12/4/09

क्षति-पूर्ति

”देख लेना, गीता तो पहले ही मनमानी कर हमारी नाक कटा चुकी, अब नीता की बारी है। दोनों लड़कियाँ हमें मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ेंगी।“ आखिरी बात कहते-कहते मम्मी का गला भर आया था।


हमेशा की तरह पापा मुंह नीचा किये मम्मी की बात सुनते रहे। जीवन के बाईस बरस उन्होंने मम्मी के आक्षेप सुनते ही काटे हैं। विदेश में पापा ने उनके लिए सारी सुख-सुविधाएँ जुटा दीं, पर मम्मी अपने निर्वासन का रोना ही रोती रहीं। कभी दोनों बेटियों ने मिलकर मम्मी को समझाना चाहा, तो वह बिसूरना शुरू कर देतीं-

”तुम लोग क्या जानो, अकेलापन तो मुझे डसता है। तुम सबकी अपनी-अपनी दुनिया है। रह गयी मैं अकेली, तो तुम्हें मेरे मरने-जीने से क्या?“

”पर मम्मी, ये अकेलापन तो आपका अपना ही ओढ़ा हुआ है न! यहाँ ढेर सारी आंटी लोग भी तो भारत से आयी थीं, उन्होंने अपने को कितनी अच्छी तरह एडजस्ट कर लिया है। आप भी क्यों नहीं उनकी तरह...“

गीता की बात काट, मम्मी नाराज हो उठती,
”रहने दे और आंटियों की बात। अगर उनकी तरह किटी- पार्टियों में जाकर मजे उड़ाती, तो आज तुम दोनों अनाथ की तरह पलतीं।“

”अच्छा होता, उनकी तरह हम भी खुली हवा में साँस तो ले पाते। क्या कमी है उनकी जिंदगी में? शैली, सोनिया, मोनिका सब कितनी खुश रहती है! यहाँ हमारे घर में हर समय पटना-पुराण ही चलता रहता है।“

”छिः बेटी, ऐसी बात नहीं करते।“  पापा धीमी आवाज में गीता का आक्रोश शांत करना चाहते।

”तुम रहने दो जी, तुम्हारी ही शह पर ये लड़कियाँ इतनी उद्दंड हो गयी है। अगर मेरे यहाँ रहने से सबको तकलीफ होती है तो मुझे पटना भेज दो। वहाँ मेरे भाई-भतीजे हैं,  सुख से रहूँगी-सिर-आँखों लेंगे सब।“

”भाई-भतीजे तुम्हारी गिफ्ट्स के कारण तुम्हें मान देते हैं वर्ना...........“ गीता की बात अधूरी रह जाती।

”क्या कहा,  वे लालची हैं? मेरे उपहारों के भूखे हैं? जानती नहीं बड़े भइया का वहाँ कितना बड़ा कारोबार है। तेरे पापा जैसे दस इंजीनियर उनके पाँव तले पड़े रहते हैं।“

”बस करो मम्मी,  तुम तो हद कर देती हो। पापा जैसे जीनियस इंजीनियर को मामा पाँव तले रखकर तो दिखायें......“ छोटी बेटी नीता तमक उठती।

इतना सब सुनने के बावजूद भी पापा का निःशब्द बाहर चले जाना दोनों बेटियों को खल जाता था। यहाँ का ऐश्वर्यपूर्ण जीवन क्या भारत में सहज ही पाया जा सकता था! खुद मम्मी बताती हैं, पापा को वहाँ बस ढाई सौ रूपयों की नौकरी मिली थी। मारीशस के विकास में सड़कों, घरों आदि के निर्माण के लिए इंजीनियरों की जरूरत थी। पापा को यहाँ न केवल अच्छी नौकरी मिली,  बल्कि अपने काम से उन्हें बहुत नाम भी मिला। आज पापा को देश में हर जगह जाना जाता है,  पर मम्मी आज बाईस वर्षो बाद भी अपनी जगह- जमीन से ही जुड़ी रह गयी हैं। यह देश उन्हें हमेशा बेगाना लगता है। पापा से झगड़ा करने के लिए मम्मी को रोज कोई बहाना चाहिए।

”आज ड्राईवर नहीं आया,  मैं मार्केट तक नहीं जा पायी।“

”तुम फोन कर देतीं तो मैं आ जाता,“ दबे स्वर में कही गयी पापा की बात मम्मी को और उत्तेजित कर देती।

”हाँ-हाँ, मेरे लिए तो आपके पास वक्त ही वक्त है। जब मर रही थी, तब तो एक दिन घर पर रूके नहीं, अब खरीददारी कराएँगे। इतना ही ख्याल था, तो क्यों यहां लाकर डाल दिया। न जाने क्या पाप किये थे, जो काले-पानी की सजा भुगत रही हूँ।“

हर बात घूम-फिरकर उसी प्वांइट पर आ जाती। कभी उनकी बीमारी में पापा को आँफिस जाना पड़ गया था,  मम्मी उस बात का जब-तब हवाला दे, पापा को दुखी करती रही हैं। न जाने क्यों, वर्षो बाद भी मम्मी अपने को यहाँ अजनबी बनाये हुए हैं। यहाँ पहुंचने पर पापा ने उन्हें कार चलाना सिखाना चाहा था,  ताकि वह कहीं भी आ-जा सके। स्कूल में उन्हें आसानी से नौकरी मिल रही थी,  पर मम्मी ने तो हर उस काम को न करने की कसम खा रखी थी,  जिससे पापा को थोड़ी-सी खुशी मिल पाती। काँलेज में एन.सी.सीस की कैडेट मम्मी ने यहाँ पहुँचते ही अपने को एकदम समेट-सिकोड़ लिया था। घर की सबसे छोटी लाड़ली बेटी मम्मी, श्वसुर-गृह की जिम्मेदार बहू नहीं बन सकीं।

पति और बच्चों के भरे-पूरे घर में भी मम्मी अपना पटना का घर ही खोजती रहीं। इस देश को उन्होंने कभी अपना नहीं माना। कभी तो लगता उन्हें बेटियों से भी वैसा लगाव नहीं रहा, शायद इसलिए कि वे मारीशस में जन्मी थीं।

गीता ने जब घर में राहुल से अपनी शादी की घोषणा की,  तो मम्मी कई पल अवाक् ताकती रह गयी थीं। अंततः उनके अपने रक्त ने ही उन्हें धोखा दिया। विदेशी युवक से विवाह करेगी, उनकी अपनी बेटी....?

”राहुल विदेशी कैसे हुआ मम्मी?  उसका ओरिजिन तो भारतीय ही है। उसके परदादा तुम्हारे पटना के ही किसी गाँव से यहाँ आये थे, समझीं!“ अपनी बात सपाट शब्दों में रख,  गीता अपने निर्णय पर अडिग रही थी।

”अरे बॅंधुआ मजदूर थे उसके परदादा, उसे हमारी बराबरी मे ला रही है तू?“

”तुम्हारी बराबरी में नहीं,  उन्हें मैं तुमसे बहुत ऊपर रखती हूँ, मम्मी! वह विजेता थे, अन्याय का प्रतिकार कर उन्होंने विजय पायी थी।“

मम्मी बेहोश हो गयी थीं, पापा मम्मी के मुंह पर पानी के छीटे डाल रहे थे।

”रहने दीजिए पापा, कुछ देर तो घर में शांति रहेगी।“ गीता ने क्षुब्ध स्वर में कहा था।

”छिः बेटी,  ऐसे नहीं कहते, वह तुम्हारी माँ है।“

”बस, इसीलिए उन्हें किसी का अपमान करने का अधिकार नहीं है, पापा!  खासकर मेरे पति-गृह के किसी भी व्यक्ति के विरूद्ध अगर उन्होंने कभी कुछ कहा, तो मेरा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा।“

”ये बात तूने कहाँ से, किससे सीखी, गीता?“ बेटी के वाक्यों ने उन्हें विस्मित कर दिया था।

”क्यों पापा, आपको ताज्जुब हो रहा है? ये बातें तो हर भारतीय लड़की घुट्टी में पीकर बड़ी होती है न?“

”पर तूने.... मेरा मतलब तुझे ये घुट्टी किसने पिलायी है, बेटी?“

चाहकर भी पापा स्पष्ट शब्दों में अपनी बात नहीं पूछ पा रहे थे। शादी के बाद से अपनी धन-संपत्ति का बखान करती मम्मी से,  सरस्वती के धनी पापा के कितने व्यंग्य-वाक्य सुनने पड़ते थे! पापा को धन का कभी मोह नहीं रहा,  पर मम्मी के तानों से तंग आकर ही शायद उन्होंने विदेश में नौकरी का निर्णय लिया था। पापा के इस निर्णय को भी मम्मी ने अपने निर्वासन की सजा कह नकार दिया था।

”अगर इनमें काबलियत थी, तो क्या भारत में अवसरों की कमी थी? यहाँ अनपढ़ मजदूरों के देश में अंधों में राजा बने बैठे हैं।“

कुछ देर शांत बैठे पापा ने गीता के सिर पर हाथ धर,  धीमे शब्दों में कहा था,
 ”आज अभी तूने जो कुछ कहा,   उसे मत भुलाना, गीता। भगवान तुझे सुखी रखे।“

गीता की शादी में मम्मी ने बेहद रोना-धोना मचाया, पर पापा ने शांत रह उनका हर प्रतिरोध व्यर्थ कर दिया। पूरे विवाह समारोह में मम्मी की नकारात्मक भूमिका को पापा अकेले झेलते गये। विदा के समय गीता पापा के सीने से चिपट बिलख उठी थी-

”पापा, अपना ख्याल रखिएगा। जब जी चाहे हमारे पास चले आइएगा।“

”ठीक है बेटी...... तू चिंता मत कर।“

”तुम परेशान न हो दीदी, पापा को देखने के लिए मैं जो हूँ।“ नीता की उस बात ने गीता को सहारा दिया या नहीं, पर मम्मी का क्रोध चरम सीमा को छू गया था।

”हाँ-हाँ, मैं तो जीते जी सबके लिए मर गयी हूँ न। जो जिसके जी में आये करो।“

गीता के चले जाने से घर में और ज्यादा सन्नाटा घिर आया था। वक्त-बेवक्त गीता को याद करती मम्मी उस घड़ी को कोसतीं, जब उनकी कोख से उस करमजली ने जन्म लिया था-

”पढ़ने जाने के बहाने स्कूल में रास रचा रही थी, कमबख्त।“

आज नीता के साथ राज को आते देख मम्मी का क्रोध उबल पड़ा था।

”देख नीता, एक बहन तो हमारे मुंह पर कालिख पोत गयी, अब तेरे ये ढंग नहीं चलेंगे, समझीं?“

”वाह, गीता दीदी-सा भाग्य मेरा कहाँ? दीदी तो राज कर रही हैं। सच, क्या ठाठ हैं उनके!  जीजाजी बेचारे उनका मुंह ही देखते रहते हैं।“

”अगर तूने भी वैसा ही करने की ठानी है तो मैं कहे देती हूँ मैं जहर खा लूंगी,  बाद में बैठी रोती रहना।“

”तुम तो मम्मी बात-बेबात शोर मचाये रहती हो। अगर राज मेरे साथ यहाँ तक आ गया,  तो क्या हुआ? आखिर हम दोनों साथ पढ़ते हैं।“

”हाँ-हाँ, मैं जानती हूँ,  गीता को भी तो वह घर छोड़ने ही आता था ना!  हे भगवान, इससे तो अच्छा मुझे मौत दे दे!“

उन्हीं दिनों पापा को माइल्ड हार्ट अटैक पड़ चुका था। मम्मी का रोना-झींकना बदस्तूर जारी था। मम्मी के चीखने-चिल्लाने से पापा विचलित हो उठते।

”ठीक है मम्मी, एक स्टाम्प पेपर पर वसीयत किये देती हूँ,  तुम्हारी इच्छा के विरूद्ध कुछ नहीं करूँगी। जहाँ जिससे कहोगी, उसी से विवाह करूँगी,  बस!“

”सच, तू मेरे मनपसंद लड़के से विवाह करेगी,  मेरी बात मानेगी?“

”हाँ-कह जो दिया, पर एक शर्त है,  आज से पापा से लड़ाई नहीं करोगी,  उन्हें ताने नहीं दोगी वर्ना.........“

”ठीक है, कुछ नहीं कहूँगी,  बस। अब देखना मैं कैसा सुंदर सजीला दामाद लाती हूँ।“

उस दिन से मम्मी का मूड ही बदल गया। फोन पर अपने बड़े भइया से नीता के लिए लड़का खोजने की बात मम्मी बार-बार दोहरातीं-

”हाँ-हाँ, सात-आठ लाख तक तो हम खर्च करेंगे ही,  आखिर अच्छा घर-वर मुफ्त में तो नहीं मिलता। मेरी ही शादी में उस समय तुमने चार-पाँच लाख से क्या कम खर्च किये थे, भइया!“

”देखो मम्मी, अगर तुमने मेरी शादी के लिए दूल्हा खरीदने की कोशिश की तो मैं शादी नहीं करूँगी। पापा का पैसा मिट्टी में बहाने के लिए नहीं है।“

”अरे वाह, तू हमारे रीति-रिवाज क्या जाने!  हमें जो करना है,  करेंगे। बिना दहेज वही लड़की ससुराल जाती है जिसके माँ-बाप कंगाल हों। हमें किस बात की कमी है!“

अंततः मम्मी ने पटना से एक राजकुमार खोज निकाला था। अभी-अभी मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर निकला राजेश सचमुच बेहद शालीन और सुंदर था। उसे देख नीता भी ‘न’ नहीं कर सकी थी।

मम्मी ने स्वप्न देखने शुरू कर दिये थे। नीता के पटना रहने से उनका भारत से टूटा संपर्क जुड़ने जा रहा था। राजेश को पटना में क्लीनिक खोलने के लिए मम्मी ने चुपचाप कितनी रकम दी,  पापा भी नहीं जान सके। बड़े भइया को मारूति कार और सारे घर को सामान खरीदने की जिम्मेदारी दे, मम्मी उत्साह से भर उठी थीं।

उनका खिला मुंह,  हॅंसी-मजाक देख पापा और नीता भी उत्साहित हो उठे थे। सचमुच अपनी जमीन से कट जाना मम्मी की त्रासदी थी। भाई-भतीजों के बीच हॅंसती-खिलखिलाती मम्मी,  सब पर अपना प्यार बरसाती परितृप्त दिखती थीं। उनका यह रूप नीता के लिए सर्वथा नया था। मम्मी के मोहल्ले-टोले की पोपले मुंहवाली उनकी चाची-ताई, उन्हें सीने से लगा धार-धार रो उठी थीं,
”वहाँ जाकर हमें एकदम बिसरा दिया, बिटिया?“

उनके कंधे पर सिर धर, मम्मी जी भर रोयी थीं। अपनी पुरानी सखी-सहेलियों को पा, मम्मी अपने बीते वर्ष फलाँग, बच्ची बन गयी थीं। मम्मी ने तो अब हल्के स्वर में पापा से भारत- वापसी की बातें भी शुरू कर दी थीं-

”देखो जी, बहुत दिन काले पानी की सजा भुगत ली,  अब नीता की शादी निबटा हम अपने घर वापस आ जाएँगे। हम दोनों को और क्या चाहिए?“

भारत इतना सुंदर है, इस बार ही नीता जान सकी। मामा-चाचा के घर, सब बेहद अपनेपन से मिले। नीता की शादी के लिए सब मम्मी-पापा की तरह ही उत्साहित थे। परिवार की स्त्रियों ने नीता को दो दिने पहले पीली साड़ी पहना हल्दी-तेल की रस्म शुरू कर दी थी। पूरी रात ढोलक पर गाये जाने वाले गीत नीता के मन को गुदगुदा जाते। गीता दीदी की शादी में वो सब उत्साह कहाँ था! कितनी सूनी थी वह शादी!

पपा ने शादी के लिए जब होटल लेने की बात कही, तो बड़े मामा नाराज हो उठे थे,
”ये क्या कह रहे हैं! क्या नीता हमारी बेटी नहीं? इतना बड़ा घर रहते होटल की क्या दरकार है?“

मामा-चाचा ने शादी का पूरा इंतजाम अपने हाथ में ले,  पापा को चिंता-मुक्त कर दिया था।

धूमधाम से नीता का विवाह हुआ था। श्वसुर-गृह से कोई माँग न रहने पर भी मम्मी-पापा ने दहेज जी खोलकर दिया था।

हनीमून के लिए राजेश ने प्रस्ताव रखा था,
”हम मारीशस ही क्यों न चलें?  वहां के सी-बीच देखने की बरसों से तमन्ना थी।“

”उहूँक, हमें नहीं जाना है मारीशस- हम वहाँ नया क्या देखेंगे?  तुम्हें भी तो हजार बार जाना ही होगा, हमें लाने-पहुँचाने। ठीक कहा न?“ नीता ने मचल कर कहा था।

”आपका हुक्म सिर-आँखों। चलिए शिमला चलते हैं, पहाड़ तो आपको नये लगेंगे न!“

खुशी और उमंग में एक महीना कब बीत गया, पता ही नहीं चला। श्वसुर-गृह में नीता सबकी दुलारी बहूरानी थी। घर के सारे सदस्य उसकी छोटी-से-छोटी जरूरतों के प्रति सजग थे। एक दिन हल्का बुखार आने पर सब परेशान हो उठे थे। सास उसके पलंग के पास से नहीं हटी थीं। माथे पर उनका प्यार-भरा हाथ नीता को कितनी शांति दे रहा था!

बीमारी में नीता को मारीशस याद आया था। वहाँ सबका जीवन कितना व्यस्त है! रिश्तों में भी औपचारिकता का निर्वाह भर होता है। पुत्र-जन्म के समय गीता की हालत बहुत गंभीर हो उठी थी। उस स्थिति में भी गीता की सास बाहरवालों की तरह उसे देखने आने की औपचारिकता-भर निभाती रही थीं। मम्मी-पापा ने ही सब सम्हाला था। यहाँ तो घर के दास-दासियाँ भी उसे परिवार-जनों की तरह स्नेह देते हैं। शादी के बाद मुहल्ले-टोले में जहाँ भी गयी, सबने उसके आँचल में मिठाई-फल डाल,  सुखी रहने के आशीर्वाद दिये थे। कहीं कोई बनावट उसने महसूस नहीं की थी।

मम्मी-पापा के कई फोन आ चुके थे। नीता के साथ राजेश को मारीशस जाना था। मम्मी अपने भारतीय दामाद से सबका परिचय कराने को उत्सुक थीं।

उन्हें लेने पापा-मम्मी दोनों एयरपोर्ट आए हुए थे। नीता का प्रसन्न चेहरा देख दोनों के चेहरों पर आश्वस्ति उभर आयी थी। पापा के साथ कार की अगली सीट पर बैठा राजेश मुग्ध दृष्टि से मारीशस का सौंदर्य निहार रहा था।

दस-पंद्रह दिन पार्टियों में घूमने-घुमाने में बीत गये। राजेश तो जैसे सागर-स्नान का दीवाना हो उठा था। उसे समुद्र से बाहर खींच पाना कठिन होता था। नीता को भी जबरन खींच, राजेश खिलखिला उठता था।

”सुनो बहुत दिन एनज्वाय कर लिया। अब हमें घर लौटना चाहिए। माँ-पिताजी हमारा इंतजार कर रहे होंगे।“ नीता को अपना श्वसुर-गृह सचमुच याद आने लगा था।

”तुम्हें एक सरप्राइज देना है, खुशी से उछल पड़ोगी।“ राजेश ने पहेली बुझायी थी।

”सरप्राइज?“

”हाँ, यहाँ मुझे बहुत अच्छा आँफर मिला है। अब तुम्हें अपना देश नहीं छोड़ना पडे़गा।“

”क्या तुम यहाँ सेटल होना सोच रहे हो, राजेश?“

”सौ फीसदी......... तुम्हीं कहो अपने देश में मेरा क्या भविष्य है! तीन-चार हजार रूपल्ली से शुरू करके पूरी जिंदगी बर्बाद करो। जानती हो यहाँ मुझे बीस हजार का स्टार्ट मिल रहा है,  साथ में प्राइवेट प्रैक्टिस की भी परमीशन है।“

”नहीं राजेश, तुम यह आँफर एक्सेप्ट नहीं कर सकते............“

”क्यों नहीं कर सकता! तुम्हें तो इस आँफर से खुशी होनी चाहिए। तुम नही जानतीं वहाँ के दकियानूसी लोगों के बीच तुम्हें एडजस्ट करना कितना कठिन होगा।“

”तुम्हें मेरी चिंता करने की जरूरत नहीं है, मैं वहाँ खुश रह लूंगी.......“

”मैं तो आलरेडी डिसाइड भी कर चुका हूं। कल फाइनल एक्सेप्टेंस भी दे दूंगा।“

”तो मेरी बात भी सुन लो,  मैं यहाँ नही रहूँगी...... मुझे भारत में ही रहना है। तुमसे शादी की यही शर्त थी, राजेश।“

”कमाल करती हो। चार दिन बाद जब वहाँ की असलियत खुलेगी, तो सिवा फ़्रस्टेशन कुछ नहीं मिलने वाला है। किसी भी कीमत पर मैं यह चांस नहीं छोड़ सकता,  क्या मिलेगा भारत जाकर.........?“

”वही जो खोकर मम्मी ने पापा को कभी माफ़ नहीं किया। नहीं राजेश, तुम नहीं समझोगे,  पर हम यहाँ नहीं रह सकते.........“

”एक सच तुम भी सुन लो नीता, तुमने शादी करने के लिए मैं तुरंत तैयार हुआ था, क्योंकि मुझे पता था, इस देश में मेरा भविष्य है। अब तुम्हें निर्णय लेना है, तुम यहाँ मेरे साथ रहोगी या भारत जाना है?“

”मैं अकेली ही भारत जाऊंगी राजेश, क्योंकि मैं वो सब पा लेना चाहती हूँ, जो मम्मी ने यहाँ आकर खोया था। मुझे उनकी क्षति-पूर्ति करनी है, राजेश! मुझे वापस जाना ही होगा........ जाना ही होगा।“

राजेश को स्तब्ध खड़ा छोड़ नीता कमरे से बाहर चली गयी थी।

2 comments:

  1. कहाँ है आप पुष्पा जी ! पिछले तीन वर्ष से आपको ढूँढ़ रहा हूँ। आपकी कहानियाँ जबसे पढ़ी हैं, दीवाना हो गया हूँ। करीब चार साल पहले 'उसका सच' कहानी-संग्रह मुझे मिला था। मैं यहाँ मास्को विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य पढ़ाता हूँ। मैंने अपने रूसी छात्रों को आपके उस संग्रह की सब कहानियाँ पढ़ा डालीं। अब अगले सत्र में हम उनका अनुवाद भी करने जा रहे हैं। 'क्षतिपूर्ति' को तो दूसरे वर्ष के छात्रों के लिए कोर्स में भी लगा दिया है। हिन्दी पढ़ने वाले छात्रों के लिए हिन्दी कहानियों के कोर्स की एक किताब तैयार की है। उसमें 'क्षतिपूर्ति' भी शामिल है। आपकी तस्वीर नहीं मिल रही थी। अब इस ब्लॉग से ले ली है।
    आपकी भाषा कितनी ख़ूबसूरत है। विदेशियों को हिन्दी सिखाने के लिए उसे मानक माना जा सकता है। मैं सबसे यह बात कहता हूँ।
    आपसे मिलने की इच्छा है। मेरा नाम अनिल जनविजय है और मैं साहित्य की दो वेबसाईटों का सम्पादक भी हूँ। कविता कोश तो संभवत: आपने देखा भी हो । दूसरी वेबसाईट है गद्यकोश। दोनों के पते लिख रहा हूँ । समय मिले तो देखिएगा। www.kavitakosh.org और
    www.gadyakosh.org
    मेरा ई०मेल का पता है : aniljanvijay@gmail.com
    आपका ई०मेल का पता मैं ढूँढ़ नहीं पाया। अगर आप मुझसे सम्पर्क कर लेंगी तो ख़ुद को कृतार्थ समझूंगा। शुभकामनाओं सहित ।
    सादर, सविनय
    अनिल जनविजय

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  2. अनिल जी,

    आपने तो मुझे धरती से आकाशीय ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया। भविष्य में उसी ऊंचाई पर बने रहना एक चुनौती ही होगी। प्रयास करूंगी आपको निराश ना करूं।
    हार्दिक धन्यवाद्।
    पुष्पा सक्सेना
    29/ 10/ 2010

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