम्भीर्य आँसुओं में बह निकला था। तनु की हथेलियाँ अपने हाथों में ले हेनरी शांत बैठा रह गया।

ताजमहल के सामने बिछी हरी घास पर बैठी तनु उस अपरिचित विदेशी युवक को आद्योपान्त दुर्घटना की कहानी सुना चुकने के बाद मानो हल्की हो उठी। तनु का हाथ पकड़ हेनरी ताज की ओर चल दिया था। शाहजहाँ-मुमताज की प्रणय-गाथा सुनाती तनु तनिक संकुचित हो उठी थी। शाहजहाँ की व्यथा से हेनरी की व्यथा का कहीं तो साम्य था। चलते समय ताज का एक बड़ा-सा मॉडेल हेनरी ने पैक करा लिया था।

तनु के ड्राइंग रूम में उसकी बनाई पेंटिग्स देख हेनरी मुग्ध हो उठा था। संध्या कब रात में उतर आई घर के किसी भी प्राणी का ध्यान नहीं गया। अपने खुले स्वभाव के कारण कुछ ही देर में हेनरी सबका प्रिय पात्र बन चुका था। सबके साथ डिनर लेता हेनरी भारतीय भोजन की जी खोल प्रशंसा कर रहा था-

”अब मेरी समझ में आ गया ग्रैंड पा इंडिया छोड़कर क्यों नहीं जाना चाहते थे........ भला ऐसा मजेदार खाना उन्हें इंग्लैंड में मिल पाता?“

”कितने वर्ष रहे थे तुम्हारे ग्रैंड पा यहाँ?“ पापा की उत्सुकता स्वाभाविक ही थी।

”पूरे पच्चीस वर्ष ग्रैंड पा ने यहाँ सर्विस की थी, और जाते समय यहाँ के मसाले साथ बाँध ले गए थे। बचपन में वह हमें यहाँ की बहुत इंटरेसटिंग स्टोरीज सुनाते थे। लिजा और एलिस को भारत के प्रति आकर्षण इन्हीं कहानियों से शुरू हुआ था।“ अचानक हेनरी चुप हो गया था।

मम्मी ने ही बात सम्हाली थी- ”जब यहाँ आए हो तो फ़तेहपुर सीकरी जरूर देख लो, हेनरी। एक दिन की राजधानी के उजड़े वैभव में भी अपना ही आकर्षण है।“

”तो चलिए कल चलते हैं और हाँ हमारे साथ फ्री गाइड तो है ही-मिस तनु सरकार मध्ययुगीन इतिहास-विशेषज्ञा.........“

हेनरी की नाटकीय मुद्रा पर परिवार के सदस्य जोर से हॅंस पड़े थे। तनु की सर्दी की छुट्टियाँ चल रही थीं, अतः उस निमंत्रण को टाल पाना सहज नहीं था। मम्मी-पापा ने व्यस्तता जता आसानी से पूरा दायित्व तनु पर छोड़ दिया था।

प्रातः ठीक साढे़ सात बजे टैक्सी के साथ हेनरी द्वार पर खड़ा था। लंच पैकेट्स टोकरी में डाल तनु भी बाहर आ गई थी।

”वाह, क्या-क्या ले आई हैं इस पिटारी में?“

”मम्मी ने मटर की कचैड़ियाँ आई मीन समर्थिंग लाइक फ्राइड हैम्बर्गर बनाया है।“

”योर मम्मी इज़ ग्रेट-मुझे आपसे जलन होती है।“

”किसी की कुकिंग की इतनी तारीफ की जाए तो कम-से-कम इतना तो करना ही होता है न?“ तनु हॅंस पड़ी थी।

”तारीफ़ से और क्या पाया जा सकता है मिस सरकार?“

हेनरी के नयनों में न जाने क्या था कि तनु जल्दी में आ गई थी- ”अब अगर यहाँ बातें करते रहे तो शाम को सीकरी पहुंचेंगे श्रीमान हेनरी.............“

मुस्कराते हेनरी ने कार का दरवाजा खोल तनु को आमंत्रित किया था।

फ़तेहपुर सीकरी का रास्ता तनु को हमेशा आवश्यकता से अधिक लम्बा लगता था, पर उस दिन वही रास्ता कितना छोटा हो गया था! गम्भीर हेनरी कभी बच्चों-सी हरकतें कर बैठता था। हरे चनों को कैसे छीलकर खाया जाता है बताती तनु उसके अनाड़ीपन पर हॅंस पड़ी थी। कभी उस पल हेनरी उसमें अपनी लिजा नहीं देख रहा था?

इतिहास की मेधावी छात्रा तनु सरकार ने भोलेपन से बताया था-

”यहाँ इसी जगह नूरजहाँ ने कबूतर उड़ा कर शहजादे से कहा था...........“

अचानक हेनरी अप्रत्याशित कर बैठा था, तनु को एकदम अपने पास खींच उसके मुख पर अपना स्नेह-चुम्बन अंकित करना ही चाहा था कि झटके से अलग होती तनु लगभग चीख उठी थी-
”छिः, यह क्या?“

विस्मित हेनरी अपना अपराध कहाँ समझ पाया था-
”क्या हुआ तनु? मैंने कहाँ गलती की.............?“

”भारतीय समाज में चुम्बन केवल बच्चों का लिया जाता है या...........।“ आगे कह पाना तनु को सम्भव नहीं था।

”आई एम सॉरी ............. एक्स्ट्रीमली सॉरी..........पर उस पल आप मुझे एकदम नन्हीं-सी बालिका ही लगी थीं। क्षमा कर सकेंगी? आपके आचार-विचार जानने में तो समय लगेगा ही।“ हेनरी सचमुच परेशान था।

”ठीक है, आइए वहाँ उस बारादरी के पास चलें। अब तो आपको भूख लग आई होगी?“

बारादरी में बैठ तनु ने बताया था- ”यहाँ बैठ बादशाह संगीतकारों के संगीत का आनंद लिया करते थे............. आप गाते हैं?“

”सिर्फ सुनने का शौक है, अगर अब तक आपने मुझे माफ़ कर दिया हो तो एक गीत सुनाएँगी?“

”मैं गा सकती हूँ, यह आपने कैसे जाना?“

”बहुत-सी बातें बिना कहे-सुने भी जानी जा सकती हैं, अब मैं आपसे सचमुच गीत की रिक्वेस्ट कर रहा हूँ, मिस सरकार प्लीज!“

तनु का मीठा स्वर बारादरी के सामने फैली जलराशि को मानो आंदोलित कर गया था। विस्मय-विमुग्ध हेनरी तनु को निहारता रह गया था। प्रशंसा का एक भी औपचारिक शब्द मुंह से नहीं निकला।

एक संध्या एलिस तनु से पूछ बैठी थी-
”हेनरी कैसा लगा, तनु? अब तक तो तुम उसे काफ़ी जान चुकी होगी?“

”............. लिजा भाग्यशाली थी एलिस, काश दोनों मिल पाते!“

”हेनरी जिसे भी मिलेगा भाग्यशाली होगा, तनु! “

”हाँ एलिस! हेनरी दूसरों की भावनाओं को सम्मान देते हैं, स्नेह देते हैं, वर्ना.......“

”वर्ना क्या, तनु?“ एलिस तनु की बात समझ न पाई थी।

”वर्ना जिसने उनकी प्रेमिका की सबसे प्रिय ज्योति चुराई हो उससे घृणा न करते ?“

”घृणा........... तुमसे ?“ अजीब मुस्कान आ गई थी एलिस के अधरों पर।

”एलिस, तुम मुझे प्यार करती हो न?“ तनु के स्वर में बच्चों-सी उत्कंठा थी।

”मैं अकेली ही क्यों, तुमसे जो भी मिलेगा प्यार करेगा, ठीक कहा न, हेनरी?“ एलिस की दृष्टि का अनुसरण करती तनु संकुचित हो उठी थी। द्वार से टिककर खड़ा हेनरी मुस्करा रहा था।

”छिपकर अपनी तारीफ सुनना क्या अच्छी बात है?“ तनु नाराज़ थी।

”हम तो खुलकर प्रशंसा करते हैं और खुले-दिल उसका प्रदर्शन करना जानते हैं-इसीलिए कभी अपराधी तक बन जाते हैं, मिस सरकार !“

हेनरी की बात पर मानो फतेहपुर सीकरी का चुम्बन-प्रयास तनु के ओठों पर दहक उठा था। धीमे से हेनरी ने फिर कहा था-
 ”यहाँ कितना लम्बा और औपचारिक नाम लेना पड़ता है आपका मिस सरकार.............!“

”आप मुझे सिर्फ तनु क्यों नहीं कहते, मिस्टर............“

”थैंक्यू, आप भी मुझे सिर्फ हेनरी ही कहेंगी।“

चार दिनों बाद हेनरी के वापिस जाने की बात पर न जाने क्यों तनु का मन उदास हो रहा था। हेनरी जिसे पहले जाना भी नहीं था, उसका जाना उसे इतना बुरा क्यों लग रहा था! कहीं वह हेनरी को लिजा की दृष्टि से ही तो नहीं देखने लगी थी? तनु डर गई थी। अगली संध्या के लिए हेनरी ने तनु को आमंत्रित किया था-”जाने के पहले आपके साथ कुछ समय बिताने की अनुमति चाहता हूँ- कल ‘युवराज’ में हम साथ डिनर लेंगे।“

हेनरी के निमंत्रण की बात पर माँ ने सस्नेह कहा था-”तुमहें भारतीय खाना पसंद है, अपने हाथ का बनाया खाना खिला मुझे सुख मिलेगा हेनरी ! कल रात तुम हमारे साथ ही खाना खाओ।“

”नहीं .............कल तो अपने गुरू के सम्मान में भोज देना चाहूंगा........कल के लिए क्षमा करें।“

”तुम्हारा गुरू कौन है, हेनरी?“ माँ विस्मित थीं।

”वही जिसने भारतीय संस्कृति से परिचय कराया है...............आपकी बेटी तनु।“

”तनु..............तुम्हारी गुरू?“ माँ खिलखिला कर हॅंस पड़ी थीं, पर हेनरी ने अपना निमंत्रण जब फिर दोहराया तो माँ को आज्ञा देनी ही पड़ी थी।

होटल के एकान्त केबिन में कोल्ड-ड्रिंक लेते हेनरी ने कहा था-

”लिजा की आँखों को बहुत प्यार करता था तनु, आज उन्हें जी भर देखने का भी अधिकार नहीं रह गया है।“

तनु जैसे जम गई थी, धीमे से कहा था-”लिजा की आँखों पर अधिकार तुम्हारा ही होना चाहिए हेनरी! तुम कहो तो मैं ये तुम्हें वापिस कर सकती हूँ, यह मेरा वचन है।“

”वचन तो दे रही हो, पर क्या सचमुच अधिकार दे सकोगी तनु? मुझे लिजा की वही जीवन्त आँखें चाहिए, जिनसे उसने मुझे बहुत चाहा था..........दे सकोगी तनु सरकार?“

”क्यों नहीं, मैं इनके प्रति तुम्हारा आकर्षण समझती हूँ हेनरी ! इन पर मेरा कोई अधिकार नहीं, कल ही डाक्टर से कह तुम्हें वापिस कर दूंगी...........।“ तनु कुछ भावुक और कुछ उत्तेजित हो उठी थी।

”पर मुझे तो जीवन्त आँखें चाहिए तनु...........!“

”तुम्हारी लिजा का कोई अंश मुझमें जीवित है, इसे तुम सह नहीं पा रहे हो न, हेनरी? क्या करूँ मैं?“ तनु परेशान हो उठी थी।

”तुम सदैव के लिए मेरे पास आ जाओ, तनु !“ दो उत्सुक नयन तनु के निष्प्रभ मुख पर गड़ गए थे।

”इसीलिए न कि तुम हमेशा मुझमें लिजा खोजते रहो। इस मृगतृष्णा से तुम्हें हमेशा निराशा मिलेगी, हेनरी। मैं कभी लिजा नहीं बन सकती।“

”मैंने कब चाहा तुम्हें लिजा रूप में स्वीकार करूँ?

”पर हमारे बीच हमेशा लिजा जीवित रहेगी। मुझे तो ये भी नहीं पता लिजा क्या थी, जबकि तुम्हे मुझसे उसी की अपेक्षा रहेगी। सच कहो, क्या लिजा को भुला सकोगे, हेनरी.........क्या इतना क्षणिक था तुम्हारा उसके प्रति प्यार?“ तनु आवेश में आ गई थी।

”अगर कहूँ मैं सिर्फ तुम्हें पाना चाहता हूँ?“

”तो लिजा के साथ अन्याय करोगे, हेनरी!“

”देखो तनु, मैं एक व्यावहारिक वैज्ञानिक हूँ। लिजा की क्षति से मैं बहुत आहत हुआ, पर तुम्हें देख लगा अभी भी बहुत शेष है। तुम्हें पा मैं पूर्ण हो सकता हूँ। क्या हम एक नया जीवन शुरू नहीं कर सकते, तनु?“

”नहीं........नहीं.............मुझे क्षमा करो, हेनरी ! अगर तुम कभी एक पल को भी उदास हुए तो मुझे लगेगा मैंने तुम्हें निराश किया है। मुझे कठिन से कठिन सज़ा दो हेनरी, मैं स्वीकार करूँगी, बस यही मत माँगो।“ तनु का कंठ भर आया था।

”मेरी दी सजा स्वीकार करने को प्रस्तुत हो, तनु?“ हेनरी ने अपने दोनों हाथों में तनु के काँपते हाथ ले पूछा था।

प्रत्युत्तर में तनु की भीगी पलकें जैसे ही ऊपर उठीं, हेनरी ने दृढ़ शब्दों में कहा था- ”मुझे जीवन-भर के लिए स्वीकार करना होगा तनुश्री ! क्या इससे बड़ी सजा कोई और हो सकती है, तनु?“

”तुम मेरे अपराध का बदला ले रहे हो, हेनरी?“

”यहाँ आने के पहले शायद कहीं कोई आक्रोश रहा हो कि दुर्घटना में लिजा क्यों......... तुम क्यों नहीं, या उसकी मृत्यु से कोई अन्य लाभान्वित हुआ है, पर यहाँ आकर जब तुमसे मिला तो आक्रोश न जाने कहाँ बह गया। तुम्हारा अपने प्रति अपराध-भाव, सहमी-भोली-निष्पाप छवि ने पहले मेरी सहानुभूति जीती और फिर मेरा प्यार। तुम्हारे गुणों ने, निश्छलता ने मुझे इस सीमा तक आकृष्ट किया कि मैंने स्वयं अपने को हज़ार-हज़ार बार कर्स किया है......तुम लिजा नहीं हो, यह सत्य शीशे-सा स्पष्ट है, फिर तुम बार-बार वही बात क्यों दोहराती हो, तनु?“

”किसी को इतनी जल्दी भुला देना क्या न्यायोचित है, हेनरी?“ तनु के स्वर में शायद कहीं कोई निराशा थी।

”एक अच्छे मित्र की तरह लिजा सदैव मेरी स्मृति में रहेगी तनु, पर उसके कारण तुम कभी उपेक्षित या अपमानित हो, यह असम्भव है। अब कहो मेरा दिया दंड स्वीकार है या वचन हार रही हो, तनु?“

विस्मयान्वित तनुश्री सरकार, एम0ए0 की छात्रा हतबुद्धि हेनरी का मुख ताकती रह गई थी.......... ”पर ............पर माँ-पिताजी?“

”उनकी स्वीकृति पहले ही पा चुका हूँ, तनु ! हाँ उन्हें यह नहीं बताया था कि तुम मुझे अपराध-दंड रूप में स्वीकार करोगी। विवाह के बाद काश्मीर चलेंगे-ठीक है न? एक बात और, तुम्हारे दंड की अवधि आजीवन मेरा साथ होगी-बोलो है मंजूर?“ शरारती मुस्कान से हेनरी ने पूछा।

”सजा पाने की स्वयं स्वीकृति दी थी हेनरी, अब आजीवन तुम्हारी बंदिनी हूँ।“ लज्जा से आरक्त मुख तनु ने झुका लिया था।

”बंदिनी नहीं मेरी प्रेरणा, मेरी मीत, मेरी सब कुछ तुम हो, तनु!“ तनु के झुके मुख को बहुत प्यार से ऊपर उठा हेनरी ने अपना स्नेह-चिन्ह अंकित कर दिया।

शेफाली नहीं गीता हो तुम

जौनपुर से तीव्र गति से कार चलाने के बाद भी डॉ प्रशान्त यज्ञ की पूर्णाहुति के समय ही इलाहाबाद पहुंच सके थे। चलते समय कार के ब्रेक चेक कराने में समय ज्यादा लग गया था। कल संध्या प्रोफेसर आनंद नारायण का संक्षिप्त नोट मिल था-


”गृहस्थाश्रम का मोह त्याग गुरू-शरण में रहकर भगवान-भजन की कामना है। हरिद्वार जाने के पहले सबसे मिल लेने का मोह नहीं छोड़ पाया, इसीलिए सोमवार की प्रातः एक यज्ञ का आयोजन कर रहा हूँ। गीता भी साथ जा रही है। तुम्हारे आने से प्रसन्नता होगी-आ सकोगे प्रशान्त?
शुभेच्छु-
आनंद नारायण।“

बंगले के बीच वाले हॉल में यज्ञ चल रहा था। श्वेत परिधान में प्रोफेसर नारायण अग्निकुंड में घृताहुति दे रहे थे। पास के दूसरे आसन पर ध्यानस्थ तपस्विनी-सी गीता अग्नि-शिखाओं को एकटक ताक रही थी- गौर वर्ण अग्नि-ताप से रक्ताभ हो उठा था। प्रशान्त की उपस्थिति ने मानो एक पल को उसकी तपस्या भंग कर दी थी। हठीले नयन प्रशान्त के नयनों से जुड़ने की अक्षम्य धृष्टता कर बैठे। दप से उन नयनों में न जाने क्या जल उठा कि उतनी दूर बैठे प्रशान्त उस आँच को सह न सके थे। एक पल को मंत्रविद्ध जुड़े नयन स्वतः नत हो गए थे।

प्रोफेसर नारायण के गुरू स्वामी शारदानंद ने शांति-पाठ के बाद बंधु-बांधवों से प्रोफेसर नारायण और गीता को पुष्प-अक्षत के साथ मंगल कामनाएँ देने का संकेत किया था। चारों ओर से प्रोफेसर और गीता के झुके मस्तक पर पुष्पों की वर्षा होने लगी थी। गीता के मुख की अपूर्व शांति में भी डॉ प्रशान्त उद्विग्नता और कष्ट की लकीरें स्पष्ट पढ़ पा रहे थे। चाह कर भी आशीष रूप में वह हाथ ऊपर नहीं उठा सके थे- हृदय का हाहाकार उद्विग्न कर रहा था। मंगल-कामना-सूचक पुष्प मुट्ठी मे दबाए व हॉल के बाहर आ गए।

अतिथियों की अभ्यर्थना के लिए प्रोफेसर गीता को साथ ले बाहर लगे शामियाने की ओर आ रहे थे। अतिथियों के लंच की इसी शामियाने में व्यवस्था की गई थी। प्रशान्त पर दृष्टि पड़ते ही, गीता को एक महिला से बातें करते छोड़ प्रोफेसर आगे बढ़ आए थे।

”तुम्हारे आने की बहुत खुशी है, प्रशान्त। कुछ दिन पहले ही तो स्टेट्स से लौटे हो, सोच रहा था आ न पाओगे।“

”आपका आदेश हो और मैं न पहुंचूं, सर? गीता को तो लेक्चररशिप मिल गई है, क्या जॉब छोड़कर आपके साथ जा रही है?“

”उसकी जिद तो तुम जानते ही हो, प्रशान्त। बहुत समझाया यहीं रहे, पर कहती है मैं अपनी देख-रेख ठीक से नहीं कर सकूँगा।“ स्नेह-विगलित स्वर के साथ उनका मुख चमक उठा था। प्रशान्त की पीठ थपथपा प्रोफेसर अन्य अतिथियों की ओर बढ़ गए थे।

सामने से आती गीता को रोक प्रशान्त ने पूछा था- ”अच्छी-भली नौकरी छोड़कर हरिद्वार जाने का निर्णय ले डालना क्या उचित है, गीता?“

एक पल को दृष्टि उठा शांत-सधे स्वर में गीता ने उत्तर दिया था- ”मेरी यही नियति थी, डॉ प्रशान्त ................“

प्रशान्त की प्रतिक्रिया की अपेक्षा किए बिना गीता आगे बढ़ गई थी-स्तब्ध प्रशान्त खड़े रह गए थे। मन में आँधी-सी उठ रही थी- ‘गीता का ये निर्णय तेरी ही कायरता का परिणाम है, प्रशान्त। सत्य स्वीकार कर पाने का क्या आज भी साहस है तुझमें? उस हादसे के बाद स्वयं तू इस शहर से ही नहीं देश से भी भाग गया था-कब तक इस झूठे कवच को पहिने अपने को झुठलाएगा, प्रशान्त ? आज गीता के इस निर्णय पर ये व्याकुलता, हाहाकार क्यों? गीता कभी तेरी पूजा थी, आज सबके सामने बढ़कर उसे स्वीकार कर सकोगे, प्रशान्त ?’ गत चार वर्षों का जीवन पुनः जी उठा था..................

भौतिक विज्ञान में विशेष योग्यता के साथ एम0एस-सी0 की परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रशान्त ने प्रोफेसर आनंद नारायण की गाइडेंस में शोध-कार्य प्रारम्भ किया था। भौतिकशास्त्री के रूप में प्रोफेसर आनंद नारायण अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान थे। विधुर प्रोफेसर का पुत्र अमेरिका में ही रच-बस गया था, पर तीन-चार महीनों में पिता को पत्र डालने में सुधीर गफ़लत नहीं करता था। घर में प्रोफेसर नारायण की पोषिता पुत्री गीता की ही चलती थी। रिश्ते की विधवा बहिन की मृत्यु के बाद गीता का लालन-पोषण प्रोफेसर नारायण के घर पर ही हुआ था। पिछले कुछ वर्षो में वही नन्हीं गीता अब प्रोफेसर की पक्की अभिभाविका बन गई थी। इस वर्ष गीता हिन्दी साहित्य में एम0ए0 कर रही थी। अपनी मेधावी पोषिता पुत्री पर प्रोफेसर का अगाध स्नेह था।

प्रशान्त के शोध-कार्य पर विचार-विमर्श के लिए प्रोफेसर नारायण उसे शाम को घर ही बुला लिया करते थे। कुछ ही दिनों में वह प्रशान्त को पुत्रवत् स्नेह देने लगे थे। संध्या चाय के समय अतिथियों के जलपान की व्यवस्था गीता ही करती थी। गीता के निर्देशानुसार उन्हें फल या नमकीन बिस्किट ही प्राप्य थे। कभी लाडली बिटिया की दृष्टि बचा अगर उन्होंने प्रशान्त की प्लेट से छोटी-सी बर्फी उठा ली तो गीता की फटकार सुननी पड़ती थी ........
. ये क्या पापा, आप बर्फी खा रहे हैं। पता है डॉ0कयार्ड क्टर ने आपको शुगर की सख्त मनाही की है। ऐसा ही करना है तो मुझे होस्टेल भेज दीजिए फिर जो मन में आए करते रहिएगा।

गीता की धमकी का तुरन्त असर होता था। बर्फी का टुकड़ा प्लेट में वापिस रखते प्रोफेसर क्षमा माँग बैठते थे.........
”ये लो बिटिया कान पकड़े अब कभी ऐसी गलती नहीं होगी। अब तो हॉस्टल नही जाएगी न।“ प्रोफेसर नारायण के प्रति अगाध श्रद्धावश यदि कभी प्रशान्त ने उनके सामने भूल से भी मिठाई की प्लेट बढ़ा दी तो उसे गीता का कोप-भाजन बनना पड़ता था-
 ”आप पापा को उल्टा-सीधा खाने को दे देते हैं, तबियत खराब होने पर पापा की तमारदारी आपको ही करनी होगी।“

मौन स्मिति के साथ प्रशान्त तो गीता का अभियोग स्वीकार कर लेता, पर प्रोफेसर ठठा कर हॅंस पड़ते थे.........

”अच्छा तो प्रशान्त को उल्टा-सीधा खाने की अनुमति है- भई ये न्याय हमारी समझ से बाहर है..........“

”अगर वो भी उल्टा-सीधा खाएँगे ओर बीमार पड़ेंगे तो आप देखिएगा पापा, मैं जल्दी अपराध क्षमा करने वालों में से नहीं हूँ।“

”तब तो तुझे पुलिस अफ़सर बनना चाहिए बिटिया, एक भी अपराधी नजर से नहीं छूटेगा।“

”सच पापा, आपको तो पुलिस की हिरासत में ही रखती।“

”वो तो माना, पर बिटिया जब तुझे कोई अपनी हिरासत में रखेगा तब क्या करेगी?“ अपने परिहास पर प्रोफेसर मुक्त कंठ से हॅंस पड़ते थे।

”गीता को बंधन में रखने वाला अभी जन्मा ही नहीं है, पापा.............“ गीता के चुनौती देते नयन प्रशान्त के नयनों से अनायास ही टकरा गए थे। प्रशान्त के नयनों में परिहास की कौंध या उसके भ्रम से गीता तिलमिला उठी थी।

प्रशान्त हॉस्टल के स्थान पर कहीं अलग कमरा ले शोध-कार्य करना चाहता था। इधर कुछ दिनों से प्रशान्त के साथ शोध के पेपर्स डिस्कस करते काफी रात हो जाती थी। रात्रि-भोजन तो प्रशान्त प्रोफेसर के आग्रह पर उनके साथ ही कर लेता था, पर उतनी रात में उसे साइकिल से जाते देख प्रोफेसर नारायण को बहुत कष्ट होता था। एक दिन गीता से मनुहार-सी करते उन्होंने प्रस्ताव रखा था...............

”हमारा इतना बड़ा घर है बेटी, हम बाप-बेटी का काम तो चार कमरों में मजे से चल जाएगा!“

”तो.............?“

”मैं सोचता हूँ एक कमरा उस बेचारे लड़के को दे दें............देखो न कितनी देर में घर जाता है। अच्छा-भला लड़का है!“

”पापा, आपको व्यर्थ के झमेले पालने का बहुत शौक है, क्यों व्यर्थ ही उन्हें यहाँ रख बंधनों में जकड़ना चाहते हैं?“

”अरे बंधन कैसा? बाहर वाला कमरा उसे दे देंगे। कभी वक्त जरूरत पर काम ही आएगा। सुधीर का कमरा भी तो खाली पड़ा है, न हो उसे वही कमरा दे देंगे।“

”न पापा, सुधीर भइया के कमरे में कोई और नहीं रहेगा। अगर आपको अपने शिष्य के प्रति इतना ही मोह-भाव है तो बाहर वाला कमरा उन्हें दे दो, पर उनके नखरे मैं नहीं सहूँगी, ये पहले ही बताए दे रही हूँ।“

फिर स्वयं नौकर की सहायता से गीता ने प्रशान्त का कमरा सजाया था। प्रशान्त की हर आवश्यकता की मानो गीता को पूर्व जानकारी थी। कमरे की सज्जा देख मुग्ध प्रशान्त ने धन्यवाद देना चाहा था..............

”इतने सुन्दर कमरे में पहले रहने का अभ्यास नहीं है। इस सज्जा के लिए हार्दिक धन्यवाद देना चाहूँगा........“

”ये तो मेरा कर्तव्य था, इस घर की केयर-टेकर हूँ न, सो सबकी सुविधा-असुविधा का ध्यान मुझे ही तो रखना पड़ता है। हाँ, यहाँ के नियम-पालन में आप अटपटा तो अनुभव नहीं करेंगे?“

”शायद इतनी सुविधाएँ परेशान करें-आदत जो नहीं है..........।“

प्रशान्त के घर में आ जाने से प्रोफेसर नारायण के हृदय का खाली कक्ष मानो लबालब भर गया था। पुत्र के विदेश बस जाने से खाली हुआ घर फिर मानो पूर्ण हो उठा था। घंटो लम्बी दोनों की बातचीत पर गीता खीज उठती थी-
”इन्ही बातों से बोर करने के लिए पापा आपको लाए है!“

”वर्षो से तुलसी का चरणामृत पान करते-करते क्या कुछ और पाने की इच्छा नहीं होती, गीता? कभी विज्ञान की समस्याओं में डूबो, तुलसी और सूर को भूल जाएगी मेरी बिटिया!“

”छोड़िये पापा, बंदर क्या जाने अदरख का स्वाद! अरे आपने हिन्दी साहित्य का गहन अध्ययन किया होता तो जान पाते।“

”क्यों नहीं- कुछ उल्टा-सीधा लिख दो एक नया वाद बन जाएगा- ठीक कहा न, प्रशान्त?“ प्रोफेसर गीता को चिढ़ाते जाते।

”जी सर, विज्ञान तथ्य देखता है, अन्य विषयों की तरह मनगढ़न्त कहानियों पर विश्वास थोड़ी करता है।“ निश्चय ही प्रशान्त की टिप्पणी सीधी गीता के हिन्दी-साहित्य पर प्रहार करती।

”तभी तो वैज्ञानिक रिने नीरस, रूखे और उदासीन होते हैं। अगर दिल न हो तो अकेला दिमाग क्या करेगा जनाब? दिल के बिना मनुष्य रोबोट बनकर रहेगा-अच्छा हो अपना साहित्यिक ज्ञान बढ़ाएँ आप।“
प्रशान्त की शरारती मुस्कान गीता को और अधिक खिजा जाती थी। घर के छोटे-मोटे दायित्वों के साथ गीता को भी प्रशान्त पर छोड़ प्रोफेसर निश्चिन्त हो गए थे। अब गीता की फर्माइशें पूरी करने न उन्हें बाजार भागना पड़ता था, न तीन घंटे गीता की जिद पर पिक्चर हॉल में सोकर बिताने होते थे। शुरू में गीता उन्हें साथ ले जाने की जिद करती थी, धीरे-धीरे प्रशान्त उन कार्यो के लिए स्वीकृत होता गया था।

हिन्दी विभाग के वार्षिकोत्सव में मीरा के जीवन पर एक नृत्य-नाटिका के मंचन का निर्णय लिया गया था। मीरा की भूमिका के लिए गीता को चुना गया था। रिहर्सल के लिए कालिन्दी जी का घर नियत हुआ था। रिहर्सल के लिए कालिन्दी जी के घर पहुँचाने और वापिस लाने का दायित्व भी प्रशान्त पर आ गया था।

”प्रशान्त, हमारी बिटिया रानी अब पिक्चर का शौक छोड़ मीरा के भजन गाएगी। शाम को इसे कालिन्दी गुप्ता के घर छोड़ थोड़ी देर लाइब्रेरी में समय बिता साथ ही वापिस ले आया करना।“

”मैं कोई छोटी बच्ची हूँ क्या पापा, जो ये पहुंचाने और वापिस लाने जाएँगे!“ गीता ने प्रतिवाद किया था।

”मेरे लिए तो तू तब तक छोटी बच्ची ही रहेगी गीता, जब तक तू अपने दो-चार बच्चों की माँ नहीं बन जाती।“ गीता का मुख लज्जा से आरक्त हो उठा था।

रिहर्सल के लिए साथ चलती गीता को प्रशान्त छेड़ रहा था- ”जरा जल्दी कदम बढ़ाइए देवी जी, कालिन्दी जी अपनी मीरा की प्रतीक्षा में व्यग्र होंगी।“

”अभी तो बस पाँच बजे हैं, रिहर्सल तो साढे़ पाँच से शुरू होगा। आपको मुझसे पीछा छुड़ाने की इतनी जल्दी क्यों है जनाब?“ स्वर में तनिक-सी शोखी छलक आई थी।

”डरता हूँ कहीं ज्यादा देर साथ चला तो ऐसा न हो जाए कि साथ छोड़ने को जी ही न चाहे।“ प्रशान्त नहले पे दहला था।

कालिन्दी गुप्ता के द्वार पर ठिठक प्रशान्त ने पूछा था- ”सेवक को फिर कब हाजिर होने की आज्ञा है?“

सहास्य गीता ने कहा था- ”वापिस जाने की क्या जरूरत है! सेवक को स्वामिनी की छाया बन उपस्थित रहने का आदेश दिया जाता है।“

”बहुत पछताओगी गीता। ये लो यहीं बरामदे में धूनी जमाए आपकी प्रतीक्षा करूँगा।“ प्रशान्त बरामदे में बैठने ही लगा था।

”छिः, ये भी कोई मजाक है, उठिये यहाँ से............. “ गीता के स्वर में हल्की-सी झिड़की थी।

”सेवक तो स्वामिनी की आज्ञा का पालन करेगा..............“

”छोड़ो प्रशान्त, हमें ऐसी बातें पसंद नहीं-क्या हमने कभी किसी पर अपना रौब जमाया है.........?“ कुछ रूआँसी-सी गीता की बात पर प्रशान्त हॅंस पड़ा था- ”अच्छा भई, अब नहीं करेंगे कभी ऐसा मजाक जो गीता को रूला जाए।“

घर पहुंचते ही गीता पापा से कह रही थी- ”पापा, रोज मुझे पहुंचाने-लाने में इनका कितना समय वेस्ट होगा, सोचा है आपने ? कल से हम अकेले जाएँगे-अब हम बड़े हो गए हैं पापा!“

”हाँ, वो तो हम देख रहे हैं बिटिया। ऐसा करो, प्रशान्त को भी नाटक में कोई छोटा-मोटा रोल दे दो-समय का सदुपयोग हो जाएगा।“ उनके साथ ही प्रशान्त भी जोर से हॅंस पड़ा था।

कालिंदी गुप्ता के घर को जाती पगडंडी के दोनों ओर शेफाली की झाड़ियाँ थीं। शेफाली की मादक सुगन्ध गीता को बहुत भाती थी। अंजुरि में झोंके उनकी सुगन्ध पूरे वातावरण में घोल देते। पगडंडी पर चलते हुए हवा से झरी शेफाली पर प्रशान्त पाँव रखने ही वाला था कि गीता जैसे चीख उठी थी- ”ठहरो प्रशान्त, शेफाली को मत रौंदना "
 धरती पर बिछी शेफ़ाली को देख प्रशांत हंस पड़ा- जानती हो गीत ,शेफ़ाली  का जीवन? रात-भर जीवन के उल्लास से महकती-गर्वित शेफाली, प्रातः पाँव तले रौंदे जाने के लिए स्वयं सेज बिछा देती है।“

”नहीं प्रशान्त, पाँव तले रौंदे जाने की नियति नहीं है शेफाली की..........सच, कितना अन्याय है! रात-भर जिसका रूप-यौवन मुग्धकारी है, प्रातः तक वह झर जाता है! बस एक रात की जीवन जीती है।“ दो-चार फूल तोड़ उन्हें सहलाती गीता गम्भीर हो उठी थी।

”साहित्य का यही दोष है, वास्तविकता से मुंह मोड़ व्यक्ति कल्पना के संसार में जीने लगता है। भला जिन फूलों को जन्मदाता वृक्ष स्वयं एक दिन साथ नहीं रख पाता, प्रातः होते ही उसे अस्वीकार कर दे, उसकी क्या नियति होगी, गीता? डार से झरे पुष्पों को तो देवता भी स्वीकार नहीं करेंगे-यही सच है गीत- इस सच को स्वीकार करना ही होगा। कोरी भावुकता से काम नहीं चलता जीवन में।“ प्रशान्त के स्वर में दृढ़ निश्चय का भाव था।

”हाँ प्रशान्त, एक वैज्ञानिक के सोचने का यही तरीका है। कितनी आसानी से हर बात का पोस्टमार्टम कर सकते हो! मैं तो आज भी रात के आकाश में बिखरे तारों में माँ, बाबूजी को खोजती रहती हूँ।“ गीता का स्वर भीग उठा था।

”आई डू नॉट मीन दैट -सच तुम्हारी यही भावुकता कभी बहुत अच्छी लगती है, गीत! तुम हमेशा ऐसी ही पंख समेटे चिड़िया-सी रहना गीता.........आई मीन दैट-बिलीव मी........“ अब प्रशान्त भावुक हो उठा था।

हौले से सिर उठा जगमगाती आँखों से प्रशान्त को निहारती गीता हॅंस दी तो मानो कुहासा छॅंट गया।

मीरा के रूप में गीता के हृदयस्पर्शी अभिनय की बहुत प्रशंसा की गई थी। प्रोफेसर नारायण ने कई बार रूमाल से अश्रु पोंछे थे। करतल-ध्वनि से गीता का देर तक अभिनंदन किया गया था। घर पहुंचते ही मुग्ध स्वर में प्रशान्त ने सराहना की थी-
”मैं तो एक पल को भूल ही गया था वो मेरी ही गीता है- मीरा नहीं।“

प्रशान्त अनजाने ही उसे ‘मेरी गीता’ कह गया था-अपनी गलती का उसे तनिक-सा आभास भी नहीं हुआ था। बड़े-बड़े विस्मित नयन उठा एक बार प्रशान्त का मुख ताक गीता ने चेहरा नीचे झुका लिया था, कहीं उसका रक्ताभ मुख प्रशान्त की पकड़ में न आ जाए। सप्रयास गीता ने कहना चाहा था-
”इस सफलता के लिए मेरा पुरस्कार?“

”ठीक है, कल हमारी ओर से क्वालिटी की आइसक्रीम तय रही-आखिर तुम्हारी सफलता का दंड तो भरना ही पडे़गा।“

”सिर्फ आइसक्रीम ? न बाबा, इतनी कंजूसी भली नहीं; मैं तो बाबा की चाट भी खाऊंगी।“ गीता हॅंस रही थी।

”ठीक है प्रशान्त, इसे इतनी आइसक्रीम और चाट खिला देना कि आगे से कभी तुम्हें कंजूस न कह सके।“ हॅंसते हुए प्रोफेसर नारायण ने एक सौ का नोट प्रशान्त की ओर बढ़ाया था।

”नहीं सर, ये पार्टी तो मेरी ओर से रहेगी-आपकी ओर से फिर कभी चलेंगे।“ प्रशान्त ने रूपए स्वीकार नहीं किये थे।

दूसरे दिन संध्या गुलाबी शिफान की साड़ी में गीता जाने को तैयार थी। प्रशान्त की मुग्ध दृष्टि से बचती पापा के पास जा पहुंची थी-
”आप भी चलिए न पापा, कभी हमारे साथ नहीं चलते। आज तो चलना ही होगा।“ बड़े लाड़ से गीता ने जिद की थी।

”नहीं बिटिया, कल कान्फ्रेंस के लिए ये लेख पूरा करना है। तुम दोनों जाओ, संडे को हम अपनी बेटी को कहीं बाहर डिनर के लिए ले जाएँगे-ओ के?“ प्रोफेसर पक्के सौदेबाज थे।

सिविल लाइन्स में ठेले के पास खड़ी गीता ने जी भर चाट खाने की तैयारी कर रखी थी। खूब मिर्चे डलवा सी-सी करती, आँसू बहाती गीता को देख प्रशान्त हॅंस पड़ा था-

”इतनी मिर्चे डलवाने की क्या जरूरत थी कि यूँ आँसू बहाए जाएँ ?“

”जरा खाकर देखो न प्रशान्त, मजा आ जाएगा।“ गीता ने दोना बढ़ाया था।
”न भई, ये चाट तुम लड़कियों को मुबारक। अगर हमने खानी शुरू कर दी तो बहुत घाटे में रहोगी।“

जी भर चाट खा लेने के बाद रूमाल ले हाथ पोंछती गीता क्वालिटी में जा आइसक्रीम खाने को उतनी उत्सुक नहीं थी।

”प्रशान्त, क्वालिटी के अंधेरे में आइसक्रीम का क्या मजा, वहाँ संडे को पापा के साथ डिनर को आएँगे।“

”यानी मुझ बेचारे पर तरस आ गया देवी जी को ? तो चलें घर ?“ प्रशान्त प्रसन्न दिख रहा था।

”जी नहीं, आपका वादा अभी पूरा कहाँ हुआ है ? क्वालिटी आइसक्रीम फिर कभी खाएँगे, आज तो सॉफ्टी कार्नर से सॉफ्टी लेंगे। खुली हवा में खाते चलेंगे, मजा आएगा न ?“

”लेकिन बाद में ये तो नहीं कहोगी कि मैंने कंजूसी की ?“ प्रशान्त आश्वस्त हो लेना चाहता था।

”नहीं कहूँगी- नहीं कहूँगी। चलो अब तो चलें सॉफ्टी कार्नर ?“

हाथ में सॉफ्टी ले, पैदल बतियाते चलना गीता को विशेष प्रिय था। प्रोफेसर ने प्रशान्त से कार ले जाने को कहा था तो गीता ने ही आपत्ति की थी- ”
दस मिनट की तो दूरी है पापा, हम पैदल ही जाएँगे। प्रशान्त के पैसों से खाई चाट हज़म करना आसान तो नहीं है न पापा !“ गीता की शैतानी पर सब हॅंस पड़े। सिविल लाइन्स से पैदल घर पहुंचने में सचमुच अधिक समय नहीं लगता था। उस दिन भी गीता ने प्रशान्त से यही कहा था-”देखना ये सॉफ्टी खत्म होने के पहले ही हम घर पहुंच जाएँगे।“

”जी नहीं, इस स्पीड से चलने पर आपको पहुंचने तक कम-से-कम पाँच सॉफ्टी लेनी होंगी।“ प्रशान्त ने व्यंग्य किया था।

”तुम हमेशा इतनी जल्दी में क्यों रहते हो प्रशान्त ? मैं तो इस गुलमोहरी सड़क पर पूरी रात बिता सकती हूँ। कभी गुलमोहर और अमलताश के इन फूलों के सौंदर्य पर तुमने दृष्टि भी डाली है प्रशान्त ?“

प्रशान्त दृष्टि उठाते ही मुग्ध रह गया था। सड़क के दोनों किनारों पर लगे गुलमोहर और अमलताश के गुच्छे हल्की हवा के झूले पर झूल रहे थे। गर्मियों में इन फूलों का वैभव ही निराला होता है। प्रोफेसर नारायण के घर के आस-पास प्रायः सन्नाटा ही रहता था। जन-कोलाहल से दूर उन्होंने अपना बॅंगला बनवाया था। प्रायः इस जनशून्य सड़क के बल्ब भी शैतान बच्चों के निशाना बन अपने दुर्भाग्य पर रोते थे।

घर के मोड़ पर उस रात्रि भी घना अंधकार था। मोड़ पर पहुंचते ही पीछे से आती एक कार ने दोनों का मार्ग अवरूद्ध कर दिया था। कुछ समझ पाने की स्थिति के पूर्व ही दो सबल हाथों ने गीता को कार के अन्दर खींच लिया था। प्रशान्त ने आगे बढ़ गीता को पकड़ना चाहा था, पर आगे की सीट से उतरे एक बलिष्ट व्यक्ति ने प्रशान्त को ज़ोर से धक्का दे गिरा दिया था। गीता को जबरन कार में ढकेल, कार का दरवाजा बन्द कर, कार तेजी से आगे चली गई थी। ”प्रशान्त.......प्र...........शा..........“ सम्भवतः गीता का मुख बन्द कर दिया गया था।

पलक झपकते वो हादसा हो गया था। प्रशान्त जब तक उठा, कार तीव्र गति से मोड़ के आगे जा चुकी थी। अंधेरे में कार की बैक लाइट भी ऑफ़ थी-नम्बर देख पाना असम्भव था। बदहवास प्रशान्त भाग कर जब घर पहुंचा, प्रोफेसर खाने की मेज़ पर बैठे ही थे। पुलिस थाने का नबर मिला प्रशान्त ने घटना की जानकारी दी थी। शहर का पुलिस अधीक्षक कुमार प्रोफ़ेसर का छात्र रह चुका था, खबर पाते ही जीप में उनके पास आ पहुंचा  पूरी बात सुन शान्ति से उसने प्रोफेसर को सलाह दी थी-

”सर, अच्छा हो इस विषय में किसी बाहर वाले को खबर न हो। मैं विश्वास दिलाता हूँ, सुबह के पहले गीता को खोज लूंगा। तब तक व्यर्थ बदनामी न होने देने के लिए हिम्मत तो रखनी ही होगी, सर !“

पितृतुल्य प्रोफेसर को बच्चों-सा दिलासा दे कुमार गीता की खोज में चला गया। सचमुच रात के तीन बजे तक गीता का अर्द्धचैतन्य शरीर कुमार ने खोज निकाला था। हॉस्पिटल में गीता को एडमिट करा कुमार ने प्रोफेसर को फोन किया था। सूचना पाते ही प्रशान्त के साथ प्रोफेसर हाँस्पिटल पहुंच गए थे।

सफेद चादर में गीता का मुख छिप-सा गया था। डॉक्टर ने सोने का इंजेक्शन दे रखा था। गीता के निष्प्रभ सफेद मुख को देख प्रोफेसर संयम खो रो पड़े थे और अपनी विवशता और आक्रोश पर प्रशान्त तिलमिला उठा था-जी चाहता था, अपना सिर कहीं फोड़ डाले। डॉक्टर ने प्रोफेसर के कंधे पर अपना सहानुभूतिपूर्ण हाथ रख कर कहा था-
”हैव करेज प्रोफेसर ! बच्ची बहुत बड़े हादसे से गुजरी है, आपको ही सम्हालना होगा।“

पुलिस अधीक्षक कुमार ने दृढ़ स्वर में प्रतिज्ञा करते हुए कहा था- ”उन दरिन्दों को सज़ा दिलाए बिना नहीं छोडूँगा, मेरा विश्वास कीजिए, सर, जब तक उन्हें पकड़ नहीं लूंगा, चैन से नहीं बैठूंगा।“ प्रोफेसर शून्य में हाथ उठा न जाने क्या बुदबुदाए थे।

पूरे बारह घंटे निस्पन्द पड़ी गीता का शरीर हल्की कराह के साथ हिल उठता था। गीता की वो कराह प्रोफेसर और प्रशान्त का हृदय चीर जाती थी। बारह घंटों बाद जब गीता ने आँखें खोलीं तो बड़े दुलार से उसके सिर पर हाथ फेर प्रोफेसर ने कहा था- ”अच्छी तो है मेरी बिटिया रानी?“

उत्तर में सिर तक चादर खींच गीता हिचकियाँ ले रो पड़ी थी। कितनी हृदयद्रावक था वो रूदन-मानो तीरविद्ध शावक अपने पंख कट जाने की दारूण वेदना से कराह रहा हो। प्रोफेसर के नयन अश्रुपूर्ण थे, प्रशान्त ने चेहरा दीवार की ओर फेर लिया।

”मैं मर जाऊंगी पापा, मैं जिंदा नहीं रह सकती। मुझे ज़हर दे दो पापा...........“ स्वर सिसकियों में डूब गए थे।

”ना बेटी, यूँ हिम्मत नहीं हारते। तू तो अपने पापा की बहादुर बिटिया है न ? तेरे बिना तेरे पापा को कौन सम्हालेगा बेटी? देख कल से ये प्रशान्त भी भूखा-प्यासा खड़ा है, आओ प्रशान्त।“

तनिक आगे बढ़ प्रशान्त ने जैसे ही पुकारा था ”गीत“............उसने अपना सिर तकिए में गड़ा अपने को पूर्णतः समेटना चाहा था। अस्फुट कन्दन के मध्य ”नहीं.......नहीं....“ ही प्रशान्त सुन सका था। अपराधी-सा प्रशान्त गीता के तकिए में गड़े सिर को निहारता रह गया था।

एक सप्ताह बाद गीता घर आ गई थी, पर मानो ये कोई और ही गीता थी। पहले वाली शोख-चंचल गीता न जाने कहाँ खो गई थी। कुमार के निर्देशानुसार इस दुर्घटना को गुप्त ही रखा गया था। बाहर वाले परिचित यही जान सके-अचानक गीता की तबियत खराब हो गई थी और डाक्टरों ने उसे कुछ दिन आराम की सलाह दी थी। अगर किसी के मन में कोई शंका उठी भी होगी तो वो घर के प्राणियों तक नहीं पहुंच सकी थी।

अपने कमरे में कैद गीता शायद छत की कड़ियाँ गिनते ही दिन काट देती थी। अपने पापा और प्रशान्त की बार-बार मनुहार पर भी गीता संध्या-चाय के लिए लॉन में नहीं जाती थी। साहस करके एक दिन प्रशान्त ने गीता को समझाना चाहा था-
”यूँ, सबसे कट कर अपने को दंडित कर रही हो गीत? तुम्हारा अपराधी मैं हूँ, मुझे दंडित करो। अक्षम्य अपराधी हूँ मैं-तुम्हारा............ अपनी गीता की रक्षा तक न कर सका!“ प्रशान्त का स्वर रूँध गया था।

”नहीं प्रशान्त, तुम अपने को व्यर्थ अपराधी ठहरा रहे हो......कार से सिविल लाइंस  न जाने की ज़िद तो मैंने की थी न? शायद मेरा दुर्भाग्य था...........“

”गीत, क्या वो दुर्घटना तुम भुला नहीं सकतीं?“ प्रशान्त की स्थिर दृष्टि गीता के मुख पर निबद्ध थी।

”तुम वो सब कुछ भुला सकते हो, प्रशान्त?“ गीता ने सीधे-सपाट स्वर में उल्टा प्रश्न किया था।

”मैं.........मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ, गीत!“

”क्यों -क्या अपनी भूल का प्रायश्चित करना चाहते हो या अपने अपराध के लिए स्वयं दंड निर्धारित किया है, प्रशान्त?“

”छिः, कैसी बातें करती हो गीत! क्या तुम नहीं जानती मैंने हमेशा तुम्हारी कामना की है, आज भी मैं तुम्हें पाना चाहता हूँ। मेरे प्यार पर अविश्वास क्यों, गीत?“

”तुम पर तो अपने से भी ज्यादा विश्वास है प्रशान्त, पर तुम व्यर्थ अपने को अपराधी ठहरा प्रायश्चित्त या दंडस्वरूप मुझे अपनाना चाहो, ये मुझे स्वीकार नहीं है। मैं तुम्हारी अपराधिनी नहीं बनना चाहती प्रशान्त!“ नयनों में उमड़े आ रहे आँसुओं को गीता जबरन रोक रही थी।

”मुझसे विवाह कर तुम अपराधिनी बनोगी, गीत !“ प्रशान्त का विस्मय स्वाभाविक था।

”हाँ प्रशान्त, इस कडुए सत्य को आत्मसात् कर पाना सचमुच कठिन था, पर मैं ज़हर का घूंट पी चुकी हूँ। मेरी अन्तर्वेदना के एकमात्र साक्ष्य तुम हो। जब भी हम एक-दूसरे को देखेंगे वो वेदना, मेरा वो घाव सदैव हरा रहेगा-हम दोनों इस हादसे को कभी नहीं भुला सकेंगे, प्रशान्त ............ कभी नहीं...........“

”समय हर घाव को भर देता है गीत, आज ये घाव हरा है, कल इसका नामो-निशाँ नहीं बचेगा।“

”बशर्ते इसे जीवित रखने को हम साथ न रहें!“

”क्या कहना चाहती हो गीता ?“ प्रशान्त फिर विस्मित था।

”मेरे लिए इस समय कुछ भी करने को तत्पर हो न प्रशान्त ?“ गीता के नयन प्रशान्त के सौम्य चेहरे पर गड़े थे।

”कह के तो देखो गीत ! सिर्फ इसी समय क्यों - जब भी पुकारोगी प्रशान्त को पाओगी।“ पास के स्टूल पर बैठ गीता के माथे पर झूल आई लट सॅंवारता प्रशान्त आशान्वित हो उठा।

”तुम हमेशा के लिए यहाँ से चले जाओ, प्रशान्त ! मैं जानती हूँ पापा तुम्हारे बिना टूट जाएँगे, पर तुम मेधावी और प्रतिभाशाली हो- अमेरिका छात्रवृत्ति लेकर चले जाओ, प्रशान्त ! पापा भी तो उस दिन यही सजेस्ट कर रहे थे न? मैं भीख माँगती हूँ प्रशान्त, यहाँ से चले जाओ !“ आगे की बात आँसुओं में भीग गई थी।

”मेरे बिना रह सकोगी, गीत? थोड़ा शान्त और सुस्थिर होकर निर्णय लेना-सच पा जाओगी।“ बहुत दुलार से प्रशान्त  ने चुनौती दी थी।

”तुम्हारे बिना ही जी सकूँगी, प्रशान्त! तुम्हारे साथ हर पल ये एहसास जीता है- मैं अपवित्र हूँ, अस्पर्श्य हूँ। शेफाली-सी नियति पाई है मैंने प्रशान्त.......... झरी, रौंदी शेफाली अपने देवता के मस्तक नहीं चढ़ सकती न प्रशान्त? मुझे क्षमा कर दो मेरे देव!“ कंठ से रूलाई छलकी पड़ रही थी। बिना कुछ कहे प्रशान्त बाहर चला गय।

प्रशान्त को अमेरिकी छात्रवृत्ति मिल गई थी। जाने के पूर्व प्रशान्त को आलिंगन में बाँध मौन प्रोफेसर नारायण ने न जाने कितना अनकहा कह डाला था। कभी भावों की अभिव्यक्ति के लिए शब्द आवश्यक नहीं होते। तैयारी के लिए प्रशान्त को पहले अपने घर जौनपुर जाना था। जाने के पहले गीता ने प्रशान्त से आग्रह किया था-
 ”आपके पिताजी अस्वस्थ रहते हैं, कई बार आपके विवाह के लिए पापा को लिखते रहे हैं। आप विवाह करके ही अमेरिका जाएँ तो उन्हें शान्ति मिलेगी।“

”और तुम्हें? बहुत भारी पड़ गया था न गीत तुम पर? जो दंड कहो सह लूंगा......“ प्रशान्त चला गया था।

घर में भर गए सूनेपन को झेलते प्रोफेसर और गीता लॉन में बैठे, निःशब्द हवा का सरसराना भर सुनते रहते थे। प्रशान्त के पिता का कृतज्ञतापूर्ण पत्र और साथ में एक निमंत्रण आया था-
”आपके आदेशानुसार प्रशान्त विवाह के लिए राजी हो गया है। विवाह शहर के उद्योगपति की एकमात्र कन्या से तय हुआ है। प्रशान्त की हार्दिक इच्छा है नवदम्पति को आशीर्वाद देने प्रोफेसर साहिब बेटी गीता के साथ अवश्य आएँ।“ सब कुछ एक सप्ताह में ही किया जाना था ताकि विवाह के बाद प्रशान्त सपत्नी अमेरिका जा सके।

पत्र पढ़ एक लम्बी उसाँस छोड़ प्रोफेसर शून्य में निहारते रह गए थे। उनके मन की बात क्या गीता से छिपी थी ! प्रशान्त को घर में रख, गीता का पूरा दायित्व उसे सौंपने में उनकी इच्छा गीता पर स्पष्ट हो चुकी थी। प्रोफेसर से बिना पूछे गीता उनकी जौनपुर-यात्रा की तैयारी में जुट गई थी। बाजार से साड़ी और सच्चे मोती के टॉप्स खरीदकर भी वह सन्तुष्ट न थी........ ”पापा, प्रशान्त को सोने से अधिक सच्चे मोती पसन्द हैं -इसलिए ये टॉप्स लाई हूँ। दाम कुछ ज्यादा थे, पर ये टॉप्स बहुत सुन्दर है न पापा ?“ प्रोफेसर निरूत्तर गीता को देखते रह गए थे-यूँ अपने घर में स्वयं आग लगा हाथ सेंकना क्या किसी अन्य को सम्भव होगा !

पर जौनपुर जाने के दिन अचानक प्रोफेसर नारायण को जाड़ा देकर तीव्र ज्वर आ गया था। प्रशान्त को विवाह के लिए आशीर्वाद टेलीग्राम द्वारा भेजना पड़ा था। आश्चर्य था कि अमेरिका जाकर प्रशान्त ने धन्यवाद पत्र भी नहीं भेजा था।

प्रथम श्रेणी में एम0ए0 कर गीता ने भी शोध-कार्य प्रारम्भ किया था। जीवन बिना किसी हलचल के शान्त सरोवर-सा चल रहा था। नए सत्र में गीता का अस्थायी प्राध्यापिका रूप में चयन हो जाने से व्यस्तता बढ़ गई थी। प्रोफेसर नारायण कभी अपनी उस तपस्विनी बनी बिटियाँ को देख व्यथित हो उठते थे-
”तू विवाह कर ले बेटी, तो मैं स्वामी जी के पास जा निश्चिन्त हरि-भजन करूँ ,गीता !“

”यहाँ हरि-भजन की सुविधा नहीं है क्या पापा? सच कहना बहुत तंग करती हूँ आपको क्या?“

”वो बात नहीं है बेटी, कन्यादान किए बिना भला हरि-भजन में चित्त एकाग्र कर पाऊंगा?“ प्रोफेसर का स्वर उदास हो उठता था।

”मेरा दान तो आप कर नहीं सकते पापा, मेरी स्वर्ण-प्रतिमा दान कर दें-किसी ब्राह्मण का भला हो जाएगा !“ गीता खिलखिला उठती।

”स्वर्ण-दान भी हो जाएगा बेटी.........पर............“

”चलो पापा आज कहीं घूम आएँ, आप उदास लग रहे हैं।“ गीता जबरन कार में पापा को ले उनके किसी मित्र के घर चली जाती थी।

प्रशान्त की स्वदेश वापिसी और प्रोफेसर नारायण के विभाग में उसकी नियुक्ति की सूचना ने शान्त सरोवर के जल को पूर्णतः उद्वेलित कर दिया था। शान्त-निर्विकार गीता अचानक प्रोफेसर नारायण से बच्चों-सी जिद कर बैठी थी..............

”पापा, हम गुरूजी के पास हरिद्वार चलेंगे। आपने कहा था, स्वामी जी के पास दुखों से मुक्ति मिलती है, मन को शांति मिलती है।
" हां बिटिया,पर तेरे मन को वहां  भी शांति मिल सकेगी, इसमें मुझे सन्देह है।“

”नहीं पापा, यूँ टालने से नहीं चलेगा, हमें हरिद्वार जाना ही है। स्वामी जी के विद्यालय में मैं पढ़ाऊंगी। उन अनाथ बच्चों के बीच ही शान्ति पा सकूँगी। चलो न पापा !“

”पर तेरी लेक्चररशिप का क्या होगा बिटिया? दो महीने बाद परमानेंट पोस्ट मिल जाएगी-इन्टरव्यू देना है न?“

”नहीं-नहीं, वो सब कुछ नहीं चाहिए पापा, बस यहाँ से चलना है।“ गीता का स्वर करूण आर्तनाद-सा कर उठा था।

”ठीक है बेटी यही सही-स्वामी जी झूंसी आए हुए हैं, उन्हें बुलाकर बात कर लेते हैं।“ प्रोफेसर उदास हो उठे थे।

अचानक हरिद्वार जाने का निर्णय लेने मे गीता की उतावली का रहस्य प्रोफेसर नारायण समझ रहे थे, काश जो उन्होंने जो सोचा था वैसा हो पाता, और आज यज्ञ का ये आयोजन सबसे विदा लेने का क्या बहाना भर था? प्रशान्त को देख मन न जाने क्यों उद्वेलित हो गया था। कल प्रातः कार से हरिद्वार जाना निश्चित हो चुका था।

लॉन के कोने में कुर्सी पर बैठे डॉ प्रशान्त सामने लगी शेफाली की नन्हीं सी झाड़ी को निहार रहे थे। कालिन्दी गुप्ता के घर से इसे गीता कितने प्यार से लाई थी। आज वही नन्हा पौधा पुष्पित-पल्लवित हो हवा में अपनी सुगंध फेला रहा था। क्या गीता की शेफाली-सी नियति थी? गीता की इस नियति को उत्तरदायी प्रशान्त स्तब्ध बैठे थे। क्या प्रशान्त गीता को अपने साथ विवाह के लिए राजी नहीं कर सकता था? गीता का यह पलायन प्रशान्त के प्रति अटूट प्यार का ही तो परिणाम है। गीता ने उसे हृदय से चाहा और वो कायर पहला अवसर पाते ही देश छोड़ भाग निकला- ”कायर.......चीट.......“

”क्या बात है प्रशान्त ? यूँ अकेले बैठे हो, तबियत तो ठीक है न?“ प्रोफेसर का स्वर स्नेहपूर्ण था।

”मैं गीता से विवाह करना चाहता हूँ, सर ! आपकी आज्ञा और आशीर्वाद चाहिए..........“

”क्या ..........? पर तुम तो विवाहित हो, प्रशान्त?“

”नहीं सर, शायद वह मेरा सौभाग्य ही था-ठीक विवाह के दो दिन पहले दीपा का लिखा पत्र मिला था मुझे-वह किसी और को चाहती थी। पिता की जिद के कारण मुझसे विवाह को दीपा विवश की गई थी...........“

”फिर.........?“ प्रोफेसर के स्वर में विस्मय था।

”दीपा की मदद के लिए मैंने ही दृढ़ता से कह दिया था मैं किसी और के प्रति वचनबद्ध हूँ, ये विवाह नहीं होगा।“

”तुम्हारे परिवार वाले मान गए, प्रशान्त ?“

”परिवार वाले बहुत क्रोधित हुए-पर उसके अलावा कोई और विकल्प भी तो नहीं था। आज लगता है उस दिन भी मैंने झूठ नहीं कहा था, सर ! अगर विवाह हो जाता तो जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप होता।“

”पर पिछले तीन वर्षों में इस विषय में तुमने मुझे कुछ भी नहीं लिखा, प्रशान्त ?“

”गीता के भ्रम को न तोड़ना ही तब ठीक समझा था। सोचता था शायद गीता कहीं अन्यत्र विवाह कर ले तो मैं बंधन-मुक्त हो जाऊं।“

”बंधन-मुक्त? तुम्हें तो किसी ने बंधन में नहीं बाँधा, प्रशान्त?“ प्रोफेसर नारायण ने प्रशान्त को सीधी दृष्टि से देखा था।

”आज सब स्वीकार करते मुझे लज्जा नहीं है, सर ! गीता को प्यार करने के बावजूद उस हादसे के कारण अपने को तैयार नहीं कर पाता था-बहुत दिन अपने से संघर्ष करता रहा, पर मैं कायर सिद्ध हुआ था-पर आज मैंने अपने मन का सत्य पा लिया.....गीता के बिना मेरा जीवन निरर्थक है। मुझे आज्ञा दीजिए, सर!“ प्रशान्त का कंठ भर आया था।

तभी उनकी ओर आती गीता का मधुर स्वर सुनाई दिया था- ”यहाँ हैं पापा, वहाँ सब आपको खोज रहे हैं। आप..........“ प्रशान्त से मिलते ही गीता रूक गई थी।

”अच्छा बेटी, मैं उधर चलता हूँ......“ व्यग्र भाव से प्रोफेसर आगे गए थे।

चलने को उद्यत गीता का हाथ पकड़  प्रशान्त ने उसे रोक लिया।

”छिः, ये क्या कर रहे हैं.........छोड़िये मेरा हाथ...........“

”अपने इस भटके राही का मार्ग-दर्शन नहीं करोगी, गीत? कब तक तुम्हारी प्रतीक्षा करनी होगी?“

”कैसी बातें कर रहे हैं आप? आपका मार्ग-दर्शन करने को आपकी पत्नी है। मुझे मेरी नियति पर छोड़ दीजिए। ऐसी बातें आपको शोभा नहीं देती डॉ प्रशान्त ! छोड़िए मेरा हाथ...“

”अपनी नियति तुम्हें बदलनी होगी, गीत। तुम शेफाली नहीं गीता हो...... इसीलिए तो पत्नी-रूप में तुमसे मार्ग-दर्शन का अधिकार माँग रहा हूँ गीता। बहुत देर से पहुंचा हूँ तुम्हारे पास, मुझे क्षमा मिलेगी न?“ बहुत मनुहार से प्रशान्त ने अनुनय की थी।

”पर.......ये सब क्या है, प्रशान्त ? स्वामी जी, आप इन्हें समझाइए..... विवाह मेरी नियति में नहीं है। पापा, आप ही इन्हें बताएँ.........“ प्रोफेसर के साथ आए स्वामी जी की मंद स्मिति पर गीता विस्मित थी।

”अगर विवाह गीता की नियति नहीं तो वही नियति मैं अपने लिए भी स्वीकार करता हूँ, गुरूजी! मैं आपके समक्ष सच्चे हृदय से अपनी भूल स्वीकार कर, प्रायश्चित को तत्पर हूँ।“ डॉप्रशान्त स्वामी जी के चरणों में जैसे ही झुके, उन्होंने उसे प्यार से उठा हृदय से लगा लिया।

अवाक् गीता का हाथ प्रशान्त के हाथ में वे स्वामी जी ने आशीर्वाद दिया था- ”पति-पत्नी रूप में इस जीवन-पथ पर सदैव कर्मरत रहो- यही मेरा आशीर्वाद है।“

यादों के नाम

सब औपचारिकताएँ पूर्ण कर कस्टम से बाहर आते लगभग पौन घंटा बीत चुका था। बाहर प्रतीक्षा कर रहे मनीष से मिलने को अमर आतुर था। भारत छोड़ने के पूर्व फोन पर हुई बातचीत में मनीष ने एयरपोर्ट पर रिसीव करने की बात कही थी। न पहुंच सकने की स्थिति में मनीष के घर का पता उसकी डायरी मे नोट था। दूर से ही उसने मनीष को पहचान लिया , ब्लू सूट में वह कुछ अधिक ही खिल रहा था। हाथ हिलाते ही तेजी से आगे बढ़ उसने अमर को गले लगा लिया।


”कहो कैसा रहा अनुभव?  पहली बार इतनी लंबी यात्रा प्लेन से की है न?“

”अरे पता भी नहीं लगा अठारह घंटे कब-कैसे बीत गए। लग रहा है सुबह उड़कर शाम को पहुंच  रहा हूँ।“

”लगता है कोई सुन्दर एयर होस्टेस मिल गई थी, क्यों?“ अपने पुराने अन्दाज में आँखें सिकोड़ मनीष मुस्कराया।

”भाभी कहाँ हैं? मैं तो उन्हें देखने को बेताब हूँ जिन्होंने मेरे भाई को पराया बना डाला है।“

”चलो घर चलते हैं, वहीं बातें करेंगे।“ अचानक मनीष के मुख पर एक छाया-सी तैर गई थी या यह उसका वहम था, अमर समझ नहीं सका।

ग्रे मर्सिडीज में बैठते हुए अमर ने कहा , ”वाह! ठाठ हैं तेरे। कभी सपने में भी सोचा था इस गाड़ी का मालिक बन सकेगा?“

”सपने अगर सच होते तो ज़रूर सोचा होता। वह सामने जो बिल्डिंग्स देख रहा है न, पिछली बार इन्हीं के फोटो भेजे थे। कल उधर चलेंगे।“
सुंदर हरे लॉन, फूलों से लदे पौधों के बीच सेवों से लदा वृक्ष देख अमर मुग्ध रह गया। कार बंद कर चाभी से बंद द्वार खोलते मनीष को देख अमर विस्मित हुआ था।

”क्यों, भाभी क्या घर में नहीं हैं?“

”नहीं, वह वीकेंड पर गई है। पर फिक्र करने की जरूरत नहीं है, तुझे भूखा नहीं रहना पड़ेगा, यार।“ सुंदर सज्जित ड्राइंग रूम में पाँव धरते ही अमर का मन संकुचित हो उठा था। यह कैसा स्वागत? बंद द्वार खोलता मनीष और साथ में वह! क्या उसका यहाँ आना परिवार के अन्य जनों को प्रियकर नहीं था? बच्चे तक घर में नहीं हैं।

”किस सोच में पड़ गया? क्या लेगा ओरेंज जूस के साथ मनीष पास ही सोफ़े पर आकर बैठ गया।"

”कुछ खाएगा या फ्रेश होकर डिनर लेगा?“

”नहीं-नहीं, अभी बिल्कुल भूख नहीं है। पूरे रास्ते खाता ही आया हूँ। यार ये लोग प्लेन में खिलाते जी भर के हैं।“

”इतना पैसा भी तो लेते हैं। हाँ, अब तू सुना कैसी कट रही है, रमा और बच्चे कैसे है? रमा कुछ मोटी हुई या वैसी ही दुबली है?“

”देखोगे तो पहचान नहीं पाओगे, डबल हो गई है। रमा तुम्हें खूब याद करती है। कह रही थी, मैं भी यहाँ नौकरी की जुगाड़ कर लूं। बच्चे भी यू0एस0ए0 के लिए क्रेजी हैं यार। तू सुना, कैसा लगता है यहाँ? अब तो तू यहाँ का स्थायी वाशिंदा बन गया है। शादी के बाद तो घर से नाता ही तोड़ बैठा है। मौसी, भाभी सब कितना याद करते हैं।“

”सच मैं भी घर कितना मिस करता हूँ, तू नहीं समझेगा, अमर।“ शायद एक हल्की-सी आह थी मनीष के स्वर में।

”इस वीकेंड पर तू मेरी वजह से नहीं जा पाया, मनीष। तू चला जाता, मैं एकाध दिन मैनेज कर सकता हूँ भाई।“

”वीकेंड्स  पर रोजी और बच्चे अपने-अपने फ्रेंड्स के साथ जाते हैं।

मैं तो पड़ कर सोता हूँ ; इंडियन ठहरा तो आदत नहीं छूटती।“ स्वर में परिहास था या व्यंग्य, अमर समझ नहीं सका।

”ताज्जुब है, पन्द्रह वर्षो से रोजी भाभी तुझे अमेरिकन नहीं बना सकी, वैसे का वैसा आलसी ही रह गया तू! हम तो सोचते थे तू एकदम वेस्टर्नाइज्ड हो गया होगा और एयरपोर्ट पर.............“

”तेरा, ‘हाय’ कह कर स्वागत करूँगा, क्यों ठीक है न!“

दोनों हॅंस पड़े।

नहाकर जब तक अमर बाहर आया, मनीष मेज पर खाना सजा चुका था। डोंगे के ढक्कन हटाता अमर चमत्कृत था,
”तू तो सचमुच सुधर गया है, मनी। मौसी के चिल्लाने पर भी एक गिलास पानी लेकर नहीं पीता था, भाभी ने इंडियन कुकिंग सीख ली है?“

”जी नहीं, ये सब बंदे ने आपके लिए अपने हाथों से बनाया है। आइए, विराजिए!“ मनीष के नाटकीय अंदाज पर अमर हॅंस पड़ा।

”आज इतने दिनों बाद भारतीय खाना खा रहा हूँ, मजा आ गया वर्ना रोज वही उबला खाना-हेमबर्गर। आइ एम रियेली फ़ेडअप अमर।“

”तो अपने लिए भारतीय भोजन क्यों नहीं बनवा लेते, मनीष?“

”अपनी भारतीयता सिद्ध करने के लिए?“ अजीब स्वर में कहा था मनीष ने, पता नहीं वह प्रश्न था या यूँ ही सरकास्टिक रिमार्क।

खाना खत्म कर प्लेटें उठाते मनीष को देखना एक विचित्र अनुभव था। टेबल साफ कर अमर की ओर देख मनीष मुस्करा दिया।

”मुझे काम करता देख सोच में पड़ गया था न? अरे भाई, यह अमेरिका है, यहाँ मनीष माँ का दुलारा बेटा नहीं, कामकाजी इनसान है। आ तुझे अपना गार्डेन दिखाऊं।“

मनीष के साथ अमर पीछे की ओर किचेन गार्डेन देख चैंक उठा था। उत्साहित मनीष बतला रहा था, ”ये देख भिंडी, तोरई, टमाटर सब फल रहे हैं। हाँ तोरई की शक्ल में फर्क है न?“

”माई गॉड, तूने तो यहाँ भी एक भारत बसा लिया है, उधर सेवों से लदे पेड़, इधर भिंडी और तोरई बहुत अजीब बात है न?“

”हाँ, अमेरिका के बीच एक अकेला भारतीय टापू...........“ वाक्य मनीष ने अधूरा ही छोड़ दिया था।

”यार तू तो खासा भावुक हो रहा है, अरे क्या रखा है हिन्दुस्तान में? मेरा वश चले तो कल यहाँ बोरिया-बिस्तर समेट आ जाऊं।“

”ऐसी गलती मत करना मेरे भाई.......चल अब भीतर चलते हैं। जानता है साढ़े नौ बज चुके हैं। गर्मियों में यहाँ रात 10 बजे तक ऐसा ही उजाला रहता है, कुछ दिन तुझे ‘जेट लैगिंग’ रहेगी। हाँ ट्रेनिंग कब से शुरू है तेरी?“

”इसी सोमवार से। सुबह नौ बजे रिपोर्ट करना होगा। यहाँ से जाने के लिए कोई बस या..........।“

”भाई मेरे, लखनऊ छोड़े तुझे कम-से-कम चार साल तो हो गए होंगे पर तेरा तकल्लुफ़ी स्वभाव नहीं छूटा, वैसे का वैसा ही रहा। अरे भई आफिस जाते हुए तुझे ड्राप कर दूंगा। अभी तो चल कर आराम कर। कल रविवार है मैनहट्टन की ओर चलेंगे, ठीक!“

”ओ के“ अमर भी मुक्त हॅंसी हॅंस दिया।

दूसरे दिन अमर जब तक सोकर उठा, मनीष ब्रेकफास्ट तैयार कर उसके उठने का इंतजार कर रहा था।

”तू तो खूब घोड़े बेचकर सोया। मैं तो सोच रहा था शायद पहले दिन ठीक से सो नहीं पाएगा।“

”इतने आरामदेह बिस्तर पर नींद न आए! वह! चाय भी तैयार है। मनी, मौसी अगर तेरा यह रूप देख लें तो सच मान, धन्य हो जाएँगी।“

”अब बातें बनाना बंद कर, जल्दी से तैयार हो जा। स्टैच्यू आफ लिबर्टी चलना है न?“

”सॉरी! बस दस मिनट में तैयार हुआ।“ अमर बिस्तर से उठ गया।

छुट्टी होने के कारण मानो पूरा न्यूयार्क सागर- तट पर उमड़ आया था। मस्ती में वाद्य बजाते वादकों के पास भीड़ जमा थी। पार्क में बच्चों की किलकारियाँ गूँज रही थीं और वृद्ध पेड़ तले आराम कर रहे थे। ठेलों पर ठंडे पेय और ढेर सारी खाने की चीजें देख अमर ने कहा -
”यार यहाँ तो लगता है किसी भारतीय मेले में आ गए है। बस लोगों की चमड़ी का रंग अलग है।“

”और भी बहुत अलग है, अमर। वहाँ मेलों में अपनापन होता है। यहाँ अपने भी अपने नहीं होते। नहीं समझ पाए न? चलो स्टीमरके लिए ‘क्यू’ में लंग जाएँ वर्ना अपना नंबर ही नहीं आएगा।“

लगभग आधे घंटे लाइन में लगने के बाद  दोनों स्टीमर में बैठे थे। सागर के बीच स्वतंत्रता की प्रतीक ‘स्टेच्यू आफ लिबर्टी’ देख अमर मुग्ध हो गया था। पूरे दिन घूमकर दोनों थक गए थे। मैनहट्टन की गगनचुम्बी इमारतों के मध्य सड़क से कितना सीमित आकाश दिखता है!

”यार मनीष, यहाँ काम करने वालों का दम नहीं घुटता, आकाश देखने को तरस जाए यहाँ इंसान!“

”तभी तो भागते हैं खुले स्थानों पर। हर वीकेंड पर सागर-तट, लेक्स के किनारे भीड़ देखेगा तब समझेगा।“

संध्या घर लौट नहा-धो दोनों लॉन में आकर बैठे ही थे कि लंबी कार ड्राइव करती मनीष की पत्नी रोजी आ पहुंची थी। इकहरे शरीर की रोजी को देख लड़की होने का भ्रम होता था। कार पार्क कर उनकी ओर आती रोजी से मनीष ने अमर का परिचय कराया था, ”अमर कल शाम पहुंचा है यहाँ; अमर, मई वाइ।फ़ रोजी।“

”हलो! एन्जवाय योर ब्रदर्स कम्पनी? मैं अभी कपड़े चेंज करके आती हूँ। मनीष डार्लिंग यू डोंट माइंड मेकिंग मी ए ड्रिंक!“

”ओह श्योर ! एक्सक्यूज मी अमर, अभी आता हूँ।“

रोजी के पीछे मनीष ड्रिंक तैयार करने चला गया। अमर को रोजी कितनी अपरिचित लगी थी। थोड़ी देर बाद रोजी लॉन में आ गई थी, सूती स्कर्ट ब्लाउज में स्वचछ निखरी हुई।

”यू नो रोजी, अमर कजिन से ज्यादा मेरा दोस्त है। हमारा बचपन लड़ते-झगड़ते बीता है। आज दस वर्षो बाद देख रहा हूँ इसे। पिछली बार जब इंडिया गया था, यह ट्रेनिंग पर गया हुआ था।“

”आप एक बार के बाद कभी इंडिया आई ही नहीं। सब आपको याद करते हैं।“ चाह कर भी रोजी के लिए अमर कोई संबोधन नहीं खोज सका था।

”हाँ, उस बार इतना बिटर एक्सपीरिएंस रहा, फिर जाने का मूड ही नहीं बना। और अब बच्चे आई मीन............जॉन और मैरी तो इंडिया के नाम से ही डरते हैं।“ रोजी हॅंस दी थी। ”एक्च्युली मैं भी वहाँ मरते-मरते बची थी न मनीष डार्लिग ! हम वहाँ का खाना डाइजेस्ट नहीं कर सकते!“

”मैंने बताया है रोज, हमारी शादी के कारण भारी खाना बना था। पर माँ ने तो तुम्हारे लिए पानी तक उबाल कर दिया था। दैट वाज जस्ट ए चांस - शायद गर्मी की वजह से तुम..............।“ मनीष का अधूरा वाक्य छोड़ रोजी उठ गई थी,
 ”एक्सक्यूज मी, आई नीड रेस्ट, थक गई हूँ। हाँ, डार्लिंग, मैं क्लाइड के साथ डिनर ले चुकी हूँ। तुम दोनों इंतजार मत करना। हैव नाइस टाइम, गुड नाइट।“

न जाने क्यों अमर को लगा था मनीष के मुख पर एक काली छाया-सी तैर गई थी। कुछ पलों के मौन को एक और कार की आवाज ने तोड़ा था। सामने सड़क पर रूकी कार से एक किशोर और एक लड़की उतरे थे। कार में उसके दो और साथी थे। हाथ हिला कर कार में बैठे साथियों को विदा दे लॉन में बैठे मनीष और अमर को अनदेखा कर जारहे थे कि मनीष ने पुकारा
 ”आनंद, मीरा! यहां आओ!  मीट योर अंकल फ्राम इंडिया।“

दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा मानो कोई सलाह की और संक्षिप्त ‘हेलो’ कह घर की ओर मुड़ गए थे। अमर को याद आया, एक बार घर में आए मेहमानों को ठीक से नमस्ते न करने पर मौसी ने मनीष को कितना मारा था, ‘
यही सीखता है स्कूल में? अरे बड़ों के पाँव छू आशीर्वाद लेने में कल्याण होता है। ऐसे अंग्रेजी स्कूल का क्या फ़ायदा जहाँ बच्चों को तमीज न सिखाई जाए!’
बच्चों के व्यवहार से कुछ खिसियाया-सा मनीष स्पष्टीकरण दे रहा था, ”यू नो अमर, यहाँ बच्चे नए लोगों से जल्दी घुलते-मिलते नहीं। अपने एज ग्रुप में वे स्वतंत्रता महसूस करते हैं। इनकी पार्टीज भी अलग होती हैं। चल हम भी डिनर लें, ये सब तो खाकर आए है।“

घर में सन्नाटा छा गया था। पत्नी, बच्चे अपने-अपने बेडरूम में बंद हो चुके थे। सन्नाटे को तोड़ने की न इच्छा थी न शायद साहस। निःशब्द दोनों ने भोजन की औपचारिकता पूर्ण की थी।

मनीष को अपने बेडरूम में सोने आता देख अमर चौंक उठा,
 ”ये क्या, तू अपने बेडरूम में सो, वर्ना रोजी भाभी नाराज होंगी, मैंने आकर तुम दोनों को अलग कर दिया है।“

”वह तो अब तक गहरी नींद में होगी। दो दिनों का स्ट्रेन था न।“ कहता मनीष पास वाले पलंग पर पसर गया था।

”अब बता लखनऊ में सब कैसे है? सच बहुत मिस करता हूँ वे दिन........क्या बात थी!“

”तभी दस वर्षो से सबको भुला बैठा है, आता क्यों नहीं? मौसी तो हर तीज-त्यौहार पर तुम्हें याद कर लेती हैं।“

”जानता हूँ अमर! माँ के प्रति अपराधी हूँ। वह.......कैसी है?“

”कौन, किसकी बात पूछ रहा है?“

”अनीता............कहाँ है? क्या कर रही है?“

”ओह तो अनीता की याद है अभी जनाब को ! जहे किस्मत।“

”वह बात क्या भूलने की है, अमर?“

”खूब मजे में है. तुझे नहीं पता। शायद किसी ने लिखने की जरूरत नहीं समझी होगी। वह जो अपने साथ रोहित था न, उसने अनीता से शादी की है। अनीता बड़ी किस्मत वाली है। तुझसे शादी होते ही तुझे अमेरिका का चांस मिल गया था और रोहित से शादी होते ही वह आई0ए0एस0 में आ गया। अभी दिल्ली में नियुक्त है। यहाँ आने के समय उसने काफी मदद की मेरी।“

शायद मनीष कुछ देर चुप रह गया था। फिर मानो एक ठंडी साँस लेकर कहा था, ”अच्छा ........ सचमुच वह किस्मत वाली है। एक बात बता, मेरी याद है उसे?“

”तुम्हारी याद न होगी, ऐसा सोच सकते हो, मनी?“

”नहीं, मेरा बतलब...... बहुत नफ़रत करती होगी मेरे नाम से? इतने वर्ष बीत गए...।“

”तुम भूल पाए हो अनीता को?“

”शुरू में शायद ऐसा लगा था अमर, पर अब तो हर नए दिन के साथ पुरानी यादें जीता हूँ। अच्छा बता, अनीता ने इतना आघात कैसे झेला था?“

”सबके सामने हॅंसकर और अकेले में रोकर। गनीमत है उसने हिम्मत हार आत्महत्या या ऐसा कुछ नहीं सोचा, वर्ना................“

”उसके प्रति किए अपराध का ही दंड भोग रहा हूँ।“

”दंड! धरती के स्वर्ग पर मजे लूट रहा है। इसे दंड मानता है, मनी? तूने अनीता की वे रातें नहीं देखीं जिनमें उसके अंतर का हाहाकार, सिर पटक पछाड़ खाता था। दंड तो अनीता ने भुगता था मनीष, बिना अपराध।“ न चाहते भी अमर का स्वर तिक्त हो उठा था। मनीष के मौन पर अमर ने पूछा था, ”तूने ऐसा क्यों किया, मनीष? एक पत्नी के रहते दूसरा विवाह! अनीता में क्या कमी थी? उसे त्यागते जरा भी दुःख नहीं हुआ था, मनी?“ वर्षो से अंतर में दबा प्रश्न आज उभर आया था।

”कमी अनीता में नहीं, मुझमें थी, अमर। अपने पर नियंत्रण खो यहाँ की धारा में तिनके-सा बह गया था, भाई !“

”अनीता की याद तुम्हें नहीं रोक सकी, मनी? उसके साथ एक वर्ष दुःख में तो नहीं काटा था तुमने !“

”अब वही दिन तो मेरे एकाकी जीवन के साथी हैं, अमर !“

”लगता है भावुकता का सहारा ले तुम सबकी सहानुभूति पाना चाहते हो। शायद मै तुम्हें माफ़ कर दूं, पर परिवार के अन्य जन तुम्हें शायद ही क्षमा कर सकें, मनीष !“

”मेरा दुर्भाग्य है, अमर। पी0एच0डी0 करके जब आया था तब क्या सोचा था, मैं यहाँ स्थायी रूप से बस जा।ऊंगा? अनीता से कहा था, जल्दी ही उसे बुला लूँगा। उसके बिना यहाँ कैसे रह सकूँगा, सोच कर ही मन परेशान था। यहाँ नए परिवेश में अपने को अकेला पाता था। रोजी भी मेरी ही तरह विभाग में टीचर असिस्टेंट थी। हम एक ही कमरे में साथ बैठते थे। बहुत जीवंत, हॅंसमुख, खुले दिल की लड़की थी रोजी। मुझे उदास देख अपनी बातों से गुदगुदा जाती थी। अपने विषय में सब बता चुका था मैं उसे और यहाँ की लड़कियों को तो तुम देखोगे खुली किताब सदृश होती हैं। उन्मुक्त मन से मिलती हैं। वीकेंड में रोजी के साथ कभी पिकनिक, कभी शहर के बाहर टूरिस्ट स्थान देखने जाते थे। एक दिन अनजाने ही सब सीमाएँ हम लाँघ गए थे। बस, उसके बाद तो लगा रोजी के सिवा कुछ नहीं, जीवन निस्सार है। रोजी ने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया था, अमर। उसके बाद की कहानी तो तुम जानते ही हो, यही वजह थी मैंने अनीता को मुक्त कर दिया था।“

”क्या तेरे यूँ मुक्त करने से अनीता मुक्त हो गई? अपमान के साथ नकारा गया उसका अस्तित्व ! .............तू तो सोच भी नहीं सकता मनी, जीवित रह अनीता ने कितनी मौतें झेली थीं ! खैर, इतनी तो इंसानियत बरती तूने उस पर कोई दोष नहीं लगाया। मैं तो रोहित के साहस की सराहना करता हूँ। कितना दब्बू-सा दिखता था वह लड़का, पर उसने जो किया, मैं करने का साहस नहीं कर सकता।“ अचानक अमर चुप हो गया था।

”अच्छा हुआ अनीता ने दूसरा विवाह कर लिया।“ हल्की-सी साँस निकली थी मनीष के मुख से।

”शायद तुम्हारे अहम् को चोट पहुंची होगी उसके विवाह से ! तुम्हें आजीवन देवता सदृश पूजती, विवाह न करती तो अच्छा था?“

”मैंने कब कहा ऐसा? हाँ शायद तब दूसरा रास्ता होता मेरे पास।“ मनीष का स्वर आहत था।

”दूसरा रास्ता?“

”हाँ, वापस भारत जाने का विकल्प।“

”तू वापस भारत जाता? यह वैभव, घर-परिवार त्याग कर?“ कोहनी के बल उठ अमर ने दृष्टि मनीष के मुख पर गड़ा दी थी।

”ये सब तो एक इंडियन बास्टर्ड का है।“ मनीष का स्वर उत्तेजित था।

”क्या बकते हो? दिमाग तो ठीक है?“ मनीष के अचानक आक्रोश पर अमर चौंक उठा।

”क्यों देखा नहीं पत्नी, बच्चे सब अमेरिकन हैं, इस धरती पर जन्मे जेनुइन नागरिक और मैं.......एक अनसिविलाइज्ड कंट्री की देन जो इन धरती वालों का हक छीनता है।“

”तुम आराम करो मनीष, मैं रोजी भाभी को बुलाता हूँ।“

”कौन भाभी? किसकी भाभी? देखा नहीं, वह अभी अपने फ्रेंड्स के साथ वीकेंड मनाकर लौटी है। इस समय नशे में बेसुध सो रही है। मैं उसका पति नहीं, कम्पेनियन हूँ समझे ! यहाँ भावनाएँ नहीं चलतीं, प्रेक्टिकल होना पड़ता है और इतने वर्षो बाद भी प्रेक्टिकल नहीं बन सका। ठेठ भारतीय पति की तरह रोजी से वही अपेक्षा रखता हूँ जो अनीता से रखता था....।“

”तुम्हारे बच्चे तो बहुत प्यारे हैं, मनीष ! इन्हें लेकर भारत क्यों नहीं आते? वहाँ सबका स्नेह, अपनापन पाकर यहाँ का जीवन भूल जाएँगे। यहाँ तो परिवेश ही दूसरा है। वे बेचारे हमारी संस्कृति क्या जानें !“

”उन्हें भारत लाऊं? उसके लिए मैंने बहुत देर कर दी, अमर। जानता हूँ कुछ महीनों पहले ही मैं जान सका मेरी इस घर में कहाँ जगह है। हम एक पार्टी में गए थे। मेरे बच्चों ने अपने फ्रेंड्स से अपनी मम्मी को इंट्रोड्यूस कराया और साथ खड़ा मै अनदेखा कर दिया गया। घर आकर मेरी लाड़ली बेटी मम्मी से झगड़ रही थी कि तुमने एक इंडियन से मैरिज क्यों की, ममा? हमारा स्टेटस डाउन होता है। हम सिर उठाकर नहीं चल सकते। मेरी फ्रेड्स हॅंसती हैं। इससे तो अच्छा होता तुम किसी नेटिव ब्लैक से शादी कर लेतीं। कम से कम उन्हें आज की जेनरेशन तो स्वीकार करती है। आई हेट इंडियंस एंड योर इंडियन हस्बैंड।“

”रोजी भाभी ने कुछ नहीं कहा?“ अमर स्तब्ध था।

”कहा था..........बेटी के आँसू पोंछ समझाया था........‘डोंट वरी माई चाइल्ड, मेरे विवाह से तेरे जीवन पर कोई असर नहीं पडे़गा तू अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने को स्वतंत्र है।’ मुझे भी समझाया था, ‘डोंट माइंड डार्लिंग, शी इज सो अपसेट- पुअर चाइल्ड।’“

”अब समझे, मैं क्या कह रहा हूँ? आई एम ए स्ट्रेंजर फ़ॉर माई फेमिली। मैं अब किसी वीकेंड पार्टी में नहीं जाता। पत्नी या बच्चों के फ्रेंड्स से नहीं मिलता। मैंने अपने को सबसे अलग काट लिया है।“

”पर ऐसे कितने दिन चलेगा, मनी? अपने आप में घुटते रहना ..........तू वापस आ जा मनी, सब ठीक हो जाएगा।“

”क्या ठीक होगा, अमर? पिछले पन्द्रह वर्षो का अतीत धो-पोंछ वापस जाना क्या उतना आसान है जितना अनीता को एक वर्ष बाद अचानक छोड़ देना........... क्या मुंह लेकर जा।ऊंगा वहाँ मैं?“

”फिर भी वहाँ तुझे अपमान तो नहीं झेलना होगाऽपनों के बीच तुझे स्नेह मिलेगा, मनी।"
" अब और प्र्योग करने का जी नहीं चाहता, मेरे यार। अब तो बस इंतजार है रोजी कहे उसे डाइवोर्स चाहिए। जो दंड कभी मैंने किसी को दिया था, अब अपने लिए उसी दंड की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। है न विचित्र बात !“ म्लान हंसी मनीष के मुख पर तैर गई थी।

”तो तुम स्वयं ही क्यों नहीं तलाक की बात करते..................“

”नहीं, अब किसी को त्यागने का नहीं स्वयं त्यागे जाने का अनुभव करना चाहता हूँ, दोस्त। अच्छा ही है, बच्चे भी शापमुक्त हो जाएँगे। शायद नए अमेरिकन पापा पाने की खुशी में इस हिन्दुस्तानी पिता को भी वे आमंत्रित कर लें।“
"रहने दो,न जाने कैसी बातें कर रहे हो,बहुत रात हो गई सो जाओ।"

”कई दिनों से छत ताकते ही रातें काटी हैं अमर, शायद एकाध महीने पहले डाइनिंग टेबिल पर रोजी ने कहा था,
‘डार्लिंग, क्या तुम्हें भी नहीं लगता अब हमें अलग हो जाना चाहिए? मैंने पूरा प्रोग्राम प्लान कर लिया है। अलग होने से पहले हम वाशिंगटन जाएँगे, ठीक है न?’“

”यहां तलाक के समय कोई रोना-पीटना नहीं मचता, कोई उत्तेजना, नाटकीयता नहीं। बड़े सहज एवं स्वाभाविक रूप में एक-दूसरे को शुभ-कामनाएँ दे दम्पति अलग हो जाते हैं। अनीता तो फटी आँखों से मुझे ताकती रह गई थी। शायद एकाध हफ्ते न खाना खाया था, न सोई थी। मुझसे न लड़ी, न उलाहने दिए, पर उसके नयनों ने मुझे अपराधी जरूर ठहराया था। अमर......उसकी वह दृष्टि मैं आज तक बार-बार याद करता हूँ.......।“

”अब उन सब बातों को याद करने से क्या लाभ, मनीष ? अब अनीता का अपना घर है, बच्चे हैं और यहाँ तुम्हारा भी अपना परिवार..............।“

”ठीक कहते हो अमर, घर का मोह त्यागना इतना आसान नहीं है, भाई। पर ये कैसा घर है अमर, जहाँ मैं अपने मन का कुछ नहीं कर सका। जब बेटी का जन्म हुआ उसे मीरा पुकारना चाहा, पर उसे नाम मिला मैरी। बेटे को जय मानना चाहा उसे पुकारा गया ‘जॉन’ नाम से। कभी सोचता हूँ इसमें किसी का क्या अपराध? मेरा दृष्टिकोण समझने वाला है ही कौन?“

”तुझे सुनकर शायद आश्चर्य होगा मनीष अनीता ने अपने बच्चों के नाम मीरा और जय रखे हैं। बस एक बेटा और एक बेटी है अनीता की ....................... क्या कभी तुम दोनों ने नामों के विषय में कोई निर्णय लिया था?.................“ मनीष के मुख को देख अमर डर गया था।
”मैं तुम्हें हर्ट नहीं करना चाहता, मनी ! बस तुम्हारी बात सुनकर मैं कुछ कह गया ............आई एम एक्स्ट्रीमली सॉरी, मनी !“

”तू सच कह रहा है, अमर?“ उत्साहित मनीष उठकर बैठ गया था, ”अनीता ने मीरा और जय नाम रखे? इसका मतलब है उसे मेरी याद है। वह मुझे नहीं भूली, अमर.............ओह माई गॉड, ये क्या किया.............अनीता............“ आवाज रूँध आई थी। दोनों हाथों में मुंह छिपा मनीष सिसक उठा । उसके बहते आँसू देख अमर स्तब्ध बैठा था।

मैं सोच रहा था, हमारे गरीब कहे जाने वाले  देश में  विवाह के पवित्र बंधन तो सुरक्षित हैं, पर वहाँ...........वहाँ........... तो अपार संपन्नता के बावजूद................

उसके हिस्से का पुरूष

”सुप्रिया आई है.............।“ गूँज बनकर बात पूरे आफिस में फैल गई थीं। सभी उसे देखने, उससे बात करने को उत्सुक थे। अधिकांश के हृदय में भारी उत्कंठा थी- देखें उसकी प्रतिक्रिया क्या है? पत्नी की तरह ढाढ़ें मारके रोएगी, प्रेमिका की तरह रूमाल में सिसकी पोंछेगी या स्तब्ध रह जाएगी। सुप्रिया और मानस का प्रेम खुली पुस्तक की तरह था। अपने सम्बन्धों को न उन्होंने कोई नाम दिया न छिपाया। जिसने जैसा चाहा सोचा, अपनी दृष्टि से देखा और उनके अनाम रिश्ते को अपना नाम दे डाला। दोनों की इस सबसे निर्लिप्तता, सबको अधिक कष्ट देती थी। एक पुत्र के पिता मानस का सुप्रिया से प्रेम सबे आक्रोश का कारण था।


निहायत अन्तर्मुखी मानस के विषय में लोग बहुत कम जानते थे। वही मानस सुप्रिया के साथ इतना घनिष्ठ कैसे हो गया, सबके आश्चर्य का विषय था। कार्यालय का पुस्तकालय मानस का दायित्व था। बच्चे की तरह इसे उसने सहेजा-सॅंवारा था। अपनी मेहनत और मेधा से पुस्तकालय में कम्प्यूटरी सुविधाएँ उसने जिस शीघ्रता से उपलब्ध कराई कि सब विस्मित हो देखते रह गए थे। सुप्रिया के आने के पूर्व मानस का अधिकांश समय पुस्तकालय में ही बीतता था।

अस्पताल से मानस का शव उसके घर ले जाया गया था। कार्यालय के बहुत-से लोग मातमपुर्सी को पहुंच चुके थे। गाड़ी से मानस का नश्वर शरीर उतारा जा रहा था। पत्नी गंगा स्तब्ध देख रही थी मानो वह त्रासदी किसी और के साथ घटी थी। बेटे को किसी पड़ोसी के घर भेज दिया गया था। घर में मानस के परिवारजनों के पते खोजने के लिए डायरी की खोज हो रही थी। मिसेज भल्ला को मानस के कागज, फाइलें छूते देख गंगा ने अपरिचित आवाज में कहा था,
 ”वह नाराज होंगे, उनकी कोई चीज छूना मना है। क्या चाहिए आपको?“

किसी ने समझाना चाहा था- ”घरवालों को खबर की जानी है, उनके पते चाहिए, वही खोज रहे हैं। आप परेशान न हों, हम उनकी डायरी देख रहे हैं।“

”नहीं, नहीं, वो हम पर नाराज होंगे, उनकी डायरी नही छूनी है किसी को।“ गंगा के स्वर में मानो आतंक था।

गीता जी ने फिर प्रयास किया था-”ठीक है, हमें डायरी नहीं चाहिए, पर उनके परिवारजनों का पता तो बता दीजिए, उन्हें बुलाना जरूरी है न।“

”किसी को नहीं बुलाना है, कोई नहीं है उनका।“ गंगा जैसे अपने आपमें नहीं थी।

”देखिए, आप इस समय दुख में हमारी बात समझ नहीं पा रही हैं। आपका बेटा अभी बहुत छोटा है। इस मौके पर उनके परिवार से किसी का होना बहुत जरूरी है।“ नागेश्वर जी ने गंगा को समझाना चाहा।
"कहा न उनका कोई नहीं है।" गंगा अडिग थी। आफिस के लोग इसी स्थिति के लिए कतई तैयार नहीं थे। शायद अतिशय दुख ने गंगा को विक्षिप्त-सा कर दिया था। हार कर मानस के सात वर्षीय पुत्र से पूछा गया था-
 ”मुन्ना, तुम्हारे पापा का घर कहाँ है? उनका पता कहाँ रखा है, जानते हो?“

”पापा का घर कहीं नहीं है, माँ कहती है, पापा तो नाना के घर रहते थे न।“ नन्हें बालक के उत्तर से कुछ आशा जागी थी।

”हाँ-हाँ मुन्ना, अपने नाना के घर का पता जानते हो? कहाँ रहते हैं नानाजी?“ चंद्रनाथ जी आगे बढ़ आए थे।

”कल नाना की चिट्ठी आई है, हमें ढेर-सी चीजें जाएँगे नाना। दिखाऊं उनकी चिट्ठी?“ कुछ ही पलों में घर से नाना का पत्र ले आया था मुन्ना। अपने लिए लाई जाने वाली सामग्री की लम्बी लिस्ट दिखाता, नन्हा बालक कितना उत्साहित था! लिफाफे पर नाना का पता, ।गांव सब लिखा हुआ था।

थोड़ी ही देर बाद मानस के श्वसुर को उसकी एक्सीडेंट में मृत्यु की सूचना का तार भेजा जा चुका था। उतनी दूर से अंतिम संस्कार के समय तक उनका पहुंच पाना कठिन था। निर्णय गंगा ने ही लिया था- ”जो सब बंधन तोड़ गया, उसके लिए किसी की प्रतीक्षा क्यों?“

वस्तु स्थिति से सर्वथा निरपेक्ष गंगा न रोई न चिल्लाई, शायद गहरे सदमे से उसे उबारने के लिए किसी ने डॉक्टर बुला लिया था  ”एक भी आँसू नहीं गिराया है डाक्टर, गहरा आघात पहुंचा है इन्हें।“ एक पड़ोसिन ने कहना चाहा था।

”कुछ नहीं होगा मुझे डाक्टर, बहुत प्यार किया है जिंदगी ने मुझसे।“ शांत स्वर में अपनी बात कह, गंगा शून्य में निहारती रह गई थी। निरूपाय डाक्टर चले गए थे।

पड़ोस की स्त्रियाँ रोने का उपक्रम करती रहीं, पर गंगा निर्विकार बैठी मानस की अंतिम क्रियाएँ सम्पन्न होती देखती रही। लोग फुसफुसा रहे थे- ”उम्र ही क्या थी बेचारी की! कैसे काटेगी पहाड़-सी जिंदगी! ।बेटा तो अभी नादान है!“

कुछ दबी-दबी बातें उभर रही थीं- ”कौन-सा सुख जाना है! कच्ची उम्र से ही सौत का दुख भोग रही है।“

मानस का अंतिम संस्कार कौन करेगा? क्या नियम-विधान है? अचानक मानस के जाति-बंधु और कुछ परिचित वहाँ से खिसक लिए थे। जो व्यक्ति उन्हें बुलाने गया, उसे अप्रत्याशित उत्तर मिला था, ”मानस जाति से वहिष्कृत है, हम उसके दाह-संस्कार में सम्मिलित नहीं हो सकते।“

”पर इस समय तो सारे भेद-भाव भुलाकर आपको हमारी मदद करनी चाहिए।“

”तुम हमारे आचार-विचार नहीं जानते, इसलिए ऐसा कह कहते हो। हमें अपने बच्चों का भविष्य देखना है। हम बिरादरी से बाहर की बात नहीं करेंगे। हमें क्षमा करो भइया!“ हाथ जोड़ उन्होंने द्वार बन्द कर लिए थे।

अन्ततः आफिस के लोगों ने नन्हे बेटे का हाथ छुआ, मानस के शरीर को अग्नि को समर्पित कर दिय था।

”हाय रे नन्ही-सी जान को ये दिन भी देखना था!“ स्त्रियाँ संवेदना जता रही थीं। पर गंगा तो प्रस्तर-प्रतिमा बन गई थी।

दो दिन बाद पहुँचे वृद्ध पिता को देख सब सहम गए थे- ”बुढ़ापा खराब हो गया बेचारे का!“

बेटी गंगा की ओर ताकते पिता के चेहरे की झुर्रियाँ और गहरी हो गई थीं। ”हे भगवान्, क्या सोचा क्या हुआ!“

”चिन्ता न करें, आपकी बेटी को आफिस में नौकरी मिल जाएगी।“

”हम सब यहाँ हैं, हम आपकी बेटी की पूरी देखरेख करेंगे।“ लोग वृद्ध पिता को सांत्वना दे रहे थे।

मानस के विभागाध्यक्ष ने हर प्रकार की सहायता का आश्वासन दिया था। मुंह नीचा किए वृद्ध सबकी सुनते रहे! कभी-कभी अश्रुपूर्ण नयन अंगोछे से पोंछ नाती को देख रो उठते। नाना उसके लिए कोई सामान नहीं लाए थे। लम्बी रेलगाड़ी की बात वह मित्रों को भी बता चुका था।

”नाना, हमें यहाँ अच्छा नहीं लगता, हम तुम्हारे साथ चलेंगे। ये लोग पापा को ले गए, नाना!“

”हाँ बेटा, हम वापिस चलेंगे।“ एक उसाँस छोड़ वृद्ध नाना मौन हो गए थे। नेत्रो के समक्ष चलचित्र सदृश रीलें घूम रही थीं।.........................

गांव के विद्यालय के अध्यापक, पंडित जी के आकस्मिक निधन पर बेसहारा मानस को चार वर्ष की आयु से उन्होंने पाला था। सरस्वती का जितना ही अगाध भंडार पंडित जी के पास था, लक्ष्मी उतनी ही उनसे विमुख रहीं। आसपास के बच्चों को जोड़-बटोर के पंडित जी उन्हें पढ़ाते थे, वर्ना उस गाँव में शिक्षा का उतना सम्मान कहाँ था! आज तो पंडित जी के पढ़ाए बच्चों में से कुछ उच्च अधिकारी भी बन चुके हैं। मानस को जन्म देते ही पंडितानी स्वर्ग सिधार गई थीं। उस दारिद्र्य में मानस पंडित जी का रत्न था। शांत, बंद्धि-प्रदीप्त चेहरा, कंचन-सा रंग सबका मन मोह लेता था। पंडित जी के अचानक निधन पर मानस के लालन-पोषण की समस्या उठ खड़ी हुई थी। पंडित जी के दूर-दराज के रिश्तेदारों में भी मानस का दायित्व उठाने वाला कोई नहीं था। उन्ही की उंगली पकड़, मानस उनके घर आ गया था। कुछेक जाति-धर्म के ठेकेदारों ने नाक-भौं सिकोड़ीं, पर मानस का दायित्व लेने की पहल किसी ने नहीं की थी। उनकी स्नेह-छाया में मानस बड़ा होता गया।

बचपन से ही मानस सबसे अलग अन्तर्मुखी प्रकृति का था। उसकी प्रखर बुद्धि और शालीन व्यवहार ने उन्हें मुग्ध किया था। एकमात्र पुत्री गंगा के लिए उससे उपयुक्त वर और कौन होगा! बाधा उनकी जाति थी। मानस उच्चकुलीन ब्राह्मण और वे स्वयं उसके पाँव पूजने वाले यजमान। इस विराट विश्व में मानस नितान्त अकेला था, अतः विवाह के समय जाति-भेद को उठाने वाला कौन होगा? पर उनकी धारणा कितनी गलत सिद्ध हुई थी! सुपात्र मानस को अपनी कन्या देने वाले कई परिवार सामने आ गए थे। उनकी पुत्री गंगा से मानस के विवाह की बात का कड़ा विरोध किया गया था। सबकी चुनौतियों के विरोध में वह दहाड़ उठे थे-
”कहाँ गया था ये उच्च कुल का अभिमान जब उसे पालने कोई आगे नहीं आया था? आज उस पर अधिकार जमाते लाज नहीं आती?“ उनकी दहाड़ पर लोग चुप भले ही हो गए, पर दंड मानस को भुगतना पड़ा था, ये बात बहुत दिनों बाद उन्हें ज्ञात हो सकी थी। उच्चकुलीन परिवारों ने मानस को जाति  से वहिष्कृत कर दिया था।

देखने में अनिन्द्य सुंदरी गंगा का पढ़ाई में मन कभी नहीं लगा था। किसी तरह दसवीं कक्षा उत्तीर्ण कर वह घर बैठ गई थी। मानस से जब उन्होने गंगा के साथ उसके विवाह की बात की थी तो उसका मुख विवर्ण हो उठा था। पितृ-तुल्य पालक की आँखों में निराशा-आशंका गहराती देख उसने सहज-सधे स्वर में कहा था-
”आप जो आदेश दें, मुझे स्वीकार होगा।“

चाह कर भी वे पूछने का साहस नहीं कर सके थे, ‘तुम्हारा अपना मन क्या कहता है, मानस? ये स्वीकृति सिर्फ मेरी आज्ञा का पालन भर है न?’ क्या वे उसकी बात सहज ही मान गए थे? सब कुछ जानकर भी उन्होंने अपने को धोखा दिया था। गंगा जैसी अति सामान्य बुद्धि वाली लड़की भला मानस की प्रखरता झेलने योग्य थी!  संदेहों-अपवादों को झुठला उन्होंने दोनों का धूमधाम से विवाह किया था।

उन्हें लगता, विवाह के बाद मानस और ज्यादा गम्भीर होता जा रहा था। एक दिन गंगा से पूछा भी था- ”क्या बात है बेटी, मानस बहुत चुपचाप रहता है.........?“

”वह तो हमेशा से ऐसे ही हैं बाबूजी, आपको व्यर्थ भ्रम हो रहा है,“ कहती गंगा हॅंस दी थी।

पता नहीं वह पगली लड़की मानस की बातें समझ भी पाती है? इसी कारण वे मानस के प्रति और अधिक उदार और स्नेही हो उठे थे। मानस के अकेलेपन का रहस्य भी उन पर ही खुला था।

”दिनेश के विवाह में तुम नहीं गए, मानस?“

”नहीं।“

”क्यों, वह तो तुम्हारा घनिष्ठ मित्र है।“

”जी।“

”फिर?“

”मैं आमंत्रित नहीं हूँ, बाबूजी।“

”क्यों?“ उनके स्वर में विस्मय भर आया था।

”दिनेश के घरवालों को मेरी उपस्थिति प्रिय नहीं है।“

तभी उन्हें याद आया था दिनेश की भतीजी के विवाह का प्रस्ताव भी तो मानस के लिए आया था। इसके बाद धीमे-धीमे उन्हें पता लगता गया, मानस के मित्र भले ही उसे सच्चे हृदय से स्वीकारें, उनके रूढ़िवादी परिवार उसे नीची दृष्टि से देखते हैं। उनका कुल उनकी तुलना में नीचा जो था। मानस की गम्भीरता उन्हें व्यथित करती, पर वे निरूपाय थे। काश गंगा मानस की पूर्णता बन पाती! उनके कार्य का प्रतिशोध लोगों ने भी मानस से लिया था। उस रूढ़िवादी समाज में मानस को कितना अपमानित होना पड़ा होगा, इस पर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। बेहद उदार, निर्लोभी, भोले मानस की लालची के रूप में खिल्ली तक उड़ाई जाती थी। ”रूपयों के लालच में उसने गंगा से विवाह किया“ - प्रायः लोग व्यंग्य करते रहते। इन सबके ऊपर गंगा से उसे कौन-सा मानसिक संतोष मिल पाता होगा? पिता की दुलारी, सिरचढ़ी गंगा को तो बस अच्छे वस्त्र, आभूषण और भोजन से ही मतलब रहता था। युवती गंगा का बचपना कभी-कभी उन्हें तक विचलित कर जाता था।

जब मानस एक पुत्र का पिता बना तो उसके शांत निर्विकार चेहरे को देख वृद्ध सोच में पड़ गए थे। उन आनंद के क्षणों में वैसी उदासीनता?

”क्या पुत्र के प्रति आने वाले दायित्व चिन्तित कर रहे हैं, मानस?“ वृद्ध ने विनोद करना चाहा था।

”आपके रहते कैसी चिन्ता, बाबूजी?“

”क्या नाम दोगे बेटे को?“

”जो आपको रूचिकर हो।“

”हाँ बाबूजी, इसको नाम तो आपको ही देना होगा।“ गंगा मचल उठी थी।

मानस की आहत दृष्टि पहिचान वृद्ध ने फिर कहा था- ”कोई नाम तो सोचा होगा, मानस?“
"मानस के उत्तर के पूर्व ही गंगा बोल पड़ी, न,नाम आप ही दें बाबूजी।"
"विवेकानंद कैसा रहेगा मानस?
"उतना लंबा नाम कसे पुकारूंगी,विवेक ही काफ़ी नहीं है,बाबूजी।"

मानस के उत्तर की गंगा ने तनिक भी प्रतीक्षा कहाँ की थी!

”क्यों मानस?“ उनकी प्रश्नवाचक दृष्टि मानस पर निबद्ध थी।

”ठीक है....................।“

”पुत्र के नाम के प्रति इतनी तटस्थता क्यों, मानस? तुम्हारी इच्छा-अनिच्छा इस विषय में महत्वपूर्ण है।“

”मेरा सब कुछ तो आपका दिया है, बाबूजी! मैं अकिंचन किसी को दे ही क्या सकता हूँ-वो भी नाम जैसी चीज ........................?“

”कैसी बातें करते हो मानस, मेरा सब कुछ तुम्हारा ही तो है।“

”जी- “ संक्षिप्त उत्तर के साथ शायद एक अवसादपूर्ण मुस्कान ओठों पर तिर आई थी।

उस दिन भी वे उसकी बात का मर्म कहाँ समझ सके थे!

”तो विवेक ही तय रहा।“

”मेरा विवेक .............!“ गंगा ने नवजात शिशु का मुख चूम लिया था।

नन्हें-से विवेक को गोद में उठाए, उसका प्यार-दुलार करते वृद्ध जी उठे। दिन-रात नाती के प्यार-दुलार में डूबे वे और माँ गंगा, मानस को तो भुला ही बैठे थे। मानस ने जब उन्हें अपनी दूर शहर में नियुक्ति की सूचना दी तो वे चैंक उठे थे.........................

”क्या तुम इतनी दूर जाना चाहते हो ; लेकिन क्यों? क्या यहाँ कोई कमी है, बेटा?“

”जी, कमी की बात का तो प्रश्न ही नही उठता, पर संसार का अनुभव पाने के लिए घर के बाहर भी तो जाना चाहिए, बाबूजी!“

”भगवान का दिया सब कुछ तो है, जितना चाहो घूमो-फिरो, पर तुम्हारी ये घर छोड़कर नौकरी वाली बात मेरी समझ में नहीं आती, मानस!“

”घर तो आपके पास ही रहेगा, गंगा और विवेक को आपकी आज्ञा पर ही ले जाऊंगा, बाबूजी!“ मानस उनके भय को पहिचानता था।

आश्वस्ति की श्वास ले उन्होंने नाती को सीने से लगा लिया था। ”ठीक है, अगर तुमने जाने का निर्णय ले ही लिया है, तो प्रभु तुम्हारी रक्षा करें। गंगा को बताया है?“

”गंगा को आप ही समझा लें, बाबूजी! आशीर्वाद दीजिए किसी योग्य बन सकूँ।“ पितृ-तुल्य श्वसुर की चरण-धूलि लेते मानस का भी स्वर रूद्ध हो उठा था।

मानस का जाना गंगा को अच्छा नहीं लगा था, पर पिता का लाड़-दुलार और सुख-सुविधाएँ एकाएक छोड़ पाना भी सम्भव नहीं था। मानस की सीमित आय में उन सुख-सुविधाओं की कल्पना भी व्यर्थ थी। मानस को न जाने देने की चेष्टा में उसने मनुहार भी की थी, पर मानस ने अपना निर्णय दृढ़ स्वर में सुना दिया था-
”बहुत दिन बाबूजी पर बोझ बनकर रह लिया, अब अपना और अपने परिवार का दायित्व उठाना मेरा कर्तव्य है, गंगा! मेरा सब कुछ तुम्हारा है, पर इसी सीमित आय में काम चलाना होगा। बाबूजी से और अधिक ले पाना अब मेरे लिए संभव नहीं है, गंगा!“

”क्या कह रहे हो, बाबूजी क्या पराए हैं? हमारे सिवाय उनका और है ही कौन?“ गंगा के बड़े-बड़े नयन अश्रुपूर्ण थे।

”उन्होंने जो दिया है उससे उऋण हो पाना तो असम्भव है, पर उनकी पुत्री का भरण-पोषण करने योग्य बन सकूँ, यह देख वह प्रसन्न ही होंगे।“

”छिः, ऐसा कहकर तो तुम बाबूजी का अपमान कर रहे हो। तुम जितना वेतन घर लाओगे, उतनी तो तुम्हें बाबूजी से पॉकेट मनी मिलती है। उनका सब कुछ हमारा ही तो है न?“

”हमेशा हमने बाबूजी से लिया ही तो है, गंगा! कभी मुझसे भी कुछ लेकर देखो, बहुत सुख पाओगी। मेरी सीमित आय पर तुम्हारा एकमात्र अधिकार होगा।“ मंद स्मित तैर आया था मानस के अधरों पर।

”तुम्हारी बातें मेरी समझ के बाहर हैं। यहाँ रहकर भी तो बाबूजी का हाथ बॅंटा सकते हो। क्या कष्ट है यहाँ, जो बाहर भाग रहे हो?“ गंगा झुँझला उठी थी।

”बाबूजी वट-वृक्ष हैं, उनकी छाया बहुत शीतल है, पर उसमें मैं पनप नहीं सकता, गंगा! काश, तुम मेरी बात समझ पातीं !“ हल्की-सी उसाँस छोड़ी थी मानस ने।

वृद्ध के माथे की लकीरें गहरी हो उठीं-सचमुच वह पगली कहाँ समझी थी मानस की बात? बेटी ही को क्यों अपराधी ठहराएँ -वे स्वयं भी क्या अपने मानस की थाह पा सके थे?

आज मानस की डायरी उसके विभागाध्यक्ष दे गए हैं। उसकी अलमारी खोली गई थी, व्यक्तिगत पत्रों के साथ यह डायरी भी मिली थी। अच्छा होता डायरी उन्हें न दी जाती। डायरी हाथ में आने पर उसे न खोलना उन्हें असम्भव लगा था। पहले पृष्ठ से अन्त तक वे पढ़ते गए थे.................

”घर से इतनी दूर आना एक अनुभव है। जब से होश सॅंभाला, अपने को पराश्रित पाया है। दूसरों की दया पर पला-बढ़ा, जिसकी अपनी आशा-आकांक्षाएँ सब उधार की हैं। बाबूजी के अपार स्नेह में भी दया की करूणा नजर आती है। और मेरी पत्नी गंगा? उसका जीवन सहज-स्वाभाविक नदी-सा है- पिता और पति की कगारों के बीच निश्छल बहती धारा। पिता की उदारता मुझे देकर वह परितृप्त है। पति नामधारी मानस-जिसका सब कुछ उसके पिता के उपकारों तले दबा है। अपनी हर आवश्यकता के लिए गंगा पिता पर निर्भर है। पिता की दया पर आश्रित, मानस भी कभी उसकी आवश्यकता पूर्ण कर सकता है शायद वह यह बात सोच भी नहीं सकती।“

अन्यमनस्क वृद्ध पृष्ठ पलटते गए थे। एक पृष्ठ पर दृष्टि गड़ गई थी - ”आज उस नई लड़की ने सहायक लाइब्रेरियन के रूप में आफिस ज्वाइन किया है। कितनी डरी-डरी-सी लग रही थी! मिश्रा बता रहा था, कलकत्ता आफिस के मिस्टर दयाल की बेटी है। हार्ट अटैक में पिता की अचानक मृत्यु हो जाने के कारण उसे ये नौकरी दी गई है।“

‘सर, मैंने इसके पहले कहीं काम नहीं किया है, आपकी गाइडेंस चाहिए। मैं जल्दी ही सब सीख लूंगी ।"आत्मविश्वास से पूर्ण दृष्टि मुझ पर निबद्ध थी।

‘हाँ..............कोई प्रॉब्लम हो तो बताइएगा। यहाँ का काम बहुत आसान है। मन लगाकर काम करेंगी तो कुछ भी कठिन नहीं लगेगा।’

‘थैक्यू सर!’ आँखों में जैसे दीप जल उठे थे।

दूसरे दिन मानो उसकी मैं प्रतीक्षा-सी कर रहा था। उसके आने से कमरा कुछ ज्यादा ही आलोकित हो उठा था।
दूसरे दिन मानो उसकी मैं प्रतीक्षा-सी कर रहा था। उसके आने से कमरा कुछ ज्यादा ही आलोकित हो उठा था।

‘सर, आप किसी अच्छी जगह रहने के लिए एक कमरा दिला सकते है? मेरी मेज के पास खड़ी सुप्रिया कुछ परेशान-सी थी।’

‘कमरा? क्यों क्या यहाँ कोई परिचित नहीं है?’

‘नहीं। माँ अक्सर बीमार रहती हैं, कलकत्ते में मौसी उन्हें सम्हाल लेती हैं। कलकत्ते में भाई की पढ़ाई चल रही है, उसे तो वहाँ रहना ही होगा। मुझ अकेली के लिए बस एक कमरा ही काफ़ी होगा।’ उदास मुस्कान बिखर आई थी सुप्रिया के शुष्क होंठों पर।

‘ठीक है, देखकर बताऊंगा। अभी कहाँ रह रही हैं?’

‘बर्किग वीमेंस होस्टेल में।’

‘फिर वहाँ क्या कष्ट है?’

‘आफिस से हॉस्टेल बहुत दूर पड़ता है न सर, आने-जाने में दो घंटे व्यर्थ चले जाते हैं। पढ़ाई के लिए समय ही नहीं मिल पाता।’

‘क्या पढ़ रही हैं आप?’

‘हिन्दी साहित्य में शोध-कार्य कर रही हूँ।’

‘विषय क्या रखा है?’

‘स्वातंत्रयोत्तर उपन्यासों में प्रेम-तत्त्व’ - विषय बताते सुप्रिया का मुख शायद आरक्त हो उठा था।

‘अच्छा हो शोध-कार्य के पूर्व पत्राचार पाठ्यक्रम की सहायता से लाइब्रेरी- साइंस की परीक्षा पास कर लें। ये डिग्री आपको ज्यादा उपयोगी रहेगी।’ न जाने क्यों स्वर रूद्ध हो उठा था।

‘जी ..............मैंने कभी नहीं सोचा था, किसी कार्यालय में नौकरी करूँगी। मैं लेक्चरर बनना चाहती थी, सर!’ सुप्रिया का स्वर उदास था।

‘जो चाहा जाए, हमेशा वह पूरा तो नहीं होता, मिस सुप्रिया!’ स्वर में तनिक आक्रोश झलक आया था।

‘एक बात कहूँ सर, आप कभी-कभी बहुत आक्रोश में लगते हैं जैसे किसी से नाराज़ हों!’

‘मैं अपने आप से नाराज़ हूँ, सुप्रिया जी, आप मेरी चिन्ता न करें।’

‘आप मुझसे इतने बड़े हैं, सर फिर मुझे ‘आप’ कहकर क्यों सम्बोधित करते हैं, सर?’

‘ये आफिस है सुप्रिया जी, यहाँ रिश्ते नहीं जोड़े जाते। पारस्परिक सौहाद्र्य बना रहे, काफी है। कुछ दिनों में यह सत्य जान जाएँगी।’

अपमान से सुप्रिया का मुंह कुम्हला गया था। क्यों, कभी-कभी मैं इतना कठोर क्यों हो उठता हूँ?

वृद्ध पिता से मिलने कोई सज्जन आए है- नाती विवेक सूचित कर खेलने भाग गया था। सावधानी से डायरी बिस्तर के नीचे रख वे बाहर चले गए थे।

मानस के सहकर्मी शोक-संवेदना प्रकट कर चले गए थे। मानस की सभी प्रशंसा कर रहे थे, उसके बिना लाइब्रेरी कितनी अपरिचित लगेगी। सबको विदा दे वृद्ध ने डायरी के पृष्ठ पलटे थे...................

”दो दिनों से सुप्रिया नहीं आ रही है। आफिस की सहायिका कलादेवी ने बताया था.... ‘सुप्रिया दीदी तेज बुखार में पड़ी हैं। बेचारी का यहाँ कोई नहीं है। कल तो दवा हमसे मॅंगाई थी।“

‘कहाँ रहती हैं, मिस पाठक?’

उसी संध्या अपने सामने अचानक मुझे देख सुप्रिया के ज्वर से बोझिल नयन चौंक गए थे.........‘सर....आप...........?’

‘कैसी हैं, सुप्रिया जी? कलादेवी ने बताया आप अस्वस्थ हैं।’

‘बस यूँ ही..........शायद मौसमी बुखार है।’

माथे पर मेरा हाथ अचानक चला गया था। न जाने कैसी ममता-सी उमड़ आयी थी उस असहाय, भीरू-सी लड़की के लिए।

‘खाने-पीने का क्या इंतजाम है? लगता है भूख-हड़ताल चल रही है। आफिस में खबर क्यों नहीं भेजी, सुप्रिया?’ स्वर में ढेर-सा स्नेह उमड़ आया था।

सुप्रिया की आँखें भर आई थीं......‘जी.....’ से अधिक वह कुछ बोल कहाँ सकी थी! माथे पर स्नेहपूर्ण हाथ धर मैं मौन सांत्वना ही तो दे सका था।

.........पूरे आठ दिनों बाद आज सुप्रिया का ज्वर छूटा है। इस बीमारी में तो वह एक नन्हीं आज्ञाकारी बालिका भर रह गई थी। दवाई देने से पथ्य देने तक का दायित्व मेरा ही था। किस कदर निर्भर हो गई है सुप्रिया मुझ पर ! मेरी कही बात उसके लिए वेद-वाक्य बन जाती है। यह तो मेरे लिए सर्ववा नवीन अनुभव है, कोई मुझसे इतनी प्रत्याशा रखे ! मेरी छाया तले साँस ले! मैं अकिंचन भला किसी को क्या दे सकता हूँ? सुप्रिया है कि हर पल एहसास कराती रहती है कि उसके जीवन के लिए मैं कितना महत्त्वपूर्ण हूँ। अच्छा लगता है यह एहसास......कितनी संतुष्टि, कितनी तृप्ति- क्या इसी को पुरूष की अहं-तुष्टि कहते हैं?

डायरी पढ़ना रोक वृद्ध विचार-मग्न हो गए थे। डायरी के पृष्ठ खुलते जा रहे थे........

”हर पल ये एहसास गहराता जा रहा है कि मैं भी ‘कुछ’ हूँ। सुप्रिया के साथ जीना कितना स्वाभाविक लगता है! गंगा के साथ स्वामिनी और सेवक का-सा भाव क्यों हावी रहता था मुझ पर? सुप्रिया मेरे मन की साड़ी पहिनती है, जो रंग मुझे भाता है उसके अलावा दूसरा रंग नहीं खरीदती। मनुहार करके मेरा मनपसंद खाना बनाती है। वहाँ तो भोजन भी बाबूजी के मन का खाना पड़ता था। अपने लिए इतना आयोजन एक अनजानी पुलक भर देता है।

ये मुझे क्या होता जा रहा है, सुप्रिया के बिना शायद जीवन जी न सकूं-पर घसीटना तो पड़ेगा। गंगा और अपने पुत्र के प्रति अन्याय कर रहा हूँ मैं। कितनी नासमझ है गंगा। अपने पति को किस विश्वास पर छोड़ निश्चिंत बैठी है! उसे यहाँ आने को कितनी बार लिख चुका हूँ, पर वह यहाँ आना ही नहीं चाहती। मुझे बुला रही हैं, मैं वापिस उसके पास चला जा।ऊं। वह समझती क्यों नहीं-पति को यूँ अकेले छोड़ देना क्या ग़लत नहीं है?“

चश्मा उतार वृद्ध ने आँखें मूंद लीं। एकाध बार गंगा ने पति के पास जाने की दबे स्वर में इच्छा व्यक्त भी की थी, पर नाती के मोह ने उन्हें अन्धा बना दिया था। विवेक के साथ उनका बचपन लौट आया था। नाती और पुत्री के साथ मानस को वह भुला ही बैठे थे। गंगा को भेजा भी तब, जब सिर से पानी ऊपर आ गया था। कुछ उड़ती खबरों से वे एक क्षण को विचलित जरूर हुए थे, पर मानस पर विश्वास था, वह अन्याय कभी नहीं करेगा। अनदेखी लड़की पर बेहद क्रोध आया था उन्हें। कौन है ये सुप्रिया? मानस ने लिखा था...........

”आज सुप्रिया ने स्पष्ट कह दिया - मैं उसकी माँग में सिंदूर भले ही न डालूं, उसने अपने को मेरी पत्नी स्वीकार किया है। यह कैसे धर्म-संकट में डाल रही है सुप्रिया! गंगा को तुरंत आने का तार दे दिया है।“.......

कुछ खाली पृष्ठों के बाद लिखा था- ”गंगा के यहाँ पहुँचते हीं पड़ोसियों ने अपना पड़ोसी-धर्म निभा डाला है। दो दिन तक रो चुकने के बाद बात-बात में ताने देती है। बाबूजी ने भी कितने कठोर स्वर में कहा था,
 ‘अच्छी दुश्मनी निभाई भइया, हमारे उपकार का यही फल देना था? मैंने पहिचानने में गलती की।’

........... गंगा को समझा-बुझाकर बाबूजी गाँव लौट गए हैं। घर आने पर गंगा कोंच-कोंच कर प्रश्न पूछती है, आस-पास कौन है, क्या है, का ध्यान भी नहीं रखती। घर का वातावरण कलहपूर्ण हो गया है। गलती न गंगा की है न मेरी... मेरी अहं को, मेरे पुरूष को मान तो सुप्रिया ने दिया है, वर्ना मैं तो सोया हुआ था।

सुप्रिया तीन माह की ट्रेनिंग के लिए दिल्ली जा रही है। कैसे रह सकूँगा उसके बिना? गंगा ने कहीं भी मेरे साथ न जाने की कसम खा ली है, उसका वश चले तो विवेक को भी मेरे पास न आने दे। मेरी हर चीज तलाशती है। कल एक छोटे-से पत्र के टुकड़े को लेकर किस कदर झगड़ा हुआ! मैंने कड़े निर्देश दिए हैं - मेरी अनुमति के बिना मेरी कोई चीज छूना सर्वथा निषिद्ध है। विवेक मेरे सामने सहमा-सहमा रहता है। कैसे समझाऊं इस नादान को ? मेरा सोया पुरूष सिर्फ सुप्रिया को पहिचानता है।

एक सप्ताह को सुप्रिया आ रही है। कल शाम की ।ट्रेन से उसे रिसीव करना है। स्कूटर के ब्रेक ठीक नहीं लगते, उसे ठीक कराना होगा।

आज दिन-भर पानी बरसता रहा। अब स्कूटर की मरम्मत सुप्रिया के आने के बाद ही कराऊंगा।“

डायरी का यही अंतिम पृष्ठ मानस के जीवन का भी अंतिम पृष्ठ था। बरसात से भीगी सड़क पर स्कूटर स्किट कर सामने लगे बिजली के खंभे से जा टकराया था। मानस का सिर पूरे वेग से खम्भे पर जा लगा था। पास के पानवाले ने गुहार मचा जब तक उसे अस्पताल पहुंचाया, सुप्रिया को रिसीव करने वाले नयन बंद हो चुके थे। स्टेशन कहाँ पहुंच सका था मानस!

कार्यालय में पहुंचते ही सुप्रिया को साथियों ने घेर लिया था। सुप्रिया विस्मित थी- कल स्टेशन पर लेने मानस क्यों नहीं पहुंचा? कहीं वह अस्वस्थ तो नहीं? मन नाना चिन्ताओं से घिरा हुआ था। जो सुना, वह अप्रत्याशित उसे जड़ बना देने को पर्याप्त था। मानस की खाली कुर्सी को एकटक निहारती सुप्रिया ने धीमे से अपनी बिंदी पोंछ पास खड़ी लड़की से कहा था-
”मुझे उनके घर जाना है, नमिता!“ पास खड़े सहकर्मियों के मध्य दबी उत्सुकता कुलबुला रही थी। कई शुभचिन्तक उसे मानस के घर तक पहुंचाने आगे बढ़ आए थे, पर सुप्रिया ने दृढ़ स्वर में कहा । ”उनका घर मेरे लिए अपरिचित नहीं, अच्छी तरह रास्ता जानती हूँ। आप लोग व्यर्थ अपना समय नष्ट न करें।“

खिसियाए चेहरों पर आक्रोश परिलक्षित था- ”देखों तो लड़की का दुस्साहस, एक तो चोरी उस पर सीना जोरी!“

सधे कदमों से मानस के घर की सीढ़ियाँ चढ़ सुप्रिया ने झुककर वृद्ध पिता के चरण छुए थे। गंगा की ओर ताक दृढ़ स्वर में सुप्रिया ने कहा था-
 ”तुम्हारी अपराधिनी मैं हूँ दीदी, जो चाहे दंड दे दो। एक ही प्रार्थना है, मेरा न्याय करते इतना जरूर याद रखना, तुम्हारा सम्मान अक्षुण्ण है, तुम सबकी सहानुभूति की पात्री हो और मैं? मैंने अपना मान-सम्मान सब कुछ खोकर जो पाया था आज उसकी राख भी शेष नहीं। क्या इससे बड़ा कोई और दंड होगा?“

सुप्रिया की सूनी दृष्टि में अपनी छाया निहारती गंगा, उसे गले से लिपटा जोर से रो पड़ी थी।

प्रतिशोध

‘मंतरी जी जेल का निरीक्षण करने आ रह हैं। इस बार महिला वार्ड को खास देखा जाएगा।’ महिला-वार्ड की अटेंडेंट ने खबर दी थी।


‘महिला-वार्ड में खास क्या देखेगें मंतरी जी? हम नंगी-भूच्ची औरतों को देखने में मजा आएगा न? दातौन करती कजरी विफर पड़ी।

‘एई कजरिया! अच्छा मौका है री, हम तन ढापे खातिर साड़ी उनसे मांग लेइब।"
 परबतिया का चेहरा चमक रहा था।

‘छिः भौजी, उनके सामने नंगी जात, लाज न आइब?’ लक्खी का चेहरा लाल बहूटी हो रहा था।

‘लाज - कैसी लाज? अब हम क्या आदमी रह गए है।? एक कोठरी में तीस-तीस नंगी औरतों को लाज-सरम कैसी?’ कजरी का स्वर बेहद कड़वा था।

‘तू हमेशा कड़वा ही बोले है ,कजरिया। माना हमार जिनगानी जनावर से बदतर है, पर क्या अन्दर की लाज-हया खतम हो गई है? मंतरी जी के सामने ऐसे जा सकते हैं? शरीर पर दृष्टि डालती परबतिया सहम गई थी।’

पिछले दस बरसों से जेल काटती परबतिया की वो धोती तार-तार हो चुकी थी, जिसे पहिने वह जेल आयी थी। अकेली परबतिया ही क्यों, सबकी वही कहानी थी। कजरी तो लाल बनारसी साड़ी पहिने जेल आई थी। कैसा दप-दप करता रूप था, जेल आते ही बनारसी साड़ी छीन, पुरानी फटी साड़ी पहिनने को दे दी गई थी। जार-जार रोती कजरी को देख, सबका दिल भर आया था। दिन-रात वही धोती पहिने, काम में खटती औरतों के शरीर पर अब मात्र फटे चिथड़े रह गए थे। ब्लाउज फटे तो बरसों बीत गए, अब तो धोती का टुकड़ा भी बदन ढापने को पर्याप्त नहीं था। जेलर साहब जब आते तो घुटनों में मुंह छिपा, औरतें अपनी लाज छिपा लेतीं थीं। लाख मांग-मनुहार करने पर भी किसके कानों पर जूं रेंगी थी? एक ही जवाब मिलता था, सरकार को महिला कैदियों के लिये धोती भेजने के लिये लिखा गया है, जब आयेगी तभी धोती मिलेगी। पता नहीं सरकार को धोती भेजने में इतना टेम क्यों लगता है। मंतरी जी की आने की खबर से उनमें नया जीवन सा आ गया था। अटेंडेंट बता गई थी -
”कल जेलर साहब के कमरे में मिटिंग हुई है, सब औरतों के लिये धोतियां खरीदी जाएंगी।“

‘अरे बिलाउज, पेटीकोट मिली कि नाहीं?’ सुरमइया चहक उठी थी।

‘सब मिली, तनी धीरज रखो। अरे मंतरी जी के सामने औरतें नंगी जाएंगी तो सरम से सिर न झुक जाई सरकार का?’ अपने अनुभव के आधार पर अटेंडेंट ने सूचना दी थी।

‘तो जेलर साहब से साबुन की बट्टी देने को कह दें, अटेंडेंट जी। नए कपड़ों में बसाता बदन ठीक नहीं है न?’ शीलो गिड़गिड़ाई।

‘ठीक है - ठीक है। आज लीला बहिन जी से सबकी फरियाद कर देइब!’

सबके चेहरे खुशी से चमक रहे थे। वर्षो पहले छोटे-बड़े अपराधों के कारण जेल भेजी गयीं ये औरतें अभिशप्त जीवन बिताने को विवश थीं। शुरू में घरवाले उनकी थोड़ी-बहुत खबर लेने आते रहे पर बाद में वे भुला दी गयी थीं। मुकदमों की तारीखें बढ़ती गई, कभी टलती गई। वैसे भी औरत कोई नायाब चीज तो नहीं, एक गई, ह्ज़ार हाजिर।

कजरी जब जेल गयी थी, हाथ की मेंहदी भी पूरी तरह मैली नहीं पड़ी थी। पति की चाय की दूकान थी। कजरी के ब्याह कर आने से दूकान की आमदनी खूब बढ़ गयी थी। उसके हाथ की चाय पीने दूर-दूर से लोग आया करते थे। घर में न सास, न ससुर, बस एक उसका मरद जूगनू। कजरी की मां ने लड़का देखकर ही कजरी का ब्याह किया था। कजरी को अपना मरद खूब भाया था। गांव में नशा-पानी आम बात थी, पर जुगनू का उससे दूर-दूर का वास्ता नहीं था।

कजरी के आने से घर की काया ही पलट गई थी। दरवाजे पर टाट का परदा लटक गया था। बपौती में मिला जुगनू का मिट्टी का घर कजरी ने लीप-पोत कर चमचमा दिया था। सुबह से ही जुगनू और कजरी दोनों चाय की दूकान चलाते। उस समय बस अड्डे पर खूब भीड़ होती थी। कजरी को देख जब कोई मनचला सीटी बजाता या गीत गाता, तो जुगनू के बदन में आग लग जाती, वो तो कजरी ही थी जो जुगनू को उनसे उलझने न देती।

‘अरे इन बदमाशों का, का ठिकाना, न जाने कब छूरा घोंप दें। तुम हो तो जहान है। अगर हम पर विसवास न हो तब न झगड़ा-टंटा करो।’ कजरी मुस्करा कर जुगनू को घायल कर देती।

मुहल्ले वाले जुगनू का भाग्य सराहते न थकते। खुद कजरी सौ जान जुगनू पर कुर्बान थी। उस रात कजरी ही ने सनीमा जाने की जिद ठानी थी।

‘साथ की सारी औरतें सनीमा जाती हैं, हम भी सहर जाके सनीमा देखी।’

‘देख कजरिया ! तू किसी साथ वाली के साथ सनीमा चली जा, हम दुकान छोड़, नहीं जा सकते।’

‘हमारे खातिर एक टैम भी दुकान नहीं छोड़ सकते तो ठीक है हम नहीं जाइब बस।’ मुंह फुलाकर कजरी बैठ गयी थी।

‘अच्छा भई, तोहार खातिर रात की बेला सनीमा चलब, हिंयां भोला को कह देइब चाय दे देगा। अब तो खुस।’

हंसती कजरी जूगनू की गले में बांहे डाल झूल गई थी। साथ की सहेलियों से सनीमा की ऐसी-ऐसी कहानियां उसने सुनी थी कि सोच कर ही गुदगुदी उठती थी। जुगनू के साथ वो सब देखना कैसा लगेगा?

शादी की लाल बनारसी साड़ी के साथ पूरे जेवर पहिन, कजरी शाम से सनीमा जाने को तैयार खड़ी थी। दस बार अपनी पड़ोसिन सखी रमा के पास जाकर बता आई थी। दिलीप कुमार की ‘नदिया के पार’ देखने जाते समय वह दिलीप कुमार का नाम वह पूरी तरह रट चुकी थी। बार-बार परदे से झांक, जुगनू को जल्दी काम खतम करने की ताकीद करती कजरी, फूली पड़ रही थी। शादी के पहले नौटंकी या तमाशे वाले का सनीमा, कजरी को बहुत भाता था सहर के सनीमा में आदमी-औरत खूब बड़े दिखते हैं, बात करते हैं, गीत गाते हैं, ये बातें उसने सुनी जरूर थीं, पर आज तो वह खुद सनीमा जा रही थी।

ठीक टैम सहर वाली बस में चढ़, कजरी जुगनू के साथ सनीमा पहुंची थी। बाप रे उतनी भीड़ में कहीं जुगनू खो न जाए। जुगनू का हाथ कसकर पकड़े कजरी पसीने-पसीने हो रही थी। जुगनू जब टिकट कटाने जाने लगा तो कजरी भी पीछे-पीछे पहुंची थी। पास खड़ा आदमी हंस पड़ा था -

‘नया-नया बियाह हुआ है? टिकट चाहिये।

जुगनू ने ‘हां’ में सिर हिलाया था।

‘ये लो दो टिकट, सबसे आगे वाली कुर्सी का है। निकालो बीस ठो रूपइया।’

‘बीस रूपइया।’

‘और क्या सबसे आगे वाली सीट का है, समझे। लेना हे तो लो वर्ना किसी और को दे दूंगा।’

‘नहीं-नहीं, टिकट दे दो भइया। इत्ती भीड़ में क्या टिकट मिलेगा।’ जेब से बीस रूपए निकाल, जुगनू ने उस आदमी को थमा दिये।

‘जाव, अब जाके सनीमा का मजा लो भइया।’कजरी पर ललचाई दृष्टि डाल, वह आदमी चला गया था। कजरी सिमट गई थी।

‘ई सहरी आदमी कैसन तो बेसरम होत हैं, पराई औरत को कैसन तो लील रहा था।’

जुगनू हंस पड़ा था।

‘अरी सहर और गांव में फरक तो होई करे, फिर तू चीज ही अइसन है कि सब लोग घूरेंगे।’

सनीमा देखना, मानो सपनों में उड़ान भरना था। नायिका की मौत पर कजरी फूट-फूट कर रो पड़ी थी। जुगनू का हाथ पकड़ जिद कर डाली थी ...................

‘हमें अइसन सनीमा नहीं देखना है, घर चलो।’ बड़ी मुश्किल से पूरा सनीमा देख दोनों बाहर आये थे। बस के लिये लम्बी लाइन लगी थी। कजरी को नींद आ रही थी, भूख लग रही थी सो अलग। धीमे-धीमे लोग कम होते गये, पर गांव जाने वाली बस का कहीं पता ही नहीं था। जुगनू परेशान दिख रहा था। तभी एक काली कार उनके पास आकर रूकी थी-
‘कहां जाना है भाई?’ एक पुरूष ने सिर बाहर निकाल पूछा था।

‘चंदवा गांव जाना है साहब। बस का इंतजार है ................’

‘अरे चंदवा, वो तो पास में ही है न? हां अब तुम्हें गांव के लिये बस नहीं मिलेगी। दस बजे के बाद बस उधर के लिये नहीं चलती ................।’

‘पर हमारे संगी-साथी तो बस से ही जाते हैं।’

‘पहले बस जाती थी, अब बंद कर दी गई है।’

‘हाय दइया, अब का होई?’ कजरी की भोली दृष्टि में डर तैर रहा था।

‘कोई बात नहीं, आओ हम तुम्हें छोड़ देंगे। इतनी रात जवान औरत के साथ यहां खडे़ होने में खतरा है।’

‘पर साहब ....................’

‘अब देर न करो, हम उधर ही जा रहे हैं। पुरूष ने पीछे का द्वार खोल दिया था।’

कजरी और जुगनू पीछे बैठ गए थे। कार तेजी से दौड़ चली थी। धीमे-धीमे कजरी का डर और संकोच दूर होता गया था। वह कौतुक से कार के बाहर देख रही थी। काफ़ी दूर जाने पर कार ने जंगल का रास्ता पकड़ा था। जुगनू चौंक गया  ....................

‘साहब जी, ये कौन सा रास्ता है? चंदवा तो दांये हाथ है, सरकार।’

‘मुझे थोड़ा काम है, पूरा करके चलते हैं।’

जुगनू शंकित होकर भी चुप बैठने को विवश था, जंगल के बीच कार रोक, उस पुरूष ने पीछे आकर कार का दरवाजा खोला था।

‘एई तुम यहां उतर जाओ। इसे हम ठीक जगह पहुंचा देंगे।’ जुगनू का हाथ पकड़, उस आदमी ने उसे कार से उतारने का प्रयास किया था।

‘नहीं ......ई .... हमका छोड़ के ना जाई ........’ जुगनू को कस के पकड़ कजरी रो पड़ी थी।

झटके से जुगनू को हाथ से खींच उस पुरूष ने उसे कार से बाहर निकाल खड़ा किया। कार का दरवाजा जोरों से बंद कर पुरूष ने जैसे ही कार में बैठने की कोशिश की, जुगनू ने पीछे से आक्रमण कर दिया था। दोनों की मारपीट देख कजरी सहम कर सीट में दुबक गयी थी। अचानक कमर के फेंटे से छुरी निकाल, जुगनू ने पुरूष पर अंधाधुंध वार कर दिए। दर्द से छटपटाता पुरूष धरती पर गिर तड़प रहा था, जुगनू के बलिष्ट हाथों के गहरे घावों से खून रिस रहा था।

कजरी का हाथ पकडे़, दोनों बेतहाशा दौड़ पड़े । पीछे से पुलिस साइरन की आवाज के साथ कुत्तों का भौंकना सुन, जुगनू सचेत हुआ था। इसी जंगल में न जाने कितने मानुस मार गिराए गए थे, तब से रात का पहरा लगने लगा था ........... अब बचने की उम्मीद बेकार थी।
‘सुन कजरिया, अगर पुलिस-थाना पकड़ ले तो कह दीजो - ऊ मरद तोहार इज्जत लूटत रहा, एही खातिर तू उसका मार दी। ले ई छुरी अपन पास रख ले, इसी से तू मारी थी। समझ गई ना ?’ जुगनू फुसफुसाया था।

‘ना .... हम ई ना की ......’ कजरी रो रही थी।

‘अगर तू ना कही तो हमका फांसी लग जाई। तू मेहरारू ठहरी, एही कारन दया करके तोहका थाना-पुलिस छोड़ देही ........... हमार विसवास कर तोहका कुछ न होई, पर हम फांसी चढ़ जाई।’

‘नाहीं तोहका फांसी न होई ...... हम कह देई, ओका हम मारी है........... ’ कजरी रो रही थी।

‘हां ! बस एही बात कहती जाना, तो ऊ लोग हमार कुछ न बिगाड़ पाई ................’

भौंकते कुत्ते पास आते लग रहे थे। पुलिस-जीप शायद वहीं रूकी थी, जहां जुगनू ने आदमी को मार गिराया था। थोड़ी ही देर में पुलिस जीप की तेज लाइट में खड़े, दोनों कांप रहे थे। भारी बूट पहिने इंस्पेक्टर उतरा था -

‘कौन हो तुम लोग ? यहां क्या कर रहे हो?’

‘सरकार ! जंगल में रास्ता भुला गये .............. सनीमा देख लौटत हैं।’ जुगनू का झूठ लड़खड़ा गया था।

‘हमसे झूठ बोलता है साल्ले। औरत से धंधा कराता है। आदमी का माल लूट, उसे मार कर भागा जा रहा था- अब फांसी चढे़गा तो पता लगेगा। जुगनू को जोरदार थप्पड़ मार, इंस्पेक्टर दहाड़ा था।’

‘नही सरकार ! हम नहीं मारी, हम कोई लूट नहीं किया ..........।’ जुगनू रो पड़ा था।

पीछे से दौड़ कर आता कांस्टेबल इंस्पेक्टर के कान में फुसफुसाया था - ‘जिंदा है, सांस चल रही है, सर।’

बात सुनते ही जुगनू को बेंत से मारता इंस्पेक्टर चिल्लाया था -

‘जिसे मार तू भागा है, वह मर गया, अब फांसी पर चढ़ने को तैयार हो जा। रामसिंह, इन्हें थाने पहुँचाओ और लाश अस्पताल भेज देना।

सिपाही को निर्देश दे इंस्पेक्टर जीप में बैठ चला गया। कजरी को देख सिपाही मुस्कराया था -

‘कहां से मार लाया रे, बड़ी जालिम छोकरी है।’

जुगनू कसमसा के रह गया , कजरी जुगनू से चिपक गयी थी।

कजरी थर-थर कांप रही थी, जुगनू ने हाथ जोड़ पूरी कहानी बता दी , कजरी ने अपनी इज्जत बचाए खातिर ओकर खून कर दिया।’

‘वाह रे मरद ! तू खड़ा तमाशा देखता रहा और तेरी जोरू ने उसे मार गिराया। सच बता क्या हुआ था?

सच्ची हुजुर, हमका तो ऊ जालिम ने सिर पर हैंडल मारा, हम उधर बेहोस पड़ गए थे। जब होस आया तो मरा पड़ा था ........ कह कजरिया, एही सच्ची बात है कि नहीं?’

डरती कांपती कजरी ने सिर हिला ‘हां’ कर दी थी।

‘ठीक है, अब इसी पे मुकदमा चलेगा, इसे थाने रहना होगा। इंस्पेक्टर ने जुगनू को अगले दिन आने को कह, कजरी को लॉक-अप में रखने के निर्देश दे दिये । रो-रोकर कजरी का बुरा हाल था, जुगनू ने प्यार से तसल्ली दी थी -’

तू डरना नहीं,कजरिया। हम भोरे ही आ जाइब। हिंआ इंसपेक्टर साहिब हैं, ऊ देउता आदमी ठहरे, कौनू डर नाही है, कजरिया ...........’

उस रात इंसपेक्टर और सिपाहियों ने कजरी की पूरी देखभाल की थी। कजरी की चीखों को मुंह में कपड़ा ठूंस बंद कर दिया गया था। सुबह तक अर्द्ध-मूर्छित कजरी के बदन पर जेवरों की जगह खरोचें और घाव रह गए थे। सुबह जुगनू जब आया तो इंसपेक्टर ने घुड़की दे भगा दिया -

‘देख साल्ले, हमें तेरी सच्ची कहानी पता है। अब अपनी सलामती चाहता है तो भाग जा, फिर कभी इधर मुंह किया तो फांसी पर चढ़ जाएगा।’

‘पर ........ पर ............ वो हमारी जोरू है, साहिब।’

‘अरे बड़ा आया जोरू वाला। उसे भूल जा और दूसरी जोरू रख मजा कर। तेरे यहां औरतों की कमी है क्या रे? आंखों से गंदा इशारा कर इंसपेक्टर ने सिगरेट मुंह से लगा ली थी। जुगनू को हिचकते देख इंसपेक्टर ने घुड़का था -

‘अब जाता है या फांसी पर चढे़गा। भूलकर भी इधर आया तो पकड़ा जाएगा।’

जुगनू लौट गया था। उसके बाद न जाने कितनी रातें निर्वस्त्र कजरी ने एक काल-कोठरी में काटी थीं। ताज्जुब यही कि उन दरिन्दों के पाशविक अत्याचार झेलने के बाद भी वह जिन्दा रह गई थी। अचानक एस0पी0के आने की बात पर थाने में हल्ला मच गया था। कजरी के विरूद्ध अवैध धंधा करने का आरोप लगाया था।

उसी रात की लाल साड़ी में उसे थाने में पेश किया गया था। हर बात के जवाब में उसे बस ‘हां’ कहना है। ये बात अच्छी तरह समझा दी गई थी।

अपराध स्वीकार करने के बाद कजरी को जेल की सलाखों के पीछे कर दिया गया था। इंसपेक्टर ने उसे बताया था, औरत होने का फायदा उसे दिया गया है, वर्ना खून के जुर्म में तो फांसी दी जाती है।

जेल का अनुभव कम भयावह नहीं था। उसकी लाल साड़ी जबरन छीन ली गई थी। बदरंग पुरानी सूती धोती पहिने कजरी जार-जार रो रही थी। जेल में रहने वाली औरतों की हालत देख, कजरी सहम गई थी। बालों की जटें बन चुकी थीं। कपड़ों के नाम पर फटे चिथड़ों में लिपटी औरतें, इन्सान कम जंगली जानवर ज्यादा लगी थीं। कजरी पर सब टूट पड़ी थीं वार्डेन ने घुड़की दे, धमका कर उसे बचाया था। अगर वार्डेन न होती तो कजरी की धोती की धज्जियां उड़ा दी जातीं। पिछली कैदी की वही स्थिति हुई थी। उन निर्वस्त्र महिला कैदियों के बीच, वस्त्रधारी कैदी महिला अजनबी सी लगती। सबकी अलग कहानियां थीं, पर एक बात कॉमन थी - वे सब औरतें थी और अपने औरत होने की सजा भुगत रही थीं।

जेल में परबतिया ने कजरी को बहुत सहारा दिया था। जब पहली बार कजरी को वार्डेन ने अच्छी साड़ी-ब्लाअज दे, समझाया था कि उसे बाहर जाना है, तो वह खुश हो गई थी, वापिस लौटी कजरी परबतिया से लिपट फूट पड़ी थी, पीठ पर पड़े नीले निशान, अत्याचार की कहानी बता रहे थे। परबतिया ने प्यार से समझाया था - अगर उसने वार्डेन का कहा न माना तो ऐसी दरिंदगी का सामना करना पड़ेगा, जिसे कजरी सोच भी नहीं सकती। सच तो ये था कुछ औरतें बाहर जाने को बेचैन रहतीं। कुछ देर मौज-मस्ती से वे तरोताजा दिखतीं। उनकी गंदी बातें सुन कजरी घृणा से भर उठती।

‘तू काहे खून जलाए है। अरे इनका गंदा खून जो न कराए थोड़ा है।’ परबतिया समझाती।

एक साबुन बट्टी, एक बीड़ी या ऐसी ही छोटी चीजों के लिये उनका शोषण होता पर वे उससे अनजान छोटी सी चीज पा लेने पर गीत गातीं।

जेल में रहते कजरी काफी-कुछ समझ चुकी थी। अन्याय के विरोध में अक्सर उसकी जेल-अधिकारियों से कहा-सुनी हो जाती। उसे लगता काश ये साहस उसमें तब आया होता, जब वह मां बनने वाली थीं बाहर भेजे जाने के क्रम में जब उसे पता लगा उसकी कोख में कोई जीव पनप रहा है तो खुशी की उमंग आयी थी, कोई तो बस उसका अपना होगा, पर बात पता लगते ही उसकी कोख उजाड़ दी गई थी। कितना रोई-छटपटाई थी पर किस पर असर हुआ था?

शुरू-शुरू में कजरी टकटकी लगा जेल की सलाखों के बाहर ताकती रहती, जुगनू आएगा, उसे यहां से ले जाएगा। धीमे-धीमें सच्चाई स्वीकार करनी ही पड़ी थी। इस जेल में आने वालियों की कुछ दिनों तक घरवालों ने खोज-खबर ली, बाद में उनका आना-जाना कम होते-होते बंद ही हो गया। उनके मुकदमों की तारीखें डलवाने में किसी का कोई आग्रह नहीं था। जेल-अधिकारियों की दलील भी कहीं सही थी। सात-आठ की जगह पचास-साठ औरतें होगी तो उनकी व्यवस्था कैसे की जाए? उन्हें कहां भेजा जाए?

मुनिया के मुकदमें की तारीख दस साल से नहीं पड़ी है। जमना, कमला, शीला, हरदेई सब यहीं आठ-दस सालों से पड़ी हैं, पर उनके मुकदमों की तारीखें नहीं पड़ी। अब तो उनमें से ज्यादातर औरतें अपने घर परिवार को भूल चुकी थीं। शुरू में सब कुछ कजरी को भुला पाना कितना कठिन लगा था, बार-बार आंखें भर आतीं। जुगनू न सही मां तो आती और दूसरा तो उका कोई था ही नहीं। तभी गांव का किशना दिख गया था। कुछ दिनों के लिये उसे जेल में चाय देने का आर्डर मिला था। किशना ने जो बताया, कजरी के पांव के नीचे से धरती ही खिसक गई। जुगनू ने दूसरी शादी बना ली थी, अब उसका एक छोटा सा ढाबा भी चल रहा था। उसने सबको यही बताया था कि कजरी कहीं सहर में खो गई। कजरी की विधवा मां, बेटी की याद में रो-रो कर प्राण त्याग चुकी थी।

उस दिन कजरी को लगा था, काश उसे दो दिन के लिये छोड़ दिया जाए तो उस आदमी को अपने हाथ से फांसी चढ़ा आए। जिसको फांसी-चढ़ने से बचाने के लिये वह हर पल मरती रही है। मिठबोली कजरी का रूखा स्वर कानों में खटकता था, ऐसा लगता था उसे किसी का मोह नहीं, पर जब गिन्नी टूट कर उसकी गोद में आ गिरी थी तो उसके साथ कजरी भी धार-धार रोई थी। उसकी कहानी में कजरी ने अपनी कहानी पढ़ी थी। वही उमर, वही सलोना चेहरा। एक दिन गुस्से में सौत पर टूट पड़ी थी गिन्नी। गिन्नी को उसके पति से अलग करा देने की कोशिश में उसकी सौत ने क्या-क्या प्रपंच नहीं किये थे ? गिन्नी के पति के साथ खुल्लम-खुल्ला रास रचाती सौत ने गिन्नी को पति के पास फटकने भी नही दिया था। जो भी हो, गिन्नी को कम से कम इतना संतोष तो था कि उसने अन्याय का बदला ले लिया, पर कजरी को तो वो संतोष भी नहीं।

जेल अधिकारी कजरी से अंदर ही अंदर डरते थे। बेखौफ जो जी में आता, सबके सामने वह कह अपनी भड़ास निकाल डालती। पिछली बार जब कुछ समाज-सेविकाएं उनकी दशा देखने आयीं थीं, उस दिन भी उन्हें नई धोती-बिलाउज दिया गया था, कजरी ने साफ कह दिया था, उन्हें दिखाने के लिये ये कपड़े उधार दिये गए हैं, रात में फिर सब नंगी कर दी जाएगीं। उस रात उसकी बेंतों से पिटाई की गई थी पर कजरी जो झेल चुकी थी उसके बाद उसके बदन पर जैसे बेंतों का असर ही नहीं होता था।

सुबह-सुबह वार्डेन कपड़ों के गट्ठर के साथ आ गई थीं। बड़े प्यार से कैदी स्त्रियों को बुलाकर समझाया था-

देखों, आज मंत्री जी तुमसे मिलने आ रहे हैं। तुम सब नहा-धोकर ये कपड़े पहिन कर तैयार रहना।

हमें उनसे क्या कहना है ये भी बता दीजिये दीदी शरबती ने उन्हें खुश करना चाहा था।

हां, उनसे कहना। तुम यहां खूब खुश हो। तुम्हें अच्छा खाना-कपड़ा मिलता है। बीमार होने पर इलाज होता है - दवा मिलती है।

और बिना दवा मर जाने पर हीरा की लाश की तरह घासलेट डालकर जला दिया जाता है, ठीक है न दीदी? कजरी का कड़वा स्वर सुन वार्डेन तमतमा आई थी।

देख कजरिया, आज अपना मुंह बंद रखेगी वर्ना याद रख पिछली बार की तरह तेरा बुरा हाल किया जाएगा।  तूने बहिन जी लोगों से जो उल्टी सीधी कह दी थी, उसी की वजह से मंत्री जी को आना पड़ रहा है। अगर आज कुछ गड़बड़ की तो भगवान ही जाने तेरा क्या हाल होगा ?

वार्डेन की घुड़की पर कजरी हंस दी थी। शंकित वार्डेन चली गई थी।

सारी औरतें नल पर पहुंच गई थीं। नहा लेने की जल्दी में वे आपस में लड़ाई-झगड़ा, गाली-गालौज कर रही थीं। थोड़ी सी देर की खुशी भी उन्हें पुराने अच्छे दिन याद करा देती थी, बस कुछ देर को नई धोती-कपड़े पहिन, वे बीत गए पलों को जी लेती थीं। नए कपड़े पहिन अपने चेहरे को शीशे तके निहारने को वे बेताब थीं। न जाने कहां से टूटे शीशे का एक टुकड़ा बतसिया उठा लाई थी, अपने को निहारने की जल्दी में शीशे के टुकड़े की छीना झपटी में न जाने कितनों के हाथ घायल हो गए थे। कजरी अपनी जगह से नहीं उठी थी। ऊपर पूर्णतया निर्वस्त्र कजरी, नीचे धोती का छोटा सा फटा टुकड़ा लपेटे थी।

मंत्री जी की जय-जयकार करते, मंत्री जी के साथ जेल के सारे अधिकारी, पुलिस वाले महिला कैदियों से मिलने आ गए थे। सारी कैदी स्त्रियों ने बड़े अदब से मंत्री जी को प्रणाम किया । मंत्री जी ने पूछा
आप लोगों को यहां तकलीफ तो नहीं है ?

नहीं, हम बहुत खुश हैं, सरकार। मंतरी जी की जय। शरबती ने हाथ जोड़ जवाब दिया था।

हां-हां, हमें कोई तकलीफ नहीं है, मंतरी जी। ये देखो हमारे कपड़े कितने अच्छे हैं। अच्छे हैं न मंतरी जी ? कमर में लिपटा चिथड़ा हवा में उड़ाती निर्वस्त्र कजरी हुंकार रही थी।

"अरी ओ करमजलियों, मंतरी जी को काहे नहीं बताती, तू लोग उधार का कपड़ा पहिने हो। मंतरी जी के जाते ही तू सब नंगी कर दी जाब-।"

मंत्री जी ने आंखे नीची कर ली थीं। दो सिपाहियों ने लपक कर कजरी को अपने कब्जे में कर लिया, पर वह चीखती जा रही थी-

मंतरी जी हम सबको किसी चकले में भिजवा दें। वहां भरपेट खाना, तन ढापने को कपड़ा तो मिली- मंतरी जी हम सब बिना दवा मर जइहें। हमका कपड़ा-दवा चाही मंतरी जी। सरकार से कहें, हिंआ जेल में औरतन को तन ढापे का कपड़ा नहीं है। हम बिन दवा-दारू लावारिस मौत नहीं चाहीं - मंतरी-जी-ई-

सिपाही ने कजरी पर डंडे वरसाने शुरू कर दिये थे, पर वह गुहार करती जा रही थी।

ये सब क्या है ? मंत्री जी ने जेलर की ओर देख पूछा था।

सर ! ये पागल औरत है। इसके पहले भी दो-चार बार ऐसे दौरे पड़ चुके हैं। जब यहां सोशल-सर्विस संस्था की लेडीज आई थीं, तब भी इसने ऐसा ही बिहेव किया था। शायद बाहर वालों को देख इसे दौरे पड़ जाते है, वर्ना ये नार्मल रहती है, सर। जेलर ने सफाई दी थी।

जी हां, जेलर साहब बिल्कुल ठीक कह रहे हैं, वो देखिये इसके कपड़े वहां पड़े हैं, आप ही सोचें सर, भला कोई सामान्य औरत अपने पूरे कपड़े उतार कर सबके सामने आ सकती है। क्यों परबतिया, पहले भी इसे ऐसे दौरे पड़ते रहे हैं न ? वार्डेन ने इशारे से परबतिया को धमकाया था।

जी सरकार, वार्डेन दीदी ठीक कहीं हैं। हामी भर परबतिया ने सिर झुका लिया था।

ठीक है। ऐसा कीजिये, इस औरत को फौरन पागल खाने में भर्ती करा दीजिए। पूरी तरह ठीक होने तक इसे वहीं रखा जाए।

जी सर। जेलर ने सिर झुका आदेश स्वीकार किया था।

मंत्री जी के साथ पूरा काफिला वापस लौट चला था। पिच्च से जमीन पर थूक, कजरी ने मानो अपना बदला ले लिया था।