12/4/09

क्षति-पूर्ति

”देख लेना, गीता तो पहले ही मनमानी कर हमारी नाक कटा चुकी, अब नीता की बारी है। दोनों लड़कियाँ हमें मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ेंगी।“ आखिरी बात कहते-कहते मम्मी का गला भर आया था।


हमेशा की तरह पापा मुंह नीचा किये मम्मी की बात सुनते रहे। जीवन के बाईस बरस उन्होंने मम्मी के आक्षेप सुनते ही काटे हैं। विदेश में पापा ने उनके लिए सारी सुख-सुविधाएँ जुटा दीं, पर मम्मी अपने निर्वासन का रोना ही रोती रहीं। कभी दोनों बेटियों ने मिलकर मम्मी को समझाना चाहा, तो वह बिसूरना शुरू कर देतीं-

”तुम लोग क्या जानो, अकेलापन तो मुझे डसता है। तुम सबकी अपनी-अपनी दुनिया है। रह गयी मैं अकेली, तो तुम्हें मेरे मरने-जीने से क्या?“

”पर मम्मी, ये अकेलापन तो आपका अपना ही ओढ़ा हुआ है न! यहाँ ढेर सारी आंटी लोग भी तो भारत से आयी थीं, उन्होंने अपने को कितनी अच्छी तरह एडजस्ट कर लिया है। आप भी क्यों नहीं उनकी तरह...“

गीता की बात काट, मम्मी नाराज हो उठती,
”रहने दे और आंटियों की बात। अगर उनकी तरह किटी- पार्टियों में जाकर मजे उड़ाती, तो आज तुम दोनों अनाथ की तरह पलतीं।“

”अच्छा होता, उनकी तरह हम भी खुली हवा में साँस तो ले पाते। क्या कमी है उनकी जिंदगी में? शैली, सोनिया, मोनिका सब कितनी खुश रहती है! यहाँ हमारे घर में हर समय पटना-पुराण ही चलता रहता है।“

”छिः बेटी, ऐसी बात नहीं करते।“  पापा धीमी आवाज में गीता का आक्रोश शांत करना चाहते।

”तुम रहने दो जी, तुम्हारी ही शह पर ये लड़कियाँ इतनी उद्दंड हो गयी है। अगर मेरे यहाँ रहने से सबको तकलीफ होती है तो मुझे पटना भेज दो। वहाँ मेरे भाई-भतीजे हैं,  सुख से रहूँगी-सिर-आँखों लेंगे सब।“

”भाई-भतीजे तुम्हारी गिफ्ट्स के कारण तुम्हें मान देते हैं वर्ना...........“ गीता की बात अधूरी रह जाती।

”क्या कहा,  वे लालची हैं? मेरे उपहारों के भूखे हैं? जानती नहीं बड़े भइया का वहाँ कितना बड़ा कारोबार है। तेरे पापा जैसे दस इंजीनियर उनके पाँव तले पड़े रहते हैं।“

”बस करो मम्मी,  तुम तो हद कर देती हो। पापा जैसे जीनियस इंजीनियर को मामा पाँव तले रखकर तो दिखायें......“ छोटी बेटी नीता तमक उठती।

इतना सब सुनने के बावजूद भी पापा का निःशब्द बाहर चले जाना दोनों बेटियों को खल जाता था। यहाँ का ऐश्वर्यपूर्ण जीवन क्या भारत में सहज ही पाया जा सकता था! खुद मम्मी बताती हैं, पापा को वहाँ बस ढाई सौ रूपयों की नौकरी मिली थी। मारीशस के विकास में सड़कों, घरों आदि के निर्माण के लिए इंजीनियरों की जरूरत थी। पापा को यहाँ न केवल अच्छी नौकरी मिली,  बल्कि अपने काम से उन्हें बहुत नाम भी मिला। आज पापा को देश में हर जगह जाना जाता है,  पर मम्मी आज बाईस वर्षो बाद भी अपनी जगह- जमीन से ही जुड़ी रह गयी हैं। यह देश उन्हें हमेशा बेगाना लगता है। पापा से झगड़ा करने के लिए मम्मी को रोज कोई बहाना चाहिए।

”आज ड्राईवर नहीं आया,  मैं मार्केट तक नहीं जा पायी।“

”तुम फोन कर देतीं तो मैं आ जाता,“ दबे स्वर में कही गयी पापा की बात मम्मी को और उत्तेजित कर देती।

”हाँ-हाँ, मेरे लिए तो आपके पास वक्त ही वक्त है। जब मर रही थी, तब तो एक दिन घर पर रूके नहीं, अब खरीददारी कराएँगे। इतना ही ख्याल था, तो क्यों यहां लाकर डाल दिया। न जाने क्या पाप किये थे, जो काले-पानी की सजा भुगत रही हूँ।“

हर बात घूम-फिरकर उसी प्वांइट पर आ जाती। कभी उनकी बीमारी में पापा को आँफिस जाना पड़ गया था,  मम्मी उस बात का जब-तब हवाला दे, पापा को दुखी करती रही हैं। न जाने क्यों, वर्षो बाद भी मम्मी अपने को यहाँ अजनबी बनाये हुए हैं। यहाँ पहुंचने पर पापा ने उन्हें कार चलाना सिखाना चाहा था,  ताकि वह कहीं भी आ-जा सके। स्कूल में उन्हें आसानी से नौकरी मिल रही थी,  पर मम्मी ने तो हर उस काम को न करने की कसम खा रखी थी,  जिससे पापा को थोड़ी-सी खुशी मिल पाती। काँलेज में एन.सी.सीस की कैडेट मम्मी ने यहाँ पहुँचते ही अपने को एकदम समेट-सिकोड़ लिया था। घर की सबसे छोटी लाड़ली बेटी मम्मी, श्वसुर-गृह की जिम्मेदार बहू नहीं बन सकीं।

पति और बच्चों के भरे-पूरे घर में भी मम्मी अपना पटना का घर ही खोजती रहीं। इस देश को उन्होंने कभी अपना नहीं माना। कभी तो लगता उन्हें बेटियों से भी वैसा लगाव नहीं रहा, शायद इसलिए कि वे मारीशस में जन्मी थीं।

गीता ने जब घर में राहुल से अपनी शादी की घोषणा की,  तो मम्मी कई पल अवाक् ताकती रह गयी थीं। अंततः उनके अपने रक्त ने ही उन्हें धोखा दिया। विदेशी युवक से विवाह करेगी, उनकी अपनी बेटी....?

”राहुल विदेशी कैसे हुआ मम्मी?  उसका ओरिजिन तो भारतीय ही है। उसके परदादा तुम्हारे पटना के ही किसी गाँव से यहाँ आये थे, समझीं!“ अपनी बात सपाट शब्दों में रख,  गीता अपने निर्णय पर अडिग रही थी।

”अरे बॅंधुआ मजदूर थे उसके परदादा, उसे हमारी बराबरी मे ला रही है तू?“

”तुम्हारी बराबरी में नहीं,  उन्हें मैं तुमसे बहुत ऊपर रखती हूँ, मम्मी! वह विजेता थे, अन्याय का प्रतिकार कर उन्होंने विजय पायी थी।“

मम्मी बेहोश हो गयी थीं, पापा मम्मी के मुंह पर पानी के छीटे डाल रहे थे।

”रहने दीजिए पापा, कुछ देर तो घर में शांति रहेगी।“ गीता ने क्षुब्ध स्वर में कहा था।

”छिः बेटी,  ऐसे नहीं कहते, वह तुम्हारी माँ है।“

”बस, इसीलिए उन्हें किसी का अपमान करने का अधिकार नहीं है, पापा!  खासकर मेरे पति-गृह के किसी भी व्यक्ति के विरूद्ध अगर उन्होंने कभी कुछ कहा, तो मेरा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा।“

”ये बात तूने कहाँ से, किससे सीखी, गीता?“ बेटी के वाक्यों ने उन्हें विस्मित कर दिया था।

”क्यों पापा, आपको ताज्जुब हो रहा है? ये बातें तो हर भारतीय लड़की घुट्टी में पीकर बड़ी होती है न?“

”पर तूने.... मेरा मतलब तुझे ये घुट्टी किसने पिलायी है, बेटी?“

चाहकर भी पापा स्पष्ट शब्दों में अपनी बात नहीं पूछ पा रहे थे। शादी के बाद से अपनी धन-संपत्ति का बखान करती मम्मी से,  सरस्वती के धनी पापा के कितने व्यंग्य-वाक्य सुनने पड़ते थे! पापा को धन का कभी मोह नहीं रहा,  पर मम्मी के तानों से तंग आकर ही शायद उन्होंने विदेश में नौकरी का निर्णय लिया था। पापा के इस निर्णय को भी मम्मी ने अपने निर्वासन की सजा कह नकार दिया था।

”अगर इनमें काबलियत थी, तो क्या भारत में अवसरों की कमी थी? यहाँ अनपढ़ मजदूरों के देश में अंधों में राजा बने बैठे हैं।“

कुछ देर शांत बैठे पापा ने गीता के सिर पर हाथ धर,  धीमे शब्दों में कहा था,
 ”आज अभी तूने जो कुछ कहा,   उसे मत भुलाना, गीता। भगवान तुझे सुखी रखे।“

गीता की शादी में मम्मी ने बेहद रोना-धोना मचाया, पर पापा ने शांत रह उनका हर प्रतिरोध व्यर्थ कर दिया। पूरे विवाह समारोह में मम्मी की नकारात्मक भूमिका को पापा अकेले झेलते गये। विदा के समय गीता पापा के सीने से चिपट बिलख उठी थी-

”पापा, अपना ख्याल रखिएगा। जब जी चाहे हमारे पास चले आइएगा।“

”ठीक है बेटी...... तू चिंता मत कर।“

”तुम परेशान न हो दीदी, पापा को देखने के लिए मैं जो हूँ।“ नीता की उस बात ने गीता को सहारा दिया या नहीं, पर मम्मी का क्रोध चरम सीमा को छू गया था।

”हाँ-हाँ, मैं तो जीते जी सबके लिए मर गयी हूँ न। जो जिसके जी में आये करो।“

गीता के चले जाने से घर में और ज्यादा सन्नाटा घिर आया था। वक्त-बेवक्त गीता को याद करती मम्मी उस घड़ी को कोसतीं, जब उनकी कोख से उस करमजली ने जन्म लिया था-

”पढ़ने जाने के बहाने स्कूल में रास रचा रही थी, कमबख्त।“

आज नीता के साथ राज को आते देख मम्मी का क्रोध उबल पड़ा था।

”देख नीता, एक बहन तो हमारे मुंह पर कालिख पोत गयी, अब तेरे ये ढंग नहीं चलेंगे, समझीं?“

”वाह, गीता दीदी-सा भाग्य मेरा कहाँ? दीदी तो राज कर रही हैं। सच, क्या ठाठ हैं उनके!  जीजाजी बेचारे उनका मुंह ही देखते रहते हैं।“

”अगर तूने भी वैसा ही करने की ठानी है तो मैं कहे देती हूँ मैं जहर खा लूंगी,  बाद में बैठी रोती रहना।“

”तुम तो मम्मी बात-बेबात शोर मचाये रहती हो। अगर राज मेरे साथ यहाँ तक आ गया,  तो क्या हुआ? आखिर हम दोनों साथ पढ़ते हैं।“

”हाँ-हाँ, मैं जानती हूँ,  गीता को भी तो वह घर छोड़ने ही आता था ना!  हे भगवान, इससे तो अच्छा मुझे मौत दे दे!“

उन्हीं दिनों पापा को माइल्ड हार्ट अटैक पड़ चुका था। मम्मी का रोना-झींकना बदस्तूर जारी था। मम्मी के चीखने-चिल्लाने से पापा विचलित हो उठते।

”ठीक है मम्मी, एक स्टाम्प पेपर पर वसीयत किये देती हूँ,  तुम्हारी इच्छा के विरूद्ध कुछ नहीं करूँगी। जहाँ जिससे कहोगी, उसी से विवाह करूँगी,  बस!“

”सच, तू मेरे मनपसंद लड़के से विवाह करेगी,  मेरी बात मानेगी?“

”हाँ-कह जो दिया, पर एक शर्त है,  आज से पापा से लड़ाई नहीं करोगी,  उन्हें ताने नहीं दोगी वर्ना.........“

”ठीक है, कुछ नहीं कहूँगी,  बस। अब देखना मैं कैसा सुंदर सजीला दामाद लाती हूँ।“

उस दिन से मम्मी का मूड ही बदल गया। फोन पर अपने बड़े भइया से नीता के लिए लड़का खोजने की बात मम्मी बार-बार दोहरातीं-

”हाँ-हाँ, सात-आठ लाख तक तो हम खर्च करेंगे ही,  आखिर अच्छा घर-वर मुफ्त में तो नहीं मिलता। मेरी ही शादी में उस समय तुमने चार-पाँच लाख से क्या कम खर्च किये थे, भइया!“

”देखो मम्मी, अगर तुमने मेरी शादी के लिए दूल्हा खरीदने की कोशिश की तो मैं शादी नहीं करूँगी। पापा का पैसा मिट्टी में बहाने के लिए नहीं है।“

”अरे वाह, तू हमारे रीति-रिवाज क्या जाने!  हमें जो करना है,  करेंगे। बिना दहेज वही लड़की ससुराल जाती है जिसके माँ-बाप कंगाल हों। हमें किस बात की कमी है!“

अंततः मम्मी ने पटना से एक राजकुमार खोज निकाला था। अभी-अभी मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर निकला राजेश सचमुच बेहद शालीन और सुंदर था। उसे देख नीता भी ‘न’ नहीं कर सकी थी।

मम्मी ने स्वप्न देखने शुरू कर दिये थे। नीता के पटना रहने से उनका भारत से टूटा संपर्क जुड़ने जा रहा था। राजेश को पटना में क्लीनिक खोलने के लिए मम्मी ने चुपचाप कितनी रकम दी,  पापा भी नहीं जान सके। बड़े भइया को मारूति कार और सारे घर को सामान खरीदने की जिम्मेदारी दे, मम्मी उत्साह से भर उठी थीं।

उनका खिला मुंह,  हॅंसी-मजाक देख पापा और नीता भी उत्साहित हो उठे थे। सचमुच अपनी जमीन से कट जाना मम्मी की त्रासदी थी। भाई-भतीजों के बीच हॅंसती-खिलखिलाती मम्मी,  सब पर अपना प्यार बरसाती परितृप्त दिखती थीं। उनका यह रूप नीता के लिए सर्वथा नया था। मम्मी के मोहल्ले-टोले की पोपले मुंहवाली उनकी चाची-ताई, उन्हें सीने से लगा धार-धार रो उठी थीं,
”वहाँ जाकर हमें एकदम बिसरा दिया, बिटिया?“

उनके कंधे पर सिर धर, मम्मी जी भर रोयी थीं। अपनी पुरानी सखी-सहेलियों को पा, मम्मी अपने बीते वर्ष फलाँग, बच्ची बन गयी थीं। मम्मी ने तो अब हल्के स्वर में पापा से भारत- वापसी की बातें भी शुरू कर दी थीं-

”देखो जी, बहुत दिन काले पानी की सजा भुगत ली,  अब नीता की शादी निबटा हम अपने घर वापस आ जाएँगे। हम दोनों को और क्या चाहिए?“

भारत इतना सुंदर है, इस बार ही नीता जान सकी। मामा-चाचा के घर, सब बेहद अपनेपन से मिले। नीता की शादी के लिए सब मम्मी-पापा की तरह ही उत्साहित थे। परिवार की स्त्रियों ने नीता को दो दिने पहले पीली साड़ी पहना हल्दी-तेल की रस्म शुरू कर दी थी। पूरी रात ढोलक पर गाये जाने वाले गीत नीता के मन को गुदगुदा जाते। गीता दीदी की शादी में वो सब उत्साह कहाँ था! कितनी सूनी थी वह शादी!

पपा ने शादी के लिए जब होटल लेने की बात कही, तो बड़े मामा नाराज हो उठे थे,
”ये क्या कह रहे हैं! क्या नीता हमारी बेटी नहीं? इतना बड़ा घर रहते होटल की क्या दरकार है?“

मामा-चाचा ने शादी का पूरा इंतजाम अपने हाथ में ले,  पापा को चिंता-मुक्त कर दिया था।

धूमधाम से नीता का विवाह हुआ था। श्वसुर-गृह से कोई माँग न रहने पर भी मम्मी-पापा ने दहेज जी खोलकर दिया था।

हनीमून के लिए राजेश ने प्रस्ताव रखा था,
”हम मारीशस ही क्यों न चलें?  वहां के सी-बीच देखने की बरसों से तमन्ना थी।“

”उहूँक, हमें नहीं जाना है मारीशस- हम वहाँ नया क्या देखेंगे?  तुम्हें भी तो हजार बार जाना ही होगा, हमें लाने-पहुँचाने। ठीक कहा न?“ नीता ने मचल कर कहा था।

”आपका हुक्म सिर-आँखों। चलिए शिमला चलते हैं, पहाड़ तो आपको नये लगेंगे न!“

खुशी और उमंग में एक महीना कब बीत गया, पता ही नहीं चला। श्वसुर-गृह में नीता सबकी दुलारी बहूरानी थी। घर के सारे सदस्य उसकी छोटी-से-छोटी जरूरतों के प्रति सजग थे। एक दिन हल्का बुखार आने पर सब परेशान हो उठे थे। सास उसके पलंग के पास से नहीं हटी थीं। माथे पर उनका प्यार-भरा हाथ नीता को कितनी शांति दे रहा था!

बीमारी में नीता को मारीशस याद आया था। वहाँ सबका जीवन कितना व्यस्त है! रिश्तों में भी औपचारिकता का निर्वाह भर होता है। पुत्र-जन्म के समय गीता की हालत बहुत गंभीर हो उठी थी। उस स्थिति में भी गीता की सास बाहरवालों की तरह उसे देखने आने की औपचारिकता-भर निभाती रही थीं। मम्मी-पापा ने ही सब सम्हाला था। यहाँ तो घर के दास-दासियाँ भी उसे परिवार-जनों की तरह स्नेह देते हैं। शादी के बाद मुहल्ले-टोले में जहाँ भी गयी, सबने उसके आँचल में मिठाई-फल डाल,  सुखी रहने के आशीर्वाद दिये थे। कहीं कोई बनावट उसने महसूस नहीं की थी।

मम्मी-पापा के कई फोन आ चुके थे। नीता के साथ राजेश को मारीशस जाना था। मम्मी अपने भारतीय दामाद से सबका परिचय कराने को उत्सुक थीं।

उन्हें लेने पापा-मम्मी दोनों एयरपोर्ट आए हुए थे। नीता का प्रसन्न चेहरा देख दोनों के चेहरों पर आश्वस्ति उभर आयी थी। पापा के साथ कार की अगली सीट पर बैठा राजेश मुग्ध दृष्टि से मारीशस का सौंदर्य निहार रहा था।

दस-पंद्रह दिन पार्टियों में घूमने-घुमाने में बीत गये। राजेश तो जैसे सागर-स्नान का दीवाना हो उठा था। उसे समुद्र से बाहर खींच पाना कठिन होता था। नीता को भी जबरन खींच, राजेश खिलखिला उठता था।

”सुनो बहुत दिन एनज्वाय कर लिया। अब हमें घर लौटना चाहिए। माँ-पिताजी हमारा इंतजार कर रहे होंगे।“ नीता को अपना श्वसुर-गृह सचमुच याद आने लगा था।

”तुम्हें एक सरप्राइज देना है, खुशी से उछल पड़ोगी।“ राजेश ने पहेली बुझायी थी।

”सरप्राइज?“

”हाँ, यहाँ मुझे बहुत अच्छा आँफर मिला है। अब तुम्हें अपना देश नहीं छोड़ना पडे़गा।“

”क्या तुम यहाँ सेटल होना सोच रहे हो, राजेश?“

”सौ फीसदी......... तुम्हीं कहो अपने देश में मेरा क्या भविष्य है! तीन-चार हजार रूपल्ली से शुरू करके पूरी जिंदगी बर्बाद करो। जानती हो यहाँ मुझे बीस हजार का स्टार्ट मिल रहा है,  साथ में प्राइवेट प्रैक्टिस की भी परमीशन है।“

”नहीं राजेश, तुम यह आँफर एक्सेप्ट नहीं कर सकते............“

”क्यों नहीं कर सकता! तुम्हें तो इस आँफर से खुशी होनी चाहिए। तुम नही जानतीं वहाँ के दकियानूसी लोगों के बीच तुम्हें एडजस्ट करना कितना कठिन होगा।“

”तुम्हें मेरी चिंता करने की जरूरत नहीं है, मैं वहाँ खुश रह लूंगी.......“

”मैं तो आलरेडी डिसाइड भी कर चुका हूं। कल फाइनल एक्सेप्टेंस भी दे दूंगा।“

”तो मेरी बात भी सुन लो,  मैं यहाँ नही रहूँगी...... मुझे भारत में ही रहना है। तुमसे शादी की यही शर्त थी, राजेश।“

”कमाल करती हो। चार दिन बाद जब वहाँ की असलियत खुलेगी, तो सिवा फ़्रस्टेशन कुछ नहीं मिलने वाला है। किसी भी कीमत पर मैं यह चांस नहीं छोड़ सकता,  क्या मिलेगा भारत जाकर.........?“

”वही जो खोकर मम्मी ने पापा को कभी माफ़ नहीं किया। नहीं राजेश, तुम नहीं समझोगे,  पर हम यहाँ नहीं रह सकते.........“

”एक सच तुम भी सुन लो नीता, तुमने शादी करने के लिए मैं तुरंत तैयार हुआ था, क्योंकि मुझे पता था, इस देश में मेरा भविष्य है। अब तुम्हें निर्णय लेना है, तुम यहाँ मेरे साथ रहोगी या भारत जाना है?“

”मैं अकेली ही भारत जाऊंगी राजेश, क्योंकि मैं वो सब पा लेना चाहती हूँ, जो मम्मी ने यहाँ आकर खोया था। मुझे उनकी क्षति-पूर्ति करनी है, राजेश! मुझे वापस जाना ही होगा........ जाना ही होगा।“

राजेश को स्तब्ध खड़ा छोड़ नीता कमरे से बाहर चली गयी थी।

पंखकटी चिड़िया

”भाँजी, क्या ये चिड़िया मर जाएगी?“


शीलो के उस अजीब सवाल को सुन मम्मी खीज उठी थीं। अभी चंद घण्टे पहले वे उस नए घर में पहुँचे हैं, और इस लड़की ने काम में मदद देने की जगह, उल्टे-सीधे सवाल पूछने शुरू कर दिए। तारा ने उसकी आदत खराब कर दी थी, उसके हर सवाल का जवाब देना तारा को जरूरी लगता। उल्टा वह उन्हें भी समझती,
 ”मम्मी, आप नहीं जानती, शीलो बहुत बुद्धिमान लड़की है। इसकी जिज्ञासा शांत न की गई तो इसकी प्रतिभा व्यर्थ जाएगी। हम इसे तराश सकते हैं, इसकी प्रतिभा चमका सकते हैं। कितना चैलेंजिंग काम है न, मम्मी?“

अब भला शीलो के इस सवाल की कोई तुक है? वह क्या अन्तर्यामी है जो बता दे, चिड़िया कब मरेगी? उनकी झुँझलाहट वाजिब हीं थी।

”चुप रह, वर्ना थप्पड़ लगाऊंगी। दिमाग चाट डालती है। ये नहीं कि घर बुहार डाले,  फ़ालतू बात किए जा रही है।“

शीलो की आकुल दृष्टि का अनुसरण करता राजीव उसकी बात समझ गया था। कमरे की बन्द खिड़कियों के बावजूद,  खुले दरवाजे से सबकी दृष्टि बचा,  एक गौरैया कमरे में उड़ आई थी। बाहर निकलने को व्याकुल वो नन्ही चिड़िया, कमरे के आर-पार चक्कर काटती,  हताश हो रही थी। सुनयना ने शीलो को डरा दिया था।

”देख, कमरा तो चारों ओर से बन्द है,  चिड़िया बाहर कैसे जाएगी? बस यूंही चक्कर काटते-काटते मर जाएगी।“ शीलो का वो सवाल इसी आधार पर था।

शीलो और सुनयना दोनों समवयस्क थीं, पर दोनों की स्थिति में जमीन-आसमान का अन्तर था। सुनयना मम्मी-पापा की दुलारी बिटिया थी और शीलो माँ-बाप से तिरस्कृत, उपेक्षिता थी,  पर जिस परिवेश से वह आई थी उसका अंश भी शीलो में परिलक्षित नहीं थी। उसकी बुद्धि का लेखा-जोखा बस तारा दीदी के पास था। मम्मी ने उसे हमेशा दुतकारा,  खासकर तारा दीदी के बाद तो मम्मी उसे मनहूस होने का उलाहना देतीं।

राजीव को अच्छी तरह याद है, उस घर में शीलो किस मुश्किल से आई थी। तब पापा राँची जेल में जेलर के रूप में नियुक्त थे। अचानक एक रात जेल के अन्दर से शोरगुल की आवाजें आई थीं।

”जेलर साहब जल्दी चलें,  सोमवरिया ने अपनी लड़की को मार डाला है।“

”क्या कह रहे हो श्यामलाल? कल तो वह उसे गोद में लिए घूम रही थी।“

”लगता है आज फिर उस पर पागलपन का दौरा पड़ा था सहिब। कसाइन ने गला घोंट कर मार डाला।“

”ओह माई गाँड! मैं तो पहले ही कहती थी उसे पागलखाने भिजवा दीजिए।“ मम्मी भय से काँप उठी थीं।

डाँक्टर को साथ ले, जब जेलर साहब वहाँ पहुँचे तो शीलो को गोद में लिटाए, सोमवरिया लोरी गा रही थी। अन्य औरतें भय से दूर खड़ी तमाशा देख रही थीं। जेलर साहब के पहुंचते ही वार्डन सतर्क हो उठी थी।

”सर, सबको सोते पा,  इस चुडै़ल ने लड़की का गला टीप दिया। वो तो मैंने देख लिया वर्ना किसी और पर दोष आता। मैं पक्की ड्यूटी करती हूँ, सर!“

उन बातों पर ध्यान न दे, जेलर साहब ने सोमवरिया को डपटा था,
 ”बच्ची मारकर अब् लोरी गा रही है! इधर दे वच्ची को,  डाँक्टर देखेंगे।“

”नहीं-नहीं,  डाँक्टर उसे सुई देकर मार डालेंगे।“ बच्ची को सोमवरिया ने जोर से सीने से चिपटा लिया था।

जेलर साहब के इशारे पर सोमवरिया को चारों ओर से घेर, लड़की उसकी गोद से छीन ली गई थी। सोमवरिया बेटी पाने के लिए चीखती जा रही थी।

बच्ची को दरी पर लिटा, डाँक्टर ने उसकी नब्ज थामी थी। सचमुच लड़कियों की जान बड़ी सख्त होती है। गला घोंटे जाने के बावजूद, उसकी साँसें बच रही थीं। माँ ने खत्म कर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, पर विधाता ने उसे न जाने किसके लिए बचा लिया था। उसके जीवित बच जाने पर सभी को आश्चर्य था।

बच्ची को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। जेलर साहब ने रिपोर्ट दे दी थी,  उस छह वर्ष की बच्ची को माँ के पास रखना खतरनाक है। डाँक्टर के सर्टिफिकेट पर सोमवरिया को पागलखाने भिजवा दिया गया था। जाते समय वह दहाड़े मार-मार कर रोई थी। बेटी को छोड़ते, उसका सीना फटा जा रहा था। उस दृश्य को देखती तारा दीदी की आँखें भर आई थीं-

”इसे किस दण्ड के लिए जेल की सजा भुगतनी पड़ रही है,  पापा?“

”अपनी सास के सिर पर मसाला पीसने वाली सिल दे मारी थी,  वहीं ढेर हो गई थी बेचारी।“

पापा की उस जानकारी ने तारा दीदी के कहानीकार को जगा दिया था। खोज-पड़ताल के बाद उन्हें जो जानकारी मिली, उसने उनके मन में सोमवरिया के प्रति सहानुभूति जगा दी थी।

”जानते हो राजीव, सोमवरिया की सास कितनी दुष्ट औरत थी। बेटे पर अपना एकच्छत्र अधिकार जमाए रखने के लिए उसने क्या कुछ नहीं किया। बेटा बहू के पास न जाए, इसके लिए वह खुद बेटे को दूसरी औरतों के पास जाने को उकसाती थी। भला कौन विश्वास करेगा राजीव कि अपने बेटे को पाप के रास्ते ढकेलने के लिए उसकी अपनी माँ जिम्मेवार हो सकती है! गुस्से में ऐसी सास को मार डालना क्या पाप है, भइया?“

उस उम्र में राजीव को दीदी की वो बातें समझ में नहीं आती थीं। दीदी से बात करने वाला राजीव ही तो बच रहा था। मम्मी के पास घर के कामों के बाद,  बात करने का समय ही नहीं रहता था। पाप का रास्ता क्या होता है,  ये बातें भी राजीव की बाल-बुद्धि से परे थीं। तारा दीदी अक्सर शीलों से मिलने अस्पताल जाती थीं। वह छोटी बच्ची अस्पताल में सबकी बिटिया बन गई थी। सबका स्नेह पा,  उसका चेहरा चमकने लगा था। तारा दीदी हमेशा उसके लिए चाकलेट-टाफियाँ ले जाती थीं। समय बीतता गया। नन्हीं शीलो दस वर्ष की हो गई।

अन्ततः दीदी ने मम्मी के सामने अपनी बात रखी थी, ”

मम्मी, हम शीलो को अपने घर ले आएँ?“

”क्या बकवास करती है, तेरा दिमाग तो नहीं फिर गया? पहले ही तुम सब कम परेशान रखते हो जो एक और बला लाना चाहती है!“ मम्मी नाराज हो उठी थीं।

”मम्मी,  वह तुम्हें बिल्कुल परेशान नहीं करेगी। तुम तो जानती हो माँ उस अस्पताल में कैसे खतरनाक मुजरिम रहते हैं। उन्हें गन्दी बीमारियाँ हो सकती हैं। ये छोटी लड़की अगर उनके रोग पा गई तो उसका क्या होगा, मम्मी? मैं शीलो की पूरी जिम्मेवारी लेती हूँ,  बस तुम एक बार हाँ कर दो, माँ।“ तारा दीदी लाड़ में मम्मी को माँ कहा करती थीं।

”न बाबा, मुझे ये बात कतई मंजूर नहीं,  हत्यारिन माँ की बेटी मैं इस घर में नहीं ला सकती। वैसे भी वो मनहूस है,  इस जेल में उसका जन्म हुआ है,  न जाने किसका पाप है ....... खून का असर तो रहता ही है न..........“

मम्मी की ‘न’ को ‘हाँ’ में बदलना कठिन काम था,  पर तारा दीदी उस कला में निपुण थीं। एक दिन जेल के अस्पताल में मम्मी को रोगियों को मिठाई-फल बाँटने जाना था। तारा दीदी ने इस अवसर का फ़ायदा उठाया था। सुनयना की पुरानी फ्राक पहने शीलो ने स्टेज पर मम्मी को गुलदस्ता दे,  हाथ जोड़ दिए थे। तारा दीदी ने उसे इस कार्य के लिए पूरी ट्रेनिंग दी थी। मम्मी ने प्यार से उसके गाल थपथपा दिए। शीलो का मुंह प्रसन्नता से दमक उठा था।

घर पहुंची मम्मी से फिर तारा दीदी ने मनुहार की थी,

 ”मम्मी, आप फिर सोचिए, एक लड़की का आप जीवन बना सकती हैं,  वर्ना उस माहौल में रहकर वह भी अपराधी ही बनेगी।“

मम्मी उस दिन ‘न’ नहीं कर सकी थीं। पर उन्होंने साफ़ हिदायत दे डाली थी, उस लड़की ने अगर कोई गड़बड़ की तो फौरन उसे वहीं वापस भेज देंगी। उसकी जिम्मेवारी तारा को लेनी होगी। चोरी-वोरी की तो वही जानेगी, वगैरह-वगैरह। उसी शाम तारा दीदी शीलो को घर ले आई थीं।

उनके घर पहुँची शीलो विस्मय से घर निहारती रह गई थी। समवयस्क सुनयना की ओर उसने दोस्ती का हाथ बढ़ाया था,  पर मम्मी ने उसे पहले ही समझा दिया था,

”उस लड़की से ज्यादा बात करना ठीक नहीं, वर्ना तू भी उसी जैसी गन्दी लड़की बन जाएगी।“

सुनयना से उत्साह न पाकर भी शीलो उसके आगे-पीछे लगी रहती। कभी-कभी सुनयना अकारण ही उसे डाँटती,  पर शीलो तिरस्कार की घुट्टी पीकर ही बड़ी हुई थी।

मम्मी उससे उदासीन ही रहतीं, पर तारा दीदी के लिए वह एक चैलेंज थी। पहले ही दिन उसके सिर में पड़े जुएँ मारने का शैम्पू लेकर जब वह घर आई तो मम्मी से खासी डाँट पड़ी थी,

”अब इसके ये नखरे मैं नही उठा सकती। अरे रात में केरोसीन मलकर सो जाए,  सुबह साबुन से रगड़कर सिर धो डाले, जुएँ साफ हो जाएँगे। मेरे पास फालतू पैसे नहीं हैं............।“

”पर मम्मी, ये पैसे तो मेरी पाँकेट-मनी के हैं,  आपका पैसा थोड़ी है।“

”वाह , अब मेरा-तेरा पैसा अलग हो गया? आखिर तो मेरे ही पैसे से पाँकेट-मनी मिलती है न?“

मम्मी बड़बड़ाती गई और तारा दीदी हॅंसकर टालती गई। दो-तीन दिनों में ही शीलो का चेहरा निखर आया था। तारा दीदी ने जब उसे पढाना शुरू किया तो फिर मम्मी से डाँट खाई थीं-

”अपनी पढ़ाई छोड़कर तू जो इसके साथ माथा-पच्ची कर रही है,  उसका कोई फायदा नहीं होने वाला है। खून का असर कहीं नहीं जाता, देख लेना जरा समझ आई नहीं कि सब ले-देकर गायब हो जाएगी। आखिर है किसकी बेटी!“

तारा दीदी ने मम्मी का कहा झूठ कर दिखाने की जिद ठान ली थी। जब भी समय मिलता शीलो को साथ ले बैठती थीं। उधर मम्मी अपने कामों के लिए जब-तब शीलों को पुकार लगातीं। हाथ में पेंसिल लिए शीलो जब मम्मी का हुक्म बजाने पहुंचती तो हाथ में पकड़ी पेंसिल देखते ही उनका पारा आसमान पर चढ़ जाता-

”हमारे यहाँ तो स्कूल खुल गया है,  जब देखो तब पढ़ाई चल रही है। सबकी रोटी बनाने को मैं ही रह गई हूँ। चल जल्दी से मसाला पीस..........।“ शीलो के हाथ की पेंसिल छीन, मम्मी उसे काम में जुटा देतीं।

कभी-कभी राजीव उस लड़की का जीवट देख ताज्जुब में पड़ जाता,  उतनी छोटी लड़की एक साथ इतने काम कैसे निबटा लेती है! मम्मी की डाँट-फटकार का उस पर जैसे कोई असर नहीं होता, मम्मी का हर हुक्म वह पूरी निष्ठा से निभाती और तारा दीदी का दिया होमवर्क भी वह जाने कब निबटा डालती। उसकी बुद्धि का लोहा तो पापा तक ने माना था। दो वर्षो में ही उसने छोटे-छोटे वाक्य लिखने-पढ़ने सीख लिए थे।

सुनयना उसे चिढ़ाती,
 ”पढ़ना-लिखना सीखकर अपनी माँ के पास चिट्ठी लिखेगी....... जेल का पता याद है न?“ उस तीखी बात पर शीलो की आँखें भर आतीं। माँ की छवि उसके नन्हें मानस में गड्डमड्ड थी।

कभी उसे सीने से चिपकाए लोरी गाती माँ, तो कभी उसकी गर्दन दबाती हत्यारिन माँ.......। सुनयना के पास उसे दुखी करने का यही तीखा हथियार था, जिससे वह उसे जब-तब घायल करती रहती। पिछले तीन-चार वर्ष उसने माँ को देखे बिना बिताए थे, पर जैसे-जैसे शीलो समझदार होती जा रही थी,  माँ के प्रति उसका लगाव बढ़ता जा रहा था। शायद इसके लिए तारा दीदी जिम्मेदार थीं। उन्होंने शीलो की माँ का दुख,  शीलो को समझाया था। शीलोसमझ गई,  उसकी मां अपराधी नहीं है। एक दिन जब शीलो ने जेल जा, माँ से मिल जाने की बात कही तो मम्मी चिढ़ गई थीं-

”खाएगी यहाँ का और गुण गाएगी माँ का! हत्यारिन माँ का इतना दुलार है,  ठीक-ठाक माँ होती तो न जाने क्या करती?“

”मम्मी प्लीज,  आप ऐसी बातें मत किया कीजिए। शी विल बी बैडली हर्ट।“ तारा दीदी ने विरोध किया था।

”ऐसी की तैसी! अरे इतना ही गुमान है तो यहाँ हमारे टुकड़ो पर क्यों पड़ी है?“

उस रात तारा दीदी के लाख मनाने पर भी शीलो ने खाना नहीं खाया था। मम्मी को दीदी की शीलो से मनुहार नहीं भाई थी।

दस वर्ष की उम्र में ही शीलो बेहद समझदार हो गई थी। वह दूसरों की दया पर आश्रित है, ये बात मम्मी उसे जब-तब जताती रहती थीं। तारा दीदी का स्नेह न मिलता तो शायद वह लड़की पहले ही खत्म हो जाती। तारा दीदी के स्नेह ने उसे नया जीवन दिया था। स्कूल में पढ़ने वाली सुनयना की किताबें वह धड़ल्ले से पढ़ जाती। कभी-कभी तो जो सवाल सुनयना हल नहीं कर पाती,  शीलो कर देती। शीलो से सुनयना की चिढ़ की एक यह भी वजह थी। शीलो की प्रतिभा देख एक दिन पापा ने भी दबी जुबान में उसे किसी स्कूल में दाखिल कराने की बात कही भर थी कि मम्मी ने घर सिर पर उठा लिया था। पापा सहम गए थे।

तारा दीदी कभी-कभी राजीव से कहतीं,
”हम लोग एक ब्रेन-डेथ के चश्मदीद गवाह हैं। अगर शीलो स्कूल जाती तो क्या कुछ नहीं बन सकती?“

राजीव की ‘हाँ’ पर वह और भी ज्यादा उत्साहित हो उठतीं।

”तुम्हें सच बताऊं, ये लड़की हम सबसे ज्यादा इंटेलिजेंट है,  पर बेचारी अभागी है वर्ना........।“ तारा दीदी चुप हो जातीं।

अचानक एक दिन अच्छी-भली तारा दीदी काँलेज से भयंकर सिर-दर्द और बुखार के साथ घर लौटी थीं। मम्मी ने अदरक और काली मिर्च की चाय पिलाई थी,  पर उनका बुखार बढ़ता ही गया था। सिर-दर्द और तेज बुखार से दीदी छटपटा रही थीं। शीलो उनका सिर दबाती,  मम्मी की हर बात पर दौड़ रही थी। कभी फ्रिज से आइस निकालती,  कभी दीदी के लिए फलों का रस निचोड़ती। दूध गर्म करती शीलो का मुंह पीला पड़ गया था। मम्मी दीदी की खाट की पाटी से लगकर बैठी थीं। और शीलो दीदी के हर काम करती, आसपास चक्कर काटती रहती। अन्ततः बड़े डाँक्टर बुलाए गए थे। दीदी का परीक्षण करते डाँ0 चौधरी चुप पड़ गए थे।

”आपने देर कर दी मिस्टर प्रसाद,  उसे मैनेनजाइटिस है।“

सबको बिलखता छोड़ तारा दीदी चली गई थीं। शीलो स्तब्ध शून्य में ताकती रह गई थी। उसका तो जैसे सब कुछ लुट गया था। मम्मी ने खाट पकड़ ली थी। उसकी तीमारदारी का दायित्व भी शीलो ने ही उठाया था,  पर मम्मी उसे देखते ही कोसने लगतीं। अब वह शीलो बदल गई थी। उसके चेहरे की मुस्कान लुट चुकी थी। अपनी स्थिति वह समझ गई थी। मम्मी की जल-कटी,  वह तारा दीदी के सहारे सहज भाव से सह पाती थी,  पर अब वह सचमुच दूसरों की दया पर निर्भर थी। उस घर में उसका कौन था?

जरा ठीक होते ही मम्मी ने शीलो को कोसना शुरू कर दिया था-

 ”इस कुलच्छनी के कारण ही मेरी सोने-सी बेटी चली गई ......... मनहूस है, इसे निकाल बाहर करो......। जिसके पास रहेगी उसे खत्म कर डालेगी।“

पापा समझाते,

 ”तारा का इससे कितना प्यार था,  इसे निकाल देंगे तो उसकी आत्मा दुख पाएगी।“

मम्मी के मन में न जाने क्यों यह विश्वास जम गया था कि तारा दीदी की मौत की जिम्मेवार शीलो है। मम्मी के सारे कुवचन सुनती शीलो,  सिर झुकाए घर के सारे काम निबटाती जाती थी। एक बात जरूर थी,  तारा दीदी के बाद उसने कभी अपनी काँपी-किताब नहीं छुई। एक दिन सुनयना ने कहा भी था,

”तू अब पढ़ती नहीं शीलो?“

”क्या करूँगी पढ़कर?“ शीलो की सपाट आँखों में तारा दीदी की मौत प्रतिबिम्बित थी।

”पढ़-लिख जाएगी तो तेरा ही भला होगा।“ पापा ने समझाना चाहा था, पर शीलो ने अपनी किताबों को हाथ नहीं लगाया था।

राजीव देखता शीलो अक्सर तारा दीदी के कमरे में जाकर अपने आँसू पोंछ रही होती या उनके फोटो को अपनी फ्राक से साफ करती। तारा दीदी की मृत्यु के बाद भी उस कमरे में शीलो ने सोना नहीं छोड़ा था। सुनयना और राजीव उनके कमरे में जाना टाला करते, पर शीलो जैसे उसी कमरे में जाकर शांति पाती।

निःशब्द सिर झुकाए काम करती शीलो को देख,  सुनयना भी उदास हो जाती।

”राजीव भइया,  इसे क्या हो गया है? पहले कितना हॅंसती थी, मेरे साथ खेलती थी, पर अब तो जैसे ये जिंदा ही नहीं है।“

राजीव चौंक गया था कितना ठीक कहा सुनयना ने! क्या पहले वाली शीलो मर नहीं गयी जो मम्मी की हजार गालियाँ खाकर भी तारा दीदी के सामने खिलखिला उठती थी। सुनयना की झिड़की पर भी उसे मनाने की कोशिश करती,  हॅंसती जाती थी। अब उसकी वो हॅंसी कहाँ गई? शायद वह समझ गई थी कि उसके लिए तारा दीदी की सुदृढ़ ढाल अब नहीं थी। अपनी नियति उसने स्वीकार कर ली थी। उस घर में वह सर्वथा अवांछित ही तो थी।

पापा के रिटायरमेंट के बाद आज वे इस नए घर में आए हैं। पुराना घर छोड़ते, शीलो कितना रोई थी!  तारा दीदी का लगाया आम का पेड़ साथ लाने की जब शीलो ने कोशिश की तो मम्मी ने जिस तरह उसे कोसा,  वो सह पाना उसे ही सम्भव था, ”खबरदार जो उस पौधे को हाथ लगाया, उसे यहीं रहने दे। तेरी छाया से दूर रहकर जी तो जाएगा,  वर्ना तारा की तरह वो भी......“

मम्मी ने आँचल आँखों से लगा लिया था। बुत बनी शीलो को देख, सुनयना को तरस आ गया था-

”ये क्या मम्मी, आप बेकार ही शीलो को डाँटती रहती हैं। तारा दीदी को तो भगवान जी ले गए...“

”चुप रह, बड़ी आई इसकी हिमायत करने वाली! देख लेना इसकी बजह से एक दिन मैं भी चली जाऊंगी। तब खुशी होगी तुझे।“

उस घर को छोड़ते समय शीलो ने पापा से कहा था, उसे उसकी माँ के पास पहुंचा दिया जाए। पापा चुप रह गए थे। कुछ ही दिन पहले खबर आई थी, सोमवरिया के पागलपन के दौरे बहुत बढ़ गए हैं। उसे जंजीरों से बाँध कर रखना पड़ता है। शीलो से बस उन्होंने यही कहा था,
”तेरी माँ को इलाज के लिए बाहर के अस्पताल भेजा गया है। ठीक होते ही पहुंचा दूंगा।“

”क्या हुआ अम्मा को ?“ शीलो की बड़ी-बड़ी आँखों में चिन्ता उभर आई थी।

राजीव ने पापा से सब जान-सुन लिया था,

 ”शीलो को उसके पिता के पास भी तो भेजा जा सकता है, पापा। उसका कोई पता तो आपके पास होगा न?“

”उसी के गाँव के आदमी से पता लगा था। उसने दूसरी शादी कर ली। ये शहर छोड़कर कहीं और जा बसा है, नालायक। बेटी को जेल में सड़ने को छोड़,  खुद मौज उड़ा रहा है।“

”सोमवरिया ने अपराध तो गुस्से में किया,  उसके साथ ज्यादती की गई थी, फिर क्यों उसे ये दण्ड दिया गया, पापा?“

”कानून हर बात को सबूत के आधार पर देखता है। सास के सिर पर उसने पत्थर मारा ये सबने देखा पर क्यों मारा इसकी गवाही कौन देता?“

”आप उसके लिए कुछ नहीं कर सकते, पापा?“

”करता, जरूर कर सकता था। उसके अच्छे व्यवहार के लिए सजा कम करने की बात कहता,  पर पति और सास के व्यवहार ने उसे इस कदर तोड़ दिया कि वह अपना आपा ही भुला बैठी। पहले आवेश में चीखती-चिल्लाती रही। उसके उस आक्रोश को पागलपन कहा गया और अब वह सचमुच पागल है।“ सोमवरिया की उस स्थिति में पापा भी कुछ कर पाने में असमर्थ थे।

इस घर में आई शीलो ने अचानक अपने उस अजीब प्रश्न से राजीव को चौंका दिया था। एक हॅंसती-गाती चिड़िया को क्या उन्होंने मार नहीं डाला?

राजीव को बचपन की एक घटना याद हो आई। उसके साथ के एक लड़के ने एक नन्हीं चिड़िया के पंख कतर, उसे क्लास रूम में छोड़ दिया था। इधर-उधर भागती चिड़िया का असहाय रूप देख सब ताली बजा हॅंस रहे थे। शीलो क्या उसी चिड़िया-सी नहीं, जिसके पंख विधाता ने पागल माँ और निष्ठुर पिता देकर,  कतर डाले और आज वह मम्मी की डाँट-मार खाती,  उनके क्रूर आदेशों पर असहाय दौड़ रही है!

नहीं, उसे मुक्ति दिलानी ही होगी। किसी भी महिला-संस्था में उसकी शिक्षा-दीक्षा हो सकती है। वह स्वावलम्बी बन सकती है। तारा दीदी का सपना उसे सच करना ही होगा।

दृढ़ निश्चय के साथ राजीव, पापा के कमरे की ओर चल दिया था।

मुट्ठी भर खुशी

मम्मी और पापा में आज सुबह से फिर ठन गई हैं। दोनों का अहं हमेशा आड़े आ जाता है। पापा फिर रजनी आंटी के घर पाँच दिन रहकर आए हैं। पापा का आक्रोश-भरा स्वर जोर से सुनाई पड़ रहा है, ”जाऊंगा-हजार बार जाऊंग॥ मैंने कोई पाप नहीं किया है। मेरे अपने हैं वे लोग-यहाँ तो गैरों को गले लगाया जा रहा है।“


जब से पापा आए हैं मम्मी आहत हैं। विवाह के पन्द्रह वर्षो बाद भी उनकी स्थिति में जरा-सा भी परिवर्तन नहीं आया है। रजनी आंटी ने मम्मी का हज़ार बार अपमान किया है,  जान-बूझकर मम्मी की उपेक्षा की है,  हमें तिरस्कृत किया है।  मम्मी की उपेक्षा और अपमान एक बार पापा ने महसूस कर कहा भी था,
”ठीक है अब रजनी से कोई नाता नहीं रखूंगा“। कितनी ढेर सारी खुशी और आश्वस्ति मम्मी के मुख पर छलक आई थी! पूरे दिन उमगती, गीत गुनगुनाती रही थीं। पर उस आश्वासन के बाद भी पापा क्यों रजनी आंटी के पास जाते रहे? पापा ने अपनी प्राँमिस क्यों तोड़ा? उनके वहाँ जाने से मम्मी का मुख कुम्हला गया-कितनी असहाय दिखती हैं मम्मी!

मम्मी के बेडरूम से उनकी सिसकियाँ सुनाई पड़ रही है। भयभीत रेखा जागकर भी बिस्तर में दुबकी हुई है। नन्हीं-सी रेखा मुझ पर कितनी निर्भर हो गई है! मम्मी को अपनी नौकरी और ढेर सारी समस्याओं से ही फुर्सत कहां मिल पाती है। हम दोनों स्कूल, घर-बाहर की न जाने कितनी बातें कर डालते हैं। कभी हम दोनों की बातों में से रेखा की बातों के कुछ अंश अगर मम्मी की पकड़ में आते हैं तो उन्हें कितना आश्चर्य होता है- ”नन्हीं-सी रेखा इतनी ढेर सारी बातें कैसे करती है?“ हम दोनों ने मिलकर मम्मी को कितने अच्छे ढंग से अनालाइज किया है। मम्मी न जाने क्यों कुछेक हीन ग्रन्थियों से ग्रसित हैं, उनमें से एक सर्वोपरि है कि मम्मी को खूब महत्व मिले। शायद पापा से मिली उपेक्षा ने इस ग्रन्थि को और भी दृढ़ कर दिया है।

मम्मी हमेशा कहती हैं पापा ने व्यर्थ ही विवाह किया,  उन्हें पत्नी की आवश्यकता ही नहीं थी। मम्मी के अनुसार पापा पर रजनी आंटी इस तरह हावी रहीं कि उन्होंने हर बात में मम्मी को रजनी आंटी से ही तौला। कई बातों में मम्मी, रजनी आंटी से भारी पड़ती थीं,  पर पापा ने कभी जानने की कोशिश ही नहीं की थी। मम्मी बताती हैं, ”बाबा भी दादी की सदैव अवहेलना करते थे,  इस बात के लिए पापा,  बाबा के प्रति कभी सदय न हो सके थे।“ फिर अपने जीवन में पापा वही भूल क्यों दोहरा रहे हैं? चाचा, ताऊजी ने शायद इसीलिए अपनी पत्नियों को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया,  पर मम्मी को वह आदर-स्नेह पापा से कभी क्यों नहीं मिल सका?

मम्मी-पापा जब खुश रहते हैं-घर स्वर्ग लगता है, पर काँच कब चटख जाए का भय हमेशा मुझ पर हावी रहता है। छुट्टियों में मम्मी ने काश्मीर जाने का प्रोग्राम बनाना चाहा था,  पर मैं टाल गई थी। कारण जान मम्मी का मुख घने अवसाद से काला पड़ गया था-
”वहाँ जाकर भी तुम्हारा और पापा का झगड़ा होगा।“ उस समय उदास मम्मी पर कितना तरस आया था-मानो हम भी उन्हें अपराधी करार दे गए थे।

पापा की उपेक्षा का जहर मम्मी पीती रही हैं। मम्मी कहती हैं-
”कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है, छोड़ना पड़ता हैं।“
 मम्मी अपना अतीत, अपना सब कुछ छोड़ कर पापा को चाहती थीं,  पर पापा क्यों मम्मी की पकड़ से हमेशा बाहर रहे? न जाने कितनी बार मम्मी हमारे सामने रो पड़ीं,
”इन्हें मैं कभी न पा सकूंगी, अपना सब कुछ देकर कुछ भी न पा सकी। एकदम रीती रह गई हूँ मैं।“

मम्मी ने जब भी पापा के अन्याय का विरोध करना चाहा,  पापा ने मम्मी से बात करना बन्द कर दिया। पापा का तिरस्कार मम्मी के रक्त में बहता है। मम्मी दिल से बहुत उदार हैं, कोई जरा-सा भी उनके लिए करे मम्मी अपने प्राण देने को तत्पर हैं। पापा भी बहुत उदार हैं, पर न जाने क्यों मम्मी के प्रति पापा सदैव अनुदार रहे। मम्मी को पापा का न्याय नहीं मिल सका।

मम्मी ‘को-एड’ काँलेज में पढ़ी थीं। अपने समय की बेहद स्मार्ट, मेधावी छात्रा थीं। रजनी आंटी ने मम्मी को देखते ही पापा से कहा था,
”बहुत तेज है, तुम्हें तो बेच खाएगी।“
 तनिक इतरा कर हल्की मुस्कान ला और भी जोड़ा था, ”वह तो हम ही थे इस आसानी से तुम्हारे बहकावे में आ गए, ये तो पूरा घाघ दिखती है।“ शायद उसी दिन पापा ने गाँठ बाँध ली थी- मम्मी को अंगूठे तले धर,  रजनी आंटी को अपने पुरूषत्व से परिचित करा देंगे।

विवाह के बाद घर में सबको मक्खन-ब्रेड मिलती, पर मम्मी को रात की रोटी अचार के साथ दी जाती। चतुर दादी को पापा का रूख जो पता लग गया था। माँ के घर मम्मी ने कभी बासी रोटी चखी भी न थी। न जाने कितने आँसुओं के साथ बासी रोटी गले से नीचे उतारती थीं मम्मी। मम्मी एक बार अस्वस्थ थीं। स्थिति की गम्भीरता देख डाँक्टर ने उन्हें एडमिट कर लिया था। पूरा दिन उपवास में बिता मम्मी संध्या को पापा के पहुँचने की राह ताकती रही थीं। संध्या को पापा के स्थान पर उन्हें लाने पापा का चपरासी पहुंचा था। घर पहुँच पता लगा था रजनी आंटी कुछ अस्वस्थ थीं,  अतः पापा उन्हें कार से शहर के किसी विशेषज्ञ डाँक्टर के पास ले गए थे। पता नहीं उसी दिन मम्मी अपने को समाप्त क्यों नहीं कर सकी थीं!

कर्तव्यपालन की भावना मम्मी में कूट-कूट कर भरी हुई थी। अपने ऊपर खर्च उन्हें अपव्यय प्रतीत होता था। रिक्शे में पैसे व्यर्थ न जाएँ की भावना से स्कूल पैदल जाती थीं। मेरे जन्म के बाद मम्मी को भूखे रहना पड़ता था- ”बच्ची है स्कूल में भूख लगती है।“ मम्मी पापा से भयवश यह भी नहीं कह पातीं कि उन्हें मेरा भी तो पेट भरना था। बासी रोटी खा पूरे दिन भूखी रह शिशु का पेट कैसे भर सकेंगी? मम्मी को अपना वेतन रखने का भी अधिकार नहीं था। एक बार साहस कर अपने वेतन में से पचास रूपए धर मम्मी अपना वेतन नहीं देगी तो घर का खर्च कैसे चलेगा? सचमुच मम्मी सबके लिए पैसा कमाने की मशीन ही रहीं, उनके लिए कब किसने सोचा?

रेखा के जन्म के समय डाँक्टर ने मम्मी को पूर्ण विश्राम के निर्देश दिए थे। इसके पूर्व मम्मी कई बार अस्वस्थ हो चुकी थीं, अतः डाँक्टर ने पूरी पर्वाह की कड़ी चेतावनी दे रक्खी थी। चाचा का विवाह आ गया, पापा के पास दादी के आँर्डर आ गए ”रूपया लेकर फौरन पहुंचो।“ मम्मी का पूरा वेतन पापा ले गये थे। पैसे देती मम्मी के मुंह से निकल गया था-
 ”लड़के के विवाह में भी पूरा पैसा दे रहे हो, कल को अगर मेरे आँपरेशन की जरूरत पड़ी तो.......? मम्मी बात पूरी भी न कर सकी थीं कि पापा दहाड़ उठे थे। भयभीत मैं मम्मी के सीने में सिर छुपा रो पड़ी थी। मम्मी की इच्छा के विरूद्ध पापा मुझे भी चाचा की शादी में ले गए थे। मम्मी का कातर चेहरा मुझे टुकुर-टुकुर ताकता रह गया था। अगर मम्मी का किसी को भी ख्याल होता तो चाचा का विवाह दो-चार महीनों को क्या टाला नहीं जा सकता था? मैं क्यों गई थी? अगर मेरे पीछे मम्मी को कुछ हो जाता तो? शादी की धूमधाम में मम्मी कहाँ थीं? मम्मी कैसी होंगी- क्या एक क्षण को भी पापा सोच सके थे? विवाह में आई स्त्रियाँ, जब अपने बच्चों को सजाती-सॅंवारतीं तो रोने का जी कर आता था। मम्मी की जब रजनी आंटी हॅंसी उड़ातीं,  तो मैं क्रुद्ध हो भाग जाती थी,  पर पापा ने कब मेरे भागने पर ध्यान दिया था? पता नहीं रजनी आँटी के साथ पापा इतने खुश क्यों रहते थे, और गुस्सा तो मानो वह जानते ही नहीं थे।“

हम जैसे-जैसे बड़े होते जा रहे हैं, मम्मी को नैतिक बल मिलता जा रहा है। अब वह दादी से भी उतना नहीं डरती। पहले मम्मी को यही डर लगता था- पापा उनका परित्याग न कर दें। पापा कई बार ऐसा कह चुके थे। पिछली बार ताऊजी के यहाँ से लौटते समय जब पापा ने फिर अलग रहने की बात दोहराई थी तो मम्मी का मुंह कितना उतर गया था! मम्मी ने कभी पापा का विरोध करने का साहस नहीं किया क्योंकि उनकी एक बहन परित्यक्ता का जीवन झेल रही थीं। इसी दुर्बलता का पापा हमेशा फायदा उठा, मम्मी के घर के इस अभिशाप की याद दिलाते रहे। मम्मी हमेशा दबती रहीं।

पापा से इतनी उपेक्षा पाकर भी मम्मी अन्य लोगों के मध्य अपनी वाक्पटुता, मुखर व्यक्तित्व के कारण बहुत लोकप्रिय हो जाती हैं। पापा के प्रति कई पुरूषों की आँखों में ईर्ष्या स्पष्ट झलकती है। स्वंय रजनी आंटी के पति मम्मी की प्रशंसा करते नहीं थकते। पापा, मम्मी मे वह सब क्यों नहीं देख पाते, जो और लोग देखते हैं।

पापा का लखनऊ ट्रान्सफ़र हो गया। मम्मी ने निर्णय लिया जब तक उन्हें वहाँ दूसरी नौकरी नहीं मिलेगी, वह नहीं जायेंगी। पहली बार पापा के ट्रान्सफ़र पर म्ममी ने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी थी, आज तक उसके लिए उन्हें पछतावा है। इस बार मम्मी ने अपना निर्णय स्वयं लिया है। निखिल अंकल ने पापा को किसी प्रकार की चिन्ता न करने का पूर्ण आश्वासन दिया है। मम्मी के सबसे बड़े प्रशंसक निखिल अंकल हैं। पापा के जाने के बाद से निखिल अंकल का घर पर आना बढ़ता ही जा रहा है। जब भी निखिल अंकल की गाड़ी आती है, मैं अपने कमरे का दरवाजा जोरों से बन्द कर देती हूँ। कई बार मम्मी ने टोका भी है, पर न जाने क्यों उनके साथ मम्मी का हॅंसना असह्म हो जाता है।

पापा की अनुपस्थिति में निखिल अंकल हमारे अभिभावक से बनते जा रहे हैं। मेरी पढ़ाई में रूचि लेते हैं, पर उनकी बताई हर बात का ठीक उल्टा करना मानो मेरा उद्धेश्य हो गया है। निखिल अंकल रोज-रोज चले आते हैं, क्या एक दिन भी घर पर रहना अच्छा नहीं लगता उन्हें? बार-बार निखिल अंकल का फ़ोन आता है। उन्हें क्या और कोई काम नहीं है? मम्मी की इतनी परवाह रखने की उन्हें क्या जरूरत है? मम्मी की हर बात पर यूं मुग्ध होना क्या अच्छा लगता है? मम्मी के मुंह से निकली हर बात पूरी करना, शायद आँफ़िस के काम से भी अधिक महत्वपूर्ण है। मम्मी क्यों छोटे-छोटे कामों का दायित्व भी अंकल को देती हैं? क्या मैं वह काम नहीं कर सकती? मम्मी क्यों नहीं समझतीं, किसी के एहसान तले दब उनका अहं कब तक जिन्दा रह सकेगा?

पिछली बार जब पापा लखनऊ से आए थे, निखिल अंकल को लेकर मम्मी और पापा में कुछ कटु बातें हुई थीं। मम्मी कितना रोई थीं! घर में जब तक पापा रहे, तनाव बना रहा। निखिल अंकल पर कितना क्रोध आया था! यह सच है-पापा मम्मी के प्रति सदैव अनुदार रहे, पर पिता के रूप में हमारे लिए उनके हृदय में अगाध स्नेह है। पहली बार लगा, पापा अन्दर से टूट गए हैं। ऊपर से वह मम्मी को डाँटते रहे,  क्रोध करते रहे, पर स्वयं कहीं गइराई में वह बहुत आहत थे। क्या मम्मी ने अपनी उपेक्षा का प्रतिशोध लिया है? नहीं, मम्मी कभी ऐसा नहीं कर सकतीं।

शायद मम्मी अपनी जिस उपेक्षा के ठूंठ को वर्षो से पालती आई थीं, निखिल अंकल के छलकते स्नेह ने उस ठूंठ को हरे-भरे पत्तों से पुष्पित और पल्लवित कर दिया था। पापा की अनुपस्थिति में मम्मी का व्यक्तित्व कितना सहज हो उठा था! हर बात में अपनी बुद्धिमत्ता, हाजिर-जवाबी, परिहास से मम्मी आश्चर्यान्वित कर देती हैं। मम्मी के इस नए व्यक्तित्व से पापा सर्वथा अपरिचित ही क्यों रह गए? मम्मी निखिल अंकल के सामने कितनी छोटी-सी,  दुलराई जाने जैसी लड़की-सी क्यों लगती हैं? पापा के सामने तो वह एकदम गम्भीर प्रौढ़ा दिखती हैं।

पिछले दो दिनों से पापा, मम्मी से बात नहीं कर रहे हैं। मम्मी कभी हमारे सामने रो रही हैं तो कभी पापा की मनुहार करती दीखती हैं। मैं कोई निर्णय नहीं कर पा रही हूँ-एक मन कहता है, मम्मी जिस आग में जीवन-भर जली हैं, आज कुछ देर उसकी ज्वाला में पापा को भी दहकने दो। पर दूसरी ओर पापा के प्रति बहुत सहानुभूति हो रही है। कुछ दिन पहले एक कहानी पढ़ी थी-पति-पत्नी और दो बच्चों का सुखी परिवार था। पति ट्रान्सफ़र पर दूसरे शहर चला गया। बच्चों की पढ़ाई के कारण पत्नी उसी शहर में रह गई थी। पति के घर आने के दिन पत्नी और बच्चे दरवाजे पर प्रतीक्षा में दृष्टि निबद्ध किए रहते, हर आहट पर कान सतर्क हो जाते। धीरे-धीरे प्रतीक्षा में उत्सुकता के स्थान पर उदासीनता आती गई। पत्नी को शायद प्रेमी मिल गया था और बच्चे अपने में मस्त हो गए थे। न जाने क्यों यह कहानी पढ़ते ही मैं भयभीत हो गई थी। कहानी सुन, मम्मी उपेक्षा से हॅंस दी थीं, पर क्या मम्मी अब भी पापा की उतनी ही उत्सुकता से प्रतीक्षा करती थीं?

हर झगड़े में पापा, मम्मी पर सदैव हावी रहे हैं। सदा अपने प्रति किए गए अन्याय की दुहाई देने वाली मम्मी इस बार न जाने क्यों मौन हैं। पापा की हर बात में निखिल अंकल को ले तीखे व्यंग्य हैं। निखिल अंकल का घर आना एकदम बन्द हो गया है। मम्मी से पूछने पर कोई उत्तर नहीं मिला। पापा ने निखिल अंकल के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया, उससे मन गहरी विरक्ति से भर गया है। पापा की अनुपस्थिति में हमारी बीमारी, कठिनाइयों में अंकल ने जो कुछ किया है, वह यूं आसानी से अस्वीकार कर पाना, मम्मी को कठिन है। मम्मी क्यों अंकल पर इतनी निर्भर हो गई थी?

मेरी परीक्षाएँ सिर पर आ पहुँची हैं-मन इस तरह उलझा है कि ध्यान केन्द्रित करना मुश्किल है। मम्मी क्यों इतनी भावुक-इतनी कल्पनाशील हैं? क्यों उन्होंने ढेर सारे सपने देखे थे? जीवन की वास्तविकता झेलने के लिए काश मम्मी व्यावहारिक बन पाती! मम्मी हमसे कहती हैं-
 ”सेंटीमेंटल होना मूर्खता है। किसी को भी आवश्यकता से अधिक अपनत्व देना या लेना मूर्खता है।“ फिर अपने जीवन में मम्मी यही गलती क्यों करती रहीं?

मम्मी शायद चुप हो गई है। पापा रामू को चाय लाने को पुकार रहे हैं। बेडरूम से निकल कर मम्मी किचेन में गई हैं। कुछ भी होने पर मम्मी, पापा की पसन्द,  उनकी आवश्यकता कभी नहीं भूल सकतीं। शायद दोपहर तक पापा और मम्मी में सन्धि हो जाएगी और जब हम दोपहर में स्कूल से वापस लौटेंगे, मम्मी खिले मुख से हमें बताएँगी- 
”पापा ने अपनी गलती मान ली है, अब वह रजनी आंटी के घर कभी नहीं जायेंगे-उन्होंने वादा किया है।“

बस इस छोटी-सी खुशी को मुट्ठी में दबाए मम्मी , उल्लसित मन से शाम को पिक्चर और रात में बाहर डिनर का प्रोग्राम बना डालेंगी। हम सब बहुत उत्साह से एक अत्यन्त सुखी परिवार के रूप में बाहर जायेंगे, पर मम्मी-पापा नहीं जानते, रेखा और मेरा हृदय धड़कता रहता है-न जाने कब काँच चटख जाए-न जाने किस पल यह सुख-स्वप्न टूट जायेगा और हम दोनों सहमे-सिमटे, फिर कभी मुट्ठी-भर खुशी पाने की प्रतीक्षा में, अपने कमरे में दुबक जाएँगे।

कंजर

मम्मी....... मम्मी ......... चोर।


सोनू की आवाज पर सब चौंक पड़े थे। तत्परता से उठती सविता की दृष्टि कम्पार्टमेंट के फर्श पर बैठे ढेर सारे आदमी-औरतों पर पड़ी थी। न जाने कब वे सब आकर उस कम्पार्टमेंट में बैठ गए थे।

कालका से शिमला के लिए एक पैसेंजर पौने चार बजे सुबह चली थी,  उस समय तक उस कम्पार्टमेंट में बस उन्हीं का परिवार था। खाली कम्पार्टमेंट में पीछे की सीट पर पैर फैला लेटते राकेश ने सुतुष्टि की साँस ली थी।

”वाह, ये तो बढ़िया रहा। चलने से पहले रेलवे. टाइमटेबल में तो इस ट्रेन का नाम ही नहीं देख पाया।“

”तुम्हें ठीक से रेलवे टाइमटेबल देखना आता ही कहाँ है?“ सामान पर दृष्टि डालती सविता ने परिहास किया था।

”असल में इस ट्रेन का दिल्ली से आने वाली ट्रेनों के साथ कनेक्शन नहीं है, इसीलिए पैसेंजर कम आते हैं।“

कुली ने ठीक ही कहा था, ”गाड़ी प्लेटफार्म पर रात दस-साढ़े दस बजे ही लग जाती है। आराम से दरवाज़ा बन्द कर सो रहिएगा साहब।“ खाली बोगी देख राकेश ने उसे अच्छी बख्शीश भी दे डाली थी।

बैग से चादर और कम्बल निकाल सविता ने पहले बच्चों के सोने की व्यवस्था कर,  राकेश के लिए कम्बल और बेड-कवर बढ़ाए थे।

शायद लेटते ही उन्हें नींद आ गई थी। शिमला की ओर बढ़ती ट्रेन में ठंडी हवा के झोंके उन्हें गहरी नींद में सुला गए थे। सोनू की डरी आवाज ने सबको जगा दिया था।

”ऐ, इस डिब्बे में कैसे आए तुम लोग! देखते नहीं, ये रिजर्व बोगी है।“ राकेश ने कड़कती आवाज में कहा था।

”हाय राम, इन्होंने तो एक तिल भी जगह नहीं छोड़ी है,  बाथरूम जाने तक का रास्ता नहीं है।“ सविता भुनभुनाई थी।

”अरे कंजर हैं साले,  जहाँ जी चाहा बैठ गए। इनके बाप की गाड़ी है ये?“ राकेश का अफ़सर दहाड़ उठा था।

”ऐ साहब, हमको कंजर नहीं बोलना......... काट के फेंक देगा।“ एक नारी-स्वर प्रत्युत्तर में उसी तेजी में आया था।

दृष्टि उठाते ही सविता आपाद-मस्तक सिहर गई थी। उस युवती की आयु शायद 25 से 30 वर्ष रही होगी। आँखों में क्रोध की आग जल रही थी। फटे कपड़े, कानों में प्लास्टिक की बाली जैसी कोई चीज लटक रही थी। उस चलती ट्रेन में वे उतने ......... और उधर अकेला राकेश, कहीं सचमुच वे वार कर बैठे तो?

”अरी नोनी चुप कर,  देखती नहीं मालिक लोग हैं.............।“

”क्यों चुप करें..... हमको कंजर बोलता है....... कंजर........!“ स्वर में तीखा आक्रोश था।

”अरे कंजर नहीं तो क्या मेम साहब कहलाएगी?“ एक प्रौढ़ पुरूष ने उसे झिड़की दी थी।

सविता को उस पुरूष की बात से मानो तसल्ली-सी मिली थी, साहस करके बोलना चाहा था, ”देखो इस गाड़ी में बहुत सारे डिब्बे हैं, तुम लोग सब डिब्बों में एक-दो करके बैठ जाओ। ये बच्चे अगर बाथरूम जाना चाहें तो भी नहीं जा सकते न?“

”हमको बस धरमपुर तक जाना है, थोड़ी देर में आने का है।“ एक अन्य प्रौढ़ा उत्तर दे चुप हो गई थी।

कम्पार्टमेंट में सन्नाटा छा गया था। भोर की उजास अभी नहीं फैली थी। उस हल्के अंधेरे में ठसाठस भरे फर्श को ताकती सविता डर-सी गई थी।

दो-तीन स्त्रियाँ बच्चों को सीने से लगाए शांत बैठी थीं। कुछ देर के सन्नाटे के बाद एक मीठा स्वर गूँज उठा था। न जाने उस गीत के क्या भाव थे, सविता तो नहीं समझ सकी पर राकेश चिड़चिड़ा उठा था।

”नाउ वी आर फ़ोर्स्ड टु एक्ट आकर्डिग टु देयर ट्यून..........।“

”मम्मी......!“ नन्हा शैलू बुदबुदाया था।

”शायद इसे पाँटी चाहिए, .....यहाँ कहीं भी तो जगह नहीं.......।“ सविता खीज उठी थी।

”दीज बैगर्स हैव पौल्यूटेड दि होल कम्पार्टमेंट..........।“

”मेम साहब, आपका बच्चा बाथरूम जाना माँगता?“ एक औरत ने सविता से पूछा था। शायद वह उसकी परेशानी समझ गई थी।

”नहीं, उसकी पाँटी हमारे साथ है पर उसे कहाँ रखें?“

”यहाँ रख दो मेम साब। छोटे बच्चे को हमारे लिए तकलीफ नहीं होना चाहिए न।“ उसी स्त्री ने सहानुभूतिपूर्वक अपने पास के जरा से स्थान में पाँटी का पाँट रखने की पेशकश की थी।

सविता ने उठकर कष्ट से पाँटी अपनी सीट के सामने जब नीचे रखी तो सबकी आँखें उस कौतुक को देखने के लिए पाँट पर निबद्ध हो गई थीं। सूसू करने के लिए तैयार शैलू उन सबको देख, डर के कारण रो पड़ा था।

”कितनी देर में तुम्हारा धरमपुर आएगा? तुम लोग तो कह रहे थे थोड़ी दूर है।“ राकेश ने खीजे स्वर में पूछा था।

”बस थोड़ी देर में...........।“

भोर का उजाला कम्पार्टमेंट में फैल रहा था, उसके साथ ही राकेश का साहस भी बढ़ गया था। एक छोटे-से स्टेशन पर ट्रेन रूकते ही अंग्रेजी में सविता को सावधान रहने के निर्देश देता, राकेश नीचे उतरने को तत्पर था। सहमे-सिकुड़े बैठे कंजर,  राकेश को पाँव धरने के लिए स्थान देने को मानो अपने आप में ही सिमट गए थे। आगे बढ़ते राकेश का पाँव उस तेज तर्रार युवती के पाँव पर पड़ गया था। बिजली की तेजी से उठ उस स्त्री ने राकेश की राह रोक ली थी-

”हमको क्या जानवर समझता है,  पाँव धर के जाएगा? हम तुम्हारी आँख निकाल लेगा।“

सामने खड़ी उस धूल-मिट्टी से लिपटी युवती का आवेश देख राकेश सकपका गया था।

”ऐ नोनी.......साहब से जबान लड़ाती है.............अभी धक्का देकर फेंक देने का समझी।“ प्रौढ़ पुरूष की कठोर चेतावनी पर नोनी भड़क उठी थी-

”क्यों, हम क्या आदमी नहीं बाबू? ये टांगे पसारे सो रहे हैं और हम इनका पाँव के नीचे भी नहीं बैठ सकते!“ क्रोधावेश में नोनी अपने स्थान से उठकर सविता की सीट पर जाकर बैठ गई थी। भय से सविता काठ हो गई थी। राकेश के कुछ कहने-करने के पूर्व उस प्रौढ़ का झन्नाटेदार तमाचा नोनी के गाल पर पड़ा थां उसकी चोटी खींचता वह प्रौढ़ उसे अनगिनत गालियाँ देता जा रहा था।

आँखों से बहते आँसू और मुख पर ढेर सारा बिखरा तिरस्कार लिए नोनी ने राकेश और सविता पर आग्नेय दृष्टि डाली थी। इतना बड़ा कांड पलक. झपकते हो गया था।

”माफ़ करना मेम साब,  ये लड़की शहर जाकर चार दिन क्या रह आई है, इसका दिमाग ही खराब हो गया है, अपनी औकात भूल गई है।“ अपने गन्दे गमछे से सविता की सीट पोंछता वह प्रौढ़ दयनीय हो आया था।

”इसके इसी लच्छन के कारण इसका आदमी भी इसे हमारे सिर पटक गया है, साहब। दूसरी शादी के नाम पर ये कुत्ते के माफ़िक काटने को दौड़ता है।“ उन्हीं में से एक स्त्री ने सूचना दी थी।

दोबारा ट्रेन रूकते ही राकेश ने देर नहीं की थी। झपटकर ट्रेन के नीचे कूद गया था। थोड़ी ही देर में गार्ड के साथ अंग्रेजी में बात करता राकेश कम्पार्टमेंट के सामने आ पहुँचा था। उसका अधिकारी रूप अब पूर्णरूपेण जाग चुका था। कम्पार्टमेंट के सामने आते ही गार्ड ने उन्हें जोरों से झिड़का था,
”ऐ उतरो,  फौरन उतरो!“

”कमबख्तों का यही ढंग है। बाथरूम तक भर दिया है।“

”साहब, बस अगले स्टेशन तक ही जाना है। यहीं बैठे रहने दें। मेहरबानी ,साहब!“

”तुम पर कोई मेहरबानी नहीं चलेगी। देखते नहीं ये साहब और इनके घरवाले कितने परेशान हैं, जल्दी उतरो वर्ना...........“

”साहब, हमें माफ़ कर दें........... बस अगले स्टेशन पर उतर जाएँगे। इस नोनी को अस्पताल भर्ती करना है, साहब..........।“

”मुझे कुछ नहीं सुनना है, उतरो फौरन वर्ना पुलिस बुलाता हूँ। तुमने साहब को जान से मारने की धमकी दी थी। जानते हो पुलिस तुम्हारे साथ क्या सलूक करेगी?“

”नहीं साहब, पुलिस नहीं बुलाना...... उसी का पाप ये नोनी पेट में ढो रही है। एक सिपाही से लड़ बैठी थी.... बस पकड़ ले गए.......।“ प्रौढ़ जैसे कहीं खो गया था।

”चुप कर अपने घर का मैला बाहर नहीं फेंकने का।“ एक वृद्ध स्त्री का तीखा स्वर गूँज उठा था।

”तुम्हारी फ़ालतू बातें हमें नहीं सुननीं हैं। अरे इस जैसी लड़की के साथ तो यही होना था।“ गार्ड के मुख पर किंचित् व्यंग्य उभर आया था।

”ऐ, क्या बोला तू...... नोनी तुरा मुंह नोच लेगी कमीने! तेरी माँ-बहन को ऐसा बोलने का।“ उत्तेजित नोनी को मुश्किल से पीछे किया जा सका था।

”अब तुमको नहीं छोडूँगा। इस लड़की को जेल की हवा न खिलाई तो मेरा नाम रामनाथ नहीं।“ क्रोध से गार्ड के नथुने फूल उठे थे।

”नहीं माई-बाप, इस लड़की पर दया करें,  कितना कुछ सहा है इसने।  आप इसे छिमा करें, सरकार!“ एक स्त्री रो पड़ी थी।

”चलो चलो, अब और टंटा नहीं करने का, उतरो सब।“

प्रौढ़ की आवाज पर एक-एक कर सब अपनी गठरी-मुठरी सहेज नीचे उतरने लगे थे। माँओं के सीने से चिपके बच्चे, अचानक छेडे़ जाने से बुक्का फाड़ रो पड़े थे।

नोनी को तो जबरन ही उतारा गया था। उसके उभरे पेट पर दृष्टि पड़ते ही, सविता सिहर-सी गई थी। किसके पाप का दंड कौन झेल रही है!

”ये सब डबलू टी (बिना टिकट) हैं, जेल में क्यों नहीं डलवा देते?“

”क्या फायदा-मुफ्त में जेल की रोटी खाएँगे और बाहर आकर फिर वही धंधा अपनाएँगे।“

”फिर भी उन्हें पनिश तो किया जाना चाहिए, वर्ना इनकी हिम्मत बढ़ती जाती है। मैं अपना स्टेटमेंट दूँगा कि मुझे मार डालने की धमकी दी गई थी।“

”बिना टिकट गाड़ी में क्या सोचकर बैठे थे कि सरकार तुम्हारा जुर्माना भरेगी? निकालो जुर्माना,  वर्ना चार महीने जेल की चक्की पीसोगे, समझे!“ राकेश के शह पर गार्ड और दबंग हो गया था।

”हम चोर-उचक्के नहीं हैं, सरकार। ये लीजिए हमारे टिकट.......।“ प्रौंढ़ ने अपनी जेब से सारे टिकट निकाल कर गार्ड की ओर बढ़ाए थे।

”इस लड़की को अस्पताल में भर्ती कराने जा रहे थे, हुजूर....... वहाँ की डाक्टर नोनी को जानती है। अगर इसका आपरेशन नहीं हुआ तो ये लड़की मर जाएगी.........।“ प्रौढ़ का कंठ रूंध गया था।

राकेश और गार्ड उन टिकटों को अवाक् ताकते रह गए थे।

टिकट रहते, पूरे समय वे फ़र्श पर बैठे रहे। सीट पर पाँव पसारे उसके सोते परिवार के प्रति उन्होंने कोई आपत्ति नहीं प्रकट की थी। उनकी झिड़कियाँ,  व्यंग्य सुनते रहे...... क्यों? क्या इसीलिए नहीं कि आज भी अपने अधिकारों के प्रति वे सजग नहीं है? फ़र्श पर बैठ यात्रा करना ही उनकी नियति है?

उलझन और शर्म का रंग सबके चेहरों पर पुत गया था। उनकी उस स्थिति से बेखबर, अपना सामान सहेजते वे मजदूर अगली गाड़ी की प्रतीक्षा में एक कोने में जा बैठे थे............।

जय श्री राम

”सुनो, पिछले कम्पार्टमेंट का लेडीज कूपे एकदम खाली है............।“


”तुम्हें यहाँ कौन-सी परेशानी है?“ रोहित झुंझला उठे थे।

”परेशानी क्यों नहीं है! हम पहले से ही पाँच है,  उस पर यह महिला पूरे तीन बच्चों के साथ एक बर्थ पर हक जमाने के नाम पर पूरी जगह घेरे बैठी है। बच्चे गन्दगी फेलाएँगे सो अलग......।“ मैं धीमे से फुसफुसाई थी।

”यात्रा में थोड़ी तकलीफ़ तो उठानी ही होती है,  वर्ना फ़र्स्ट क्लास में चलो, पर वहाँ तुम्हें पैसे बचाने की सूझती है।“

”प्लीज रोहित, जरा टी.टी. से पूछ देखो न,  अगर हम वहाँ शिफ्ट कर जाएँ तो कितना आराम हो जाएगा!“

मेरी उस मनुहार पर रोहित पसीज उठे थे। थोड़ी देर में आकर खुशखबरी सुनाई थी-

”चलो तुम्हारी ही बात रही। टी.टी. ने कह दिया है हम वहाँ शिफ्ट कर सकते है; पर मैं फिर कह रहा हूँ,  यहीं बैठी रहो, व्यर्थ इतना सारा सामान ढोकर उधर ले जाना होगा।“

”थोड़ी-सी तकलीफ़ के लिए तुम दो दिनों की तकलीफ़ सह सकते हो? जरा कुली को बुला लो,  छोटा-मोटा सामान हम ही ले चलेंगे!“

रोहित के अनुसार, जो मिल गया उससे संतोष कर पाना,  मेरा स्वभाव ही नहीं है। भानजे की शादी में जाने के लिए ढेर-सा सामान बाँधते देख,  रोहित ने नाराज़गी दिखाई थी-

”लगता है पूरा घर खाली करके साथ ले जाना है। ट्रेन से सफ़र करना है,  कौन उठाएगा इतना सामान?“

”वाह, शादी-ब्याह में भी चार ही साड़ी ले जाऊंगी? साथ में लड़कियाँ है,  शादी में भी अच्छे कपड़े नहीं पहनें तो कब पहनेंगे बताओ?“

प्रज्ञा और मेघा के साथ उनकी दो सहेलियाँ भी आनंद की शादी में सम्मिलित होने जा रही थीं। पाँच स्त्रियों के सामने भला रोहित अकेले की कैसे चलती? हारकर रोहित कुली बुला लाए थे। खाली कूपे में पहुँचते ही मेघा चहक उठी थी-

”वाह, मजा आ गया, यहाँ तो अब हमारा ही राज्य है। पापा,  यहाँ तो छठे व्यक्ति की तरह आप भी बैठ सकते हैं।“ प्रज्ञा की माँ की बुद्धिमानी पर मुग्ध थी।

”अब आगरा तक की जर्नी नहीं खलेगी। मम्मी यू आर ग्रेट!“ प्रज्ञा हमेशा से मातृ-भक्त थी।

”पापा, अब तो ढेर-सी मूंगफली खरीद लाइए,  साथ में मिर्चो वाला नमक भी जरूर लीजिएगा।“ मेघा ने लाड़ दिखाया था।

एक घंटे मूरी में ठहरने की ट्रेन की बाध्यता थी। जमशेदपुर से आने वाली ट्रेन के डिब्बे इसी गाड़ी में जोडे़ जाते हैं। प्रज्ञा और मेघा भगवान से विनती किए जा रही थीं कि उनके कम्पार्टमेंट में ज्यादा भीड़ न आए।

रोहित के मूँगफली ले वापस आने तक, दूसरे प्लेटफार्म पर जमशेदपुर की ट्रेन आ पहुंची थी। उस ट्रेन से उतर कर हमारी ट्रेन में आने वाले यात्रियों की रेलपेल के साथ प्लेटफार्म ‘जय श्री राम’ के उदघोष से गूँज उठा था। भगवा वस्त्रों में युवकों का एक जत्था हमारे कम्पार्टमेंट की ओर झपटा आ रहा था। सबके हाथ में एक-एक डंडा और माथे पर रामनामी पट्टी बॅंधी थी।

”अरे ओ सुरेसवा देख तो,  राम जी हमरे खातिर ई बोगिया भेज दीहिन हैं।“

”जय श्री राम...... आइए, सब इसी में प्रवेश लें।“ दूसरे युवक ने हमारे कम्पार्टमेंट में आ,  जयघोष किया था।

युवकों का जत्था इस तेजी से कम्पार्टमेंट में प्रविष्ट हुआ कि मिनटों में पूरा कम्पार्टमेंट भगवा रंग में रॅंग गया।

”ए साहबान,  आप सब किसी और बोगिया में चले जाएँ,  ई डिब्बा हमरे खातीर है,  जल्दी करें।“ बर्थ पर डंडा खटखटाते युवक ने घोषणा की थी।

”क्या कहते हो भाई, हमारा इसमें रिजर्वेशन है।“ एक सज्जन झुँझला उठे थे।

”अरे हमार रिजरवेसन भगवान राम कराए हैं,  जल्दी करो नहीं तो मामला गम्भीर बन जाई। समझ रहे हो न?“ सज्जन के साथ की लड़कियों की ओर युवक ने इशारा किया था।

युवकों ने डंडे पीटने के साथ ‘जय श्री राम’ के नारे लगाने शुरू कर दिये थे। अभी तक उनकी दृष्टि लेडीज कूपे पर नहीं पड़ी थी। प्रज्ञा, मेघा और उसकी सहेलियाँ इस अचानक शोर से घबरा उठी थीं।

”मम्मी, अब क्या होगा?“ मेघा डर गई थी।

”होना क्या है? हमारी बर्थ है,  हम यहाँ रहेंगे।“ मैंने उन्हें आश्वस्त किया था।

युवकों ने डंडे के जोर पर थोड़ी ही देर में कम्पार्टमेंट खाली करा लिया था। दो व्यक्तियों ने बर्थ से हटना अस्वीकार करना चाहा था-

”तुम्हारा रिजर्वेशन टिकट कहाँ है, सरसठ, अरसठ हमारी बर्थ है। ये देखो हमारे टिकट..........।“

व्यक्ति के वाक्य पूरा होने के पहले एक युवक ने उनके हाथ से टिकट छीन लिए थे।

”हम आपके खातिर गोली खाए जा रहे हैं,  और आप ई टिकस दिखात हैं.... जय श्री राम.........।“

”अरे तू तो निखालिस बुद्धू ही रहा, विनोदवा। अरे हम सीने पे गोली खाए जा रहे हैं न, एही कारन ई भलमानुस अपना टिकटवा तोहका दे दिये हैं.......... अरे ला हम देखें इनकर सीटवा........जय सिरी राम.....।“ युवक ने दोनों टिकट फाड़कर हवा में उछाल दिए थे।

”अरे गुंडागर्दी की भी हद होती है! मेरे टिकट फाड़ दिए, अभी टी.टी. को बुलाता हूँ। महेश, तुम जरा सामान देखना,  मैं अभी आया।“ एक व्यक्ति उत्तेजना में कम्पार्टमेंट से नीचे उतरने लगा था।

”अरे आप निश्चिन्त हो जाएँ,  हम आपका समनवा अच्छे से रखेंगे भाई।“ एक युवक आँख दबा मुस्कराया था।

”जय श्री राम।“ अन्य युवकों ने जयघोष किया था।

उनकी मुद्राओं को देख दूसरा व्यक्ति डर गया था। सामान सहित कम्पार्टमेंट छोड़कर उतर जाने में ही उसने भलाई समझी थी।

लड़कियाँ अब तक इस सारे कांड को कौतुक से देख रही थीं। शायद उन्हें कुछ मज़ा भी आने लगा था।

”पापा,  हम लोग भी ‘राम-सेवक’ बन गए हैं न?“ मेघा ने पूछा था।

”चुप रहो, मैं तो अभी भी कहता हूं,  हमें दूसरे कम्पार्टमेंट में ही रहना चाहिए था, ये सब पूरे गुंडे लग रहे हैं।“ रोहित लड़कों के व्यवहार से क्षुब्ध थे।

”वाह,  अच्छी कही। अरे एक तो इनकी वजह से हमें पूरा खाली कम्पार्टमेंट मिल गया है, उस पर तुम कहीं और जाने की बात कर रहे हो।“ मैं नाराज़ हो उठी थी।

”ठीक है, बाद में मुझे दोष मत देना।“ चेहरे के सामने अखबार खोल, रोहित ने अपने मनोभाव छिपा लिए थे।

पूरे प्लेटफार्म पर डंडे ठकठकाते युवक छा गए थे।

”अजुध्या में सीस नवाएँगे,  सीने पेगोली खाएँगे। जय श्री राम..............“

श्री राम के जय-जयकार से सारी दिशाएँ गूँज उठी थीं। प्लेटफार्म के खींचे-ठेले वाले इन नारों से अभिभूत दीख रहे थे। लड़कों के एक जत्थे ने मूँगफली के खोंचे पर धावा बोल दिया था,  दूसरा ग्रुप फलों की टोकरी से सन्तरे उठा,  मजे से छील-खा रहा था।

”भइया पैसे........?“ दबे स्वर में मूँगफली वाले ने विनती-सी की थी।

”अरे भइया,  तोरे खातिर हम गोली खाने जा रहे हैं और तुम पइसा माँगते हो?“ एक युवक ने आश्चर्य व्यक्त किया।

”हे भगवान, चुल्लू-भर पानी में डूब मरें वाली बात है.......‘जय श्री राम............’“

मिनटों में प्लेटफार्म पर लूट-मार का सा दृश्य उपस्थित हो गया। खोंचे वाले बचा-खुचा सामान उठा भागते नजर आ रहे थे और श्री राम के भक्त भगदड़ से उत्पन्न स्थिति का मज़ा उठा रहे थे।

”कैसन खदेड़ा है साल्लों को।“ एक लड़का अपनी वीरता का बखान कर रहा था।

ट्रेन का सिगनल हो गया था। सीटी के साथ डंडे पटकते श्री रामभक्त कम्पार्टमेंट में कूद कर चढ़ आए थे। रोहित ने उनके आने के पहले ही हमारे केबिन के द्वार बन्द कर लिए थे।

”जय सिरी राम...........“

”खालिस मजा आ रहा है, यार। कैसन मीठे संतरे थे। सिरी राम जी की कृपा बनी रहे,  आनंद ही आनंद है।“

”कालेजवा बंद पड़ा है,  घर में बोर होई गए थे,  सिरी राम जी ने बुलावा भेज,  तार लिया रे। अरे ओ भगनवा,  तनी कुछ गीत-गान होई जाए।“

”काहे नहीं, अबहिन लो....................“

जिया बेकरार है, छाई बहार है,

आजा मोरी पूनमवा, तोहरा इंतजार है,

”हाय रे तू और तोहार पूनमवा.......... राम जी के दरबार में जाय रहा है तबहिन पूनमवा को बुलावा दे रहा है!“

जोरों के ठहाकों ने हमें दहला दिया था।

”सच कह भगनवा,  ई पूनमवा से तोहार आशनाई कैसन भई? बड़ी जालिम लड़की है।“

”सरम कर मुन्ना,  यार की परेमिका है पूनम............ उस पर छींटाकशी ठीक नहीं भाई?“

”अरे काहे की सरम,  हम यार तो सब मिल-बाँटकर खाने वाले है। क्यों ठीक कहा न, मगन भाई?“

”सोलहो आने ठीक, तोहार जोरू, हमार जोरू...... कहो कैसन रही?“

मेरे कानों में उनके अश्लील वाक्य गर्म शीशे से चटख रहे थे। रोहित की ओर आँख उठा देखने की भी हिम्मत नहीं थी। लड़कियों की सोच दिल काँप उठा था।

”हे भगवान,  किसी तरह हमारी रक्षा कर।“ मन-ही-मन मैं भगवान से प्रार्थना कर रही थी।

दूसरे स्टेशन पर रोहित उतरने लगे थे। पीछे से रोहित की शर्ट खींच मैं बुदबुदाई थी-

”कहाँ जा रहे हो?“

”टी.टी. को बुलाने जा रहा हूँ।“ कुछ उत्तेजित स्वर में रोहित बोले थे।

”शिः ............ चुप रहो, टी.टी. क्या कर लेगा? अब तो कान में तेल डाले बैठे रहो, कोई फ़ायदा नहीं।“

”होगा क्यों नहीं, अभी स्टेशन मास्टर को बुलाता हूं।“

”प्लीज पापा,  आप बाहर मत जाइए।“ लड़कियों ने विनती की थी।

”चलो डिब्बा बदल लेते हैं।“ रोहित ने सुझाव दिया था।

”इतनी रात में किस डिब्बे में जगह खोजोगे! हमारे पास सामान भी तो कम नहीं है। अब तो भगवान का नाम लेकर यहीं बैठे रहो।“ इस समय सचमुच इतना अधिक सामान साथ लाने का मुझे दुख हो रहा था।

हमारी बातों की कुछ भनक शायद लड़कों को मिल गई थी।

”क्या बात है आंटी जी? कोई परेशानी है क्या?“ हमारे केबिन के द्वार पर डंडा ठकठका किसी ने पूछा था।

लड़कियाँ डर कर सिमट गई थीं। रोहित की दृष्टि मुझ पर आ टिकी थी।

”नहीं भइया,  कोई बात नहीं है।“ साहस कर मैंने जवाब दिया था।

”अरे अंकल जी,  आप काहे दरबे में बन्द बैठे हैं,  तनिक बाहर आएँ। आपका कोई नुकसान नहीं करेंगे।“

तैश में उठे रोहित ने कैबिन का द्वार खोल दिया था। रोहित के बाहर निकलते ही मैं भी उनके पीछे बाहर आ गई थी। बाहर आते-आते प्रज्ञा को केबिन-द्वार अन्दर से लाँक कर लेने के निर्देश दिए थे।

”आइए-आइए आंटी जी,  कहिए कहाँ जाना हो रहा है?“ एक लड़के ने पाँव सिकोड़ हमारे बैठने के लिए स्थान बना दिया था। रोहित के पास ही मैं भी सिमट कर बैठ गई थी।

”मेरी बहन बहुत बीमार हैं,  उन्हें ही देखने हम जा रहे हैं।“ रोहित के उत्तर देने के पहले ही मैंने अपनी बुद्धि का परिचय दिया था।

”ओह, हम तो समझे आप किसी के बियाह में जा रही हैं, आँटी।“

”न भइया, हम तो मुश्किल में जा रहे हैं। आप लोग कहाँ से आए हैं?“ उनसे मित्रतापूर्ण व्यवहार करने में ही बुद्धिमानी थी।

”हम लोग तो जमशेदपुर से भी बीस कोस दूर से आ रहे हैं। अजोध्या में कार-सेवा करने जा रहे हैं।“

”आप तो बहुत महान काम के लिए जा रहे हैं। क्या स्कूल-कालेज बन्द है?“

”अरे कालेजवा तो बन्दै रहत है। ये पूछिए क्या कालेज खुला है? खाली टाइम सोचा श्री राम जी के दर्शन का पुण्य ही उठा आएँ।“ एक दबंग से युवक ने अक्खड़ लहजे में जबाव दिया था।

”यह तो ठीक ही बात है। आजकल स्कूल-कालेजों की बुरी हालत है। इस बारे में मेरा लेख तैयार है, जल्दी ही आप पढ़ेंगे।“

”क्या ......आप पत्रकार है, युवक की तीखी आवाज पर रोहित चौंक गए।

”यह कहाँ की पत्रकार हैं। स्कूल मे टीचर हैं, कहानी-कविता लिखने का का शौक भर है।“ रोहित को मानो किसी खतरे का आभास-सा हुआ था। उनकी बात पर अविश्वास करती, युवक की तीखी दृष्टि मुझ पर गड़ गई थी। उसकी उस दृष्टि से मैं भी असहज-सी हो उठी थी।

”अब आप लोग आराम करें। आपको तो बहुत दूर जाना है। चलें, रोहित?“

उन जैसे अभद्र लड़कों के प्रति मेरा खुशामदी व्यवहार समय की माँग थी। साथ जा रही लड़कियों की चिन्ता से मेरा कंठ सूखा जा रहा था। अगर ये उद्दंड लड़के कुछ करने पर उतारू हो जाएँ तो अकेले रोहित क्या कर सकेंगे?

”हाँ-हाँ.......... आप आराम करें। खाना-वाना खाया है?“

रोहित भी जैसे डर-से गए थे। कुछ घंटों पहले स्टेशन पर उनकी लूटमार का दृश्य रोहित भूले नहीं थे।

केबिन में प्रविष्ट हो, द्वार की साँकल बन्द करते रोहित के मुख पर अभरे आक्रोश ने मुझे डरा दिया था। ट्रेन अपनी मद्धिम रफ्तार से जा रही थी। रात का घना अंधेरा मेरे अन्दर तक उतर आया था। लड़कियाँ ऊपर की बर्थ पर दुबक गई थीं। नीचे की बर्थो पर मैं और रोहित बेहद तनाव में जाग रहे थे। हमारा रोम-रोम मानो कान बन गया था। बाहर से उनके शील-अश्लील वाक्य हमें दहला जाते थे।

”अरे ओ सुरेसवा,  जरा हमको भी चुस्की लगवा दे। स्साला अकेला-अकेला ही मजा ले रहा है।“

”अरे काहे मरे जाते हो....... ले तू भी मजा ले ले।“

उनके सम्मिलित अट्टहास से मैं सिहर गई थीं अजीब-सी गंध से जी घबरा उठा था। रोहित धीमे से बुदबुदाए थे-

”गाँजा-चरस पी रहे हैं.............।“

”रोहित,  इनकी इस स्थिति के लिए क्या किसी हद तक हम जिम्मेवार नहीं हैं?“

”क्या कह रही हो?“

”अगर इनकी शिक्षा नियमित रूप से चलती, तो इन्हें इन कार्यो के लिए क्या अवकाश मिल पाता?“

”ये तुम नहीं तुम्हारी अध्यापिका बोल रही है।“

”शिक्षा के बाद की बेरोजगारी भी तो इन्हें निरूत्साहित करती है। हमारे प्रति इनका आक्रोश भी तो स्वाभाविक है।“

”इसका मतलब ये तो नहीं कि गुंडागर्दी पर उतर आएँ।“

”इन्हें गुमराह करने वाले भी तो हम में से ही हैं। इन्हें तो राजनीतिज्ञ अपना मोहरा बना लेते हैं, दण्ड यह भुगतते हैं।“

”अपना व्याख्यान उन्हें दिया तो था,  क्या नतीजा निकला?“ रोहित नाराज हो उठे थे।

”एक पल की बात से क्या परिवर्तन संभव है, रोहित?“

”तो उनके साथ तुम भी चली जाओ। पूरे समय भाषण पिलाती रहना।“

रोहित का तनाव मैं समझ सकती थी। तनाव में मैं भी थी, पर रोहित का अकेले पुरूष के रूप में बेहद तनावग्रस्त होना स्वाभाविक था। अन्ततः हम सबके लिए वह अकेले ही तो उत्तरदायी थे।

किसी स्टेशन पर ट्रेन रूकी थी। शीशे से बाहर देखने पर बाहर काफी सन्नाटा पसरा हुआ था। एक प्रौढ़ महिला के साथ आए व्यक्ति हमारे कम्पार्टमेंट का द्वार खटखटा रहे थे। कई बार जोरों की दस्तक पर एक लड़के ने चिल्ला कर कहा था,

”देखते नहीं ये बोगी रिजर्व है!“

”कैसे रिजर्व है? हमारा टिकट इसी बोगी का है। दरवाजा खोलिए।“

”नहीं खोलेंगे, जो करना हो कर लो।“

”देखो बेटा, मैं तुम्हारी माँ जैसी हूँ, खड़ी-खड़ी चली चलूँगी,  मुझे आने दो।“ प्रौढ़ लगभग गिड़गिड़ाई थी।

”अरे वाह, ये अपने पिताश्री तो बड़े ग्रेट निकले, यार। हमें पता ही नहीं, हमारी एक और माताश्री यहाँ रहती हैं।“

जी चाहा था बाहर निकल उन्हें धिक्कारूँ, माँ-तुल्य महिला के साथ ऐसा अभद्र व्यवहार! रोहित की स्थिति मुझसे भी बदत्तर थी। कुछ न कर पाने की छ्टपटाहट से वह तिलमिला रहे थे। अगर हम साथ न होते तो उन लड़कों का यह अश्लील व्यवहार स्वीकार कर पाना रोहित के लिए असंभव होता।

महिला के साथ आए पुरूषों में से एक टिकट चैकर को खोजने चला गया था, दूसरा बार-बार द्वार खोले जाने के लिए अनुनय करता रहा। थोड़ी ही देर बाद टी.टी. को ख़ोजने गया व्यक्ति हताश लौट आया था।

”न जाने कहाँ जाकर सो गया है, किसी का कहीं पता ही नहीं है।“

”ट्रेन छूटने ही वाली है,  उमेश, माँजी को बगल वाले कम्पार्टमेंट में बिठा दो। आगे देखा जाएगा।“

ट्रेन में आरक्षण होते हुए भी किसी भीड़-भरे कम्पार्टमेंट में उन्हें शरण मिल सकी या नही हम नहीं जान सकें। महीनों पहले से आरक्षण कराने का क्या लाभ?

लड़कियाँ पता नहीं सो पा रही थीं या नहीं, हम सब भावी आशंका से त्रस्त, जागते हुए भी सोने का बहाना किए पड़े थे।

आतंक का दूसरा दौर शुरू हो चुका था। बन्द दरवाजे पर डण्डों की ठकठकाहट गूंज उठी,

”आंटी जी, क्या सो गई? जरा बाहर आइए-बात करें।“

भय से खून जम गया था। उसके बाद तो डण्डों की ठकठकाहट जैसे रूटीन बन गई। जिस तरह थोड़ी-थोड़ी देर में वे जय श्री राम के नारे लगाते थे, उसी तरह थोड़ी-थोड़ी देर में द्वार पर डण्डे ठकठका उस कम्पार्टमेंट में यात्रा करने का दण्ड हमें दे रहे थे। डर और आतंक से हम मौन पड़े किसी अनहोनी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बस अब द्वार खुला और.............

चुनार पर ट्रेन के रूकते ही कार-सेवकों के ‘जयघोष’ ने चौंका दिया था-

”जय श्री राम। जय बजरंग बली।“

”उतरो-उतरो,  सरयू-स्नान करने जाना है। यहीं से गाड़ी बदलनी है।“

कुछ ही देर में सारे सेवक उतर गए थे। मानसिक दुश्चिन्ता से उबरने की राहत कितनी सुखदायी होती है, उस पल जान सके थे। प्रज्ञा ने ऊपर की बर्थ से नीचे झाँक कर देखा था,

 ”नाऊ रिलैक्स मम्मी! पूरी रात सो नहीं पाई थीं न?“

क्या प्रज्ञा, मेघा, आभा, नेहा कोई भी सो पाई थीं?

अभी हम उस मानसिक यंत्रणा से उबर भी न पाए थे कि हमारे केबिन के द्वार पर जोरों की दस्तक पड़ी थी।

”कौन? ये लेडीज कूपे हैं।“

”दरवाजा खोलिए, टिकट चेक करना है।“

मेरा क्रोध चरम सीमा पर था। फटाक से द्वार खोल मैं लगभग चीख पड़ी थी।

”अब तक कहाँ गायब थे आप? जानते हैं हमने किस तरह से रात गुजारी है!“

”पूरे कम्पार्टमेंट में जब बिना टिकट यात्रियों का राज्य था, तब टिकट चैक करने क्यों नहीं आए? आपकी रिपोर्ट ऊपर तक भेजूंगा। अक्ल ठिकाने आ जाएगी।“ रोहित तैश में हाँफ उठे थे।

”क्षमा कीजिए,  हम क्या कर सकते है?“

”क्यों नहीं कर सकते! अगर आप आते तो हम सब आपकी मदद करते,  इस तरह गुंडागर्दी को बढ़ावा तो नहीं मिलता।“

”ऐसी बात है तो सुनिए, अभी कुछ दिन पहले एक सज्जन अपनी किशोरी लड़की के साथ यात्रा कर रहे थे। ऐसे ही कुछ असामाजिक तत्वों ने लड़की से छेड़छाड़ शुरू की। पिता ने विरोध करना चाहा तो उन्हें चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया था।“

”हे भगवान, उस लड़की का क्या हुआ?“ मैं स्तब्ध हो उठी थी।

”भगवान जाने। और जानती हैं सज़ा किसे दी गई? बेचारा टिकट चेकर निलम्बित कर दिया गया।“

”पर अगर टिकट चेकर अपनी ड्यूटी ठीक से करता तो ऐसे एलीमेंट को कम्पार्टमेंट में घुसने से तो रोका जा सकता था न?“ रोहित का आक्रोश ठीक ही था।

”जिनके साथ अभी यात्रा कर रहे थे, उनसे नीति-व्यवस्था की बात क्या की जा सकती है? क्या कर सके आप?“

रोहित को जैसे तमाचा-सा लगा था। सचमुच क्या कर सके हम? इक्कीसवीं सदी को अग्रसर हमारा देश और देश की भावी पीढ़ी....जनतंत्र का अर्थ क्या यही है? हमें मौन खड़ा छोड़ टिकट- चेकर आगे चला गया था।

दूसरे दिन प्रातः समाचार-पत्रों पर दृष्टि पड़ते हम चौंक गए थे..... हम तो केवल अपने बन्द दरवाजे के तोडे़ जाने के भय से आतंकित थे, उन्होने तो पूरे देश की संस्कृति, मान-सम्मान को आमूल ढहा डाला था.

”कार-सेवकों द्वारा विवादग्रस्त ढाँचा ढहा दिया गया............।“

इट्स माई लाइफ़

हाँलीडे रिसोर्ट के बाहर युवा पीढ़ी कुछ रंग जमाने के मूड में थी। पिछले दो दिनों की लगातार बारिश ने सबको अपने कमरों में कैद रहने को बाध्य कर दिया था। आज शाम आसमान खुलते ही लड़कों ने सूखी लकड़ियाँ जमा करनी शुरू कर दी थीं। आज रात जम कर कैम्प- फ़ायर चलेगा। उनके उत्साह से साथ आए प्रौढ़ भी उत्साहित हो चले थे। पहाड़ी मौसम का क्या ठिकाना, जब आकाश खुले मौज मना लो वर्ना फिर वही डिप्रेसिंग वेदर उन पर हावी हो जाएगा।


कैम्प- फ़ायर की तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं। राँबिन ने जोरों से आवाज़ लगाई थी,


  ”हे, आँल आँफ़ यू कम आउट। लेट्स हैव म्यूजिक एण्ड डांस।“

रोहन ने म्यूजिक सिस्टम चालू कर दिया था। लड़के-लड़कियों और बच्चों ने संगीत पर झूम-झूमकर नाचना-गाना शुरू कर दिया । अचानक वो उदास शाम बहुत रंगीन हो उठी । बारिश से धुली प्रकृति बेहद खूबसूरत लगने लगी थी।

राँबिन जैसे सबका चहेता हीरो बन गया था। प्रभुदेवा की स्टाइल में नृत्य करते राँबिन ने जब जलती आग को पार किया तो बुजुर्गो ने डर से साँस रोक ली और युवा पीढ़ी ने जोरों से तालियाँ बजा, उसका अभिनंदन किया था। राँबिन को डांस करते देखना, सचमुच एक अनुभव था। आकर्षक व्यक्तित्व के साथ उसकी नृत्य मुद्राओं ने सबको विस्मय-विमुग्ध कर दिया था।

”अगर लड़के को फ़िल्म वाले देख लें तो तुरन्त ब्रेक मिल जाए। इसे तो फ़िल्म्स में ट्राई करना चाहिए।“ मिस्टर आजमानी ने राय दी थी।

”आप ठीक कह रहे हैं,  मुझे तो डर है कहीं ये हमारी लड़कियों का मन न मोह ले। मुश्किल में पड़ जाएँगें सारे पापा लोग..........।“ रामदास जी की बात पर सब जोरों से हॅंस पड़े थे।

उस पहाड़ी क्षेत्र का वह हाँलीडे रिसोर्ट न केवल देशी बल्कि विदेशी पर्यटकों के भी आर्कषण का केन्द्र था। शहर से दूर एकान्त में स्थित उस हालीडे रिसोर्ट मे पर्यट्कों के लिए सारी सुख.सुविधाएं उपलब्ध थीं। हेल्थ केयर सेंटर, मसाज ब्यूटी पार्लर, स्केटिंग और डांसिंग फ्लोर के अलावा रोज की ज़रूरतों के लिए छोटी-सी मार्केट भी थी। रिसोर्ट की अपनी अलग ही दुनिया थी। भीड़भाड़ से दूर, शांति की खोज में आए पर्यटकों के लिए वो हाँलीडे रिसोर्ट स्वर्ग ही था।

युवा पीढ़ी ने सचमुच रंग जमा लिया था। राँबिन और उसके दोस्तों ने अपने रंग में बड़ो को भी शामिल कर लिया था।

”हे लिसिन एवरीबडी! डू यू नो हाऊ टु प्ले पिंक पायजामा?“

”नही.....ई ........“ समवेत स्वर गूंजा था।

”ओ.के. मैं एक्सप्लेन करता हूँ। पहले सब एक सर्कल में आ जाइए। अंकल-आंटी,  यंग फ्रेंड्स सबको घेरे में आना है। कम आँन एवरी बडी.........“

राँबिन की पुकार पर सब घेरे में सिमट आये थे। तभी राँबिन की दृष्टि कोने में सिमटी खडी निकिता पर पड़ी थी। सबके उस सर्कल में चले जाने पर अकेली छूट गई निकिता जैसे घबरा-सी रही थी। तेजी से निकिता के पास पहुँचे राँबिन ने उसका हाथ पकड़,  घेरे में खींचना चाहा था। निकिता के प्रतिरोध पर राँबिन हॅंस पड़ा था-

”कम आँन बेबी, लेट्स एन्ज्वाँय। अपने ग़म भूल जाओ...............“

निकिता को सर्कल में शामिल कर राँबिन ने गेम समझाना शुरू किया था-

”हाँ तो ये गेम ऐसे है, आपको अपने नेक्स्ट पर्सन के कान में किसी फ़िल्म का नाम देना है,  वह व्यक्ति अपने अगले पर्सन को किसी दूसरी फ़िल्म का नाम देगा। बस ऐसे ही करते जाना है, समझ गए?“

”यस....।“ उत्साहपूर्ण स्वर उभरे थे।

”एक-दूसरे के कान में पिक्चर का नाम फुसफुसाते सर्कल पूरा हो गया था।

अब? राँबिन ने समझाया था, ”गेम इज वेरी सिम्पल। आपको जिस फ़िल्म का नाम बताया गया है, उसके आगे "इन पिंक पायजामा" जोड़कर फ़िल्म का नाम बोलते जाइए। नाउ दिस यंग लेडी विल स्टार्ट......“

”दिल देके देखो इन पिंक पायजामा.......... हॅंसी का दौर पड़ गया था।

”हम आपके हैं कौन, इन पिंक पायजामा...........“

अजीब समाँ बॅंध गया था,  कुछ अजीबोगरीब नामों के साथ जुड़कर पिंक पायजामा बेहद सेक्सी बन गया था। निकिता की बारी आते ही मौन छा गया था। राँबिन उसके पास आया -

”हाय निकिता बेबी,  बोलती क्यों नहीं?“ निकिता जैसे और सिमट गई थी।

”हे! व्हाँट इज राँग? तुम खेल समझ गई न?“

निकिता ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया था।

”फिर बोलती क्यों नहीं?“

निकिता फिर चुप रही।

”अगर तुम नहीं बोलोगी तो हम गेम यहीं खत्म करते हैं,  तुम्हारे लिए सबका मज़ा खत्म हो जाएगा।“

निकिता के मौन पर सबको नाराज़गी थी। मम्मी की तो नाक ही कट गई।  इस लड़की की वजह से उन्हें कितनी शर्मिन्दगी उठानी पड़ती है! निकिता के कंधे जोर से दबा उन्होंने अपना गुस्सा उतारा था-

”यू सिली गर्ल,  अगर दिमाग नहीं है तो गेम मे शामिल क्यों हुई? अब बोल भी दे..........“

फुसफसाहट में कहे गए मां के शब्द निकिता को आतंकित कर गए, घर पर रोज उनके निर्देश-डाँट सुनती निकिता, अब क्या चुप रह सकती थी।

”सैक्सी गर्ल इन पिंक पायजामा“

हॅंसी के फौव्वारे छूट गए थे। सबकी दृष्टि निकिता की पिंक सलवार पर पड़ गई थी। व्हाँट ए कोइंसीडेंस! डनकी हॅंसी पर हथेलियों में मुँह छिपा निकिता अपने काँटेज की ओर दौड़ गई थी। दूर तक लोगों की हॅंसी उसका पीछा करती रही थी।

जब से मम्मी-पापा यू.के. से आए हैं, उसके शांत-स्थिर जीवन में व्यवधान पड़ गया था। दादी के संरक्षण में वह अपने को कितना सुरक्षित पाती थी।! बॅंधी-बॅंधाई दिनचर्या, रोज सुबह मंदिर में पूजा के बाद काँलेज जाना, शाम को दादी को रामायण पढ़कर सुनाना और रात में दादी से सटकर लेटी निकिता, गहरी नींद में डूब जाती। बाबा की मृत्यु पर आए मम्मी-पापा को दादी के एकान्तवास की चिन्ता थी। लाख कहने पर भी दादी लंदन जाने को तैयार नहीं हुई थीं। हाँ बेटे से ये जरूर कहा था,

”अगर मेरे अकेलेपन की इतनी ही चिन्ता है तो निक्की को छोड़ जा, मुझे देखने को घर के पुराने मुनीम जी और माली हैं ही,  तुझे चिन्ता करने की जरूरत नही। ये पूरा कस्बा तेरे पिता का आभारी है।“

मम्मी ने राहत की साँस ली थी। दादी को साथ रखने में उन्हें कितनी असुविधाएँ झेलनी पड़तीं ! एक बार निकिता को छोड़ते मन हिचका था, पर पति ने समझाया था,

”वहाँ तुम्हारा इतना बिज़ी प्रोग्राम रहता है, तीन बच्चों में से एक यहाँ रह जाए तो कुछ बर्डेन कम होगा। माँ निक्की को अच्छी तरह देख सकती हैं। आखिर मैं भी तो उन्हीं की देखरेख में पला-बड़ा हुआ हूँ।“

पति की बातों में सच्चाई थी। वैसे भी अपने बच्चों में निकिता का सामान्य रंग-रूप, गौरी को अपने गोर-चिट्टे रंग का मज़ाक-सा उड़ाता लगता था। दूसरे दोनों बच्चे मनोज और नेहा,  उन्हीं पर गए थे। निकिता का साँवला रंग, उसकी ददसाल की देन था, शायद इसीलिए मम्मी को निकिता से कभी भी ज्यादा लगाव नही रहा। इस बार भारत आने पर उन्हें लगा, निकिता की साँवली काया खिल आई थी। शायद यह उसकी उम्र का तकाजा था। सोलह साल की उम्र में तो हर लड़की मोहक दिखती है, पर उसके तौर-तरीकों ने गौरी को परेशान कर डाला था। लम्बे बालों को कसकर दो चोटियों में गूंथ, बालों की शोभा ही नष्ट हो गई थी। सुबह-शाम पूजा-पाठ करने वाली लड़की से यू.के. का कौन लड़का शादी करेगा?

रात में गौरी ने पति से कहा था, ”सुनो जी, इस बार निक्की को साथ ले जाना है, यहाँ रहकर यह निरी गॅंवार बन गई है।“

पत्नी की बात सुन निखिल परेशान हो उठे थे। कुछ ही दिनों में उन्होंने जान लिया था माँ और निक्की किस तरह एक-दूसरे से जुड़ गई थीं, उन्हें अलग करना, उनके प्रति अन्याय होगा। निकिता अब क्या लंदन के जीवन से साम्य बिठा सकेगी?

पति को सोच में डूबा देख गौरी झुझॅंला उठी थी, ”क्या सोच रहे हो! लड़की की जिन्दगी यूं खराब नहीं की जा सकती, कुछ तो करना ही होगा।“

”वही सोच रहा हूँ। ऐसा करते हैं हम सब किसी हिल स्टेशन पर चलते हैं, देखते हैं निक्की हमारे साथ रह सकेगी या नहीं।“

”क्या मतलब? हमारी बेटी हमारे साथ नहीं रह पाएगी, आखिर हमारा खून है वो।“

”तुमने देखा नहीं, माँ के साथ वह किस तरह जुड़ गई है। उन दोनों को अलग करना क्या आसान होगा?“

”इसमें तुम्हारी ही ग़लती है, मैंने तो पहले ही कहा था,  उसे यहाँ छोड़ना ग़लती थी।“

”ठीक है, चलो इसी बहाने एक सप्ताह सब साथ एन्ज्वाँय कर लेंगे और मेरी बात की सच्चाई का भी टेस्ट हो जाएगा।“

अपने ही माँ-बाप, भाई-बहनों के साथ निकिता अपने को बेहद अजनबी पाती थी। दादी के साथ सब कुछ कितना सहज और सामान्य-सा लगता था। गौरी उसकी आदतों से परेशान थी। बार-बार निर्देश देती, वह झुँझला उठती-

”हे भगवान, ये तो एकदम जाहिल बन गई है। हाथ से दाल-भात खाती, कैसी तो लगती है!“

डर कर निकिता चावल खाना छोड़, रोटी कुतरने लगती। मनोज और नेहा उसे कौतुक से देखते, क्या सचमुच वो उनकी बड़ी बहन थी?

उसी निकिता को आज सबके सामने कैसे आशोभनीय शब्द दोहराने पड़े थे, ”सैक्सी गर्ल इन पिंक पायजामा।“

कमरे के पलंग पर औंधी पड़ी निकिता रोती जा रही थी, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई थी,
”मे आई कम इन..........“

निकिता घबरा उठी थी। जल्दी से आँसू पोंछ दरवाजा खोला था, सामने राँबिन खड़ा था।

”हे बेबी! व्हाँट इस दिस? आँसुओं में डूबी राजकुमारी, तुम्हें क्या तकलीफ़ है? क्या हुआ?“ राँबिन सचमुच कंसर्न दिख रहा था।

राँबिन की सहानुभूति पर निकिता के आँसू फिर बह चले थे। आश्चर्य से राँबिन ने उसकी ठोढ़ी उठा कर फिर पूछा था,

”कम आँन! क्या हुआ,  निकिता बेबी?“

”कुछ नहीं..........“

”फिर रोती क्यों हो?“

”हमें ये सब गंदी बातें अच्छी नहीं लगतीं।“

राँबिन ठठाकर हॅंस पड़ा था।

”ओह गाँड! तुम खेल को सीरियसली लेती हो?“

”खेल में ऐसी बातें कही जाती हैं? सब क्या सोचते होंगे?“

”पागल......... सिम्पली मैड। अरे ये खेल है, कोई इन बातों को सीरियसली नहीं लेता। सच तो ये हैं तुम्हारी वहाँ से एबसेंस का भी किसी ने नोटिस नहीं लिया।“

”फिर तुम यहाँ कैसे आए?“

”क्योंकि मैंने तुम्हारी एबसेंस फील की थी, निक्की बेबी!“ अपनी बात खत्म करते राँबिन ने प्यार से निक्की के माथे पर झूल आई लट संवार दी । निकिता सिहर उठी ।

”आर यू फ़ीलिंग कोल्ड?........“

निकिता ने नहीं में सिर हिलाया था।

”अच्छा तो आज से हम दोनों दोस्त हुए, बोलो मंजूर है?“ राँबिन ने अपनी हथेली खोल आगे बढ़ा दी थी। निकिता उस खुले हाथ पर अपना हाथ देती हिचक रही थी। राँबिन ने उसका हाथ पकड़ जोर से दबाया था।

”अब हम दोस्त हैं,  नाउ नो मोर क्राइंग। चलो एक कप काँफ़ी हो जाए।“

”हम काँफ़ी नहीं पीते।“

”फिर क्या दूध पीती हो?“ राँबिन शरारत में मुस्करा रहा था।

”हाँ।“ कहते निकिता को शर्म आई थी।

”चलो आज मैं काँफ़ी बनाता हूँ,  टेस्ट करके देखोगी तो दूसरे के हाथ की काँफ़ी कभी नही पियोगी।“

निकिता असमंजस में पड़ गई थी। राँबिन उसको लगभग खींचता-सा अपनी काँटेज में ले गया था। निकिता को एक कुर्सी पर बैठा उसने दो कप काँफ़ी तैयार की थी। विस्मित निकिता उसे देखती रह गई थी। काँफ़ी का मग निकिता को थमा, उसने म्यूजिक सिस्टम आँन किया था। पहला-पहला प्यार है........ निकिता रोमांचित हो उठी थी। जैसे वह सपनों में जाग रही थी।

”तुम्हें डांस आता है?“

”नहीं.........।“

”सीखोगी?“

”हमें शर्म आती है.......“

”सिली गर्ल! किसी भी आर्ट को सीखने में शर्म क्यों? मैं डांस करता अच्छा नहीं लगता?“

निकिता चुप रह गई थी।

”मैं अच्छा नहीं लगता?“

”लगते हो.....।“ बहुत मुश्किल से कह पाई थी।

”तुम डांस करती बहुत अच्छी लगोगी,  निक्की बेबी! शैल वी स्टार्ट?“

निकिता का हाथ पकड़ राँबिन ने उठाया था।

”नहीं, हमें शर्म आती है। हम डांस नहीं करेंगे..........“

”हम दोनों दोस्त हैं, अब एक-दूसरे से शर्म क्यों? देखना दो दिन में सीख जाओगी।“

निकिता की कमर में हाथ डाल, राँबिन ने स्टेप्स बताने शुरू किए थे। निकिता जैसे अपना होश खो बैठी थी। पाँवों को पंख लग गए थे, राँबिन के इशारों पर वह स्वप्नवत् नाचती गई थी।

”वैरी गुड। ये तुम्हारा पहला लेसन था, कल दूसरा लेसन शुरू होगा। आज के स्टेप्स अच्छी तरह याद कर लेना वर्ना मेरी डांस-पार्टनर कैसे बन पाओगी?“

”तुम्हारी डांस- .पार्टनर मैं..... राँबिन, तुमने यही कहा है न?“ खुशी में पगी निकिता बोल नहीं पा रही थी।

”हाँ। यही मेरा चैलेंज है, बोलो मेरा साथ दोगी न, निक्की?“ निकिता मुश्किल से सिर हिला सकी थी।

”तो पक्का रहा। चलो तुम्हें पहुँचा आऊं,  देर हो रही है।“ राँबिन के साथ अपने काँटेज पहुंची निकिता जैसे सपने से जगा दी गई थी।

”ओ.के. निकिता,  सी यू टुमारो, बाय-“ हाथ हिलाता राँबिन चला गया था।

मम्मी-पापा वगैरह अभी भी बाहर के प्रोग्राम में बिज़ी थे। निकिता डांस स्टेप्स का रिहर्सल कर रही थी, कल उसे राँबिन को चौंका देना था। उसके थककर सो जाने के बाद नेहा, मनोज के साथ ममी-पापा वापस आए थे। दूसरे दिन सबका पिकनिक स्पॉट्स देखने जाने का प्रोग्राम था। निकिता ने कहीं भी जाने से साफ़ मना कर दिया था। ठीक समय पर राँबिन आया था। आज काँफ़ी निकिता ने बनाई थी। डांस के स्टेप्स सिखाते राँबिन ने निकिता को न जाने कितनी बार अपने पास खींचा था। बार-बार रोमांचित होती निकिता सपने में जीती रही थी।

पाँच दिन बाद राँबिन ने सबके सामने उसे अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित किया था। नेहा तो चौंक गई थीं डांस में एक्सपर्ट उतनी लड़कियों के रहते निकिता को बुलाकर राँबिन क्या उसका अपमान नहीं कर रहा था।

इट्स माई लाइफ़....गीत चल रहा था। राँबिन के बढ़े हाथ में अपना हाथ देती निकिता डांस-फ्लोर पर उतर आई थी। नेहा की आँखें विस्मय में फैल गई थी। पति की ओर देख,  गौरी मुस्कराई थी।

डांस-फ्लोर पर निकिता सहज दिख रही थी। लोगों की दृष्टि मात्र से संकुचित होने वाली निकिता आज राँबिन के साथ डांस-फ्लोर पर थी। सब कुछ कितना अच्छा लग रहा था!

”कल मैं जा रहा हूँ बेबी.........।“ धीमे से राँबिन ने कहा था।

”क्या.......आ.........कहाँ..क्यों?“ निकिता जाग गई थी।

”घर। ....... तुम्हें भी तो जाना है न?“

”नहीं, तुम नहीं जाओ, राँबिन.........!“

”मैं एक जगह बॅंधकर नहीं रह सकता, बेबी। वैसे भी अब तुम्हें मेरी जरूरत नहीं है, यू नो डांसिंग......“

”नहीं राँबिन,  हमें तुम्हारी जरूरत है। हमें छोड़कर नहीं जाओ।“ निकिता की आँखें भर आई थीं।

”कम आँन निकिता,  तुम मैच्यूर लड़की हो, बच्चों की तरह नहीं रोते,  सिली गर्ल......“

”तुमने हमसे दोस्ती क्यों की,  राँबिन?“

”क्योंकि तुम एक अच्छी लड़की हो, दूसरी लड़कियों से बहुत अलग। तुम हमेशा याद रहोगी। नाऊ चियर अप निकिता- इट्स माई लाइफ़.........“

मस्ती में गीत गुनगुनाता राँबिन, निकिता को फ्लोर के बाहर पहुंचा, सामने खड़ी लड़की का हाथ पकड़े फ्लोर पर पहुंच गया था। लड़की को चक्कर दिलाते राँबिन को निकिता स्तब्ध ताकती रह गई थी।

”चल निक्की, देर हो रही है।“ गौरी ने स्नेह से उसके कंधे पर हाथ धरा था।

काँटेज पहुँचते ही नेहा शुरू हो गई थी,

 ”मम्मी, निक्की ने क्या सरप्राइज दिया! मैं तो इमेजिन भी नहीं कर सकती थी, शी कुड डांस सो वेल............“

”हूँह। इसे डांस सिखाने के पूरे पाँच हजार दिए हैं,  वर्ना क्या ये डांस कर पाती?“

”किसे पाँच हजार दिए हैं,  मम्मी?“ नेहा ताज्जुब में थी।

”अरे उसी डांसर........ राँबिन को। वो तो इसे सिखाने को तैयार ही नहीं था, कहता था इसे डांस सिखाने की जगह किसी पत्थर की मूरत को सिखा देगा, पर पाँच हजार पर मान गया। आज उसने डिमांस्ट्रेट किया था, बाकी रकम जो लेनी है।“

”नहीं...... तुम झूठ बोलती हो, वो हमारा दोस्त है...... हमारा दोस्त है।“ अपने सारे टूटे सपनों के साथ निकिता पलंग पर ढेर हो गई थी।

फैसला

पिछले दो दिनों से अपना कमरा बंद किए पड़ी नीलांजना, अचानक दरवाजा खोल, बाहर आ खड़ी हुई थी-


”बाबूजी, मंैने फ़ैैसला कर लिया है, मैं काजल भाभी का साथ दॅूगी। अदालत में उनके पक्ष में गवाही दॅूगी।“

नीलांजना की घोषणा से पूरे घर में सन्नाटा खिंच गया । बड़े भइया की मृत्यु पर मातमपुर्सी करने आए रिश्तेदारों पर विजली-सी गिरी थी। अम्मा कपाल पर हाथ मार विलाप कर उठी । बाबूजी की आँखों से अंगारे बरस रहे थे-

”ये बात मॅुंह से निकालने के पहले तू मर क्यों न गई? सगे भाई की हत्यारिन का साथ देगी! इसी दिन के लिए बड़ा किया था तुझे?“

”न्याय और अन्याय की समझ देने के लिए आपकी आभारी हूँ बाबूजी! क्ुछ देर ठंडे दिमाग से सोच देखिए, उनकी जगह आपकी बेटी होती तब भी क्या आप ऐसा ही सोचते?“

”बेशर्म कहीं की, बाप के सामने ऐसी बातें करते तेरी जीभ नहीं जलती! दूर हो जा मेरी आँखों के सामने से वर्ना..........“

आवेश में बाबूजी हाँफने लगे थे। रिश्ते के चाचाजी ने उन्हें सम्हाला था। सुमित्रा ताई ने नीलांजना को हाथ से पकड़, जबरन पीछे खींच, बाबूजी के सामने से हटा दिया था।

”देखती नहीं माँ-बाप का क्या हाल है? जवान बेटे की मौत का सदमा लगा है उन्हें।“

”वो बेटा ज़िंदा ही कब था ताई? तुम्हीं तो कहा करती थी, काश सुरेश हमेशा को सो जाता..“ निलांजना की आखें भर आई थीं।

”वो बात ठीक है नीलू, पर माँ-बाप के लिए संतान कैसी भी हो, ममता तो उमड़ेगी ही। ऐसी बातें करके उनका दिल दुखाने से क्या फ़ायदा बेटी?“

”काजल भाभी भी तो किसी की बेटी हैं ताई.........“

”अरे उस अभागिन के माँ-बाप होते तो क्या इस नरक में उसे झोंकते? तू क्या समझती है मुझे उस पर तरस नहीं आ रहा, पर इस वक्त कुछ कहना ठीक नहीं।“

”ठीक क्यों नहीं है ताई? पिछले दो दिनों से भाभी पुलिस कस्टडी में हैं, उनके साथ न जाने क्या हो रहा होगा और हम सब इस साजिश में शामिल हैं।“ निलांजना सचमुच रो पड़ी थी।

”मैं तेरी बात समझती हूँ बिटिया। उस अभागिन के अपने चाचा भी तो उसे हत्यारिन कह, अपना पीछा छुड़ा गए। न जाने क्या-क्या सहना है उसकी किस्मत में। भगवान दुश्मन को भी ऐसी तकदीर न दे।“ ताई ने आँचल से आँसू पोंछ डाले थे।

कुर्सी पर निढाल पड़ी नीलांजना की आँखों से आँसू बह रहे थे। सारी बातें बार-बार याद आ रही थीं.........

बड़े भइया की शादी के बाद से उनके कामों का दायित्व काजल भाभी को सौंप, अम्मा निश्चिन्त हो गई थीं। पति को नहलाने-धुलाने से लेकर कपड़े पहनाना, खाना खिलाना पत्नी का ही कर्तव्य है, ये बात अम्मा ने उन्हें अच्छी तरह समझा दी थी। अम्मा उन्हें दो बार स्वयंसिद्धा पिक्चर दिखा लाई थीं। बार-बार समझातीं,

”पत्नी के प्यार और त्याग से पति ठीक हो सकता है। अब सुरेश को तुझे ही सम्हालना है बहू।“ भोली-भाली काजल भाभी मॅुंह नीचा किए निःशब्द अम्मा की सीख सुनती रहती थीं।

मातृ-पितृ-विहीन काजल ने चाचा के घर, नौकरानी की तरह काम कर दिन काटे थे। उस पर भी चाची को उसकी दो रोटियाँ भारी थीं। सबके खा-पी चुकने के बाद, बचा-खुचा उसके सामने फंेक दिया जााता था। माँ-पिता एक साथ रेल-दुर्घटना में उसे अनाथ बना, चाचा के सहारे छोड़ चले गए थे। तब वह सातवीं कक्षा में पढ़ती थी। बस वहीं, मेधावी काजल की शिक्षा को विराम लग गया था। चाचा के बच्चों को स्कूल जाता देख, काजल का मन मचल उठता था, पर भगवान ने उसे असीम धैर्य दिया था। अपनी स्थिति उसके सामने स्पष्ट थी। चचेरी बहन की पुस्तकों की झलक देख पाने के लिए काजल को उसकी हज़ार मिन्नतें करनी पड़ती थीं। अगर चाचाी की निगाह किताबों में आँख गड़ाए काजल पर पड़ती तो उसकी शामत आ जाती।

उसी काजल के लिए चाचा ने उपयुक्त घर-वर खोज, मृत भाई के प्रति अपना कर्तव्य पूर्ण कर, जग की वाहवाही पाई थी। सब कुछ जानते-समझते भी, जन्म से मानसिक रूप से विक्षिप्त भइया के साथ उन्होंने काजल को बाँध दिया था।

आँखों में कितने सपने सॅंजोए काजल इस घर में आई थी। चाचा के प्रति वह कितनी कृतज्ञ थी, उनकी कृपा से उसे इतना अच्छा घर-वर मिल सका था। आश्चर्य इसी बात का था कि उस दिन बड़े भइया असामान्य रूप में शान्त रहे। उनको शांत देख, नीलांजना को लगा था शायद अम्मा-बाबूजी के जिन शुभचिन्तकों ने उन्हंे समझाया था कि शादी के बाद भइया ठीक हो जाएँगे, वे सचमुच अनुभवी थे।

भइया की शादी का सबसे ज्यादा विरोध नीलांजना ने किया था। एम.ए. फाइनल में पढ़ रही नीलांजना, न्याय-अन्याय का अर्थ अच्छी तरह समझती थी। भइया का अभिशाप पूरे घर पर मॅंडराता था। बड़े भइया की जन्मजात विक्षिप्तता का कलंक झेलती अम्मा अपने आप में सिमट कर रह गई थीं। दादी हर समय बाबूजी को पट्टी पढ़ाती, उन्हें सुनाती रहती थीं,

”पगले को जन्म दिया है, ज़रूर इसके ख़ानदान में कोई पगला रहा होगा। तू ही समझ मनोहर बेटा, हमारे ख़ाानदान से न जाने किस जन्म का बदला लिया इसके बाप ने। हमें धोेखे में रख, शादी कर दी अपनी लाड़ली की। अब इस पाप का बोझा ढोने को हम रह गए हैं।“

अम्मा बताती हैं, पोता जन्मा है, सुनकर, वही दादी खुशी के मारे अम्मा की बलैयाँ लेते नहीं थकती थीं। भइया को सीने से चिपटाए, दादी अपनी किस्मत सराहती थीं। बचपन में बड़े भइया की अजीबोगरीब हरकतें, उनका असामान्य क्रोध, सबके मनोरंजन का कारण था। अम्मा के शब्दकोश में मानसिक विक्षिप्तता जैसा कोई शब्द ही नहीं था। जैसे-जैसे भइया बड़े होते गए उनकी असामान्यता स्पष्ट होती गई। अगर भइया बुद्धिहीन होते तो भी बात सही जा सकती थी, पर उन्हें गुस्से के ऐसे दौरे पड़ते कि घर-भर काँप जाता। हाथ में आई कोई भी चीज किसी के सिर दे मारना उनके लिए सामान्य बात थी। एक बात और, जब उन्हें ऐसे दौरे पड़ते तो चुन-चुन कर ऐसी अभद्र-अश्लील गालियाँ देते, जिन्हें अच्छेे घरों में सुनना भी पाप माना जाता। जैसे-जैसे वह जवान होते गए, गालियों के साथ अनकी लड़कियों की चाहत भी बढ़ती गई। डाँक्टर का कहना था, इस रोग में सेक्स के प्रति जबरदस्त आकर्षण होता है। शायद उनकी शादी कर देने में, बाबूजी के मन में यह बात भी रही हो।

बड़े बेटे की असमर्थता और विक्षिप्तता का ज़हर अम्मा जीवन-भर पीती रही थीं। ऐसे बेटे के साथ, कोख से और बच्चों को जन्म देने वाली अम्मा की हिम्मत पर नीलांजना को आश्चर्य होता है। अगर वह भी भइया जैसी ही होती तो? उस समय भी इस कल्पना से नीलांजना को कॅंपकॅंपी-सी आ गई। आठ बच्चों में से बस भइया और नीलांजना ही जीवित बचे थे। विधाता के इस क्रूर मजाक को अम्मा कभी नही भूल पातीं, काश उनका एक भी बेटा जीवित बच पाता जो दादी का सपना पूरा करता। दादी की बड़ी साध थी, उनकी अर्थी को उनका पोता कंधा दे। उन्हें विश्वास था उसके कंधे चढ़ वह सीधे स्वर्ग जाएँगी, पर उनकी मृत्यु के समय भी स्वर्ग जाती दादी को, बड़े भइया ने चुन-चुन कर कोसा था। पता नहीं दादी उन शब्दों पर सवार कहाँ पहुँची होंगी!

बचपन से भइया का चीखना-चिल्लाना सुनती नीलांजना बड़ी हुई थी। मुहल्ले-पड़ोस के लोगों के लिए भइया का अनर्गल प्रलाप मनोरंजन का साधन था। जिन एकाध दिनों घर में शांति रहती, पड़ोसी बालिका नीलांजना से कोंच-कोंच कर पूछते,

”क्या बात है नीलू, आज तुम्हारे घर में बड़ा सन्नाटा है? क्या सब लोग कहीं बाहर गए हैं?“

”नहीं तो, अम्मा खाना बना रही हैं और भइया सो रहे हैं।“ प्रायः दौरों के बाद भइया दो-एक दिन गहरी नींद सोया करते थे।

”अच्छा-अच्छा, शायद उन्हें डाँक्टर ने सोने की सुई दी होगी?“

”सुई क्यों देंगे, भइया तो अपने आप सोए हैं।“ भोली नीलांजना उनके अधरों की व्यंग्य-भरी मुस्कान का अर्थ नहीं समझ पाती थी।

”काश वह हमेशा के लिए सो जाए, इस नन्हीं जान को तो मुक्ति मिलती। उसका कलंक इसे भी खा जाएगा।“ मुहल्ले की सुमित्रा ताई बचपन से नीलांजना को बहुत प्यार करती थीं, पर भइया के लिए कही वैसी बातों पर नीलांजना मचल जाती,

”ऊॅंहूँ, तुम बहुत खराब हो ताई, भइया सोते रहेंगे तो हम किससे बात करेंगे?“ कभी-कभी भइया पर जब दौरे नहीं पड़ते, वे नीलांजना के साथ सचमुच ठीक बात करते थे।

”अरे मैं कोई उसकी दुश्मन थोड़ी हूँ बेटी, मैं तो तेरे भले की सोचती थी............“

ताई की उस बात का अर्थ अब नीलांजना अच्छी तरह समझती है। भइया के कारण, पूरे परिवार ने अपने को घर की चहारदीवारी के अन्दर कैद कर लिया था। ऐसे बेटे को लेकर किसी रिश्तेदारी में जाना भी संभव नहीं था। भइया के कारण नीलांजना ने भी कम अपमान नहीं झेला था। साथ की सहेलियाँ जब भी उससे पराजित होतीं तो ‘पगले की बहन पगली’ कहकर उससे अपनी पराजय का पूरा मूल्य चुका लेतीं। आँखों से आँसू ढलकाती नीलांजना भी अम्मा की गोदी में सिर छिपा उन्हें उलाहना दे डालती,

”तुम बहुत गन्दी हो अम्मा, इत्ता गन्दा भइया क्यों लाई? सबके भाई कित्ते अच्छे हैं। मेरा भाई गंदा है, वो पागल हैं.....“

”छिः बेटी, भाई को ऐसे नहीं कहा जाता। भगवान से प्रार्थना कर, तेरा भाई ठीक हो जाए, फिर वह तुझे खूब प्यार करेगा नीलू।“

अम्मा की उन बातों पर नीलांजना को कितना विश्वास था! भगवान से उसने कितनी विनती की कि वो उसके भइया को ठीक कर दें। उसके भइया को कोई पागल न कहे। पर भगवान ने उसकी कहाँ सुनी थी!

जैसे-जैसे नीलांजना बड़ी होती गई, भाई की विक्षिप्तता उसे विचलित करती गई। बचपन में भाई जब चीखता-चिल्लाता, वह कौतुक से उस दृश्य को देखती। कभी-कभी बाबूजी मोटा डंडा उठा उनकी पिटाई भी कर देते, उस समय उसका बाल-हृदय भाई के लिए करूणा से रो उठता। एक बार उसने बाबूजी के हाथ में अपने दाँत भी गड़ा दिए थे। बदले में बाबूजी का करारा थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा था।

समझदार होती नीलांजना के सामने स्थिति स्पष्ट होती गई थी। उसका परिवार औरों से अलग क्यों है? असामान्य भाई के लिए उसके मन में करूणा के साथ आक्रोश भी उभरता था। भइया के सामान्य रहने का अर्थ गाली-गलौज बन्द रहना होता था। किसी के प्रति उनके मन में प्यार या ममता जैसे भाव नहीं थे। युवा होती नीलांजना को भाई एक खतरनाक जीव-सा लगने लगा था। वह प्रायः उसके सामने पड़ने से कतराती।

एक दिन सुमित्रा ताई ने अम्मा से कहा था, ”बहू, नीलू को सुरेश के पास अकेले मत छोड़ना। तू तो सब समझती है। सुरेश में कोई समझदारी तो है नहीं....................“

उस दिन से अम्मा भी नीलांजना के प्रति विशेष रूप से सतर्क रहने लगी थीं। स्वयं नीलांजना कितना डर गई थी!

एक बात के लिए नीलांजना अम्मा-बाबूजी और दादी को कभी क्षमा नहीं कर सकती, उन्होंने भइया को मंेटल हाँस्पिटल में सबके लाख समझाने के बावजूद भर्ती क्यों नहीं कराया। शहर के डाँक्टर की दवा से उन्हें नींद भले ही आ जाती, पर उनकी विक्षिप्तता में कोई अन्तर नहीं आता। डाँक्टर का कहना था, भइया के मस्तिष्क की बनावट में जन्मजात जो कमी है, उसकी क्षति-पूर्ति संभव नहीं।

नीलांजना बाबूजी से बार-बार भइया को किसी मेंटल हाँस्पिटल में भर्ती कराने की विनय करती एपर अस्पताल मे भेजने के नाम पर ही अम्मा अन्न-जल त्याग, रोना शुरू कर देतीं। स्वयं बाबूजी की भी यही दलील थी कि लड़के को पागलखाने में भर्ती कराने से परिवार का सम्मान मिट्टी में मिल जाएगा। लोग क्या कहेंगे, मुख्तार साहब का बेटा पागलखाने में है। लड़की की शादी मुश्किल हो जाएगी। पता नहीं बाबूजी ये कैसे सोच पाते थे कि भइया के घर में रहने से नीलांजना की शादी आसान हो जाती। व्यंग्य की एक मुस्कान नीलांजना के ओठों पर तैर आई थी।

घर के असामान्य वातावरण, भइया के चीखते-चिल्लाने का आक्रोश नीलिमा के काँलेज की डिबेटों में उतर आता। विरोधी पक्ष की बात इस तरह काटती कि उनसे कोई जवाब ही न बन पाता।

ऊपर से बेहद सामान्य और शान्त दिखने वाली नीलांजना के अन्तर में अन्धड़-सा चलता रहता। बाबूजी जहाँ भी उसकी शादी के लिए जाते भइया का नाम वहाँ पहले पहुँच जाता। नीलांजना हमेशा सोचती, अम्मा के उन छह बच्चों की जगह भैया क्यों न चले गए! काश वह चले जाएँ......‘कभी-कभी नीलांजना बेवजह लोगों से उलझ पड़ती। सामान्य कही गई बातों में छिपे अर्थ पढ़ने की कोशिश करती। सबसे ज्यादा गुस्सा उसे भइया पर आता, स्वयं असामान्य होते हुए भी वह तो सामान्य जीवन जी रहे थे और सामान्य नीलांजना, असामान्य जीवन जीने को विवश थी। अनजाने ही नीलांजना अपने आप में कई काम्प्लेक्स डेवलप कर बैठी थी।’

अगर कभी किसी लड़के ने नीलांजना की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया, नीलांजना ने उसे झिड़क दिया। दोस्तों में सिर्फ उषा ही उसके निकट आ सकी थी। अपने मन की बात उषा से कह, नीलांजना हल्की हो जाती थी। बी.ए. के बाद नीलांजना ने एम.ए. में दाखिला ले लिया और उषा उसी शहर में नौकरी कर रही थी। उषा के पिता के स्वर्गवास के बाद उसके बड़े भाई ने घर को सम्हाला था। अब उषा भाई के हाथ मजबूत करने को दृढ़-प्रतिज्ञ थी। अपनी शादी की बात उसने भुला दी थी।

”जब तक बिना दहेज कोई शादी का प्रस्ताव नहीं आता, मैं विवाह नहीं करूँगी। भइया ने इस लायक बनाया यही क्या कम है नीलू, अब उन पर और बोझ डालना ठीक नहीं है न?“ कितनी बार नीलांजना सोचती, काश उसके भइया भी उषा के भाई जैसे होते!

दृढ़ निश्चय के साथ आँसू पोंछ, नीलांजना उठ खड़ी हुई थी। इस समय उषा की उसे सख्त जरूरत महसूस हो रही थी।

दरवाजा खोलते ही, उड़े-उड़े चेहरे, अस्त-व्यस्त वेशभूषा के साथ खड़ी नीलांजना को देख, उषा चैंक उठी थी-

”अरे नीलू...... क्या हुआ, तबियत तो ठीक है?“

”सब बताती हूँ, पहले अन्दर तो आने दो।“

नीलांजना को अन्दर आने की राह दे, उषा ने दरवाजा बन्द कर दिया था।

”एक कप चाय मिलेगी उषा?“

”अभी लाई...........“

नीलांजना को चाय थमाती उषा की सवाल पूछती निगाहें उसके मुख पर जमी हुई थीं। एक घूँट चाय गले से नीचे उतार नीलांजना ने उषा को जवाब दिया था,

”भइया नहीं रहे उषा!“

”क्या ......कब........कैसे?“

”बता पाना उतना आसान नहीं, तुझे मेरी मदद करनी होगी उषा।“

”तू बता तो सही, क्या हुआ नीलू?“

”काजल भाभी को पुलिस ले गई है।“

”क्या..........आ..........“

”हाँ उषा, भइया के बलात्कार से बचने के लिए उसने बाबूजी के डंडे से उनके सिर पर वार किया और भइया...........“

”हे भगवान, ये क्या किया भाभी ने!“

”वही, जो उन्हें बहुत पहले करना चाहिए था।“

”ये तू क्या कह रही है नीलू, होश में तो है?“

”पूरे होश में तो अब आई हूँ। पिछले दो दिनों से जो भी संशय थे, सब छंट गए हैए उषा। काजल भाभी को मुक्ति मिलनी ही चाहिए।“

”तेरे भाई की उन्होंने हत्या की है और तू.........?“

”हाँ उषा, उन्होंने हत्या नहीं की, अपनी असहनीय यातना का अन्त किया है। बलात्कार के विरूद्ध रक्षा का अधिकार स्त्री को है न?“

”छिः नीलू,एतू ये कैसी भाषा बोल रही है! पति अपनी पत्नी के साथ बलात्कार.....छिः छिः!“ उषा का मॅुंह विकृत हो उठा था।

”बलात्कार का मतलब जानती है न उषा? विवाह की प्रथम रात्रि काजल भाभी की दहशत-भरी चीखें सुनाई दी थीं। घर के सारे प्राणी जगते हुए भी सोने का बहाना किए पड़े रहे। मैंने उठने की कोशिश की तो अम्मा ने जबरन रोक दिया था, ऊपर से डाँट लगाई थी, ‘नए ब्याहलों के कमरे में तेरा क्या काम! खबरदार जो वहाँ गई।’“

”चाचाी ने हॅंसते हुए कहा था, ‘अरे भोली लड़की है, पहले-पहले ऐसा ही होता है बेटी, तू सो जा।’“

”तभी काजल भाभी हाँफती दौड़ी आई थीं, साँस घोंकनी-सी चल रही थी, साड़ी का आँचल पीछे घिसटता आ रहा था-

‘मुझे बचा लीजिए, मैं वहाँ नहीं जाऊॅंगी.... अम्मा जी, मुझे बचा लीजिए।’“

”भाभी के पीछे दहाड़ते आए भइया ने उन्हें दबोच लिया था। उनकी पकड़ में पंख कटी गौरैया-सी भाभी छटपटा रही थीं। मैंने भाभी को बचाना चाहा तो अम्मा न हाथ पकड़ खींच लिया था।“

”सुबह भाभी के पूरे शरीर में पड़ी खरोचें, टूटी चूड़ियों से बने जख्म-तब मैंने वैसा ही समझा था उषा, पर उसके बाद वे जख्म कभी नहीं भरे थे। हाँ भाभी ने उन्हें अपनी नियति मान स्वीकार कर लिया था। वैसे भी वह जा भी कहाँ सकती थी! डनके लिए तो सारे दरवाजे बन्द थे।“

”भइया की शादी क्यों की गई एनीलू?“ उषा सिहर उठी थी।

”अम्मा-बाबूजी को उनके कुछ शुभचिन्तकों ने सलाह जो दी थी कि भइया शादी के बाद ठीक हो सकते है। उन्होंने तो अनगिनत उदाहरण भी दे डाले थे। तू तो जानती है उषा, जिस देश में लड़कियाँ तीस-चालीस रूपयों में बेची जा सकती हैं वहाँ एक एक्सपेरिमेंट के लिए एक जीवन बलि चढ़ गया।“

”अफ़सोस यही है कि इस त्रासदी की साज़िश में मैं भी सहभागी हूँ। अपना विरोधी स्वर ऊॅंचा क्यों न उठा सकी! काश भाभी की शादी एक मजदूर से हो जाती तो वह कितनी सुखी होतीं!“

”उनके चाचा तेरे भइया की दिमागी हालत जानते थे एनीलू?“

”बहुत अच्छी तरह। उन्होंने अनाथ भाई की बेटी के लिए घर और वर दोनों दे दिए। धन्य हैं ऐसे चाचा। ऐसे ही धर्मात्मा लड़की को कोठे पर न भेज, शादी का लाइसेंस दिला, उस पर बलात्कार की खुली छूट देते हैं।“

”धिक्कार है ऐसे चाचा पर! मुझे मिल जाए तो जान से मार डालूँ, नीच-कमीना!“ उषा उत्तेजित हो उठी थी।

”कभी तो ऐसा लगता है उषा ये सारी दुनिया बलात्कारियों से भरी पड़ी है। शराफ़त के मुखौटे लगाए, ये समाज में खुले घूमते हैं, जहाँ मौका मिला नहीं कि मुखौटा उतार फेंकते हैं। तू ही सोच, अम्मा को आठ बच्चों की माँ बनाने में क्या बाबूजी ने उनकी खुशी-नाखुशी देखी होगी? न जाने कितनी बार उन्हें जबरन वो सब कुछ झेलना पड़ा होगा। एक अम्मा ही क्यों, घर-घर की यही कहानी है। औरत दिन-भर घर की चक्की में पिस चूर-चूर हो जाए, पर पति की इच्छा के आगे उसे समर्पण करना ही पड़ता है। इच्छा-विरूद्ध जबरदस्ती क्या बलात्कार नहीं हैए उषा?“नीलांजना की आँखें जल उठी थीं।

”सच नीलू, तेरी बातों से तो यही लगता है, कभी अपने घरवाले भी बलात्कार की साज़िश में शामिल होते हैं।“

”सामूहिक बलात्कार में असहनीय शारीरिक-मानसिक कष्ट होता है, पर जब पूरा परिवार ही अपनी साज़िश के तहत किसी लड़की पर बलात्कार की परमीशन दे दे, तब उस पीड़ा को क्या नाम देगी एउषा? काजल भाभी के साथ वही हुआ है।“

”उस दिन की बात बताएगी नीलू, जब काजल भाभी ने वो साहसी निर्णय लिया था?“

”पता नहीं भाभी का यह सोचा-समझा निर्णय था या सब कुछ अचानक घट गया। सच तो ये है, कई बार मेरे दिल में भी भइया को ख़त्म करने की बात आई थी, पर उस ख्याल को हमेशा जबरन परे कर दिया। शायद भाभी के मन में भी दुविधा रहती होगी।“

”उस दिन भइया को खाना खिलाने गई भाभी को भइया ने अपनी फौलादी बाँहों में जकड़ उनके शरीर को बुरी तरह दाँतों से काटना शुरू कर दिया था। भाभी का प्रतिरोध उनकी शक्ति के सामने ठहर नहीं सकता था। शायद पिछले दो-तीन दिनों से भइया के आक्रमणों से घबराकर, भाभी रात में बाहर से उनका कमरा बन्द कर, स्वयं बरामदे में सो जाती थीं। उस दिन शायद भइया उनसे पूरा बदला ले रहे थे। रातों में भइया की गालियों की बौछार सब सुनते थे-“

”‘कहाँ भाग गई स्साल्ली इधर आ। खोल मेरा कमरा।’“

”काजल भाभी के शरीर की चाहत में, वह जो कुछ कहते, बता पाना कठिन है एउषा। अम्मा ने भाभी को उनके कमरे में सोने को जब विवश करना चाहा तो मैं झल्ला पड़ी थी-“

”‘अम्मा, तुम लाख चाहो, भइया को भाभी ठीक नहीं कर सकतीं। पिक्चरों में दिखाई कहानियाँ हमेशा सच नहीं होती, समझी!’ अच्छा हो हम लोग उन्हें अकेला छोड़ दें। वह भइया की भलाई के लिए भी तो उन्हें अपने से अलग रख सकती हैं न?“

”हाँ, उस दिन काजल भाभी की दहशत-भरी चीखों पर जब तक सारा घर पहुँचा, खून से लथपथ भइया अंतिम साँसें ले रहे थे और बदहवास काजल भाभी ने दौड़ कर अपने को कमरे में बन्द कर लिया था। कुछ दिन पहले सुमित्रा ताई ने ठीक कहा था,

‘सुरेश के पास बहू को अकेले नहीं भेजना, किसी के साथ भेजो या सुरेश के हाथ बाँध कर रखो, वर्ना कुछ भी हो सकता है। मुझे तो उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं लगती नीलू की माँ।’“

”अम्मा को ताई की वो बात कितनी बुरी लगी थी, पर सच तो ये था कि भइया की दिन-ब-दिन खराब होती दिमागी हालत उन्होंने भाँप ली थी। हम लोग उन्हें झेलने के अभ्यस्त हो चुके थे शायद इसीलिए फ़र्क पता नहीं लगता था। सच कहूँ उषा, पिंजड़े में बन्द खॅूख्वार जानवर के सामने भाभी को हम सब परोसते रहे- इस उम्मीद में कि शायद भइया ठीक हो जाएँगे।“ नीलांजना का स्वर कडुआ आया था।

”काजल भाभी को पुलिस में किसने दिया है नीलू?“

”सब कुछ इतना अचानक घटा कि किसी को होश ही नहीं था। पड़ोस के रामलाल जी ने फ़ोन करके पुलिस बुला ली थी। उत्तेजित बाबूजी ने काजल भाभी के खिलाफ़ रिपोर्ट लिखा दी। कोख-जाए के लिए अम्मा-बाबूजी विकल थे। जिसकी ज़िंदगी मौत से बदतर थी, जिसके मरने की मन-ही-मन सब कामना करते थे। मौत के बाद वह कितना प्रिय हो उठा था, बता नहीं सकती........।“

”बेचारी काजल भाभी .... उनका क्या होगा?“

”उन्हीं की मदद हमें करनी है उषा। मैं भरी अदालत में भाभी के ऊपर हुए अत्याचारों को बताऊॅंगी। वे निर्दोष हैं। दोषी हम लोग हैं जिन्होंने उन्हें इस स्थिति तक पहुँचाय है।“

”एक बार फिर सोच ले, तेरे इस फैसले का अम्मा-बाबूजी पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। अच्छा हो उन्हें ही समझा, शायद गुस्सा ठंडा होने पर वे भाभी को माफ़ कर दें।“

”उन्हें समझा पाना असम्भव है एउषा! बेटे की मौत से वे बदले की आग में जल रहे हैं; पर मैं काजल भाभी को इस आग में नहीं जलने दॅूगी, ये मेरा पक्का फैसला है, भावुकता नहीं।“

”अगर अदालत ने उन्हें छोड़ भी दिया तो वे कहाँ जाएँगी नीलू?“

”दुनिया बहुत बड़ी है उषा, किसी महिला संस्था में कहीं-न-कहीं उन्हें शरण जरूर मिलेगी।“

”पर उनके माथे पर हत्या का कलंक लग गया है, समाज उन्हें जीने नहीं देगा।“

”लंदन में यही भारतीय स्त्री अत्याचारी पति को जलाकर मुक्ति पा सकती है, अपना नया जीवन जीने को स्वतंत्र है, फिर यहाँ वैसा क्यों संभव नहीं है उषा, इसीलिए न कि हम लड़कियों को बचपन से पति की क्रीत दासी का रोल निभाने की ट्रेनिंग दी जाती रही है? लड़कियों की इस भूमिका में बदलाव लाना है उषा। मैं उन्हें अपने पास रखॅूगी, उसके लिए किसी का भी विरोध सह सकती हूँ मैं, पर भाभी के प्रति प्रायश्चित तो करना ही है। वह अपने पाँवों पर खड़ी हो जाएँ यही मेरा उद्देश्य है। तू मेरा साथ देगी न उषा?“

”मैं तुझसे कब अलग रही हूँ नीलू, बता क्या करना होगा?“ उत्तेजित नीलांजना को मुग्ध दृष्टि से ताकती उषा के स्वर में दृढ़ निश्चय था।

”सबसे पहले हमें एक वकील करना है, भाभी को तुरन्त ज़मानत पर छुड़ाना जरूरी है। एक बात और, अभी मेरे पास भाभी को रखने की कोई जगह नहीं है, उन्हें अपने घर रख सकेगी उषा? मुझे काँलेज में जाँब मिल रहा है, वहीं क्वार्टर भी मिल जाएगा, तब तुझे परेशान नहीं करूँगी।“

”इसमें परेशानी की कोई बात नहीं नीलू, पर तेरी नौकरी पर काजल भाभी की वजह से कोई आँच न आ जाए?“ उषा शंकित थी।

”नहीं, उसके लिए मैं पूरी तरह से निश्चिन्त हूँ। काँलेज की प्राचार्या मेरे जीवन के इस कड़वे सत्य से अच्छी तरह परिचित हैं। सच कहूँ तो उन्होंने हमेशा मुझे हिम्मत दी है, वर्ना मैं अपनी कुंठाओं में जकड़, शायद कुछ न कर पाती। उन्होंने मेरी कुंठाएँ दूर कर, मुझे आत्मविश्वास दिया हैं।“

”तब क्यों न हम उन्हीं के पास चलें, वही किसी अच्छे वकील की व्यवस्था कर देंगी। उनका अनुभव हमारे लिए जरूरी है नीलू।“

”हाँ, यही ठीक रहेगा। वैसे भी अपने इस फैसले के बाद वापस घर तो लौट नहीं सकती। मेरे रहने की भी उन्हें ही व्यवस्था करनी होगी।“

मॅुंह पर आयी उत्साह की चमक के साथ नीलांजना प्राचार्या के घर जाने को उठ खड़ी हुई थी।